Question : आदिकाल की प्रवृत्तियां
(2008)
Answer : आदिकालीन साहित्य को विषय की दृष्टि से तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-धर्म संबंधी काव्य, चारण कवियों द्वारा रचित रासो काव्य तथा लौकिक साहित्य। इन रचनाओं को देखने पर इस काल की मुख्यतः तीन प्रकार की प्रवृत्तियां मिलती हैं। (1) धार्मिक (2) वीरगाथात्मक (3) शृंगारिक। शुक्ल जी ने आदिकालीन धार्मिक रचनाओं को साहित्य की कोटि में नहीं रखते हैं क्योंकि इसमें उन्हें अनिद्रिष्ट लोक प्रवृत्ति के दर्शन हुए। परंतु उन्होंने यह भूल की है क्योंकि इन्हीं धार्मिक रचनाओं में लोकचेतना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है। बौद्धों, नाथों, सिद्धों, जैनों आदि की रचनाएं हिंदू धर्म की रूढि़ग्रस्त धर्म भावना से मनुष्य को मुक्त कर सहज सत्य का साक्षात्कार करा रही थी। ये रचनाएं लोक चेतना से जुड़ी हैं। जनता की आशाएं-आकांक्षाएं, उनका दुःख-दद्र, उनका असंतोष इन्हीं रचनाओं के जरिए सामने आ रही थी।
शुक्लजी की दृष्टि में आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्ति वीरगाथात्मकता है। पर जिन रासो ग्रंथों के आधार पर उन्होंने वीगाथात्मकता को प्रमुख प्रवृत्ति मानते हैं, उनमें से अधिकांश की प्रमाणिकता संदिग्ध है। दूसरी बात, इस काल की वीर भावना अत्यंत संकुचित है। उसमें वीर रस के उदात्त रूप के दर्शन नहीं होते हैं। आश्रयदाताओं की उचित अनुचित प्रशंसा करना कविगण अपना कर्तव्य मानते थे। उनमें राष्ट्र के व्यापक हित की चिंता दिखाई नहीं देती।
इसके अलावा वीरगाथा काव्य शुद्ध वीर रस के काव्य न थे, उसमेंशृंगार का पर्याप्त मिश्रण है। वैसे तो आचार्य शुक्ल नेश्रृंगार को वीर गाथा काव्य की गौण प्रवृति माना है पर वे स्वीकार करते हैं कि -‘जहां राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था, वहां भी उन कारणों का उल्लेख न कर कोई रूपवती स्त्री ही कारण कल्पित करके रचना की जाती थी।’ यदि यह बात सही है तो मानना पड़ेगा कि वीरगाथात्मक काव्यों की मूल प्रेरणा भोग-विलास की कामना ही थी। वीसलदेव रासो में तो शौर्य के वर्णन के बदलेशृंगार की अधिकता है। इसके अलावा आदिकाल में एकाध ऐसी प्रेमपरक रचनाएं लिखी गई जिन्हें राजाश्रय से मुक्त कवियों ने लिखा था। संदेश राशक ऐसी ही रचना है, जिसमेंशृंगार का उदात रूप हमें देखने को मिलता है। संदेश रासक एक विरह काव्य है, जिसमें नारी के सहजशृंगार से लेकर उनके मानसिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति इसमें की गई है।
विद्यापति ने कीर्तिलता और कीर्तिपताका में इतिहास पुरुषों की वीरगाथाओं को लिखा है, परंतु विद्यापति की पद्यावली, जिसे आचार्य शुक्ल ने फुटकल खाते में रखा है, भक्ति एवंशृंगार के अनूठे उदाहरण मिलते हैं। आचार्य शुक्ल ने विद्यापति कोशृंगारी कवि कहा लेकिन यदि हम कायदे से देखे तो विद्यापति में हमें आदिकाल की तीनों प्रवृत्तियां मिलती है। कीर्तिलता एवं कीर्तिपताका में वीररस और पदावली मेंशृंगार एवं भक्ति। पद्यावली में पहली बार राधा एवं कृष्ण के प्रेम प्रसंगों को गेय रूप में प्रस्तुत किया गया है।
आदिकाल में कुछ लौकिक साहित्य की भी रचना की गई। इस प्रकार के साहित्य में अमीर खुसरो की रचनाएं प्रमुख हैं। इनकी पहेलियों में मनोरंजन के साथ-साथ जीवन पर गहरे व्यंग्य एक साथ मिलते हैं। ‘ढोल मारू रा दुहा’, ‘वसंत विला’, ‘जयचंद प्रकास’ आदि रचनाएं आदिकालीन लौकिक साहित्य को गरिमा प्रदान करती हैं।
इनमें स्वच्छ रूप सेशृंगार का निरूपण किया गया है। भाषात्मक प्रवृत्ति की दृष्टि से आदिकालीन साहित्य की भाषा अपभ्रंश से निकली हुई देश भाषा है। इसके अलावा कुछ कवि अपनी रचना अपभ्रंश में भी कर रहे थे। उदाहरण के लिए शार्डं-धर अपभ्रंश में लिख रहे थे, तो खुसरो देशभाषा में, जबकि विद्यापति एक ही साथ अपभ्रंश एवं देशी भाषा दोनों का प्रयोग कर रहे थे। आदिकालीन साहित्य की भाषा कठिनता से सरलता की ओर बढ़ रही थी। यह भाषा सिद्धों की जीवन दृष्टि तथा स्पष्टवादिता, नाथपंथियों का योग, जैनों की अहिंसा, चारण-भाटों की प्रशस्तियां, खुसरो की लोक रसज्ञता सबको एक साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। अलंकार, रस, लक्षणा-व्यंजना आदि का अतिरिक्त आग्रह इसमें नहीं है।
Question : मध्ययुगीन कृष्ण-भक्तिकाव्य
(2008)
Answer : विष्णु के अवतारी रूप कृष्ण की उपासना कितने दिनों से चली आ रही है, यह तो स्पष्ट नहीं है किंतु कृष्ण के माधुर्य रूप का उद्घाटन भागवत पुराण से माना जाता है। कृष्ण के इसी माधुर्य रूपों का वर्णन मध्ययुगीन कृष्ण, भक्ति काव्य में मिलता है। कृष्ण -भक्ति से संबंधित सभी कवियों के आराध्य श्री कृष्ण हैं। अतः उनकी रचनाओं में भगवान कृष्ण के लीलाओं का गान मिलता है। कवियों द्वारा लीला का वर्णन, अखंड आनंद में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की अभिव्यंजना करना था। उन्होंने लीला के अनेक रूप कल्पित किए। बाल गोपाल की वात्सल्यपूर्ण लीलाएं, साख्य रूप में लीलाएं तथा माधुर्य भावपूर्ण लीलाएं ही संपूर्ण मध्ययुगीन कृष्ण-भक्ति काव्य में विद्यमान है।
कृष्ण के प्रेममय रूप का वर्णन करना कृष्णभक्त कवियों का आदर्श था। अतः इनके काव्य में निर्गुण मत का जोरदार तरीकों से खंडन किया गया है। सूर के भ्रमर गीत में ज्ञान के खंडन तथा प्रेम का मंडन करने का अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं:
आयो घोष बड़ो व्यापारी
लादि खेप गुन-ज्ञान-योग की ब्रज में आय उतारी।।
सूर ने यहां निरी निपट ग्वालिन बालाओं से ज्ञान योग का खंडन करवाया है। कृष्ण-भक्ति शाखा के सभी कवियों की भक्ति का दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद है, जबकि उनका व्यवहार पक्ष पुष्टिमार्ग है। शुद्धाद्वैतवाद के अंतर्गत जीव और ब्रह्म मूलतः एक होते हुए भी माया भेद से अलग-अलग हैं। जीव को भक्ति द्वारा आनंद तभी मिल सकता है, जबकि वह ब्रह्म से अलग हो। उसके लिए पुष्टिमार्ग में आठों यम की सेवा का विधान किया गया है। उसमें कृष्ण को जगाने के पद हैं तो खिलाने के लिए भी और सुलाने के भी।
भक्ति के पांच विशिष्ट भाव-कांत, वात्सल्य, दास्य, साख्य और शांत माने गए हैं। इनमें से तीन (कांत, वात्सल्य तथा साख्य) भाव की भक्ति की प्रधानता कृष्ण-भक्ति से संबंधित रचनाओं में मिलती है। कहीं तो कृष्ण और गोपियों कीशृंगार चेष्टाओं का वर्णन है तो कहीं कृष्ण के वात्सल्य का और कहीं उनकी श्रीदामा आदि साखाओं के साथ बाल क्रियाओं का।
इसके अलावा मध्ययुगीन कृष्ण-भक्ति साहित्य की रचना मुख्यतः मुक्तक गेय पदों में किया गया है। हालांकि कुछ प्रबंधकाव्य की रचना भी की गई, जैसे-सबल सिंह चौहान कृत महाभारत भाषा (1661-1724), छत्रसिंह कायस्थ कृत विजय मुक्तावली आदि। इन काव्यों की शैली गीत शैली है, जिसमें गीति शैली के सभी तत्व-भावात्मकता, संगीतात्मकता, व्यक्तिकता तथा संक्षिप्त्ता तथा भाषा की कोमलता विद्यमान है।
रस की दृष्टि से इस काव्य मेंशृंगार एवं वात्सल्य रस की प्रधानता है। इसके अतिरिक्त वीर, भयानक, अद्भुत और हास्य रस भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं।
