Question : राजभाषा के रूप में हिंदी की अद्यतन स्थिति की समीक्षा कीजिए।
(2008)
Answer : राजभाषा के संबंध में भारतीय संविधान के भाग 5,6 और 17 में उपबंध हैं। भाग 17 का शीर्षक ‘राजभाषा’ है। इस भाग में चार अध्याय हैं, जो क्रमशः संघ की भाषा, प्रादेशिक भाषाएं,
उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों आदि की भाषा तथा निर्देश से संबंधित हैं।
इसके अतिरिक्त अनु. 120 (भाग-5) तथा अनु. 210 (भाग-6) में संसद एवं विधानमंडलों की भाषा के संबंध में विवरण दिया गया है।
स्पष्ट है कि राजभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने के लिए भारतीय संविधान में व्यापक उपबंध किया गया है। संविधान में यह प्रतिबद्धता भी है कि संविधान को लागू होने (26 जनवरी, 1950) के पंद्रह वर्ष बाद (1965) तक हिंदी को राजभाषा के पद पर आसीन कर दिया जाएगा।
हलांकि इस प्रतिबद्धता के अनुरूप कार्य नहीं किया गया किंतु राष्ट्रपति, राजभाषा आयोग, संसद और सरकार ने आदेश, सुझाव, नियम, अधिनियम और अनुदेश जारी करके राजभाषा हिंदी के प्रयोग को सुनिश्चित किया है।
राष्ट्रपति ने 1955 में यह आदेश जारी किया कि जनता के साथ पत्र-व्यवहार में प्रशासकीय रिपोर्टों, प्रस्तावों, सरकारी संधिपत्रें और करारनामों, अंतरराष्ट्रीय कार्यों और व्यवहारों तथा संसदीय विधियों में हिंदी का प्रयोग को अंग्रेजी के साथ बढ़ावा दिया जाय। इसके बाद राष्ट्रपति ने एक राजभाषा आयोग की नियुक्ति 1955 में की, जिसमें 21 सदस्य थे। आयोग ने राजभाषा हिंदी के प्रयोग के बारे में निम्नलिखित सुझाव दिएः
आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के बाद संसद की राजभाषा समिति ने 1959 में कुछ सुझाव दिएः
राजभाषा आयोग और संसदीय समिति की सिफारिशों पर विचार करने के बाद राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया, जिसकी मुख्य बातें निम्नलिखित है:
राष्ट्रपति के इस आदेश के बाद दो स्थायी आयोग बनाये गए तथा अनुवाद कार्य होने लगा और कर्मचारियों की प्रशिक्षण की व्यवस्था होने लगी। किंतु संविधान में यह कहा गया था कि वर्ष 1965 से सरकार का सारा कामकाज हिंदी में होने लगेगा परंतु सरकार ऐसा करने में असफल रही। अहिंदी क्षेत्रें विशेषकर बंगाल और तमिलनाडु में हिंदी का घोर विरोध हुआ।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस विरोध को देखते हुए आश्वासन दिया कि हिंदी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिंदी क्षेत्रें की सम्मति प्राप्त की जायगी और तब तक अंग्रेजी को हटाया नहीं जायगा। इस आश्वासन को राजभाषा अधिनियम 1963 और 1967 के संशोधित अधिनियम के द्वारा कानून बनाकर पुष्ट किया गया। इस प्रकार सरकार ने राजभाषा आयेाग 1955 के सुझावों के अनुरूप हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के बजाय अंग्रेजी को राजभाषा सदा के लिए बना दिया।
राजभाषा संबंधी राष्ट्रपति के आदेशों, सांसद की सिफारिशों और राजभाषा अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व भारत सरकार के गृह मंत्रलय को सौंपा गया। इसके लिए गृह मंत्रलय के अधीन स्वतंत्र राजभाषा विभाग बनाया गया। उक्त विभाग ने राजभाषा अधिनियम 1963 (1967 में संशोधित) से प्राप्त अधिकार के तहत राजभाषा नियम-1976 निर्धारित किया। इसमें 12 नियम हैं, जिसके तहत आज भी सरकार की द्वि-भाषा नीति का अनुपालन होता है। संक्षेप में ये नियम निम्न हैं:
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजभाषा हिंदी के विकास के लिए काफी कुछ किया गाय है और अभी काफी कुछ किया जा रहा है परंतु यह पर्याप्त नहीं है।
राजभाषा विभाग द्वारा जरीनियम और आदेश की अक्सर उपेक्षा की जाती रही है। वार्षिक कार्यक्रम कागजों पर ही बनकर रह जाते हैं।
अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि संविधान के द्वारा सरकार को जो कार्य सौंपा गया उसे किया तो गया है, पर जिस गति से होनी चाहिए थी, वह नहीं हो पाई है।
Question : राष्ट्रभाषा हिन्दी
(2006)
Answer : काफी सारे लोग हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा कहते हैं तथा ऐसे लोग भी हैं, जो हिन्दी को भारत की राजभाषा कहते है। हालांकि एक तीसरा वर्ग ऐसे लोगों का भी है, जो हिन्दी को न तो राष्ट्रभाषा मानते है, न राजभाषा।
वे कहते हैं कि हिन्दी, बांग्ला, मराठी, गुजराती आदि बहुत-सी भारत की राजभाषाएं हैं तथा राजभाषा की समस्या अभी अन्तिम रूप से तय नहीं हुई है और फिलहाल प्रयोग को देखते हुए, अंग्रेजी कहीं अधिक भारत की राजभाषा है। स्वतंत्रता से पहले पूरा भारत हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहता था।
लेकिन आज हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने वाले या तो हिन्दी भाषा है या फिर पुरानी पीढ़ी के अन्य भाषी वस्तुतः पुरानी परंपरा क्या कहती रही है, यह सार्थक नहीं है। अब सार्थक यह है क स्वतंत्रता के बाद स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी को राजभाषा ही घोषित किया गया है, राष्ट्रभाषा नहीं। ऐसी स्थिति में अब उचित यही है कि हिन्दी को राजभाषा कहा जाय न कि राष्ट्रभाषा।
राजभाषा तो वह भाषा है, जिसका प्रयोग राजकाज में हो। तत्वतः राजकाज के लिए ही हिन्दी को स्वीकृति दी गई है। राष्ट्रभाषा वह भाषा है जिसका प्रयोग पूरा राष्ट्र करे। निश्चय ही हिन्दी के संबंध में यह स्थिति नहीं आई है।
कभी आयेगी भी यह कहना कठिन है। इस तरह अब हिन्दी को राष्ट्रभाषा न कह कर राजभाषा कहा जाय तो अधिक व्यावहारिक, उचित तथा संविधान सम्मत होगा।
राष्ट्रभाषा के साथ-साथ कभी-कभी हिन्दी के संपर्क भाषा होने की बात भी की जाती है। किन्तु राष्ट्रभाषा तो वह है जिसका प्रयोग पूरा राष्ट्र करे। इसको दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि जब तमिल-भाषी, बांग्ला-भाषी से, या पंजाबी-भाषी, असमी-भाषी से हिन्दी में बात करने लगे, किन्तु वह दिन निश्चय ही बहुत निकट नहीं है। संपर्क भाषा को तीन स्तरों पर पारिभाषित किया जा सकता है। एक तो वह भाषा जो एक राज्य (जैसे बंगाल या गुजरात) से दूसरे राज्य (जैसे महाराष्ट्र या असम) के राजकीय पत्र-व्यवहार में काम आए। दूसरी वह भाषा जो केन्द्र और राज्यों के बीच पत्र-व्यवहारों का माध्यम हो। तीसरे वह भाषा जिसका प्रयोग एक क्षेत्र, प्रदेश का व्यक्ति दूसरे क्षेत्र-प्रदेश का व्यक्ति से अपने निजी कामों में करे।
सम्पर्क भाषा का हिन्दी के लिए प्रयोग सामान्यतः प्रथम और द्वितीय, दो दृष्टियों से ही किया जाता है। यों उसका एक तीसरा पक्ष भी अवश्य है, जो ऊपर कहा गया है, किन्तु सामान्यतः जिसकी ओर हिन्दी को सम्पर्क भाषा कहने और मानने वालों का ध्यान नहीं जाता। काफी लोग यह कहते हैं कि राष्ट्रभाषा एक नहीं है। वे सभी राष्ट्र भाषाएं है, जो राष्ट्र में बोली जाती हैं, जैसे तमिल, तेलगू, मराठी गुजराती, बांग्ला आदि।
अंततः हम यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा न कहकर राजभाषा कहें तो सभी दृष्टियों से यह अधिक उचित होगा। जहां तक हिन्दी को राजभाषा न मानने का प्रश्न है तो यह बहुत थोड़े लोगों का मत है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। जब संविधान ने हिन्दी को राजभाषा माना है तो उससे यह नाम छीना नहीं जा सकता।
