Question : वैज्ञानिक लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
(2006)
Answer : विश्व में प्रयोग होने वाली हर लिपि में कुछ न कुछ अपनी निजी विशेषताएं होती हैं जो उन्हें अन्य लिपियों से अलग तथा विशिष्ट बनाती है, हालांकि इन विशेषताओं में कुछ को उस लिपि का गुण माना जाता है, तो कुछ को दोष के रूप में देखा जाता है। देवनागिरी लिपि भी इसका उपवाद नहीं है। इस प्रकार देवनगरी लिपि की भी कुछ विशेषताएं गुण की श्रेणी में आते हैं, तो कुछ को उसके दोष के रूप में रेखांकित किया जाता है।
विश्व के किसी भी कोने में प्रयुक्त वर्णमाला उतने वैज्ञानिक रूप में वर्गीकृत नहीं हैं, जितने वैज्ञानिक रूप में। नागरी लिपि के वर्णमाला के वर्गीकरण में गड़बडि़यां उर्दू और रोमन लिपि में भी हैं। इन लिपियों में भी स्वर एवं व्यंजन (आलिफ, बे, डी, ई, एफ आदि) या व्यंजन के वैज्ञानिक वर्ग (लाम, मीम, सी, डी आदि मिले-जुले रूप में रखे गये हैं। देवनागरी में इस तरह की गड़बडी नहीं है। इसमें स्वर अलग हैं और व्यंजन अलग। स्वरों में भी ”स्व-दीर्घ के युग्म (अ-आ,इ-ई, उ-ऊ) साथ-साथ हैं।
समवेततः प्रारम्भ में मूल स्वर (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ) हैं और उसके संयुक्त स्वर (ए, ऐ, ओ, औ) व्यंजनों का, विशेष कर स्पर्श एवं अनुनासिक का, विभाजन तो और भी वैज्ञानिक है। क, च, ट, त, प के वर्ग स्थान पर आधारित हैं और हर वर्ग के व्यंजन घोषत्व के आधार पर दो प्रकार के हैं-प्रथम दो अघोष तथा अन्तिम तीन घोष। इसके साथ ही इनके वर्गीकरण या विभाजन में प्राणत्व का भी ध्यान रखा गया हैं। पहले, तीसरे और पांचवे अल्पप्राण हैं तथा दूसरे, चौथे महाप्राण। अनुनासिक व्यंजन वर्गों के अन्त में हैं। अन्त में अंतस्थ हैं।
देवनागरी लिपि में यह बहुत बड़ी विशेषता है कि जो लिपि-चिन्ह जिस ध्वनि का द्योतक है, उसका नाम भी वही है, जैसे-क, फ, अ, ओ, आ आदि। रोमन में ऐसा न होने के कारण भाषा सीखने वाले व्यक्ति को बहुत कठिनाई होती है और याद करना पड़ता है कि कौन चिन्ह किस ध्वनि के लिए आता है। जैसे ‘थ्’ चिन्ह का नाम ‘एफ’ है, लेकिन जब यह शब्दों में प्रयोग होता है तो इसका उच्चारण ‘फ’ होता है। उर्दू में यह अवैज्ञानिकता इतनी अधिक तो नहीं है, किन्तु नागरी की तुलना में अधिक अवश्य है।
एक ध्वनि के लिए एक लिपि-चिन्ह का होना अच्छी या वैज्ञानिक लिपि में होना बहुत आवश्यक है। यों किसी भी लिपि में अपने-आप यह विशेषता सर्वदा नहीं रह सकती है। इसका कारण यह है कि किसी भाषा के प्रसंग में उच्चारण के स्तर पर ही हर ध्वनि के लिए एक चिन्ह की बात की जा सकती है।
