Question : हिंदी भाषा के विकास में अपभ्रंश के योगदान का विवेचन कीजिए।
(2008)
Answer : एक भाषा के विकास में दूसरी भाषा की भूमिका निर्धारित करने के लिए निकटता और समानता का सिद्धांत अपेक्षित है। हम जानते हैं कि हिंदी का मूल स्रोत भारत की प्राचीन आर्य भाषा संस्कृत है। हिंदी की अधिकांश भाषिक प्रवृत्तियों-ध्वनि-व्यवस्था, पद-संरचना, वाक्य-विन्यास आदि। संस्कृत के ही अनुसार हैं। हिंदी के अनंत शब्द भंडार का अधिकांश संस्कृत से विरासत के रूप में मिला है। किंतु सारी चीजें हिंदी को संस्कृत से सीधे-सीधे नहीं प्राप्त हुआ। यह कार्य अपभ्रंश के मध्यम से ही हुआ। अतः हम अपभ्रंश को प्राचीन आर्यभाषा संस्कृत एवं आधुनिक आर्यभाषा हिंदी के बीच का सेतु मान सकते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में हिंदी के विकास में अपभ्रंश के योगदान का आकलन किया जा सकता है।
हिंदी के विकास में अपभ्रंश के योगदान के संदर्भ में गौर करने योग्य पहला तथ्य यह है कि संस्कृत, पालि एवं प्राकृत जैसी आर्यभाषाएं संश्लिष्ट थीं।
हालांकि प्राकृत में संश्लिष्टता की पकड़ जगह - जगह ढीली पड़ने लगी थी तथा जगह - जगह विश्लिष्टता के लक्षण प्रकट होने लगे थे। यही विश्लिष्टता अपभ्रंश में पूरी तरह स्पष्ट होने लगी, जो अवहट्ठ में प्रमुख लक्षण बन गई। प्रारंभिक हिंदी में जो विश्लिष्टता के लक्षण हैं, वह अपभ्रंश से ही प्राप्त हुए हैं।
अपभ्रंश से हिंदी तक अनेक कारकों में बिना विभक्ति वाले शब्दों का प्रयोग मिलता है, चाहे उसके साथ परसर्ग का प्रयोग हुआ हो या नहीं हुआ हो, यथाः
परिनिष्ठ अपभ्रंश के सभी कारकों में इस ढंग से निर्विभक्तिक पद नहीं मिलते हैं। ऐसा लगता है कि यह प्रवृत्ति अवहट्ठ में अपेक्षाकृत अधिक बढ़ गई थी और आधुनिक बोलियों के प्रकाश में आने पर जब सभी कारकों के लिए नए-नए परसर्ग आ गए तो निर्विभक्ति पदों के प्रयोग की प्रवृत्ति और भी अधिक बढ़ गई।
संस्कृत की बहुत सी कारक विभक्तियां सरलीकरण के प्रयास के कारण पालि प्राकृत में लुप्त हो गईं या समध्वन्यामक हो गई। भाषा समध्वन्यात्मकता का बहिष्कार करती हुई चलती है। फलतः समध्वन्यात्मकता को दूर कर कारकत्व का बोध कराने के लिए ही अपभ्रंश में परसर्गों का प्रयोग हुआ होगा, इसका विस्तार अवहट्ठ में हुआ तथा हिंदी में बड़े पैमाने पर परसर्गों का प्रयोग शुरू हुआ।
अतः हिंदी के अधिकांश परसर्ग अपभ्रंश से ही निकलते हैं तथा अवधी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली की तीन अवस्थाओं से गुजरकर परसर्ग ध्वनि परिवर्तन के कारण संक्षिप्त हो गए हैं। मंह से में, सहुं से से, केरअ से का, उप्परि से परि एवं पर आदि ध्वनि परिवर्तन के ही परिणाम हैं।
पुरानी हिंदी के परसर्गों को अपभ्रंश से तुलना करने पर न्यूनतम परिवर्तन दिखाई पड़ता है। स्पष्ट है कि हिंदी के सारे परसर्ग अपभ्रंश से विकसित हुए हैं।
हिंदी क्रियाओं की संपूर्ण संपदा (प्राकृत से होते हुए) अपभ्रंश से ही मिली है। अपभ्रंश ने हिंदी क्रियाओं के निर्माण में दोहरी भूमिका निभायी है-धातु निर्माण में और रूप रचना में। प्रारंभिक हिंदी की अधिकांश धातुएं अपभ्रंश काल में ही स्वरूप ग्रहण कर चुकी थी, जैसे-खा-रखा, चू-च्युत, तौड़े-तुट आदि। स्पष्ट है प्रारंभिक हिंदी की अधिकांश धातुएं अपभ्रंश से विरासत में मिली है।
क्रिया संबंधी रूप-रचना के संदर्भ में अपभ्रंश का हिंदी पर विशेष प्रभाव है। संस्कृत के मूल धातु में (चल-पठ-आदि) ण या णो परसर्ग जोड़कर संज्ञार्थ क्रिया-रूप रचने की प्रवृति अपभ्रंश युग में शुरू हुई। चलणो, पदणो, सुणणो आदि। इसी प्रवृति का विकास हिंदी में चलना, पढ़ना, सुनना आदि के रूप में हुआ।
स्वर संकोच अथवा संधि के कारण अपभ्रंश की क्रियाओं में तनिक परिवर्तन हुए उससे भी प्रारंभिक हिंदी अपभ्रंश के निकटतर लगती है, जैसे- < कीजै - किज्जइ-करीजै < करिज्जइ < उपजै < उप्पजइ, रहै < रहइ, कहीजै < कहिज्जइ आदि।
अपभ्रंश के सर्वनाम हउं, हौं, मइं, मो, मोहिं, मोर, मुण्झ, तहुं, तईहुं, तुम्ह, तोहि आदि लगभग इसी रूप में या कोई-कोई तनिक रूपांतर के साथ प्रारंभिक हिंदी में प्रयुक्त होते रहे, जैसेः
परवर्ती अपभ्रंश और विशेषकर अवहट्ठ में सहायक क्रियाओं का प्रयोग होने लगा था। परवर्ती अपभ्रंश में वर्ण रत्नाकर एवं कीर्तिलता तक आते-आते ‘भू’ ‘अस’ आदि सहायक क्रियाओं के रूप काफी घिसकर आधुनिक हो गए थे-अच्छि, छ, छल आदि मैथिली, बांग्ला के आधुनिक रूपों का व्यापक प्रचलन परवर्ती अपभ्रंश में ही आरंभ हो गया था।
मानक हिंदी में भी सामान्य वर्तमान काल के रूप में करता है, करते हैं आदि परवर्ती अपभ्रंश की संयुक्त काल-रचना की प्रवृत्ति के ही विकास हैं।
इसके अलावा संयुक्त क्रिया बनाने की प्रवृत्ति अपभ्रंश में दिखाई पड़ने लगी थी। प्रारंभिक हिंदी में यह प्रवृत्ति ज्यों- की-त्यों दिखाई पड़ती है। स्पष्ट है कि विश्लिष्टता के जो लक्षण अपभ्रंश में उभरे हिंदी में आकर वे और अधिक विकसित हुए।
संस्कृत के तीन लिंगों एवं तीन वचनों की जगह दो लिंग एवं दो वचन ही अपभ्रंश में रह गए। हिंदी में इन्हीं दो लिंगों एवं वचनों की व्यवस्था विकसित हुई। अपभ्रंश के अधिकांश क्रिया-विशेषण एवं विशेषण संस्कृत के तद्भव थे। इनमें से कोई थोड़े से ध्वन्यात्मक परिवर्तन के साथ अवधी, ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली में प्रचलित दिखाई पड़ते हैं, जैसे-
क्रिया - विशेषण-अज्जु >अज, आज, एंवहि>अबहि, अब
विशेषण - जेन्तुल>जितना, केतुल>कितना, णव>नौ, तिष्ण>तीन
शब्दकोशीय स्तर पर अपभ्रंश की हिंदी को अमूल्य देन सर्वज्ञात और स्वतः स्पष्ट है। अपभ्रंश का अभिप्राय है-अपने मूल (संस्कृत के व्याकरणनिष्ठ) रूप से विकृत-परिवर्तित अर्थात् तद्भव। संस्कृत के तत्सम शब्दों का अपभ्रंश में तद्भवीकरण हुआ। इस प्रकार अपभ्रंश संस्कृत के तत्सम शब्दों के तद्भव रूपों का ही अक्षय कोश और विशाल भंडार है। अपभ्रंश की यह तद्भव संपदा हिंदी को अनायास प्रदाय रूप में प्राप्त हुआ है।
हिंदी के लगभग साठ प्रतिशत शब्द अपभ्रंश से ही प्राप्त रूप हैं। इसके अतिरिक्त हिंदी में पंद्रह-बीस प्रतिशत देशज (आंचलिक या जनपदीय) शब्दों का अधिकांश अपभ्रंश का अवदान है। सिद्ध-नाथ और जैन ग्रंथो में प्रयुक्त अनेक देशज शब्द आज हिंदी की अमूल्य थाती है।
गाहासतसई और वज्जालंग्ग जैसे मुक्तक प्राकृत-अपभ्रंश संग्रहों के अतिरिक्त हेमचन्द्र की देशीनाममाला तथा प्रकृत पैंगलम् में संकलित पद्यों की बहुत-सी देशज शब्दावली आज हिंदी की अपनी संपदा है। टिरिटिल्लई (टर्र-टर्र करना) ओबड़ी (हड़बड़ी), बप्पीहा (पपीहा), कसवट्ट (कसौटी), झुंपडा (झोपड़ी) आदि अनेकादिक देशज शब्द बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में अपभ्रंश के माध्यम से हिंदी में आये। इसी संदर्भ में हिंदी के संख्यावाची शब्दों को देखा जाए तो उसके विकास में अपभ्रंश के योगदान स्पष्ट हो जाता हैः
इस प्रकार अपभ्रंश की व्याकरणिक व्यवस्था का ही हिंदी में विकास हुआ तथा शाब्दिक स्तर पर भी अपभ्रंश ने हिंदी को काफी कुछ दिया।
Question : अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएं बताइए।
(2008)
Answer : अपभ्रंशः मूलतः सामान्य जन-समुदाय में प्रयुक्त होने वाली आम बोलचाल की लोक-भाषाओं अथवा विभिन्न देशी बोलियों के लिए प्रयुक्त विशेषण है। संस्कृत की तुलना में जो लोकभाषा संस्कार-हीन, व्याकरण-विहीन, अनगढ़, टूटी-फूटी या विकृत शब्दावली से युक्त, अशिष्ट अपरिमार्जित मानी गई, उसे संस्कृत के आचार्यों ने अपभ्रंश नाम दिया।
चूंकि अपभ्रंश, संस्कृत के क्रमिक विकास से (संस्कृत > पालि > प्राकृत > अपभ्रंश) निष्पन्न भाषा है, इस कारण उसकी व्याकरणिक एवं शब्दकोशगत विशेषताओं को प्राकृत, पालि एवं संस्कृत की तुलना में ही समझा जा सकता है। इस भाषा की व्याकरणिक विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत रेखांकित किया जा सकता हैः
समान्य विशेषताएं:
ध्वनि संबंधी विशेषताएं:
रूप-रचना संबंधी विशेषताएं:
Question : अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएं
(2007)
Answer : अपभ्रंश संस्कृत के क्रमिक विकास (संस्कृत + पालि + प्राकृत + अपभ्रंश) से निष्पन्न भाषा है। अतः उसकी व्याकरणिक विशेषताओं का आकलन प्राकृत, पालि एवं संस्कृत की तुलना में ही किया जा सकता है। इस आधार पर अपभ्रंश की विशेषताओं को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझा जा सकता है-
Question : पूर्वी हिन्दी और पश्चिमी हिन्दी की भेदक रेखाएं निर्धारित कीजिए।
(2005)
Answer : पूर्वी हिन्दी और पश्चिमी हिंदी, हिंदी की दो उपभाषाएं हैं। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि ये क्षेत्र विशेष में बोली जाती है या इन नामों से भाषाओं का अस्तित्व है। सच तो यह है कि ये क्षेत्रीय निकटता एवं भाषिक समानता के आधार पर कुछ बोलियों के समूह के लिए प्रयुक्त नाम है। अतः दोनों के बीच अन्तर को रेखांकित करने के पूर्व यह बात ध्यान रखना होगा कि ‘ब्रज’ पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत होते हुए भी भाषिक-प्रकृत्ति एवं संरचना-प्रवृत्ति के स्तर पर पूर्वी हिन्दी की ‘अवधी’ से पर्याप्त साम्यता रहती है। अवधी और ब्रज में समानताओं और विभिन्नताओं का अनुपात लगभग एक-सा है। इस दृष्टि से जब हम पूर्वी हिन्दी एवं पश्चिमी हिन्दी के बीच विभेद की बात करते हैं तो हमें पूर्वी हिन्दी के रूप में प्रमुखतया अवधी (और कहीं-कहीं भोजपुरी भी) और पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत मुख्यतया खड़ी बोली (कहीं-कहीं हरियाणवीं भी) को ध्यान में रखना होगा। पश्चिमी हिन्दी की चर्चा करते समय ‘ब्रज’ को अपवाद मानना पड़ेगा, क्योंकि उसकी भाषिक-प्रकृति खड़ी बोली की अपेक्षा अवधी के अधिक निकट है। इसका कारण यह है कि ब्रज और अवधी की सीमाएं परस्पर सटी हुई है, जिसके मध्य पश्चिमी हिन्दी की ‘कन्नौजी’ और पूर्वी हिन्दी की ‘छत्तीसगढ़ी’ बीच की कड़ी का काम करती है। इसी पृष्ठभूमि में पूर्वी एवं पश्चिमी हिन्दी के बीच अन्तर को रेखांकित किया जा सकता हैः
मानक उच्चारण | पूर्वी हिन्दी | पश्चिमी हिन्दी |
---|---|---|
कृपा | क्रिपा | क्रपा |
धृत | ध्रित | ध्रत |
कृष्णा | क्रिष्णा | क्रष्णा |
Question : ब्रजभाषा की व्याकरणिक विशेषताएं
(2005)
Answer : हिन्दी परिवार की जिस भाषा को हम ‘ब्रजभाषा नाम से जानते हैं, वह भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलन्दशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं तथा बरेली आदि जिलों, हरियाणा के गुड़गांव की पूर्वी पट्टी, राजस्थान के भरतपुर, करौली तथा जयपुर के पूर्वी भाग और मध्यप्रदेश में ग्वालियर के पश्चिमी भाग में बोली जाती है। ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से ‘ब्रज’ का संबंध ‘शौरसेनी’ अपभ्रंश से माना जाता है। इस भाषा का ‘ब्रजभाषा’ नामकरण अठारहवीं शताब्दी में हुआ।
ब्रज की व्याकरणिक प्रवृत्ति का विकास मूलतः शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। अतः इस क्षेत्र की अपभ्रंश, अवहट्ठ और पुरानी हिन्दी की प्रमुख व्याकरणिक विशेषताएं ब्रज को विरासत में प्राप्त हुई हैं। इस कारण अनेक विशेषताएं अपभ्रंश, अवहट्ठ, पुरानी हिन्दी एवं ब्रज में समान रूप से देखी जा सकती है। फिर भी ‘ब्रज’ की कुछ अपनी निजी विशेषताएं हैं:
ध्वनि संबंधी विशेषताएं: (1) ओकारान्तता ‘ब्रज’ की प्रमुख प्रवृत्ति है अर्थात् संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया के अन्त में ‘ओ’ जोड़कर बोलने की प्रवृत्ति, जैसे- ठिकानों, बानों, मेरो, तेरो आदि। हालांकि कहीं-कहीं (कर्त्ता और कर्मवाची संज्ञाओं में) उकारांत प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे- ‘स्यामु हरित दुति होइ’….. (बिहारी)
(2) ऐ-औ स्वरों का उच्चारण अए-अओ होता है।
(3) आरंभिक एवं मध्यवर्ती अर्धस्वर य-व प्रायः मूल-स्वर इ-उ के रूप में उच्चारित होते हैं, जैसे- नायक, नायिका।
