Question : दक्खिनी हिंदी
(2008)
Answer : दक्षिण में प्रयुक्त होने वाले हिंदी को दक्खिनी हिंदी नाम से अभिहित किया गया है। इसका मूल आधार दिल्ली के आस-पास की 14वीं सदी की खड़ी बोली है। मुसलमानों (फौज, फकीर, दरवेश) के साथ हिंदी भाषा दक्षिण में पहुंची तथा उत्तर भारत से जाने वाले मुसलमानों और हिंदुओं द्वारा प्रयुक्त होने लगी।
इसमें कुछ तत्व पंजाबी, हरियाणवी, ब्रज तथा अवधी के भी हैं क्योंकि इन क्षेत्रें से भी लोग दक्षिण में गए, जिसके माध्यम से यह भाषा काफी कुछ मिश्रित हो गई। इसका क्षेत्र मुख्यतः बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर तथा गौणतः बरार, बंबई तथा मध्य प्रदेश है। इस पर बाद में उर्दू का भी प्रभाव पड़ा। साथ ही तमिल तेलगू तथा कन्नड़ का भी प्रभाव पड़ा, जिसे मुख्यतः शब्द समूह के क्षेत्र में स्पष्ट देखा जा सकता है। प्राचीन काल से ही इसमें काफी साहित्य की रचना हुई। इसकी मुख्य उपबोलियां-गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी तथा हैदराबादी है।
दक्षिण के बीजापुर, गोलकुंडा आदि के राजकीय प्रशासन में किन्हीं राजनैतिक कारणों से प्रायः ब्राह्मणों को ही हिसाब-किताब रखने का दायित्व सौंपा जाता था, जिनकी भाषा हिंदी थी।
हालांकि उसका लिखित रूप फारसी लिपि में आबद्ध था। इस प्रकार दक्खिनी हिंदी वास्तव में हिंदी फारसी मिश्रण से युक्त एक ऐसी भाषा के रूप में विकसित हुई, जिसकी भाषिक और व्याकरणिक स्वरूप कौरवी-हरियाणवी का था एवं बाह्य कलेवर (लिपिक आवरण) फारसी का। नीचे दिए गए उदाहरणों में दक्खिनी हिंदी के भाषा स्वरूप को देखा जा सकता है-
‘‘जिसे इश्क का तीर कारी लगे,
उसे जिंदगी क्यों न भारी लागे।’’ -वली
‘मैं आशिक उस पीव का जिसने मुझे जीव दिया है,
जो पीव मेरे जीव का जो कुर्का लिया है’
-ख्वाजा बंदे नवाज
इन उदाहरणों से दक्खिनी हिंदी के प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित रूप में उभरकर आता हैः
Question : प्रारंभिक खड़ी बोली और अमीर खुसरो
(2007)
Answer : हिन्दी भाषा के विकास के आरंभिक युग में ही प्रतिभा के धनी अमीर खुसरो का जन्म हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व हिन्दी भाषा एवं साहित्य का विकास-यात्र में खुसरो की हिन्दी रचनाएं एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु हैं।
उनकी ये हिन्दी रचनाएं काफी लोकप्रिय रही हैं। उनकी पहेलियां, मुकरियां, दो सखुने अभी तक लोगों की जुबान पर हैं। उनके नाम से निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है जिसके संबंध में कहा जाता है कि यह दोहा खुसरो ने ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के देहांत पर कहा था-
‘‘गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, रैनि भई चहुं देस।।’’
खुसरो का कार्यक्षेत्र खड़ी बोली की उत्स भूमि और राजनैतिक दृष्टि से समुचे भारत की केन्द्रीय स्थली दिल्ली होने के कारण उनका देश के बहुसंख्यक जन-समुदाय से बाहरी संपर्क स्वाभाविक था।
यह तथ्य सर्वविदित है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम मध्यप्रदेश की जनपदीय लोक भाषा को हिन्दी, हिन्दुई या हिन्दवी नामकरण किया तथा भारत के विभिÂ महानगरों, व्यापार केन्द्रों और तीर्थस्थलों के साथ-साथ सुदूर ग्राम अंचलों में बोली और समझी जाने वाली कौरवी को साहित्यिक पहचान दिया। उनसे पहले के अधिकांश रचनाकार मूलतः अपभ्रंश, अवहट्ठ भाषा में भावाभिव्यक्ति कर रहे थे, खड़ी बोली तो यदा-कदा प्रशंग-वंश उनकी वाणी में अनायास आ गया। इसके विपरीत अमीर खुसरो ने हिन्दी के विविधोन्मुखी भाषिक स्वरूप को अलग पहचान करके ब्रज और कौरवी में पृथक रचनाएं कीं। हालांकि उनकी हिन्दी कविता में खड़ी बोली के साथ-साथ दूसरी बोलियों के शब्द भी मिलते हैं।
“सारी रैन मोरे संग जागा, भोर मये विछड़न लागा।
जाके विछड़े फाटत हिया, ए सखी साजन ना सखी दिया।।”
इस प्रकार ब्रजभाषा, अवधी, कन्नौजी, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों का रंग उनकी हिन्दी रचनाओं में मिलता है। अमीर खुसरो ने अपनी फारसी रचनाओं में भी हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया हैः
‘सुखनशान मार-मार सर बसर मार।
बरावी गुफत है तीर मारा।।’
दिल्ली सल्तनत में एक ऊंचे पद पर आसीन होने के बाद भी वे एक सहृदय सूफी, निपुण संगीतकार एवं जन-जीवन के पारखी लोक चेता भी थे। उनकी वाणी और लेखनी ने खड़ी बोली के स्वरूप को संवारा और लोक शैलियों में निहित उसकी साहित्यिक ऊर्जा को संजोकर स्थाई अस्मिता प्रदान की। इसी कारण उनकी हिन्दी रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है। उनकी भाषा हिन्दी की आधुनिक काव्य-भाषा के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित होने का संकेत देती है। खुसरो की हिन्दी रचनाएं सरस होने के कारण ही करोड़ों हिन्दी भाषियों को आज भी न केवल याद है, बल्कि वे उन्हें गुनगुनाकर पुलक महसूस करते हैं।
Question : पूर्वी हिन्दी की बोलियों का परिचय एवं उनके अन्तर्संबंध।
(2007)
Answer : पूर्वी हिन्दी का वही क्षेत्र है जो प्राचीन काल में उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल था।