भाषा की ध्वनियां उच्चारण की दृष्टि से विशेषतः परिवर्तित होती रहती हैं, जिसका आशय यह हुआ कि एक समय किसी लिपि में यह विशेषता होती है और दूसरी भाषा के प्रसंग में नहीं हो सकती। स्पष्ट है कि इसका संबंध लिपि के अपने आंतरिक गुण से विशेष न होकर उसके प्रयोग से है। उर्दू में यह विशेषता नहीं है, जैसे- ‘स’ ध्वनि के लिए उर्दू में तीन लिपि चिन्ह हैं- ‘से’ ‘स्वाद’ ‘सीन’ तथा ‘ज’ ध्वनि के लिए उर्दू में चार लिपि चिन्ह -जे ‘लाल’ ‘जोय’ ज्वाद हैं।
अंग्रेजी में भी यह गड़बड़ी है, जैसे- ‘क’ ध्वनि के लिए K,C, CH, CK, Q आदि। देवनागरी लिपि में मूलतः यह अवगुण बिल्कुल नहीं था किन्तु अब हिन्दी आदि के प्रयोग में कुछ अवगुण (रि, टि, श, ष) अवश्य आ गया है लेकिन एवं उर्दू की तुलना में यह बहुत ही कम है। विश्व की अधिकांश लिपियों में चिन्ह पर्याप्त नहीं हैं।
अंग्रेजी में ध्वनियां 40 से ऊपर हैं, किन्तु केवल 26 लिपि चिन्हों से काम चलाना पड़ता है।
उर्दू में भी ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, धा, फ, भ आदि के लिए लिपि-चिन्ह नहीं हैं और ‘हे’ से मिलाकर काम चलाया जाता है। इस दृष्टि से देवनागरी लिपि पर्याप्त सम्पन्न हैं। देवनागरी का प्रयोग जिन-जिन भाषाओं के लिए हो रहा है, यदि अपवादतः कुछ नव विकसित ध्वनियों को छोड़ दें तो इस दृष्टि से इसमें कोई कमी नहीं है। देवनागरी लिपि की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें ”स्व और दीर्घ स्वरों के लिए स्वतंत्र लिपि चिन्ह हैं तथा रोमन लिपि इस दृष्टि से देवनागरी का मुकाबला नहीं कर सकती है।
रोमन में ‘ए’ ‘A’ अक्षर से ‘अ’ का भी काम लेते हैं, और ‘आ’ का भी ‘Kam ‘‘कम’ भी है और ‘काम’ भी या ‘Kala’ ‘कला’ भी है और ‘काला’ भी।
अंग्रेजी में ‘U’ यू’ ‘उ’ भी है और ‘ऊ’ भी। परन्तु देवनागरी में यह गड़बड़ी बिल्कुल नहीं है तथा अ-आ, इ-ई, उ-ऊ में स्पष्ट अन्तर है। अतः रोमन की भांति इसमें भूल की गुंजाइश नहीं है।
देवनागरी लिपि में स्वर यदि स्वतंत्र रूप से आते हैं तो पूरे वर्ण-चिन्ह का प्रयोग होता है (आग, ईद, गाउन), किन्तु व्यंजन के साथ ‘अ’के अतिरिक्त अन्य स्वरों का मात्र-रूप (नाग,लीद, चतुर) का प्रयोग होता है।
मात्रओं के प्रयोग के कारण देवनागरी लिपि में चिन्हों की संख्या में तो वृद्धि हो गई है, और कुछ दृष्टियों से (जैसे एक ध्वनि के लिए एक से अधिक चिन्ह) यह अवैज्ञानिक भी है, किन्तु सुविधा यह है कि स्थान कम घिरता है, जैसे-बालू-BALOO।
देवनागरी लिपि का हर व्यंजन - चिन्ह व्यंजन न होकर ‘व्यंजन और ‘अ’ स्वर का योग है, जैसे -क = क् + अ, ख = ख् + अ आदि। लिपि का ऐसा होना आक्षरिकता है अर्थात् व्यंजन चिह्न वस्तुतः अक्षर हैं। यहां अक्षर का अर्थ है व्यंजन और स्वर का संयुक्त रूप। देवनागरी लिपि की यह विशेषता एक दृष्टि से अवगुण ही है, किन्तु स्थान कम घेरने की दृष्टि से यह गुण भी है, जैसे कमल = Kamala , निर्मल = Nirmala आदि।