(4) ‘ऋ’ का उच्चारण ‘रि’ होता है- ऋतु झ रितु।
(5) स्वर विपर्यय (पहले स्वर का बाद में और बाद के स्वर का पहले प्रयोग) की प्रवृत्ति ‘ब्रज’ में देखा जाता है- वानर झ वनरा, चांद झ चंदा
(6) क्षतिपूरक दीर्घकरण की प्रवृत्ति भी पायी जाती है- अग्नि झ आगि, चन्द्र झ चांद।
(7) संयुक्त ध्वनियां प्रायः विरल रूप में उच्चरित होती हैं, जैसे- कार्य झ कारज, पर्वत झ परबत
रूप-रचना संबंधी विशेषताएं: (1) जातिवाचक और भाववाचक आकारांत पुलिंग संज्ञा प्रायः ओकारांत हो जाती है- छोरो, ठिकानो आदि। अकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारांत पुलिंग तथा स्त्रीलिंग संज्ञाएं यथावत् रहती हैं- मन, बन, गठरी आदि।
(2) विशेषण पद अधिकतर विशेष्य के अनुसार होता है, जैसे- गोरी (बूझत स्याम कौन तू गोरी), बड़ो नीको (पुल्लिंग), बहति (जमुना) आदि।
(3) ‘ब्रज’ भाषा के विभिन्न कारकीय रूपों में ‘हि’ या ‘हिं’ परसर्ग जुड़ने की प्रवृत्ति समान रूप से मिलती है- मोहि-मोहिं, तोहि-तोहिं आदि।
(4) ‘ब्रज’ में कहीं-कहीं संश्लिष्ट विभक्ति के उदाहरण भी मिलते हैं- जसोदा हरि पालनैं झुलावै (पालने में)।
(5) संज्ञार्थ क्रियाएं (अथवा क्रियार्थ संज्ञाएं) प्रायः अन्त में + न परसर्ग युक्त होते हैं- चलन, फिरन, कहन आदि।
(6) पूर्वकालिक क्रियाएं प्रायः इकारान्त- चलि, जोरी आदि के रूप में या कहीं-कहीं + वै जोड़कर- हवै (होकर), च्वै (चूकर) बने होते हैं।
(7) भविष्यत् कालिक क्रियाओं में ‘ग’ परसर्ग का प्रयोग होता है, जो लिंग-वचन के अनुसार होते हैं- जाइगो (पु.), जाइगी (स्त्री.), जाहिंगे (बहुवचन) आदि।
(8) क्रिया विशेषण के रूप में- इत-उत, जित-तित-कित, इहां-उहां आदि का प्रयोग ‘ब्रज’ में होता है।
(9) निपात ‘भी’, ‘हि’ आदि के लिए क्रमशः ‘हूं’, ‘हू’, का प्रयोग जैसे- आजहूं (आज भी), वाहू (वह ही) आदि।
Question : सिद्धनाथ-साहित्य में प्रारंभिक खड़ी बोली
(2005)
Answer : हिंदी साहित्य के अंतर्गत ‘सिद्ध’ शब्द (विशेषण) उन बौद्ध सिद्धाचार्यों के लिए प्रयुक्त होता है जो बौद्ध मत की वज्रयानी परंपरा से संबंधित थे। इसी प्रकार नाथ पंथी योगियों की परंपरा भी इसी अवधी में संपुष्ट होती दिखाई देती है और उनके सिद्धांत बौद्धमत के वज्रयानी सिद्धों से मिलते जुलते हैं, परंतु जनभाषा में रचित उनके उपदेश समकालीन विभिन्न उपासना एवं साधना पद्धतियों में एक सहज समन्वय का संदेश लिए हुए है। उनकी साहित्यिक कृतियां बौद्ध सिद्धों से भिन्न कोटि की है। आठवीं-नौंवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं- बारहवीं शताब्दी तक अनेक बौद्ध सिद्धाचार्यों ने अधिकांशतः सहज-सुबोध दोहों तथा गेयात्मक चर्यापदों के माध्यम से, जन-सामान्य को साधना-मार्ग का संदेश दिया। इसके दोहों और पदों की भाषा समकालीन प्राकृत एवं अपभ्रंश की भाषिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करती हुई, अनेक समकालीन लोक-बोलियों के भी अनेक तत्व अपने भीतर संजोये हुए है, जिसमें अवधी, ब्रज, राजस्थानी के अतिरिक्त मध्यदेशीय कुरु क्षेत्र में प्रचलित कौरवी भी एक है। कुछ उदाहरण देख कर इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा को समझा जा सकता हैः
"घर ही बइसी दीवा जाली।
कोणहिं बइसी घंडा चाली।" (सरहपा)
"निशि अधियारी मूसा करै संचारा" (भूसुलपा)
इसी प्रकार ‘तांतिया’ नामक सिद्ध (10वीं-11वीं शताब्दी) का एक उदाहरणः
"जो सो बुज्झी सो धनि बुद्धी।
जो सो चोर सोइ साधी।"
इन विविध छंदों में सिद्धों द्वारा प्रयुक्त खड़ी बोली के आरंभिक रूप को सरलता से पहचाना जा सकता है।
नाथपंथ में वज्रयानियों की तंत्र-साधना एवं खंडनात्मक प्रवृत्ति के अतिरिक्त आचार्य पतंजलि के योग-सिद्धांत एवं शैव संप्रदाय की संयम-साधना के साथ-साथ गुरु-महिमा का विशेष महत्व है। बौद्ध सिद्धों की भांति नाथ-सिद्ध भी यायावर रहे, अतः इनकी ‘बानियो’ की भाषा में विभिन्न जन बोलियों का सहज सामंजस्य दिखायी देता है। तदनुसार उनकी रचनाओं में खड़ी बोली का पूर्वाभास होना भी स्वभाविक है। कुछ उदाहरणों में देखा जा सकता हैः
गोरखनाथ (10वीं शताब्दी)-
"अवधू रह्या हाटे-बाट, रूख बिरख की छाया।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया।"
मत्स्येंद्र नाथ (10वीं-11वीं शताब्दी)-
"माया स्वारथ की जीबड़ी, स्वारथ छाडि़ न जाइ।
जब गोरख किरपा करी, म्हारो मन समझायो आइ।"
भरथरी नाथ (11वीं-12वीं शताब्दी)-
"सो बैराणी जो उलटै ब्रह्म, गगन मंडल महिं रोपै थंम।"
विभिन्न नाथपंथी सिद्धों की वाणी के उपर्युक्त उदाहरण आज की खड़ी बोली के इतने निकट है कि यदि रचनाकारों के समय का संकेत न हो तो इन्हें उन्नीसवीं शती के भी बाद की रचना माना जा सकता है।
Question : दक्खिनी हिन्दी के प्रमुख हस्ताक्षर
(2005)
Answer : ‘दक्खिनी हिन्दी’ मूलतः ‘हिन्दी’ का ही एक रूप है। इसके कई अन्य नाम भी हैं, यथा- ‘हिन्दवी’, ‘दकनी’, ‘दखनी’, हिन्दुस्तानी आदि। इसका मूल आधार दिल्ली के आस-पास प्रचलित 14वीं-15वीं सदी की ‘खड़ी बोली’ है। मुसलमानों ने भारत में आने पर इस बोली को अपनाया था। मसऊद, इब्नसाद, खुसरो तथा फरीदुद्दीन शकरगंजी आदि ने अपनी हिंदी कविताएं इसी में लिखी थी। 15वीं-16वीं सदी में फौज, फकीरों तथा दरवेशों के साथ यह भाषा दक्षिण भारत में पहुंची और वहां प्रमुखतः मुसलमानों में, तथा कुछ हिन्दुओं में जो उत्तर भारत के थे, प्रचलित हो गयी। इसका विकास मुख्यतः बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमदनगर, बरार के राज्यों में हुआ। ग्रियर्सन इसे हिन्दुस्तानी का बिगड़ा हुआ रूप न मानकर उत्तर भारत की ‘साहित्यिक हिन्दुस्तानी’ को ही इसका रूप मानते हैं। डा. चटर्जी इसे हिन्दुस्तानी की सहोदरी भाषा मानते हैं। वास्तव में ‘दक्खिनी हिंदी’ प्राचीन खड़ी बोली ही है, जिसमें पंजाबी, हरियानी, ब्रज, मेवाती तथा कुछ अवधी के रूप हैं। दक्षिण में जाने के बाद इस पर कुछ गुजराती-मराठी का भी प्रभाव पड़ा है। इस भाषा के एक प्रमुख रचनाकार ख्वाजा बन्दे नवाज 14वीं शताब्दी में हुए। इनकी रचनाओं में दक्खिनी का आरंभिक रूप देखा जा सकता हैः
"मैं आशिक उस पीव का जिसने मुझे जीव दिया है
जो पीव मेरे जीव का कुर्का लिया है।"
पंद्रहवीं शताब्दी के निजामी का एक उदाहरण
"आकाश ऊंच पताल धरती थी-
जहाँ कुछ न कोई था है वहीं
बिठाया अमोल रतन नूर घर....।"
दक्खिनी हिंदी के इन गद्य रचनाकारों में 17वीं शताब्दी के अमीनुद्दीन आला का नाम भी लिया जा सकता है। गद्य के अलावा दक्खिनी हिंदी में पद्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। पद्य रचनाकारों में सत्रहवीं शताब्दी के बहरी का एक उदाहरण देखा जा सकता है-
हिंदी तो जबाना है, कहने न लगत हमको भारी
गर बीच कबीसुरी न आती, बल्ला यह आग मुझे जलाती
दक्खिनी हिंदी के अन्य हस्ताक्षरों में शाह मीरा जी, शाह बुरहानुद्दीन जानम (15वीं शताब्दी), शाह अली मुहम्मद, कुली कुतुबशाह (16वीं शताब्दी), वजही, नूसरती, गौव्वासी, इब्न निशाती (17वीं शताब्दी) आदि का नाम लिया जा सकता है।
ऐसा माना जाता है कि उर्दू साहित्य का आरंभ भी वस्तुतः दक्खिनी से ही हुआ। उर्दू के प्रथम कवि वली (रचना काल 1700 ई. के लगभग) ही दक्खिनी के अन्तिम कवि वली औरंगाबादी है। इस प्रकार दक्खिनी को एक प्रकार से उर्दू की जननी कह सकते हैं, यद्यपि भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है।
दक्खिनी हिंदी के सभी रचनाकार मुस्लिम कवि हैं और उनमें से भी अधिकांश सूफी। इनके साहित्य में भारतीय अद्वैतवाद की ही झलक मिलती है। भाषा के संबंध में इन रचनाकरों ने अपनी साहित्यिक भाषा को बार-बार ‘हिंदी’ कहा है, जैसा कि शाह बुरहानुद्दीन जानम कहते हैं:
"ऐब न राखे हिन्दी बोल, माने तू चल देख टटोल।
क्यों न लेवे इसे कोय, सुहावना चितवर जो होय।"
Question : वाक्य रचना के विभिन्न तत्व
(2004)
Answer : वाक्य सार्थक शब्दों का ऐसा व्यवस्थित और क्रमबद्ध समूह होता है, जो किसी अभिप्राय को स्पष्ट करने में पूर्णतः समर्थ हो। वाक्य के संबंध में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं (1) वाक्य में एक से अधिक पद होते हैं। (2) वास्तविक प्रयोग में कभी-कभी गौण शब्दों को छोड़कर, केवल उस एक शब्द या उन कुछ शब्दों के वाक्य भी मिलते हैं, जो प्रश्न या विषय से सीधे संबद्ध होते हैं और जिनके आधार पर पूरे वाक्य की कल्पना सुनने वाला या पढ़ने वाला कर लेता है। (3) व्याकरणिक दृष्टि से वाक्य पूर्ण होता है। अर्थात् कर्त्ता, क्रिया या अन्य अपेक्षित शब्द पूरे होते हैं। जैसे- ‘राम घर’ या ‘राम नहीं किया’ आदि वाक्य व्याकरणिक दृष्टि से अपूर्ण है, अतः ये वाक्य नहीं है। (4) अर्थ या भाव की दृष्टि से वाक्य में पूर्णता हो भी सकती है, नहीं भी। (5) हर वाक्य में एक क्रिया आवश्यक रूप में मौजूद होती है। वाक्य के दो अंग होते हैं:
(क) उद्देश्यः उद्देश्य वाक्य का वह भाग होता है जिसके संबंध में वाक्य के शेष भाग में कुछ कहा गया हो, जैसे- कलम खो गई। छात्र आ गए आदि। उद्देश्य में प्रायः कर्त्ता के साथ उसके विस्तार भी आ सकते हैं- मेरी कलम खो गई। मेरे स्कूल के सभी छात्र आ गए।
(ख) विधेयः वाक्य का वह भाग जो वाक्य के उद्देश्य के बारे में सूचना दे, जैसे-कलम खो गई। छात्र आ गए। विधेय के केंद्रीय पद क्रिया होती है तथा उसके साथ विस्तार भी आ सकते हैं- कलम बाजार में खो गई। छात्र कक्षा के बाहर आ गए।
सामान्यतः वाक्य संरचना में तीन तत्व अपेक्षित हैं- योग्यता आकांक्षा और सत्रिधि वाक्य में पूर्ण अर्थ संप्रेषित करने की योग्यता तथा व्याकरणिक औचित्य के निर्वाह की योग्यता दोनों एक साथ होनी चाहिए। जैसे- किसान खेतों को बालू से सींचता है तथा किसान खेतों सींचती हैं। ये दोनों ‘वाक्य’ कहलाने के अधिकारी नहीं है, क्योंकि प्रथम वाक्य में अर्थ संप्रेषित करने की योग्यता नहीं है, तो दूसरे में व्याकरणिक योग्यता का अभाव है। अतः वाक्य कहलाने के लिए अर्थ संप्रेषण के साथ-साथ व्याकरणिक बाधा नहीं होनी चाहिए। आकांक्षा का मतलब श्रोता या पाठक की जिज्ञासा से है। जिस कथन से श्रोता या पाठक की अकांक्षा या जिज्ञासा समाप्त हो जाती हो या जिसे सुनकर श्रोता को और जानने की इच्छा न रहे ‘वाक्य’ कहलाता है, जैसे- ‘कलम’ कहने या लिखने पर श्रोता या पाठक के मन में कई जिज्ञासाएं उत्पन्न होगी- कलम कैसी कलम? कलम का क्या करना है? किसकी कलम? आदि-आदि। लेकिन जब यह कहा जाय, मेरी कलम लेते आना, तो इसमें पूर्ण अर्थ है तथा कोई अकांक्षा शेष नहीं रहती। वाक्य संरचना का एक आवश्यक तत्व सत्रिधि या समीपता है। अर्थात् वाक्य में नियोजित पद अपने से संबंधित पदों के समीप होना चाहिए, जैसे- ‘रंग मेरी पेन लाल है की गई खो’। यह वाक्य अटपटा सा लगता है, क्योंकि इसमें नियोजित पदों की अपने से संबंधित अन्य पदों से ‘सन्निाधि’ नहीं है। मेरी लाल रंग की पेन खो गई हैं। यह वाक्य शुद्ध एवं पूर्ण है। क्योंकि इसमें विभिन्न पद (विशेषण-विशेषण आदि) अपने से संबंधित पदों के समीप है। स्पष्ट है कि वाक्य की कसौटी अभिव्यक्ति की पूर्णता है।
Question : ब्रज अवधी और खड़ी बोली में साम्य और वैषम्य पर प्रकाश डालिए।
(2004)
Answer : आधुनिक खड़ी बोली (मानक हिन्दी) के निर्माण में न केवल दिल्ली और उसके आस-पास की भाषाओं का बल्कि ब्रजभाषा और अवधी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है, अतः मानक हिन्दी (खड़ी बोली), अवधी और ब्रजभाषा में अनेक समानताएं हैं जो हिन्दी परिवार में ‘सवांग’ के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं, तो अनेक विभिन्नताएं भी हैं, जिसके कारण इन तीनों की अलग पहचान स्थापित होती है।
Question : ‘हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास’ विषय पर निबंध लिखिए।
(2004)
Answer : हिन्दी भाषा का इतिहास बहुत पुराना है। इसके प्रारंभिक रूप को आदिकालीन अपभ्रंश तथा अवहट्ठ रचनाओं में देखा जा सकता है। अनेक विद्वान प्राचीन ‘डिंगल’ और ‘पिंगल’ रचनाओं को हिन्दी का ही रूप मानते हैं। आदिकाल में रचित सिद्ध और जैन साहित्य की भाषा हिन्दी के आदिकालीन स्वरूप का परिचय देती है। हालांकि इनकी भाषा अपभ्रंश से प्रभावित है। जैन कवि सोमप्रभा सूरि की एक कविता उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता हैः
