Question : हिंदी में ललित निबंध साहित्य का विकास स्पष्ट करते हुए उसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी का योगदान स्पष्ट कीजिए?
(2008)
Answer : साहित्य रूप की दृष्टि से हिंदी में निबंध का जन्म और विकास आधुनिक युग की देन है। आधुनिक काल में राष्ट्रीय जागरण, नई सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में हिंदी निबंध का आरंभ हुआ। नवजागरण की चेतना ने हमारी मानसिकता को परिवर्तित कर हमारे बोध और संवेदना को आधुनिक बनाया। नई तकनीक के विकास से मुद्रण यंत्रें का प्रचलन प्रारंभ हुआ। जिससे पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तथा अंग्रेजी साहित्य से संपर्क में वृद्धि हुई। इन सब कारणों से निबंध रचना को विशेष प्रोत्साहन मिला क्योंकि इस विधा के माध्यम से लेखक अपनी बात पाठकों तक सीधे पहुंचा सकते थे। हिंदी निबंध की शुरूआत 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से मानी जाती है। निबंध की आरंभिक परंपरा में भारतेंदु युग के लेखकों का विशेष महत्व है क्योंकि एक तो इस युग के लेखकों ने हिंदी निबंध की शुरूआत की, दूसरे उन्होंने विषय, शैली और भाषा तीनों स्तरों पर निबंधों में नये प्रयोग किए।
इस युग के निबंधों में विषय का वैविध्य था। तुच्छ से तुच्छ और गंभीर से गंभीर विषयों पर लेखकों ने लेखन किया। उनके द्वारा प्रतिपादित विषय वस्तु में जागृति का स्वर था। निबंधकार राष्ट्रप्रेम से प्रेरित थे। इस युग के निबंधकारों में बालकृष्ण भट्ट एवं प्रताप नारायण मिश्र प्रतिनिधि निबंधकार माने जाते हैं।
मिश्र जी के निबंधों में मनोरंजन के साथ-साथ व्यंग्य और कटाक्ष भी मिलता है। लोकजीवन की अनगढ़ता और भदेसपन के संस्कार से उनकी निबंध शैली मुक्त नहीं है। उनके अधिकतर निबंध व्यक्तिनिष्ठ हैं। उनके निबंधों की भाषा प्रवाहपूर्ण है। श्लेष शब्दों और कहावतों का प्रयोग कर भाषा में अनूठा चमत्कार पैदा करते हैं। ‘समझदार की मौत’ ‘भौं’, ‘बात’ आदि उनके प्रमुख निबंध हैं। भारतेंदु युग के दूसरे निबंधकार भट्ट जी के निबंधों में रूढि़यों के प्रति असंतोष है। वे नये सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के पक्षधर थे। नाटकीयता उनके निबंधों की प्रमुख विशेषता है, जो वैचारिक टकराहट से उत्पन्न होती है। भट्टजी के निबंध मनोवैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक हैं, जिसमें तर्क की प्रबल शक्ति मिलती है। ‘माधुर्य और आशा’ उनके मनोवैज्ञानिक निबंध है। इसके अलावा राजनैतिक एवं सामाजिक निबंध भी उन्होंने लिखा। इस युग के अन्य निबंध लेखकों में राधाचरण गोस्वामी, श्री तोताराम, ज्वाला प्रसाद, जगमोहन सिंह आदि प्रमुख हैं। इन निबंधकारों ने भट्ट जी एवं मिश्र जी के आदर्श को अपनाया।
सरस्वती पत्रिका के आरंभ के साथ ही हिंदी साहित्य में द्विवेदी युग का आरंभ होता है। द्विवेदी युग के निबंधों में अनौपचारिकता और आत्मीयता का वह भाव नहीं मिलता, जो भारतेंदु युग के निबंधों में है। इसके अलावा इस युग के निबंधों में भारतेंदु युग के निबंधों की स्वच्छंदता और उन्मुक्त्ता का भी अभाव है। भाषा के लिए द्विवेदी जी ने जिस अनुशासन को आधार बनाया, उससे रचनात्मक साहित्य भी प्रभावित हुआ। इस अनुशासन की छाया में निबंध का स्वच्छ विकास संभव नहीं था। इस काल में मौजूद आर्थिक विषमता और व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं ने निबंध साहित्य में एक विशिष्ट प्रकार की मनोवृत्ति का विकास किया। यह मनोवृति निबंधों में बौद्धिकता के प्रसार के रूप में मिलती है, जो संवेदना की अपेक्षा ज्ञान को अधिक झकझोरती है और लेखकों का ध्यान ज्ञान के विविधता, विचारों की गंभीरता, भाषा की शुद्धता तथा व्याकरण सम्मता अधिक मिलती है। स्वयं द्विवेदी जी के निबंधों में विचारों की प्रधानता है। ‘कवि और कविता’ तथा ‘प्रतिभा’ उनके विचार प्रधान निबंध है। इस काल के प्रमुख निबंधकारों में माधव प्रसाद मिश्र, बालमुकुंद गुप्त तथा चंद्रधर शर्मा गुलेरी प्रमुख हैं।
गुलेरी जी के निबंधों की प्रमुख विशेषता यह है कि निबंधों में विशिष्ट प्रकार की बौद्धिकता के होते हुए भी उसकी संवेदना बोझिल नहीं होती। शास्त्रें के ज्ञान की शुष्कता को सरल ढंग से प्रस्तुत करने की उनकी अपनी शैली है। ‘सच्ची वीरता’, ‘आचरण की सभ्यता’ तथा ‘मजदूरी ओर प्रेम’ उनके प्रतिनिधि निबंध है। शुक्ल युग में हिंदी साहित्य के इतिहास का एक नया दौर आरंभ होता है। निबंध को इस युग में नये प्रकारों से तराशा गया। लेखकों ने विचारों और भावों की सूक्ष्मता से निबंध को अधिक व्यंजक और आकर्षक रूप दिया। इस युग के निबंध में भाव के वस्तुगत यथार्थ की खोज की जा रही थी। आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंध में इसी बात को समझाने का प्रयास किया गया है कि मनोविकार का वस्तुगत कारण क्या होता है?
