Question : उन्नीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का विकास
(2007)
Answer : 19वीं शताब्दी में खड़ी बोली के विकास को दो खंडों में बांटा जा सकता है- पूर्व हरिश्चन्द्र काल और हरिश्चन्द्र काल। पूर्व हरिश्चन्द्र काल में खड़ी बोली के विकास की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण घटना 1800 ई- में कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना है। इस कॉलेज से जुड़े अनेक व्यक्तियों ने हिन्दी के विकास में सराहनीय योगदान किया।
इस कार्य में इंशा अल्ला खां, लल्लू लाल, सदल मिश्र तथा सदासुख लाल का योगदान अविस्मरणीय है। इंशा अल्ला खां ने ‘उदयमान चरित’ या ‘रानी केतकी’ की कहानी लिखी। इस कहानी की भाषा पर फारसी प्रभाव होने के बावजूद भी ताजा और जीवंत है और हिन्दी गद्य के विकास में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। लल्लू लाल ने ‘प्रेमसागर’ तथा सदल मिश्र ने ‘नाचिकेतोपख्यान, की रचना कर हिन्दी के विकास में अपना योगदान दिया। मुंशी सदासुख लाल ने सुखसागर और ‘सुरासर निर्णय’ की रचना की।
भारतेन्दु पूर्व काल में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का भी हिन्दी में प्रकाशन हुआ, जैसे-उदंड मार्तंड (1826 ई-), बंगदूत आदि। इन पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार तो किया ही, स्वयं भी इसका प्रयोग कर एक आदर्श प्रस्तुत किया। इसके अलावा ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी धर्म प्रचार हेतु खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया, जिससे हिन्दी खड़ी बोली का बहुत कल्याण हुआ। ईसाई धर्म-प्रचारकों ने जनता को शिक्षित करने के लिए स्कूल और कॉलेज खोले तथा इतिहास, भूगोल, धर्मशास्त्र, राजनीति, साहित्य, विज्ञान आदि विषयों की पाठ्य-पस्तकें तैयार करके प्रकाशित किया। ईसाई मिशनरियों का यह कार्य खड़ी बोली के विकास में काफी मदद किया। 19वीं शताब्दी के मध्य में ही राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी खड़ी बोली की दो नयी शैलियों का विकास किया।
खड़ी बोली हिन्दी के विकास में भारतेन्दु का आगमन (1850-85) एक क्रांतिकारी घटना है। वे प्रगतिशील राष्ट्रीय चेतना के प्रतिनिधि थे। हिन्दी गद्य सही मायने में उन्हीं के समय नयी चाल में ढली। गुणवत्ता की दृष्टि से तुलना करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, संख्या की दृष्टि से भी स्वयं भारतेन्दु की रचनाएं भारतेन्दु पूर्व की रचनाओं से अधिक हैं। उन्होंने अनूदित और मौलिक सब मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की, जिनमें विद्या सुंदर (1868), कर्पूरमंजरी 1875), भारत जननी (1877), मुद्राराक्षस (1875), सत्य हरिश्चन्द्र (1875), भारत दुर्दशा (1880), अंधेर नगरी (1881) आदि प्रमुख हैं।
भारतेन्दु द्वारा प्रतिष्ठापित भाषा के इस मानदंड को तत्कालीन बहुधा साहित्यकारों ने अपनाया। प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी आदि के नाटकों, देवकी नंदन खत्री और गोपालराम अहमरी के उपन्यासों में, किशोरी लाल गोस्वामी की कहानियों में एवं प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट के निबंधों में ये शैलियां बराबर मिलती हैं। हालांकि भारतेन्दु की भाषा नीति को सभी लेखक कार्यान्वित नहीं कर सके, लेकिन एक हद तक भरतेन्दु द्वारा स्थापित मानदंडों से सभी प्रभावित हुए।
Question : उन्नीसवीं शताब्दी में नागरी लिपि के विकास पर प्रकाश डालिए।
(2007)
Answer : देवनागरी लिपि का विकास के संबंध में जो प्रमाण उपलब्ध हैं। उसके आधार पर ‘ब्राह्मी लिपि’ से ‘देवनागरी’ का विकास माना जाता है। भारत की प्राचीन लिपियों में सिंधु लिपि, खरोष्ठी लिपि और ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध है। सिन्धु लिपि कुछ चित्रक्षर थी और कुछ ध्वनयाक्षर थी। सन् 400 ई. पू. से पहले इसका प्रयोग भारत के उत्तर-पश्चिम भागों में होता था।