छंद की दृष्टि से अधिकतर पदों का ही प्रयोग हुआ है, किंतु अनेक स्थलों पर चौपाई, चौबोला, सार तथा सरसी छंदों का प्रयोग भी मिलता है। इसी प्रकार दोहा, सवैया, छप्पया और हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग भी कहीं-कहीं हुआ है। इन काव्यों में अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि शब्दालंकारों तथा उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, विभावना, अतिशियोक्ति आदि अर्थालंकारों का प्रयोग देखा जा सकता है। भाषा की दृष्टि से कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण की बाल लीला भूमि ब्रज की लोक प्रचलित भाषा का प्रयोग किया है।
इन काव्यों ने ब्रज-भाषा की प्रयुक्ति को इतना बढ़ाया कि वह पूरे भारत की साहित्य की भाषा बन गई। ब्रज भाषा की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि समस्त उत्तर-पश्चिम भारत से लेकर सुदूर बंगाल तक कृष्ण-काव्य की रचना इसी भाषा में होने लगी। यही नहीं भक्तिकाल के बाद रीतिकाल और यहां तक कि भारतेंदु काल तक इस भाषा में काव्य रचना का प्रचलन रहा
Question : केशव का आचार्यत्व
(2008)
Answer : कवि केशवदास का जन्म 1612 ई- में हुआ। ओरछा नरेश के भाई इंद्रजीत सिंह की सभा में ये रहते थे। इनके आविर्भाव काल से कुछ पूर्व ही रस, अलंकार आदि काव्यांगों के निरूपण की ओर कुछ कवियों का ध्यान जा चुका था। किंतु अब तक किसी कवि ने संस्कृत साहित्यशास्त्र में निरूपित काव्यांगों का पूरा परिचय नहीं कराया था। यह काम सर्वप्रथम केशवदासजी ने किया। ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं कहा हैः
जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत।
भूषण बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त।।
अपनी इसी मनोवृति के अनुसार इन्होंने भामह, उदभट्ट और दंडी आदि प्राचीन आयार्यों का अनुसरण किया, जो रस, रीति आदि सब कुछ अलंकार के अंतर्गत ही लेते थे। साहित्यशास्त्र को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत रूप में लानेवाले मम्मट, आनंदवर्द्धनाचार्य और विश्वनाथ का ही नहीं।
केशव ने अलंकारों पर ‘कविप्रिया’ और रस पर ‘रसिकप्रिया’ लिखी। इन ग्रंथों में केशव का अपना विवेचना कहीं नहीं दिखाई
पड़ता। सारी सामग्री कई संस्कृत ग्रंथों से ली हुई मिलती है। नामों में थोड़ा बहुत हेरफेर अवश्य मिलता है, जो गड़बड़ी के सिवा और कुछ नहीं दिया है।
उदाहरण के लिए उपमा के जो 22 भेद केशव ने रखे हैं, उनमें से 15 तो ज्यों-के-त्यों दंडी के हैं, 5 केवल नाम भर बदल दिए गए हैं। इसी प्रकार आक्षेप के 9 भेद केशव ने रखे हैं, उनमें 4 तो ज्यों के-त्यों-दंडी के हैं, पांचवें ‘मरणाक्षेप’ दंडी का मूर्च्छाक्षेप ही है। केशव के सात रचे ग्रंथ मिलते हैं-कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंह देवचरित, विज्ञानगीत, रतनबावनी और जहांगीरजसचंद्रिका।
केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें सहृदयता और भावुकता भी न थी, जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य में से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचना कौशल की धाक जमाना चाहते थे, पर इस कार्य में सफलता के लिए भाषा पर जैसा अधिकार होना चाहिए वैसा उन्हें प्राप्त न था। अपनी रचनाओं में उन्होंने अनेक संस्कृत काव्यों की उक्तियां लेकर भरी हैं। पर उन उक्तियों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में उनकी भाषा बहुत कम समर्थ हुई है। पदों और वाक्यों की न्यूनता, अशक्त, फालतु शब्दों के प्रयोग और संबंध के अभाव आदि के कारण भी भाषा अप्रांजल और उबड़-खाबड़ हो गई है और तात्पर्य भी स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं हो सका है।
इन सीमाओं के रहते हुए भी इनमें अपनी बात को प्रबल शब्दों में कहने का साहस और उसे प्रमाणित करने का सामर्थ्य, दोनों ही विद्यमान हैं। कवित्व की दृष्टि से भी केशव का अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान है। भक्तिकालीन कवियों में संभवतः ये पहले कवि हैं, जिन्होंने ब्रजभाषा में मुक्तक के साथ-साथ प्रबंधकाव्य की रचना का सूत्रपात किया। इनकी पांच ग्रंथ-विज्ञानगीत, वीरसिंहदेवचरित, जहांगीर जसचंद्रिका, रतनबावनी और रामचंद्रिका प्रबंध की श्रेणी में आती हैं। इनमें रामचन्द्रिका सबसे प्रसिद्ध है। इसमें महाकाव्य की शैली अपनाई गई है। परंतु अनेक ऐसे विद्वान हैं, जो इसके महाकाव्यत्व को संदेह की दृष्टि से देखते हैं।
इस प्रकार केशव की रचनाओं तथा उनके आचार्यत्व में काफी कमियां हैं, लेकिन इन सभी दोषों के होते हुए भी यह मानना होगा कि यदि केशव का अविर्भाव न हुआ होता तो रीतिकालीन कवि अपने युग की कविता को कला-शिल्प की दृष्टि से मूल्यवान बना सकते, इसमें संदेह है।
Question : छायावाद और कामायनी
(2008)
Answer : कामायनी छायावाद की सर्वोकृष्ट रचना है। इसका निर्माण छायावाद की पौढ़ वेला में हुआ है और यह छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद की गहन अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति की साकार प्रतिमा है। इसी कारण इसमें छायावाद की संपूर्ण उन्नत और श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का मिलना नितांत स्वाभाविक है। जयशंकर प्रसाद ने जीवन के जिन संदर्भों को लेकर कामायनी का प्रणय किया है, वे अत्यंत व्यापक और मोहक हैं। हिंदी साहित्य जगत में तुलसी के रामचरितमानस के पश्चात् कामायनी में कविता को मानवीय संवेदनाओं के नये आयाम उपलब्ध हुए हैं।
स्त और चित् के शाश्वत गुणों से संचालित मानवता में आनंद उपलब्ध करने की जो चिरंतन पुकार उठती है, वह इस काव्य में ध्वनित हुई है। अंतर्जगत और बाह्य जगत की कलात्मक अभिव्यंजना इसके महत्व को प्रतिपादित करती है।
छायावाद ने हिंदी-काव्य के क्षेत्र में एक ऐसी नूतन पद्धति एवं मनन प्रणाली का प्रचार किया था, जिसके आधार पर कविजन पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक इतिवृत्तियों को भी आधुनिक मानव जीवन से संपृक्त करके अपने काव्यों में प्रस्तुत किया करते थे। उनके सम्मुख मानवोत्थान की भावना सबसे अधिक प्रबल रहती थी और इसी दृष्टि से संपूर्ण इतिहास एवं पुराणों की कथाओं का विश्लेषण किया करते थे। प्रसाद ने कामायनी में जो कथानक चुना है, वह उक्त धारणा का ज्वलंत प्रमाण है क्योंकि कामायनी में श्रद्धा और मनु का केवल ऐतिहासिक एवं वैदिक आख्यान ही नहीं है, अपितु प्रसाद ने अपनी नूतन चिंतन धारा के अनुसार उसमें एक ओर तो मानवता के क्रमिक विकास का इतिहास प्रस्तुत किया है और दूसरी ओर वर्तमान मनवंतर के प्रवर्तक मनु का क्रमिक इतिहास भी प्रस्तुत कर दिया है।
ऐसे ही इसी कामायनी महाकाव्य के इतिवृत में कवि ने एक ओर चिंताग्रस्त जीव की भौतिक विफलताओं का विवरण देकर, आध्यात्मिक विचारों के द्वारा क्रमशः आनंद शिखर की ओर उन्मुख होने तथा आत्म साक्षात्कार द्वारा ब्रह्मानंद में लीन होने का वर्णन किया है, तो दूसरी ओर चिंतित मन की सहज प्रवृत्तियों का चित्रण करते हुए उसे क्रमशः अखंड आनंद प्राप्त करने के लिए अद्योगति से ऊर्ध्वगति की ओर अग्रसर होता हुआ दिखाकर, उसके मनोवैज्ञानिक क्रमिक विकास का चित्रण
किया है।
