Question : ईश्वर अधिक शुभ को लाने के लिए अशुभ को जन्मने देता है, आदम का गिरना एक मंगलमय पाप था।
(2007)
Answer : ईश्वरवाद के समक्ष अशुभ की समस्या एक दुविधा के रूप में उत्पन्न होती है। ईश्वरवाद के संदर्भ में अशुभ की समस्या के दो पक्ष हैं:
ईश्वरवादी इस समस्या के इन दोनों पक्षों का कोई समुचित एवं संतोषप्रद समाधान करने में सफल नहीं हो पाते। बहुत से ईश्वरवादी इस समस्या का समाधान इस रूप में करते हैं कि शुभ को जानने और उसके महत्व को समझने के लिए अशुभ का होना अनिवार्य है, अतः इस संसार में अशुभ का अस्तित्व सर्वशक्तिमान तथा पूर्णतः शुभ ईश्वर के विरुद्ध नहीं है। इन ईश्वरवादियों का कथन है कि दुःख प्राप्त करने के पश्चात ही हम वास्तव में सुख के स्वरूप और महत्व को भलीभांति समझ सकते हैं। यदि हमें दुख का अनुभव न हो तो हम सुख को सुख के रूप में कभी भी नहीं जान सकेंगे और न अपने जीवन में उसका मूल्य ही समझ पाएंगे। इसके अतिरिक्त दुःख मनुष्य में साहस, धैर्य आदि नैतिक सदगुण उत्पन्न करके उसके चरित्र को अधिक दृढ़ बनाता है। दुःख भोगने वाला व्यक्ति विपत्तियों से पराश्रित न होकर उनके विरुद्ध संघर्ष करता है और अंततः विजयी होता है।
मनुष्य के चरित्र को दृढ़ बनाने के साथ-साथ दुख ही उसमें दूसरों के प्रति वास्तविक सहानुभूति, स्नेह तथा उदारता उत्पन्न करता है। ईश्वरवादियों के अनुसार दुःख मनुष्य के साहसी, धैर्यवान, उदार तथा दयालु बनाने के अतिरिक्त उसकी व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति में भी बहुत सहायक सिद्ध होता है। यदि मनुष्य को किसी प्रकार के दुःख का अनुभव न हो तो वह निःश्चेस्ट तथा निष्क्रिय हो जाएगा और अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में कभी कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकेगा। एक सामान्य व्यक्ति उस सिद्धांत को पूर्णतः सत्य और संतोषप्रद मान सकता है, परंतु अधिक शुभ को लाने के लिए अशुभ को लानेवाला यह सिद्धांत अशुभ की समस्या का संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत नहीं करता।
यह शुभ को अशुभ से पृथक और स्वतंत्र न मानकर उस पर पूर्णतः निर्भर बना देता है। इसके अनुसार हम अशुभ के साथ शुभ की तुलना करके ही शुभ स्वरूप तथा महत्व को जान सकते हैं। स्पष्टतः इसका अर्थ यही है कि यदि संसार में अशुभ न हो तो हमारे लिए शुभ के स्वरूप और महत्व को समझना संभव नहीं है। परंतु यह मान्यता सही नहीं है। इसका कारण है कि शारीरिक या मानसिक सुख की अनुभूति के लिए दुःख का अनुभव अनिवार्य नहीं है। पुनः शुभ के महत्व को सिद्ध करने के लिए दिया गया यह तर्क भी ईश्वर केा अशुभ के उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं करता। यदि यह मान लिया जाए कि मनुष्य अशुभ का अनुभव किए बिना शुभ को नहीं जान सकता तो यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है और मनुष्य की इस सीमा का उत्तरदायित्व किस पर है।