यह क्षेत्र उत्तर से दक्षिण तक दूर-दूर तक चला गया है। इसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में अवधी और मध्य प्रदेश में बघेली तथा छत्तीसगढ़ी का सारा क्षेत्र आता है, अर्थात् कानपुर से मिर्जापुर तक (लगभग 240 किमी-) और लखीमपुर की उत्तरी सीमा से दुर्ग बस्तर की सीमा तक (लगभग 900 किमी-) के क्षेत्र में पूर्वी हिन्दी बोली जाती है। इसके बोलने वालों की संख्या लगभग 5 करोड़ है।
पूर्वी हिन्दी की प्रमुख बोली अवधी का केन्द्र अयोध्या है तथा इस बोली का नामकरण अवध के आधार पर हुआ है। अवधी का क्षेत्र लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर मिर्जापुर, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी आदि है। अवधी में साहित्य तथा लोक-साहित्य दोनाें ही पर्याप्त मात्र में है। इसके प्रसिद्ध कवि मुल्ला दाऊद, कुतुबन, जायसी, तुलसीदास, उसमान, तथा सबलसिंह आदि हैं। अवधी की ध्वनि-संरचना और रूप-रचना मानक हिन्दी (खड़ी बोली) से पर्याप्त भिन्न है,
जैसे- ‘ए’ और ‘औ’ का उच्चारण ‘अइ’ तथा ‘अउ’ के रूप में होता है - ऐसा- अइसा, और अउर, व्यंजन ध्वनियां शब्द के अन्त में प्रायः उकारांत उच्चारित होता है, जैसे-सतु, रामु, दिनु इत्यादि। अवधि की प्रमुख उपबोलियां - बैसवाड़ी, मिर्जापुरी तथा बनौधी हैं।
बघेले राजपूतों के आधार पर रीवां तथा आस-पास का क्षेत्र बघेलखंड कहलाता है और यहां की बोली को बघेलखंडी या बघेली कहते है। बघेली का उद्भव अर्धमागधी अपभ्रंश के ही एक क्षेत्रीय रूप से हुआ है।
अवधी की निकटवर्ती बोली होने के कारण इसमें उसकी अधिकांश भाषिक विशेषताएं तो लक्षित होती हैं, कहीं-कहीं छत्तीसगढ़ी बोली का पुट भी मिलता है। इसका क्षेत्र रीवा, नागोदा, शहडोल, सतना, मैहर तथा आस-पास का क्षेत्र है।
अवध तथा मध्य प्रदेश का सीमावर्ती क्षेत्र ‘छत्तीसगढ़’ कहलाता है तथा इस क्षेत्र की बोली को छत्तीसगढ़ी के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ी का विकास अर्धमागधी अपभ्रंश से हुआ है। इसका क्षेत्र सरगुजा, कोरिया, बिलासपुर, रायगढ़, खैरागढ़, रायपुर, दुर्ग, नन्दगांव, कांकेर आदि हैं। छत्तीसगढ़ी में केवल लोक-साहित्य है। छत्तीसगढ़ी की प्रमुख उपबोलियां सरगुजिया, सदरी, बैगानी, बिंझवाली आदि हैं।
संज्ञा का मूल रूप और तिर्यक (बिकारी रूप एक ही बना रहता है। लरिका गवा, लरिका गयन। कर्तृकारक परसर्ग ने नहीं होता- हम लिखे, तुम खाये। कर्मकारक के संबंध के, केर_ सम्प्रदान के बरे_ करण अपादान से ओर अधिकरण मां परसर्ग है। सर्वनामों में मैं और तू का प्रयोग बहुत कम होता है।
क्रिया का रूप बहुत जटिल है। एक तो बहुत से तिडन्तीय रूप अभी तक अवशिष्ट है और दूसरे क्रिया के साथ सार्वनामिक प्रत्यय लगाते हैं, जैसे- आइत-ई (मैं तुम्हारे पास आता हूँ), करत्या (तू करता है), पूछिस (उसने उससे पूछा) इत्यादि। भविष्यत काल में ह और ब दोनों रूप चलते हैं।
Question : पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी
(2003)
Answer : पूर्वी हिन्दी और पश्चिमी हिन्दी की दो उपभाषाएं हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इन नामों से किन्हीं भाषाओं का अस्तित्व है और ये किसी क्षेत्र विशेष में बोली जाती हैं। वास्तव में यह नाम क्षेत्रीय निकटता और भाषिक समानता के आधार पर कुछ बोलियों के समूह के लिए प्रयुक्त नाम है। ये नाम ग्रियर्सन के रखे हुए हैं। उन्होंने केवल आठ बोलियों को ही भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी के अन्तर्गत मानते थे। इसीलिए हिन्दी शब्द का प्रयोग केवल ‘पश्चिमी हिन्दी’ तथा ‘पूर्वी हिन्दी’ के नाम में ही उन्होंने किया, अन्य नामों (पहाड़ी, राजस्थानी, बिहारी) में नहीं।
पश्चिमी हिन्दी का क्षेत्र पश्चिम में अम्बाला से लेकर पूर्व में कानपुर की पूर्वी सीमा तक एवं उत्तर में जिला देहरादून से दक्षिण में मराठी की सीमा तक चला गया है। इस क्षेत्र के बाहर दक्षिण में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल के प्रायः मुसलमानों के घरों में पश्चिमी हिन्दी का ही एक रूप दक्खिनी हिन्दी व्याप्त हैं। पश्चिमी हिन्दी में छः बोलियां-कौरवी (खड़ी बोली), ब्रजभाषा, बांगरू, कन्नौजी, बुन्देली और निमाड़ी को शामिल किया जाता है। साहित्यिक दृष्टि से यह उपभाषा बहुत संपन्न है। दक्खिनी हिन्दी, ब्रजभाषा और आधुनिक युग में खड़ी बोली हिन्दी का विशाल साहित्य मिलता है। इस उपभाषा में अनेक महान साहित्यकार हुए, जिसमें ब्रजभाषा के सूरदास, नन्ददास, भूषण देव, बिहारी, रसखान आदि के नाम सर्वविदित हैं। दक्खिनी में बंदानवाज, इब्राहीम आदिलशाह, वजही कुलीकुतबशाह जैसे महान रचनाकार हुए तो खड़ी बोली में भारतेन्दु युग से लेकर आज तक के महान साहित्यकारों का नाम लिया जा सकता है।
पूर्वी हिन्दी भौगोलिक दृष्टि से पहाड़ी, बिहारी, उडि़या, मराठी तथा पश्चिमी हिन्दी के बीच में बोली जाती है। यह कानपुर से मिर्जापुर तक (लगभग 150 मील) तथा लखीमपुर-नेपाल की सीमा से दुर्ग-बस्तर की सीमा तक (550 मील) के क्षेत्र में बोली जाती है। इस उपभाषा में तीन बोलियों, अवधी ‘बघेली’, छत्तीसगढ़ी को शामिल किया जाता है। अवधी में भरपूर साहित्य मिलता है। मंझन, जायसी, उस्मान, नूरमुहम्मद आदि सूफी कवियों का काव्य ठेठ अवधी में और तुलसी, मानदास, बाबा रामचरण दास आदि का रामकाव्य साहित्यिक अवधी में लिखा गया।