Question : राजभाषा और राष्ट्रभाषा का तात्त्विक भेद
(2005)
Answer : राजभाषा का अर्थ है राजा या राज्य की भाषा अर्थात् राजभाषा वह भाषा है, जिसका प्रयोग राजकीय, प्रशासनिक तथा सरकारी-अर्धसरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों शासन के कार्यों में की जाती है। विविध प्रकार के राजकीय कार्य कलाप की माध्यम भाषा राजभाषा कहलाती है।
दूसरी ओर राष्ट्रभाषा समूचे राष्ट्र के अधिकांश जन-सामान्य द्वारा प्रयुक्त होती है। देश के अधिकतर भागों में आम लोग, जिस भाषा में आपसी बातचीत, विचार-विमर्श और लोक-व्यवहार करते हैं, वहीं राष्ट्रभाषा है।
राष्ट्रभाषा का शब्द भण्डार देश की विविध बोलियों, उपभाषाओं आदि से समृद्ध होता है। उसमें लोक-प्रयोग के अनुसार नई शब्दावली जुड़ती चली जाती है, जबकि राजभाषा का शब्द-भंडार, एक सुनिश्चित सांचे में ढला होता है और प्रयोजन-विशेष के लिए निर्धारित प्रयुक्तियों तक ही सीमित होता है।
राष्ट्रभाषा का प्रयोग अनौपचारिक रूप से, उन्मुक्त और स्वच्छन्द शैली में होता है। राजभाषा औपचारिकता की मर्यादा-सीमाओं में बंधी रहती है। इसमें लालित्य, मुहावरेदारी या शैली-वैविध्य का कोई स्थान नहीं होता। इस कारण राजभाषा में मानव-सुलभ सहजता, उनमुक्तता या स्वच्छंद कल्पना के लिए विशेष स्थान नहीं है। निर्धारित और मानक रूप में मान्य भाषा-प्रयोग की नियमावली का अनुसरण राजभाषा में आवश्यक है।
राष्ट्रभाषा के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है, क्योंकि उसके साथ जनसाधारण की सांस्कृतिक परंपराएं जुड़ी रहती है। समूचे देश की जनता की सोच, विश्वास, धर्म, और समाज संबंधी धारणाएं, जीवन के विविधतापूर्ण व्यावहारिक पहलू और सामूहिक सुःख-दुःख के भाव, लोकनीति संबंधी विचार और दृष्टिकोण राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही साकार होते हैं। राजभाषा के प्रति वैसा सम्मान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है, क्योंकि वह अपने देश का भी हो सकता है या किसी गैर देश से आए शासक का भी हो सकता है। जैसे- ‘प़फ़ारसी’ और ‘अंग्रेजी’ का उदाहरण दिया जा सकता है। परन्तु राष्ट्र भाषा हमेशा स्वदेशी भाषा ही होगी। निश्चय ही भारतीय जनता के व्यवहारों का आदान-प्रदान प़फ़ारसी या अंग्रेजी में निश्चय ही नहीं होता था, न अब हो सकता है? राजभाषा की प्रकृति इससे कुछ भिन्न है। वह वैधानिक आवरण धारण किये रहती है। उसमें अधिकतर प्रशासकीय, कानूनी और संवैधानिक नियम-विधान, विधि-निषेध एवं उससे संबंधित विवेचन-विश्लेषण किया जाता है।
राष्ट्रभाषा राष्ट्र के सार्वजनिक स्थानों, तीर्थों, सांस्कृतिक केन्द्रों, सभास्थलों, हाट-बाजारों, मेला-उत्सवों आदि में प्रयुक्त होती है, जबकि राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र कार्यालयों की चारदीवारी तक ही सीमित है। अतः हम कह सकते हैं कि राष्ट्रभाषा एक विशाल उद्यान है, जबकि राजभाषा उसी विशाल उद्यान से चुने हुए एक विशेष प्रकार के फूलों का गुलदस्ता है।
Question : हिन्दी भाषा की विकास-यात्र पर एक नातिदीर्घ लेख लिखिए।
(2005)
Answer : हिन्दी भाषा का इतिहास बहुत पुराना है। इसके प्रारंभिक रूप अपभ्रंश तथा अवहट्ठ की रचनाओं में ही मिलने लगता है। सिद्धों और जैनों के आठवीं शताब्दी के रचे साहित्य में खड़ी बोली के दर्शन किये जा सकते हैं। बारहवीं शताब्दी तक इसके रूप स्पष्ट होने लगते हैं। गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह के दरबारी कवि हेमचन्द्र के व्याकरण ग्रंथ ‘सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन’ में उद्धृत छंद से खड़ी बोली की व्यापकता और प्राचीनता का प्रमाण मिलता हैः
भल्ला हुआ जो मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ घर भग्गा एंतु।।
आगे चलकर सिद्धों और नाथों में हिन्दी का और भी स्पष्ट रूप मिलने लगता है। उदाहरणः
मोटे मोटे कूल्हे और लंबे-लंबे पेट।
भई ना रे पूतां! गुरु सो भेंट (गोरखनाथ)
किसका बेटा किसकी बहू।
आप स्वारथ मिलता सहू।। (चर्पटी नाथ)
गोरखनाथ और ज्ञानेश्वर जैसे संतों की वाणियों का नामदेव, रैदास, कबीर, नानक आदि भक्त-संतों पर बहुत प्रभाव पड़ा है। इस दृष्टि से इनकी खड़ी बोली का विशेष महत्व है।
चौदहवीं शताब्दी तक खड़ी बोली व्यापक जनजीवन से जुड़ गयी। आम बोलचाल में इस भाषा का व्यवहार होने लगा, यद्यपि साहित्यिक भाषा के रूप में यह सर्व स्वीकृत नहीं हो पायी थी। खुसरो, नामदेव, जयदेव और जगनिक की रचनाओं में इसके स्वरूप को देखा जा सकता है। वास्तव में हिन्दी को सर्वप्रथम ‘हिन्दुई’, ‘हिन्दवी’ अथवा ‘हिन्दी का नाम दिया अमीर खुसरो ने। उन्होंने अपनी पहेलियों और मुक्करियों में हिन्दी या खड़ी बोली का प्रयोग किया हैः
"एक थाल मोती से भरा सबके ऊपर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।"
कबीर आदि भक्त संतों ने अपनी रचनाओं में हिन्दी का प्रयोग किया हैः
"माला फेरत जुग गया, मिटा न मन का फेर।"
भक्ति काल के बाद रीति कालीन कवियों ने भी खड़ी बोली का भरपूर प्रयोग किया है। हालांकि इन कवियों द्वारा खड़ी बोली को काव्यभाषा के रूप में काफी महत्व दिया गया, किन्तु यह आधुनिक काल से पहले तक काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पायी। भक्तिकाल में कवियों ने अवधी और ब्रज को काव्यभाषा के रूप में अपनाया तो रीतिकाल में ब्रज को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिली। आधुनिक काल में भी अनेक कवियों जैसे-भारतेन्दु, जगन्नाथ दास, रत्नाकर आदि कवियों ने काव्य भाषा के रूप में ब्रज भाषा का ही प्रयोग किया। इसी समय गद्य भाषा के रूप में खड़ी बोली हिन्दी को अपना लिया गया था। काव्य भाषा के रूप में हिन्दी की पूरी प्रतिष्ठा द्विवेदी युग में ही मिली।
खड़ी बोली हिन्दी की गद्य परंपरा काफी पुरानी है। इसके प्राचीनतम नमूने नाथ साहित्य में मिलते हैं। डॉ. पीताम्बर द्वारा संपादित ‘गोरखवाणी’ के परिशिष्ट में खड़ी-बोली गद्य के काफी उदाहरण मिलते हैं। हिन्दी की पुरानी रचनाओं में अकबर के समय के ‘चंद छंद बरनन की महिमा’ का उल्लेख किया जा सकता है। अन्य ग्रंथों में ‘मीरा जी का हिस्सा’ (प्राणनाथ) में भी हिन्दी गद्य के पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। इन्हीं रचनाओं से होते हुए हिन्दी गद्य की परंपरा 18वीं शताब्दी में प्रवेश करती है। इस शताब्दी की रचनाओं में भाषा उपनिषद् (1719 ई.) गीतानुवाद (1723 ई.) तथा रामप्रसाद निरंजनी की रचना ‘भाषा योगवाशिष्ठ’ (1741 ई) का उल्लेख किया जा सकता है। ‘भाषा योगवाशिष्ठ’ की खड़ी बोली बहुत साफ-सुथरी है। सन् 1766 ई. में दौलत राम जैन ने ‘पद्म पुराण’ का भाषानुवाद ‘पद्म पुराण भाषा बचनिका’ नाम से किया। इसमें संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग है। इसका एक उदाहरणः
"कैसे हैं श्रीराम, लक्ष्मीकर आलिंगित है हृदय जिनका और प्रफुल्लित है। मुख रूपी कमल जिनका महापुण्याधिकारी है, महाबुद्धिमान है गुणन के मन्दर उदार है चरित्र जिनका...."