‘रावण जायउ जहि दियहि दह मुंह एक सरीरू।
चिंताविय तइयिय जणणि कवजु पियावएं खीरू।।’
प्राचीन हिन्दी के अंतर्गत बौद्ध और सिद्धों की कविताओं की भाषा में पश्चिमी एवं पूर्वी अपभ्रंश के शब्दों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। हिन्दी के प्राचीन रूप को विकसित करने में रासो साहित्य का भी योगदान काफी रहा। इनकी भाषा को विद्वानों ने डिंगल और पिंगल बताया है। इनकी भाषा का एक नमूना-
"छनियं हथ्थ धरंत, नयन्न चाहिएउ।" (पृथ्वीराज रासो।)
तेरहवीं शताब्दी में हमें विकसित हिन्दी के एक अन्य रूप अमीर खुसरो की रचनाओं में मिलती है। उनकी पहेलियां, मुकरियां, ढकोसले तथा दो सखुन में हिन्दी के जो सरल, स्वाभाविक और बोलचाल की भाषा के रूप मिलते हैं, उसे खुसरो ने ‘हिंदवी’ कहा है, उदाहरणः
"एक थाल मोती से भरा, सबके सर पर औंधा धरा।
थाली सबके सिर पर फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।"
हिन्दी जबान में रचित मुल्ला दाऊद के चंदायन भी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। चौदहवीं शताब्दी के आस-पास ही दक्षिण में हिन्दी का एक नवीन रूप दिखाई देता है, जिसे "दक्किनी" या "दक्खिनी" के नाम से जानी गयी। यह खड़ी बोली का वह रूप है जिसमें एक ओर ब्रजभाषा तथा फारसी के शब्दों का बाहुल्य है तो दूसरी ओर दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्दों का।
मध्यकाल तक आते-आते हमें हिन्दी के स्वरूप में स्थिरता के दर्शन होते हैं और वह आत्मनिर्भर होने लगती है। हिन्दी में जो अपभ्रंश के रूप मिलते थे, वे इस समय तक प्रायः लुप्त हो जाते हैं। हिन्दी की तीन बोलियां- ब्रज, अवधि और खड़ी बोली अस्तित्व में आती हैं, हालांकि साहित्य के क्षेत्र में ब्रज तथा अवधी की ही प्रधानता रहती है, पर बोल-चाल की भाषा में जायसी, सूर, तुलसी, कबीर आदि भक्त कवियों ने अपनी वाणी के द्वारा ब्रज तथा अवधी का परिमार्जन एवं परिष्कार किया। दूसरी तरफ रीतिकालीन साहित्य ने ब्रजभाषा को कलात्मक ऊंचाई प्रदान किया। रीतिकालीन के महत्वपूर्ण हस्तियों में- बिहारी, मतिराम, घनानंद, देव भूषण आदि प्रमुख हैं। साहित्यिक दृष्टि से इस काल में खड़ी बोली गद्य के विकास का पहला चरण दृष्टिकोण होता है। खड़ी बोली गद्य का सूत्रपात 1500 ई. के लगभग किसी अज्ञात लेखक/कवि द्वारा रचित फ्कुतुबशतक" पर लिखे वार्तिका शतक, औरंगजेब के समकालीन स्वामी प्राणनाथ और उनके शिष्यों की रचनाओं में, 1742 में रामप्रसाद निरंजनी के ‘भाष योग विशिष्ट’ में देखा जा सकता है।
यहां से गुजरते हुए हिन्दी आधुनिक काल में प्रवेश करती है और वह लगभग पूरी तरह विकसित हो जाती है। आधुनिक युग में हिन्दी साहित्य में ‘ब्रज’ की जगह खड़ी बोली का प्रवेश मिलता है। 19वीं शताब्दी का आरंभिक युग खड़ी बोली के विकास को लेकर आरंभ होता है। ब्रजभाषा जो एक लंबी अवधि तक साहित्य के पटल पर छायी हुई थी, उसका प्रभाव लुप्त हो जाता है। 19वीं शताब्दी के आरंभ में तो हिन्दी काव्य साहित्य की भाषा ब्रज बनी रहती है, लेकिन गद्य साहित्य का लेखन खड़ी बोली में ही आरंभ होता है। 1920-25 के आसपास धीरे-धीरे हिन्दी कविता भी खड़ी बोली में होने लगती है और ब्रजभाषा अब हिन्दी की एक बोली मात्र रह जाती है। अतः 19वीं शताब्दी से हिन्दी का विकास सही अर्थों में खड़ी बोली का ही विकास है।
19वीं शताब्दी तक पहुंचते-पहुंचते भारत पर अंग्रेजी राज्य पूर्णतः स्थापित हो जाता है। अंग्रेजों ने अपनी आवश्यकता से प्रेरित होकर हिन्दी के विकास में जुट जाते हैं। इस समय हिन्दी के विकास में सरकारी प्रयास के अलावा गैर सरकारी प्रयास भी किए गए। सरकारी स्तर पर हिन्दी के अध्ययन और अध्यापन के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई। इस कॉलेज से संबंधित दो महत्वपूर्ण विद्वान- लल्लू जी लाल तथा सदल मिश्र ने अनेक पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित की । स्वयं इस कॉलेज के अध्यक्ष गिलक्राइस्ट ने- ‘डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश एण्ड हिन्दुस्तानी’ (1789-90) तथा ‘हिन्दुस्तानी व्याकरण’ की रचना की। लल्लूलाल की भाषा ब्रज प्रभाव वाली हिन्दी थी तो सदल मिश्र की खड़ी बोली पर पूर्वी हिन्दी का प्रभाव था। इसी समय स्वतंत्र लेखन करने वालों में मुंशी सदासुख लाल तथा मुंशी इंशा अल्ला खां ने खड़ी बोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया। मुंशी सदासुख लाल ने विष्णु-पुराण के एक प्रसंग पर ग्रंथ लिखा। इनकी भाषा को ‘टंकसाली भाषा’ कहा गया। भाषा का यही रूप आम जन में लोकप्रिय हुआ। मुंशी इंशा अल्ला खां ने हिन्दी की प्रथम कहानी-फ्रानी केतकी की कहानी" की रचना की। इनकी भाषा में सहजता, आत्मीयता एवं घरेलूपन के दर्शन होते हैं। इनकी भाषा का एक नमूना देखा जा सकता है-
"तुम अभी अल्हड़ हो, तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढ़लाव देखूंगी तो तुम्हारे बाप से कहकर वह भभूत जो मुआ निगोड़ा भूत मछंदर पूत अवधूत दे गया है।"
19वीं शताब्दी में ईसाई धर्म प्रचारकों ने खड़ी बोली के विकास में पर्याप्त मदद की। इन्होंने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए अपनी धार्मिक पुस्तकों का खड़ी बोली हिन्दी में अनुवाद करवाया। इसके अलावा शिक्षण से संबंधित विभिन्न विषयों- इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र आदि की पुस्तकें भी तैयार करवाई। हालांकि व्याकरणिक दृष्टि से इनकी पुस्तकों की भाषा में परिपक्वता नहीं है, फिर भी हिन्दी के विकास में इसका अपना महत्व है।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी पत्रकारिता का भी जन्म हुआ, जिससे हिन्दी के विकास को काफी गति मिली। हिन्दी के प्रथम पत्र 30 मई, 1826 को ‘उदंत मार्तण्ड’ का प्रकाशन हुआ। इसके बाद ‘बंगदूत’, ‘प्रजामित्र’, ‘बनारस अखबार’, ‘समाचार सुधावर्षण’ आदि पत्र प्रकाशित हुए। इसी बीच 19वीं शताब्दी के मध्य में भारतेंदु जैसे महान व्यक्तित्व की सेवाएं हिदी को मिली। भारतेन्दु से पूर्व हिन्दी की गाड़ी चल तो पड़ी थी पर उसका सर्वमान्य एवं सर्व स्वीकृत तथा सर्वग्राह्य रूप नहीं मिल पाया था। यह कार्य भारतेंदु युग में हुआ। भारतेंदु स्वयं तो कर्मठ व्यक्ति थे ही साथ ही उन्होंने साहित्यकारों और हिन्दी प्रेमियों की एक मंडली तैयार किया जिसने हिन्दी के विकास में सामूहिक रूप से कार्य करना आरंभ किया। अब साहित्य के क्षेत्र में नए-नए रास्ते खुले। गद्य की नयी-नयी विधाओं पर लेखनी चलायी गई। उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, निबंध, आलोचना तथा ज्ञान-विज्ञान के विषयों पर साहित्य सर्जना आरंभ हुआ। इस कार्य में भारतेंदु के अलावा जो, अन्य साहित्यकार सामने आए उनमें लाला श्री कृष्णदास, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, राधा चरण गोस्वामी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लेखकों तथा साहित्यकारों ने खड़ी बोली हिन्दी का प्रचार-प्रसार तो किया ही, भाषा परिमार्जन की दिशा में भी अभूतपूर्व कार्य किया।
भारतेंदु युग की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां गद्य की विधाओं के लिए खड़ी बोली को आधार बनाया गया, वहीं कविता के क्षेत्र में लोगों का ‘ब्रजभाषा’ से मोह नहीं छूटा था। इसके अलावा गद्य लेखकों में भी भाषिक अराजकता व्याप्त रही। खड़ी बोली हिन्दी के सौभाग्य से 1903 ई. में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादकत्व का भार संभाला। द्विवेदी जी ने इस पत्रिका के माध्यम से भाषा के परिमार्जन और परिष्कार का बीड़ा उठाया और वे पूरे मनोयोग से हिन्दी की सेवा में लग गए। इस पत्रिका में छपने के लिए जो लेख आते थे, उसमें भाषा, व्याकरण, तथा वर्तनी आदि की अनेक अशुद्धियां होती थीं। द्विवेदी जी रात-रात बैठकर स्वयं इन लेखों की भाषा सुधारा करते थे और लोगों को सही भाषा लिखने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने स्वयं ऐसे लेख-लिखे, जिनके माध्यम से उन्होंने व्याकरण, वर्तनी, विराम चिह्नों आदि का आदर्श लोगों के सम्मुख प्रस्तुत किया। द्विवेदी जी ने गद्य एवं पद्य के क्षेत्र में भाषा प्रयोग की जो द्वैधता थी, उसे भी दूर किया तथा उन्होंने लोगों को ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में कविता लिखने की प्रेरणा दी। इस प्रकार पद्य की व्यवहारिक भाषा भी एक मात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित हो गयी। उधर भारतेंदु के जीवन के अंतिम समय में ‘कांग्रेस’ की स्थापना हुई तथा द्विवेदी युग तक राष्ट्रीय आंदोलन ने राष्ट्रीय गौरव तथा आत्म सम्मान के लिए लोगों के मन में राष्ट्रीय स्तर पर खड़ी बोली हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार की भावना जाग्रत की। इस आंदोलन से देश के जाने माने पत्रकार, शिक्षाविद्, वैज्ञानिक, नेता आदि सभी लोग जुड़े थे। इन सब ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने में अपना-अपना योगदान दिया।
बीसवीं शताब्दी के मध्य में 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ तथा जब आजाद भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया तो हिन्दी को पंद्रह वर्षों बाद 1965 में राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। यह बहुत ही दुःख की बात है कि आजादी के बाद भी 15 वर्षों तक राजभाषा अंग्रेजी रही तथा उसके बाद भी हिंदी को राजभाषा का पूर्ण अधिकार आज तक नहीं मिल पाया है। फिर भी यह संतोष की बात है, कि वर्तमान में खड़ी बोली हिन्दी का क्षेत्र न केवल संपूर्ण भारत वर्ष है। अपितु वे देश भी हैं जहां हिन्दी भाषी लोग जा बसे हैं तथा अपनी अस्मिता की पहचान भारत और हिन्दी से करते हैं- वर्तमान में हिन्दी को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाने में ‘सिनेमा’ की महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान में हिन्दी के अखिल भारतीय स्तर पर दो रूप हैं- बोलचाल की हिन्दी (हिन्दुस्तानी) तथा साहित्यिक हिन्दी। बोलचाल की हिन्दी के अलग-अलग क्षेत्रीय रूप विकसित हो रहे हैं। यही कारण है कि आज- "कलकत्तिया हिन्दी", "बंबईया हिन्दी", "दिल्ली की हिन्दी" जैसे रूपों की चर्चा की जाती है। इन रूपों का होना ही तो हिन्दी की प्रगति एवं समृद्धि की सूचना देता है।
Question : दक्खिनी हिन्दी के विकास में आदिलशाही शासकों का योगदान।
(2004)
Answer : दक्खिनी हिन्दी मूलतः हिन्दी का ही रूप है। यह भाषा भी बीजरूप में दिल्ली के आस-पास की खड़ी बोली तथा हरियाणवी की थी, जिसका विकास दक्खिनी राज्यों में हुआ था। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में विभिन्न राजनैतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण दिल्ली में प्रयुक्त हिन्दुई अथवा हिन्दीव (साथ में हरियाणवी का भी) का प्रवेश दक्षिण भारत में हो गया। तेरहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन के दक्षिण-अभियान के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के जो अधिकारी कर्मचारी या व्यापारी आदि बीजापुर, (गोलकुंडा देवगिरि) आदि में गए, उनके साथ दिल्ली के आस-पास की ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ भी वहां गयी। विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों को आपसी संपर्क के लिए यही भाषा अनुकूल लगी। चौदहवीं शताब्दी में उस समय भाषा-संक्रमण की प्रक्रिया तीव्र हो गई, जब मुहम्मद तुगलक के आदेश से दिल्ली के राजदरबारी प्रशासक, सैनिक, कर्मचारी, व्यवसायी, व्यापारी, सूफी-संत-फकीर-सभी को सपरिवार देवगिरि या दौलताबाद में जाकर बसना पड़ा। ऐसे लोगों में दिल्ली, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिन्दू-मुसलमान दोनों थे, जो काफी समय से यहां की जनपदीय बोलियों (कौरवी, बांगरू, मेवाती, ब्रज) आदि में परस्पर व्यवहार करते थे। इन सब कारणों से और विशेषतया राजनीतिक तथा धार्मिक दोनों स्तरों पर हिन्दी प्रयोग को बढ़ावा मिला। धीरे-धीरे उत्तर से दक्षिण गए हुए लोगों की बोलचाल में शासक वर्ग की अरबी-फारसी का तथा दक्षिण के मूल निवासी जन-समुदाय द्वारा प्रयुक्त होने वाली तेलुगू, कन्नड़, मराठी आदि का रंग भी चढ़ने लगा और ‘हिन्दी-दक्खिनी हिन्दी’ का रूप लेने लगी, क्योंकि वह मध्य प्रदेश या दिल्ली के आस-पास प्रयुक्त होने वाली ठेठ हिन्दी न होकर फारसी-मिश्रित और थोड़ी-बहुत दक्षिणी भाषाओं से प्रभावित हिन्दी थी।