पूर्वी हिन्दी का उद्भव-स्रोत जहां अर्धमागधी अपभ्रंश है, तो पश्चिमी हिन्दी का शौरसेनी अपभ्रंश। भाषिक प्रकृति और संरचना प्रवृत्ति के स्तर पर भी दोनों में काफी भिन्नता है। पश्चिमी हिन्दी (ब्रज को छोड़कर) प्रायः आकारान्त प्रधान है तो पूर्वी हिन्दी प्रायः उकारान्त प्रधान (कहीं-कहीं आकारान्त भी)। पश्चिमी हिन्दी में पूर्वी हिन्दी की तुलना में खड़ापन अधिक है। पूर्वी हिन्दी में ‘अ’ का उच्चारण ‘ओ’ के बहुत समीप होता है, किन्तु पश्चिमी हिन्दी ‘अ’ के उच्चारण में ओठ वृत्ताकार नहीं होता। पश्चिमी हिन्दी में “स्व ‘इ’ तथा ‘उ’ का उच्चारण लगभग दीर्घ ‘ई’ तथा ‘ऊ’ के समान होते हैं, जबकि पूर्वी हिन्दी में इसका उच्चारण दृस्व ‘अ’, ‘उ’ होते हैं। पश्चिमी हिन्दी में ऐ, औ सरल स्वर हैं, जबकि पूर्वी हिन्दी में ये संयुक्त स्वर हैं, जैसे- बैल, ऐसा या मैला को पूर्वी हिन्दी में बइल, अइसा या मइला बोलते हैं। पूर्वी हिन्दी में कर्त्ता के साथ ने का प्रयोग नहीं होता जैसे- उसने मारा के स्थान पर ऊ मारेस। पश्चिमी हिन्दी में कर्म और सम्प्रदान कारक चिन्ह ‘को’ या ‘कॅू’ होता है जबकि पूर्वी हिन्दी में का , के, केहं, जैसे- उसको दे दो का पूर्वी हिन्दी में ओ क या केहं दे द्या। संज्ञार्थक में पश्चिमी हिन्दी में ‘ण’ और ‘न’ बाले रूप चलते हैं। पूर्वी हिन्दी में नहीं।
Question : विभाषा, बोली और भाषा के सबंधों को सोदाहरण स्पष्ट करते हुए हिन्दी की प्रमुख बोलियों का परिचय दीजिए।
(2003)
Answer : किसी भी भाषा को भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर कई वर्गों में बांटा जाता है। इसमें किसी भाषा का सबसे छोटा रूप व्यक्तिगत बोली होती है। यह व्यक्ति विशेष की उच्चारण विशेषताओं पर आधारित होती है। एक क्षेत्र के बहुत से लोगों की व्यक्तिगत बोली मिलकर स्थानीय बोली का निर्माण करती है। एक से अधिक स्थानीय बोलियां मिलकर एक उपबोली बनाती है और कई उपबोलियों के मिलने से बोली का निर्माण होता है। इन्हीं बोलियों के एक समूह को उपभाषा या बोली वर्ग कहा जाता है तथा अनेक उपभाषाएं मिलकर एक ‘भाषा’ का निर्माण करती हैं। उदाहरण के लिए भारतीय आर्यभाषा क्षेत्र को पांच भागों में बांटा गया तथा भारतीय आर्यभाषा हिन्दी, को पांच उपभाषाओं में बांटा गया है, ये हैं- राजस्थानी हिन्दी पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी। इनमें से प्रत्येक उपभाषा कई बोलियों के मिलने से बनी हैं।
भाषा और बोली को पृथक करने की अनेक कसौटी है, इनमें बोधगम्यता, सीमितता, मान्यता एवं साहित्य आदि प्रमुख हैं। यदि दो क्षेत्र के अशिक्षित और अप्रभावित व्यक्ति एक दूसरे की वाणी को नहीं समझते, तो उन दोनों की वाणियां दो भाषाएं हैं और यदि वे अधिकांश बात को समझ-समझा लेते हैं, तो उनकी वाणियां एक ही भाषा की दो बोलियां हैं। उदाहरण के लिए यदि एक मराठी और एक उडि़या अपनी-अपनी मातृभाषा में वार्तालाप करें, तो एक-दूसरे की बात को कुछ नहीं समझ पाएंगे। अतः मराठी और उडि़या दो भाषाएं हैं। लेकिन पटना जिले के मगही बोलनेवाला और मथुरा की ब्रजभाषा बोलनेवाला आपस में बात करें, तो पुरा न सही लेकिन बहुत कुछ समझ जाएंगें। अतः मगही और ब्रज एक ही भाषा को दो बोलियां हैं। अर्थात् यदि दो वाणियों में दुर्बोधता बहुत अधिक हो तो वे दोनों पृथक-पृथक भाषाएं हैं और यदि सुबोधता की मात्र अधिक हो तो ये दोनों वाणियां एक ही भाषा की दो बोलियां हैं। भाषाओं में इस दुर्बोधता का अनुपात कम हो तो इस आधार पर उपभाषाएं बनती हैं। बोलियों में सुबोधता का अनुपात यदि बहुत अधिक हो तो उपबोलियां बनती हैं और उपबोलियों के सामान्य लक्षण लेकर बोली बनती हैं और बोलियों के सामान्य लक्षण लेकर भाषा बनती है। लेकिन एक बात ध्यान देने योग्य है कि भाषा, विभाषा और बोली को पृथक करने का एकमात्र कसौटी बोधगम्यता नहीं है अन्यथा उर्दू और हिन्दी को दो अलग भाषा होने की धारणा खंडित हो जाएगी।
भाषा बोली और विभाषा या उपभाषा को पृथक करने की दूसरा महत्वपूर्ण कसौटी सीमितता है। बोली एक क्षेत्र-विशेष या वर्ग-विशेष के अन्दर सीमित होती है, जबकि विभाषा या उपभाषा का फैलाव कई क्षेत्रों या वर्गों तक होता है, लेकिन भाषा का क्षेत्र विस्तार इन दोनों से काफी ज्यादा होता है। उदाहरण के लिए भोजपुरी या अवधी का क्षेत्र निश्चित और सीमित है, जबकि पूर्वी हिन्दी या विहारी वर्ग की उपभाषाएं अपने क्षेत्र विस्तार में अवधी या भोजपुरी से अधिक हैं तथा हिंदी या बंगला का विस्तार क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है। शब्द-भंडार के आधार पर भी बोली और भाषा को अलग किया जा सकता है। बोली का शब्द-भंडार सीमित होता है, अनुमानतः किसी बोली की अपनी शब्द सम्पदा 20-25 हजार शब्दों से अधिक नहीं होती, किन्तु भाषा में लाखों शब्दों का व्यवहार होता है तथा भाषा में शब्द-संख्या बोली की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से बढ़ती रहती है, क्योंकि भाषा का संपर्क क्षेत्र व्यापक होता है। शिक्षा का माध्यम भाषा होती है, विभाषा या बोली नहीं। भाषा की एक साहित्यिक परंपरा होती है तथा यह साहित्य का माध्यम भी होता है। हालांकि छिटपुट साहित्य बोलियों में भी मिल जाती है, लेकिन वह अधिकांशतः लोक साहित्य है और जो थोड़े बहुत ललित साहित्य हैं भी तो उनकी परंपरा नहीं बनीः जैसे-अवधी में काव्य की परंपरा तुलसी के बाद आगे नहीं चली, इस कारण अवधी का साहित्यिक इतिहास नहीं बन सका। ब्रजभाषा का साहित्य कुछ शताब्दियों तक चला, लेकिन खड़ी बोली के विकास के कारण 20वीं शताब्दी तक आते-आते यह समाप्त प्राय हो गया और ब्रजभाषा पुनः बोली बनकर रह गई।