वर्ष 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई तथा यहां साहित्य एवं विज्ञान की शिक्षा का आयोजन किया गया। इस कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के भाषा मुंशियों में लल्लू लाल तथा सदल मिश्र ने हिन्दी के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। लल्लू लाल ने ‘प्रेमसागर’ तथा सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाख्यान’ लिखा। ‘प्रेमसागर’ की भाषा पर ब्रज का प्रभाव स्पष्ट है। शुक्लजी ने इसकी भाषा को ‘कथा वार्ता के काम का काव्याभास गद्य’ कहा है। इनकी खड़ी बोली हिन्दी का एक नमूना-
"महावन में जाय धनुष चढ़ाय लगा, साबर, चीतल, पाढ़े, रीछ और मृग मारने।"
इनकी भाषा में पद-क्रम एवं अत्यय आदि के स्थान की अनिश्चितता दिखाई देती है। मुहावरे के प्रयोग में जीवंतता नहीं है।
फोर्ट विलियम कॉलेज के दूसरे भाषा मुंशी ‘सदल मिश्र’ ने नासिकेतोपाख्यान की रचना की। इनकी भाषा में पूर्वीपन का काफी प्रभाव है। बतकही, केसेहू, जाननिहार आदि पूर्वी शब्द इनकी भाषा में धड़ल्ले से मिलते हैं। उसमें लिंगदोष भी काफी है, जैसे ‘सारे पृथ्वी का पति, मुंगेरों के मार से’ आदि। इन भूलों और दोषों के होते हुए भी, उन्हीं की भाषा परवर्ती पीढ़ी द्वारा अपनाई गयी। फोर्ट विलियम कॉलेज बाहर के दो लेखकों - मुंशी सदा सुखराम और इंशा अल्ला खां- ने भी हिन्दी के विकास में काफी योग दिया। सदासुखराम ने ‘सुखसागर’ और ‘सुरासुर निर्णय’ लिखी। इंशा अल्ला खां ने ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखी। हिन्दी गद्य के निर्माण में इन रचनाओं का विशेष महत्व है।
ईसाई धर्म के प्रचार के लिए आयी ईसाई मिशनरियों ने भी हिन्दी गद्य के निर्माण में योगदान दिया। केरे, मार्शमैन और वार्ड ने श्रीरमपुर में डेनिश मिशन की स्थापना की। बाइबिल को हिन्दी में अनुवाद किया गया। इसके साथ ही नागरी टाइपों का जन्म हुआ, जिससे जगह-जगह छापेखाने खुल गए। छापेखाने के कारण पुस्तकें और समाचारपत्रों के प्रकाशन के द्वार खुल गये। हिन्दी का पहला पत्र उदन्त मार्तण्ड का 1826 ई. में प्रकाशन हुआ। इन समाचार पत्रों द्वारा नये-नये शब्दों का व्यवहार होने लगा, जिससे हिन्दी की श्रीवृद्धि हुई।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ तथा राजा लक्ष्मण सिंह ने खड़ी बोली की दो स्वतंत्र शैलियों का विकास किया। शिवप्रसाद की भाषा में पहले हिन्दीपन अधिक रहा, बाद में उर्दू के ढंग पर लेखन करने लगे। राजा लक्ष्मण सिंह ने शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ की शैली का विरोध किया और संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का समर्थन किया। इनकी भाषा लोक भाषा के निकट थी, जिस पर आगरे की लोकभाषा का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है।
हिन्दी जगत में भारतेन्दु का उदय एक क्रांतिकारी घटना है। इनके काल में हिन्दी गद्य का परिष्कृत रूप में आरंभ हुआ, जिसे हरिश्चन्द्र पत्रिका में देखा जा सकता है, भारतेन्दु ने हिन्दी गद्य को परंपरागत ब्रज, संस्कृतनिष्ठता और उर्दू-फारसी से मुक्ति दिलाकर व्यवस्थित और परिनिष्ठत रूप प्रदान किया। हरिश्चन्द्र पत्रिका में प्रकाशित ‘बैद्यनाथ यात्र’ के एक अंश से इस काल के खड़ी बोली का स्वरूप देखा जा सकता है-
"झपकी का आना था कि बौछार ने छेड़-छाड़ करनी शुरू की, घर पहुंचते-पहुंचते घेरघार कर चारों ओर से पानी बरसने लगा"
भारतेन्दु युग के अन्य पत्रकारों एवं साहित्यकारों में प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट प्रमुख हैं। दोनों की हिन्दी काफी निखरी हुई है। इस काल में हिन्दी के विकास में अपना महत्वपूर्ण योग देने वाले में पंजाब के कथावाचक पंडित श्रद्धाराम ‘फिल्लौरी’। ‘फिल्लौरी’ जी ने अल्प वय में ही खड़ी बोली हिन्दी गद्य को ऐसा संवारा और निखारा कि उनकी रचनाएं आज के किसी प्रौढ़ गद्यकार की प्रतीत होती हैं- "जब तक पुरुष स्वयं स्त्री की और स्त्री पुरुष की आवश्यकता महसूस न करे, तब तक विवाह करने से उनमें परस्पर प्रेम नहीं हो सकता।" (भाग्यवती)
हालांकि भारतेन्दु ने अपने पूर्ववर्ती गद्य की त्रुटियों का भरसक परिहार किया और हिन्दी को साफ-सुथरी और सरस बनाने का प्रयास किया किन्तु भाषा पूर्णतया परिमार्जित नहीं हो पायी। उसमें व्याकरणगत अव्यवस्था बनी रही। इस अव्यवस्था को दूर करने का कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादकत्व का भार वर्ष 1903 में संभाला। इस पत्रिका के माध्यम से लेखकों एवं कवियों की वर्तनी और व्याकरण संबंधी त्रुटियों का सुधार स्वयं करते थे। उनके प्रयास से गद्य एवं पद्य दोनों की भाषा खड़ी बोली हिन्दी हो गयी। उन्होंने हिन्दी भाषा का आदर्शीकरण और स्थिरीकरण किया। गद्य की अनेक विधाओं में साहित्य का सृजन होने लगा। प्रेमचंद्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा आदि ने अपने-अपने प्रयासों के माध्यम से हिन्दी को समृद्ध बनाया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिन्दी ने सम्पूर्ण भारत में सम्पर्क भाषा के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह किया। आजादी के बाद इसे राजभाषा का दर्जा दिया गया तथा आज हिन्दी विश्व की समृद्ध भाषाओं में अपना स्थान बना चुकी है।
Question : राजभाषा के रूप में हिन्दी का स्वरूप
(2004)
Answer : प्रत्येक भाषा प्रारंभ में बोलचाल की भाषा ही होती है, अतः इसका एक ही रूप होता है और उसे बोलचाल की भाषा कहा जाता है, किन्तु आगे चालकर भाषा की प्रयुक्ति क्षेत्र में विस्तार होने लगता है तो उसका स्वरूप भी प्रत्येक प्रयुक्ति के अनुसार अलग-अलग होने लगता है। अर्थात् किसी भाषा की प्रत्येक प्रयुक्ति की अपनी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं, जो उसके स्वरूप को स्पष्ट और निर्धारित करती है। राजभाषा हिन्दी की एक प्रयुक्ति के रूप में करती है। राजभाषा हिन्दी की एक प्रयुक्ति के रूप में मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
स्वरूप की दृष्टि से राजभाषा हिन्दी के विकास में यही कहा जा सकता है कि राजभाषा से प्रभावित अटपटी हिन्दी से बचा जाए, पारिभाषिक शब्दों एवं संक्षेपों में एकरूपता हो, उच्चारण, अक्षर, वर्तनी, शब्द-रचना, रूप-रचना तथा वाक्य रचना को यथा साध्य मानक रखा जाए।
Question : आधुनिक हिन्दीः तकनीकी विकास
(2004)
Answer : भाषा और विज्ञान का अटूट संबंध है। जहां विज्ञान तथ्य की खोज करता है वहीं भाषा उस तथ्य की अभिव्यक्ति करती है, अतः वैज्ञानिक या तकनीकी उपलब्धियों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए उसका स्वदेशी भाषा में अनुवाद आवश्यक है। हिन्दी में विज्ञान साहित्य का अभाव रहा है, जिसके कारण वैज्ञानिक उपलब्धियों के द्वारा प्रकाशित करने के प्रयास किये गए हैं। वर्तमान समय में विज्ञान का तीव्र विकास हो रहा है और विज्ञान के विकास के साथ-साथ शब्दों का भी विकास करना होगा। विश्व में जो भी नई वस्तुएं आयेंगी, उनको प्रकट करने के लिए नये शब्द देने पड़ेंगे। चूंकि वैज्ञानिक साहित्य ज्ञानात्मक होता है, इसलिए इसकी मूल प्रवृत्ति सूचनात्मक और विवेचनात्मक होती है। अतः वैज्ञानिक साहित्य में सुनिश्चित अर्थ वाली पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार की शब्दावली के प्रयोग के कारण प्रत्येक विज्ञान की अपनी भाषा होती है। स्पष्ट है कि वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य में न तो भाषा का मनचाहा प्रयोग हो सकता है और न भाषा के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा तकनीकी शब्दावली विकसित करने की दिशा में किए गए प्रयास उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी के उपयोग और प्रचार-प्रसार के लिए आज आवश्यक प्रौद्योगिकी उपलब्ध है। देवनागरी लिपि के टाइप का विकास चार्ल्स विल्किन्स और पंचानन कर्मकार के द्वारा 1770 ई. में किया गया। टाइप के विकास के बाद हिन्दी में पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों की बाढ़ सी आ गयी। आज हिन्दी का प्रयोग रेडियो, टेलीविजन कार्यक्रमों में हो रहा है। अनेक कार्यक्रम विज्ञान एवं तकनीकी से संबंधित होते हैं। इन कार्यक्रमों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में टंकण मशीनों (टाइप-राइटरों) का बड़ा योगदान रहा है। इलेक्ट्रो मेकेनिकल टेलीप्रिंटर भी देवनागरी में बनाये गए हैं। 80 के दशक में इलेक्ट्रॉनिक टाइप-राइटर इलेक्ट्रॉनिक टेलीप्रिंटर और कंप्यूटरों का प्रयोग बढ़ा है। इन नवीन तकनीकों में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने इस में पहल की है और इनके लिए देवनागरी कुंजी पटल तैयार किए गए हैं।
हिन्दी के कंप्यूटर ‘सिद्धार्थ’ का विकास किया गया है। सी.एम.सी. (हैदराबाद) ने ‘लिपि’ नामक एकत्रि-भाषी शब्द संसाधक का विकास किया है। यह वर्ड प्रोसेसर हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य प्रमुख भारतीय भाषा में काम करता है। सी-डेक, पूना में अंग्रेजी, हिन्दी अनुवाद की एक कंप्यूटर प्रणाली का विकास किया जा रहा है। यह प्रणाली ‘टैग’ पद्धति पर आधारित है। आई.आई.टी. कानपुर में एक ‘एकनामपल वेस्ड मशीन ट्रांसलेशन पद्धति’ पर कार्य हो रहा है। कंप्यूटरों पर कार्य करने के लिए, अब हिन्दी में अनेक प्रकार के सॉफ्रटवेयर उपलब्ध हैं, जिनमें अक्षर, आलेख, शब्दमाला, शब्दरत्न, संगम, भाषा आदि। मशीनी अनुवाद के लिए ‘अनुसारक’ तथा ‘मंत्र’ तकनीक विशेष महत्वपूर्ण हैं।
