Question : क्या निरीश्वरवाद भी एक धर्म हो सकता है? चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : धर्म दर्शन में यह महत्वपूर्ण विवाद है कि धर्म के लिए ईश्वर आवश्यक है अथवा नहीं। ईश्वरवदी दार्शनिक अपने धर्म की प्रकृति के अनुकूल यह मानते हैं कि धर्म के लिए ईश्वर अनिवार्य है। मार्टिन्यु, गैलोव और श्लाय मास्टर आदि ईश्वरवादियों ने धर्म की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए उसमें ईश्वर को अनिवार्य तत्व घोषित किया है। प्रो. फ्रिलंट ने तो यहां तक कहा है कि ईश्वरवाद से कम कुछ स्वीकार्य नहीं है और ईश्वरवाद के अधिक कुछ संभव नहीं है।
समस्या यह है कि यह परिभाषा विश्व के सभी धर्मों पर लागू नहीं हो सकती। ऐसे कई धर्म है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, जैसे- बौद्ध धर्म, जैन धर्म और कन्फ्रयुशियस धर्म। कई धर्म ऐसे भी हैं जो प्रकृति को ही अलौकिक रूप देने का प्रयास करते हैं, जैसे- ताओवाद, मानववाद, शेरमवाद इत्यादि। 19वीं-20वीं शताब्दी में आगस्त कांट, जान डयूवी, एविक क्राम और हक्सले जैसे- मानववादियों ने भी नवीन विधि से मानववादी और प्रकृतिमूलक धर्म की स्थापना की है, जिसमें ईश्वर की धारणा अस्वीकार्य है। इन सभी धर्मों को यदि हम धर्म की कोटि में शामिल करते हैं तो मानना होगा कि निरिश्वरवादी धर्म भी संभव है। दूसरा विकल्प यह है कि हम इन सभी का धर्म न मानकर सिर्फ आचार संहिताएं माने, जैसा कि ईसाई ईश्वरवादियों ने माना है।
वस्तुतः निरिश्वरवादी धर्म की संभाव्यता या असंभाव्यता का प्रश्न इस बात पर टिका है कि हम धर्म की क्या परिभाषा स्वीकार करते हैं? यदि हम धर्म के प्रमुख लक्षणों का विनिश्चयन करें तो निम्नलिखित तत्वों को धर्म के लिए अनिवार्य मान सकते हैं:
किसी भी धर्म का निर्धारण उपरोक्त प्रतिमानों के आधार पर किया जा सकता है। उन्हीं आधारों पर हम विश्लेषण कर सकते हैं कि बौद्ध, जैन, कन्फ्रयूशियस तथा अन्य प्रचलित धर्मों के दावे कितने प्रमाणिक हैं।
जहां तक बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं कन्फ्रयूशियस धर्म का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि तीनों में ही ईश्वर की धारणा को अस्वीकार किया गया है। किंतु इसके बाद भी सच यह है कि इन्हें धर्म मानने के लिए पर्याप्त कारण विद्यमान हैं। तीनों धर्म अपने भीतर आस्था रखने वाले व्यक्तियों के संपूर्ण जीवन पर प्रभाव डालते हैं, तीनों ही धर्मों में पवित्र प्रतीकों की व्यवस्था है, जैसे-बौद्धों के लिए त्रिपिटक तथा स्तूप, जैनों के लिए तीर्थंकर की मूर्तियां व स्थानक और कन्फ्रयूशियस धर्म में The Book of changes जैसी पवित्र पुस्तकें। तीनों ही धर्म जागतिक दुःखों से संपूर्ण मुक्ति का आश्वासन निर्वाण, कैवल्य या आत्मा की अमरता के रूप में देते हैं।
