Question : कुछ ईश्वरवादी ईश्वरपरक विश्वास के संदर्भ में प्रमाण एवं तर्क की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। उनके विचार में ईश्वर पर विश्वास करने वाला अपने विश्वास के लिए प्रमाण के अभाव में अविवेकी नहीं हो जाता क्योंकि धार्मिक जीवन के लिए प्रमाण न तो आवश्यक है और न ही पर्याप्त। क्या आप इस प्रकार के मत से सहमत होंगे? विवेचन करें।
(2004)
Answer : ईश्वरमीमांसा के अंतर्गत ईश्वर के संप्रत्यय को एक वास्तविक सत्ता के रूप में सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। ईश्वर का संप्रत्यय प्रज्ञा का आदर्श है। ईश्वर की अवधारणा आत्मा और सृष्टि के बीच में समन्वय स्थापित करने के लिए भी अपेक्षित है। कांट के अनुसार प्रज्ञा आत्मा एवं सृष्टि के संप्रत्ययों में समन्वय स्थापित करके उनके नियन्ता एवं आदर्श के रूप में ईश्वर की संकल्पना कर लेती है। ईश्वरमीमांसा एक काल्पनिक संप्रत्यय को वास्तविक सत्ता समझकर उसे सिद्ध करने के लिए युक्तियां देती है। ईश्वर के बारे में मन, वाणी, बुद्धि, भाषा आदि के द्वारा निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ईश्वर एक पारमार्थिक सत्ता है। वस्तुतः बुद्धि के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व का न तो खंडन किया जा सकता है और न मंडन किया जा सकता है। जब प्रज्ञा की कल्पना से प्रसूत ईश्वर को एक वास्तविक सत्ता के रूप में सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है तो ईश्वर मीमांसा के तर्क अंतर्विरोधग्रस्त हो जाते हैं। ईश्वरमीमांसा के क्षेत्र में इन अंतर्विरोधी को व्याघात कहा जाता है।
दर्शनशास्त्र के इतिहास में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए परंपरागत रूप से तीन युक्तियां दी गई हैं। इन्द्रियानुभविक जगत में निहित कारण कार्य नियम के आधार पर इस जगत से परे जगत या सृष्टि के आदि कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। इसके अतिरिक्त वस्तुओं के सामान्य अस्तित्व के आधार पर अनिवार्य सत्ता के अस्तित्व की स्थापना की जाती है। तीसरे तर्क के अंतर्गत पूर्णता के प्रत्यय के आधार पर जगत की सर्वोच्च सत्ता का अनुमान किया जाता है। इन्हें क्रमशः भौतिक धार्मिक अथवा प्रयोजन मूलक युक्ति, सृष्टि वैज्ञानिक युक्ति और प्रत्यय सत्ता मूलक युक्ति के नाम से जाना जाता है। कांट के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए केवल यही तीन युक्तियां प्रमुख हैं। वस्तुतः ईश्वर की अवधारणा के बारे में बुद्धि के विकास का यही स्वाभाविक क्रम है। किंतु किसी भी युक्ति द्वारा मानवबुद्धि अपने अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकती है, क्योंकि बुद्धि के संप्रत्ययों का प्रयोग केवल इंद्रिय जगत तक सीमित है। इससे परे उसका प्रयास विफल हो जाता है।
वस्तुतः दैवी सत्ता में विश्वास का आधार आस्था है। यही ईश्वर विषयक ज्ञान को पूर्णतः प्रामाणिक तथा असंदिग्ध रूप से सत्य बनाता है, जैसा कि ईश्वरवादी दावा करते हैं। इसी कारण धार्मिक जीवन एवं धर्मपरायण व्यक्तियों के जीवन में आस्था का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः किसी अतिप्राकृतिक सत्ता में आस्था के बिना मनुष्य के धर्मपरायण होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आस्थाहीन भक्त या उपासक का विचार स्वतोव्याघाता ही प्रतीत होता है। उपासक अथवा भक्त के जीवन में आस्था का वही स्थान है, जो विचारक के दार्शनिक जीवन में तर्कबुद्धि का है।