वैज्ञानिकता की दृष्टि से लिपि में यह विशेषता है कि उच्चारण की दृष्टि से समान लिपि- चिन्हों में आकृति की समानता होती है। विश्व की कोई भी लिपि इस दृष्टि से पूर्ण नहीं है।
रोमन लिपि में तो यह गुण प्रायः नहीं के बराबर (P- B अपवाद हैं) है। उर्दू में कुछ हैं (वे-पे, काफ-गाफ, जीम-चे) किन्तु नागरी में यह विशेषता अपेक्षाकृत अधिक हैं, जैसे - ट-ठ-ड-ढ-ड़-ढ, प-फ-ब-य-म, च-ज आदि।
इसके अलावा सुपाठ्यता की दृष्टि से भी देवनागरी लिपि बहुत वैज्ञानिक लिपि है। रोमन की तरह इस लिपि में को मल, माल, मैल पढ़ने की परेशानी उठाने की संभावना ही नहीं है।
उर्दू में भी ‘तर ‘तिर ‘तुर या ‘जूता को ‘जोता ‘जौता ‘जूता आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती प्रायः हो जाती है, किन्तु देवनागरी में यह अवैज्ञानिकता नहीं है। इस प्रकार अनेक दृष्टियों से देवनागरी लिपि अत्यंत वैज्ञानिक लिपि हैं, तथा उसके कई विशेषताएं अन्य लिपियों में दुर्लभ हैं।
किन्तु कोई भी लिपि पूर्णतः निर्दोष नहीं होती तथा उसमें कुछ ऐसी विशेषताएं भी होती हैं, जो लिपि के वैज्ञानिकता की कसौटी पर ठीक नहीं बैठती। वास्तव में जो लिपि मूलतः जिस भाषा के लिए बनती हैं, वह उस भाषा के लिए तो पर्याप्त और उपर्युक्त होती है, परन्तु कलान्तर में उस भाषा की ध्वनियों में विकार आ जाता है और लिपि वैसी ही बनी रह जाती है। देवनागरी लिपि भी इसका अपवाद नहीं हैं|
Question : आधुनिक हिन्दी में लिंग व्यवस्था
(2001)
Answer : संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की जाति का बोध हो, उसे व्याकरण में ‘लिंग’ कहते हैं। सारी सृष्टि की तीन मुख्य जातियां हैं- 1. पुरुष 2. स्त्री और 3. जड़। अनेक भाषाओं में इन्हीं तीन जातियों के आधार परं लिंग के भी तीन भेद किये गए हैं- 1. पुंल्लिंग 2. स्त्रीलिंग और 3. नपुंसक लिंग। संस्कृत, पालि, प्राकृत और एक सीमा तक अपभ्रंश में तीन लिंग थेः पुंल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग। इसके विपरीत, हिन्दी में दो ही लिंग- पुंल्लिंग और स्त्रीलिंग हैं। नपुंसकलिंग यहां नहीं है। अतः हिन्दी में सारे पदार्थवाचक शब्द, चाहे वे चेतन हों या जड़, स्त्रीलिंग और पुंल्लिंग इन दो लिंगों में विभक्त है। चूंकि हिन्दी में निर्जीव संज्ञाएं भी स्त्रीलिंग और पुंल्लिंग वर्गों में बंटी हुई हैं। अतः अभी तक इन शब्दों का लिंग-निर्णय के अपवाद रहित नियमों के अन्तर्गत सूत्रबद्ध नहीं किया जा सका है और शायद यहां संभव भी नहीं है। परन्तु इस दिशा में गंभीर प्रयत्न भी शायद नहीं किया गया है। साधारण रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी में ‘अकारान्त’ संज्ञाएं पुंल्लिंग और ‘इकारान्त’ तथा ‘ईकारान्त’ संज्ञाएं स्त्रीलिंग होती हैं: ‘अकारान्त’ तत्सम संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग तथा तद्भव शब्द पुलिंग होते हैं: जैसे- बालिका, लता (स्त्री), लोहा, डंडा (पु.)