इसी समय दक्षिण के बीजापुर (गोलकुंडा आदि) के राजकीय प्रशासन में राजनैतिक कारणों से प्रायः ब्राह्मणों को ही हिसाब-किताब रखने का दायित्व दिया जाता रहा, जिनकी भाषा हिन्दी थी भले ही उसका लिखित रूप फारसी लिपि में आबद्ध थी। इस प्रकार बीजापुरी राज्य के राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारणों ने दक्खिनी हिन्दी के विकास में योगदान दिया। इसके अलावा आदिलशाही सुल्तान स्वयं विद्या प्रेमी तथा विद्या के संरक्षक थे। इन्होंने दक्खिनी हिन्दी के कवियों, लेखकों और सूफी फकीरों को संरक्षण दिया तथा अनेक लेखक, कवि और सूफी संतों ने बिना राजकीय संरक्षण के स्वतंत्र रूप से दक्खिनी हिन्दी में रचनाएं कीं, जिसके कारण दक्खिनी हिन्दी पर्याप्त समुन्नत और समृद्ध हुई। नुसरती, गौत्वसी, बहरी, वजही का नाम लिया जा सकता है। इनमें मुल्ला वजही सर्वश्रेष्ठ रचनाकार हैं, जिनकी रचना गद्य में सबरस’ और पद्य में ‘कुतुब मुश्तरी’ उत्कृष्ट मानी जाती है। इनकी एक रचना उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है-
"छपी रात उजाला हुआ दीस का, लगा जग करन सेवा परमेसरा।
जो आया झलकता सूरज दाटकर, अंधेरा था जो था सो गया न्हात कर।
सूरज यूं है रंग आसमानी मने, कि खिल्या कमल फूल पाली मने।"
बीजापुर के आदिल सुल्तानों में इब्राहिम द्वितीय महान साहित्य (प्रेमी और दक्खिनी साहित्य) का संरक्षक था। उसने स्वयं दक्खिनी हिन्दी में गीत संग्रह ‘नवरस नामा’ की रचना की। बहुत से कवि और लेखक उसके संरक्षण में रहते थे। इस प्रकार दक्खिनी हिन्दी, जिसे हिन्दवी आदि नामों से भी जाना जाता है, के विकास में आदिलशाही सुल्तानों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके शासन काल में खूब दक्खिनी साहित्य की रचना हुई। प्रशासन तथा राजकीय कार्यों में इसका प्रयोग हुआ। इन सब बातों के कारण दक्खिनी हिन्दी ऐसी ऊंचाइयों तक पहुंची, जिसकी तुलना अन्यत्र असंभव है।
Question : मध्यकाल में ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक भाषा के रूप में विकास पर प्रकाश डालिए।
(2003)
Answer : हिन्दी परिवार के जिस भाषा को ब्रजभाषा के नाम से जाना जाता है, वह उत्तर प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, एटा, मैनपुरी, बदायूं तथा बरेली आदि जिलों तथा हरियाणा, राजस्थान एवं ग्वालियर के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है। इस भाषा का ‘ब्रजभाषा’ नामकरण 18वीं शताब्दी में हुआ। ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से ‘ब्रजभाषा’ का संबंध ‘शौरसेनी’ अपभ्रंश से माना जाता है। साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रज के विकास को तीन कालों में बांटा जाता है- प्रारंभिक काल (आरंभ से 1525 तक), मध्यकाल (1525 से 1800 तक) तथा आधुनिक काल (1800 से अब तक)। प्रारंभिक काल के समाप्त होते-होते ब्रजभाषा, काव्यभाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी। लेकिन इसका शुद्ध साहित्यिक निखार 16वीं शताब्दी या मध्यकाल में ही प्राप्त हुई। ब्रज प्रदेश में गौड़ीय वैष्णव एवं पुष्टिमार्ग के केन्द्र स्थापित होते ही ब्रजभाषा आदर्श साहित्यिक भाषा बन गई।
सूरदास ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने सीधी सपाट भाषा को लालित्य से भर कर काव्यभाषा के रूप में इसे चर्मोत्कर्ष पर पहुंचाया। उनके पूर्व ब्रजभाषा को किसी महान काव्य प्रतिभा का आश्रय नहीं मिला। कहा जाता है कि इन्होंने ब्रजभाषा में सवा लाख पदों की रचना की, परन्तु उनके उपलब्ध पदों की संख्या पांच हजार के लगभग है। काव्योत्कर्ष की दृष्टि से इन पदों का महत्व निर्विवाद है। विनय के पद, वात्सल्य के पद, श्रृंगार के पद एवं इतिवृत्तात्मक शैली में पद लिखकर उन्होंने ब्रजभाषा की बहुमुखी क्षमता का इजहार किया था।
सूर ने काव्यभाषा के समस्त शैलीय उपकरणों का प्रयोग करके ब्रजभाषा को अदभूत सर्जनात्मक क्षमता से लैस कर दिया है। इनकी भाषा की एक महत्वपूर्ण विशेषता वाग्विदग्धता है। कथन की विदग्धता और वचन वक्रता का अद्भुत संयोग सूर के पदों में विद्यमान है। यह विशेषता भ्रमरगीत में प्रचुर मात्र में उपलब्ध है। उदाहरण के रूप में ‘बरू वै कुब्जा भलो कियो’ तथा ‘मोहन मांग्यों अपनो रूप’ शीर्षक पद को देखा जा सकता है। इस प्रकार सूरदास ने ब्रजभाषा को काव्यभाषा के ऐसे सर्जनात्मक स्तर पर पहुंचा दिया जो परवर्ती कवियों की भाषिक सफलता को नापने का मापदंड बन गया।
सूर के बाद अष्टछाप के अन्य कवियों में कुम्भनदास एवं नन्ददास ने ब्रजभाषा को अर्थ-गम्भीर्य एवं वाग्वैदग्ध्य के उपयुक्त बनाया, लेकिन काव्यभाषा के माधुर्य की दृष्टि से अष्टछाप के कवियों में नन्ददास अद्वितीय हैं। श्रृंगार रस की व्यंजना के लिए भावानुरूप शब्द योजना इन्होंने की है। इसके साथ ही ध्वनिमूलक शैलीय उपकरणों का योग उनकी भाषा को और भी प्रभावी बना देता हैः
‘‘नूपुर कंकन लिंकिनि करतल मंजुल मुरली,
ताल मृदंग उपंग चंग एकहि सुर जुरली।’’
अष्टछाप के कवियों, विशेषकर सूरदास, परमानन्ददास और नन्ददास ने काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का जो ढांचा निर्मित किया वह बाद के कवियों का भी आदर्श बना रहा और जो कवि ब्रजभाषा क्षेत्र से बाहर के थे, उन्होंने भी अष्टछाप के कवियों की भाषा को आदर्श मानकर अपनी भाषा की स्वाभाविकता को बनाए रखने का प्रयत्न किया। पर जैसे-जैसे ब्रजभाषा का प्रयोग क्षेत्र व्यापक बनता गया, उनमें अन्य भाषाओं की मिलावट भी अधिक होती गई। विभिन्न भाषा क्षेत्र की कवियों ने अपनी सुविधा या प्रवृत्ति वश अपनी भाषा के शब्दों, क्रियारूपों, प्रत्ययों और कारकों का मिश्रण ब्रजभाषा में किया। इधर फारसी के राजभाषा होने के कारण उसके अनेक शब्द भी ब्रजभाषा में शामिल हो गए। इतना होने के बावजूद आधार भाषा इन्हीं अष्टछाप कवियों की भाषा रही। अष्टछाप के बाहर के कवियों में मीरा और रसखान का विशेष महत्व है। मीरा की रचना में जिस भाषा प्रयोग हुआ है, वह दो रूपों-राजस्थानी मिश्रित ब्रज तथा विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में मिलती है। इधर रामभक्त कवियों में तुलसीदास, नाभादास, हृदयराम, रामचरणदास आदि ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की, किन्तु ब्रजभाषा के साहित्यिक उत्कर्ष की दृष्टि से तुलसी का महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, कृष्णागीतावली आदि रचनाओं में ब्रजभाषा का साहित्यिक सौंदर्य सूर से स्पर्द्धा करता हुआ दिखाई पड़ता है।
रीतिकाल का सारा काव्य ब्रजभाषा में लिखा गया, लेकिन इस काल के अधिकतर कवि ब्रजक्षेत्र से बाहर के थे। भिखारीदास ब्रजभाषा के इस क्षेत्र विस्तार के संबंध में कहते हैं- ‘‘ब्रजभाषा हेत ब्रजवास ही न अनुमानौ।’’ इसका परिणाम यह हुआ कि ब्रजप्रदेश के बाहर के कवियों ने सहज और मुक्त भाव से अपनी भाषाओं का मिश्रण किया। चूंकि रीति ग्रंथों का अधिकतर विकास अवध में हुआ। अतः ब्रजभाषा में अवधी का और भी अधिक मिश्रण हुआ। भिखारी दास भाषा के इस मिश्रण के संबंध में कहते हैं-
‘‘तुलसी गंग दुर्वो भए, सुकविन के सरदार, इनके काव्यन में मिली, भाषा विविध प्रकार।’’ इस प्रकार मध्यकालीन कवियों ने ब्रजभाषा में काव्य रचना कर सरस और स्वाभाविक बनाया। तथा काव्यभाषा की विविध भंगिमाओं और विशिष्टताओं से मंडित कर ब्रजभाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में उत्कर्ष पर पहुंचा दिया।
अवधी अवध क्षेत्र की बोली है। यह पुराने अवध प्रांत के हरदोई, खीरी आदि को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों में बोली जाती है। अवधी की उत्पति किस साहित्यिक अपभ्रंश से हुई इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि 14वीं शती तक की अवधी का स्वरूप बहुत स्पष्ट नहीं है। हालांकि वह भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए जद्दोजहद कर रही थी। 14वीं शताब्दी से अवधी का पृथक भाषा रूप मिलने लगता है। अवधी की प्रथम रचना चंदायन (मुल्ला दाऊद) को माना जाता है। इसके बाद इसका विकसित रूप लालचदास के ‘हरिचरित्र’ (1500ई. के बाद), ईश्वर दास की सत्यवती कथा (1501ई.) तथा ‘स्वर्गारोहनी कुतुबन’ की मृगावती (1503ई.) और जायसी के पद्मावत, अखरावत आदि ग्रंथों में देखने को मिलती है। इन कवियों की भाषा बोलचाल की भाषा अवधी है, जिसमें तद्भव शब्द अधिक मिलते हैं। इसमें प्रसंगवश अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। इनकी काव्यभाषा का सौन्दर्य केवल उनकी सहजता और लोक संपृक्ति तक सीमित नहीं है, वह उन सभी शैलीय उपकरणों से युक्त है, जो किसी भाषा को सर्जनात्मक बनाते हैं। इस प्रकार इन कवियों ने अवधी भाषा को सर्जनात्मक क्षमता से युक्त कर काव्य सृजन के लिए सक्षम बनाने में सफलता प्राप्त की।
अभी तक अवधी को काव्य रचना का माध्यम बनाने वाले अधिकांशतया वैसे मुसलमान कवि थे, जिन्होंने कदाचित् अपभ्रंश और फारसी काव्य परंपरा का ज्ञान तो था, पर संस्कृत काव्य परंपरा से अनभिज्ञ थे। लेकिन इसी समय तुलसी दास के रूप में अवधी को एक ऐसे कवि मिले, जिन्होंने ‘नानापुराणनिगमागम’ और ‘क्वाचिदन्यतो{पि’ का अध्ययन किया था तथा दाऊद और जायसी से अधिक प्रतिभाशाली थे। गोस्वामीजी ने सूफियों की काव्यभाषा अवधी को ज्यों का त्यों नहीं ग्रहण किया। उन्होंने अवधी भाषा को सर्वथा नए ढंग से मधुर, सुसंस्कृत और परिष्कृत रूप दिया। उनकी भाषा में प्राकृत एवं अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग बहुत कम मिलता है। ऐसे शब्द खासकर वहां आते हैं, जहां वीर, रौद्र एवं भयानक रस्सों की सृष्टि होती है।
‘‘जबुल निकट कटक्कर कहहिं
जाहिं हुवाहिं अधाहिं दपहहिं।’’
तुलसी ने अरबी, फारसी एवं तुर्की तथा हिन्दी क्षेत्र की बोलियों राजस्थानी, ब्रजभाषा एवं भोजपुरी आदि से भी शब्द लिए हैं। किन्तु प्रमुखता उस भाषा की है, जिसमें संस्कृत की कोमलकान्त पदावली अवधी को समृद्ध बनाती है। हालांकि गोस्वामी जी तत्सम् शब्दों को बिल्कुल ही तत्सम् रूप में नहीं रहने देते और उसे अवधीकरण करके ही प्रयोग करते हैं, उदाहरण के लिएः
‘‘मानस सलिल सुधा प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली।
नव रसाल बन बिहरनसीला सोह कि कोकिल बिपिन करीला।’’
यहां गोस्वामीजी ने वन, विहरणशील’ विपिन जैसे तत्सम् शब्दों को बन, बिहरनसील और बिपिन में बदलकर अवधीकरण कर दिया है। गोस्वामी जी की भाषा की अन्य विशेषताओं में भाषा की सफाई और वाक्य रचना की निर्दोषिता है। वाक्यों में कहीं भी शैथिल्य नहीं है और भाषा नितान्त गठी और सुव्यवस्थित है। इस प्रकार गोस्वामी जी की अवधी भाषा सर्जनात्मक दृष्टि से बहुत समृद्ध और परिपूर्ण है। उन्होंने अपने पूर्व प्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों को अवधी में ढाल दिया है। अपभ्रंश की काड़वक शैली और जायसी आदि सूफी कवियों की चौपाई.दोहे वाली पद्धति को उन्होंने बिल्कुल नया रूप दे दिया है।