ईश्वरीय आस्था आस्थावान व्यक्ति के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाती है। मनुष्य अनुभव एवं तर्कबुद्धि के द्वारा जिन वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करता है, उनके प्रति वह कोई व्यक्तिगत लगाव या प्रतिबद्धता नहीं रखता। अपने ज्ञान के विरूद्ध वस्तुपरक विश्वसनीय प्रमाण प्राप्त होने पर वह उसमें संशोधन करने अथवा उसका परित्याग करने के लिए सदैव उद्यत रहता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य का कोई सामान्य तथ्यपरक विश्वास समुचित वस्तुनिष्ठ प्रमाणों द्वारा मिथ्या सिद्ध हो जाता है तो वह तुरंत उसका परित्याग कर देता है और ऐसा करते हुए उसे कोई मानसिक कष्ट नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान और सामान्य तथ्यपरक विश्वासों के प्रति मनुष्य वैयक्तिक दृष्टि से प्रायः उदासीन ही रहता है। परंतु ईश्वर परक आस्था के संबंध में मनुष्य की स्थिति इसके ठीक विपरीत होती है। आस्थावान व्यक्ति जिस वस्तु विचार, आदर्श या मूल्य में आस्था रखता है, उसके प्रति वह तटस्थ अथवा उदासीन अंग बन जाता है। इसमें संशोधन करना अथवा जिसका परित्याग करना उसके लिए अत्यंत कठिन और कष्टदायक होता है। एक बार जब धर्मपरायण व्यक्ति की आस्था और उसका विश्वास दृढ़ हो जाता है तो उसके संबंध में अत्यधिक संवेदनशील हो जाता है। यदि कोई अन्य व्यक्ति उसकी ईश्वरपरक आस्था का खंडन करने का प्रयास करता है तो इसे वह स्वयं अपने व्यक्तित्व पर आक्रमण मानकर इसका तीव्र विरोध करता है। उसकी आस्था के विरूद्ध चाहे कितने ही प्रबल प्रमाण क्यों न हो, वह सामान्यतः इसका परित्याग करने के लिए उद्धत नहीं होता। यदि किसी कारणवश उसे अपनी आस्था का परित्याग करने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो उससे उसे घोर मानसिक कष्ट हेाता है। यही कारण है कि अधिकतर व्यक्ति अपनी आस्था के समर्थन में विश्वसनीय प्रमाणों के न होते हुए भी प्रायः उसे बनाए रखते हैं और उसी अनुरूप अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वैसे तो यह दृढ़ता सभी विषयों से संबंधित आस्था में पाई जाती है किंतु ईश्वर तथा अन्य अतिप्राकृतिक सत्ताओं के प्रति धार्मिक आस्था में यह प्रबलतम रूप में विद्यमान रहती है। सच्चा और समर्पित उपासक अपने आराध्य विषय में अास्था का कभी परित्याग नहीं करता, अतः धार्मिक आस्था को अटूट या अखंड माना जाताहै। भक्त की आस्था के खंडित होने का अर्थ है- स्वयं उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का खंडित होना। वस्तुतः आस्थावान व्यक्ति अपनी आस्था के विषय के प्रति विशेष लगाव अथवा प्रतिबद्धता का अनुभव करता है। इसी आस्था को धार्मिक जीवन का आधार माना जाता है। यह मानव जीवन के लिए भले ही अनिवार्य न हो परंतु धार्मिक जीवन के लिए अनिवार्य है। इसी आस्था के अनुरूप उसका समस्त जीवन संचालित होता है। यह ईश्वर आस्था उसके जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है। यही नहीं यह उसके समस्त जीवन चर्या में भी परिलक्षित होता है और इस आस्था की संपुष्टि के लिए वह किसी भी तर्क या प्रमाण की आवश्यकता को महसूस नहीं करता।