ईश्वरवादी ईश्वर को ही मनुष्य का रचयिता मानते हैं, अतः इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उसकी इस सीमा के लिए अंततः स्वयं ईश्वर ही उत्तरदायीत्व है। सर्वशक्तिमान होने के कारण वह मनुष्य को अशुभ का अनुभव किए बिना ही शुभ के स्वरूप और महत्व को समझने की क्षमता प्रदान कर सकता था, किंतु उसने ऐसा नहीं किया। यदि ईश्वर चाहता तो वह केवल शुभ को ही उत्पन्न करता और यदि ऐसा होता तो शुभ की अशुभ पर निर्भरता का प्रश्न ही नहीं उठता। पुनः यह कहना भी सही नहीं है कि मनुष्य दुख से मुक्ति की इच्छा से ही क्रियाशील होता है। इसके अलावे कई ऐसी प्रेरणाएं हैं, जो मनुष्य के लिए प्रेरित करती है। पुनः दुःख कुछ हद तक मनुष्य को क्रियाशील बनाता है, पर दीर्घकालीन दुःख मनुष्य पर अत्यंत घातक प्रभाव डालता है। पुनः अशुभ उत्पन्न करने से मनुष्य के नैतिक अशुभ की समस्या का समाधान नहीं मिल पाता, जो स्वयं मनुष्य के स्वभाव का परिणाम है। पुनः शुभ के महत्व को समझाने के लिए अशुभ को ईश्वर किस यात्रा में उत्पन्न करे यह एक विवाद का विषय है, जो व्यावहारिक समस्या उत्पन्न कर देता है।
Question : बुराई की समस्या अपूर्ण संसार के ईश्वर की अच्छाई के साथ समाधान करने की समस्या है।
(2005)
Answer : प्राकृतिक विपत्तियों तथा मनुष्य के अपने दुर्गुणों से उत्पन्न शारीरिक एवं मानसिक दुःख तथा मानवीय दुराचरण के रूप में (अशुभ) बुराई का वास्तविक अस्तित्व है और वह इस संसार में सर्वत्र व्याप्त है। यह समस्या केवल उन्हीं व्यक्तियों के समक्ष उपस्थित होती है, जो ईश्वरवाद या एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं, अन्य व्यक्तियों के लिए यह उस रूप में उत्पन्न नहीं होती है, जिस रूप में ईश्वरवादियों के लिए होती है। बहुत से दार्शनिक तथा ईश्वरवादी एक ही ईश्वर में विश्वास करते हैं। उनके मतानुसार यह ईश्वर असीम, नित्य एवं सर्वज्ञ होने के साथ-साथ सर्वशक्तिमान तथा पूर्ण रूप से शुभ एवं अत्यंत दयालु है और वही समस्त प्राणियों सहित संपूर्ण जगत का रचयिता, पालनकर्ता एवं प्रशासक है। ईश्वरवादियों के इस सिद्धांत को ही एकेश्वरवाद अथवा ईश्वरवाद की संज्ञा दी जाती है। इस प्राचीन सिद्धांत के विरूद्ध बहुत से भारतीय तथा पाश्चात्य दार्शनिकों ने अनेक गंभीर आपत्तियां उठाई हैं। बहुत (अशुभ) की समस्या ईश्वरवाद के विरूद्ध उठाई गई इन गंभीर आपत्तियों में संभवतः सर्वप्रमुख है। इस समस्या के स्वरूप को समझने के तीन कथनों पर विचार करना आवश्यक है।
(i)संसार में दुःख और मानवीय दुराचरण के रूप में बुराई की समस्या वर्तमान है।
(ii)इस संसार का रचयिता ईश्वर सर्वशक्तिमान है।
(iii)ईश्वर पूर्ण रूप से शुभ तथा अत्यंत दयालु और प्रेममय है।
इन तीनों कथनों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से यह ज्ञात होता है कि तार्किक दृष्टि से ये तीनों सत्य नहीं हो सकते। इनमें से किसी एक कथन को मिथ्या मानना अनिवार्य है। यदि कोई दार्शनिक उपर्युक्त तीनों कथनों में से किसी एक को मिथ्या मान लेता है तो उसके लिए ईश्वरवाद संबंधी बुराई की समस्या उत्पन्न ही नहीं होगी। परंतु कठिनाई यह है कि अधिकतर ईश्वरवादी दार्शनिक इन तीनों कथनों को सत्य मानते हैं, जिसके फलस्वरूप उनके समक्ष उस रूप में बुराई (अशुभ) की समस्या उपस्थित होती है, जो ईश्वरवाद के लिए एक गंभीर चुनौती है। यह समस्या इस प्रकार है। यदि जगत का रचयिता ईश्वर सर्वशक्तिमान तथा अत्यंत दयालु है तो इसमें अशुभ का अस्तित्व क्यों है? यदि स्वयं पूर्ण रूप से शुभ होने के कारण ईश्वर ने इस अशुभ को उत्पन्न नहीं किया तो इस संसार में यह अशुभ कहां से आया है? क्या ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति ने उसकी इच्छा के विरूद्ध जगत में इस अशुभ को उत्पन्न किया