हिन्दी की निरंतर विकासमान वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में करोड़ों मतदाता सूचियां, उनके परिचय पत्र और आम चुनाव संबंधी अन्य सामग्री बड़ी तीव्रता से हिन्दी में भी तैयार की जाने लगी हैं। स्पष्ट है कि हिन्दी के उपयोग तथा विश्व में प्रचार-प्रसार के लिए अब आवश्यक प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, लेकिन इसे और समृद्ध बनाने के लिए निरंतर नयी प्रौद्योगिकी का विकास करते रहना होगा और उसे तेजी से अपनाना भी होगा।
Question : राजभाषा, राष्ट्र भाषा व सम्पर्क भाषा
(2003)
Answer : भारत की स्वाधीनता से पहले हिन्दी में राजभाषा शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। संविधान का प्रारूप तैयार करते समय ‘ऑफिशियल लैंग्वेज’ का हिन्दी अनुवाद ‘राजभाषा’ किया गया और फिर यह शब्द प्रचलन में आया। स्पष्ट है कि ‘राजभाषा’ शब्द का प्रयोग शासक या शासन (राज्य) की भाषा के लिए किया गया। अतः राजभाषा का तात्पर्य उस भाषा से है, जिसमें शासक या शासन का काम होता है। दूसरी ओर राष्ट्रभाषा समुचे राष्ट्र के अधिकांश जन-सामान्य द्वारा प्रयुक्त की जाती है। देश के अधिकतर भागों में आमलोग जिस भाषा में आपसी बातचीत, विचार-विमर्श और लोक व्यवहार करते हैं, वही राष्ट्रभाषा है। लेकिन राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है तथा इसका प्रयोग केवल राजकीय, प्रशासनिक, सरकारी और अर्द्धसरकारी कर्मचारियों या अधिकारियों द्वारा होता है अर्थात् यह राजकीय कार्य-कलापों की माध्यम भाषा होती है।
राष्ट्रभाषा में राष्ट्र की आत्मा बोलती है। समूचे देश की जनता की सोच संस्कृति, विश्वास, धर्म और समाज संबंधी धारणाएं, जीवन के विविधतापूर्ण व्यावहारिक पहलू, लौकिक, आध्यात्मिक प्रवृत्तियां, निजी और सामूहिक सुख-दुःख के भाव, लोकनीति संबंधी विविध विचार और दृष्टिकोण राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही साकार होते हैं। अतः राष्ट्रभाषा साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है। लेकिन राजभाषा के प्रति जनता का वैसा सम्मान हो भी सकता है और नहीं भी, क्योंकि वह अपने देश की भी हो सकती है और गैर देश से आए शासक की भी हो सकती है। जैसे- अकबर से लेकर मैकाले के समय तक फारसी राजभाषा रही और स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले अंग्रेजी भी, जिसका देश की संस्कृति से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। लेकिन राष्ट्रभाषा हमेशा स्वदेशी भाषा ही होती है। शैली की दृष्टि से राष्ट्रभाषा का प्रयोग अनौपचारिक रूप से उन्मुक्त और स्वच्छन्द शैली में होता है जबकि राजभाषा औपचारिकता की मर्यादा सीमाओं में बंधी रहती है। उसमें मानव सुलभ सहजता, उन्मुक्तता या स्वच्छन्द कल्पना के लिए विशेष स्थान नहीं होता। निर्धारित और मानक रूप में मान्य भाषा-प्रयोग की नियमावली का अनुसरण राजभाषा में आवश्यक है।
संपर्क भाषा भी एक तरह से राष्ट्रभाषा का ही अंग है। जब विभिन्न भाषा-भाषी लोग उन परिस्थितियों में राष्ट्रभाषा का प्रयोग करें, जिसमें अपनी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग नहीं कर सकती तो यहां राष्ट्रभाषा संपर्क भाषा की भूमिका निभाने लगती है। यहां हम संपर्क भाषा को तीन स्तरों पर पारिभाषित कर सकते हैं। एक तो वह भाषा जो एक राज्य (जैसे, तमिलनाडु आदि) से दूसरे राज्य (जैसे बंगाल या असम) के राजकीय पत्र-व्यवहारों में काम आए। दूसरा वह भाषा जो केन्द्र और राज्यों के बीच पत्र व्यवहारों में काम आए या उसका माध्यम बने और तीसरा वह भाषा जिसका प्रयोग एक क्षेत्र या प्रदेश का व्यक्ति दूसरे क्षेत्र या प्रदेश के व्यक्ति से अपनी निजी कार्यों में करें। स्पष्ट है कि यदि जनता के स्तर पर सम्पर्क भाषा की बात की जाय तो वह राष्ट्र भाषा ही सम्पर्क भाषा की भूमिका में होती है लेकिन सरकारी कार्यों में सम्पर्क भाषा की भूमिका राष्ट्रभाषा के अतिरिक्त कोई अन्यभाषा भी निर्वहन कर सकती है। भारत के संदर्भ में बेहतर यह होगा कि हिन्दी को ही राजभाषा, राष्ट्रभाषा और सम्पर्क भाषा की भूमिका निर्वहन करना चाहिए।
Question : हिन्दी भाषा में लिंग समस्या
(2003)
Answer : शब्द की जाति को लिंग कहते हैं। संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की जाति का बोध हो, उसे व्याकरण में लिंग कहते हैं। सारी सृष्टि की मुख्य तीन जातियां है- (1) पुरुष, (2) स्त्री और (3) जड़। अनेक भाषाओं में इन्हीं तीन जातियों के आधार पर लिंग के भी तीन भेद किये गये हैं- (1) पुलिंग (2) स्त्रीलिंग और (3) नपुंसक लिंग। मराठी, गुजराती आदि आधुनिक आर्यभाषा में भी यह व्यवस्था ज्यों-की-त्यों चली आ रही है। इसके विपरीत हिन्दी में दो ही लिंग पुलिंग और स्त्रीलिंग हैं। हिन्दी में नपुंसक लिंग समाप्त हो गया है लेकिन पुलिंग और नपुंसक लिंग का थोड़ा सा भेद कर्मकारक के परसर्ग ‘को’ के प्रयोग में होता है, जैसे- मोहन को बुलाओं, बच्चों को खिलाओ आदि कहा जाता है। लेकिन कलम को लाओ, ताला को खोलो नहीं कहा जाता बल्कि कलम लाओ, ताला खोलो आदि का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार नपुंसक लिंग संज्ञा के साथ सम्बोधन का प्रयोग नहीं किया जाता है।
हिन्दी में शब्दों को अनेक स्रोतों से ग्रहण किया गया है। यह अनेक स्रोतीय हिन्दी शब्दों की एक लम्बी परंपरा है, जिसकी वजह से इनका प्रयोग-क्षेत्र विशाल बना। भाषायी समृद्धि के लिए शब्द पाचन क्रिया के कारण जो शब्द अन्य भाषाओं से आए हैं, उनके लिंग के संबंध में तथा विशाल क्षेत्र भारत की दूरियों के कारण लिंग निश्चय में अनेक कठिनाइयां आती हैं। प्रायः यह निर्णय परंपरागत है। भाव प्रकाशन के लिए लिंग का मनमाना प्रयोग भी होता है। हिन्दी शब्द चाहे वे तत्सम हों या तद्भव; देशी हों या विदेशी; प्रायः अपने लिंग के साथ ही हिन्दी में आएं है। उनमें संस्कृत शब्द (तत्सम) अधिकतम हैं। अतः अधिकतम शब्दों के लिंग के बारे में संस्कृत को आधार बनाया जा सकता है, लेकिन इन शब्दों के लिंग अपवाद भी हैं, जो समस्या पैदा करते हैं। अन्य भाषा के शब्दों ने भी अपनी लिंग संबंधी विशेषता को बनाए रखी है लेकिन यहां भी कठिनाई तब आती है जब उन भाषाओं के स्त्रीलिंग और पुलिंग के अतिरिक्त शब्द अन्य किसी लिंग भेद या संज्ञा भेद में (नपुंसक/पदार्थवाचक/ समुदायवाचक) आए हों और उनको हिन्दी ने अपना लिया हो। इस प्रकार के शब्दों के संबंध में यह समस्या उत्पन्न होती है कि उसे हिन्दी के स्त्रीलिंग वर्ग में रखा जाय या पुलिंग वर्ग में रखा जाय। हालांकि इस प्रकार के शब्दों का लिंग निर्धारण कभी अर्थ के आधार पर तो कभी आकार-प्रकार आदि के आधार पर तो कभी साहचर्य के आधार पर, तो कभी सादृश्य या प्रयोग के आधार पर करते हैं या उनके लिए प्रयुक्त विशेषण या क्रिया से लगाते हैं। हिन्दी में लिंग समस्या को कुछ उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता हैः
‘हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वह कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता’ हिन्दी में ‘चर्चा नहीं होता’ कुछ अजीव-सा लगता है क्योंकि हिन्दी में चर्चा होता नहीं होती है। इसी प्रकार लखनवी के लिए ‘कलम’ का लिंग कुछ और है तो दिल्ली वाले के लिए कुछ और। संस्कृत के अनेक पुलिंग शब्द हिन्दी में स्त्रीवाची बन गए हैं और नपुंसक लिंगीय शब्द तो हिन्दी के दोनों लिंगों में प्रयोग किए जाते हैं। आत्म, देह, आम, कुशल, गंध, पुस्तक, शपथ, शरण, सामर्थ्य हिन्दी में स्त्रीलिंग हैं। इस प्रकार हिन्दी शब्दों के लिंग निर्धारण के लिए कोई पक्के नियम नहीं दिए जा सकते।
Question : राष्ट्रभाषा हिन्दीः
(2002)
Answer : जो भाषा थोड़े बहुत सारे राष्ट्र में बोली और समझी जाती है, वह अपने इसी गुण से राष्ट्रभाषा होती है। भारत में युग-युग से मध्य देश की भाषा सटे देश का माध्यम बन जाती रही है। संस्कृत, पालि, प्राकृत और हिन्दी क्रमशः प्रत्येक युग में संपूर्ण देश में प्रयुक्त होती रही है। भले ही राजनीतिक दृष्टि से भारत खंड की एकता हाल की चीज हो, किन्तु यहां पर सांस्कृतिक एकता हाल की चीज हो, किन्तु यहां पर सांस्कृतिक एकता सदा बनी रही है और एक भाषा का विस्तार भारतीय संस्कृति के विस्तार के साथ होता ही रहा है। सैंकड़ों वर्षों से जिस किसी को भी जन-संपर्क करने की आवश्यकता हुई, चाहे वह शासक हो, धार्मिक या सामाजिक नेता हो, चाहे लेखक हो, उसने हिंदी का उपयोग किया आदिकाल का सारा हिन्दी साहित्य हिंदी प्रदेश के बाहर रचा गया। नाथ साहित्य पश्चिम में, सिद्ध साहित्य और ब्रजबुलि (ब्रजभाषा और बांग्ला का मिश्रित) साहित्य पूर्व में; आदि भक्ति साहित्य महाराष्ट्र और गुजरात में एवं बहुत सा कृष्ण-काव्य उडि़या और नेपाली में लिखा गया। युग-युग से तीर्थ यात्रियों, व्यापारियों और कलाकारों की भाषा हिन्दी रही है। सारे भारत में राग-रागिनी की भाषा सदा से ब्रजभाषा रही है। कबीर, तुलसी और सूर की वाणी आज भी उन लोगों के कण्ठों से प्रतिध्वनित हो रही है, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। मुसलमानों के आरंभिक काल से लेकर शासन में हिंदी सर्वमान्य थी। सिक्कों पर सारी सूचना हिन्दी में रहती थी। शाही फरमानों में भी हिन्दी का प्रयोग होता था, मुगलकाल में भले ही फारसी राजभाषा हो गई, किंतु हिंदी का प्रयोग शासन में वैकल्पिक रूप से होता ही था, क्योंकि जनता में हिन्दी ही सार्वदेशिक भाषा थी।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विदेशी राज्यों के विरोध के साथ विदेशी वस्तुओं का भी बहिष्कार होने लगा और स्वदेशी की भावना तीव्र होती गई। विदेशी भाषा का बहिष्कार और स्वदेशी भाषाओं का प्रचार व्यापक रूप से होने लगा। कांग्रेस अधिवेशनों के साथ राष्ट्रभाषा सम्मेलन होने लगे।