। पर इसके अनेक अपवाद भी हैं। इसी कारण अनेक अहिन्दी भाषी विद्वान हिन्दी के लिंग व्यवस्था को जटिल और कभी-कभी त्याज्य भी मानते हैं। हालांकि लिंग व्यवस्था को छोड़ने की बात तो भावना पर आधारित है, लेकिन यह स्वीकार किया जा सकता है कि हिन्दी के लिंग विधान कुछ जटिल अवश्य हैं। इस जटिलता को तर्कपूर्ण नियमों तथा संगत सुधारों द्वारा यथासंभव दूर किया जा सकता है।
हिन्दी में संज्ञा शब्दों के लिंग की अभिव्यक्ति वाक्य में विकारी विशेषण, क्रमवाचक संख्या शब्द, सर्वनाम, कृदन्त, क्रिया के पुरुष नियत रूप, परसर्ग ‘का’ तथा निपात ‘सा’ के लिंग के अनुसार होती है और तत्संबंधी संज्ञा से उनका अन्वय होता है। विकारी शब्दों का ‘आ’ प्रत्यय (बड़ा, दसवां, हंसता आदि) पुंल्लिंग और इ प्रत्यय (बड़ी दसवीं हंसती आदि) स्त्रीलिंग का सूचक है। संज्ञा के बहुवचन रूप द्वारा भी पुंल्लिंग और स्त्रीलिंग का द्योतक होता हैः जैसे- दो दरवाजे (पु.), दो खिड़कियां (स्त्री.)। पुंल्लिंग संज्ञाओं के बहुवचन में- ‘ए’ अन्त्य प्रत्यय और स्त्रीलिंग संज्ञाओं के बहुवचन में इयां अन्त्य प्रत्यय लगता है।
संज्ञा शब्दों में लिंग के साथ वचन का प्रवर्ग भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। हिन्दी में शब्दों के दो वचन होते हैं- एकवचन तथा बहुवचन। बहुवचन का रूप एकवचन में शब्द के अन्तिम स्वन तथा उसके पुंल्लिंग और स्त्रीलिंग रूप पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ- कमरा-कमरे, बहु-बहुएं।
भेडि़या-भेडि़ये, पुस्तक-पुस्तकें आदि।
Question : देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता
(2000)
Answer : देवनागरी लिपि में अनेक ऐसी विशेषताएं पायी जाती हैं, जो एक वैज्ञानिक लिपि के लिए आवश्यक है, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि विश्व की कोई भी लिपि सभी दृष्टियों से पूर्णतः वैज्ञानिक नहीं होती, उसमें कुछ न कुछ कमियां अवश्य होती हैं और देवनागरी लिपि इसका अपवाद नहीं है। हालांकि यह अवैज्ञानिकता देवनागरी लिपि में अन्य लिपियों के मुकाबले बहुत ही कम है। देवनागरी लिपि की निम्न विशेषताएं उसे एक आदर्श या वैज्ञानिक लिपि का दर्जा प्रदान करती हैः
Question : देवनागरी लिपि के मानवीकरण के लिए किए गए प्रयत्नों को स्पष्ट करते हुए संगणक यंत्र (कंप्यूटर) एवं आधुनिक दूरसंचार-सुविधाओं को दृष्टि में रखते हुए उसमें आवश्यक सुधारों पर प्रकाश डालिए।
(1999)
