Question : मध्यकाल में साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी के विकास की विवेचना कीजिए।
(2007)
Answer : अवध क्षेत्र की बोली को ही अवधी कहा जाता है। यह भाषा पुराने अवध प्रांत के हरदोई, खीरी आदि को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रें में बोली जाती है। यह लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ, बाराबंकी, कानपुर जिले के कुछ भाग, जौनपुर-मिर्जापुर के कुछ भाग, गंगा के दाहिने किनारे फतेहपुर एवं इलाहाबाद की भाषा है। बिहार के मुसलमानों तथा नेपाल की तराई के कुछ हिस्सों में भी प्रचलित है।
अवधी पूर्वी हिन्दी की सबसे महत्वपूर्ण बोली है। अवधी के पश्चिम में पश्चिमी हिन्दी की दो बोलियां- कन्नौजी और बुंदेली हैं तथा सबसे पूर्व में भोजपुरी का क्षेत्र है।
भाषा के अर्थ में अवधी का प्रथम उल्लेख अमीर खुसरो की ‘खालिक बाटी’ में मिलता है। उन्होंने अपने समय की भाषाओं का उल्लेख करते हुए अवधी को भी शामिल किया है। वैसे अवधी में किसी संपूर्ण काव्य-रचना का उदाहरण 1379 ई- में रचित ‘चंदायन’ है। इसकी रचना मुल्ला दाऊद ने की। इस प्रकार मुल्ला दाऊद ने अवधी को 14वीं शताब्दी में काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उनकी भाषा ठेठ अवधी है, जिसमें संस्कृत शब्दों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इसके अलावा कवि ने अरबी-फारसी शब्दों का भी बेहिचक प्रयोग किया है, लेकिन ये शब्द वही हैं जो बोलचाल में घुलमिल गए थे। चंदायन में मुल्ला दाऊद नेशृंगार रस के दोनों पक्षों-संयोग एवं वियोग का मनोरम रूप प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है।
अवधी भाषा को साहित्यिकता का सर्वाधिक अवदान प्रदान करने वाले सूफी कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी का नाम सर्वप्रमुख है। वे ठेठ अवध क्षेत्र के निवासी और वहां के सामान्य जनजीवन के कुशल पारखी थे। अवधी में रचित इनकी अनेक काव्य-कृतियां बतायी जाती हैं, जिसमें ‘पदमावत’ को मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ प्रेमाख्यानक प्रबंध काव्य होने का श्रेय प्राप्त है। इसके कथानक में कवि ने ‘इतिहास’ और लोकाख्यान का अनुठा सामंजस्य प्रस्तुत किया है। इसका कार्यक्षेत्र राजस्थान (चितौड़), दिल्ली के ऐतिहासिक स्थलों और सिंहलद्वीप के कल्पित काव्यलोक के बीच फैला होने पर भी इसमें चित्रित जनजीवन लोकविश्वास और सामाजिक बिंब अधिकांशतः अवध अंचल की झलक प्रस्तुत कराते हैं। इनकी भाषा भी ठेठ अवधी है, जिनमें संस्कृत और फारसी की अर्द्धतत्सम और तद्भव शब्दावली के अतिरिक्त अवध अंचल के देशज शब्दों और मुहावरों, लोकोक्तियों, सुक्तियों का विशेष प्राचुर्य है। ‘पद्मावत्’ को वास्तव में ठेठ अवधी की साहित्यिक संपदा का एक विलक्षण कोष और संदर्भ स्रोत माना जा सकता है। इसके द्वारा अवधी भाषा का जो साहित्यिक अभिधान मिला, वह भावी प्रेमाख्यान-काव्यों के लिए आदर्श उपजीव्य बन गया। इसीलिए ‘पद्मावत’ के पश्चात् रचे जाने वाले प्रायः सभी प्रेमाख्यान काव्यों का माध्यम भी ‘अधी’ ही रही है, चाहे उसकी रचना किसी भी अंचल में किसी भी वर्ग के (सूफी और गैर सूफी) कवि द्वारा हुई।