एक तरफ जायसी ने तथा दूसरी तरफ गोस्वामी तुलसीदास ने साहित्य की भाषा के रूप में अवधी को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। इधर सूफी काव्यधारा जायसी के बाद भी प्रवाहित होती रही। जायसी के बाद के सूफी कवियों में उस्मान ने चित्रवली (1613 ई.) शेख नबी ने ज्ञानदीप, न्यामत खां ने कनकावती, कामलता, रतनावती आदि की, कासिम शाह ने हंस जवाहिर की रचना की । इन सूफी कवियों की भाषा पर जायसी की भाषा का ही असर है, पर इनकी भाषा जायसी की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ एवं परिमर्जित कही जाएगी। 1700 ई. के बाद भी प्रेमाख्यान काव्य अवधी में लिखे जाते रहे तथा यह क्रम 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक चलता रहा। लेकिन इसी समय खड़ी बोली में काव्य रचना का जोर पकड़ा और अवध क्षेत्र के कवियों ने भी अवधी का मोह त्याग कर खड़ी बोली में काव्य रचना करने लगे।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जायसी आदि महान सूफी कवियों तथा गोस्वामी जी जैसे प्रतिभा के धनी कवि ने मध्यकाल में अवधी को काव्यात्मक उत्कर्ष के ऐसे बिन्दु पर पहुंचा दिया है, जो संसार की किसी भाषा के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है।
Question : अमीर खुसरो की हिन्दी
(2003)
Answer : हिन्दी भाषा के विकास के आरंभिक युग में ही प्रतिभा के धनी अमीर खुसरो का उद्भव हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व हिन्दी भाषा एवं साहित्य की विकास-यात्र में अमीर खुसरो की हिन्दी रचनाएं एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु हैं। उनकी ये हिन्दी रचनाएं काफी लोकप्रिय रही हैं। उनकी पहेलियां मुकटियां, दो सखुने अभी तक लोगों की जबान पर हैं। उनके नाम से निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है, जिसके संबंध में कहा जाता है कि यह दोहा खुसरो ने ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के देहांत पर कहा था-
‘‘गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, रैनि भई चहुं देस।’’
खुसरो हिन्दी में रचना तो करते ही हैं, वे हिन्दी बोलने पर गर्व भी करते हैं-
‘चूं मन तूती-ए-हिंदम अर रास्त पुर्सी।
जिमन हिंदुवी पुर्स ता नग्ज गोयम।’
यदि आप मुझसे सच पूछे तो मैं हिन्द का तोता हूं। आप मुझसे मीठे बातें सुनना चाहते हैं तो हिन्दी में पूछिये।
खुसरो का कार्यक्षेत्र खड़ी बोली की उत्स भूमि और राजनैतिक दृष्टि से समूचे भारत की केन्द्रीय स्थली दिल्ली होने के कारण, उनका देश के बहुसंख्यक जन-समुदाय से बाहरी संपर्क स्वाभाविक था। यह तथ्य सर्वविदित है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम मध्यदेश की जनपदीय लोक-भाषा को हिन्दी, हिन्दुई या हिन्दवी नामकरण किया तथा भारत के विभिन्न महानगरों, व्यापार केन्द्रों और तीर्थस्थलों के साथ-साथ सुदूर ग्राम्यांचलों में बोली और समझी जाने वाली कौरवी को साहित्यिक पहचान दिया। उनसे पहले के अधिकांश रचनाकार मूलतः अपभ्रंश, अवहट्ठ, भाखा में भावाभिव्यक्ति कर रहे थे, खड़ी बोली तो यदा-कदा प्रसंगवश उनकी वाणी में अनायास आ गया। इसके विपरीत अमीर खुसरो ने हिन्दी के विविधोन्मुखी भाषिक स्वरूप की अलग पहचान करके, ब्रज और कौरवी (परवर्ती खड़ी बोली) में पृथ्क रचनाएं की। हालांकि उनकी हिन्दी कविता में खड़ी बोली के साथ-साथ दूसरी बोलियों के शब्द भी मिलते हैं:
‘सगरी टैन मोरे संग जागा, भोर भये बिछड़न लागा।
वाके विछड़े फाटत हिया, ए सखी साजन ना सखी दिया।।’
इस प्रकार ब्रजभाषा, अवधी, कन्नौजी, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों का रंग उनकी रचनाओं की विशेषता है। अमीर खुसरो ने अपने फारसी रचनाओं में भी हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया हैः
‘सुखनशान मार-मार सर बसर मार।
बरावी गुफ्रत है है तीर मारा।।’
दिल्ली सल्तनत में एक ऊंचे पद पर आसीन होने के बाद भी वे एक सह्दय सूफी, निपुण संगीतकार एवं जन-जीवन के परखी लोक चेता भी थे। उनकी वाणी और लेखनी ने खड़ी बोली के स्वरूप को संवारा तथा लोक-शैलियों में निहित उसकी साहित्यिक ऊर्जा को संजोकर स्थाई अस्मिता प्रदान की। इसी कारण उनकी हिन्दी रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है। उनकी भाषा हिन्दी की आधुनिक काव्य-भाषा के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित होने का संकेत देती है। खुसरो की हिन्दी रचनाएं सरस होने के कारण ही करोड़ों हिन्दी भाषियों को आज भी न केवल याद हैं, बल्कि वे उन्हें गुणगुणांकर पुलक महसूस करते हैं। यहां तक कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के पिता भारतेन्दु हरिश्चन्द ने खुसरो के टंग में अंग्रेजों को निशाना बनाते हुए अनेक मुकरियां लिखी।
‘ए सखी साजन-ना सखी अंग्रेज।’
इस प्रकार हिन्दी के विकास में खुसरो के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। फारसी के नगीने लगाकर ब्रजभाषा का रंग भरा। पहेलियां, मुकरियां, गीतों, दोहों और गजलों के परिधान से सजाया तथा हिन्दी के महत्ता को बताकर आने वाले कवियों का पथ-प्रदर्शन किया।
Question : हिन्दी भाषा के विकास में व्याकरणिक और शाब्दिक दृष्टि से अपभ्रंश और अवहट्ठ भाषाओं के योगदान पर प्रकाश डालिए।
(2002)
Answer : एक भाषा के विकास में दूसरी भाषा की भूमिका निर्धारित करने के लिए निकटता और समानता का सिद्धांत अपेक्षित है। यहां हम जानते हैं कि हिन्दी का मूल स्रोत भारत की प्राचीन आर्यभाषा संस्कृत है। हिन्दी की अधिकांश भाषिक प्रवृत्तियों-ध्वनि-व्यवस्था, पद संरचना, वाक्य-विन्यास आदि संस्कृत के ही अनुसार हैं। हिन्दी के अनंत शब्द-भंडार का अधिकांश संस्कृत से विरासत के रूप में मिली हैं। किंतु ये सारी चीजें हिन्दी को संस्कृत से सीधे-सीधे नहीं प्राप्त हुआ। यह कार्य अपभ्रंश एवं अवहट्ठ के माध्यम से ही हुआ। अतः हम अपभ्रंश एवं अवहट्ठ को प्रचीन आर्यभाषा संस्कृत एवं आधुनिक आर्यभाषा हिन्दी के बीच का सेतु मान सकते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्दी के विकास में अपभ्रंश के योगदान का आकलन किया जा सकता है-
हिन्दी के विकास में अपभ्रंश, अवहट्ठ के योगदान के संदर्भ में गौर करने योग्य पहला तथ्य यह है कि संस्कृत, पालि एवं प्राकृत जैसी आर्यभाषाएं संश्लिष्ट थीं। हालांकि प्राकृत में संश्लिष्टता की पकड़ जगह-जगह ढ़ीली पड़ने लगी थी तथा जगह-जगह विश्लिष्टता के लक्षण प्रकट होने लगे थे। यही विश्लिष्टता अपभ्रंश में पूरी तरत स्पष्ट होने लगी, जो अवहट्ठ में प्रमुख लक्षण बन गई। प्रारंभिक हिंदी में जो विश्लिष्टता के लक्षण हैं, वह अपभ्रंश और अवहट्ठ से ही प्राप्त हुए हैं।
अपभ्रंश, अवहट्ठ से लेकर हिन्दी तक अनेक कारकों में बिना विभक्ति वाले शब्दों का प्रयोग मिलता है, चाहे उनके साथ परसर्ग का प्रयोग हुआ हो या नहीं हुआ हो, यथाः
अहिर गोरू बाग मेलब (उक्ति-व्यक्ति प्रकरण)
तब शंकर प्रभु पद सिरू नावा। (मानस)
बालक जाता है। (खड़ी बोली)
परिनिष्ठ अपभ्रंश के सभी कारकों में इस ढंग के निर्विभक्तिक पद नहीं मिलते हैं। ऐसा लगता है कि यह प्रवृत्ति अवहट्ठ में अपेक्षाकृत अधिक बढ़ गई थी और आधुनिक बोलियों के प्रकाश में आने पर जब सभी कारकों के लिए नए-नए परसर्ग आ गए तो निर्विभक्ति पदों के प्रयोग की प्रवृत्ति और भी अधिक बढ़ गई।
संस्कृत की बहुत-सी कारक विभक्तियां सरलीकरण के प्रयास के कारण पालि-प्राकृत में लुप्त हो गईं या समध्वन्यात्मक हो गईं। भाषा समध्वन्यात्मकता का बहिष्कार करती हुई चलती है। फलतः समध्वन्यात्मकता को दूर कर कारकत्व को बोध कराने के लिए ही अपभ्रंश में परसर्गों का प्रयोग हुआ होगा, इसका विस्तार अवहट्ठ में हुआ तथा हिन्दी में बड़े पैमाने पर परसर्गों का प्रयोग शुरू हुआ अतः हिंदी के अधिकांश परसर्ग अपभ्रंश और अवहट्ठ से ही निकले हैं तथा अवधी, ब्रजभाषा और खड़ीबोली की तीन अवस्थाओं से गुजरकर परसर्ग ध्वनि-परिवर्तन के कारण संक्षिप्त हो गए हैं। मंह से में, सहुं से से, केरअ से का, उप्परि से ‘परि’ एवं ‘पर’ आदि ध्वनि परिवर्तन के ही परिणाम हैं। पुरानी हिन्दी के परसर्गों को अपभ्रंश एवं अवहट्ठ से तुलना करने पर न्यूनतम परिवर्तन दिखाई पड़ता है। स्पष्ट है कि हिन्दी के सारे परसर्ग अपभ्रंश एवं अवहट्ठ से विकसित हुए हैं।
हिन्दी क्रियाओं की संपूर्ण संपदा (प्राकृत से होते हुए) अपभ्रंश और अवहट्ठ से मिली हैं। अपभ्रंश एवं अवहट्ठ ने हिन्दी क्रियाओं के निर्माण में दोहरी भूमिका निभायी है-धातु-निर्माण में और रूप-रचना में। प्रारंभिक हिन्दी की अधिकांश धातुएं अपभ्रंश एवं अवहट्ठ काल में ही स्वरूप ग्रहण कर चुकी थीं, जैसेः
खा<खा, चू<ढच्युत, तोड़ै<तुट आदि।
स्पष्ट है कि प्रारंभिक हिन्दी की अधिकांश धातुएं अपभ्रंश, अवहट्ठ से विरासत में मिली है।
मोर क्षेम को करिह। (उक्ति व्यक्ति प्रकरण)
होइ दोसु नहिं मोर (मानस)
क्रियाविशेषणः- अज्जु>अजु, आज; एंवहि>अबहिं, अब; जब्बे-जब
विशेषणः-जेन्तुल>जितना, केत्तुल>कितना, णव>नौ, तिण्ण>तीन, तेरस-तेरह आदि।
शब्दकोशीय स्तर पर अपभ्रंश, अवहट्ठ की हिन्दी को अमूल्य देन सर्वज्ञात और स्वतः स्पष्ट है। अपभ्रंश का अभिप्राय है- अपने मूल (संस्कृत के व्याकरणनिष्ठ) रूप से विकृत-परिवर्तित अर्थात् ‘तद्भव’। संस्कृत के तत्सम शब्दों का अपभ्रंश में तद्भवीकरण हुआ, जिसका विकास अवहट्ठ में हुआ। इस प्रकार अपभ्रंश एव अवहट्ठ संस्कृत के तत्सम शब्दों के तद्भव रूपों का ही अक्षय कोश और विशाल भंडार है। अपभ्रंश एवं अवहट्ठ की यह तद्भव-संपदा हिन्दी को अनायास प्रदाय रूप में प्राप्त है। हिन्दी के लगभग साठ प्रतिशत शब्द अपभ्रंश अवहट्ठ से ही प्राप्त तद्भव रूप हैं। इसके अतिरिक्त हिन्दी में पंद्रह-बीस प्रतिशत देशज (आंचलिक या जनपदीय शब्दों का अधिकांश अपभ्रंश का अवदान है। सिद्ध-नाथ और जैन-ग्रंथों में प्रयुक्त अनेक देशज शब्द आज हिन्दी की अमूल्य थाती हैं। ‘गाहासत्तसई,’ और ‘वज्जालंग्ग’ जैसे मुक्तक प्राकृत-अपभ्रंश-संग्रहों के अतिरिक्त हेमचंद्र की ‘देशीनाम माला’ तथा ‘प्रकृत पैंगलम्’ में संकलित पद्यों की बहुत-सी देशज शब्दावली आज हिन्दी की अपनी संपदा है। टिरिटिल्लइ (टर्र-टर्र करना), ओबड़ी (हड़बड़ी), बप्पीहा (पपीहा), कसवट्ट (कसौटी), झुंपड़ा (झोपड़ी) आदि अनेकादिक देशज शब्द बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में अपभ्रंश के माध्यम से हिंदी में आये।
इसी संदर्भ में तनिक हिन्दी के संख्यावाची शब्दों को देखा जाए तो उसके विकास में उपभ्रंश के योगदान स्पष्ट हो जाता है।
इस प्रकार अपभ्रंश एवं अवहट्ठ की व्याकरणिक व्यवस्था का ही हिन्दी में विकास हुआ तथा शाब्दिक स्तर पर भी अपभ्रंश एवं अवहट्ठ ने हिन्दी को काफी कुछ दिया है।
Question : आदिकालीन हिन्दी भाषा का स्वरूप
(2001)
Answer : आदिकालीन हिन्दी भाषा के तेरह रूप मिलते हैं, जो प्रारंभिक या पुरानी हिन्दी के आधार हैं। वैसे 8वीं व 9वीं शताब्दी के सिद्धों की भाषा में हमें उपभ्रंश से निकलती हुई हिन्दी के आदि रूप दिखाई देती है। आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में सिद्धों की वाणियों से हिन्दी की शुरूआत माना है। ये बौद्ध सिद्धाचार्यों ने अधिकांशतः सहज-सुबोध दोहों तथा गेयात्मक चर्यापदों के माध्यम से जन-सामान्य को साधना-मार्ग का संदेश दिया। इनके दोहों और पदों की भाषा समकालीन प्राकृत एवं अपभ्रंश की भाषिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करती है, लेकिन अनेक समकालीन लोक-बोलियों के भी अनेक तत्त्व अपने भीतर संजोये हुए हैं, जिनमें अवधी, ब्रज, राजस्थानी के अतिरिक्त मध्यदेशीय कुरु-जनपद-क्षेत्र में प्रचलित कौरवी भी एक है। सरहपा और कन्हपा के कुछ दोहों में हिन्दी के स्वरूप को देखा जा सकता हैः
"जिम बाहिर तिम अब्भन्तरू।
चउदह भुवणे ठिअउ निरन्तरू।।" - सरहपा (8वीं शताब्दी)
"चितै थिर करू धरूं रे नाई,
अन्य उपाये पार न जाई।" - कन्हपा (9वीं शताब्दी)
11वीं-12वीं शताब्दी से लेकर 16वीं-17वीं शताब्दी तक जैन कवियों द्वारा रचे गए साहित्य में हिन्दी के विभिन्न जनपदीय बोलियों के अनुप्रयोग का प्रचुर परिमाण है, जिनमें आदिकालीन हिन्दी के स्वरूप को देखा जा सकता है-
"जिहि दिसि दिसि तिमिरइ मिलियाई।
तिहि दिसि दिसि जारइ मिलियाइ।।" - पुष्यदंत
मेरूतुंग की निम्नलिखित पंक्तियों में हिन्दी का स्वरूप कुछ और स्पष्ट हैः