प्रार्थना का महत्व और उसकी निश्चित क्रियाविधि तीनों हीधर्मों में है-बौद्धों में आष्टांगिक मार्ग, जैनों में त्रिरत्न और पंचव्रत तथा कन्फ्रयूशियस धर्म में पूर्वज पूजा इत्यादि। तीनों ही धर्म अपने श्रद्धालुओं को नैतिक सूत्र से बांधने का प्रयास करते हैं-बौद्ध या जैन अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि के माध्यम से तो कन्फ्रयूशियस धर्म मानव मात्र के कल्याण के माध्यम से। अतः स्पष्ट है कि ये तीनों धर्म ईश्वर की धारणा को न मानते हुए भी धर्म के ज्ञानात्मक, क्रियात्मक तथा संवेगात्मक तीनों पहलुओं को संतुष्ट करते हैं और इस अर्थ में इन्हें धर्म माना ही जाना चाहिए।
ईश्वरवादियों का आक्षेप है कि ये तीनों धर्म सिद्धांतः निरीश्वरवादी होते हुए भी व्यवहारतः ईश्वरवादी ही हैं। महायानी बौद्ध तो बुद्ध को ईश्वर मानते ही हैं जैनों के तीर्थंकर आलोकाकाश में रहने वाले नित्यजीव हैं और उनकी मूर्तियां भी पूजी जाती है। ऐसी स्थिति चीन में कन्फ्रयुशियस की है। अतः ये धर्म भी वस्तुतः ईश्वरवादी ही है। किंतु ये आक्षेप पूर्णतः उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि ईश्वर की धारणा में सर्वशक्तिमतता, सर्वव्यापकता तथा जगत की निमित्त या निमित्तोपादान कारणता जैसा कोई विचार ये धर्म नहीं मानते। अतः उचित यही है कि उन्हें निरीश्वरवादी धर्म ही माना जाएगा।
प्रश्न यह भी है कि 19वीं और 20वीं शताब्दी में विकसित होने वाले कुछ नये मानववादी तथा प्रकृतिवादी धर्मों को धर्म माना जाए या नहीं। इनमें अगस्ट काम्टे का मानववादी धर्म या प्रत्यक्षवादीधर्म, जान डयूवी तथा हक्सले का प्रकृतिवादी धर्म और जवाहरलाल नेहरू का वैज्ञानिक धर्म प्रमुख है। इन सभी धर्मों ने ईश्वर के साथ-साथ सभी अलौकिक सत्ताओं तथा मिथकों का खंडन किया है। भौतिकवादी, प्रत्यक्षवादी तथा प्रकृतिवादी तत्वमीमांसा और मानववादी नीति मीमांसा को ही इन्होंने धर्मनिष्ठता की भावना के साथ स्वीकार करने को धर्म का नाम दिया है।
किंतु इन दावों को स्वीकार करना पूर्णतः उचित नहीं है। कारण यह है कि कोई भी धर्म मनुष्य को जिस अलौकिक मुक्ति का आश्वासन देता है, वह इसमें नदारद है। मानवतावादी धर्म मानव को अपनी शक्तियों में विश्वास रखने की सलाह देता है, किंतु किसी भी कठिन संकट में भावनात्मक आश्रय नहीं देता है। पुनः सामान्य व्यक्ति की नैतिकता स्वर्ग नरक, कर्म-फल, मोक्ष आदि मरणोत्तर स्थितियों से अत्यधिक प्रभावित होती है जबकि मानववादी धर्म प्रबुद्ध स्वहित पर टिकी जिस नैतिकता का दावा करता है वह सिद्धांततः श्रेष्ठ होने के बावजूद व्यवहारतः काफी कमजोर है।
एक महत्वपूर्ण दावा यह भी है कि मार्क्सवाद जो कि धर्म का कट्टर विरोध करता भी है वस्तुतः एक निरीश्वरवादी धर्म ही है। पाल टिलिक, डेविड एक्रन, सिग्मंड फ्रायड और प्रो. राधाकृष्णन ने मार्क्सवाद को धर्म कहा है। इसका कारण यह है कि मार्क्सवाद के पास एक निश्चित तत्वमीमांसा है, दास कैपिटल और लाल ध्वज जैसे पवित्र प्रतीक हैं, साम्यवाद के रूप में जागतिक दुःखों से संपूर्ण मुक्ति का आश्वासन है और क्रांति के सिद्धांत के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता तथा निश्चित क्रियाविधि भी विद्यमान है। तब भी यह निष्कर्ष उचित नहीं है, क्योंकि मार्क्सवाद न तो निर्वाण या स्वर्ग जैसी किसी अलौकिक स्थिति या सत्ता को स्वीकारता है और न ही धर्म के प्रति सम्मानीय दृष्टिकोण रखता है।