शुक्ल जी ने मनोविकार का सामाजिक आधार स्पष्ट करते हुए उसे मनुष्य के व्यवहार से जोड़ा। इस वैज्ञानिक दृष्टि ने निबंध के पूरे गठन को परिवर्तित करके रख दिया। इस दृष्टि का प्रभाव उस युग के दूसरे निबंधकारों पर भी पड़ा तथा उन्होंने विषयवस्तु को गहराई में समझने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि इस युग में निबंध का पूरा ढांचा ही परिवर्तित हो गया।
इस युग के प्रतिनिधि निबंधकार आचार्य शुक्ल हैं। उन्होंने विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे, जो चिंतामणि के तीन भागों में संकलित है। उनकी प्रवृति गंभीर विवेचन और तीखे व्यंग्य की रही है। यही कारण है कि निबंधों में उनका चिंतक और मानवतावादी रूप उभरा है। उन्होंने भय, क्रोध, करूणा आदि विभिन्न मनोभावों पर दस निबंध लिखे, जिनमें वे इन मनोभावों के सामजिक पक्ष का विश्लेषण किया। शुक्ल जी ने साहित्य के गंभीर पक्षों पर भी लिखा। ऐसे निबंधों में गंभीर चिंतन, सैद्धांतिक विवेचना और तर्कपूर्ण व्याख्या के साथ-साथ भावुक हृदय के दर्शन भी होते हैं, जैसे-कविता क्या है, साधारणीकण, व्यक्ति वैचि=यवाद, रसात्मक बोध के विविध रूप आदि।
इस काल के अन्य निबंधकारों में बाबू गुलाब राय महत्वपूर्ण निबंधकार हैं। वे व्यक्ति व्यंजक निबंधकारों में हैं। उन्होंने दार्शनिक, साहित्यिक, संस्मरणात्मक और विनोदात्मक निबंधों की रचना की है। शांतिप्रिय द्विवेदी इस काल के एक अच्छे निबंधकार हैं। ‘कवि और काव्य’ तथा ‘साहित्यिकी’ उनके निबंध संग्रह हैं। उनके निबंधों की शैली में छायावादी भावुकता का प्रभाव मिलता है। भावों की तरल अभिव्यक्ति उनके निबंध की अभिव्यंजना के मूल तत्व हैं। शिवपूजन सहाय, रघुवीर सिंह के अलावा छायावादी कवियों-प्रसाद, निराला तथा महादेवी वर्मा ने भी कुछ निबंधों की रचना की। शुक्ल युग के समाप्त होते-होते हिंदी में व्यक्ति प्रधान निबंधों के लिए आधारभूमि तैयार हो चुकी थी। इसी समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंधन रचना में सक्रिय हो रहे थे। शुक्लोत्तर निबंधकारों में हजारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व केंद्रीय है। उन्होंने अपने मौलिकता से निबंध साहित्य को नई दिशा दी। इनके ललित निबंधों की कल्पनाशीलता, रोमांटिक भावबोध पैदा करती है।
उनके निबंधों में नाटकीयता का गहरा अनुभव मिलता है। वे किसी बात की जितनी गहराई में जाते हैं, उसे उतने ही सहज रूप से प्रस्तुत कर देते हैं। निबंध के विषय के साथ वे पाठक को लेकर सांस्कृतिक यात्र पर निकल पड़ते हैं। इस सांस्कृतिक यात्र में वे कहीं भी असहज नहीं होते हैं। अपने पांडित्य को लोक मानस की संवेदना के साथ घुला मिला देना उनकी खास विशिष्टता है। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि हमें अतीत की ओर नहीं ले जाती। वह कहीं न कहीं हमारे समकालीन समाज की विषमताओं पर प्रहार करती है। उनके निबंध में विवेक और आत्मविश्वास का स्वर भरा है। यह आत्मविश्वास गहरी मानवीय जिजीविषा से उपजा है। द्विवेदी जी के निबंधों में शोषितों के प्रति गहरी सहानुभूति है। समाज में हाशिए पर जीने वाले लोगों के प्रति आत्मीयता है। उनके निबंध की शैली में अनगढ़ता है, जो उनके निजी अनुभव और खोज का नतीजा है। निबंधों में उनके अनुभूति का स्पंदन है। उसमें कविता की सूमक्ष्मता और गद्य की वैचारिकता का समावेश है।
यद्यपि आचार्य द्विवेदी परंपरा को स्वीकार करते हैं, परंतु उसके गूढ़ तत्व को महत्व नहीं देते अपितु उसके जीवन पक्ष को ही मान्यता देते हैं। मूलतः ये भारतीय संस्कृति के पोषक हैं।
इस प्रकार निबंध लेखन में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। अशोक के फूल (1984), कल्पलता (1951), विचार प्रवाह (1951) और कुटज उनके प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं।
शुक्लोत्तर निबंधकारों में जैनेंद्र का नाम उल्लेखनीय है। उनके निबंध मुख्यतः विचार प्रधान हैं। उन्होंने धर्म, राजनीति, संस्कृति, साहित्य, सेक्स, काम, प्रेम आदि विषयों से अपने निबंध का टेसर तैयार किया है।