है। यह स्पष्ट है कि ईश्वरवादी इस अंतिम प्रश्न का उत्तर हां में नहीं दे सकते क्योंकि ऐसा करने से उनके मूल सिद्धांत ईश्वरवाद का खंडन होता है। यदि किसी अन्य शक्ति ने ईश्वर की इच्छा के विरूद्ध इस संसार में अशुभ को उत्पन्न किया है तो इसका अर्थ यह है कि ईश्वर असीम तथा सर्वशक्तिमान नहीं है। ईश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति भी है, जो उसकी इच्छा के विरूद्ध कार्य करके उसे सीमित कर देती है। ईश्वरवादी तर्कसंगत रूप से इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वे एक ही असीम और सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं। इसका अर्थ यही है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति ने इस जगत में अशुभ उत्पन्न नहीं किया है। परंतु ईश्वरवादियों के मतानुसार स्वयं पूर्ण शुभ होने के कारण ईश्वर ने भी इस अशुभ को उत्पन्न नहीं किया है। इस तरह फिर यह प्रश्न उभर कर आता है कि यह अशुभ की समस्या कहां से आया अथवा किसने उसे उत्पन्न किया। ईश्वरवादी बुराई की समस्या की उत्पत्ति के विषय में इस मूल प्रश्न का कोई तर्क संगत और संतोषप्रद उत्तर नहीं दे पाते। वस्तुतः ईश्वरवादियों का सिद्धांत उन्हें बहुत बड़ी उलझन में डाल देता है। इस दुविधा का समाधान ही ईश्वरवाद की प्रमुख समस्या है जिसका वे कई समाधान प्रस्तुत करते हैं, पर तार्किक दृष्टि से वे सभी संतोषप्रद नहीं है।
Question : अशुभ की समस्या का वर्णन कीजिए। कुछ ईश्वरवादी इस समस्या के समाधान के लिए संकल्प स्वातंत्र्य तर्क का उपयोग करते हैं, कैसे? विवेचन करें।
(2004)
Answer : जब जगत की व्याख्या धार्मिक एवं नैतिक दृष्टिकोण से की जाती है, तब अशुभ की समस्या उभरकर सामने आती है। अशुभ का शाब्दिक अर्थ है- शुभ का अभाव। परंतु अशुभ केवल शुभ का अभाव मात्र नहीं है, बल्कि यह दुःखपूर्ण शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को निर्दिष्ट करता है। नैतिक दृष्टिकोण से जो नहीं होना चाहिए, वह यदि हो तो वह अशुभ है। क्ड म्कूवतक के शब्दों में अशुभ परम मूल्यों का विरोधी है। सत्य, सुख, सौंदर्य और पुण्य ये चार परम मूल्य माने जाते हैं। उन्हीं के अनुरूप दुःख, असत्य, कुरूपता तथा पाप को अशुभ के रूप में जाना जाता है। महात्मा बुद्ध ने भी अपने प्रथम आर्य सत्य में दुःख है, को आर्य सत्य के रूप में स्वीकार किया है।
अशुभ एक समस्या के रूप में ईश्वरवादियों के समक्ष उत्पन्न होता है। यह ईश्वरवादी मान्यताओं में विद्यमान तार्किक विसंगतियों के कारण उत्पन्न होता है। ईश्वरवादी की इस समस्या को इन कथनों के विश्लेषण से समझा जा सकता हैः
ये तीनों वाक्य संयोजन से जुड़े हैं। ये तीनों वाक्य एक साथ नहीं हो सकते, क्योंकि यदि ईश्वररचित जगत में अशुभ है तो वह या तो ईश्वर की इच्छा से आया होगा या फिर उसकी इच्छा से विपरीत आया होगा। यदि विश्व में अशुभ ईश्वर की इच्छा से आया है तो ईश्वर परम शुभ नहीं है और यदि विश्व में अशुभ ईश्वर की इच्छा के विपरीत आया है, तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है।