हिन्दी के माध्यम से ही जनता में राष्ट्रीय स्वाधीनता की आकांक्षा फैली। तब सभी नेता हिन्दी के समर्थक थे। तिलक, अरविन्द घोष, सरदार वल्लभ भाई पटेल और महात्मा गांधी सभी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपने स्तर पर योगदान दिया। यहां तक कि दक्षिण के सी- राजगोपालाचारी, विजयराघवाचार्य, रामास्वामी अय्यर आदि नेताओं ने हिन्दी की जोरदार वकालत की। स्वाधीनता आंदोलन के लेखकों और पत्रकारों ने भी इस दिशा में काफी कार्य किया। स्वाधीनता प्राप्ति तक हिन्दी की जो उपलब्धि है, वह उसकी सार्वदेशिकता और सर्वप्रियता उसके राष्ट्रभाषा होने के प्रमाण हैं।
आज हमें स्वाधीनता प्राप्त हो गई और लगता है कि राष्ट्रभाषा का उद्देश्य भी उसके साथ समाप्त हो गया। राजनीति ने जोर पकड़ा प्रादेशिकता प्रबल हुई। भाषावार प्रांत बन गए और हर प्रांत को अपने संकीर्ण प्रदेश की चिंता के साथ प्रादेशिक भाषा की चिंता होने लगी। कुछ प्रदेशों में ऐसा भी नहीं हुआ। अपनी-अपनी भाषा के विकास की चिंता सबको होती तो इसमें हिन्दी का लाभ ही लाभ था, किंतु कुछ प्रदेशों को तो अंग्रेजी की चिंता होने लगी। हम गांधी को भूल गए और गांधी के विचारों को भूल गए। अंग्रेजों की दासता से मुक्ति तो हुई, परंतु मानसिक दासता नहीं गई। हम विदेशी दासता से मुक्त नहीं हो पाए। इस समय राष्ट्रभाषा हिन्दी एक समस्या बनी हुई है क्योंकि विघटकारी शक्तियों का जोर है। स्वतंत्रता प्रिय और राष्ट्रवादी भारतीयों के सामने बड़ा भारी प्रश्न है कि पूरे राष्ट्र के लिए एक भाषा होनी भी चाहिए या नहीं।
Question : स्वतंत्र्योत्तर भारत में राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास कहां तक सफल हुआ है? चर्चा कीजिए।
(2002)
Answer : भारतीय संविधान में हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता प्रादान करते हुए यह व्यवस्था की गई कि संविधान को लागू होने (26 जनवरी, 1950) के पंद्रह वर्ष बाद (1956) तक हिन्दी को राजभाषा के पद पर आसीन कर दिया जाएगा। इसके बाद राष्ट्रपति, राजभाषा आयोग, संसद और सरकार ने आदेश, सुझाव, नियम, अधिनियम और अनुदेश जारी करके राजभाषा हिन्दी के प्रयोग को सुनिश्चित किया।
राष्ट्रपति ने 1955 में यह आदेश जारी किया कि जनता के साथ पत्र-व्यवहार में, प्रशासकीय रिपोर्टों, प्रस्तावों, सरकारी संधिपत्रों और करारनामों, अंतर्राष्ट्रीय कार्यों और व्यवहारों तथा संसदीय विधियों में हिन्दी का प्रयोग को अंग्रेजी के साथ बढ़ावा दिया जाय। इसके बाद राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 344 के तहत एक राजभाषा आयोग की नियुक्ति, 1955 में की, जिसमें 21 सदस्य थे। राजभाषा हिन्दी के प्रयोग के बारे में आयोग का मुख्य सुझाव निम्नलिखित था-
आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के बाद संसद की राजभाषा समिति ने 1959 में कुछ सुझाव दिएः जब तक कर्मचारी और अधिकारी हिन्दी का ज्ञान प्राप्त न करें, तब तक वे अंगेजी में कार्य करते रहें। पैंतालिस वर्ष के ऊपर की उम्र वाले सरकारी कर्मचारियों को हिन्दी के प्रशिक्षण से छूट दे देनी चाहिए। हिन्दी के शब्द सामर्थ्य की स्थिति तक सरकारी उपक्रमों में अंग्रेजी का ही प्रयोग हो केंद्रीय सेवाओं की परिक्षाओं में माध्यम के रूप में अंग्रेजी को चलने दिया जाए। 1965 के बाद हिन्दी प्रधान भाषा हो और अंग्रेजी को सहभाषा का स्थान दिया जाय। समिति ने सामान्यतः राजभाषा आयोग की सिफारिशों को मानने का सुझाव दिया।
राजभाषा आयोग और संसदीय समिति की सिफारिशों पर विचार करने के बाद राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया इसकी मुख्य बातें निम्न हैं:
राष्ट्रपति के इस आदेश के बाद दो स्थायी आयोग बनाये गए तथा अनुवाद कार्य होने लगा और कर्मचारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था होने लगी।
संविधान में यह कहा गया था कि वर्ष 1965 से सरकार का सारा कामकाज हिन्दी में होने लगेगा परंतु सरकार ऐसा करने में असफल रही। अहिन्दी क्षेत्रों विशेषकर बंगाल और तमिलनाडु में, हिन्दी का घोर विरोध हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस विरोध को देखते हुए आश्वासन दिया कि हिन्दी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिन्दी क्षेत्रों की सम्मति प्राप्त की जाएगी और तब तक अंग्रेजी को हटाया नहीं जाएगा। इस आश्वासन को राजभाषा अधिनियम 1963 और 1967 के संशोधित अधिनियम के द्वारा कानून बनाकर पुष्ट किया गया। इस प्रकार सरकार ने राजभाषा आयोग 1955 के सुझावों के अनुरूप हिन्दीभाषा के प्रचार-प्रसार के बजाय अंग्रेजी को राजभाषा सदा के लिए बना दिया।
राजभाषा संबंधी राष्ट्रपति के आदेशों, संसद की सिफारिशों और राजभाषा अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व भारत सरकार के गृहमंत्रलय को सौंपा गया। इसके लिए गृह मंत्रलय के अधीन स्वतंत्र राजभाषा विभाग बनाया गया। उक्त विभाग ने राजभाषा अधिनियम, 1963 (1967 में संशोधित) से प्राप्त अधिकार के तहत राजभाषा नियम (1976) निर्धारित किया। इसमें 12 नियम हैं जिसके तहत आज भी सरकार की द्वि-भाषित नीति का अनुपालन होता है। ये नियम संक्षेप में निम्न हैं
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए काफी कुछ किया गया है और अभी काफी कुछ किया जा रहा है, परंतु यह पर्याप्त नहीं है। राजभाषा विभाग द्वारा जारी नियम और आदेश की अक्सर उपेक्षा की जाती रही है। वार्षिक कार्यक्रम कागजों पर ही बनकर रह जाते हैं। अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि संविधान के द्वारा सरकार को जो कार्य सौंपा गया, उसे किया तो गया है पर जिस गति से होनी चाहिए थी वह नहीं हो पाई है।
Question : वैज्ञानिक और तकनीकी भाषा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण को सुलझाने की दिशाएं रेखांकित कीजिए।
(2001)
Answer : भाषा को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः (1) अभिव्यक्तिपरक (2) प्रगतिपरक। वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा प्रगतिपरक वर्ग में ही आते हैं। वैसे भाषा और विज्ञान का अटूट संबंध है। जहां विज्ञान तथ्य की खोज करता है, वहीं भाषा उस तथ्य की अभिव्यक्ति करती है और वैज्ञानिक उपलब्धियों को जनमानस तक पहुंचाने में माध्यम का कार्य करती है। जहां तक वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के स्वरूप का संबंध है, तो यह भाषा पूर्णतः विचार केन्द्रित होती है और चूंकि विचारों का स्रोत बुद्धि है तथा बुद्धि, तथ्य एवं तर्क के द्वारा निष्कर्ष निकालती है, अतः वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा में कोरी कल्पना नहीं हो सकती। यहां कल्पना का स्थान संभावना ले लेती है। यह ‘संभावना’ भी ठोस सच पर आधारित होती है तथा निश्चित निष्कर्ष की प्राप्ति में सहायक होती है। वैज्ञानिक भाषा में संक्षिप्तता और वस्तुनिष्ठता अनिवार्य है। अतः इस क्षेत्र में केवल ‘अभिधा’ शब्द शक्ति कार्य करती है। एक शब्द का एक ही सुनिश्चित अर्थ अभीष्ट होने के कारण इस भाषा में अनेकार्थी शब्दों या एक ही अर्थ के द्योतक विभिन्न पर्यायों की तलाश निरर्थक है। विलोम अथवा भिन्नार्थक शब्दों का भी वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा में कोई महत्व नहीं है। यहां ऐसा शब्द चाहिए जो किसी एक सुनिश्चित संकल्पना का बोध कराता हो, उससे किसी अन्य अर्थ के बोध की संभावना ही न हो।
इस प्रकार वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में प्रयुक्त भाषा अपने मूल संरचनात्मक सांचे में (ध्वनि, शब्द, पद, वाक्य आदि) सामान्य साहित्यिक स्तर पर प्रयुक्त भाषा के समान ही होती है, लेकिन उसके प्रयोजनपरक प्रकार्य का स्तर या दायरा बदल जाता है। वह (भाषा) ‘सामान्य’ न रहकर ‘विशेष’ हो जाती है। उसका यह विशेषीकृत रूप उसे वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा का अभिधान (पदवी) ग्रहण करने के योग्य बनाता है।
संविधान के अनु. 351 में संघ सरकार को हिन्दी के प्रचार-प्रसार के दायित्व तथा विकास के दिशा-संकेत देते हुए कहा गया है कि- फ्जहां आवश्यक हो वहां हिन्दी के शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्त्तव्य होगा।" इसी दिशा- निर्देश के अनुसरण में 1950 में एक फ्वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली बोर्ड" गठित किया गया। यह बोर्ड हिन्दी में तकनीकी शब्दावली के निर्माण के लिए निदेशक सिद्धांत स्थिर किए।