‘अवधी’ के साहित्यिक भाषा के रूप में विकास का दूसरा और विशेष महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु बना मध्ययुग में हिन्दी की रामभक्ति काव्यधारा का उन्नयन। सूफी कवियों द्वारा जिस ठेठ अवधी का साहित्यिक रूप विकसित हो रहा था, उसे हिन्दी की रामभक्ति काव्यधारा ने पुष्ट शास्त्रीय आयाम प्रदान कर एक परिष्कृत परिमार्जित साहित्यिक भाषा के सांचे में ढालने का ऐतिहासिक दायित्व निभाया। यद्यपि इसका सूत्रपात 14वीं शताब्दी के मध्य में ग्वालियर के तोमर राजा सभारत्न महाकवि विष्णुदास ‘रामायण-कथा’ की रचना के माध्यम से कर चुके थे, तथापि उनकी भाषा ‘अवधी’ की बजाय ग्वालियरी परवर्ती कन्नौजी एवं ब्रज के अधिक निकट थी।
रामानन्द द्वारा प्रवर्तित रमावत संप्रदाय और उसके द्वारा संचालित रामभक्ति आंदोलन का मुख्य केन्द्र राम की जन्मभूमि अवध था। अवधि में लिखित रामभक्ति काव्यों में गोस्वामी तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ काफी महत्वपूर्ण है। गोस्वामी जी ने अपने काव्य ‘रामचरितमानस’ में सूफियों की काव्यभाषा को सर्वथा नये ढंग से प्रस्तुत किया।
गोस्वामी जी की तीन काव्यकृतियां पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामलता नहछूूू पूरबी अवधी में लिखी गई हैं, जबकि ‘रामचरितमानस’ में पूरबी और पश्चिमी दोनों रूपों का मिश्रण है। मानस में जहां भी घरेलू या सामान्य जनों से संबद्ध प्रसंग हैं, वहां ठेठ अवधी भाषा है। उदाहरण के लिए कैकेयी और मंथरा के संवाद की एक पंक्ति-
तुम्ह पूंछहु मैं कहत डेराऊँ।
धरेहु मोर घरफोरी नाऊँ।
सजि प्रतीति बहुविधि गढि़ छोली।
अवध साढ़साती तब बोली।
इसी प्रकार केवल प्रसंग और वन जाते समय ग्रामवासियों के प्रसंग में भी ठेठ अवधी की मधुरता देखी जा सकती है, पर ऐसा स्थल रामचरित मानस में अपेक्षाकृत कम है। प्रमुखता उस भाषा की है जिसमें संस्कृत की कोमलकांत पदावली अवधी को समृद्ध बनाती है।
गोस्वामी जी की भाषा की एक प्रमुख विशेषता है कि वे तत्सम् शब्दों को बिल्कुल ही तत्सम रूप में नहीं रहने देते, उसे अवधीकरण करके ही प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए वन विहरणशील विपिन-बन बिहरनसील और बिपिन बन जाते हैं, करूणा और गुण - करूना, गुन बन जाते हैं। इस प्रकार तुलसी जी ने अधिकांश तत्सम शब्दों का अवधीकरण कर दिया है, जिससे वे बेमेल प्रतीत नहीं होते। इसके फल-स्वरूप एक ही अर्थ की विभिन्न छायाओं की अभिव्यक्त करने वाले पर्यायों का अभाव गोस्वामी जी के यहां नहीं दिखाई देता।
एक तरफ जायसी ने तथा दूसरी तरफ गोस्वामी तुलसीदास ने साहित्य की भाषा के रूप में अवधी को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। इधर सूफी काव्यधारा तथा रामभक्त कवियों की धारा आगे भी प्रवाहित होती रही, लेकिन बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में खड़ी बोली में काव्य रचना के आंदोलन ने जोर पकड़ा और अवध क्षेत्र के कवियों ने भी अपनी विशाल और महान काव्य परंपरा का मोह त्याग कर खड़ी बोली में काव्य रचना आरंभ कर दी और इस प्रकार जिस भाषा को जायसी और तुलसी ने उत्कर्ष की नई ऊचाइयां प्रदान की थी, वह मात्र एक बोली बनकर रह गया।
Question : अवधी भाषा का साहित्यिक योगदान
(2006)