शासकीय मान्यता, धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक और राजनीतिक श्रेष्ठता और वरीयता भी किसी भाषा की पहचान, लेकिन बोली के साथ वह बात नहीं है। भाषा बोली व विभाषा से इस मायने में अलग होता है कि उसकी अपनी लिपि होती है, जबकि बोलियां उस भाषा की लिपि से अपना काम चलाती हैं। लेखबद्ध होने के कारण भाषा में स्थिरता रहती है और उसका एक मानक रूप निखरता रहता है। बोली बदलती ही रहती है और कभी-कभी काफी तेजी से बदलती है। यह बदलाव कुछ तो बोली की आन्तरिक प्रकृति के कारण होता है, तो कुछ बाह्य प्रभाव के कारण।
इन विभेदों के बावजूद एक भाषा की बोलिया और विभाषाएं आपस में जुड़ी रहकर उस भाषा को समृद्ध करती हैं, क्योंकि किसी भाषा की बोलियां परस्पर आदान-प्रदान के द्वारा भाषिक समानता की जो परिस्थितियां बनाती हैं, उससे उस भाषा के प्रसार एवं समृद्धि में पर्याप्त मदद मिलती है। किसी भाषा और उसके बोलियों के बीच तथा उस भाषा के उसकी विभाषाओं से आदान-प्रदान सिर्फ मौखिक नहीं होता। उदाहरण के लिए हिन्दी भाषा और उसके बोलियों को लिया जा सकता है। ब्रजभाषा काव्य में अवधी का उसी तरह खड़ी बोली के पुराने गद्य-पद में ब्रज के शब्दों का प्रयोग देखा जा सकता है। बोलियों के प्रभाव के कारण ही हिन्दी के अनेक बोली प्रभावित रूप मिलते हैं-पटना की हिन्दी, इलाहाबाद की हिन्दी, आगरे की हिन्दी आदि क्रमशः मगही, अवधी एवं ब्रजभाषा प्रभावित हिन्दी है। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भाषा का उसके बोलियों, तथा विभाषाओं के साथ घनिष्ट संबंध होता है क्योंकि ये सभी एक ही परिवार के सदस्य होते हैं।
हिन्दी की पांच उपभाषाएं हैं तथा प्रत्येक उपभाषा के अन्तर्गत एक से अधिक बोलियां आती हैं, लेकिन मारवाड़ी, कौरवी, ब्रजभाषा अवधी और भोजपुरी हिन्दी की प्रमुख बोलियां हैं। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न हैः
मारवाड़ीः यह राजस्थानी उपभाषा की बोली है। प्राचीन काल में राजस्थान का दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र मरू प्रदेश के रूप में जाना जाता था, जिसे अब ‘मारवाड़’ कहते हैं। इसके अन्तर्गत जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, सिरोही, अजमेर आदि का क्षेत्र शामिल है। ‘मारवाड़’ की इस क्षेत्र की बोली को मारवाड़ी (कहा जाता है वैसे शुद्व मारबाड़ी) जोधपुर और उसके आस-पास बोली जाती है। मारवाड़ी भाषा राजस्थान के बाहर भी मारवाड़ी व्यापारियों के माध्यम से दूर-दूर तक फैली हुई है। यह बोली लोक-साहित्य में बहुत समृद्ध है। इसकी विशेषताओं में मूर्धन्यीकरण की प्रवृत्ति प्रमुख है, जैसे नझण,थझठ आदि। टवर्ग-प्रधानता में भी ड-द के अतिरिक्त ड़-ढ़ ध्वनियों की प्रधानता है। अनेक क्षेत्रों में च और छ का उच्चारण स-ह जैसे होते हैं।
कौरवीः इसे खड़ी बोली भी कहा जाता है। यह पश्चिमी हिन्दी की आकार बहुला बोलियों में सर्वप्रमुख है। इस बोली को हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी बोलचाल की हिन्दुस्तानी भी कहा जाता है। यह बोली उन क्षेत्रों में बोली जाती है, जिसे पहले कुरू जनपद कहते थे। इसके अन्तर्गत कौरवी रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्रफरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अंबाला के पूर्वी भाग तथा पटियाला के पूर्वी भाग में बोली जाती है। इसका क्षेत्र पहाड़ी, ब्रज और हरियाणी बोलियों के बीच में पड़ता है। इस बोली में लोकगीत और लोकवार्तायें मिलती हैं, परन्तु उच्च साहित्य मानक हिन्दी में ही मिलता है। कौरवी के अधिकतर लक्षण वही हैं, जो मानक हिन्दी के हैं। व्याकरण के स्तर पर तो कौरवी मानक हिन्दी के बहुत ही करीब है।
ब्रजभाषाः शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित पश्चिमी हिन्दी की ओकार बहुल उपवर्ग की बोली है। यह ब्रजमण्डल की बोली है और प्राचीन काल में मथुरा और उसके आस-पास चौरासी कोस तक के मंडल को ब्रजमंडल कहा जाता था, परन्तु ब्रजभाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र अधिक विस्तृत है। वास्तव में ब्रजभाषा का क्षेत्र आगरा, मथुरा, धौलपुर, भरतपुर, करौली, ग्वालियर का पश्चिमी हिस्सा, बुलन्दशहर, अलीगढ़, एटा, मैनपुरी, बदायूं, बरेली और नैनीताल है। साहित्यिक दृष्टि से ब्रजभाषा अत्यंत संपन्न है। कृष्णभक्त कवियों की प्रचुर रचनाओं के अलावा सम्पूर्ण रीतिकालीन साहित्य इसी बोली में है। यह कई शताब्दियों तक समूचे भारत की साहित्यिक भाषा रही है। इसकी प्रमुख विशेषताओं में संज्ञाएं और क्रियाएं प्रायः ओकारान्त होती हैं तथा उन्हीं के अनुसार विशेषण और क्रिया रूप भी प्रायः ओकारान्त हो जाते हैं। जैसे- छोरा कित गयो हो, कैसो भलो मानस थो।