‘जड़ की बात’, ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’, ‘सोच विचार’, ‘मंथन’ आदि उनके प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं। दिनकर ने काव्य के साथ साथ कुछ निबंध की भी रचना की। अर्द्धनारीश्वर, मिट्टी की ओर, रेती के फूल आदि उनके निबंध संग्रह हैं। दिनकर के निबंधों में उनकी सांस्कृतिक आस्था और मानवतावादी दृष्टि उभरती है। कुछ निबंधों की रचना रामवृक्ष बेनीपुरी ने भी की है। गेहूं और गुलाब तथा बंदे वाणी विनायकौ उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं। उनके निबंधों की शैली और विचार में नवीनता है।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी निबंधकारों में विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय और प्रभाकर माचवे का नाम महत्वपूर्ण है। माचवे का खरगोश के सींग विद्यानिवास मिश्र के छितवन की छांह, तुम चंदन हम पानी, मेरे राम का मुकुट भीग रहा है आदि तथा कुबेरनाथ राय का प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंध मादन और विषाद योग प्रमुख निबंध संग्रह है। माचवे के निबंधों में व्यंग्य की कड़ुवाहट है। विद्यानिवास मिश्र ने जीवन के विविध सांस्कृतिक पक्षों का रागात्मकता के साथ अंकित किया है। उनके निबंध की संवेदना गीतात्मक हो जाती है। यह गीतात्मकता उन्होंने लोकजीवन की लयात्मक संवेदना से प्राप्त की है। कुबेरनाथ राय, द्विवेदी जी की शैली से प्रभावित हैं। व्यंग्य शैली के निबंधकारों में हरिशंकर परसाई का नाम अग्रणी है। उनके निबंधों के विषय मुख्यतः सामाजिक और राजनीतिक होते हैं।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी निबंध में अज्ञेय और निर्मल वर्मा का महत्वपूर्ण योगदान है। दोनों की चिंतन की दिशा लगभग एक ही रही है।
समाज, व्यक्ति, परंपरा, कला, औपनिवेशिकता आदि ऐसे बिंदु हैं, जिसे दोनों रचनाकारों ने समान रूप से उठाया। पर दोनों रचनाकारों की शैली में अंतर है। अज्ञेय के निबंध के गद्य विचारात्मक उत्कृष्टता के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। निर्मल वर्मा के निबंध में लयात्मकता है। उनके विचार लयात्मक चिंतन में ढले हुए प्रतीत होते हैं। त्रिशंकु, आत्मनेपद, सर्जना और संदर्भ, आलवाल आदि अज्ञेय के प्रतिनिधि संग्रह हैं। निर्मल वर्मा के प्रमुख निबंध संग्रह ‘कला का जोखिम’, ‘हर वारिस में’, ‘शब्द और स्मृति’, ‘भारत और यूरोप’ ‘प्रतिश्रृति के क्षेत्र’ आदि हैं। नये निबंध लेखकों में अशोक वाजपेयी
Question : हिन्दी के ललित निबंधकार
(2005)
Answer : ललित निबंध में लालित्य अर्थात् सरस शैली के उत्कर्ष पर विशेष बल होता है। निबंधकार अपने भावों और विचारों को इस रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, जो सरस, अनुभूतिजन्य, आत्मीय और रोचक लगे। जिसमें भाषा शुष्क न हो बल्कि उसमें कल्पनाशीलता, सहजता और सरसता हो। ललित निबंधकार गहरे विश्लेषण, उबाऊ, वर्णन, जटिल वाक्य रचना से बचता है। ललित निबंधों में रचनाकार के व्यक्तित्व की छाप रहती है। सबसे प्रमुख निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं पर ललित निबंध की श्रेणी में उनके वे सभी निबंध नहीं है, जो ‘चिन्तामणि’ के दोनों खण्डों में संकलित है। चिन्तामणि के दूसरे भाग में संकलित ‘काव्य में प्राकृति दृश्य’, ‘काव्य में रहस्यवाद’ और ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ निबंध न होकर विस्तृत आलोचनात्मक लेख है। चिन्तामणि के प्रथम भाग में भी तीन प्रकार के निबंध है। इनमें दो साहित्यालोचन से संबद्ध है। शेष एक ‘मनोविकार संबंधी निबंध को भी शुद्ध ललित निबंध नहीं कहा जा सकता। हालांकि उनके मनोविकार विषयक निबंध में ललित निबंधों आत्मीयता, काव्य-गुण प्रवृत्ति अनेक विशेषताएं विद्यमान हैः फिर भी गम्भीर चिन्तन, सूक्ष्म विश्लेषण और तर्क की प्रधानता के कारण इन्हें सही अर्थों में ‘ललित निबंध नहीं कहा जा सकता। ‘ललित निबंध’ की दृष्टि से गुलाबराय के कुछ निबंध काफी महत्वपूर्ण है। ‘मेरा मकान’, ‘मेरे नापिताचार्य’, ‘मेरी दैनिकी का एक पृष्ठ’, ‘प्रीतिभोज’ आदि निबन्ध ललित निबंध की सभी विशेषताओं से युक्त हैं। इन निबंधों में गुलाबराय ने गम्भीर आलोचनीय पाण्डित्य वाली मुद्रा का त्याग कर, सर्वथा अनौपचारिक