खरोष्ठी लिपि का प्रचलन उत्तर-पश्चिम भारत में एक हजार वर्ष तक रहा। यह दाहिने से बायें लिखी जाती थी। दोनों लिपियों से देवनागरी का कोई सीधा संबंध नहीं है। प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ब्राह्मी लिपि अधिक व्यापक और प्राचीन काल से व्यवहार होते आ रही है। बताया गया है कि इसका विकास वैदिक काल की किसी लिपि से हुआ है। लिपि विशेषज्ञ डा- राजबली पाण्डे का मत है कि ब्राह्मी का अविष्कार ब्रह्मा या वेद की रक्षा के लिए हुआ था। इस लिपि में वैदिक ध्वनियों के पूरे प्रतीक विद्यमान हैं। ब्राह्मी के बहुत से अक्षर सिंधु लिपि से मिलते-जुलते हैं। विकास की दृष्टि से ब्राह्मी लिपि को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है-
गुप्त काल के आरंभ में ही ब्राह्मी के दो भेज हो गए- दक्षिणी और उत्तरी। दक्षिणी ब्राह्मी से तेलगु, तमिल लिपियों का और बहुत बाद में कन्नड़ और मलयालम लिपियों का विकास हुआ। उत्तरी ब्राह्मी को गुप्त लिपि कहा जाता है, जिसका व्यवहार सारे गुप्त साम्राज्य में होता है। इस युग में अक्षरों के ऊपर शिरोरेखा बनने लगी और स्वरों की मात्रएं स्पष्ट होने लगीं। गुप्त लिपि से छठी शती में सिद्ध मात्रिक लिपि निकली, जो कश्मीर से वाराणसी के विशाल क्षेत्र में चलती थी। कलान्तर में इसी के कुटिल या वक्र अक्षरों के कारण इसे कुटिल लिपि या कुटिलाक्षर कहते थे। फिर इससे उत्तर भारत की बहुत-सी लिपियों का विकास हुआ, जिनमें देवनागरी भी एक है।
देवनागरी लिपि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्णतया प्रयोग में आने लगी। इस लिपि का उपयोग हिन्दी-लेखन के अलावा संस्कृत पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के अतिरिक्त मैथिली, अवधी, पहाड़ी, बांगरू, ब्रज, राजस्थानी के साथ-साथ मराठी, गुजराती की साहित्यिक तथा अन्य व्यावहारिक सामग्री भी इसे लिपि में लिखा गया। परन्तु 18वीं शताब्दी तक इसका प्रयोग प्रायः हस्तलिखित रूप में होता रहा।
कुछ राजकीय मुद्राओं में ही इसका किसी-किसी धातु पर स्थायी उत्कीर्णन या अंकन करने के लिए इसके अक्षर-विन्यास में समरूपता बनी रह पाती थी, अन्यथा अलग-अलग क्षेत्रें के मूल लेखक एवं उनकी लिखित सामग्री और केवल मौखिक रूप से प्रवचन, उपदेश, गायन आदि के रूप में व्यक्त भाषिक सामग्री के विभिन्न लिपिकारों और संकलनकर्त्ताओं की व्यक्तिगत शैली के आधार पर नागरी के अक्षर विन्यास में थोड़ा-बहुत अनन्तर बना ही रहता था।
उन्नीसवीं शताब्दी तक नागरी लिपि की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आने लगा। मुद्रण कला और पत्रकारिता के विकास के कारण हिन्दी भाषा मात्र श्रव्य न रही, अपितु उत्तरोत्तर दृश्य (लिपिबद्ध) रूप में जन-जन तक पहुंचने लगी।
समाज सुधार आंदोलनों तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता अभियान के अन्तर्गत आयोजित विविध गतिविधियों की सुचारू सार्थकता के लिए मुद्रित सामग्री की उपयोगिता ने नागरी लिपि के विकास में भी पर्याप्त योगदान दिया।
शुरू-शुरू में पत्थर छापे से छपने वाली सामग्री, क्योंकि एक विशेष रसायन युक्त कागज पर हाथ से लिखी जाती थी, अतः उसमें असमानता, अस्पष्टता और असमानता की आशंका बराबर बनी रहती थी, परन्तु मुद्रण यंत्र की शुरुआत होते ही सीसा, रांगा आदि धातु-निर्मित जो मुद्राक्षर (टाइप), फांट तैयार हुए उनमें यथासंभव समरूपता लाने के प्रयास चलते रहे। परिणामतः नागरी लिपि का व्यवस्थित और वैज्ञानिक विकास होने लगा।
यह एक संयोग की बात थी कि 19वीं शताब्दी के आरंभ से ही हिन्दी भाषा एवं हिन्दी पत्रकारिता के उन्नयन का केन्द्र कोलकाता बना, तथा नागरी लिपि के विकास हेतु प्रथम प्रयास भी कोलकाता से शुरू किया गया। तत्कालीन ब्रिटिश भारत की राजधानी होने के कारण कोलकता अन्य राजनैतिक, सामाजिक, व्यावसायिक, शैक्षिणक, और साहित्यिक गतिविधियों का भी केन्द्र बना, जिससे अधिसंख्य जनसमुदाय द्वारा नागरी लिपि में लिपिबद्ध हिन्दी के प्रयोग के अवसर विकसित हुए। अक्षर विन्यास की अनेक विसंगतियों (जैसे- ‘मनोर्थ’, ‘द्रश्ती’ आदि) के होते हुए भी प्रयोग के धरातल पर नागरी खूब फली-फूली। आगे चलकर बिहार में अयोध्या प्रसाद खत्री और उत्तर प्रदेश में शिवप्रसाद सिंह, भारतेंदु एवं बाद में मालवीय जी, गुजरात, महाराष्ट्र में रानाडे, स्वामी दयानंद, तिलक एवं सावरकर बन्धुओं के प्रयासों से नागरी लिपि के व्यवस्थित विकास की गति उत्तरोत्तर तीव्र होती गयी।