"झोली तुट्ठवि कि न मुअ, कि हुअ न छार हु पुंजु।"
बौद्ध सिद्धाचार्यों की भांति नाथ-सिद्ध भी यायावर रहे, अतः इनकी ‘बानियों’ की भाषा में विभिन्न जन-बोलियों का सहज सामंजस्य दिखायी देता है। उसमें आदि हिन्दी कायी देतास भी स्पष्ट हैः
"बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती, अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर महिं बालक बोलै, नावं धरहुगे कैसा।।" - गोरखनाथ
पउमचरिउ के महाकवि स्वयंभू ने अपनी भाषा को देशी भाषा कहा है। उसमें भी उदीयमान हिन्दी के छिटपुट प्रयोग मिल सकते हैं: जैसे-
"राम कथा सरि एह सोहंती।"
विद्यापति की दो पुस्तकें अवहट्ठ में हैं। वर्णरत्नाकर के संपादक भी मिथिला के रहने वाले थे। दोनों की भाषा मूलतः पूर्वी अवहट्ठ है, किन्तु पूर्वी हिन्दी के बीज उसमें मिल जाते हैं, जैसे-
"तोहर बदन सम चांद हो अथि नाहिं, कैयो जतन बिह केला।
कै बेरि काटि बनालय नव के तैयो तुलित नहीं भेला।।" - विद्यापति
शुद्ध खड़ी बोली (हिन्दीवी की) के नमूने अमीर खुसरो की शायरी में प्राप्त होते हैं। खुसरों की भाषा का देशीपन देखा जा सकता हैः
"खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरे मन पीउ को, दोउ भये इक रंग।।"
अवधी के प्रथम कवि मुल्ला दाऊद की भाषा को आरंभिक हिन्दी नहीं कहा जा सकता, उनका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण माना गया। उनसे पहले अन्य बोलियों की साफ-सुथरी रचनाएं उपलब्ध हैं।
भक्तिकाल के कबीर आदि की रचनाओं में भी हिन्दी के आदिकालीन स्वरूप को देखा जा सकता है।
Question : दक्खिनी हिन्दीः क्षेत्र और भाषा स्वरूप
(2001)
Answer : दक्षिण में प्रयुक्त होने वाले हिन्दी को दक्खिनी नाम से अभिहित किया गया है। इसका मूल आधार दिल्ली के आस-पास की 14वीं-15वीं सदी की खड़ी बोली है। मुसलमानों (फौज, फकीर, दरवेश) के साथ हिन्दी भाषा दक्षिण में पहुंची तथा उत्तर भारत से जाने वाले मुसलमानों और हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त होने लगी। इसमें कुछ तत्व पंजाबी, हरियाणवी, ब्रज तथा अवधी के भी हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों से भी लोग दक्षिण में गए, जिनके माध्यम से यह भाषा काफी कुछ मिश्रित हो गई। इसका क्षेत्र मुख्यतः बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर तथा गौनतः बरार, बंबई तथा मध्यप्रदेश है। इस पर बाद में उर्दू का भी प्रभाव पड़ा साथ ही तमिल, तेलगू तथा कन्नड़ का भी प्रभाव पड़ा, मुख्यतः शब्द समूह के क्षेत्र में। प्राचीन काल से ही इसमें काफी साहित्य रचना हुई। इसकी मुख्य उपबोलियां- गुलबर्गी बीदरी, बीजापुरी तथा हैदराबादी है।
दक्षिण के बीजापुर, गोलकुंडा आदि के राजकीय प्रशासन में किन्हीं राजनैतिक कारणों से प्रायः ब्राह्मणों को ही हिसाब-किताब रखने का दायित्व जिनकी भाषा हिन्दी थी, हालांकि उसका लिखित रूप फारसी लिपि में आबद्ध था। इस प्रकार ‘दक्खिनी’ वास्तव में हिन्दी-फारसी मिश्रण से युक्त एक ऐसी भाषा के रूप में विकसित हुई, जिसका भाषिक और व्याकरणिक स्वरूप कौरवी-हरियाणवी का था एवं बाह्य कलेवर (लिपिक आवरण) फारसी का। नीचे दिए गए एक-दो उदाहरणों में दक्खिनी हिन्दी के भाषा स्वरूप को देखा जा सकता हैः
"मैं आशिक उस पीव का जिसने मुझे जीव दिया है,
जो पीव मेरे जीव का जो कुर्का लिया है।" - ख्वाजा बन्दे नवाज (14वीं शती)
"ऐब न राखे हिन्दी बोल, माने तू चल देख टटोल।
क्यों न लेवे इसे कोय, सुहावना चितवर जो होय।।" - शाह बुरहानुद्दीन जानम (15वीं शती)
"जिस इश्क का तीर कारी लगे,
उसे जिंदगी क्यों न भारी लगे।" - वली (17वीं-18वीं शताब्दी)
उपर दिए गए उदाहरणों को देखने के बाद दक्खिनी हिन्दी के भाषिक स्वरूप के संबंध में कुछ बातें कही जा सकती हैं:
Question : अवहट्ठ की विशेषताएं
(2000)
Answer : मध्यकालीन आर्यभाषा के विकास-क्रम में पालि प्राकृत और अपभ्रंश के बाद की कुछ अनगढ़ ग्राम्य अथवा औचलिक रूप वाली भाषा को विद्वानों ने अवहट्ठ की संज्ञा दी है। अवहट्ठ का काल 14वीं शताब्दी तक माना जाता है क्योंकि संदेश रासक, ‘कीर्तिलता’ एवं ‘वर्णरत्नाकर’ की रचना काल 14वीं शताब्दी के आस-पास ही है। चूंकि अवहट्ठ हर रूप में अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी है। अतः इसमें अपभ्रंश की प्रायः सभी भाषिक विशेषताएं, यथा-डकार बहुलता, अयोगात्मकता, अनुस्वार-प्रधानता सरलीकरण, देशी शब्दों की प्रचुरता आदि थोड़े बहुत अंतर के साथ यथावत् विद्यमान हैं। फिर भी इसकी कुछ अपनी विशेषताएं भी हैं जो इन्हें अपभ्रंश से अलग करता है, जिसे निम्नलिखित बिंदुओं के तहत रेखांकित किया जा सकता हैः
अवहट्ठ काल में परसर्गों का प्रयोग बहुलता, सहायक क्रियाओं एवं संयुक्त पूर्वकालिक क्रियाओं के प्रचलन से यह स्पष्ट है कि हिन्दी की वियोगात्मकता के बीज अवहट्ठ काल में ही अंकुरित हो गए थे। हिन्दी के अधिकांश परसर्गों के मूल आधार अवहट्ठ में ही है तथा ये परसर्ग अवधी, ब्रजभाषा और खड़बोली की तीन अवस्थाओं से गुजरने के कारण घिसकर परिमार्जित हो गया। सहुं से ‘से’ कहूं से ‘को’ महं से ‘में’ आदि। क्रमशः परिमार्जन के प्रमाण हैं। दो लिंग और दो वचन की व्यवस्था का पूर्ण विकास भी अवहट्ठ में हुआ।
Question : ब्रजभाषा और अवधी में अंतर
(2000)
Answer : आर्य भाषाओं के विकास-क्रम में अवधी और ब्रज दोनों का उदय लगभग एक-साथ (चौदहवीं शताब्दी) में हुआ। उद्भव- स्रोत और आरंभिक भाषिक स्वरूप की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त समानता है। इन समानता के होते हुए दोनों भाषाएं मूलतः और प्रकृत्या पर्याप्त भिन्न हैं। दोनों के बीच भिन्नता को रेखांकित किया जा सकता हैः
Question : मध्यकाल में काव्यभाषा के रूप में अवधी की शक्ति और सीमा का विवेचन कीजिए।
(2000)
Answer : अवधी अवध क्षेत्र की बोली है। यह पुराने अवध प्रांत के हरदोई, खीरी आदि को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों में बोली जाती है। भाषा के अर्थ में अवधी का प्रथम स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की ‘खालिक बारी’ में मिलता है। उन्होंने अपने समय की भाषाओं का उल्लेख करते हुए अवधी को शामिल किया है। परन्तु निश्चय ही अवधी का अस्तित्व खुसरो से बहुत पहले रहा होगा, भले उसे यह नाम न मिला हो। डॉ. भोलानाथ तिवारी अवधी का प्राचीनतम रूप सहगौरा, दम्मिनदेड़ एवं खैरागढ़ के अभिलेखों में ढूंढ़ निकालते हैं। ये अभिलेख पहली शताब्दी के आस-पास के हैं। संभव है कि साहित्यिक प्राकृत के जमाने में अवधी के लक्षण जहां-तहां फूटने लगे हों, लेकिन इसने पृथक् अस्तित्व का भान अवहट्ठ काल की रचनाओं में ही होता है। राउलबेला (रोडा कृत), उक्ति-व्यक्ति प्रकरण एवं प्राकृत मैंगलम में यत्र-तत्र अवधी का स्वरूप अस्पष्ट दिखाई देता है। वैसे अवधी की पहली कृति मुल्ला दाऊद कृत ‘चन्दायन’ या ‘लोर कहा’ (14वीं शती) माना जाता है। काव्यभाषा के रूप में अवधी को प्रतिष्ठित करने वाले प्रथम कवि मौलाना दाऊद को ही माना जाता है। किसी भाषा को काव्यभाषा के रूप में परिणत करने का अर्थ है, उसकी सर्जनात्मक क्षमता को बढ़ाना और मुल्ला दाऊद ने यह कार्य बहुत ही कुशलतापूर्वक किया है। उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती और समकालीन अपभ्रंश काव्य परंपरा एवं फारसी काव्य परंपरा के मिश्रण से अपनी काव्य शैली का निर्माण किया। चंदायन में मुल्ला दाऊद ने श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का मनोरम रूप प्रस्तुत किया है। कवि ने किस प्रकार नायिका के सौंदर्य वर्णन में किस प्रकार नये-नये और लोक जीवन से ही उपमानों की योजना किया है, निम्न उदाहरण में देखा जा सकता हैः
"मांग चीन सर सेंदुर पूरा। रेंग चला जानु कान केजूरा।।
लांब केस मुर बांध धराये। जानु सेंदुरी नाग सुहाये।।"
मुल्ला दाऊद बोलचाल की सामान्य अवधी को सर्जनात्मक क्षमता से पूर्ण कर काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। बाद में इन्हीं की परंपरा को कुतुबन, मंझन, जायसी उसमान ने आगे बढ़ाया।
मध्यकाल में अवधी के तीन रूप निखरकर समाने आएः (1) सूफियों की ठेठ अवधी (2) हिन्दू कवियों के प्रेमाख्यानक काव्यों की पश्चिमी परंपरा से संयुक्त अवधी और (3) राम भक्त कवियों की साहित्यिक अवधी।
सूफी कवि मुसलमान थे। उनकी भाषा में अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक है, परंतु उनका साहित्यिक वातावरण भारतीय रहा है। साधारणतः उन्होंने जनसाधारण की बोली को अपनाया और उसे सजीव तथा प्रभाव पूर्ण रूप दिया। उन्हें शब्द शक्तियों का अच्छा ज्ञान था। भाषा के कलापक्ष का भी उन्होंने पूरा-पूरा ध्यान रखा। उनमें शब्द-चमत्कार की जगह अर्थ-चमत्कार अधिक है। अवधी का प्रयोग वर्णनों के लिए बहुत उपयुक्त सिद्ध हुआ। वन, तड़ाग, नदी-नाले, पशु-पक्षी आदि के वर्णन बहुत सुन्दर बन पाये हैं। नायिकाओं के सौंन्दर्य का वर्णन उच्च कोटि का है तथा विरह वर्णन में भी सफलता मिली है।
चंदायन के 124 वर्ष बाद कुतुबन ने मृगावती की रचना की। भाषा, कथ्य और काव्यरूप की दृष्टि से मृगावती चंदायन की परंपरा का है। चंदायन के बाद मंझन ने मधुमालती की रचना की। भाविक दृष्टि से इसका अपना महत्व है, तद्भव शब्दों की परंपरा का अनुसरण जो बाद के सूफी कवियों ने किया है। उसकी नींव इन्होंने ही रखी। अवधी को काव्यभाषा के रूप में समृद्ध और संपन्न बनाने की सबसे अधिक श्रेय जायसी को है। उनके छः-सात ग्रंथ अभी तक प्राप्त हुए हैं, लेकिन इनका पद्मावत सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रौढ़ ग्रंथ है। भाषा की दृष्टि से पद्मावत चंदायन की पद्धति पर ही चला है अर्थात् इसमें भी ठेठ अवधी का प्रयोग किया जाता है। ठेठ अवधी के बीच-बीच में नये-पुराने, पूर्वी-पश्चिमी कई प्रकार के रूपों के प्रयोग के कारण भाषा कुछ अव्यवस्थित सी लगती है। इसके अलावा छंदों के आग्रहवश विभक्तियों, संबंधवाचक सर्वनामों व अव्ययों का लोप प्रायः किया है, जिसके चलते अर्थबोध में कठिनाई होती है, पर इस कठिनाई को पार कर लेने पर, जिस अर्थ सौंदर्य का साक्षात्कार होता है, वह मुग्ध करने वाला है। कुल मिलाकर जायसी की भाषा में बोलचाल की मधुरता है, जिसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है, एक उदाहरणः
"नागमती चितउर पंथ हेरा।
पिउ जो गए फिरि कीन्ह न फेरा।।
नागरि नारि काहुं बस परा।
तेहं बिमोही मोसौं चितु हरा।।"
जायसी के बाद उसमान ने चित्रवली की तथा नूर मुहम्मद ने इन्द्रावती और अनुराग बांसुरी की रचना की। नूर मुहम्मद की रचना भाव-व्यंजना की दृष्टि से उच्च कोटि की है। भाषा ठेठ अवधी है जिसमें संस्कृत और ब्रजभाषा के शब्द खूब मिलते हैं। सूफी काव्य परंपरा इसके बाद भी चलती रही, परंतु भाषा की दृष्टि से जायसी के बाद कोई विशेष विकास की दिशा स्पष्ट नहीं हो पायी। वस्तु- वर्णन भी प्रायः अरुचिकर और शुष्क है, फिर भी जहां आत्मा और परमात्मा के विरह और मिलन का वर्णन किया गया है, वहां प्रकृति- चित्रण और भावों की अभिव्यंजना सजीव बन गयी है। यहीं पर काव्यभाषा उच्च कोटि का हो जाता है। रति, शोक, वियोग, रोमांस, युद्ध, उत्साह का वर्णन सुंदर और मार्मिक भाषा में किया गया है। इस प्रकार जनभाषा अवधी का जैसा सुंदर रूप सूफी काव्य में प्राप्त होता है, वैसा पहले न था। सूफी कवि ने अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियों का प्रचुर उपयोग किया है।
हिन्दू प्रेमाख्यानकारों में वुटकर, नरपति व्यास, गोवर्धनदास, दुखहरन आदि की काव्यभाषा अपभ्रंश और ब्रजभाषा से संयुक्त अवधी है। जिसमें संस्कृत का बढ़ता हुआ प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। दुखहरन की इन दो चौपाइयों में भाषा का रूप देखा जा सकता हैः
"रोवन नैन रकत कै धारा। टेसु फूलि बन भर रतनारा।।
जौ सिंगार कोइ बरबस करई। अनिल समान होइ सो जरई।।"