Answer : संविधान द्वारा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को राजभाषा स्वीकार करने के बाद देवनागरी के मानकीकरण का प्रश्न भी एक अहम प्रश्न रहा है। रोमन लिपि की तुलना में देवनागरी को हीन और अयोग्य ठहराने के लिए देवनागरी के विपक्ष में अनेक तर्क दिये जाते रहे हैं।
आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने इन तर्कों को एक जगह बहुत सुसंगत रूप में प्रस्तुत किया है-
‘‘प्राविधिक दृष्टि से देवनागरी पिछड़ी हुई है और उसके वर्तमान रूप के रहते, उसमें सुधार का अवकाश भी नहीं है। वर्णों के आकार जटिल हैं और संयुक्ताक्षरों के चलते वे और भी जटिल हो जाते हैं। संयुक्ताक्षरों को लिखने की कोई एक पद्धत्ति नहीं है। कभी वे बगल से लिखे जाते हैं, जैसे- क्ख, ग्ध में, तो कभी नीचे-ऊपर जैसे- ‘ट्ट’, ‘ड्ड’ में। कुछ संयुक्ताक्षरों को कोई निश्चित नियम नहीं है, जिससे लिखने में तो उलझन पैदा होती ही है, मुद्रण और टंकण में उससे भी अधिक उलझन होती है। जो काम अंग्रेजी में 52 टाइपों से चल जाता है, उसके लिए हिन्दी में 450 टाइप काम में लाने पड़ते हैं। देवनागरी आक्षरिक लिपि है, रोमन की तरह वार्णिक नहीं। इसलिए वर्णों को अलग-अलग लिखने के बदले एक ही में मात्रएं- कभी नीचे, कभी ऊपर, कभी बगल में लिखनी पड़ती हैं। इसके चलते वर्णों के स्वाभविक रूप में भी परिवर्तन करना पड़ता है। ये मोड़ और घुमाव इतने अधिक हो जाते हैं कि लिपि को जटिल बना देते हैं। देवनागरी में स्वरों के लिए दो चिह्न हैं- एक तो स्वरों को स्वतंत्र रूप में लिखने के लिए, जैसे- आ, इ, ई, उ, ऊ आदि और दूसरे वर्णों में जोड़ने के लिए जैसे- श, ि, ी, ु , ू आदि।…………देवनागरी की ये उलझनें और जटिलताएं इसके आधुनिक युग के अनुकूल होने में बाधक हैं।"
देवनागरी लिपि में सुधार हेतु स्वाधीनता संग्राम के दौरान तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक प्रयत्न किए गए। 1948 और 1953 में आचार्य नरेंद्र देव और डा. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में इस कार्य हेतु एक समिति गठित की गई। इसके बाद 1961 में भारत सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया, जिसका उद्देश्य मानक वर्तनी का सुनिश्चित निर्धारण था। इस समिति के सुझावों के आधार पर भारत सरकार के केंद्रीय हिन्दी निदेशालय ने सन् 1967 ई. में ‘हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें विभिन्न उदाहरणों और व्याख्याओं सहित हिंदी-देवनागरी की मानक वर्तनी का स्वरूप प्रस्तुत किया। इसमें दिये गये वर्तनी संबंधी प्रमुख नियम निम्न थेः
1.संयुक्त वर्णों (व्यंजनों) की वर्तनी में, खड़ी पाई वाले वर्णों की पाई (ा) हटाकर लिखना उपयुक्त है, जैसे- ख्याति, न्यास, व्यास, उल्लेख, सत्कार, स्वास्थ्य इत्यादि।