1952 में शिक्षा मंत्रलय ने ‘हिन्दी अनुभाग’ की स्थापना की जिसे बाद में ‘हिन्दी प्रभाग’ का दर्जा दिया गया। इसके द्वारा तकनीकी शब्दावली के कई संग्रह तैयार किए गए तथा विषयानुसार अलग-अलग विशेषज्ञ समितियों ने उसकी प्रमाणिकता की पुष्टि की। इसने हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में विकास के लिए अनेक योजनाएं हाथ में किया, जिसमें नागरी टंकन यंत्र के मानक कुंजीपटल के निर्माण और वर्तनी के मानकीकरण की प्रक्रिया भी शामिल थी। तकनीकी शब्दावली के निमार्ण में 1960 में स्थापित केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने महत्वपूर्ण कार्य किया। निदेशालय ने विभिन्न पारिभाषिक शब्दकोष तैयार किए तथा विविध भारतीय भाषाओं में अन्तः संबंध स्थापित करने के लिए अनेक ‘द्विभाषी’ और ‘त्रिभाषी’ कोश भी तैयार कराये हैं, जिनकी संख्या दो दर्जन से अधिक है। इसी प्रकार ‘हिन्दी-संयुक्त राष्ट्र संघ भाषा कोश, संबंधी योजना के अन्तर्गत हिन्दी अरबी, हिन्दी-चीनी, हिन्दी-फ्रांसीसी एवं हिन्दी-स्पेनी आदि कोश नागरी लिपि में तैयार कराये गए हैं।
इधर प्रायः सभी हिन्दी भाषी राज्यों की विभिन्न अकादमियां, संस्थान और प्रकाशन-विभाग हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में समृद्ध करने के लिए असंख्य महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित कर चुके हैं। हिन्दी में पारिभाषिक शब्दों के निर्माण में ‘आचार्य रघुवीर’ का नाम विशेष रूप से स्मरणीय है। इन्हें आधुनिक युग का पाणिनि कहा जाता है।
इन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में ही भांप लिया था कि जब देश स्वाधीन होगा, तो हिन्दी के राजकीय भाषा और शिक्षण के माध्यम के रूप में मान्यता होते ही उसके सामने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली की विकट समस्या अवश्य उपस्थित होगी। उन्होंने बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी सहायता या प्रोत्साहन के निजी स्तर पर ही यह कार्य आरंभ कर दिया था। आजादी के बाद जब राजकीय तंत्र अभी समितियां, आयोग, संस्थान आदि गठित करके इस दिशा में कुछ करने की भूमिका ही तैयार कर रही थ तब तक आचार्य रघुवीर पांच लाख पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का निर्माण कर चुके थे। उनकी शब्द निर्माण की पद्धति बड़ी सटीक और सार्थक थी। वे किसी भी वैज्ञानिक संकल्पना के संवाहक एक शब्द के उपसर्ग और प्रत्यय के योग से अनेक शब्द बनाकर एक पूरा शब्द- परिवार निर्मित कर लेते थे। उदाहरण- विधि (low) शब्द से विधिवत (lawful), वैध (Leyal), अवैध (illegal), विधान (legistation), विधायी (legistative), विधायक (legislator), विधेय (Legislatable), विधिहीन (lawless) इत्यादि। आचार्य रघुवीर ने वैज्ञानिक या पारिभाषिक संकल्पना के प्रतीक रूप शब्द का चयन संस्कृत से करके, संस्कृत के ही उपसर्गों और प्रत्ययों की सहायता से उस संकल्पना से अन्य अभीष्ट शब्दावली तैयार किया। उन्होंने हिन्दी में अंग्रेजी के विभिन्न शब्दों के यथावत अनुवाद के बजाय हिन्दी ‘प्रतिशब्द’ प्रस्तुत किया। उनका विचार था कि शब्द निर्माण और शब्द चयन का आधार संस्कृत को बनाया जाना चाहिए, क्योंकि संस्कृत न केवल अनेक भारतीय भाषाओं की, बल्कि संसार की अनेक भाषाओं की भी जननी है। संस्कृत के पांच सौ धातुएं हैं और केवल बीस उपसर्ग और अस्सी प्रत्यय हैं। इनसे लाखों-करोड़ों शब्दों की संरचना की जा सकती है। इस प्रकार इनका दृष्टिकोण मौलिक और वैज्ञानिक था। अंग्रेजी शब्द 'Tele' के लिए हिन्दी का प्रतिशब्द ‘दूर’ अपनाकर ‘दूरभाष’, ‘दूरदर्शन’, ‘दूरबीन’, दूरसंचार, दूरमुद्रक इत्यादि जो शब्द बनाए गए वे सर्वत्र आम व्यवहार के अंग बन चुके हैं।
हिन्दी में पारिभाषिक शब्द निर्माण का मूल लक्ष्य तो यह है कि हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में अधिकाधिक समृद्ध बनाया जाय। इसके लिए यदि कोई पद्धति संतोषजनक नहीं हो तो किसी अन्य पद्धतियों को अपनाया जाना चाहिए। वर्तमान में पारिभाषिक शब्दों के निर्माण में निम्न तीन विचारधाराएं हैं:
1. पूर्णतया संस्कृत को आधार बनाने के पक्षधर।
2. अंग्रेजी शब्दावली को यथावत अपनाकर, केवल उसका नागरी लिप्यांतरण करने के पक्षधर जैसे- लीगल, कोर्ट आदि।
3. हिन्दुस्तानी के नाम पर उर्दू और उर्दू के नाम पर फारसी की शब्दावली की बहुलता के साथ विभिन्न जनपदीय बोलियों की शब्दावली अपनाने के पक्षधर।
किसी-न-किसी स्तर पर यह तीनों विचारधारा संगत और उपयोगी हैं। इसमें प्रथम विचारधारा का अनुमोदन तो संविधान के अनु. 351 में ही किया गया है, जिसमें मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भारतीय भाषाओं से, सहायता लेकर हिन्दी को समृद्ध बनाने की बात कहीं गई है। इसमें तीसरी विचारधारा- बोलियों की शब्दावली अपनाने से संबंधित स्वतः ही आ जाता है। दूसरी विचारधारा भी कुछ विशेष स्थितियों में संगत है, क्योंकि आधुनिक विज्ञान एवं तकनीकी प्रगति का श्रोत मुख्यतः यूरोपीय देश हैं और वहां इसकी अभिव्यंजक शब्दावली अधिकतर अंग्रेजी में तैयार हो रही है। अतः ऐसी पूर्णतया नव आविष्कृत के पर्याय गढ़ने के लिए कृत्रिमता एवं क्लिष्टता का सहारा लेने की बजाय उसे नागरी में लिप्यांतरित करके हिन्दी व्याकरण के अनुसार ढालकर ग्रहण कर लिया जाय। उदाहरण के लिए पेट्रोल, ओजोन, राडार, प्रोटीन आदि असंख्य शब्द हिन्दी में रच-बस चुके हैं। नागरी लिपि और वर्त्तनी के सांचे में ढलकर ये अजनवी नहीं लगते।
इस प्रकार हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण में समन्वित दृष्टिकोण आवश्यक है तथा उपर के तीनों विचारधारा का उपयोग परिस्थितियों के अनुसार किया जाना चाहिए। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग तथा इस कार्य में लगे अन्य अनेक संस्थाओं द्वारा प्रायः इसी समन्वित दृष्टिकोण को अपनाया जा रहा है। इससे बिना किसी विवाद के हिन्दी की वैज्ञानिक एवं तकनीकी ऊर्जा में वृद्धि हो रही है।
Question : संघ की भाषा के रूप में हिन्दी के विकास सूत्र
(2001)
Answer : राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी के विकास-इतिहास का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि सदियों से भारतीय जनता ने और पिछली लगभग आधी शताब्दी से देश की लोकतंत्रीय सरकारों ने हिन्दी को सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयास किया। इस संबंध में समय-समय पर जारी किये गये नियमों, अधिनियमों, संकल्पों, आदेशों आदि से यह भी स्पष्ट होता है कि संघभाषा के रूप में हिन्दी के प्रयोग-प्रसार और विकास में सदा लोकतंत्रीय उदारता और सहयोग-समन्वय का दृष्टिकोण अपनाया जाता रहा है। फिर भी, वर्तमान स्थिति को पूर्णतया संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। ऊपरी सांचा और ढ़ांचा भले ही यह प्रदर्शित करता है कि भारत की राजभाषा हिन्दी है, किन्तु इस सांचे के भीतर की आत्मा हिन्दी की न होकर अंग्रेजी की ही प्रतीत होती है। अपने देश के प्रशासकीय तंत्र में, राजभाषा या संघभाषा संबंधी विभिन्न प्रावधानों को व्यवहार में लाने के लिए प्रमुख रूप से निम्न सुझाव दिए जा सकते हैं:
Question : राष्ट्रभाषा को परिभाषित करते हुए भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास पर विचार कीजिए।
(2000)
Answer : राष्ट्रभाषा उसे कहते हैं, जो संपूर्ण राष्ट्र में सामान्य तौर पर बोली और समझी जाती है। राष्ट्र के सर्वाधिक लोग उसी भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति करते हैं। राष्ट्रभाषा में राष्ट्र की आत्मा बोलती है। समूचे देश की जनता की सोच, संस्कृति, विश्वास, धर्म और समाज संबंधी धारणाएं, जीवन के विविधापूर्ण व्यावहारिक पहलू, लेकिन आध्यात्मिक प्रवृत्तियां निजी और सामूहिक सुख-दुख के भाव, लोकनीति संबंधी विविध विचार और दृष्टिकोण राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही साकार होते हैं। वैसे तो भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में प्रयुक्त सभी भाषाएं राष्ट्रभाषा हैं, किंतु जब राष्ट्र की जनता स्थानीय और तात्कालिक हितों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को विशेष प्रयोजनों के लिए चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता एवं गौरव-गरिमा का एक आवश्यक उत्पादन समझने लगती है, तो वही राष्ट्रभाषा है। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता और अंतर्प्रांतीय संवाद-संपर्क की आवश्यकता की उपज होती है।
आजादी से पहले, पूरे भारत देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए, अखिल भारतीय भाषा की अवधारणा आवश्यक मानी जाती रही। इस अवधारणा के मजबूत होने का मुख्य कारण था, ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारतीयों पर अंग्रेजी थोपने की कुटनीति। अंग्रेजी शासन के पूर्व राष्ट्रभाषा (हिन्दी) और राजभाषा (फारसी) में कभी कोई विरोध या संघर्ष नहीं उत्पन्न हुआ। शाही प्रयोजनों के लिए फारसी का प्रयोग भले होता रहा, लेकिन आम जनता के विचार-व्यवहार और संपर्क-संचार की भाषा हिन्दी ही रही।
भाषा और साहित्य के स्तर पर हिन्दी का उदय लगभग ग्यारहवीं शताब्दी से माना जाता है। तब से लेकर आज तक राष्ट्र भाषा हिन्दी के विकास की परंपरा को मुख्य रूप से तीन चरणों में बांटा जा सकता हैः (1) आदिकाल (2) मध्यकाल (3) आधुनिक काल।