ऐसे ही जहां एक ओर कामायनी में शैव दर्शन के आधार पर यह दिखलाया गया है कि कैसे नियति चक्र से संचालित जीव भौतिक संघर्षों में विषमता का शिकार होकर सदैव कष्टमय जीवन यापन करता है और वहीं समरसता को अपनाकर अखंड आनंद प्राप्त कर सकता है। इस तरह छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद भी अपनी अद्भुत चिंतन प्रणाली तथा गहन अनुभूति के आधार पर कामायनी में नूतन वर्ण्य विषय की सृष्टि की है।
छायावाद ने हिंदी कवियों को एक ऐसी दृष्टि दी है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें प्रकृति में कहीं भी जड़ता दृष्टिगोचर नहीं होती,
उन्हें जड़ पदार्थ भी चेतनवत आचरण करते हुए दिखाई देते हैं। कामायनी के कवि प्रसाद ने इसीलिए ‘‘एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन’’ कहकर इसी एक चेतन तत्व की व्यापकता को स्वीकार किया है।
इस प्रकार छायावाद कामायनी में अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है और छायावाद की नूतन अनुभूति, नूतन चिंतन पद्धति को अपनाने के कारण ही कामायनी महाकाव्य छायावादी युग की ही नहीं अपितु हिंदी के आधुनिक युग की प्रतिनिधि रचना है।
Question : विद्यापति भक्त कवि हैं या शृंगारी कवि? सप्रमाण विवेचन कीजिए।
(2008)
Answer : विद्यापति भक्तिपरक पदों में विशुद्ध भक्त के रूप में अवतरित होते हैं अथवाशृंगारी कवि के रूप में यह विद्वानों में वाद विवाद का मुद्दा आज भी बना हुआ है। सर्वश्री आचार्य शुक्ल, बाबूराम सक्सेना, हरप्रसाद शास्त्री तथा रामकुमार वर्मा आदि विद्वानों के अनुसार विद्यापति भक्त न होकर विशुद्ध रूप सेशृंगारी कवि हैं।
उनके पदों में राधा-कृष्ण का उल्लेख रीतिकालीन कवियों के पदों में हुए उल्लेख ‘‘राधा कन्हाई सुमिरन को बहानो हैं’’-का ही रूप है।
शुक्ल जी के अनुसार, ‘‘विद्यापति के पद अधिकतरशृंगार के हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा कृष्ण हैं। ... इस पदों की रचनाशृंगार काव्य दृष्टि से की गई है, भक्त के रूप में नहीं।’’ विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परंपरा में नहीं समझना चाहिए। जो लोग विद्यापति को आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं, उन्हें आड़े हाथों लेते हुए वे लिखते हैं-‘‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं, उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीतगोविंद को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।’’
डा. रामकुमार वर्मा का कथन है- ‘‘विद्यापति के भक्त हृदय का रूप उनकी वासनामयी कल्पना के आवरण में छिप जाता है। श्रीकृष्ण और राधा संबंधी जो पद उन्होंने लिखे हैं उनमें भक्ति न होकर वासना है।’’
इसके विपरीत डा. ग्रियर्सन, आचार्य श्यामसुंदर दास, डा. नगेंद्रनाथ गुप्त तथा डा. जनाद्रन शर्मा आदि विद्यापति को सूर तथा नन्ददास की श्रेणी का भक्त मानते हैं। डा. ग्रियर्सन का उद्घोष है, हिंदू धर्म का सूर्य अस्त हो सकता है, वह समय भी आ सकता है ‘‘जब कृष्ण में श्रद्धा और विश्वास का अभाव हो जाये, कृष्ण प्रेम की स्तुतियों के प्रति, जो भवसागर के रोग की दवा है-विश्वास जाता रहे तो भी विद्यापति के गीतों के प्रति, जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है, लोगों की आस्था और श्रद्धा कभी कम न होगी। आचार्य श्याम सुन्दर दास विद्यापति को भक्त स्वीकार करते हुए कहते हैं-‘‘विद्यापति ने राधा और कृष्ण की प्रेमलीला का जो विशद वर्णन किया है, उस पर विष्णु स्वामी तथा निम्बार्क मतों का प्रभाव प्रत्यक्ष है।
विद्यापति राधा ओर कृष्ण के संयोगशृंगार का ही विशेषतः वर्णन करते हैं। उसमें कहीं-कहीं अश्लीलत्व भी आ गया है पर अधिकांश स्थलों में प्रिय राधा का प्रियतम कृष्ण के साथ बड़ा ही सात्विक और रसपूर्ण सम्मिलन प्रदर्शित किया गया है।’’
इन विविध विचारधाराओं के बीच विद्यापति के भक्ति-प्रधान गीत औरशृंगार-प्रधान गीतों की पड़ताल थोड़ी सावधानी से करने की जरूरत है, क्योंकि इनके यहां भक्तिकालीन कवियों की तरह न तो एकेश्वरवाद मिलती है और न रीतिकालीन कवियों की तरह लोलुप भोगवाद। इनके काव्य में ऐसी जीवनानुभूति है कि भक्ति,शृंगार पर और ज्यादातर जगहों परशृगार, भक्ति पर हावी नजर आता है। विद्यापति के यहाशृंगार और भक्ति की धाराएं कई-कई दिशाओं में फूटकर इनके जीवनानुभव को फैलाती है और कवि के वैराट्य को दर्शाती हैं।
आज के प्रवक्ताओं ने, जो भक्ति औरशृंगार के मानदंड बनाए हैं, उनके आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संग्रह को देखा जाए तो राधा कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत शृंगारिक हैं और, जो भक्ति गीत हैं, उनमें प्रमुख हैं- शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना आदि।
उल्लेखनीय है कि विद्यापति ने स्त्री-पुरुष प्रेम विषयक, जो भीशृंगारिक पद लिखे हैं, वे अपने जीवन के अंतिम तीस-बत्तीस वर्षों से पूर्व ही अर्थात् उन्होंने शिव सिंह जैसे प्रिय मित्र की मृत्यु के बाद इन्होंनेशृंगारिक रचनाएं नहीं की। भक्ति औरशृंगार दोनों प्रकृत्तियां मध्यकाल के साहित्य में पाई जाती हैं।
यह अलग बात है कि भक्ति काल का समय निर्धारण जब से होता है उसके चार-पांच वर्ष बाद विद्यापति नेशृंगारिक गीतों की रचना छोड़ दी। कहा जा सकता है कि इनकीशृंगारिक रचनाओं का प्रायः सर्वांश भक्तिकाल के पूर्व ही लिखा गया।
लेकिन भक्तिकाल की जो रचनाएं हैं, उनका संबंध किसी न किसी तरह अपभ्रंश साहित्य की भक्ति परक रचनाओं से हैं और अपभ्रंश साहित्य की भक्तिपरक रचनाओं की मुख्य विशेषताएं राधाकृष्ण संबंधी पदों में भक्ति औरशृंगार का समन्वय,शृंगार का अत्यंत मुखर रूप, संगीत रूप, संगीत-प्रेम भक्ति का समन्वय है।
अवश्य ही विद्यापति के पदों में संगीतमयता, प्रेम और भक्ति के इतने उत्कृष्ट रूप का कारण अपभ्रंश के विरासत का ही प्रभाव रहा हो। पर शुक्ल जी को भक्तिपरक रचनाओं मेंशृंगारिक पुट होना अच्छा नहीं लगता।
उनकी दृष्टि में विषय वासना में लिप्त रहने वाले स्थूल दृष्टि के लोगों पर इसका प्रभाव ठीक नहीं पड़ता। सूर के पदों के संबंध में भी शुक्ल जी को शिकायत है कि भक्ति रचना मेंशृंगारमय आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना का समाज पर कल्याणकारी असर नहीं था, आगे के साहित्य में, जो उन्मादकारिणी उक्तियों भरीशृंगारिक रचनाएं हुई, वह इसका ही परिणाम है।
गीत गोविन्दम के एक श्लोक में जयदेव ने कहा है कि यदि आपका मन सरस हो, हरि स्मरण करना चाहें और विलास के कुतूहल में रचना चाहें तो आप जयदेव की मधुर कोमलकांत पदावली सुनें। भगवत में तो श्रद्धा और रति को भक्ति की सीढ़ी माना गया है। तंत्र साधना वाले साहित्य युग में पंचमकार सेवन भी गौर तलब है।
विद्यापति के पदों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि लौकिक प्रेम ही ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति में परिणत हो जाता है। लौकिक प्रेम भी जोड़ने का काम करता है और ईश्वरीय प्रेम भी। एकात्म्य की जो स्थिति भक्ति में दिखाई देती है और विद्यापति जिसे आत्मा परमात्मा के मिलन रूप में कहते हैं-‘‘तोहे जपभि पुनि तोहे समाओव सागर लहरि समाना।’’
यह स्थिति लौकिम प्रेम में कैसे फलित होती है, यह देखने के लिए कृष्ण के विरह में नायिका द्वारा गाया गया वह गीत है-‘‘अनुखन माधव सुमरइत राधा भेल मधाई।’’ अर्थात् प्रेम में सुध खोकर दिवानी होने वाली राधा की जो व्याकुलता यहां है, भक्ति में यही व्याकुलता और विह्नलता भक्तों को होती है।