बातचीत की शैली में अपने व्यक्तिगत जीवन तथा आसपास की तुच्छ दीख पड़ने वाली वस्तुओं के संबंध में भावपूर्ण उद्गार और चलती हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने भी कतिपय ललित निबंध लिखे, जो पंचपात्र में संगृहीत है। इसमें संकलित ‘अतीत स्मृति’, ‘उत्सव’, ‘रामलाल पण्डित’, ‘श्रद्धांजली के दो फूल’ आदि निबंधों में लेखक की भावुकता, आत्मीयता तथा व्यंग्यपूर्ण प्रतिक्रिया का सुन्दर समन्वय मिलता है। अन्य ललित निबंधकारों में शांतिप्रिय द्विवेदी, शिवपूजन सहाय, बेचन शर्मा ‘उग्र’, रघुवीर सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, विवेकी राय आदि प्रमुख हैं। इन ललित निबंधकारों में प्रमुख स्थान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। इनके प्रमुख निबंध संग्रह ‘अशोक के फूल’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कल्पलता’ आदि है। द्विवेदी जी के निबंधों में मानवतावादी जीवन दर्शन और भावुक हृदय के दर्शन होते हैं। द्विवेदी जी ने अपने निबंधों को विचारों से बोझिल नहीं होने दिया है बल्कि भावानुकूलता के आवेग में विचारों को प्रस्तुत कर उसे नया रूप प्रदान किया है। खूबी यह है कि विचार, तर्क और भाव के गठाव में कहीं भी विखराव और शैथिल्य नहीं आ पाता। विद्यानिवास मिश्र के प्रमुख निबंध संग्रह है- ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’, ‘तुम चंदन हम पानी’, ‘तमाल के झरोखे से’, ‘संचारणी’ आदि। मिश्रजी की निबंधों की शैली भावपूर्ण और काव्यमय है तथा भाषा भी वैसी ही काव्यमय और सरस है। इन्होंने संस्कृत के ललित शब्दों का भी प्रयोग किया है।
Question : हिन्दी में रेखा चित्र और संस्मरण
(2003)
Answer : हिन्दी में ‘रेखाचित्र’ और ‘संस्मरण’ का प्रचलन आधुनिक युग में पश्चिमी प्रभाव और उसके वातावरण में हुआ। रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाव का, कम-से-कम शब्दों मे मर्मस्पर्शी, भावपूर्ण और सजीव अंकन है। रेखाचित्र में तटस्थता, संक्षिप्तता एवं तीखापन अधिक होता है और ये ही विशेषताएं उसे अन्य साहित्य रूपों से अलग करती है। जब लेखक सहज आत्मीयता तथा गंभीरता से अपने या किसी अन्य व्यक्ति के जीवन में बीती किसी घटना अथवा दृश्य का स्मरण कर उसका वर्णन करता है, तो उसे संस्मरण कहते हैं। हिन्दी में संस्मरण का जन्म पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ। सरस्वती, माधुरी, सुधा, विशाल भारत आदि में साहित्य सेवियों, समाज सुधारकों, राजनीतिक महापुरुषों के संस्मरण 1907 ई. में बालमुकुंद गुप्त द्वारा प्रताप नारायण मिश्र पर लिखा गया। इसके बाद गुप्त जी ने ‘हरिऔध जी के संस्मरण’ को लिखा। इसमें पंद्रह संस्मरण संकलित हैं। इसमें रेखाचित्र भी हैं बालमुकुंद गुप्त के बाद बाबू श्यामसुंदर दास ने लाला भगवानदीन के स्वभाव की प्रमुख विशेषताएं बताते हुए, एक रेखाचित्र-प्रधान संस्मरण लिखा। इसके बाद 1929 से 1937 ई. में कई संस्मरण लेखक हुए। इनमें आचार्य रामदेव ने ‘मेरी जीवन कथा के कुछ पृष्ठ’ नाम से स्वामी श्रद्धानंद के संस्मरण लिखे। अमृतलाल चक्रवर्ती ने बालमुकुंद गुप्त के साहित्यिक जीवन पर प्रकाश डालने वाले संस्मरण लिखे। इसी तरह बनारसीदास चतुर्वेदी, रूपनारायण पाण्डेय, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, गोपालराम गहमरी, महावीर प्रसाद द्विवेदी के संस्मरण प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। इन संस्मरणों में सामाजिक और राजनीतिक जीवन की झांकियां भी मिलती हैं। ये संस्मरण कभी तो संस्मरण लेखक के जीवन के बारे में होते हैं और कभी किसी व्यक्ति के विशेषताओं को ही प्रकाशित करते हैं। संस्मरण लेखन को साहित्यिक सौंदर्य प्रदान किया ‘आचार्य पद्म सिंह शर्मा’ ने, अकबर इलाहाबादी के संस्मरण अत्यंत रोचक शैली में लिखा।
बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक के अन्तिम वर्ष में रेखाचित्रों की धूम मची। सन् 1939 ई. में ‘हंस’ के रेखाचित्रों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसमें हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, तमिल, कन्नड़, उर्दू आदि भाषाओं के लेखकों के रेखाचित्र हैं। बनारसीदास चतुर्वेदी ने संस्मरण और रेखाचित्र की दिशा में काफी काम किया है। उनके संस्मरण और रेखाचित्रों में देश-विदेश के साहित्यकार पत्रकार, समाजसेवी, क्रांतिकारी और राजनीतिज्ञ अपने दुर्लभ मानवीय गुणों के लिए विद्यमान हैं। उन्होंने देशभक्ति और राष्ट्रीयता को प्रमुखता दी है। संस्मरण (1952 ई.) हमारे अराध्य (1952 ई) सेतुबंध (1962 ई.) आदि उनके संस्मरण और रेखाचित्र संग्रह हैं। अन्य संस्मरण लेखकों में महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह आदि प्रमुख हैं। संस्मरणों और रेखाचित्रों में महादेवी की भाषा-प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ और कवित्वपूर्ण है। शैली में भावुकता और गांभीर्य का पुट है। अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं और पथ की साथी इनके प्रमुख संस्मरण हैं। इसके अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर, डॉ. नागेन्द्र, रामधारी सिंह दिनकर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, हरिवंश राय बच्चन, आदि ने भी संस्मरणों और रेखाचित्रों की रचना की है।
Question : हिन्दी में ललित निबंध साहित्य का विकास स्पष्ट करते हुए उसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी का योगदान स्पष्ट कीजिए?
(2001)
Answer : साहित्यिक रूप की दृष्टि से हिन्दी में निबंध का जन्म और विकास आधुनिक युग की देन है। आधुनिक काल में राष्ट्रीय जागरण, नई सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी निबंध का आरंभ हुआ। नवजागरण की चेतना ने हमारी मानसिकता को परिवर्तित कर हमारे बोध और संवेदना को आधुनिक बनाया। नई तकनीक विकास से मुद्रण यंत्रों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। जिससे पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तथा अंग्रेजी साहित्य से संपर्क में वृद्धि हुई। इन सब कारणों से निबंध रचना को विशेष प्रोत्साहन मिला, क्योंकि इस विधा के माध्यम से लेखक अपनी बात पाठकों तक सीधे पहुंचा सकते थे।
हिन्दी निबंध की शुरूआत 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से मानी जाती है। निबंध की आरंभिक परंपरा में भारतेंदु युग के लेखकों का विशेष महत्व है, क्योंकि एक तो इस युग के लेखकों ने हिन्दी निबंध की शुरूआत की, दूसरे उन्होंने विषय, शैली और भाषा तीनों स्तरों पर निबंधों में नये प्रयोग किए। इस युग के निबंधों में विषय का वैविध्य था। तुच्छ से तुच्छ और गंभीर से गंभीर विषयों पर लेखकों ने लेखन किया। उनके द्वारा प्रतिपादित विषय वस्तु में जागृति का स्वर था। निबंधकार राष्ट्रप्रेम से प्रेरित थे। इस युग के निबंधकारों में बालकृष्ण भट्ट एवं प्रताप नारायण मिश्र प्रतिनिधि निबंधकार माने जाते हैं। मिश्र जी के निबंधो में मनोरंजन के साथ-साथ व्यंग्य और कटाक्ष भी मिलता है। लोकजीवन की अनगढ़ता और भदेसपन के संस्कार से उनकी निबंध शैली मुक्त नहीं है। उनके अधिकतर निबंध व्यक्तिनिष्ठ हैं। उनके निबंधों की भाषा प्रवाहपूर्ण है। श्लेष शब्दों और कहावतों का प्रयोग कर भाषा में अनूठा चमत्कार पैदा करते हैं। ‘समझदार की मौत’, ‘भौं’, ‘बात’ आदि उनके प्रमुख निबंध हैं।
भारतेन्दु युग के दूसरे निबंधकार भट्ट जी के निबंधों में रूढि़यों के प्रति असंतोष है। वे नये सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के पक्षधर थे। नाटकीयता उनके निबंधों की प्रमुख विशेषता है, जो वैचारिक टकराहट से उत्पन्न होती है। भट्ट जी के निबंध मनोवैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक हैं, जिसमें तर्क की प्रबल शक्ति मिलती है। माधुर्य और आशा उनके मनोवैज्ञानिक निबंध है। इसके अलावा राजनैतिक एवं सामाजिक निबंध भी उन्होंने लिखा। इस युग के अन्य निबंध लेखकों में राधाचरण गोस्वामी, श्री तोताराम, ज्वालाप्रसाद, जगमोहन सिंह आदि प्रमुख हैं। इन निबंधकारों ने भट्टð जी एवं मिश्र जी के आदर्श को अपनाया।