अवधीः अवधी अवध क्षेत्र की बोली है। इसका क्षेत्र लखनऊ, फैजाबाद, सीतापुर, रायबरेली, गोंडा, बाराबंकी और प्रतापगढ़ तक फैला हुआ है। इसका विकास अर्द्धमागधी से हुआ है तथा यह पूर्वी हिन्दी की प्रतिनिधि बोली है। साहित्य की दृष्टि से यह काफी समृद्ध भाषा है। इसमें जायसी, उस्मान जैसे सूफी कवियों और तुलसी, बाबा रामचरण दास, महाराजा रघुराज सिंह आदि राम कवियों का प्रचुर साहित्य मिलता है।
भोजपुरीः भोजपुर नामक एक व्यापक क्षेत्र की बोली को भोजपुरी कहा जाता है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, गाजीपुर, बलिया, बनारस, मिर्जापुर (दक्षिण-पूर्वी भाग) और जौनपुर तथा बिहार में शाहाबाद, छपरा, चम्पारण, रांची एवं पलामू के कुछ भाग आते हैं। भारत से बाहर मारिशस आदि देशों में भी भोजपुरी बोली जाती है। यह बिहारी उपवर्ग की प्रमुख बोली है तथा हिन्दी की बोलियों में सबसे बड़ी है। भोजपुरी में कुछ साहित्य का सृजन भी हुआ है।
Question : भोजपुरी और अवधी में अंतरः
(2002)
Answer : पूर्वी हिन्दी की दो प्रमुख बोलियां अवधी और भोजपुरी हैं। भोजपुरी बिहारी हिंदी उपवर्ग की बोली है, जबकि अवधी अवध प्रांत की मुख्य बोली है। ध्वनि और व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से दोनों में निम्नलिखित अंतर हैः
Question : हिन्दी की उपभाषाओं का वर्गीकरण करते हुए किन्हीं दो प्रमुख उपभाषाओं का परिचय दीजिए।
(2002)
Answer : आरंभ में ‘हिन्दी’ ‘हिन्दवी’ ‘भाषा’ या हिन्दुस्तानी’ किसी एक भाषा का नाम नहीं था। इसके अंतर्गत मध्य देश की लगभग सभी भाषाएं, विशेषकर दिल्ली और इसके आसपास की भाषाएं अवधी और ब्रजभाषा सम्मिलित थीं। आधुनिक काल में जब ‘हिन्दी’ भाषा को परिभाषित किया जाने लगा तो भाषावैज्ञानिकों और साहित्येतिहासकारों ने एक-दूसरे से किंचित भिन्न दृष्टिकोण अपनाया। ग्रियर्सन, सुनीति कुमार चटर्जी, धीरेन्द्र वर्मा, उदयनारायण तिवारी आदि भाषा शास्त्रियों के अनुसार प्राचीन मध्य देश की मुख्य बोलियों के समूह को ‘हिन्दी’ के नाम से पुकारा जाता है। जार्ज ग्रियर्सन ने अपने लिहाज से हिन्दी का एक क्षेत्र निर्धारित कर उसे दो वर्गों में बांटा जाता है। पूरब के क्षेत्र को उन्होंने पूर्वी हिन्दी क्षेत्र और पश्चिम के क्षेत्र को पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र कहा। पूर्वी हिन्दी क्षेत्रों में उन्होंने (i) अवधी (ii) बघेली एवं (iii) छत्तीसगढ़ी- मात्र तीन बोलियों को स्थान दिया तथा पश्चिमी हिन्दी उपभाषा वर्ग के अंतर्गत (i) खड़ी बोली (ii) बांगरू (iii) ब्रजभाषा (iv) कन्नौजी (v) बुंदेली एवं (vi) निमाड़ी को शामिल किया। ग्रियर्सन ने बिहारी, राजस्थानी एवं पहाड़ी क्षेत्र हिन्दी क्षेत्र के अंतर्गत नहीं माना और न ही इन क्षेत्रों की बोलियों को हिन्दी क्षेत्र की बोलियां कहा। बाद के भाषावैज्ञानिकों ने ग्रियर्सन के इस वर्गीकरण और सीमा निर्धारण की आलोचना की। कायदे से देखें तो सिद्धांततः एवं व्यवहारतः यह दोषपूर्ण है भी। जहां तक राजस्थानी, बिहारी और पहाड़ी भाषाओं का प्रश्न है तो शब्द भंडार और व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से हिन्दी परिवार या हिन्दी की उपभाषा वर्ग में रखा जा सकता है।
इस प्रकार हिन्दी के पांच प्रमुख उपभाषा वर्ग हैं-
(1) पश्चिमी हिन्दी (2) पूर्वी हिन्दी (3) राजस्थानी (4) पहाड़ी (5) बिहारी। ये पांचों उपभाषा-वर्ग मिलकर वृहद हिन्दी परिवार या संघ का निर्माण करती हैं।
1. पश्चिमी हिंदीः हिंदी के इस उपभाषा का क्षेत्र पश्चिम में अंबाला से लेकर पूर्व में कानपुर की पूर्वी सीमा तक एवं उत्तर में जिला देहरादून से दक्षिण में मराठी की सीमा तक चला गया है। इस क्षेत्र के बाहर दक्षिण में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के प्रायः मुसलमानी घरों में जो दक्खिनी हिन्दी बोली जाती है, उसका संबंध भी इसी वर्ग से है। इस उपभाषा के बोलने वालों की संख्या करीब सात करोड़ के आस-पास है। साहित्यिक दृष्टि से यह काफी संपन्न है तथा दक्खिनी हिन्दी, ब्रजभाषा और आधुनिक युग में खड़ी बोली हिन्दी के रूप में विशाल साहित्य इसमें मिलता है। सूरदास, नन्ददास, भूषण, देव बिहारी, रसखान, भारतेन्दु और रत्नाकर आदि महान कवि इसी उपभाषा-वर्ग के (ब्रजभाषा) हैं। खड़ी बोली की परंपरा भी लम्बी है। अमीर खुसरो से भारतेन्दु युग के आरंभ तक भले ही इसकी साहित्यिक गति मंद रही है, लेकिन पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना विशाल और बहुमुखी साहित्य इसमें लिखा है, उसकी कथा अवर्णनीय है। दक्खिनी हिन्दी में बंदानवाज, सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह, मुल्ला वजही, सुल्तान मुहम्मद कुली, कुतुबशाह आदि की रचनायें प्रसिद्ध हैं। पश्चिमी हिन्दी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। इसकी निम्न विशेषताएं हैं:
पूर्वी हिन्दीः पूर्वी हिन्दी भौगोलिक दृष्टि से पहाड़ी, बिहारी, उडि़या, मराठी तथा पश्चिमी हिन्दी के बीच में बोली जाती है। यह कानपुर से मिर्जापुर तक (लगभग 150 मील) तथा लखीमपुर-नेपाल की सीमा से दुर्ग-बस्तर की सीमा तक (550 मील) के क्षेत्र में बोली जाती है। यह वही क्षेत्र है जो प्राचीन काल में उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल था। इस उपभाषा वर्ग के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में अवधी और मध्यप्रदेश में बघेली तथा छत्तीसगढ़ी का सारा क्षेत्र आता है; अवधी में भरपूर साहित्य मिलता है। मंझन, जायसी, उस्मान, नूरमुहम्मद आदि सूफी कवियों काव्य ठेठ अवधी में और तुलसी, मानदास, बाबा रामचरण दास, महाराजा रघुराज सिंह आदि का रामकाव्य साहित्यिक अवधी में लिख गया है। इस उपभाषा वर्ग की तीनों बोलियां अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी में सामान्यता की दृष्टि से जितना घनिष्ट संबंध इनमें है, उतना हिन्दी की अन्य उपभाषाओं में नहीं। पूर्वी हिन्दी अर्धमागधी अपभ्रंश से निष्पन्न मानी जाती है। इसकी निम्न विशेषताएं हैं:
पूर्वी हिन्दी का ‘अ’ अर्धविवृत है तथा ”स्व स्वर ‘इ’ तथा ‘उ’ अधिक ”स्व है। पूर्वी हिन्दी में ‘ण’ की जगह ‘न’ तथा ‘श,’ ‘ष’ की जगह सदा स बोला जाता है। ‘ड’ और ‘ड़’ सह्रस्वन हैं-शब्द के मध्य और अंत में ‘ड़’ नहीं होता।
Question : हिन्दी की प्रमुख बोलियों का संक्षिप्त परिचय
(2000)
Answer : मारवाड़ी, कौरवी, ब्रजभाषा, अवधी और भोजपुरी हिन्दी की प्रमुख बोलियां हैं। इसमें मारवाड़ी/राजस्थानी उपभाषा वर्ग की प्रमुख बोली है। यह राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में बोली जाती है, वैसे शुद्ध मारवाड़ी जोधपुर और उसके आसपास बोली जाती है, और कुछ मिश्रित रूप में अजमेर, किशनगढ़, मेवाड़, सिरोही, पालनपुर, जैसलमेर आदि के लंबे-चौड़े क्षेत्र तक व्याप्त है। राजस्थान में तो इस भाषा के प्रयोक्ता बड़ी संख्या में हैं ही, राजस्थान से बाहर भी मारवाड़ी व्यापारियों के माध्यम से यह बोली दूर-दूर तक फैली हुई है। कलकत्ता, बंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में मारवाड़ी भाषी लोगों की संख्या पर्याप्त है। इस बोली का लोक साहित्य बहुत समृद्ध है। अब तो इसमें कई चलचित्र तथा दूरदर्शन- धारावाहिक भी बन रहे हैं। मारवाड़ी में मूर्धन्यीकरण की प्रवृत्ति, ट वर्ग प्रधानता कहीं-कहीं ओकारान्तताकी प्रवृति, मेवाती बोली की तरह ही बहुवचनात्मक पदों के अंत में ‘आं’ ध्वनि का मिलना आदि प्रमुख विशेषताएं हैं।
दिल्ली से उत्तर पूर्व यमुना के बायें किनारे तराई तक फैला हुआ, जितना विस्तृत प्रदेश है, उसका कोई नाम ही नहीं है, यद्यपि उसकी अपनी एक विशिष्ट बोली है, जिसके आधार पर आधुनिक हिन्दी का विस्तार और प्रचार-प्रसार हुआ है। इस बोली को हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, बोलचाल की हिन्दुस्तानी, खड़ी बोली तथा कौरवी आदि कई नाम दिए गए हैं। इसी प्रदेश को पहले कुरू जनपद कहते थे। कौरवी रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्रफर नगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग अंबाला तथा पटियाला के पूर्वी भाग में बोली जाती है। इस बोली में लोकगीत और लोकवार्तायें मिलती हैं, परंतु उच्च साहित्य मानक हिन्दी में ही मिलता है।
ब्रजमंडल क्षेत्र की बोली को ‘ब्रज’ कहते हैं। रूढ़ अर्थ में मथुरा और उसके आस-पास 84 कोस तक के मंडल को ब्रजमंडल कहते हैं। किंतु भाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र इससे अधिक विस्तृत है। मथुरा, आगरा और अलीगढ़ जिलों में ब्रजभाषा का शुद्ध रूप मिलता है। बरेली, बदायूं, एटा, मैनपुरी, गुड़गांव, भरतपुर, करौली, ग्वालियर तक ब्रजभाषा के थोड़े-बहुत मिश्रण पाये जाते हैं, परंतु प्रमुख बोली ब्रजभाषा ही है। भक्तिकाल और रीतिकाल में ‘ब्रजभाषा’ समूचे भारत में साहित्यिक (काव्य) भाषा के आसन पर प्रतिष्ठित रही, किंतु आधुनिक काल में पुनः सिमटकर बोली के स्तर पर आ गयी। ब्रजभाषा की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि प्रायः संज्ञाएं और क्रियाएं ओकारंत होती हैं तथा उन्हीं के अनुसार विशेषण और क्रिया रूप भी ओकारांत हो जाते हैं, जैसे- छोरा कित गयो हो।
अवध की बोली अवधी है। अवध प्रांत के अंतर्गत लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोंड़ा, बाराबंकी, लखनऊ, सीतापुर, उन्नाव, फैजाबाद, सुल्तानपुर, रायबरेली और हरदोई के जिले हैं। इसमें हरदोई जिले में अवधी नहीं बोली जाती। अवध के बाहर इलाहाबाद, फतेहपुर और जौनपुर तथा मिर्जापुर के पश्चिम भाग की बोली ही अवधी है। इसमें जायसी, उसमान आदि सूफी कवियों और तुलसी, बाबा रामचरण दास आदि राम कवियों का प्रचुर साहित्य मिलता है। अवधी में ‘उकारांतता’ की प्रवृत्ति अर्थात् अंतिम व्यंजन में सहित उच्चारण की प्रवृत्ति प्रमुख है। यह विशेषता अवधी को अर्द्धमागधी, अपभ्रंश और अवहट्ठ से मिली है।
भोजपुरी का नामकरण यद्यपि जिला शाहाबाद (बिहार) के एक गांव ‘भोजपुर’ के आधार पर हुआ है, लेकिन इसका क्षेत्र बिहारी बोलियों में सबसे अधिक है। इसके अंतर्गत गोरखपुर, देवरिया, बलिया, वाराणसी, जौनपुर और मिर्जापुर के जिले समाविष्ट हैं। भारत से बाहर मॉरिशस आदि देशों में भी भोजपुरी बोलने वाले बड़ी संख्या में हैं। हिन्दी बोलियों में यह सबसे बड़ी बोली है, यद्यपि भोजपुरी में लिखित साहित्य अधिक नहीं है, लेकिन इस क्षेत्र के अनेक गणमान्य व्यक्ति राजनीति, कला, सिनेमा तथा खेल जगत में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए यह बोली अन्य बोलियों की अपेक्षा अधिक चर्चित है।