संगीत के अलावा भक्ति औरशृंगार की यह तात्विकता जहां एकमेव होती है, वहां विद्यापति के कुछ भक्तिपरक पदों मेंशृंगार और भक्ति का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। जो विद्यापतिशृंगारिक गीतों में समर्पण और सौंदर्य की हद तक लीन हैं, रमण, विलास, विरह, मिलन के और पक्षों को इतनी तल्लीनता से चित्रित करते हैं और यौवन बिनु तन, तन बिनु यौवन, की यौवन पिय दूरे कहते हुए प्रिया के बिन तन और यौवन की सार्थकता ही नहीं मानते, वहीं विद्यापति अपने भक्ति गीतों में विनीत और नम्र हो जाते हैं तथा पहले रमण के और आराम को बेकार मानते हैं-‘‘आध जनम हम निन्दे गमाओल, जरा शिशु कत दिन गेला, निधुवन रमणी रसरंगे मातल, तोह भजन कौन बेला।
इतना ही नहीं जिस विद्यापति नेशृंगारिक गीतों में नायिका के मनोवेग को जीवन दिया है, उसे प्राणवान किया है, वहीं विद्यापति उस रमणि को तप्त बालू पर पानी की बूंद के समान कहकर भगवान के शरणागत होते हैं। वे ‘‘जावत जनम हम तुअ न सेवल पद युवति मनि मअ मेलि अमृत तेजि किए हलाहल पीउल, सम्पदे तिपदहि भेलि’’। कहकर स्वयंशृंगार और भक्ति के सारे द्वैध को समाप्त कर देते हैं।
जीवन के दो कालखंडों और दो मनः स्थितियों में एक ही रचनाकार विद्यापति द्वारा रचनाधर्म का यह फर्क कवि की तल्लीनता को ही दिखाता है कि वे जहां कहीं भी हैं मुकम्मल हैं। अतः हमेंशृंगारिक विद्यापति और भक्त विद्यापति को समझने का प्रयास करना चाहिए और ‘‘जब नीवीं कसरत वरजीत राधा’’, ‘‘जब सरोज धरो श्रीफल पर’’ आदि पंक्तियों के रचनाकार सूरदास भक्त कहला सकते हैं तो विद्यापति के पदों मेंशृंगारिकता के कारण उनके रूप को कैसे अस्वीकृत किया जा सकता है? इस प्रकार तत्कालीन परिस्थिति एवं परंपरा को ध्यान में रखते हुए विद्यापति कोशृंगारी भक्त ही मानना उचित है न कि कोरेशृंगारी कवि कहना।
Question : रीतिबद्ध काव्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
(2008)
Answer : रीतिकाल में अधिकांशतः ऐसे ग्रंथों की रचना की गई जिसमें काव्य के विभिन्न अंगों की विवेचना की गयी है तथा उन अंगों से संबंधित नियमों के अनुरूप काव्यों की रचना की गई है। ऐसे ग्रंथों को रीति काव्य की संज्ञा दी गई है।
इस प्रकार के काव्य में कवि ने अलंकार जैसे विशिष्ट काव्यांगों का विवेचन किया है तथा उससे संबद्ध उदाहरणों में कवि ने अपने कवित्व का प्रदर्शन किया है। लक्षण-उदाहरण के इस समूह में से यदि केवल उदाहरण को उठा लिया जाए तो उसे ‘रीतिबद्ध काव्य’ की संज्ञा दी गई है क्योंकि यह अलंकार विशेष से संबद्ध काव्यशास्त्रीय नियमों में पूरी तरह से बंधा हुआ है। रस, छंद, शब्द-शक्ति आदि अन्य काव्यांगों के विवेचन से संबंधित लक्षण-उदाहरणों के समूह में विद्यमान उदाहरणों को इसी प्रकार से ‘रीतिबद्ध काव्य’ कहा जाता है।
रीतिबद्ध काव्य दरबारी संस्कृति का काव्य है। इसमेंशृंगार और शब्द-सज्जा पर जोर रहा है। कवियों ने समान्य जनता की अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केंद्र में रखा। इससे कविता आम आदमियों के दुःख-दद्र से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव एवं विलास से जुड़ गई। रीतिकालीन कविता पर आरोप लगते रहे हैं तो इसका एक कारण यही है। उस दौर में भक्ति, नीति एवं शौर्य की कविताएं भी लिखी गई, पर उससे आरोपों की तीक्षणता में कमी नहीं आई।
रीतिकाल में काव्य जीवन जगत के यथार्थ के अनंत रूपों, मानव हृदय के सहज भावों और मानव चरित्रें के विविधता से कटकर रीतिग्रंथों में बताए रूपों, भावों और नायिका-भेद तक सीमित हो गया। अलंकार रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि के रूपवादी पूर्वग्रह कला के दरबारी भूमि में महत्वपूर्ण हो गए।
उससे रीति-निरूपण की जो प्रवृत्ति विकसित हुई, उसके भी कई आयाम देखने को मिलते हैं। ग्रंथकार की दृष्टि से काव्यांग विवेचन एवं निरूपण-शैली के आधार पर रीति-निरूपण के तीन भेद किए जा सकते हैंः
रीति-कर्म को आधार बनाने वाले कवियों ने केवल काव्यांगों का परिचय देना ही अपना अभिष्ट समझा। अतः उन्हें कवि के वनिस्पत आचार्य कहना ज्यादा उचित होगा। इन आचार्यों ने काव्यांगों के लक्षण तो संस्कृत के काव्यशास्त्र की परिपाटी पर स्वंय दिए पर उदाहरण या तो अन्य कवियों के काव्य से लिए या यदि स्वयं दिए भी तो उसमें कवित्व खोजना मुश्किल है।
जसवंत सिंह का भाषा-भूषण, याकुव खा का रस-भूषण, रसिक सुमति का अलंकार चंद्रोदयः दूल्ह का कविकुलकंठाभरण आदि इसी प्रवृति के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं।
रीति-कर्म व कवि-कर्म को आधार बनाने वाले कवियों ने लक्षण के साथ-साथ स्वरचित उदाहरण दिए। इनके उदाहरण सरस हैं। चिंतामणि, मतिराम, भूषण, देव, दास, कुलपति, पद्माकर आदि इसी प्रवृत्ति के कवि हैं।
रीतिबद्ध दृष्टिकोण वाले कवियों ने लक्षण एवं उदाहरण के चौखटे में बंधना आवश्यक नहीं समझा। वे काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। उनकी कविता में काव्यांग का लक्षण नहीं दिया गया है पर उनमें से प्रत्येक किसी न किसी काव्यांग का उदाहरण अवश्य है। बिहारी, मतिराम, भूपति, चंदन आदि की रचनाएं, नख-शिख वर्णन संबंधी समस्त ग्रंथ इसी प्रवृति के द्योतक हैं। काव्यांग विवेचन के दो अन्य प्रवृत्तियां मिलती हैं:
सर्वांग विवेचन के अंतर्गत काव्य-लक्षण, काव्य-हेतु, प्रयोजन, काव्यभेद, शब्द- शक्ति, काव्य की आत्मा, काव्य-गुण, दोष, रीति अलंकार तथा छंद का निरूपण किया गया है। चिंतामणि का कविकुल-कल्पतरू, देव का शब्द रसायण, कुलपति का रस रहस्य, दास का काव्य निर्णय इसी तरह के ग्रंथ हैं।
विशिष्टांग विवेचन के अंतर्गत काव्यांगों में रस, अलंकार छंद में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। अधिकांश ग्रंथों में रस के विवेचन मेंशृंगार रस की प्रधानता है। रस विलास (चिंतामणि), रसार्णव (सुखदेव मिश्रा), रस प्रबोध (रसलीन), रसराज (मतिराम),शृंगार निर्णय (दास), अलंकार रत्नाकर (दलपतिराम), छंद विलास (माखन), पिंगल प्रकाश (नंदकिशोर) आदि इस कोटि के ग्रंथ हैं।
विवेचन शैली के आधार पर तीन तरह के शैली भेद किए जा सकते हैं। पहले प्रकार के विवेचन शैली में लक्षण उदाहरणों के अतिरिक्त वृति (व्याख्या) देकर विषयों को समझाने की कोशिश किया गया है। दूसरे प्रकार के विवेचन शैली में एक ही छंद में लक्षण एवं उदाहरण दिए गए हैं। तीसरे प्रकार की शैली में लक्षण के साथ-साथ सरस उदाहरण द्वारा विषय निरूपण किया गया है। यहां लक्षण-उदाहरण पृथक-पृथक हैं।
यद्यपि हिंदी के रीति ग्रंथकारों ने लक्षण-निरूपण में संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथों को ही मूल आधार माना है फिर भी उनमें विवेचन की बहुत सुक्ष्मता एवं गहराई नहीं आ सकी है, जो संस्कृत ग्रंथों में दिखाई पड़ती है। हिंदी के रीति ग्रंथकारों में मौलिक उद्भावनाओं का सर्वथा अभाव है। ये ग्रंथकार मूलतः कवि-शिक्षक आचार्य हैं।
रीतिबद्ध अर्थात् आचार्य कवियों ने काव्यांग निरूपण करते हुए उदाहरण स्वरूपशृंगारिक रचनाएं प्रस्तुत की है। संस्कृत आचार्य भी काव्यांग निरूपण के क्रम मेंशृंगार-परक उदाहरण ही दिया करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि काव्यशास्त्र के सभी अंगों के उदाहरण उसी एक रस में प्राप्त होने लगे। यही परंपरा हिंदी में भी चली।शृंगारिक रचनाओं से ये कवि अर्थलाभ, अपनी तथा आश्रयदाताओं की काम वासना की तृप्ति एवं काव्यशास्त्रीय उद्देश्यों की सिद्धि करते थे। कवियों ने प्रेम को अतिन्द्रिय रूप देने अथवा वासना के उन्नयन का प्रयत्न नहीं किया।