सरस्वती पत्रिका के आरंभ के साथ ही हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग का आरंभ होता है। द्विवेदी युग के निबंधों में अनौपचारिकता और आत्मीयता का वह भाव नहीं मिलता, जो भारतेन्दु युग के निबंधों में है। इसके अलावा इस युग के निबंधों में भारतेंदु युग के "निबंधों की स्वच्छंदता और उन्मुक्तता का भी अभाव है। भाषा के लिए द्विवेदी जी ने जिस अनुशासन को आधार बनाया, उससे रचनात्मक साहित्य भी प्रभावित हुआ। इस अनुशासन की छाया में निबंध का स्वच्छंद विकास संभव नहीं था। इस काल में मौजूद आर्थिक विषमता और व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं ने निबंध साहित्य में एक विशिष्ट प्रकार की मनोवृत्ति का विकास किया। यह मनोवृत्ति निबंधों में बौद्धिकता के प्रसार के रूप में मिलती हैं, जो संवेदना की अपेक्षा ज्ञान को अधिक झकझोरती है और लेखकों का ध्यान ज्ञान के विविध क्षेत्रों से सामग्री ग्रहण करने की ओर अधिक रहा। यहीं कारण है कि द्विवेदी युग के निबंधों में विषय की विविधता, विचारों की गंभीरता, भाषा की शुद्धता तथा व्याकरण सम्मता अधिक मिलती है। स्वयं द्विवेदी जी के निबंधों में विचारों की प्रधानता है। ‘कवि और कविता’ तथा ‘प्रतिभा’ उनके विचार प्रधान निबंध है। इस काल के प्रमुख निबंधकारों में माधव प्रसाद मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी प्रमुख हैं। गुलेरी जी के निबंधों की प्रमुख विशेषता यह है कि निबंधों में विशिष्ट प्रकार की बौद्धिकता के होते हुए भी उसकी संवेदना बोझिल नहीं होती। शास्त्रें के ज्ञान की शुष्कता को सरस ढंग से प्रस्तुत करने की उनकी अपनी शैली है। ‘सच्ची वीरता’, ‘आचरण की सभ्यता’ तथा ‘मजदूरी और प्रेम’ उनके प्रतिनिधि निबंध हैं।
शुक्ल युग में हिंदी निबंध साहित्य के इतिहास का एक नया दौर प्रारंभ होता है। निबंध को इस युग में नये प्रकारों से तराशा गया। लेखकों ने विचारों और भावों की सूक्ष्मता से निबंध को अधिक व्यंजक और आकर्षक रूप दिया। इस युग के निबंध में भाव के वस्तुगत यथार्थ की खोज की जा रही थी। आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंध में इसी बात को समझाने का प्रयास किया गया है कि मनोविकार का वस्तुगत कारण क्या होता है? शुक्ल जी ने मनोविकार का सामाजिक आधार स्पष्ट करते हुए उसे मनुष्य के व्यवहार से जोड़ा। इस वैज्ञानिक दृष्टि ने निबंध के पूरे गठन को परिवर्तित करके रख दिया। इस दृष्टि का प्रभाव उस युग के दूसरे निबंधकारों पर भी पड़ा तथा उन्होंने विषयवस्तु को गहराई में समझने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि इस युग में निबंध का पूरा ढांचा ही परिवर्तित हो गया।
इस युग के प्रतिनिधि निबंधकार आचार्य शुक्ल हैं। उन्होंने विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे जो ‘चिंतामणि’ के तीन भागों में संकलित है। उनकी प्रवृत्ति गंभीर विवेचन और तीखे व्यंग्य की रही है। यही कारण है कि निबंधों में उनका चिंतक और मानवतावादी रूप उभरा है। उन्होंने ‘भय’, ‘क्रोध’, ‘करुणा’ आदि विभिन्न मनोभावों पर दस निबंध लिखे, जिनमें वे इन मनोभावों के सामाजिक पक्ष का विश्लेषण किया। शुक्ल जी ने साहित्य के गंभीर पक्षों पर भी लिखा। ऐसे निबंधों में गंभीर चिंतन, सैद्धान्तिक विवेचना और तर्कपूर्ण व्याख्या के साथ-साथ भावुक हृदय के दर्शन भी होते हैं। जैसे- कविता क्या है, ‘साधारणीकरण’, व्यक्ति वैचित्र्यवाद’ ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ आदि।
इस काल के अन्य निबंधकारों में बाबू गुलाब राय महत्वपूर्ण निबंधकार हैं। वे व्यक्ति व्यंजक निबंधकार हैं। उन्होंने दार्शनिक, साहित्यिक, संस्मरणात्मक और विनोदात्मक निबंधों की रचना की है। शांतिप्रिय द्विवेदी इस काल के एक अच्छे निबंधकार हैं। ‘कवि और काव्य’ तथा ‘साहित्यिकी’ उनके निबंध संग्रह हैं। उनके निबंधों की शैली में छायावादी भावुकता का प्रभाव मिलता है। भावों की तरल अभिव्यक्ति उनके निबंध अभिव्यंजना के मूल तत्व हैं। शिपूजन सहाय, रघुवीर सिंह के अलावा छायावादी कवियों- प्रसाद, निराला तथा महादेवी वर्मा ने भी कुछ निबंधों की रचना की।