अतः स्पष्ट है कि धर्म होने के लिए ईश्वर को मानना आवश्यक नहीं है। यदि कोई विचारधारा या सिद्धांत धर्म के ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और संवेगात्मक पहलुओं को संतुष्ट करता हो तो उसे भी निरीश्वरवादी धर्म के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। जैन, बौद्ध, कन्फ्रयुशियस और ताओ धर्म निश्चय ही धर्म है, काम्ट, ड्यूवी और नेहरू के मानववादी धर्म अंशतः धर्म माने जा सकते हैं, जबकि मार्क्सवाद निरीश्वरवादी विचारधारा तो है, लेकिन धर्म नहीं।
Question : ईश्वरविहीन धर्म।
(2002)
Answer : ईश्वरविहीन धर्म ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता। इसके अनुसार ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। फ्रिलन्ट के शब्दों में ईश्वरविहीन धर्म ईश्वर के अस्तित्व और विश्वास का विरोध करने वाला सिद्धांत है। विचारों में तो आस्ति और नास्ति का द्वैत रहता ही है, किंतु आज के इस वैज्ञानिक युग में जो कि प्रत्यक्षवाद में अधिक विश्वास करता है, ईश्वरविरोधी विचारों की कमी नहीं है। अनेक ऐसे मत प्रचलित हैं, जिन्हें ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं है। ये नवीन विचारधाराएं जड़वाद, भौतिक यंत्रवाद, यंत्रवाद, संदेहवाद, संशयवाद आदि के रूप में प्रचलित हुई हैं। इसके अतिरिक्त कुछ तथाकथित धर्म भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। उन्हें धर्म तो कहते हैं परंतु वे निरीश्वरवादी है, जैसे- जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि। सामान्य धारणा के आधार पर ईश्वर विहीन को धर्म की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि सामान्य मत यह है कि धर्म में ईश्वर में विश्वास होता है। दूसरा मत है कि ईश्वर विहीन धर्म को अधार्मिक कहना न्याय संगत नहीं है, क्योंकि बहुत से धर्मों में ईश्वर में विश्वास नहीं किया जाता वे ईश्वर विहीन मान्यता वाले हैं किंतु उन्हें धर्म की संज्ञा दी जाती है। धर्म के ऐतिहासिक विकास को देखकर लगता है कि ईश्वर के अभाव में भी धर्म संभव रहता है। आदिम धर्म के ईश्वर की कल्पना नहीं थी, फिर भी आदि मनुष्य, जीववाद, प्रेतवाद, टोटमवाद एवं मानावाद के नाम से धर्म में आस्था रखता था। कुछ विकसित धर्मों में भी बौद्ध और जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास न रखते हुए धर्म की संज्ञा से विभूषित किए जाते हैं। धर्म में केवल ईश्वर में आस्था के अतिरिक्त मानवीय मूल्यों, सत्य, प्रेम, शुभ आदि के प्रति भी आस्था देखी जाती है, इसलिए ईश्वरविहीन, जो मानवीय मूल्यों में विश्वास करते हैं, धर्म के अंतर्गत आते हैं। अतः ईश्वर विहीन धर्म कहे जाते हैं।