यही कारण है कि संयोगशृंगार के नग्न चित्रें तथा नायकों के धृष्टताओं के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करते समय इनमें कोई संकोच नहीं दिखता। केशव चिन्तामणि, देव, मतिराम आदि कवि इसी वर्ग में आते हैं।
इस प्रकार रीतिबद्ध ग्रंथों में प्रस्तुतशृंगार एक चेतन व्यक्ति के दूसरे चेतन व्यक्ति के प्रति सक्रिय आकर्षण उतना नहीं, जितना कामुक व्यक्ति का उपभोग वस्तु के प्रति लौलुप आकर्षण है। यहां काम-वृत्ति की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वच्छंदता है। रीतिकालीनशृंगार जीवन से कोई गहरा सरोकार नहीं रखता।
उसका बुनियादी आधार रसिकता है, प्रेम नहीं। केवल रीतिमुक्त कवि अपवाद हैं। उसके प्रेम चित्रण को सच्वा व स्वाभाविक कहा जा सकता है।
नारी के प्रति रीतिबद्ध कवियों का दृष्टिकोण सामंती था। नारी के प्रति इस दृष्टिकोण को रखते हुए भी रीतिबद्ध कवियों ने प्रेम मर्यादा का महत्व दिया है। उन्होंने स्वकीया और परकीया दोनों प्रेम का वर्णन किया है, पर जोर स्वकीया प्रेम पर दिया हैः
‘छोड़ी अपनो मौन तुम, मौन कौन के जात
पर रस चाहै, परकिया, तजै आयु गुण गोत’
स्पष्ट है कि इस पंक्ति के द्वारा परकीया प्रेम में मर्यादा हानि को व्यक्त किया गया है। अतः स्पष्ट है कि रीतिकालीनशृंगार सिर्फ बाजारी इश्क नहीं है, यत्र-तत्र वह गर्हस्थिक प्रेम भी है। किंतु इस प्रेम की कमजोरी यह है कि इसमें बलिदान भावना का नितांत अभाव है तथा इसे अध्यात्मिक रंग में रंगने का प्रयास सफल नहीं हुआ है।
शृंगार के अलावा राजप्रशस्ति रीतिबद्ध कवियों के वर्णन का एक महत्वपूर्ण विषय है। इस विषय से संबद्ध रचनाएं एक ओर अलंकार और पिंगल के निरूपण विषयक उन ग्रंथों में उपलब्ध होती है, जो किसी आश्रयदाता की आज्ञा से अथवा उसे प्रसन्न करने के लिए लिखे गए और दूसरी ओर इन ग्रंथों तथा स्फुट छंदों के रूप में मिलती है, जो आश्रयदाता अथवा उसके किसी पूर्वज के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं आदि के पद्यबद्ध करने के उद्देश्य से लिखे गए। विषय की दृष्टि से इन रचनाओं को तीन वर्गों में रखा जा सकता है- (1) राजवैभव (2) राजविलास तथा (3) राजवीरता रीतिबद्ध कवियों ने भक्ति और दर्शन, नति तथा प्रकृति को भी अपने ग्रंथों में वर्ण्य विषय बनाया है। भक्ति और दर्शन से संबद्ध रचनाएं रीतिबद्ध ग्रंथों में तीन रूपों में उपलब्ध होती हैं: (1) ग्रंथ की निर्विधन समाप्ति के लिए गणेश, सरस्वती आदि की स्तुति (2) रीति-निरूपण के प्रसंग में यत्र-तत्र अलंकारादि के उदाहरणों के रूप में (3) तत्व चिंतन अथवा भक्ति परक स्वतंत्र काव्य ग्रंथों के रूप में।
नीति से संबंधित रचनाएं सामान्यतः रीति निरूपण संबंधी ग्रंथों के अंतर्गत या दो उदाहरणों के रूप में कहीं-कहीं प्रस्तुत की गई है। प्रकृति वर्णन संबंधी रचनाएं भी, भक्ति और नीति संबंधी रचनाओं के समान बिखरी हुई हैं। इस प्रकार की रचनाएं प्रायःशृंगार रस के उद्दीपक सामग्री के वर्णन प्रसंगों में ही देखने को मिलती है। इस प्रकार रीतिबद्ध काव्य की प्रमुख प्रवृति को रीति निरूपण औरशृंगार था किंतु गौण प्रवृति के रूप में भक्ति, नीति, राजप्रशस्ति आदि भी मौजूद थे।
Question : नाथ-साहित्य
(2007)
Answer : सिद्धों की वाममार्गी भोग प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों का हठ-योग आरंभ हुआ। नाथ साहित्य का प्रवर्तक गोरखनाथ को माना जाता है। इस संप्रदाय के रचनाकारों ने सिद्ध साहित्य को ही पल्लवित किया है। इनकी साधना सिद्ध साधना से अलग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाए गए योग प्रधान योगमार्ग के स्थान पर हठ-योग-साधना का मार्ग अपनाया।
इस संप्रदाय ने शैवमत के सिद्धांत को स्वीकार किया तथा शिव को आदिनाथ माना। इनके योगमार्ग में मूलतः संयम और सदाचार पर बल दिया गया है।
नाथ संप्रदाय को अनेक नामों से जाना जाता है यथा-सिद्धमत, योगमार्ग, योग संप्रदाय, अवधुत मत, सिद्ध मार्ग आदि। नाथ संप्रदाय में ‘नाथ’ शब्द का अर्थ ‘मुक्ति देने वाला’ प्रचलित है। उन्होंने अपने साहित्य में स्पष्ट किया है कि यह मुक्ति सांसारिक आकर्षणों एवं भोग-विलास से है।
इस प्रकार इस संप्रदाय के योगियों ने निवृत्ति के मार्ग पर जोर दिया तथा उन्होंने गुरु को ही इस मार्ग का मार्गदर्शक माना। उनके साहित्य में विविध साधना द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत कर परमानन्द आदि की क्रिया का विवरण मिलता है।
उनके अनुसार गुरु से दीक्षा लेकर उसके उपदेश द्वारा वैराग्य प्राप्त किया जा सकता है। विरागी होने पर शिष्य प्राणसाधना के माध्यम से कुंडलिनी जाग्रत कर मन को अन्तर्मुखी कर लेता है, जिससे उसे अपने भीतर ही परम आनन्द की प्राप्ति होती है।
इस सम्प्रदाय में प्राण साधना से पहले इन्द्रिय निग्रह पर बल दिया गया है। इन्द्रिय निग्रह के अन्तर्गत नारी से दूरी रहने की प्रवृत्ति प्रमुख है, क्योंकि नारी ही चारित्रिक पतन का कारण है। गोरख के काव्य में यह प्रवृत्ति को अपनाया तथा नारी का विरोध स्पष्ट शब्दों में किया। उनके तथा अन्य सन्त कवियों के काव्य में द्रष्टव्य प्राण साधना, कुण्डलिनी जागरण एवं मनसाधना आदि की क्रियाओं का वर्णन भी नाथ योगी कवियों का प्रभाव कहा जा सकता है।
नाथ योगियों का काव्य भी सिद्ध साहित्य की ही भांति सिद्धांत प्रतिपादन हेतु लिखा गया था। इसलिए इनका साहित्य प्रतीकात्मक शैली में रचित है। इन्होंने अनेकों प्रतीकों के माध्यम से अपने मन्तव्य को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। इनके साहित्य में प्रयुक्त प्रतीक सूर्य, चन्द्र, गगन, कमल आदि हैं। इनके यहां सूर्य ‘ह’ के तथा चन्द्र ‘ठ’ के प्रतीक हैं। सूर्य तथा चन्द्र के मिलन को ही हटयोग कहा गया है। इनकी योग साधना का ज्ञान होने पर ही इन प्रतीकों को ठीक से समझा जा सकता है।
इनकी रचनाओं की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित पुरानी हिन्दी है, जिसमें पंजाबी, ब्रज, अवधी आदि के शब्दों का सम्मिलन हो गया है। आचार्य शुक्ल ने इन ग्रंथों की भाषा देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश अर्थात् पुरानी हिन्दी मानी है। ब्रज के जिन शब्दों का प्रयोग इस साहित्य में किया गया है उसमें- लषावे, पहणे, दीसे, तहा आदि प्रमुख हैं, अवधी के शब्दों में होई, भैला, जाब, कहै, बाजे आदि प्रयोग किए गए हैं। नाथ योगियों की संख्या 9 मानी गई है।
इनके नाम-नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चार्पटनाथ, जलंधर और मलयार्जुन हैं। इस संप्रदाय का आचार्य गोरखनाथ को माना जाता है तथा मत्स्येंद्रनाथ उनके गुरु थे। साहित्य के विकास में इन्हीं कवियों ने योग दिया।
Question : पृथ्वीराज रासो
(2007)
Answer : रासो काव्य परम्परा का प्रतिनिधि एवं सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ है। आचार्य शुक्ल ने इसे हिन्दी का प्रथम महाकाव्य स्वीकार किया है। इसके कुछ अंशों का अनुवाद कर्नल लाड तथा डा- हार्नले ने किया है। इस महाकाव्य के रचयिता चंदबरदाई हैं, जो दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान के सामंत तथा राजकवि थे। कहा जाता है कि चंदबरदाई एक मित्र की भांति सदैव पृथ्वीराज के साथ रहते थे। अतएव उन्होंने इस कृति में जो भी वर्णन किया है वह उनके द्वारा देखा तथा अनुभव किया हुआ था।