शुक्ल युग के समाप्त होते-होते हिन्दी में व्यक्ति प्रधान निबंधों के लिए आधारभूमि तैयार हो चुकी थी। इसी समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंध रचना में सक्रिय हो रहे थे। शुक्लोत्तर निबंधकारों में हजारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व केन्द्रीय है। उन्होंने अपने मौलिकता से निबंध साहित्य को नई दिशा दी। इनके ललित निबंधों की कल्पनाशीलता, रोमांटिक भावबोध पैदा करती है। उनके निबंधों में नाटकीयता का गहरा अनुभव मिलता है। वे किसी बात की जितनी गहराई में जाते हैं, उसे उतने ही सहज रूप से प्रस्तुत कर देते हैं। निबंध के विषय के साथ वे पाठक को लेकर सांस्कृतिक यात्र पर निकल पड़ते हैं। इस सांस्कृतिक यात्र में वे कहीं भी असहज नहीं होते हैं। अपने पांडित्य को लोक मानस की संवेदना के साथ घुला मिला देना उनकी खास विशिष्टता है। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि हमें अतीत की ओर नहीं ले जाती। वह कहीं न कहीं हमारे समकालीन समाज की विषमताओं पर प्रहार करती है। उनके निबंध में विवेक और आत्मविश्वास का स्वर भरा है। यह आत्मविश्वास गहरी मानवीय जिजीविषा से उपजा है। द्विवेदी जी के निबंधों में शोषितों के प्रति गहरी सहानुभूति है। समाज में हाशिए पर जीने वाले लोगों के प्रति आत्मीयता है। उनके निबंध की शैली में अनगढ़ता है, जो उनके निजी अनुभव और खोज का नतीजा है। निबंधों में उनके अनुभूति का स्पंदन है। उसमें कविता की सूक्ष्मता और गद्य की वैचारिकता का समावेश है। यद्यपि आचार्य द्विवेदी परंपरा को स्वीकार करते हैं, परन्तु उसके गूढ़ तत्व को महत्व नहीं देते अपितु उसके जीवन्त पक्ष को ही मान्यता देते हैं। मूलतः ये भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। इस प्रकार निबंध लेखन में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। ‘अशोक के फूल’ (1984), ‘कल्पलता’ (1951), ‘विचार प्रवाह’ (1957), और ‘कुटज’ उनके प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं।
शुक्लोत्तर निबंधकारों में जैनेन्द्र का नाम "उल्लेखनीय है। उनके निबंध मुख्यतः विचार प्रधान हैं। उन्होंने धर्म, राजनीति, संस्कृति, साहित्य, सेक्स, काम, प्रेम आदि विषयों से अपने निबंध का टेक्सर तैयार किया है। ‘जड़ की बात’, साहित्य का श्रेय और प्रेय, ‘सोच विचार’, ‘मंथन’ आदि उनके प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं। दिनकर ने काव्य के साथ-साथ कुछ निबंध की भी रचना की। ‘अर्द्धनारीश्वर’, ‘मिट्टी की ओर’, ‘रेती के फूल’ आदि उनके निबंध संग्रह हैं। दिनकर के निबंधों में उनकी सांस्कृतिक आस्था ओर मानवतावादी दृष्टि उभरती है। कुछ निबंधों की रचना रामवृक्ष बेनीपुरी ने भी की है। ‘गेहूं और गुलाब’ तथा ‘बंदे वाणी विनायकौ’ उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं। उनके निबंधों की शैली और विचार में नवीनता है।
स्वतंत्रता के बाद हिन्दी निबंधकारों में विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय और प्रभाकर माचवे का नाम महत्वपूर्ण है। माचवे का ‘खरगोश के सींग’ विद्यानिवास मिश्र के ‘छितवन की छॉहं’, ‘तुम चंदन हम पानी’, ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’, आदि तथा कुबेरनाथ राय का ‘प्रिया नीलकंठी’, ‘रस आखेटक’ ‘गंध मादन’ और ‘विषाद योग’ प्रमुख निबंध संग्रह है। माचवे के निबधों में व्यंग्य की कड़वाहट है। विद्यानिवास मिश्र ने जीवन के विविध सांस्कृतिक पक्षों का रागात्मकता के साथ अंकित किया है। उनके निबंध की संवेदना गीतात्मक हो जाती है। यह गीतात्मकता उन्होंने लोकजीवन की लयात्मक संवेदना से प्राप्त की है। कुबेरनाथ राय, द्विवेदी जी की शैली से प्रभावित हैं। व्यंग्य शैली के निबंधकारों में हरिशंकर परसाई का नाम अग्रणी है। उनके निबंधों के विषय मुख्यतः सामाजिक और राजनीतिक होते हैं।
स्वतंत्रता के बाद हिन्दी निबंध में अज्ञेय और निर्मल वर्मा का महत्वपूर्ण योगदान है। दोनों की चिंतन की दिशा लगभग एक ही रही है। समाज, व्यक्ति, परंपरा, कला, औपनिवेशिकता आदि ऐसे बिंदु हैं, जिसे दोनों रचनाकारों ने समान रूप से उठाया। पर दोनों रचनाकारों की शैली में अन्तर है। अज्ञेय के निबंध के गद्य विचारात्मक उत्कृष्टता के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। निर्मल वर्मा के निबंध में लयात्मकता है। उनके विचार लयात्मक चिंतन में ढ़ले हुए प्रतीत होते हैं। ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘सर्जना और संदर्भ’, ‘आलवाल’ आदि अज्ञेय के प्रतिनिधि संग्रह हैं। निर्मल वर्मा के प्रमुख निबंध संग्रह ‘कला का जोखिम’, ‘हर वारिस में’, ‘शब्द और स्मृति’, ‘भारत और यूरोप प्रतिश्रुति के क्षेत्र’ आदि हैं। नये निबंध लेखकों में अशोक वाजपेयी और रमेशचन्द्र शाह हैं।