ये तीनों वाक्य संयोजन से जुड़े हैं और तीनों सत्य नहीं हो सकते। यदि इनमें किसी एक को भी असत्य माना जाए तो फिर संयोजन से जुड़े होने के कारण पूरा समीकरण असत्य हो जाएगा। पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम ने इस समस्या को उपयतोपाश के रूप में प्रस्तुत किया है। यदि विश्व में अशुभ ईश्वर ने जानबूझकर पैदा किया तो वह कल्याणकारी नहीं है और यदि अशुभ उसकी इच्छा के विपरीत आया है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। परंतु या तो अशुभ उसकी इच्छा से आया है या उसकी इच्छा के विपरीत आया है। अतः ईश्वर या तो कलयाणकारी नहीं है या फिर वह सर्वशक्तिमान नहीं है।
समाधानः ईश्वरवादियों ने अशुभ की समस्या के समाधान हेतु कई प्रकार के तर्क दिए हैं, उन्हें हम चार वर्गों में बांटकर देख सकते हैं:
साधनतावादी तर्क के अंतर्गत अशुभ को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। यह साधन निम्नलिखित रूप में दिखाई पड़ता हैः
आलोचनाः (i) अशुभ सदैव शुभ की उत्पत्ति और विकास में सहायक नहीं होता। अशुभ कई बार अशुभ को और बढ़ा देता।
(ii)शुभ के मूल्यांकन और सार्थकता के लिए विश्व में अधिक मात्र में अशुभ विद्यमान है। यदि अशुभ को साधनमात्र के रूप में ही स्वीकृत किया जाए, तो विश्व में कम मात्र में अशुभ और अधिक मात्र में शुभ रहना चाहिए।
(iii)अशुभ को शुभ की प्राप्ति का साधन माने पर शुभ की स्वतंत्रता खंडित हो जाती है। ऐसी स्थिति में शुभ, अशुभ के सापेक्ष संबंधित हो जाता है।
(iv)ईश्वर अशुभ के उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता क्योंकि शुभत्व की प्राप्ति में उसे अशुभ को साधनरूप में स्वीकृत करना पड़ता है, यद्यपि वह दयालु एवं सर्वशक्तिमान है।
संकल्प स्वातंत्र्य से संबंधित तर्क के अंतर्गत यह कहा जाता है कि ईश्वर ने विश्व की रचना करते समय मनुष्य को संकल्प स्वातंत्र्य प्रदान किया ताकि वह सद्संकल्पी हो सके। संकल्प स्वातंत्र्य का अर्थ है कि मनुष्य अच्छे या बुरे कर्मों को करने के लिए स्वतंत्र है। मनुष्य ने ईश्वर प्रदत्त इस संकल्प स्वातंत्र्य का दुरूपयोग किया। परिणामस्वरूप नैतिक अशुभ (चोरी, हिंसा, विद्वेष) उत्पन्न हुआ। तब ईश्वर ने दंड स्वरूप या चेतावनी स्वरूप प्राकृतिक अशुभ पैदा किया। अगस्टाईन का कथन है कि समस्त अशुभ या तो पाप है या पाप के दंडस्वरूप है।
स्पष्ट है कि इस तर्क में ईश्वर को अशुभ के उत्तरदायित्व से बचाने का प्रयास किया गया है।
आलोचनाः (i) सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होने से ईश्वर को इस बात का पता होना चाहिए था कि मनुष्य उसके द्वारा दिए गए संकल्प-स्वातंत्र्य का दुरूपयोग करेगा। यदि संकल्प-स्वातंत्र्य देना ही था तो फिर मनुष्य के मन से दुष्प्रवृत्तियों को हटा देना चाहिए था। स्पष्ट है कि ईश्वर अशुभ के उत्तरदायित्व से बच नहीं पाता।
(ii)यदि अशुभ मनुष्य के संकल्प स्वातंत्र्य के दुरूपयोग का परिणाम है तो फिर इससे केवल पापियों को ही प्रभावित होना चाहिए था। परंतु इन अशुभों के दुष्टों की बजाए सज्जनों पर अधिक प्रभाव पड़ता है।
(iii)यदि अशुभ ईश्वर दंड है तो फिर दुःख निवारण का मानवीय प्रयास अनुचित एवं अवांछनीय होगा। यह ईश्वरीय कार्य में अनुचित हस्तक्षेप होगा।
(iv)यह तर्क प्राकृतिक आपदाओं की भ्रामक व्याख्या करता है। इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वीकार नहीं किया जा सकता।
(v)ईश्वररचित विश्व में मनुष्य पाप करता है। इसका अंतिम उत्तरदायित्व ईश्वर पर ही है। ईश्वर सर्वज्ञ होने के कारण यदि चाहता तो मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों से बचा कर रखता और मनुष्य को अशुभ का सामना नहीं करना पड़ता। परंतु सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होते हुए भी ईश्वर ने ऐसी नहीं किया।