Question : धार्मिक होने का अर्थ है- किसी संस्थापित धर्म का सदस्य होना।
(2001)
Answer : धार्मिक होने का अर्थ है- धार्मिक अनुभव का होना। अतिप्राकृतिक या दैवी सत्ता से संबंधित अलौकिकता इस अनुभव का आधारभूत तत्व है, जो इसे अन्य सभी प्रकार के अनुभवों से पृथक करता है। धार्मिक अनुभव के अलावे और किसी अनुभव में इस अलौकिकता का तत्व विद्यमान नहीं रहता। इस प्रकार अधिकतर दार्शनिकों के अनुसार भक्तों या धर्मपरायण व्यक्तियों को किसी अलौकिक अथवा दैवी सत्ता का जो विशेष प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है, उसे धार्मिक अनुभव की संज्ञा दी जा सकती है। जैसा कि इससे नाम से स्पष्ट है कि यह अधिकांशतः किसी धर्म से संबंधित होता है। परंतु जैसा कि रूडोल्फ का कथन है धार्मिक अनुभव में बौद्धिक तथा निबैद्धिक दोनों तत्व विद्यमान रहते हैं, परंतु इसमें निबैद्धिकता तत्व की प्रधानता रहती है। इसका कारण यह है कि यह अनुभव मुख्यतः विचारात्मक न होकर भावनात्मक होता है। अवर्णनीयता धार्मिक अनुभव की अनिवार्य विशेषता है। इस अनुभव को दिव्यानुभूति की संज्ञा दी जाती है। वस्तुतः प्रत्येक रहस्यवादी भी इसी प्रकार के अनुभव का दावा करते हैं। ईश्वरवादी के इसी रहस्यात्मक अनुभव को धार्मिक अनुभव कहा जाता है। परंतु वस्तुतः इस प्रकार के रहस्यात्मक अनुभव का किसी न किसी धर्म से घनिष्ठ रूप से संबंध होने के बावजूद इसे धार्मिक अनुभव की संज्ञा नहीं दी जा सकती। बौद्ध धर्म के अनुयायी रहस्यात्मक अनुभव को किसी ईश्वर का अनुभव नहीं मानते क्योंकि ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। यह अनुभव उन्हें शून्य का अनुभव प्रतीत होता है। इससे यह स्पष्ट है कि निरीश्वरवादी रहस्यवाद का अस्तित्व भी संभव है जिसमें ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं। यह सत्य है कि इस विशेष प्रकार के अनुभव की अनुभवकर्ता द्वारा उसी अनुरूप व्याख्या की जाती है, जिस धर्म का वह सदस्य होता है। उदाहरणार्थ, यदि वह किसी ईश्वर धर्म को स्वीकार करता है तो वह ईश्वर के साथ पूर्ण तादात्मय के रूप में अपने अनुभव की व्याख्या करेगा। इसके विपरीत यदि वह किसी निरीश्वरवादी धर्म का अनुयायी है, तो उसके द्वारा दी गई अपने अनुभव की व्याख्या में ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। यदि कोई व्यक्ति अपनी वैज्ञानिक शिक्षा के परिणामस्वरूप धर्म के संबंध में संदेहवादी हो गया है, जिसके कारण वह धर्म में विश्वास ही नहीं करता तो वह अपने रहस्यात्मक अनुभव की व्याख्या किसी भी धर्म के सिद्धांतों के अनुसार नहीं करता। उसके उस विशेष प्रकार के रहस्यवादी अनुभव में धर्म के लिए कोई स्थान नहीं होगा। वस्तुतः इस प्रकार का अनुभव किसी व्यक्ति को ईसाई या बौद्ध नहीं बनाता। इस अनुभव की व्याख्या इस बात पर निर्भर करता है कि वह अनुभववादी व्यक्ति किस संस्कृति का है।
Question : चमत्कार (धार्मिक) असम्भव है।
(2001)