आदिकाल के आरंभिक समय में भारत में जिन लोक बोलियों का प्रयोग होता था, उसे गुलेरी जी और द्विवेदी जी जैसे विद्वानों ने पुरानी हिन्दी का नाम दिया। यही ‘पुरानी हिन्दी’ बोल-चाल, लोक-व्यवहार, लोकगीतों, लोक-वार्ताओं तथा कहीं-कहीं काव्य रचना की भी माध्यम थी। इसी पुरानी हिन्दी में बौद्ध भिक्षुओं, जैन साधुओं, नाथपंथी जोगियों ने विभिन्न प्रदेशों में घूम-घूमकर अपने विचार और सिद्धांत प्रचारित किए। विद्यापति ने प्रेम-रस से सरावोर पदावली की रचना की तथा अमीर खुसरों ने मुक्करियां और पहेलियां लिखीं। जब तेरहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में मुस्लिम सत्ता का दक्षिण में विस्तार हुआ तो यही पुरानी हिन्दी की विविध प्रयोग-शैलियां दक्षिण पहुंची तथा वह ‘दक्खनी’ या ‘दक्कनी हिन्दी’ के नाम से जानी गयीं। स्पष्ट है कि आदिकाल में हिन्दी लोक स्तर से लेकर शासन-स्तर तक और सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र से लेकर साहित्यिक क्षेत्र तक हिन्दी राष्ट्रभाषा की ओर अग्रसर हो रही थी।
मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने हिन्दी को भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक जनभाषा के रूप में स्थापित किया। यह सांस्कृतिक पुनरूत्थान का युग था। लोक संस्कृति लोकभाषा के माध्यम से ही विकसित होती है। उस युग के निर्गुण संतों, सूफी कवियों तथा सगुणोपासक भक्तों ने लोक- आस्थाओं तथा लोक विश्वासों की अभिव्यक्ति समकालीन लोकभाषा में ही किया। भाषाशास्त्र के हिसाब से भले ही उसे पूर्वी, पश्चिमी अथवा अवधी, ब्रज और सधुक्कड़ी आदि कहा जाय, पर थी वह ‘हिन्दी’ ही। स्पष्ट है कि मध्ययुग में हिन्दी व्यावहारिक रूप में राष्ट्रभाषा बन गयी। धर्म जाति, वर्ग, प्रदेश या व्यवसाय आदि किसी भी प्रकार की कोई सीमा-रेखा इसमें नहीं रही।
हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के संदर्भ में आधुनिक युग का आरंभ 1850 ई. के आसपास माना जाता है। हालांकि इससे एक सौ वर्ष पूर्व ही अंग्रेजी सरकार ने भाषायी कूटनीति का जाल फैलाना आरंभ कर दिया था, लेकिन अनेक वर्षों तक भारतीय जनता नहीं समझ पायी, क्योंकि अंग्रेजों ने आरंभ में जो शिक्षा नीति और भाषा नीति अपनायी, उसमें हिन्दी का प्रमुख स्थान था। 1800 ई. में जब फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई, तो उसमें हिन्दी विभाग भी खोला गया तथा खड़ी बोली में अनेक पुस्तकें लिखवायी गईं। फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दी के िलए जो कार्य किया गया, उसका एकमात्र उद्देश्य अंग्रेज अधिकारियों एवं कर्मचारियों को हिन्दी सिखाना था, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने यह अनुभव किया था कि जनता के बीच संवाद की स्थापना हिन्दी के माध्यम से ही किया जा सकता है, जैसा कि मद्रास के लेफ्रटीनेंट टामस रौवक के कथन से स्पष्ट होता है।
उन्होंने हिन्दी को हिन्दुस्तान की महाभाषा मानते हुए, अपने शिक्षा गुरू गिलक्राइस्ट को लिखा- फ्भारत के जिस भाग में मुझे काम करना पड़ता है...... मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी। मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक या जावा से सिन्धु के मुहाने तक इस विश्वास से यात्र कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जायेंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।"
ईसाई मिशनरियों ने भी हिन्दी को भारत की आम भाषा माना तथा अपने धर्म प्रचार के माध्यम के रूप में हिन्दी को अपनाया। स्पष्ट है कि अंग्रेज सरकार तथा ईसाई धर्म प्रचारक इस वास्तविकता से अवगत होकर कि हिन्दी भारतीय जनता की बहु प्रयुक्त भाषा है, अपना कार्य-कलाप हिन्दी में आरंभ किया। धर्म प्रचारकों ने छापेखाने खोले, हिन्दी के शब्दकोश तैयार किए तथा हिन्दी के मानक व्याकरण तैयार करने का प्रयास किया। स्वार्थ से प्रेरित इन कार्यों से भी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रसार में मदद मिली।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय ही राष्ट्रीय एकता के लिए एक भाषा की आवश्यकता महसूस की गयी। राजा राममोहन राय ने बहुत पहले ही कहा था कि इस देश की समग्र एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है। केशवचन्द्र सेन ने कुछ इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया था। आर्य समाज के दयानन्द सरस्वती हिन्दी के प्रबल समर्थक थे तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिन्दी में लिखा। श्रीमती एनी बेसेन्ट हिन्दी की प्रबल समर्थक थीं। वे भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की अनिवार्य शिक्षा लागू करवाना चाहती थीं। स्पष्ट है कि आधुनिक काल में राष्ट्रीय एकता के लिए हिन्दी को जन सामान्य तक पहुंचाने की आवश्यकता उस समय के प्रायः सभी महान विभूतियों ने महसूस किया।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हिन्दी भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक बन गयी। जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलन तेज होता गया, हिन्दी का महत्व राष्ट्रभाषा के रूप में बढ़ता गया। कांग्रेस के सन् 1925 में कानपुर अधिवेशन में एक प्रस्ताव द्वारा अपने सभी कार्यों में हिन्दी का उपयोग करने पर सहमति हुई। इस प्रस्ताव में यह भी निर्धारित किया गया कि प्रादेशिक समितियों के कार्य में प्रादेशिक भाषाओं और हिन्दी का प्रयोग किया जायेगा। इस प्रकार हिन्दी और स्वदेशी भाषाओं का व्यापक प्रचार-प्रसार की शुरुआत हुई। कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन और राष्ट्रभाषा अधिवेशन साथ-साथ होने लगे। तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं ने यह महसूस किया कि हिन्दी के माध्यम से ही जनता में राष्ट्रीय स्वाधीनता की आकांक्षा फैलेगी। तिलक ने भारतवासियों को हिन्दी सीखने का आग्रह किया। महाराष्ट्र के अन्य नेताओं एन.सी. केलकर, डॉ. भंडारकर, सावरकर, गाडगिल, काका कालेलकर आदि ने भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया।
बंगाल के नेताओं ने भी हिन्दी को अखिल भारतीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में सहयोग किया। बंदेमातरम्-गीत के रचयिता बंकिमचन्द्र ने कहा - फ्हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के बीच जो एकता स्थापित करने में समर्थ होगा, वहीं सच्चा भारत-बंधु कहलायेगा।" महर्षि अरविन्द, सुभाषचन्द्र बोस, नवीन चन्द्र राय आदि ने भी हिन्दी का समर्थन किया।
राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार में सबसे महत्वूपर्ण भूमिका गांधी ने निभायी। उन्होंने हिन्दी के प्रश्न को स्वराज के प्रश्न से जोड़कर देखा। वे अंग्रेजी के व्यवहार को राजनीतिक और सांस्कृतिक गुलामी का परिणाम मानते थे। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सृदृढ़ करने के लिए वर्धा एवं मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित कीं। इस प्रकार गांधीजी ने सिद्धांत और व्यवहार के स्तर पर हिन्दी का ऐसा माहौल बना दिया कि कई राष्ट्रीय हस्तियां तन-मन से हिन्दी की सेवा में जुट गए। दक्षिण के अनेक नेताओं ने भी राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया तथा हिन्दी के प्रचार में जुट गए। राजगोपालाचारी प्रभृति नेताओं के प्रयत्नों से दक्षिण भारत के स्कूलों में हिन्दी की अनिवार्य शिक्षा दी जाती रही।
इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत के हर कोने में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में समर्थन प्राप्त हुआ तथा अहिन्दी भाषी राज्य में भी इसको प्रसारित करने का प्रयास किया गया लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात् स्थिति बदल गयी। सत्ता की भूख ने नेताओं को प्रेरित किया कि वह जनता के संकीर्ण हितों को प्रोत्साहित कर उनका समर्थन प्राप्त करें। इसका शिकार हिन्दी भी हुई तथा स्वार्थी नेताओं ने यह प्रश्न उठाया कि हिन्दी एक मात्र राष्ट्रभाषा क्यों है? गुजराती, मराठी, बंगला, तमिल, तेलगू आदि क्यों नहीं राष्ट्रभाषा हो सकती? इस झगड़े से न तो हिन्दी का भला हुआ ने तेलगू, तमिल, मराठी, बंगला आदि का। इसका लाभ अंग्रेजी को उसी प्रकार प्राप्त हुआ और हो रहा है, जैसे 17वीं व 18वीं शताब्दी में देशी राज्यों के बीच के झगड़ों से अंग्रजों को मिला था। अतः इतिहास से सबक लेकर समय पूर्व ही अंग्रेजी के जड़ को काटना होगा।
Question : राजभाषा की संवैधानिक स्थिति पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
(1999)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारतीय संविधान की रचना हुई तो 14 सितंबर, 1949 ई. को भारत के संविधान में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई। संविधान की धारा- 120 के अनुसार, संसद का कार्य हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में किया जाता है। परंतु लोकसभा का अध्यक्ष या राजसभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् फ्या अंग्रेजी में" शब्दों का लोप किया जा सकेगा। इसी प्रकार का उपबंध संविधान की धारा 210 में राज्य के विधानमंडलों के संबंध में है।