फोर्ट विलियन कॉलेज के भीतर और बाहर हिन्दी में विभिन्न पुस्तकों की रचना और प्रकाशन का जो सिलसिला चला, उससे भी नागरी लिपि के विकासोन्मुखी की प्रवृत्ति को पल्लवित होने का अवसर प्राप्त हुआ। कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा हिन्दी शिक्षण की विशेष व्यवस्था प्रकाशंतर से नागरी प्रयोग के शिक्षण की भी विशेष व्यवस्था थी। अधिकांश लोग ‘हम भी हिन्दी सीख रहे हैं’ की बजाय गर्व से कहने लगे - ‘हम भी नागरी सीख रहे हैं।’ इसी दौरान ‘नागरी प्रचारणी पत्रिका’ एवं ‘देवनागरी’ नामक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका उद्देश्य हर क्षेत्र में लेखन के माध्यम के रूप में ‘नागरी’ के प्रयोग को प्रोत्साहित करना था। ऐसे प्रयत्नों के फलस्वरूप ही उन्नसवीं शताब्दी के समाप्त होते-होते बिहार एवं उत्तर प्रदेश में ‘नागरी’ को अदालती लिपि के रूप में मान्यता मिली। राजस्थान और मध्य प्रदेश की देशी रियासतों में तो ‘नागरी लिपि’ पहले से ही राजकीय लिपि के पद पर आसीन थी।
Question : भारतेंदु-युग में खड़ी बोली का स्वरूप।
(2006)
Answer : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार हिन्दी गद्य का परिष्कृत रूप आरंभ में भारतेंदु हरिश्चन्द्र की हरिश्चन्द्र पत्रिका (1873 ई) में प्रकट हुआ। भारतेंदु ने कई नाटक कहानियां, निबंध आदि की रचना की। नाटकों में पद की भाषा तो ब्रज है और गद्य में ब्रज मिश्रित खड़ी बोली है, जो धीरे-धीरे व्यावहारिक खड़ी बोली बनती गई।
उनका उपन्यास पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा मराठी उपन्यास का खड़ी बोली में अनुवाद है। उन्होंने अनेक अनुदित और मौलिक कहानियां भी प्रकाशित कीं।
खड़ी बोली के विकास में उनका वास्तविक योगदान हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और बालबोधिनी पत्रिकाओं के निबंधों में मिलता है। इन सब में गद्य की भाषा खड़ी बोली रही है।
भारतेंदु ने राजा लक्ष्मण प्रसाद की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी और राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की अरबी-फारसी प्रधान हिन्दी के बीच का मार्ग निकाला। अर्थात् भाषा में न तो पंडिताऊपन हो और न ही मौलवी शैली की दूरूहता। इस प्रकार उन्होंने राजा लक्ष्मण सिंह की शैली को और परिष्कृत किया तथा उसको सरल बनाकर उसी का प्रचलन किया।
पत्रकारिता से जुड़े भारतेंदुयुगीन साहित्यकारों के अतिरिक्त, इतर क्षेत्रें में भी खड़ी बोली, साहित्य का स्वरूप अनेक प्रकार से परिष्कृत रूप में समृद्ध हुआ। खड़ी बोली के सहित्यिक गौरव के ऐसे ही एक प्रमुख आधार-स्तम्भ थे- पंजाब के युवा कथावाचक पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी। श्री फिल्लौरी ने सन् 1881 ई॰ में अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में स्वयं कहा था-भारत में भाषा (समकालीन खड़ी बोली-हिन्दी) के दो ही लेखक हैं-एक काशी में (उनका अभिप्राय भारतेंदु से था) दूसरा पंजाब में, परन्तु अब एक ही रह जायगा। फिल्लौरी जी ने अल्पवय में ही खड़ी बोली गद्य को ऐसा संवारा और निखारा कि यदि कोई आज भी उनकी रचनाएं उनका नाम जाने बिना पढ़े तो वे आज के किसी प्रौढ़ गद्यकार की प्रतीत होंगी।
उल्लेखनीय है कि भारतेंदु काल में भारतेंदु और उनके मंडल की रचनाओं में खड़ी बोली गद्य का स्वरूप तो स्थिर हो रहा था, किन्तु पद्य रचना प्रायः ब्रज में ही की जा रही थी जबकि इधर फिल्लौरी सुबोध और सुललित खड़ी बोली में लोकोपयोगी काव्य रचना भी कर रहे थे।
भारतेंदु और उनके साथियों ने, 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में लोक-शैली में स्फुट खड़ी बोली कविता भी लिखी। भारतेंदु की मुकरियों और पहेलियों के अतिरक्त अंधेर नगरी नाटिका का गीत चना जोर गरम लोक प्रसिद्ध है। इस प्रकार भारतेंदु काल में रचित हिन्दी का विपुल साहित्य इस बात का साक्षी है कि इस समय खड़ी बोली के साहित्यिक स्वरूप का काफी विकास हुआ।