Question : बहु-भाषिक स्थिति में संपर्क-भाषा के रूप में हिन्दी की मान्यता पर विचार व्यक्त कीजिए।
(1999)
Answer : भारत की भाषा-समस्या सुलझ कर भी उलझी हुई.सी हैं। यहां अनेक धर्म, अनेक जातियां और अनेक भाषाओं का अस्तित्व है। भाषाओं और बोलियों की संख्या यहां लगभग सात सौ हैं, जो भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रो-एशियाटिक और चीनी इन चार परिवारों की है। इसमें प्रमुख हैं- कश्मीरी, सिंधी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, बंगला, उडि़या, आसामी और हिन्दी। इस भाषा विविधता के बीच यह एक समस्या है कि संपर्क भाषा के रूप में किसे मान्यता दी जाए। संपर्क भाषा के दो पक्ष हैं- 1. जनता से जनता के बीच संवाद 2. जनता से सरकार के बीच संवाद। इसमें प्रथम स्थिति में भूमिका का निर्वहन करने वाली भाषा को राष्ट्रभाषा तथा दूसरे क्षेत्र में भूमिका का निर्वहन करने वाले भाषा को राजभाषा का अभिधान दिया जाता है। जहां तक राष्ट्रभाषा की भूमिका का प्रश्न है तो इस भूमिका को हिन्दी बहुत पहले से ही कुशलतापूर्वक निर्वाह करते आ रही है। राजभाषा के संबंध में विवाद अवश्य ही जटिल और गहरा है। इस भूमिका के लिए कुछ लोग संस्कृत का नाम पेश करते रहे हैं, किन्तु एक तो यह व्याकरण की जटिलता एवं रूपाधिक्य के कारण अत्यन्त कठिन है, और दूसरे यह आज की जीवित भाषा नहीं है। कई करोड़ आबादी वाले इस देश में हजार व्यक्ति भी शायद ही मिलें, जो इसका अधिकार के साथ बोलने और लिखने में प्रयोग कर सकें। दूसरा नाम अंग्रेजी का लिया जाता रहा है और अब भी लिया जाता है। वस्तुतः एक स्वतंत्र और स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए यह बहुत ही अपमानजनक है कि वह अपनी भाषाओं को छोड़कर किसी भी विदेशी भाषा को इस सम्मानीय स्थान पर प्रतिष्ठित करे। इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेजी भारत की किसी भी भाषा की तुलना में बहुत ही विकसित और संपन्न है, किन्तु ऐसे प्रसंग में तर्क के अतिरिक्त और भी बातों को सामने उभर आना स्वाभाविक है। जिस प्रकार हम अपने राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री आदि सम्मानीय पदों को अपने ही राष्ट्रवासियों को देते हैं, उसी प्रकार इस प्रसंग में भी हमें अपने ही भाषाओं में कोई एक भाषा चुननी होगी। जिस प्रकार हम किसी भी अन्य राष्ट्र के व्यक्ति को केवल इस आधार पर इन पदों पर नहीं रख सकते कि वह बहुत योग्य है, उसी प्रकार अधिक विकसित होने के आधार पर किसी अन्य देश की भाषा को संपर्क भाषा या राजभाषा नहीं बनाया जा सकता। इसके अतिरिक्त भारत में अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत भी नगण्य है। कहने के लिए तो लगभग एक प्रतिशत लोग अंग्रेजी जानते हैं, किन्तु इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि ऐसे व्यक्ति जो विश्वास के साथ अंग्रेजी बोल, लिख और पढ़ सकें शायद आधे प्रतिशत से अधिक नहीं होंगे, और इन आधे प्रतिशत के लिए शेष लगभग सौ प्रतिशत जनता भुलाई नहीं जा सकती। इस प्रकार संस्कृत या अंग्रेजी को भारत की सम्पर्क भाषा नहीं बनाया जा सकता।
इन दो भाषाओं के बाद हिन्दी का नाम ही विचारणीय है। यह इसलिए नहीं कि अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिन्दी अधिक सम्पन्न और सुविकसित है, जबकि वह इसलिए कि इसके बोलने वाले औरों की तुलना में सबसे अधिक हैं। हिन्दी के बाद भारत में सबसे अधिक तेलगु बोलने वालों की है। हिन्दी को छोड़कर भारत में किसी भी भाषा को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, किन्तु हिन्दी बोलने वालों का प्रतिशत 40 से अधिक हैं। यहां बोलने वालों से आशय है, जिनकी मातृभाषा हिन्दी या उसकी कोई बोली है। किन्तु इसके अतिरिक्त अहिन्दी-भाषियों में भी पर्याप्त संख्या ऐसे लोगों की है, जो हिन्दी बोल और समझ लेते हैं। इस प्रकार भारत का काफी बड़ा भाग हिन्दी से सुपरिचित है। इस संबंध में भाषा-विज्ञान के विद्वान डा- सुनीति कुमार चटर्जी का मत दर्शनीय है- फ्बोलने वालों एवं व्यवहार करने तथा समझने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दुस्तानी (हिन्दी) का स्थान जगत की महान भाषाओं में तीसरा है, इसके पहले केवल चीनी भाषा की उत्तरी बोली तथा अंग्रेजी कथा।’
इस प्रकार हिन्दी या हिन्दुस्तानी आज के भारतीयों के लिए एक बहुत बड़ा (रिक्थ) है। यह हमारे भाषा-विषयक प्रकाश का एक महानतम साधन तथा भारतीय एकता एवं राष्ट्रीयता का प्रतीक रूप है। वास्तव में, हिन्दी ही भारत की भाषाओं का प्रतिनिधित्व कर सकती है।"
यह हिन्दी के प्रचार और प्रचलन के आधार पर एक भाषा विशेषज्ञ का मत है। कहना न होगा कि इस दृष्टि से हिन्दी सम्पर्क भाषा बनने की अधिकारिणी है। दूसरी बात, जो हिन्दी को इस पद के योग्य बनाती है, वह है उसकी प्रकृति। इस बात की ओर सबसे पहले ग्रियर्सन ने संकेत किया था। उनका कहना था कि इसका व्याकरण अन्यों की तुलना में सरल है। गांधीजी ने भी अपने अनुभव के आधार पर इस प्रकार की बात कभी कही थी। हिन्दी की निम्न विशेषताएं उसकी सरलता को सूचित करती हैः