2.क, फ जैसे वर्णों की दांई घुंडी हटाकर इनके हलंत रूप (क्, फ्र) आगामी व्यंजनों के साथ जोड़ने चाहिए। जैसे- भक्त, मुफ्रत रफ्रतार, शक्ति इत्यादि।
3.छ, ट, ठ, ड, ढ, द, ह- इन व्यंजनों में हलंत चिह्न लगाकर इन्हें अगले व्यंजनों से जोड़ना चाहिए। जैसे- उच्छ्वास, खट्टा, पाठ्यक्रम, ड्यूक, धनाढ्य, उद्धृत, चिह्न आदि।
4.रेफ (र) का अन्य व्यंजनों से संयोजन करने के लिए प्रचलित तीनों रूप मान्य हैं- क्रम, कर्म, राष्ट्र।
5.श् + र का संयुक्त रूप ‘श्र’ मानक माना जाता है, बल्कि नागरी के पूर्व प्रचलित तीन संयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, ज्ञ के साथ ‘श्र’ को भी मानक वर्तनी की दृष्टि से देवनागरी वर्णमाला का चौथा संयुक्ताक्षर मान लिया गया है। उदाहरण- श्रम, श्रीमान, हश्र। इसी प्रकार लेखन में तो त्र और त्र- दोनों रूप मान्य हैं, किंतु देवनागरी वर्णमाला में, संयुक्त व्यंजनों (क्ष, त्र, ज्ञ, श्र) के अंतर्गत ‘त्र’ ही मान्य है, ‘त्र’ नहीं।
6.मानक वर्तनी के अंतर्गत किसी हलन्त व्यंजन से पहले ”स्व ‘इ’ की मात्र (f) लगाने से भ्रांति हो सकती है, इसलिए ‘द्वितीय’ मानक है ‘द्वितीय’ अमानक।
7.मानक वर्तनी संबंधी उपर्युक्त नियमों का पालन करते हुए भी, कुछ विशिष्ट तत्सम शब्दों के देवनागरी लिप्यंकन में पुरानी परंपरा विकल्प रूप में मान्य हो सकती है। जैसे-सड्-कल्प-संकल्प दोनों मान्य हैं। इसी प्रकार कण्ठ-कंठ, दण्ड-दंड दोनों रूप मान्य हैं।
8.संयुक्त क्रिया सदा अलग-अलग लिखी जानी चाहिए, मिलाकर नहीं- ‘निर्णय कर लिया गया है’ मानक है, ‘कर लिया गया है’- अमानक।
9.योजक चिह्न (-) प्रायः इन स्थितियों में लगाना उपयुक्त है-
(क)द्वंद्व समास वाले शब्दों के बीच-दिन-रात, सुख-दुख, माता-पिता आदि।
(ख)साम्यमूलक ‘सा-से-सी’, जैसा-जैसे-जैसी से पहले- एक-सा, बहुत-सी, तुम-जैसा इत्यादि।
(ग)तत्पुरुष समास वाले शब्दों के बीच भी योजक चिह्न लगाया जा सकता है। जैसे-भू-विज्ञान, राम-राज्य, राज-दूत। किंतु रामराज्य, भू विज्ञान, राजदूत रूप भी मान्य हैं।
(घ)हिन्दी की भाषिक संरचना के अंतर्गत संधि-व्यवस्था का विशेष महत्व है, किंतु वर्तनी के मानकीकरण की दृष्टि से कठिन संधि-युक्त संरचना से बचना वांछनीय है। उदाहरणतया ‘द्वि-अर्थक’ लिखना उपयुक्त होगा, द्वयर्थक लिखना ठीक नहीं होगा।
10.अव्यय (अविकारी) पदों का प्रयोग करते समय विशेष सावधानी आपेक्षित है। कुछ प्रमुख लेखन-संकेत इस प्रकार हैं:
(क)किसी समस्त पद का आरंभिक शब्द अव्यय होने पर (अर्थात अव्ययीभाव समास में) वह मत्यय अगले पद के साथ मिलाकर लिखा जाना चाहिए। जैसे- यथाशक्ति, प्रतिपल, इत्यादि। ‘यथा-शक्ति’ अथवा ‘यथा शक्ति’ लिखना अमानक होगा।