Question : रेखाचित्र: स्वरूप
(1999)
Answer : रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाव का कम-से-कम शब्दों में मर्मस्पर्शी, भावपूर्ण और सजीव अंकन है। अंग्रेजी में, जिसे स्कैच कहा जाता है, उसके लिए हिंदी में -रेखाचित्र’, ‘व्यक्तिचित्र’, ‘शब्दचित्र’ शब्दों का प्रयोग होता है। रेखाचित्र में तटस्थता, संक्षिप्तता एवं तीखापन अधिक होता है। ये ही विशेषताएं, उसे अन्य साहित्य-रूपों से अलग करती है। रेखाचित्र की विशेषता विस्तार में नहीं, तीव्रता में होती है। रेखाचित्र पूर्णचित्र नहीं है। वह व्यक्ति, वस्तु, घटना आदि का एक निश्चित दृष्टि बिन्दु से प्रस्तुत किया गया प्रतिबिम्ब है, जिसमें विवरण कम रहता है लेकिन तीव्र संवेदनशीलता रहती है। रेखाचित्र की स्मृति में पीड़ा का बोध होता है। इस पीड़ा में विछुड़ने की संवेदना होती है। रेखाचित्रकार जिसका वर्णन कर रहा होता है। उससे अलग होने की पीड़ा और दर्द ही उसे रेखाचित्र निर्मित करने को प्रेरित करता है। श्रेष्ठ रेखाचित्र की कृतियों को पढ़ने पर यह अहसास और भी तीव्र हो जाता है। महादेवी वर्मा ने अपने रेखाचित्र के संग्रह का नाम ही ‘अतीत के चलचित्र’ रखा है।
इसमें अतीत के प्रति सम्मोहन और उससे अलग होने की घनी पीड़ा भी है। रेखाचित्र के लिए संकेत सामर्थ्य भी बहुत आवश्यक है। रेखाचित्रकार शब्दों और वाक्यों से परे भी बहुत कुछ कहने की क्षमता रखता है। रेखाचित्र के लिए उपयुक्त विषय का चुनाव भी महत्वपूर्ण है- इसकी विषय वस्तु ऐसी होनी चाहिए, जिस से विस्तृत वर्णन और रंगों की अपेक्षा न हो। जैसे- चांदनी रात में ताजमहल की शोभा को रेखाचित्र में बांधा जा सकता है, पर शाहजहां और मुमताज महल की प्रेमकथा को रेखाचित्र की सीमा में बांध सकना कठिन है। ‘पर्वत पुत्र जंग बहादुर और धनिया’ महादेवी वर्मा का एक महत्वपूर्ण रेखाचित्र है। रेखाचित्रों को अनेक वर्गों में रखा जा सकता है- व्यक्ति प्रधान, वस्तु प्रधान, हास्य-व्यंग्य प्रधान और मनोवैज्ञानिक आदि।
रेखाचित्र की साहित्यिक विधा के रूप में चर्चा महादेवी की रचनाओं से आरंभ होती है। समाज में निम्नस्तर पर रहने वाले लोगों के प्रति महादेवी वर्मा में करुणा और सहानुभूति है। लेखिका ने जिन पात्रों को अपने रेखाचित्र में स्थान दिया है, उन सभी के जीवन में कुछ न कुछ अभाव है। यह अभाव उन पात्रों के प्रति सहानुभूति को जन्म देते हैं। महादेवी के कुछ रेखाचित्र आक्रोश को जगाते हैं। महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में अतीत के चलचित्र (1941) और ‘स्मृति की रेखाएं (1947) उनकी प्रतिनिधि कृतियां हैं। महादेवी के पूर्व के रेखाचित्रकारों में श्रीराम शर्मा की कृति ‘बोलती प्रतिमा’ (1937) और ‘जंगल के जीव (1947) आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं। महादेवी के बाद रेखाचित्र लेखकों में रामवृक्ष बेनीपुरी का स्थान महत्वपूर्ण है। बेनीपुरी का स्थान महत्वपूर्ण है। बेनीपुरी का ‘लालतारा’ और ‘माटी की मूरतें’ प्रसिद्ध रेखाचित्र हैं। लेखक ने ग्रामीण परिवेश को पात्रों के माध्यम से रेखाचित्र को साकार कर दिया है। अपनी धरती के लोगों के प्रति उनमें स्वाभाविक और सच्चा स्नेह झलकता है। सामान्य जन की जिन्दगी के प्रति सम्मान और आत्मीयता का भाव लेखक में भरा हुआ है। प्रकाशचन्द्र गुप्त का ‘रेखाचित्र’ भी रेखाचित्रों में उल्लेखनीय है। राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का ‘टूटा तारा’ रेखाचित्र का बेजोड़ उदाहरण है। उनकी शैली में चमत्कारिक शक्ति हैं। शिवपूजन सहाय का रेखाचित्र ‘वे दिन वे लोग’ व्यंग्य प्रधान रेखाचित्र के उदाहरण है। देवेन्द्र सत्यार्थी का ‘रेखाएं बोल उठी’ रेखाचित्र विधा की उल्लेखनीय रचना है। और विष्णु प्रभाकर के ‘कुछ शब्द कुछ रेखाएं’ सामाजिक विसंगति को उभारने वाले रेखाचित्र हैं।