मिथ्यावादी तर्क के अंतर्गत (जिसके समर्थक अगस्टाईन एवं लार्डबनित्ज अद्वैतवादी एवं सर्वेश्वरवादी हैं) अशुभ का वास्तविक अस्तित्व नहीं है। अशुभ मिथ्या है। अज्ञान या सीमित दृष्टिकोण के कारण इसकी आपत्ति होती है। जब हम किसी घटना को व्यापक दृष्टिकोण से देखते हैं तो फिर अशुभ की स्थिति दोष नहीं रह जाती है।
आलोचनाः (i) अशुभ को भ्रम या मिथ्या कहने से इस समस्या का समाधान नहीं होता। यह समस्या के समाधान के प्रयास को छोड़कर समस्या को ही खत्म करना हुआ।
(ii)यदि अशुभ भ्रम या मिथ्या है तो इसे दूर करने का मानवीय प्रयास व्यर्थ है।
(iii)यदि अशुभ मिथ्या या भ्रम है तो इसके निर्माण को जिम्मेदारी भी ईश्वर पर ही है।
गैर परम्परागत प्रमाण के समर्थक विनियम जेम्स, नील, रेशडल एवं ब्रार्डरमैन हैं। इसके अंतर्गत ईश्वर के परम्परागत स्वरूप में संशोधन कर इस समस्या का समाधान ढूंढ़ने का प्रयास किया गया है। इनके अनुसार ईश्वर शुभ तो है, परंतु सर्वशक्तिमान नहीं है। उसकी शक्ति की भी कुछ सीमाएं हैं। वह अशुभ को पूर्णतः हराना तो चाहता है, परंतु ऐसा करने में वह असमर्थ है। वह यथासंभव सर्वोत्तम विश्व की रचना करता है। अतः यदि उसके द्वारा रचित विश्व में कुछ अशुभ शेष रह जाता है तो इसका उत्तरदायित्व ईश्वर पर नहीं है।
आलोचनाः (i) यह समाधान ईश्वरवादी मान्यताओं को त्यागकर प्रस्तुत किया गया है। इसे परम्परागत ईश्वरवादी स्वीकार नहीं कर सकते।
(ii)यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है तो उसे परमसत्ता के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता।
अशुभ भावात्मक है या अभावात्मक इस पर विवाद है। अधिकांश ईश्वरवादियों का मानना है कि अशुभ की भावात्मक सत्ता नहीं है, क्योंकि इसका निश्चित, स्वतंत्र स्थायी अस्तित्व नहीं है। पुनः अशुभ को अभावात्मक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हमारे जीवन में इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। वास्तव में शुभ का न होना ही अशुभ है। वास्तव में अशुभ वैकल्यात्मक है, अर्थात् वर्तमान में शुभ का न होना ही अशुभ है। जैसे-जैसे जीव सद्संकल्पी होता जाता है, वैसे-वैसे अशुभ समाप्त होता जाता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अशुभ की समस्या के समाधान का कोई भी ईश्वरवादी समाधान तर्कसंगत और संतोषजनक नहीं है। यदि कारण है कि अनेक दार्शनिकों ने अशुभ की उपस्थिति को ईश्वर के अस्तित्व के विरूद्ध एक प्रबल तर्क के रूप में प्रस्तुत किया है। वस्तुतः ईश्वरवादी मान्यताओं के आलोक में अशुभ की समस्या का समाधान कठिन ही नहीं, बल्कि दोषपूर्ण भी है। ईश्वर की सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमतता और शुभत्व अनुभव निरपेक्ष सत्ता से जुड़े हैं जबकि अकाल, मृत्यु, भूकंप आदि आनुभविक घटनाएं हैं। ऐसी स्थिति में हम आनुभविक घटनाओं की व्याख्या या सामंजस्य प्रगानुभविक सत्ता या उसके गुणों के संदर्भ में नहीं कर सकते। दूसरों शब्दों में, आनुभविक की व्याख्या प्रागानुभविक आधार पर करना कोटि दोष होगा, गिलबर्ट रार्डल के शब्दों में।
Question : क्या हम अशुभ के साथ ईश्वर की हितकारिता एवं सर्वशक्तिमतता का सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं? चर्चा कीजिए।