संभवतः इसीलिए एककिन्सली ने ईश्वरविहीन धर्म को धर्म विरोधों या अधार्मिक और धर्म निषेध नहीं कहा है। वैज्ञानिक युग में अनुभववाद और प्रत्यक्षवाद को आधार मानते हुए अनेक ऐसे मत प्रचलित हैं, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते। जैसे संदेहवादी, रूढि़वादी, संशयवादी, भौतिकवादी एवं व्यवहारवादी। संदेहवाद परमतत्व या ईश्वर के विषय में निश्चित ज्ञान की प्राप्ति को असंभव मानता है। रूढि़वादी ईश्वर के अस्तित्व के पक्ष में दिए गए तर्कों को सुनने के लिए तैयार भी नहीं रहता। संशयवादी ईश्वर की सत्ता को न तो पूर्णतया स्वीकार ही करता है और न पूर्णतया अस्वीकार करते हैं। भौतिकवादी ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति अथवा भौतिक तत्वों को ही प्रधानता देता है। व्यवहारवादियों के अनुसार ईश्वर के अभाव में जगत का काम चल सकता है इसलिए ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर न भी रहे तब भी मानव जीवन सुखी और पूर्ण हो सकता है। व्यवहारवादी निरीश्वरवादियों के अंतर्गत जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सांख्य, मीमांसा और पाश्चात्य मानववादी विचारधारा को लिया जा सकता है। बौद्ध एवं जैन धर्म में भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है। आज के वैज्ञानिक युग में निसंदेह ईश्वर विहीन धर्म की धारणा का प्राबल्य है। विचारों के क्षेत्र में ईस धारणा का प्रवेश पाने के कारण ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय जीवन में बहुत से परिवर्तन, परिवर्द्धन और जनक्रांति दृष्टिगोचर हो रही है। किंतु दूसरी ओर परम्परावादी धर्मों के प्रभाव के कारण बल संतुलन बना हुआ है। अन्यथा यह परिवर्तन कितना ओर किधर मोड़ लेता, इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं मिलता। ईश्वरविहीन धर्म निःसंदेह अंधविश्वास और रूढि़यों का विरोधी रहा है। यही नहीं, यह ईश्वरवाद से संबंधित कठिनाईयों से भी अछूता रहा है। इसके बावजूद जीवन में आस्था और विश्वास के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। मानवता तभी चरितार्थ होती है, जब व्यक्ति नैतिक गुणों को अपनाता है और यह प्रेरणा उसे ईश्वर विषयक विश्वास से निश्चित रूप से मिलता है क्योंकि यह सदगुण का संदेश मानव को देता है।
Question : धर्म को प्रायः अलौकिक सत्ता में विश्वास पर आधारित माना जाता है। परंतु कुछ विचारक (उदाहरणतः अगस्ट काम्ट, जान ड्यूवी, हक्सले, एरिक फ्राम) अलौकिक को नकारते हैं एवं धर्म के प्रकृतिवादी पुनर्निर्माण का प्रयास करते हैं। उनके प्रयासों का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : अगस्त काम्टे, एरिक फ्राम, हक्सले एवं जान ड्यूवी मानवतावाद के समर्थक है। विज्ञान मार्क्सवाद तथा मनोविश्लेषणवाद के अतिरिक्त मानवतावाद ने भी उस सामान्य प्रचलित अर्थ में धर्म के विरूद्ध गंभीर