हिन्दू प्रेमाख्यानकार कवियों ने कई बोलियों का प्रयोग किया है और उनका मिश्रित रूप भी भाषा की इस विविधता के कारण इन आख्यान काव्यों की भाषा का महत्व अधिक नहीं है, क्योंकि इनकी कोई परंपरा नहीं बन पाई।
रामभक्त कवियों के काव्य की भाषा प्रधानतः अवधी है, परंतु इसका स्वरूप सूफी काव्य की ठेठ अवधी से भिन्न है। इसे शिष्ट वर्ग की परिष्कृत और परिमार्जित साहित्यिक भाषा कह सकते हैं। इस धारा के सारे कवि हिन्दू हैं, जो मध्य युग में संस्कृत की ओर झुकते रहे हैं। रामकाव्य में तद्भव शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ है, परन्तु वह प्रधानतः तत्समोन्मुखी है। रामचरितमानस का कोई प्रसंग देखा जा सकता है, जिसमें तत्सम शब्दों की प्रचुरता ही मिलती हैः
जगकारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन-पति लीन्ह मनुज अवतार।।
कोसलेस दसरथ के जाये। हम पितु-वचन मानि बन आये।।
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई।।
इन पंक्तियों में धरणी भार, अखिल, भुवन-पति मनुज, अवतार आदि- इतने सारे तत्सम शब्द हैं। कुछ शब्दों को कृत्रिम ढंग से तद्भव का रूप दिया गया है, जैसे- कारन (कारण) कोसलेस (कोसलेश), दसरथ (दशरथ) आदि।
भाषा के प्रयोग में तुलसी समन्वयवादी हैं। उन्होंने भोजपुरी, खड़ी बोली, राजस्थानी और यहां तक कि अरबी-फारसी प्रयोगों को भी उचित स्थान दिया है। उन्होंने विदेशी शब्दों को हिन्दी का रूप देकर ही काव्य में प्रयोग किया है, जैसे- गुमान, रहम, सरकार, साहेब आदि। अनेक भाषाओं एवं बोलियों से किया गया उनका शब्द चयन निश्चय ही अधिकारपूर्ण है। वे नाना भाषाओं के पंडित थे तथा इसी विशेषता के कारण उन्होंने अंतर्जगत् और बाह्य जगत् की दशाओं का चित्रण बड़ी सफलता से किया है। उनकी भाषा भावानुकूल और रसानुकूल बन पाई है। उनकी काव्यभाषा में न तो भी वीरगाथा काव्य की कर्कशता है और न ही संत काव्य का अटपटापना। तुलसी की शैली अलंकृत न होकर स्वाभाविक, सरस और सरल है, इसलिए आज तक वह भारत भर के लोगों के कंठों में गूंजती है तुलसी के काव्य में अलंकारों की आवश्यकता ही नहीं है और जहां कहीं अलंकारों का प्रयोग हुआ है, कुशलतापूर्वक हुआ है। तुलसी अनुप्रास की जगह उपमा और रूपक से अधिक काम लेते हैं। अवधी की प्रकृति के अनुरूप उन्होंने दोहा और चौपाई का प्रयोग मुख्य रूप से किया है। कथात्मक काव्यभाषा में इन दोनों छंदों का व्यवहार अवधी साहित्य में विशेष सफल रहा है।
व्याकरणिक रूप में तुलसी की भाषा प्राचीनता से पूर्णतया नहीं सकी, भले ही सूफियों के बहुत से प्रयोग अब समाप्त होते दिखायी देते हैं। क्रिया के रूप सरल हो गए हैं। आटै-बाटै का प्रयोग ही क्षीण हो गया है। सहायक क्रिया में अछ्धातु नहीं रही।
इस प्रकार गोस्वामी जी की भाषा सर्जनात्मक दृष्टि से बहुत समृद्ध और परिपूर्ण है तथा वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में ठहरते हैं। उन्होंने अपने पूर्वप्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों को अवधी में ढ़ाल दिया। अपभ्रंश की काड़वक शैली और जायसी आदि सूफी कवियों की चौपाई-दोहा वाली पद्धति को उन्होंने बिलकुल नया रूप दे दिया। रचना कौशल, प्रबंध पटुता, सहृदयता, कथा के मार्मिक स्थलों की योजना आदि के समाहार तथा कथा काव्य के अवयवों के उचित समीकरण से उन्होंने रामचरितमानस को संसार के सर्वश्रेष्ठ काव्यों की पंक्ति में बिठा दिया।
तुलसी की काव्यभाषा का अनुसरण प्रायः सभी परवर्ती राम कवियों ने किया है, परंतु काव्यभाषा अवधी में वह प्रांजलता या साहित्यिकता नहीं रही, जो तुलसी में पायी जाती है। बाद के राम कवियों में स्वामी अग्रदास, नाभादास, हृदयराम, मधुसूदन दास महाराज रघुराज सिंह आदि प्रमुख हैं। इनमें रघुराज सिंह ने तो राम को रीतिकालीन कवियों के कृष्ण की तरह श्रृंगार नायक बना दिया है। ऐसे ही रामचरणदास की कृतियों में राम की विलास-क्रीड़ाओं का वर्णन है। वास्तव में ये सब कवि तुलसी की सर्वोत्कृष्ट काव्य-प्रतिभा के सामने फीके पड़ गए हैं।
Question : आधुनिक काल में खड़ी बोली के विकास की एक रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
(2000)
Answer : 19वीं शताब्दी में ही हिन्दी के आधुनिक काल का आरंभ होता है। इस काल में खड़ी बोली के विकास को दो खंडों में बांटा जा सकता है- पूर्व हरिश्चन्द काल और हरिश्चन्द काल पूर्व हरिशचन्द काल में खड़ी बोली के विकास की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण घटना 1800 ई. में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना है। इस कॉलेज में साहित्य और विज्ञान दोनों की शिक्षा का आयोजन किया गया। जान गिलक्राइस्ट को हिन्दुस्तानी का प्राध्यापक नियुक्त किया गया। उन्होंने कंपनी के प्रशासकों को हिन्दी सिखाने के लिए एक व्याकरण और एक शब्दकोश का निर्माण किया। गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता में अनेक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित हुआ तथा मौलिक रचनाएं भी प्रकाश में आयीं। इस कार्य में उनके चार सहायक थे- इंशा उल्लाह खां, लल्लू लाल, सदल मिश्र और सदासुख लाल। इंशा अल्ला खां ने उदयभान चरित या रानी केतकी की कहानी लिखी। इस कहानी की भाषा ताजा और जीवंत है। किंतु कुछ जगहों पर फारसी प्रभाव के कारण चटक-मटक आ गयी है, फिर भी आरंभिक गद्य में इस कहानी का महत्वपूर्ण योगदान है। लल्लू लाल ने ‘प्रेमसागर’ तथा सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाख्यान लिखा।’ प्रेम सागर की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव है, जबकि नासिकेतोपाख्यान की भाषा पर ब्रज और भोजपुरी दोनों का रंग है। मुंशी सदासुख लाल ने ‘सुखसागर’ और ‘सुरासुर निर्णय’ की रचना की। इनकी भाषा में पंडिताऊपन तथा पूर्वी बोलियों का प्रयोग अधिक है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि फोर्ट विलियम कालेज के इन चार लेखकों ने खड़ी बोली के साहित्यिक क्षेत्र का विस्तार अवश्य किया किंतु वे भाषा का कोई व्यवहारिक मानक या प्रतिष्ठित स्वरूप उपस्थित नहीं कर सके।
भारतेन्दु पूर्व काल में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का हिन्दी में प्रकाशन आरंभ हुआ, जैसे-उदंत मार्तंड (1826 ई.), बंगदूत (1828 ई.), बनारस अखबार (1844 ई.) आदि। इन पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें भाषा का ठेठ, प्रचलित और मिश्रित रूप ही चलता रहा। अधिकतर की भाषा संस्कृत प्रधान थी, यत्र-तत्र निर्जीव भी।
19वीं शताब्दी के मध्य में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण सिंह ने खड़ी बोली के दो नयी शैलियों का विकास किया। शिवप्रसाद की भाषा में पहले से हिन्दीपन ही अधिक था, किन्तु बाद में उनकी भाषा में उर्दूपन बढ़ता गया। राजा शिवप्रसाद की भाषा का खूब विरोध हुआ तथा हिन्दी लेखकों का एक समुदाय राजा लक्ष्मण सिंह कि नेतृत्व में संस्कृत शब्दों और संस्कृत शैली के प्रयोग की ओर झुका। इसके परिणाम स्वरूप खड़ी बोली के जिस रूप का विकास हुआ, वह संस्कृत-गर्भित, साधारण बोलचाल से दूर और क्लिष्ट थी।
ईसाई धर्म प्रचारकों ने धर्म प्रचार के लिए सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया। उन्होंने जनता को शिक्षित करने के लिए स्कूल और कॉलेज खोले तथा इतिहास, भूगोल, धर्मशास्त्र राजनीति अर्थशास्त्र, साहित्य, व्याकरण, चिकित्सा विज्ञान आदि नाना विषयों की पाठ्यपुस्तकें तैयार कराके प्रकाशित कीं। ईसाई मिशनरियों का यह कार्य खड़ी बोली के विकास में काफी मदद किया।
हिन्दी जगत में भारतेन्दु का आगमन (1850-85) का उदय एक क्रांतिकारी घटना है। वे प्रगतिशील राष्ट्रीय चेतना के प्रतिनिधि थे। हिन्दी गद्य सही मायने में उन्हीं के समय नयी चाल में ढ़ली। गुणवत्ता की दृष्टि से तुलना करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, संख्या की दृष्टि से भी स्वयं भारतेन्दु की रचनाएं भारतेन्दु पूर्व की रचनाओं से अधिक हैं। उन्होंने अनूदित और मौलिक सब मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की, जिनमें- विद्यासुंदर (1868), कर्पूरमंजरी (1875), भारत जननी (1877), मुद्राराक्षस (1875), सत्य हरिश्चन्द्र (1875), भारत दुर्दशा (1880), अंधेर नगरी (1881) आदि प्रमुख हैं।
भारतेन्दु ने सितारे-हिन्द और राजा लक्ष्मण प्रसाद की भाषा शैली को नहीं अपनाया, बल्कि वे बीच के मार्ग का अनुसरण कर भाषा को पंडिताऊपन और मौलवी शैली की दुरूहता से बचाया। उन्होंने कोशिश की कि भाषा में हिन्दीपन बना रहे और शास्त्रीय भाषाओं से अनभिज्ञ पाठकों को दुर्बोध न लगे। भारतेन्दु द्वारा प्रतिष्ठापित मानदंडों का तत्कालीन बहुधा साहित्यकारों ने अपनाया। प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी आदि के नाटकों, देवकी नंदन खत्री और गोपालराम गहमरी के उपन्यासों में, किशोरी लाल गोस्वामी की कहानियों में एवं प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट के निबंधों में, ये शैलियां बराबर मिलती हैं। हालांकि भारतेन्दु की भाषा नीति को सभी लेखक कार्यान्वित नहीं कर सके, लेकिन एक हद तक भारतेन्दु द्वारा स्थापित मानदंडों से सभी प्रभावित हुए। इसी समय अंग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप अंग्रेजी शब्द मिश्रित खड़ी बोली का भी प्रयोग होने लगा था। शिक्षितों के अध्ययनार्थ, जिस भाषा का प्रयोग होने लगा था, उसमें अंग्रेजी प्रयोग की दो शैलियां हैं- एक में अंग्रेजी शब्द का प्रयोग करके उस शब्द का पर्याय हिन्दी में दे दिया गया है, जैसे- Instinct (पशुबुद्धि), Nature (प्रकृति) आदि। दूसरी शैली में हिन्दी शब्द देकर उसका पर्याय अंग्रेजी में दिया गया, जैसे- विचार (Policy), बोध (Feeling) इत्यादि।
इस प्रकार 19वीं शताब्दी में खड़ी बोली गद्य के विकास की गति मंद, किंतु क्रमिक रही। लल्लू जी लाल एवं सदल मिश्र आदि की हिन्दी एवं भारतेन्दु काल के लेखकों की हिन्दी में व्याकरण की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। किंतु 19वीं शताब्दी के शुरू एवं अंत की शैलियों में जमीन-आसमान का अंतर है। वैसे व्याकरण संबंधी बहुरूपता, लिंग-वचन-कारक प्रयोग में अस्थिरता, शब्द चयन की अनिश्चितता, वाक्य योजना में शिथिलता एवं अनुभवहीनता यह सब भारतेन्दु एवं प्रतापनारायण मिश्र जैसे लेखकों में भी मिलता है।
19वीं शताब्दी के अंत तक खड़ी बोली को काव्य में वह स्थान और सम्मान नहीं मिला, जो परंपरा से ब्रजभाषा को प्राप्त था। उस युग के लगभग सभी साहित्यकार गद्य तो खड़ी बोली में लिखते थे, परंतु पद्य ब्रजभाषा में। ब्रजभाषा के लेखकों ने कहा कि खड़ी बोली काव्य के लिए उपयुक्त नहीं है, उसमें लालित्य नहीं है। कुछ ने तो खड़ी बोली के लिए ‘पिशाची, डाकिनी’ जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग भी किया। खड़ी बोली में कविता करने वालों को उन्होंने दुर्मति, मूर्ख और हठी कहा। किसी देश के साहित्य में ऐसा नहीं है कि दो-दो भाषाएं चलती हों- गद्य की और पद्य की भाषा प्रयोग की यह द्वैैधता बीसवीं शताब्दी के आरंभ के कुछ पहले और द्विवेदी युग के अंत तक चलता रहा।
खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई. में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादकत्व का भार संभाला। किसी विवाद में न पड़कर वे खड़ी बोली के संस्कार-परिष्कार में लग गए। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग पर बल देते थे। ‘सरस्वती’ के पन्ने खड़ी बोली के गद्य एवं पद्य रचनाओं के लिए खोल दिया गया। हिन्दी साहित्य में संस्कृत या उर्दू शब्दों का क्या और कितना प्रयोग हो, विदेशी शब्दों को ग्रहण करने में क्या नीति अपनायी जाय, भाषा में संतुलन, प्रवाह, स्वाभाविकता और प्रेषणीयता कैसे बनी रहे, इन विषयों पर प्रश्न उठाए गए, उनकी प्रतिक्रिया हुई, टीका-टिप्पणी हुई, पत्र-व्यवहार हुआ, गोष्ठियां हुईं और इस प्रकार खड़ी बोली के सुचारु प्रयोग की राहें खुलती गईं। गद्य तो भारतेन्दु युग में ही खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित होने लगी। इस प्रकार युग परिवर्तन हुआ तथा सारे उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम खड़ी बोली हो गई। यह सब द्विवेदी जी के मेहनत का परिणाम था।
साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में छायावादी युग भी काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस युग में खड़ी बोली अनेक विषयों से संबंधित भावों को अभिव्यक्त करने में सामर्थ्यवान हुई। अब कोई नहीं कह सकता था कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा कम से कम पड़ती है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यंजना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, ब्रजभाषा का सा रसात्मक, लालित्य छायावादी युग की भाषा की अन्यतम विशेषता है। यह सब प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी और राजकुमार वर्मा आदि की साधना का परिणाम था। इसी समय देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था। तथा मध्यप्रदेश की भाषा होने के कारण हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका बनी। गांधीवादी और राष्ट्रवाद से प्रभावित साहित्य- काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, पत्र-पत्रिकाएं आदि की रचना खड़ी बोली हिन्दी में की जाने लगी। इससे राष्ट्रीय भावना का प्रचार-प्रसार तो हुआ ही हिन्दी भाषा में भी निखार आया।
इस प्रकार हिन्दी विभिन्न उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए आजादी के बाद राजभाषा के पद पर भी आसीन हो गयी। भारतीय संविधान में उसे राजभाषा को दर्जा दिया गया। यहां यह गौर करने की बात है कि जिस तेजी के साथ खड़ी बोली हिन्दी आजादी के पहले विकास के मार्ग पर चली, उस तेजी के साथ आजादी के बाद नहीं चल सकी। कारण कुछ भी हो पर यह न तो हिन्दी के लिए हितकर है और न भारतीय राष्ट्र के लिए।
Question : लोकमंगल की अवधारणा को प्रसारित करने में अवधी के योगदान पर प्रकाश डालिए।
(1999)
Answer : अवधी, अवध क्षेत्र की बोली है। यह पुराने अवध प्रांत के हरदोई, खीरी आदि को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों में बोली जाती है। यह लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी, कानपुर जिले के कुछ भाग, जौनपुर-मिर्जापुर के कुछ भाग, गंगा के दाहिने किनारे फतेहपुर एवं इलाहाबाद की भाषा है। बिहार के मुसलमानों तथा नेपाल की तराई के कुछ हिस्सों में भी प्रचलित है। अवधी पूर्वी हिन्दी की सबसे महत्वपूर्ण बोली है। अवधी के पश्चिम में पश्चिमी हिन्दी की दो बोलियों- कन्नौजी और बुंदेली है तथा सबसे पूर्व में भोजपुरी का क्षेत्र है। इसके उत्तर में नेपाली तथा दक्षिण में मराठी बोली जाती है।
भाषा के अर्थ में अवधी का प्रथम स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की ‘खालिक बारी’ में मिलता है। उन्होंने अपने समय की भाषाओं का उल्लेख करते हुए अवधी को भी शामिल किया है। वैसे अवधी में किसी संपूर्ण काव्य-रचना का उदाहरण 1379 ई. में रचित चंदायन है। इसकी रचना मुल्ला दाऊद ने की। इस प्रकार मुल्ला दाऊद ने अवधी को काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उनकी भाषा ठेठ अवधी है, जिसमें संस्कृत शब्दों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इसके अलावा कवि ने अरबी-फारसी शब्दों का भी बेहिचक प्रयोग किया है, लेकिन ये शब्द वही हैं जो बोलचाल में घुल मिल गए थे। चंदायन में मुल्ला दाऊद ने श्रृंगार रस के दोनों पक्षों- संयोग एवं वियोग का मनोरम रूप प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। नायिका के सौंदर्य वर्णन में कवि नये-नये और लोक जीवन से ही उपमानों की योजना करता हैः
मांग चीर सर सेंदुर पुरा।
रेंग चला जनु कानके जूरा।।
लांब केस मुर बांध धराये।
जानु सेंदुरी नाग सुहाये।।
बोलचाल की सामान्य अवधी को मुल्ला दाऊद ने अद्भूत भाषिक सर्जनात्मक से संपन्न कर साहित्यिक भाषा के उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। इसी क्रम में दूसरी महत्वपूर्ण रचना कुतुवन का ‘मृगावती’ (1503) है। भाषा, काव्य और काव्यरूप की दृष्टि से मृगावती चंदायन की परंपरा का ही है।
अवधी भाषा को साहित्यिकता का सर्वाधिक अवदान प्रदान करने वाले सूफी कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी का नाम सर्वप्रमुख है। वे ठेठ अवध क्षेत्र के निवासी और वहां के सामान्य जनजीवन के कुशल पारखी थे। ‘अवधी’ में रचित इनकी अनेक काव्यकृतियां बतायी जाती हैं, जिनमें पद्मावत को मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ प्रेमाख्यानक प्रबंधन काव्य होने का श्रेय प्राप्त है। इसके कथानक में कवि ने ‘इतिहास’ और लोकाख्यान का अनूठा सामंजस्य प्रस्तुत किया है। इसका कथाक्षेत्र राजस्थान (चित्तौड़), दिल्ली के ऐतिहासिक स्थलों और सिंहलद्वीप के कल्पित काव्यलोक के बीच फैला होने पर भी इसमें चित्रित जनजीवन, लोकविश्वास और सामाजिक बिंब अधिकांशतः अवध अंचल की झलक प्रस्तुत करते हैं। भाषा भी ठेठ अवधी है जिसमें संस्कृत और फारसी की अर्द्धतत्सम और तद्भव शब्दावली के अतिरिक्त ‘अवध’ अंचल के देशज शब्दों और मुहावरों लोकोक्तियों, सुक्तियों का विशेष प्राचुर्य है। ‘पद्मावत्’ को वास्तव में ‘ठेठ’ अवधी की साहित्यिक संपदा का एक विलक्षण कोष और संदर्भ स्रोत माना जा सकता है। इसके द्वारा ‘अवधी’ भाषा का जो साहित्यिक अभिधान मिला, वह भावी प्रेमख्यान- काव्यों के लिए आदर्श उपजीव्य बन गया। इसीलिए ‘पद्मावत’ के पश्चात् रचे जाने वाले प्रायः सभी प्रेमाख्यान काव्यों का माध्यम भी ‘अवधी’ ही रही, चाहे उनकी रचना किसी भी अंचल में किसी भी वर्ग के (सूफी अथवा गैर सूफी) कवि द्वारा हुई। ‘पद्मावत’ की लोकप्रियता एवं काव्य प्रतिष्ठा ने एक प्रकार से ‘अवधी’ को प्रेमाख्यान की अनिवार्य एवं रूढ़ काव्य भाषा बना दिया।
‘पद्मावत’ के उपरांत अवधी में रचे गए कतिपय प्रमुख प्रेमाख्यान काव्यों में - मधुमालतीः मंझन (रचनाकाल 1545 ई.), चित्रवलीः उसमान (1613 ई.), रसरतनः पुहकर (1618 ई.), ज्ञानदीपः शेख नबी (1619 ई.), अनुराग बांसुरीः नूर मुहम्मद (1801 ई.), हंस जवाहिरः कासिम शाह (18वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) प्रमुख हैं । इसमें से अधिकांश रचनाकार उत्तर प्रदेश के और प्रायः अवध क्षेत्र या उसके आसपास रहने वाले थे। इस कारण भी और प्रेमाख्यान काव्यों की रचना अवधी में किये जाने की परंपरा चल पड़ने के कारण, ‘अवधी’ का साहित्यिक रूप निखरता-संवरता रहा।
‘अवधी’ के साहित्यिक भाषा के रूप में विकास का दूसरा और विशेष महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु बना, मध्ययुग में हिन्दी की रामभक्ति काव्यधारा का उन्नयन। सूफी कवियों द्वारा जिस ठेठ ‘अवधी’ का साहित्यिक रूप विकसित हो रहा था, उसे हिन्दी की रामभक्ति काव्यधारा ने पुष्ट शास्त्रीय आयाम प्रदान कर एक परिष्कृत परिमार्जित साहित्यिक भाषा के सांचे में ढालने का ऐतिहासिक दायित्व निभाया। यद्यपि इसका सूत्रपात 14वीं शताब्दी के मध्य में ग्वालियर के तोमर राजा सभारत्न महाकवि विष्णुदास ‘रामायण-कथा’ की रचना के माध्यम से कर चुके थे, तथापि उनकी भाषा ‘अवधी’ की बजाय ‘ग्वालियरी’ परवर्ती कन्नौजी एवं ब्रज के अधिक निकट थी। रामानन्द द्वारा प्रवर्तित रामावत संप्रदाय और उसके द्वारा संचालित रामभक्ति आंदोलन का मुख्य केंद्र राम की जन्मभूमि अवध था। उनके लिए ‘अवधी’ का काव्यभाषा के रूप में प्रयोग सूफी कवियों की भांति अपने समकालीन लोक-परिवेश के चित्रंकन का परिणाम न होकर, धार्मिक आस्था और रामभक्ति विषयक दृष्टिकोण का परिणाम था। प्रेमाख्यान काव्य धारा अधिकांशतः लोकोन्मुखी थी तो हिन्दी की रामभक्तिकाव्य परंपरा में अधिकतर शास्त्रेन्मुखता और लोकोन्मुखता का अद्भुत सामंजस्य है।
अवधी में लिखित रामभक्ति काव्यों में गोस्वामी तुलसीदास का रामचरित मानस काफी महत्वपूर्ण है। गोस्वामी जी ने अपने काव्य रामचरितमानस में सूफियों की काव्यभाषा को ज्यों का त्यों नहीं ग्रहण किया। उन्होंने अवधी भाषा को सर्वथा नये ढंग से प्रस्तुत किया। अवधी उनकी मातृभाषा थी परंतु गोस्वामी जी का अनेक स्थानों पर आना-जाना लगा रहता था। इस कारण उनके काव्य-भाषा का आधार तो अवधी ही है, लेकिन अन्य बोलियों के शब्द भी मिल जाते हैं। काशी में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। अतः भोजपुरी प्रयोग भी पर्याप्त हुए हैं, जैसे- माहुर, फुर, ताकना, राउर, राउरहि आदि। परन्तु तुलसी की काव्य भाषा की सबसे बड़ी विशेषता, जो उन्हें सूफियों की भाषा से अलग करती है, तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग है। इस प्रकार ठेठ अवधी के साथ अनेक बोलियों के शब्दों का प्रयोग एव तत्सम शब्दों के पुण्कल प्रयोग के कारण अवधी की सर्जनात्मक संभावनाओं में अपरिमित वृद्धि हुई है।
गोस्वामी जी की तीन काव्यकृतियां- पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामलला नहछू पूरबी अवधी में लिखी गई है, जबकि रामचरित मानस में पूरबी और पश्चिमी दोनों रूपों का मिश्रण है। मानस में, जहां भी घरेलू या सामान्य जनों से संबद्ध प्रसंग हैं, वहां की भाषा ठेठ अवधी है। उदाहरण के लिए ‘कैकेयी’ और मंथरा के संवाद की एक पंक्ति-
तुम्ह पूंछहु मैं कहत डेराऊं।
धरेहु मोर घरफोरी नाऊं।
सजि प्रतीति बहुविधि गढि़ छोली।
अवध साढ़साती तब बाेली।।
इसी प्रकार केवट प्रसंग और वन जाते समय ग्रामवासियों के प्रसंग में भी ठेठ अवधी की मधुरता देखी जा सकती है, पर ऐसा स्थल रामचरित मानस में अपेक्षाकृत कम है। प्रमुखता उस भाषा की, है जिसमें संस्कृत की कोमलकांत पदावली अवधी को समृद्ध बनाती है। मानस में कहीं से भी इस प्रकार की पंक्तियां उद्धृत की जा सकती हैः
"मनस सलिल सुधा प्रतिपाली।
जिअइ की लवन पयोधी मराली।
नव रसाल बन बिहरनसीला।
सोह कि कोकिल बिपिन करीला।।"
गोस्वामी जी की भाषा की एक प्रमुख विशेषता है कि वे तत्सम् शब्दों को बिल्कुल ही तत्सम रूप में नहीं रहने देते, उसे अवधीकरण करके ही प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए वन, विहरणशील, विपिन- बन, बिहरनसील और बिपिन बन जाते हैं, करूणा और गुण- करुना, गुन बन जाते हैं। इस प्रकार तुलसी जी ने अधिकांश तत्सम शब्दों का अवधीकरण कर दिया है, जिससे वे बेमेल नहीं प्रतीत होते। इसके फलस्वरूप एक ही अर्थ की विभिन्न छायाओं को अभिव्यक्त करने वाले पर्यायों का अभाव गोस्वामी जी के यहां नहीं दिखाई देता।
गोस्वामी जी की भाषा की एक प्रमुख विशेषता भाषा की सफाई और वाक्य रचना की निर्दोषिता है। उनके वाक्यों में कहीं भी शैथिल्य नहीं है और भाषा नितांत गठी हुई तथा सुव्यवस्थित है। वे वाल्मीकि रामायण, आध्यात्म रामायण, महारामायण, हनुमान नाटक, प्रसन्न राघव नाटक इत्यादि ग्रंथों से काव्य सामग्री तो लेते हैं, लेकिन उसे अपनी प्रतिभा से इस प्रकार सर्जित करते हैं कि वह बिल्कुल नया लगता है। यहां तक कि प्राचीन संस्कृत कवियों की अनेक उक्तियों को ज्यों का त्यों गोस्वामी जी ने ले लिया है। पर उन उक्तियों को उन्होंने इस प्रकार अवधी में ढाल दिया है कि उसके अनुवाद होने का भान ही नहीं होता। इस प्रकार गोस्वामी जी ने अवधी को काव्यभाषा को ऐसे स्तर पर ला खड़ा किया, जिससे आगे जाने की गुंजाइश किसी दूसरे कवि के लिए न रही।
तुलसीदास का प्रभाव प्रायः सभी रामभक्त कवियों पर पड़ा। स्वामी अग्रदास और नाभादास की वर्णन शैली में भाषा सौष्ठव देखा जा सकता है। हृदयराम का ‘हनुमान नाटक’ संवाद शैली का सफल ग्रंथ है। मधुसूदन दास के ‘रामाश्वेघ’ में प्रबंध कुशलता देखने योग्य है। महाराजा रघुराज सिंह ने राम को रीतिकालीन कवियों के कृष्ण के समान श्रृंगारी नायक बना दिया है। ऐसे ही बाबा रामचरणदास की कृतियों में राम की विलास-क्रीड़ाओं का वर्णन है। परन्तु इसमें न तो रीति-कवियों की-सी अलंकार योजना है, न ही भाषा की साहित्यिकता। सच तो यह है कि तुलसी की सर्वोत्कृष्ट प्रतिभा के सामने ये सब कवि फीके पड़ गए हैं।