संविधान के अनुच्छेद 243 में कहा गया है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी और अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग 15 वर्ष की अवधि के दौरान किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग अधिकृत कर सकेगा। इसी अनुच्छेद के अंतर्गत कहा गया है कि संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् विधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का या देवनागरी अंकों का प्रयोग किन्हीं प्रयोजनों के लिए उपबंध कर सकेगी।
संविधान के अनुच्छेद 344 में राष्ट्रपति को एक आयोग गठित करने का अधिकार दिया गया है। यह आयोग प्रति पांच वर्ष पर गठित किया जा सकेगा, जो यह सिफारिश करेगा कि किन शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी का प्रयोग अधिकाधिक किया जा सकता है, अंग्रेजी भाषा के प्रयोग अधिकाधिक किया जा सकता हैं, न्यायालयों में प्रयुक्त होने वाली किस भाषा का क्या स्वरूप चलता रहे, किन प्रयोजनों के लिए अंकों का क्या रूप हो और संघ की राजभाषा अथवा संघ और किसी राज्य के बीच की भाषा के बारे में क्या सुझाव हों? इसमें यह भी प्रावधान किया गया कि आयोग अपनी सिफरिशों को देने के पहले भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के संबंध में अहिन्दी-भाषी क्षेत्रों के न्यायसंगत दावों और हितों का पूरा-पूरा ध्यान रखेगा। आयोग की सिफारिशों पर संसद की एक समिति अपनी राय राष्ट्रपति को देगी। इसके बाद राष्ट्रपति उस संपूर्ण रिपोर्ट के या उसके किसी भाग के अनुसार निर्देश जारी कर सकेगा।
संविधान के अनुच्छेद 345 के अनुसार किसी राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली या किसी अन्य भाषाओं को या हिन्दी को शासकीय प्रयोजनों के लिए स्वीकार कर सकेगा। यदि राज्य का विधान मंडल ऐसा नहीं कर सकेगा तो अंग्रेजी भाषा का प्रयोग यथावत् किया जाता रहेगा।
अनुच्छेद 351 के अंतर्गत यह निर्देश दिया गया कि संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाये और उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किये बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात् करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो, वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।
संविधान की व्यवस्था के तहत सरकारी कामकाज में हिन्दी को बढ़ाने के उद्देश्य से 27 मई, 1952 को राष्ट्रपति का पहला आदेश जारी किया गया। इस आदेश के अनुसार राज्यपालों, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों एवं उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति के अधिपत्रों के लिए हिन्दी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। इसके बाद दिसंबर 1955 में राष्ट्रपति का दूसरा आदेश जारी किया गया, जिसमें हिन्दी के प्रयोग क्षेत्र का विस्तार किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 344 (1) के अनुसार 7 जून, 1955 को राष्ट्रपति द्वारा आयोग की नियुक्ति हुई, जिसके अध्यक्ष बाल गंगाधर खेर थे। आयोग ने अपना प्रतिवेदन जुलाई 1956 में दिया। इस प्रतिवेदन की मुख्य बातें निम्न थीं:
(1)सारे देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाय।
(2)देश में न्याय देश की भाषा में किया जाय।
(3)जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग संभव नहीं। अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए उपयुक्त है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग ठीक है किंतु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकल्पों में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।
संविधान के निर्देशों के तहत आयोग की सिफारिशों पर विचार हेतु एक संसदीय भाषा समिति का गठन किया गया, जिसकी पहली बैठक की अध्यक्षता पं. गोबिंद वल्लभ पंत ने की। पंत जी ने समिति की ओर से 8 फरवरी, 1959 को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को पेश की। इसमें उन्होंने कहा किः
(1)जब तक कर्मचारी और अधिकारी हिन्दी का ज्ञान न प्राप्त कर लें, वे अंग्रेजी में कार्य करते रहें।
(2)पैंतालीस वर्ष के ऊपर की उम्र वाले सरकारी कर्मचारियों को हिन्दी के प्रशिक्षण से छूट दे देनी चाहिए।
(3)जब तक हिन्दी इस योग्य नहीं हो जाती, तब तक संसद और राज्यों के विधानमंडलों में विधि-निर्माण का कार्य चलता रहे। कानूनों का अंग्रेजी रूप प्राधिकृत माना जाय।
(4)1965 के बाद हिन्दी प्रधान भाषा हो और अंग्रेजी को सहभाषा का स्थान दिया जाय तथा हिन्दी द्वारा अंग्रेजी का स्थान लिए जाने की कोई तिथि निश्चित न की जाए। संविधान के तहत दूसरा भाषा आयोग 1960 में गठित होना चाहिए था, परंतु वह गठित नहीं किया गया। पंत की अध्यक्षता में गठित भाषा पर संसदीय समिति की सिफारिशें ही आगे चलकर 1963 के राजभाषा अधिनियम का आधार बनीं। यह अधिनियम 1967 में संशोधित किया गया, जिसकी प्रमुख शर्तें निम्नलिखित हैं:
(1)संविधान के प्रारंभ से 15 वर्षों की कालावधि समाप्त हो जाने पर भी हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा संघ के उन सभी राजकीय प्रयोजनों एवं संसद की कार्यवाहियों के प्रयोग में लाई जाती रहेगी, जिसके लिए वह उस दिन से ठीक पहले प्रयोग में लायी जाती थी।
(2)अंग्रेजी भाषा का प्रयोग तभी समाप्त किया जायेगा जब सभी अहिन्दी भाषी राज्य अंग्रेजी को समाप्त करने का संकल्प पारित करें। इसका आशय यह हुआ कि भारत का एक राज्य भी चाहेगा कि अंग्रेजी बनी रहे तो वह सारे देश की सहायक राजभाषा बनी रहेगी।
(3)जो व्यक्ति संघ के कार्यालय में सेवा कर रहे हैं और जो या तो हिन्दी में या अंग्रेजी भाषा में प्रवीण हैं, वे प्रभावी रूप से अपना काम कर सकते हैं। उनका इस आधार पर कोई अहित नहीं होगा कि वे दोनों भाषाओं में प्रवीण नहीं हैं।
इसके बाद 1976 में राजभाषा नियम, 1976 बनाए गए जिसमें हिन्दी के प्रयोग के संदर्भ में राज्यों को तीन वर्गों में बांटा गया हैः
(1) (क)वर्ग ‘क’ में हिन्दी भाषी राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान तथा दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र को रखा गया।
(ख)वर्ग‘ख’ में हिन्दी भाषी राज्यों के पड़ोसी राज्य- गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब को तथा अंडमान और निकोबार, चंडीगढ़ के संघ राज्य क्षेत्र को रखा गया।
(ग)वर्ग ‘ग’ में भारत के शेष सभी राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों को शामिल किया गया।
(2)संघ के कर्मचारियों के लिए हिन्दी के कार्यसाधक ज्ञान की योग्यता निर्धारित की गई।
(3)संघ का कोई कर्मचारी किसी फाइल पर टिप्पणी या मसौदा हिन्दी या अंग्रेजी में लिख सकता है और उससे यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह उसका अनुवाद दूसरी भाषा में प्रस्तुत करे।
संविधान के अनुच्छेद 348 में न्याय और विधि की भाषा के संबंध में प्रावधान हैं। अनुच्छेद 348(1) के अनुसार उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में कार्यवाही की भाषा अंग्रेजी होगी। संसद में विधेयक अथवा प्रस्तावित संशोधनों का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होगा।
अधिनियम जो राष्ट्रपति या राज्यपाल के द्वारा जारी किए जाएं अथवा संसद और विधानमंडल द्वारा पारित किए जाएं, उनका प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होगा। इसके अतिरिक्त आदेश, नियम, विनियम जो इस संविधान के अधीन अथवा संसद या राज्यों के विधान मंडलों द्वारा बनाये गए किसी विधि के अधीन निकाले जाएं, उन सबका प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे।
अनुच्छेद 348 में यह भी व्यवस्था है कि राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से राज्यपाल उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों के लिए हिन्दी के अथवा राज्य की राजभाषा के प्रयोग की आज्ञा दे सकता है। परंतु यह आज्ञा अदालती निर्णयों, डिक्रियों, हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों के संबंध में नहीं दी जा सकती।
अनुच्छेद 348 के खंड 3 (2) में यह कहा गया है कि जहां राज्य सरकार ने अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा को प्रयोग के लिए प्राधिकृत किया है, उस राज्य के राजकीय सूचना पत्र में राज्यपाल के प्राधिकार से प्रकाशित अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद ही प्राधिकृत पाठ माना जाएगा।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि कानून और न्याय की भाषा, उन राज्यों में भी जहां हिन्दी को राज्य भाषा मान लिया गया है, अंग्रेजी ही है। नियम, अधिनियम, विनिमय तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेजी में ही बनाये जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है। इस प्रकार न्याय और कानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक नहीं हो सका है।
इस प्रकार संविधान में दी गई व्यवस्था तथा उस व्यवस्था के अंतर्गत सरकार या संसद द्वारा बनाए गए नियमों को देखें तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी राजभाषा के रूप में अपने संपूर्ण अधिकारों को प्राप्त नहीं कर सकी। ऐसा गैर हिन्दी भाषियों तथा अंग्रेजी के समर्थक षड्यंत्रकारियों के प्रबल विरोध के कारण हुआ। राष्ट्र की एकता के लिए राष्ट्रभाषा के सवाल को भूला दिया गया तथा अपने स्वार्थों को राष्ट्रीय एकता की कीमत पर स्थापित कर दिया गया।