चुनौती प्रस्तुत की है, जिसके अनुसार धर्म को ईश्वर अथवा किसी अन्य अतिप्राकृतिक शक्ति पर ही आधारित माना जाता है। परंतु मानवतावाद इस संसार में निवास करने वाले मनुष्य पर केंद्रित तथा उसी की सांसारिक समस्याओं से संबंधित मानवतावाद न तो किसी अलौकिक शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करता है और न इस जगत से पृथक परलोक के अस्तित्व की। मानवतावाद के अनुसार अलौकिक सत्ताओं के रूप में ईश्वर, देवता, आत्मा, स्वर्ग, नरक आदि सभी काल्पनिक विचारमात्र हैं, जिनका वास्तविक अस्तित्व नहीं है। ऐसी स्थिति में यह कहना अनुचित न होगा कि केवल मनुष्य तथा प्राकृतिक जगत तक सीमित अपने इस दृष्टिकोण द्वारा मानवतावाद सामान्य अर्थ में धर्म का निषेध करता है। यहां मानवतावाद धर्म का प्रकृतिवादी पुनर्निर्माण करता है।
मानवतावाद वह दार्शनिक विचारधारा है, जिसमें मानव तथा उसकी समस्याओं के विवेचन को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। इस विचारधारा का केंद्र बिंदु ईश्वर या कोई अन्य काल्पनिक दैवी शक्ति न होकर स्वयं मनुष्य ही है, जिससे संबंधित सभी महत्वपूर्ण पक्षों का इसके अंतर्गत अध्ययन किया जाता है। इस दार्शनिक विचारधारा के अंतर्गत मनुष्य की उत्पत्ति, प्राकृतिक परिवेश में उसके विकास, ब्रह्मांड के साथ उसके संबंध, उसके व्यक्तित्व, स्वभाव तथा आचरण का निष्पक्ष एवं वस्तुपरक वैज्ञानिक विधियों द्वारा अध्ययन किया जाता है।
मानवतावाद की ज्ञानमीमांसा मूलतः मानवीय अनुभव और तर्कबुद्धि पर ही आधारित है। इस विचारधारा के अनुसार जो कुछ मानवीय अनुभव एवं तर्कबुद्धि से परे है। वह मनुष्य के लिए अज्ञेय हैं, अतः उसके अस्तित्व तथा स्वरूप के विषय में वह निश्चपूर्वक कुछ भी नहीं कह सकता। इसी आधार पर मानवतावादी ईश्वर, आत्मा, आदि सभी अलौकिक शक्तियों के अस्तित्व का निषेध करते हैं। मानवतावादी व्यापक अर्थ में प्रत्यक्ष को ही मनुष्य के ज्ञान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय प्रमाण मानते हैं।
तत्वमीमांसा की दृष्टि से मानवतावाद मूलतः प्रकृति, भौतिकवाद तथा निरीश्वरवाद को ही स्वीकार करता है। इसके अनुसार ब्रह्मांड की अंतिम सत्ता ईश्वर या कोई अन्य अतिप्राकृतिक शक्ति न होकर प्रकृति ही है, जो निरंतर परिवर्तनशील है। पुद्गल तथा शक्ति इसी प्रकृति के साथ हैं, जिन्हें हम समस्त भौतिक वस्तुओं पेड़-पौधों और प्राणियों में देख सकते हैं। यह प्रकृति कोई दैवी शक्ति नहीं अपितु समस्त निर्जीव वस्तुओं तथा सजीव प्राणियों की महासमष्टि है। सभी भौतिक वस्तुएं पेड़-पौधे, पशु-पक्षी मनुष्य तथा अन्य प्राणी इसी प्रकृति में सम्मिलित हैं। अन्य सभी वस्तुओं तथा प्राणियों की भांति मनुष्य भी इसी प्रकृति का अभिन्न अंग है जिससे पृथक हम उसके अस्तित्व और विकास की कल्पना नहीं कर सकते। मानवतावाद के अनुसार, यह प्रकृति स्वयंभु तथा स्वचालित है। ईश्वर या किसी अन्य दैवी शक्ति ने इसकी रचना नहीं की है और न ही वह इसका संचालन एवं नियमन करती है।