(1997)
Answer : ईश्वरवादियों के मतानुसार ईश्वर असीम नित्य एवं सर्वज्ञ होने के साथ-साथ सर्वशक्तिमान तथा पूर्ण रूप से शुभ या अत्यंत दयालु है और वही समस्त प्राणियों सहित संपूर्ण जगत का रचयिता, पालनकर्ता एवं प्रशासक है। परंतु ईश्वरवादियों के इस सिद्धांत के विरूद्ध एक गंभीर चुनौती है। निम्नलिखित तीन कथनों पर विचार करने पर यह समस्या स्पष्ट होती हैः
(i) संसार में सर्वत्र दुःख और मानवीय दुराचरण के रूप में अशुभ का अस्तित्व है।
(ii) इस संसार का रचयिता ईश्वर सर्वशक्तिमान है।
(iii) ईश्वर अत्यंत दयालु और पूर्ण शुभ है।
अब यदि इन तीनों कथनों में से किसी को असत्य मान लिया जाए तो अशुभ की समस्या उत्पन्न नहीं होती। परंतु ईश्वरवादी इन तीनों कथनों को सत्य मानते हैं। परंतु इससे ईश्वर की सर्वशक्तिमतता एवं दयालुता के साथ संसार में व्याप्त अशुभ का सामंजस्य बिठाना संभव नहीं हो पाता। यदि इस जगत का रचयिता ईश्वर सर्वशक्तिमान तथा अत्यंत दयालु हैं तो इसमें अशुभ का अस्तित्व क्यों है? यदि स्वयं पूर्ण रूप से शुभ होने के कारण ईश्वर ने इस अशुभ को उत्पन्न नहीं किया, तो इस संसार में यह अशुभ कहां से आया है? यदि ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति ने इस अशुभ को उत्पन्न किया है तो यह ईश्वरवादियों को मान्य नहीं होगा क्योंकि इससे ईश्वर की सर्वशक्तिमान एवं दयालुता से पूर्ण स्वरूप का खंडन होता है, अर्थात् किसी दूसरी शक्ति द्वारा अशुभ उत्पन्न करने पर यह सिद्ध होता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं दयालु नहीं है। परंतु पुनः पूर्ण शुभ एवं दयालु होने के कारण ईश्वर भी यह अशुभ उत्पन्न नहीं कर सकता।
इस प्रकार जगत में अशुभ की उपस्थिति के संबंध में अगर ये कहा जाए कि ईश्वर अशुभ का निराकरण करना चाहता है किंतु वह ऐसा करने में असमर्थ है, तो उनका ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं रह जाता। वह एक सामान्य मनुष्य की भांति किसी अन्य शक्ति के समक्ष असहाय दर्शक मात्र हो जाता है। परंतु ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता बनाए रखने के लिए यदि ईश्वरवादी यह कहते हैं कि पूर्णतः समर्थ होते हुए भी वह अशुभ का निराकरण नहीं करना चाहता तो निश्चय ही उसे अत्यंत दयालु तथा प्रेममय नहीं माना जा सकता। ऐसा ईश्वर एक शक्तिशाली, क्रूर, अत्याचारी मनुष्य के समान हो जाता है। उपर्युक्त उलझनपूर्ण दुविधा से बचने के लिए यदि ईश्वरवादी यह कहते हैं कि ईश्वर अशुभ का निराकरण करने में पूर्णता समर्थ है और वह ऐसा करना भी चाहता है तो उनसे यह पूछा जा सकता है कि फिर संसार में अशुभ का अस्तित्व क्यों बना रहता है। इस प्रश्न का भी वे संतोषजनक तथा युक्तिसंगत उत्तर नहीं दे पाते। वास्तव में ईश्वर को सर्वशक्तिमतता और दयालुता इन दोनों की बनाए रखते हुए ईश्वरवादियों के लिए जगत में अशुभ के अस्तित्व की तर्कसंगत व्याख्या करना संभव प्रतीत नहीं होता।