Answer : अवधी साहित्य लगभग पांच शताब्दियों (14वीं से 19वीं शताब्दी) तक विभिन्न रचनाकारों द्वारा रचा जाता रहा। अवधी में किसी सम्पूर्ण काव्य रचना का प्रथम उदाहरण 1379 ई॰ में मौलाना दाऊद का चंदायन है। अवधी को काव्यभाषा या साहित्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। मौलाना दाऊद का सबसे अधिक महत्व इस बात में है कि उन्होंने एक बोलचाल की भाषा को अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा से श्रेष्ठ काव्यभाषा का रूप दे दिया।
उन्होंने अपने काव्य के लिए पूर्ववती और समकालीन चरितकाव्यों तथा फारसी के मसनवियों के मिले जुले काव्यरूप का आविष्कार किया। मुल्ला दाऊद के बाद कुतुबन ने 1503 ई- में मृगावती की रचना की। भाषा, काव्य और काव्यरूप की दृष्टि से यह चंदायन की परम्परा की ही कड़ी है। अवधी साहित्य के क्षेत्र में सर्वाधिक अवदान मलिक मुहम्मद जायसी का है। जायसी की काव्य प्रतिभा अत्यन्त उर्वर और आध्यात्मिक साधना सम्पन्न थी।
इन्होंने अवधी में चौदह ग्रंथों की रचना की, इसमें सबसे प्रमुख पदमावत है, जिसकी रचना 1527 से 1540 ई- के बीच हुई। इन ग्रंथों में जायसी ने बोलचाल की अवधी को साहित्यिक भाषा के उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। इन्होंने भाषा को सर्जनात्मकता प्रदान करने वाले समस्त अर्थगुणों, प्रयोगवक्रताओं, ध्वन्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करनेवाली शब्द योजना आदि के द्वारा अवधी भाषा को काव्य-सृजन के लिए सक्षम बनाने में सफलता प्राप्त की। ‘पदमावत के उपरान्त ‘अवधी में रचे गए कतिपय प्रमुख प्रेमाख्यान काव्य इस प्रकार हैं-
मधुमालतीः मंझन (1545 ई॰), चित्रवलीः उस्मान (1613 ई॰), रसरतनः पुहकर (1618 ई॰), ज्ञानदीपः शेख नबी(1619 ई॰), अनुराग बांसुरीः नूर मुहम्मद (1801 ई॰), हंस जवाहि कासिम शाह (18 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध)।
सूफी कवियों के बाद रामभक्त कवियों ने अवधि भाषा में काव्य की रचना की। इसमें सबसे प्रमुख तुलसीदास हैं। इन्होंने पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामलला नहछू नामक तीन छोटी काव्यकृतियों की रचना अवधी में की, लेकिन उनका रामचरित मानस अवधि भाषा की एक महत्वपूर्ण देन है। रामचरित मानस में गोस्वामी जी ने अपने पूर्वप्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों का प्रयोग किया है। गोस्वामी जी ने अपने रचना कौशल, प्रबन्धपटुता, सहृदय कथा के मार्मिक स्थलों की योजना आदि के द्वारा मानस को अवधी भाषा का एक अमूल्य निधि बना दिया। कहने की जरूरत नहीं कि अवधी भाषा के इस काव्य को संसार के सर्वश्रेष्ठ काव्यों की पंक्ति में रखा जाता है।
रामकाव्य के अन्य कवियों ने गोस्वामी तुलसीदास की भाषा का अनुसरण कर काव्य की रचना की। स्वामी अग्रदास और नाभादास की वर्णन शैली में अवधी के सौष्ठव को देखा जा सकता है। नाभादास जी का अष्टायाम, रामचरित मानस की शैली पर दोहा- चौपाइयों में लिखा गया है।
हालांकि रामचरित पर आधारित जो रचनाएं हुईं, उसमें गोस्वामी जी की रचना कौशल को अपनाने की कोशिश तो की गई परन्तु कोई भी रचना रामचरित मानस का स्थान नहीं ले सकी। वस्तुतः रामचरित मानस ही अवधी काव्य का शिखर है। आगे चलकर 20वीं शताब्दी में काव्यभाषा के रूप में खड़ी बोली ने अवधी का स्थान ग्रहण कर लिया, लेकिन अवधी भाषा की श्रेष्ठ रचनाएं हमेशा खड़ी बोली के रचनाकारों को प्रेरणा देती रही।