ईश्वरवाद का खंडन करने के साथ-साथ मानवतावाद के समर्थक आत्मा की अमरता, अवतारवाद, पुनर्जन्म के सिद्धांत, चमत्कारों की संभावना तथा स्वर्ग और नरक के अस्तित्व को भी पूर्णतः अस्वीकार करते हैं। इन सबके विरूद्ध उनके आधारभूत तर्क यही है कि हम इन्हें अनुभव तर्क बुद्धि तथा वस्तुपरक वैज्ञानिक विधियों द्वारा सत्य प्रमाणित नहीं कर सकते। मनुष्य का आर्विभाव एवं विकास प्रकृति के अंतर्गत ही हुआ है और इसी आधार पर हम उसकी उत्पत्ति तथा उसके विकास की तर्कसंगत व्याख्या कर सकते हैं। इसके लिए किसी अन्य अलौकिक सत्ता का आधार लेना अनुचित एवं अनावश्यक है।
मानवतावाद का कथन है कि ब्रह्मांड का अंतिम तत्व कोई आध्यात्मिक सत्ता न होकर पुद्गल ही है। कुछ विशेष प्राकृतिक परिस्थितियों के संयोग के फलस्वरूप इसी पुद्गल से जीवन का उदय और विकास हुआ है। प्राकृतिक नियम समस्त प्राणियों तथा निर्जीव भौतिक वस्तुओं पर समान रूप से लागू होती है। जन्म और विकास के दृष्टिकोण से मनुष्य अन्य प्राणियों से मूलतः भिन्न नहीं है। उसकी विकसित बुद्धि उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। मानवतावादियों का मत है कि मन और चेतना मूलतः मनुष्य के मस्तिष्क पर ही निर्भर है, उससे पृथक इनकी स्वतंत्र सत्ता संभव नहीं है। स्पष्टतः इसका यही अर्थ है कि शरीर से पृथक ऐसी कोई सत्ता नहीं है, जिसे आध्यात्मिक सत्ता कहा जाए। इस प्रकार मानवतावाद की तत्वमीमांसा मूलतः प्रकृतिवाद अथवा भौतिकवाद पर ही आधारित है।
ज्ञान मीमांसा और तत्वमीमांसा की भांति मानवतावाद की आचार मीमांसा में भी काल्पनिक अलौकिक शक्तियों के लिए कोई स्थान नहीं है। उसकी स्पष्ट एवं निश्चित मान्यता है कि इस संसार में मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण स्वयं कर सकता है, ईश्वर या कोई अन्य काल्पनिक दैवी शक्ति इसमें उसकी सहायता नहीं कर सकती। अपने जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए मनुष्य को स्वयं अपनी तर्कबुद्धि पर ही निर्भर रहना चाहिए। मानवतावाद के अनुसार, मनुष्य के जीवन का लक्ष्य स्वयं अपने कल्याण के साथ-साथ संपूर्ण मानवजाति का कल्याण भी है।
परंतु मानवतावाद मनुष्य को जिस अलौकिक मुक्ति का आश्वासन देता है, वह इसमें संभव नहीं है। मानवतावादी धर्म मानव को अपनी शक्तियों में विश्वास रखने की सलाह देता है, किंतु किसी भी कठिन संकट में भावनात्मक आश्रय नहीं दे पाता। पुनः सामान्य व्यक्ति की नैतिकता स्वर्ग नरक, कर्मफल, मोक्ष आदि मरणोत्तर स्थितियों से अत्यधिक प्रभावित होती है, जबकि मानवतावाद धर्म प्रबुद्ध स्वहित पर टिकी जिस नैतिकता का दावा करता है वह सिद्धांत श्रेष्ठ होने के बावजूद व्यवहारतः काफी कमजोर है। मानवतावाद की पहुंच चेतना तक ही है। यह चेतना से परे की बात नहीं सोचता। चेतना से परे ही मानव उद्वेग का शयन मानवतावाद में नहीं धर्म ही कर सकता है, वह धर्म जिसमें अलौकिकता का नूर हो।