इस संदर्भ में अशुभ की समस्या के दो प्रमुख पक्ष हैं- सर्वशक्तिमान तथा अत्यंत दयालु ईश्वर द्वारा रचित जगत में अशुभ का उत्पन्न होना तथा इस जगत में उसके अस्तित्व का बना रहना। प्राचीन काल में ऐपिक्युरस ने इस समस्या को उठाया था। मध्य युग में अगस्टाईन तथा ऐक्वाईनस इन दो ईश्वरवादी दार्शनिकों ने भी अशुभ की इस समस्या पर विचार किया था और अपनी ईश्वर विचारधारा के अनुरूप इसके कुछ समाधान भी प्रस्तुत किये थे। आधुनिक दार्शन में अनुभववादी दार्शनिक ह्यूम ने अशुभ की समस्या की ईश्वरवाद के विरूद्ध प्रबल तर्क के रूप में प्रस्तुत किया है। इस समस्या के आधार पर उहोंने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि अशुभ से परिपूर्ण इस विश्व का रचयिता सर्वशक्तिमान तथा पूर्णतः शुभ ईश्वर नहीं हो सकता। भारतीय संदर्भ में जैन दार्शनिकों ने भी अशुभ की समस्या को ईश्वरवाद के विरूद्ध एक प्रबल तर्क के रूप में प्रस्तुत किया है। कुछ ईश्वरवादी दार्शनिकों ने स्वयं यह स्पष्टः स्वीकार किया है कि अशुभ की समस्या उनके सिद्धांत के विरूद्ध निरिश्वरवादियों द्वारा प्रस्तुत एक गंभीर चुनौती है।
ईश्वरवादियों ने ईश्वर की सर्वशक्मितता एवं हितकारिता के साथ अशुभ की समस्या का सामंजस्य बिठाने के लिए कुछ समाधान भी प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणस्वरूप कुछ ईश्वरवादियों का मत है कि संसार में शारीरिक तथा मानसिक दुःख के रूप में जो अशुभ है, वह वस्तुतः मनुष्य के अपने पाप का परिणाम है। ईश्वर मनुष्य को उसके पापों का दंड देने के लिए अशुभ उत्पन्न करता है। परंतु यह सिद्धांत उन बच्चों एवं पशुपक्षियों के दुःख की व्याख्या करने में असमर्थ है जिन्होंने कोई पाप किया है। कुछ ईश्वरवादियों का कथन है कि प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न दुःख के लिए एक चेतावनी है जिसके द्वारा अपने रचयिता ईश्वर की महानता और अपार शक्ति को पहचान सकता है। परंतु इस तर्क के द्वारा मनुष्य के स्वयं के द्वारा उत्पन्न नैतिक अशुभ की व्याख्या नहीं हो पाती। पुनः कुछ ईश्वरवादी यह मानते हैं कि शुभ को जानने और उसके महत्व को समझने के लिए अशुभ का होना अनिवार्य है। परंतु यह भी नैतिक दृष्टि से उचित नहीं है, क्योंकि इससे शुभ स्वयं अशुभ पर निर्भर हो जाएगा। पुनः चूंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है अतः वह मनुष्य को अशुभ का अनुभव कराए बिना शुभ के स्वरूप और महत्व को समझने की क्षमता प्रदान कर सकता है। कुछ ईश्वरवादी दार्शनिक अशुभ को समस्या को एक भ्रम मानते हैं। वे इसकी वस्तुपरक सत्ता को स्वीकार नहीं करते। परंतु यह तो समस्या के समाधान के प्रयास के बदले समस्या को ही खत्म कर देने वाली बात लगती है। प्राकृतिक नियम के आधार पर भी जगत में व्याप्त अशुभ की समस्या का विश्लेषण का प्रयास किया जाता है। परंतु ईश्वरवादी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं जगत का रचयिता है, इसलिए यहां भी ईश्वर अशुभ के उत्तरदायित्व से नहीं बच पाता। पुनः संकल्प स्वातंत्र्य का दुरूपयोग किया है, जिसका परिणाम अशुभ है। परंतु यह उल्लेखनीय है कि मनुष्य को संकल्प स्वातंत्र्य प्रदान करने वाला स्वयं ईश्वर है। ईश्वर चाहता तो मनुष्य से ऐसा कोई कर्म ही नहीं करवाता, जिससे मनुष्य को दुःख हो और जगत में अशुभ उत्पन्न न हो। अंततः रैशडेल एवं ब्राईटमैन जैसे दार्शनिक इन समाधानों से निराश होकर भी स्वीकार करते हैं कि ईश्वर पूर्ण शुभ तो है, परंतु सर्वशक्तिमान नहीं। परंतु इससे ईश्वरवाद की मान्यता खंडित होती है। अतः ईश्वरवादी मान्यता के साथ कि ईश्वर पूर्ण दयालु एवं सर्वशक्तिमान है, अशुभ की समस्या का सामंजस्य बिठाना तार्किक दृष्टि से संभव नहीं लगता।