(क)कुछ दृष्टियों से हिन्दी सभी भारतीय भाषाओं के निकट है, आर्य भाषाओं से रूपों और शब्दों दोनों ही दृष्टियों से और द्रविड़ भाषाओं से वाक्य-विन्यास शब्द और मुहावरों की आधारभूत बातों की दृष्टि से।
(ख) सभी महान अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को प्राप्त भाषाओं (उदाहणार्थ अंग्रेजी) की भांति हिन्दी भी अब प्रांत या देश के संकुचित दायरे को छोड़कर विश्वकोषीय स्थिति को प्राप्त कर रही है। यह एक अत्यंत उदार तथा युक्तियुक्त नीति का अनुसरण करने वाली भाषा कही जा सकती है।
(ग) हिन्दी की शैली संक्षिप्त या लाघवपूर्ण एवं अलंकृत या विस्तारपूर्ण दोनों प्रकार की हो सकती है। यह एक ओजपूर्ण पौरुषयुक्त भाषा है।
(घ) ‘करना’, ‘बनाना’ आदि के साथ संज्ञा जोड़कर यह अनेक भावों को व्यक्त कर सकती है। इससे क्रिया के रूप घट जाते हैं तथा संज्ञा के प्रयोग के कारण क्रिया में स्पष्टता रहती है।
(ड) इसकी ध्वनियां नपी-तुली और सुनिश्चित हैं। कश्मीरी या पूर्वी बंगला की तरह स्वर-परिवर्तन की दुरूहता नहीं है। कठिन ध्वनियां भी इसमें नहीं हैं।
(च) हिन्दी के व्याकरण के रूप भी अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में कम है। ....बोलचाल की हिन्दी का व्याकरण तो केवल एक पोस्टकार्ड पर लिखा जा सकता है।
इस प्रकार प्रकृति की दृष्टि से भी हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा संपर्क-भाषा के पद की एकमात्र अधिकारिणी ठहरती है।
तीसरी बात जो हिन्दी के पक्ष में है, वह है परंपरा की। मनुस्मृति तथा अन्य अनेक ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति और धर्म का केन्द्र और स्रोत प्राचीन काल से ही मध्य देश रहा है, यहां की भाषा पूरे देश की एक प्रकार से संपर्क भाषा या राष्ट्रभाषा रही है। वैदिक संस्कृत का स्वरूप तो अधिकांशतः बाहर ही निश्चित हो चुका था, किन्तु लौकिक संस्कृति का संबंध मोटे रूप से मध्यदेश के पश्चिमोत्तर भाग से है। आगे चलकर सर्वमान्य भाषा पालि मिलती है। पालि का संबंध पहले विद्वान बिहार से मानते थे, किन्तु अब यह प्रायः निश्चित-सा हो गया है कि वह मूलतः मध्यदेश की भाषा थी। पालि के बाद उसका स्थान शौरसैनी, प्राकृत लेती है। इसका संबंध भी मध्यदेश से ही है।
इस प्रकार अपने काल की पूरे उत्तरी भारत की प्रतिष्ठित और सर्वमान्य भाषा शौरसनी अपभ्रंश का संबंध भी इसी मध्यवर्ती भूभाग से था। कहना न होगा कि खड़ी बोली हिन्दी भी इसी मध्यदेश से सम्बद्ध है और अपने-अपने काल की सर्वमान्य भाषा शौरसेनी अपभ्रंश का संबंध भी इसी मध्यवर्ती भू-भाग से था। कहना न होगा कि खड़ी बोली हिन्दी भी इसी मध्य प्रदेश से संबंध है और अपने-अपने काल की सर्वमान्य भाषा की परंपरा में (संस्कृत-पालि-शौरसेनी प्राकृत-शौरसेनी अपभ्रंश-हिन्दी) आती है। इस प्रकार परंपरागत रूप से भी हिन्दी सर्वमान्य भाषा है। इसे भाषा विज्ञानविदों ने भी स्वीकार किया है। इस प्रसंग में डा- चटर्जी का यह कथन देखा जा सकता है- ‘हिन्दुस्तानी भारत की एक सार्वजनिक भाषा के इतिहास की श्रृंगार में अन्तिम कड़ी के रूप में हमारे सामने आई। .... हमेशा उत्तर भारतीय मैदानों के पश्चिम भाग, आधुनिक पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उद्भूत भाषा ही सार्वजनिक भाषा बनकर रही है।’ यह बात विचित्र है कि आज भी यह बात किसी-न-किसी रूप में मान्य-सी है कि हिन्दी प्रदेश ही भारत का केन्द्र है। आज भी इस क्षेत्र के निवासियों के लिए नेपाल के लोग ‘मदेशिया’ (मध्यदेशीय) का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार बंगाली और पंजाबी, दोनों हिन्दी प्रदेश वालों को ही ‘हिन्दुस्तानी’ कहते हैं। यद्यपि वे स्वयं भी हिन्दुस्तानी ही हैं। इस प्रकार प्रचार-प्रसार, प्रकृति और परंपरा तीनों ही दृष्टियों से हिन्दी ही सम्पर्क-भाषा या राष्ट्रभाषा होने की स्थिति में है।
प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन हिन्दी वालों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए चलाया। लेकिन यह बात इतिहास न जानने वाले ही कहते हैं। हिन्दी वाले तो हिन्दी का प्रयोग करते ही थे, उसके आधार पर चारों ओर देश में घूम लेते थे, और उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी, इसीलिए भाषा की समस्या पर कभी उनका ध्यान नहीं गया। दूसरी ओर कोई अहिन्दी-भाषी जब अपने प्रदेश से बाहर जाता था तो उसके सामने यह प्रश्न स्वभावतः आता था कि वह दूसरों को अपनी बात कैसे समझाए और उन्हें स्वयं कैसे समझे, क्योंकि उनकी भाषा सभी जगह काम नहीं कर पाती थी।
इसीलिए सर्वप्रथम अहिन्दी भाषी भारतीयों ने ही अखिल भारतीय भाषा की ओर ध्यान दिया तथा यह माना कि हिन्दी ही यहां की अखिल देशीय भाषा है। दूसरे लोग जो इस बात को हिन्दी भाषियों से पहले अनुभव किया था, वे थे विदेशी। विदेशी जो भारत आए थे, वे यहां की सभी भाषा तो सीख नहीं सकते थे, लेकिन सभी भाषा जानना चाहते थे, जिसे जान लेने पर पूरे देश में काम चल जाए। इस प्रकार अहिन्दी भाषी भारतीयों और विदेशी लोगों ने ही सर्वप्रथम हिन्दी को अखिल देशीय भाषा के रूप में पहचाना और इसके जानने पर बल देना प्रारंभ किया।