Answer : बहुत से धर्मपरायण व्यक्ति तथा दार्शनिक दैवी सत्ताओं से संबंधित धार्मिक ज्ञान की संभावना के विरूद्ध प्रस्तुत सभी तर्कों की उपेक्षा करते हुए इस ज्ञान की वास्तविकता में दृढ़तापूर्वक विश्वास करते हैं। उनका मत है कि धार्मिक ज्ञान हमें अनुभव या तर्कबुद्धि द्वारा नहीं, अपितु अन्य उपायों के माध्यम से प्राप्त होता है। उन उपायों में दैवी प्रकाशना या श्रुति का विशेष महत्व है। दैवी प्रकाशना के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में चमत्कार की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। चमत्कार के द्वारा ईश्वर अपने भक्तों को अपने खास ज्ञान कराते हैं और यह बताते हैं कि मानव से उनकी क्या अपेक्षाएं हैं। परंतु चमत्कार रूपी दैवी प्रकाशना में कई प्रकार की कठिनाइयां हैं। सर्वप्रथम इसमें विश्वास करने वाला व्यक्ति ईश्वर या किसी अन्य अतिप्राकृतिक शक्ति के अस्तित्व को बिना किसी प्रमाण के केवल आस्था के आधार पर स्वीकार कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में चमत्कार का मूल स्रोत ही दार्शनिक दृष्टि से संदिग्ध तथा विवादास्पद हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी अतिप्राकृतिक सत्ता में विश्वास नहीं करता, तो उसके लिए चमत्कार का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसकी दूसरी कठिनाई यह है कि इसके समर्थक इसे स्वतः प्रमाणित मानकर इसकी प्रामाणिकता के लिए किसी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता को स्वीकार नहीं करते। वे इसे अंतिम और पूर्णतः निश्चित मानते हैं। उनके अनुसार चमत्कार अभिव्यक्त करने वाला प्रत्येक कार्य वस्तुतः ईश्वर द्वारा किया गया कार्य है। परंतु यहां कठिनाई यह है कि हमारे पास उनके इस दावे की परीक्षा करने का कोई उपाय नहीं है। हम यह कभी नहीं जान सकते कि जिन शब्दों में या कार्यों में चमत्कार की अभिव्यक्ति हुई है तो वे वास्तव में ईश्वर के शब्द या कार्य हैं अथवा उसको प्रदर्शित या व्यक्त करने वाला स्वयं मनुष्य है। हम अनुभव द्वारा केवल इतना ही जान सकते हैं कि इन कार्यों को प्रदर्शित करने वाला व्यक्ति मनुष्य ही होता है। यह स्वीकार करने का हमारे पास कोई तर्कसंगत आधार नहीं है कि इसका स्रोत कोई अलौकिक अतिप्राकृतिक सत्ता है। इस आपत्ति में यह कहा जा सकता है कि कुछ विशेष व्यक्तियों अर्थात् संतों, पैगम्बरों या ऋषियों के माध्यम से ईश्वर ने इन धर्म ग्रंथों की रचना की है। परंतु हमारे पास ऐसी कोई तर्कसंगत कसौटी नहीं है, जिसके आधार पर हम इस दावे को सत्य प्रमाणित कर सकें। पुनः तीसरी कठिनाई यह है कि जिन धर्म ग्रंथों या ड्डोतों द्वारा चमत्कार का दावा किया जाता है स्वयं उनमें परस्पर विरोध अथवा गहरा मतभेद दिखाई देता है। इन ग्रंथों में परस्पर विरोधी सिद्धांत पाए जाते हैं। पुनः चमत्कार से संबंधित विश्वास की अंतिम कठिनाई यह है कि इसमें तर्कबुद्धि को कोई महत्व नहीं दिया जाता। मुख्य प्रश्न यह है कि चमत्कार के अंतर्गत जिन तथ्यों एवं सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जाता है उनका मानवीय तर्कबुद्धि के साथ क्या संबंध है, क्या ये तर्कबुद्धि के अनुरूप हैं अथवा क्या वे उसके विरूद्ध हैं? यदि ये सिद्धांत तर्कबुद्धि के अनुरूप है तो इन्हें तथ्यात्मक ज्ञान की सामान्य बौद्धिक विधियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, अतः इनके लिए किसी चमत्कार की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः विवेकशील होने के कारण मनुष्य उन्हें बातों को स्वीकार कर सकता है जिनका तर्कबुद्धि समर्थन करती है। चमत्कार उस कोटि में नहीं आता। अतः इस आधार पर चमत्कार असंभव माना जा सकता है।