(ख)सम्मान-सूचक अव्यय आरंभ में होने पर अगले शब्द के साथ मिलाकर लिखने चाहिए।
(ग)‘तक’, ‘साथ’, ‘बिना’ आदि द्योतक अव्यय अपने से पहले के शब्दों से सदा अलग करके लिखने चाहिए। जैसे- ‘हम मंजिल तक पहुंचकर रहेंगे’, ‘आपके बिना काम नहीं चलेगा’, ‘हमारे साथ आप भी चलिए’।
11.नासिक्य स्वर के लिप्यंकण में आजकल सदा अनुस्वार का () प्रयोग ही मानक माना जाता है। जैसे-संत, पंथ, संबल, कंधा, गांधी आदि।
12.तत्सम शब्दों के नागरी-लिप्यंकन में हलन्त (-) और विसर्ग (:) के चिह्न यथावत् प्रयुक्त होने चाहिए-अर्थात्, साम्यक्, अंतःकरण, अतः, अन्ततः इत्यादि।
13.पूर्वकालिक क्रियाओं के संकेतक परसर्ग सदा उस क्रिया के साथ जोड़कर एक ही शिरोरेखा के अंतर्गत लिखने चाहिए जैसे खाकर, पढ़कर, लिखकर, पाकर, जाकर आदि मानक हैं। खा कर, पढ़ कर आदि नहीं।
14.सर्वनामों के साथ प्रयुक्त होने वाले कारकीय परसर्ग उनसे मिलाकर (एक शिरोरेखा के अन्तर्गत) लिखने चाहिए, जबकि संज्ञाओं के साथ प्रयुक्त होने वाले कारकीय परसर्ग अलग लिखे जाने चाहिए। जैसे- उसका, किसका, मैंने, तूने, उसमें, मुझमें, तुमसे, उनसे इत्यादि मानक हैं। इसी प्रकार बालक ने, सोहन को हाथ से, वृक्ष से इत्यादि प्रयोग मानक होंगे।
संगणक यंत्र (कम्प्यूटर) एवं आधुनिक दूरसंचार सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए नागरी लिपि में पहला सुधार यह किया जाना चाहिए, कि देवनागरी लिपि में कुंजियों की संख्या कम की जाय। हिन्दी में वर्णों, संयुक्ताक्षरों, मात्रओं आदि को मिलाकर 403 टाइप हो जाते हैं। और कुंजी पटल की भी एक सीमा होती है। उसमें देवनागरी लिपि के सारे वर्णों, संयुक्ताक्षरों और मात्रओं को जगह देना संभव नहीं है। अतः प्रयत्न यह किया जाय कि कुंजियों की संख्या कम हो जाय, जैसे-
क + र् = र्क; र + ु = रु
इ + र् = ई; उ + ु = ऊ
इस प्रकार के संयोजनों से कई अक्षर बनाये जाएं। इसी तरह अ+ा से आ, ष्+ा =ष, अ+ा+े से ओ आदि से कुंजियों की संख्या कम की जाय। इससे भी समस्या नहीं सुलझे, तो रु, शृ आदि अक्षर छोड़ दिया जाय।
अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि हिन्दी का वर्णमाला क्या है? क्या ड़, ढ़, वर्णमाला में दिखाये जाने चाहिए? क्या ज़, प़फ़ हिन्दी के अपने अक्षर हैं? क्या द्व, द्य आदि अक्षर हिन्दी में स्वीकृत हैं या इन्हें द्व और द्व से लिखा जाना चाहिए? इन प्रश्नों पर सही चर्चा और अंतिम निर्णय किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में कुंजीपटल के मानकीकरण नहीं हो सकता।
इस प्रकार के अन्य समस्याओं का निराकरण कर देवनागरी लिपि के वर्तनी को संगणक यंत्र तथा आधुनिक दूरसंचार मशीनों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।