चंदबरदाई को हिन्दी का प्रथम महाकवि तथा उनकी कृति को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह प्रबंधकाव्य की दृष्टि से एक श्रेष्ठ रचना है। मूलतः यह ग्रंथ एक चरितकाव्य है जिसके अन्तर्गत इस कृति के चरित नायक पृथ्वीराज चौहान का जीवन वृत्त प्रस्तुत किया है।
प्रारंभ में उन सभी नियमों का पालन किया गया है, जो परम्परागत शास्त्रीय ढंग से ग्रंथ के प्रारंभ में प्रस्तुत किए जाते थे, जैसे- मंगलाचरण, विनय, सज्जन प्रशंसा, रचना का उद्देश्य आदि।
इस ग्रंथ के अलग-अलग चार संस्करण मिलते हैं- वृहत्, मध्यम, लघु तथा लघुतम। वृहत् संस्करण में ढाई हजार पृष्ठ हैं तथा यह उप-समयों में विभक्त है। इसमें शहाबुद्दीन गोरी, जयचंद, परमाल तथा मेवातियों आदि से किए गए पृथ्वीराज के अनेक युद्धों का विवरण है तथा उनके अनेक विवाहों की कथा है। इन विवाहों में संयोगिता स्वयंवर, शशिवृता विवाह आदि प्रमुख हैं।
भावपक्ष की दृष्टि से इसकी सबसे प्रभावशाली विशेषता यह है कि इसमें मार्मिक प्रसंगों का अत्याधिक स्वाभाविक वर्णन हुआ है।
इसकी दृष्टि से यह काव्य युद्ध प्रधान वीर काव्य है। युद्ध वर्णनों में कवि ने पृथ्वीराज के युद्ध कौशल, शौर्य एवं पराक्रम का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन किया है। शहबुद्दीन की सेना के साथ हुए पृथ्वीराज के युद्ध का वर्णन करते हुए कवि पृथ्वीराज के युद्ध कौशल की विशेषता बताते हुए कहते हैं-
“याकि रहे सूर कौतिग गिगन, रगन-मगर भई श्रोन घर।
हदि हरषि वीर जग्गे हुलस, हुरेड रंगि नवरत्त वर।।”
अर्थात् पृथ्वीराज चौहान के युद्ध कौशल एवं वीरता को देखकर सूर्य भी स्तक्यित होकर ठहर गया। इस युद्ध में हुए नरसंहार से सारी धरती रक्त से भर गई। ऐसे युद्ध को देखकर वीर योद्धा उल्लास से भर उठे तथा उनके चेहरों पर प्रसन्नता से रक्त की लालिमा छा गई।
पृथ्वीराज रासो की भाषा मूलतः ब्रजभाषा का वह रूप प्रतीत होता है जिसमें राजस्थानी बोली का मिश्रण है, इसे पिंगल कहते हैं। कवि को भाषा पर इतना अधिकार था कि उसने कई भाषाओं के शब्दों को लेकर भाषा का निर्माण किया है। इसलिए रासो की भाषा को शुद्ध साहित्यिक भाषा नहीं माना जाता। छंदों की दृष्टि से इस ग्रन्थ में पर्याप्त विविधता है।
इसमें मूलतः गाथा, कवित्त, दूहा और सहृक छंदों की प्रधानता है। कहीं-कहीं एक ही वर्णन में अनेक छंद दिखाई पड़ते हैं। कवि ने संपूर्ण काव्य के प्रणयन में लगभग 68 छंदों का प्रयोग किया है। काव्य शैली की दृष्टि से कवि ने ओज शक्ति प्रदर्शन की प्रमुखता दी है। इस प्रकार पृथ्वीराज रासो काव्य की प्रत्येक गुणों को स्वयं में समाहित करता है तथा श्रेष्ठ काव्य की श्रेणी में आता है।
Question : संत काव्य-परंपरा का उल्लेख करते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए।
(2007)
Answer : निर्गुण भक्ति काव्य की ज्ञानाश्रयी शाखा को संत काव्य के नाम से जाना जाता है। निर्गुणपंथी कवियों को लंबे काल से संत कहने के कारण ही यह नाम पड़ा। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार- ‘‘संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने सत रूप परम तत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तद्रूप हो, जो सत् स्वरूप, नित्य, सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुका हो अथवा अपरोक्ष की उपलब्धि के फलस्वरूप अखण्ड सत्य में प्रतिष्ठित हो गया हो, वही संत है।’’
संत काव्य ने अनेक धार्मिक संप्रदायों के प्रभाव को आत्मसात कर लिया, किन्तु इसमें धर्म अथवा साधना की कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं की गई, बल्कि जन भाषा में उसके मर्म को समझाया गया है। संत कवियों के विचार निजी अनुभूतियों पर आधारित है। इसलिए इसमें दर्शन की शुष्कता नहीं, बल्कि काव्य की कोमलता है।
सभी संतों ने कहा कि उनका ईश्वर ज्ञान गम्य है। वह अविगत है, वेद, पुराण तथा स्मृतियां वहां तक नहीं पहुंच सकती-
‘निर्गुण राम जपहुँ रे भाई,
अविगत की गति लखी न जाई।’
संतों के अनुसार ईश्वर घट-घट में विराजमान हैं-
‘कस्तुरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे बन माहि।’
जिस तरह कस्तूरी तो मृग के नाभि में ही रहती है, लेकिन वह अनजान बना उसे वन-वन ढूंढते हुए भटकता है। उसी प्रकार राम तो घट-घट में व्याप्त हैं, उसे ढूंढने की आवश्यकता नहीं।
अवतारवाद एवं बहुदेववाद का विरोध सभी संतों ने किया। ऐसा अद्वैतवाद के प्रभाव के कारण हो सकता है, लेकिन यह विरोध समाज में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से भी किया गया। तत्कालीन शासक वर्ग इस्लाम समर्थक एकेश्वरवादी था। हिन्दू और मुस्लिम जनता में एकता भी आवश्यक थी। अतः संतों ने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया। संतों का विश्वास है कि अवतार भी जन्म-मरण के बंधन से ग्रस्त है। वे भी परमब्रह्म की भक्ति किए बिना मुक्त नहीं हो सकते। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की निन्दा करते हुए वे कहते हैं कि ये सभी मायाग्रस्त हैं। सबका कर्त्ता परमब्रह्म हैं। कबीर कहते हैं-
कबीर के अनुसार-
“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाई।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दिया बताई।।”
गुरु की महत्ता तो सगुण भक्त कवियों ने भी स्वीकार किया है। किन्तु दोनों में अन्तर यह है कि संत कवि गुरु को परमेश्वर ही मान लेते हैं, कारण यह है कि बिना गुरु की कृपा के परमेश्वर का पाना असंभव है। अतः संतों के लिए गुरु की महत्ता सर्वाधिक है।
संत काव्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति रूढियों और आडम्बरों का विरोध करना है। धर्म में आई विकृतियों को दूर करने के लिए इन संत कवियों ने रूढियों एवं आडम्बरों का जोरदार विरोध किया। मूर्ति पूजा, धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा, व्रत, तीर्थ, रोज-नाम, हज्ज आदि विविध विधि-विधानों, वाह्य आडम्बरों का संतों ने जोरदार विरोध किया। संतों ने वैष्णव संप्रदाय को छोड़कर तत्कालीन सभी धार्मिक संप्रदायों की कटु आलोचना की। इन विरोध की झलक इन उदाहरणों में देखा जा सकता है-
“पाथर पूजे, हरि मिले तो मैं पूंजू पहार।
तातें वह चक्की भली पीस खाय संसार।”
संत कवि सार्वभौम मानव-धर्म के प्रतिष्ठापक थे। इसलिए उन्होंने किसी भी प्रकार के जाति-पाति एवं वर्ग भेद को नहीं माना। संतों की दृष्टि में-
“जाती -पाति पूछे नहीं कोई,
हरि को भजे सो हरि को होई।”
निर्गुणोपासक संत कवियों ने काव्य और उसके अवयवों को काव्यशास्त्रीय दृष्टि से नहीं देखा और यदि इस संबंध में उनके यहां कुछ विचार-संकेत मिलते भी हैं, तो भी काव्य की आत्मा, साधारणीकरण, रस, निष्पत्ति आदि की न तो उन्होंने चिन्ता की है और न ही स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों की समन्वित अनुभूति के प्रति वे सचेत रहे हैं।
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके काव्य का रस की दृष्टि से अनुशीलन ही नहीं किया जा सकता। वस्तुतः काव्य के माध्यम से उन्होंने अपनी अनुभूति को जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया, फलस्वरूप रस की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता, साधारणीकरण सन्त-काव्य में विद्यमान है।
सन्तों ने अधिकतर साखियों, सवैयों एवं गेय पदों की रचना की है। इस कोटि के मुक्तकों में जिस सीमा तक रस-सृष्टि संभव हो सकती है, वह संत काव्यधारा में विद्यमान है। सन्तों की रचनाओं में जहां दाम्पत्य प्रतीकों के माध्यम से भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है, वहां संयोग एवं वियोगशृंगार की सुन्दरता को देखा जा सकता है। इसी प्रकार शांत रस का परिणाक चेतावनी एवं उपदेश-प्रकरण में उपलब्ध है। ब्रह्म की विराट् कल्पना के वर्णन में अद्भूत रस का अच्छा परिणाम हुआ है। व्यंग्य एवं हास्य रस का परिपाक कर्मकाण्ड और परंपराओं की आलोचना में हुआ है।
वास्तव में संत-काव्य में मुख्यतः शान्त रस की अबाध धारा प्रवाहित हुई है, परन्तु अन्य सभी रस भी उनके काव्य में न्यूनाधिक रूप से प्रवाहित होते हैं। संतों ने अपनी वाणी को काव्यांगों के प्रति सचेत होकर नहीं किया। अतः उनकी रचनाओं में अलंकारों का सप्रयोजन प्रयोग लक्ष्ति नहीं होता। फिर भी उनकी कविता में रूपक, उपमा, दृष्टान्त, तदगुण, अतदगुण, स्वाभावोक्ति, सहोक्ति, अत्युक्ति, विशेषोक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक, अनुप्रास, वीप्सा आदि अलंकारों का प्रयोग मिल ही जाता है। परन्तु वास्तव में संतों की चिन्त-वृत्ति रूपक, उपमा, दृष्टान्त, उत्प्रक्षा, श्लेष, यमक और अनुप्रास में अधिक रमी है। संतों में सुन्दरदास के अतिरिक्त प्रायः सभी कवि छन्दों के स्वरूप और महत्व से सर्वथा अपरिचित थे।
इन कवियों में जन्मजात-काव्य-प्रतिभा थी। अपनी अनुभूति ज्ञान एवं परंपरा से प्राप्त तत्व को चिरस्मरणीय तथा प्रेषणीय बनाने के लिए ही इन्होंने अपनी भावनाओं को छन्दोबद्ध किया। इस प्रकार छन्द इनके लिए साधन था, साध्य नहीं। अपने विचारों की अभिव्यक्ति इन्होंने मुख्यतः ‘साखी’ और ‘सबद’ के माध्यम से की है-साखियों की रचना दोहा छन्द में हुई है और सबद गेय पदों में है
भक्त कवियों की शैली मुख्यतः गीति काव्य पर आधारित है, इसमें तत्व, भावात्मकता, संगीतात्मकता, सूक्ष्मता व्यक्तिकता एवं भाषा में कोमलता विद्यमान है। उपदेशात्मक पदों में गीति-माधुर्य की जगह बौद्धिकता की प्रवृत्ति प्रमुख है।
Question : कबीर की भक्ति
(2006)
Answer : कबीर की भक्ति कुछ ऐसी थी कि उसे किसी प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली में पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता। कबीरदास के समय सिद्धनाथ और जैन सम्प्रदाय के भक्त और साधकों की बाणियां और उपासना की पद्धतियां अनीश्वरवादी कहे जा सकते हैं। कम-से-कम उनमें ईश्वर का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु सूक्ष्म और परोक्ष रूप से देवत्व का आरोप किया जाने लगा था और साधना के द्वारा जिस महासुख की कल्पना की गई थी, वह बहुत-कुछ उसी प्रकार का अनिर्वचनीय और अलौकिक था जैसा निर्गुण ईश्वर का वर्णन किया जाता है। नाथ सम्प्रदाय चाहे शैव हो अथवा बौद्ध, किन्तु शैव होते हुए भी उसमें किसी शरीरी और गुण-विशेष शक्ति की कल्पना नहीं की गई थी। इसका मार्ग-साधना और शारीरिक क्रिया का था और समाधि की अवस्था में योगी दिव्य सुख की प्राप्ति करता था और यही उसकी चरम प्राप्ति थी।
कबीर आरंभ में इन सम्प्रदायों से बहुत अधिक प्रभावित थे, किन्तु अनुभव और ज्ञान की परिपक्वता के साथ उन्हें यह मार्ग अपूर्ण प्रतीत हुआ। रामानन्द की यह दीक्षा वह ले ही चुके थे। प्रपत्रभावविशिष्ट भक्ति की ओर वह आकृष्ट हुए।
इस प्रकार कबीर की भक्ति एक विचित्र चीज थी। निर्गुण ब्रह्म की प्रतीति प्रायः ज्ञान के द्वारा ही की जाती रही है। तर्क ही उसका आधार है और बुद्धि वह तीखा अस्त्र है जिसके द्वारा सृष्टि के सत्य का उद्घाटन ब्रह्म सत्य की परतों को हटाकर सूक्ष्म तत्व के दर्शन द्वारा किया जाता है।
निर्गुण ब्रह्म के उपासकों को हम अद्वैतवादी और वेदान्तवादी भी कह सकते हैं, क्योंकि इसी के अन्तर्गत जीव और ब्रह्म की एकता का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है और जीव तथा ब्रह्म के एक्य में ही इहलौकिक जीवन की सार्थकता मानी गई है। कबीरदास ने इसी निर्गुण ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार किया।
निर्गुण और सगुण ब्रह्म के इस भेद को तथा मन के औचित्य को प्रतिपादित करने के लिए कबीर को तर्क और बुद्धि का सहारा लेना पड़ा। उन्होंने ज्ञान को इस सत्य की प्राप्ति के लिए उपयोगी माना। कबीर ने ज्ञान और धर्म को एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित माना है। कबीरदास ऐसा सोचते हैं कि ज्ञान के द्वारा ही भ्रम, अन्धविश्वास और निरर्थक कर्मकाण्ड की मोटी तहों को छेदकर धर्म के सच्चे रूपों को पहचानने की अन्तद्रृष्टि आती है।
वास्तविक माया तो यही सब अज्ञानता मूलक अन्धविश्वास ही है। मोह तृष्णा, स्वार्थ सभी प्रकार के मन के कल्मष को दूर करने के लिए इसी ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश में ही मन का पंकज प्रफुल्लित होता है-
संतो भाई, आई ज्ञान की आंधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडांनी, माया रहै न बांधी।
इस प्रसंग में यह भी द्रष्टतव्य है कि ज्ञान की यह आंधी भक्ति-रूपी जल-वर्षों के पहले की भूमिका है। प्रायः देखने में आता है कि आंधी के बाद पानी आता है। कबीर का मानना है कि इसी प्रकार ज्ञानोदय के पश्चात् ही ईश्वर के प्रति सच्चे, अहैतुक प्रेम का प्रादुर्भाव होता है। कबीरदास के निर्गुण उपासक होने के नाते और ज्ञान का सहारा लेने के कारण कबीर को ज्ञानमार्गी कहने वाले व्यक्तियों के मन का भ्रम इन पंक्तियों से मिट जाना चाहिए।
ज्ञान की सहायता से मन को निर्मल करके भागवत्-प्रेम की प्राप्ति ही कबीर का लक्ष्य है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कबीर की भक्ति पीयूष-सलिला भागीरथी के समान पावन है जिससे पुनीत कुलों पर मानव-मात्र को विश्रान्ति मिलती है।
Question : अष्टछाप और सूरदास
(2006)
Answer : श्री वल्लभाचार्य ने जिस पुष्टिमार्गीय भक्ति सम्प्रदाय की स्थापना की थी, उसका जिन हिन्दी भक्त कवियों द्वारा पल्लवन किया गया, उन्हें अष्टछाप के कवि कहा जाता है। यों तो पुष्टिमार्ग को स्वीकार करने वाले अनेक भक्त उस समय विद्यमान थे। वे अष्टसखा या अष्टछाप के नाम से प्रसिद्ध थे।
इन आठ भक्त कवियों में चार वल्लभाचार्य के शिष्य थे- कुम्भनदास, सूरदास, परमानन्ददास और कृष्णदास। अन्य चार गोस्वामी विट्टòलनाथ के शिष्य थे-गोविन्दस्वामी, नन्ददास, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास। ये आठों भक्त श्रीनाथ जी की नित्य-लीला में अन्तरंग सखाओं के रूप में सदैव उनके साथ रहते थे, इसी मान्यता के आधार पर इन्हें अष्टसखा कहते हैं।
गोवर्धन में श्रीनाथ जी की प्रतिष्ठा के बाद ये आठों सखा वहां सेवा के लिए प्रस्तुत हो गये। अष्टछाप के ये आठों भक्त कवि पुष्टिमार्गीय सेवा-विधि में भी पूर्ण सहयोग देते थे। वल्लभ सम्प्रदाय में सेवा विधि का बहुत ही सांगोपांग वर्णन है और अष्टयाम की सेवामंगलाचरण,शृंगार, ग्वाल, राजयोग, उत्थापन, भोग, सन्ध्या- आरती और शयन-को इस सम्प्रदाय में बड़े समारोह से स्वीकार किया गया है।
अष्टछाप की स्थापना 1856 ई॰ में हुई थी। ‘अष्टसखा की वार्त्ता पर श्री हरिराय की भावप्रकाश नामक टिप्पणी में आठों सखाओं के लीलात्मक स्वरूप, लीलासक्ति और अविकृत स्वभाव का पूर्ण विस्तार से उल्लेख है। साम्प्रदायिक दृष्टि से अष्टछाप के ये आठ भक्त सामान्य मानव से उच्च स्थान रखते हैं और इनका लीला की दृष्टि से बड़ा महत्व है। हिन्दी साहित्य में कृष्णभक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करनेवाले इन अष्टछाप कवियों में सूर का स्थान मूर्द्धन्य है। सूरदास का जन्म-काल 1478 ई॰ माना जाता है। इनके द्वारा रचित पच्चीस पुस्तकों की सूचना मिलती है, जिसमें ‘सूरसागर और साहित्यलहरी उनकी सर्वश्रेष्ट कृत्तियां हैं।
सूर-काव्य का मुख्य विषय कृष्ण भक्ति है। उन्होंने सूरसागर में श्रीकृष्ण के शैशव और किशोरवय की विविध लीलाओं का चयन किया है। भावों के चित्रण में सूर का कोई सानी नहीं है, विशेषकर वात्सल्य भाव के चित्रण में। बाल-भाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के चित्रण में सूर की तुलना किसी भी अन्य अष्टछाप के कवि नहीं किया जा सकता है।
वात्सल्य-भाव के पदों को पढ़कर पाठक जीवन की नीरस और जटिल समस्याओं को भूलकर उनमें मग्न हो जाता है। दूसरी ओर, भक्ति के साथश्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग एवं वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा कुम्भनदास, नन्ददास आदि अष्टछाप के कवियों की रचनाओं में दुर्लभ ही है। हालांकि परमानन्ददास को वियोग-श्रृंगार के वर्णन में काफी सफलता मिली है। लेकिन प्रवास-जनित वियोग के संदर्भ में सूर का भ्रमर-गीत प्रसंग तो हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ काव्य-कृति है। इस अन्योक्ति एवं उपालम्य-काव्य में गोपी-उद्धव संवाद को पढ़कर सूर की प्रतिभा और मेधा को समझा जा सकता है।
काव्य भाषा के रूप में सभी अष्टछाप कवियों ने ब्रज को अपनाया। लेकिन सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रज भाषा अपने युग में काव्य - भाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रत्मकता, अलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता, और बिम्बात्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान है। इसी प्रकार काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से सूर के सामने अष्टछाप के कवियों में सिर्फ नन्ददास ही टिकते हैं।
Question : रासो काव्य परंपरा का परिचय देते हुए पृथ्वीराजरासो की प्रमाणिकता पर प्रकाश डालिए।
(2006)
Answer : आदिकालीन काव्य की विशेष प्रवृत्ति वीरगाथात्मक काव्य लेखन थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो इसे प्रधान प्रवृत्ति मान कर इस काल का नामकरण ही वीरगाथा काल कर दिया था। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रचित वीरगाथात्मक काव्य को ही रासो काव्य के नाम से जाना जाता है। यह जैन रास काव्य से भिन्न है। इसके रचयिता चारण अथवा भाट थे, जो किसी राजा विशेष के आश्रित कवि होते थे। अतः उनकी काव्य रचना का उद्देश्य ही अपने आश्रयदाता राजा के चरित्र का वर्णन तथा उसके शौर्य एवं पराक्रम का अन्य राजाओं की तुलना में अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करना था।
इसी कारण इनके काव्य में काल्पनिक तत्वों का भी समावेश हो गया तथा ऐतिहासिकता की रक्षा नहीं हो पाई। चूंकि इन काव्यों की विषयवस्तु का मूल संबंध राजाओं के चरित्र तथा प्रशंसा से है, इस कारण इनका आकार रचनाकारों की मृत्यु के पश्चात भी बढ़ता रहा है। रासो काव्य को देखने से पता चलता है कि उनके रचयिता जिस राजा के चरित का वर्णन करते थे, उनके उत्तराधिकारी राजागण अपने आश्रित अन्य कवियों से उसमें अपने चरित भी सम्मिलित करा देते थे।
यही कारण है कि इन ग्रंथों में मध्यकालीन राजाओं का भी वर्णन मिलता है तथा भाषा में भी उत्तरवर्ती भाषा रूपों की झलक पायी जाती है। प्रमुख रासो काव्यों में दलपति विजय की रचना खुमाण रासो है। इस ग्रंथ में मेवाड़ के महाराजाओं बाप्पा रावल से महाराजा राजसिंह तक का विस्तृत वर्णन है। इसमें मुख्य रूप से राजा खुमाण का चरित्र वर्णन कवि ने आधिक विस्तार से किया है।
इसमें डिंगल भाषा का प्रयोग किया गया है। आचार्य शुक्ल ने इसका रचनाकाल 12 वीं शताब्दी माना हैं। सारंगघट द्वारा रचित हम्मीर रासो में रणथम्भौंर के शासक हम्मीर की प्रशस्ति है। इसकी रचना 14 वीं शताब्दी के आसपास की गई। अन्य रासो ग्रंथों में विजय पाल रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो तथा पृथ्वीराज रासो प्रमुख है। इसमें पृथ्वीराज रासो, रासो काव्य परम्परा का प्रतिनिधि एवं सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। आचार्य शुक्ल ने इसे हिन्दी का प्रथम महाकाव्य भी स्वीकार किया है। इस काव्य के रचनाकार चंदबरदाई हैं, जो दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान के सामंत तथा राजकवि थे। कहा जाता है कि चंदबरदाई एक मित्र की भांति सदैव पृथ्वीराज के साथ रहते थे, अतएव उन्हाेंने इस कृति में जो भी वर्णन किया है, वह उनके द्वारा देखा तथा अनुभव किया हुआ था।
चंदबरदाई को हिन्दी का प्रथम महाकवि तथा उनकी कृति को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह प्रबन्धकाव्य है, जिसके अन्तर्गत इस कृति के चरित नायक पृथ्वीराज चौहान का जीवन वृत्त प्रस्तुत किया गया है। रचनाकार ने इस ग्रंथ में अनेक घटनाओं का समावेश किया है तथा कुछ घटनाएं बाद में भी चारणों ने जोड़ी हैं, जिससे ऐसा लगता है कि यह काव्य एक घटना-कोश है, परन्तु समस्त घटना-चक्र के भीतर कवि ने अपनी रस-दृष्टि का नियोजित रूप में विस्तार किया है। अतः इसे महाभारत की तरह एक विशाल महाकाव्य मान सकते हैं।
इस काव्य में दो रस प्रमुख हैं-शृंगार और वीर। ये दोनों रस पृथ्वीराज चौहान के चरित्र के दो पार्श्व उन्मुक्त करते हैं। वह जितना वीर है, उतना हीशृंगार - प्रेमी भी। कवि ने एक ओर तो युद्धों के वर्णन में वीरता और पराक्रम की अद्भुत सृष्टि की है, दूसरी ओर रूप-सौन्दर्य और प्रेम के भी सरल चित्र उतारे हैं। नारी दोनों रसों के केन्द्र में है। उसे पाने के लिए युद्ध होते हैं और पा लेने पर जीवन का विलास-पक्ष अपनी पूरी रमणीयता के साथ उभरता है। ध्यान देने की बात है कि प्रेम और शौर्य के सभी चित्रें में कवि ने कुछ नैतिक मर्यादाओं का निर्वाह किया है, जिसके कारण रस की वास्तविकता सुरक्षित रही है। पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण प्रसिद्ध हैं।
इसके चार अलग-अलग संस्करणों में वृहतम, मध्यम, लघु और लघुत्तम हैं। लघुत्तम संस्करण में सर्वाधिक कम छंद हैं। इन चारों संस्करण को देखकर यह प्रश्न सहज रूप में उत्पन्न होता है कि इसमें से प्रमाणिक संस्करण कौन सा है? इसी से लगा हुआ वह विवाद भी बढ़ जाता है, जिसके अनुसार पृथ्वीराज रसो को एक जाली ग्रथ माना गया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह ग्रंथ इस दृष्टि से सर्वाधिक विवादास्पद रहा है। विद्वानों में कई वर्ग बन गये हैं। डॉ॰ श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, मिश्रबन्धु, कर्नल टॉड आदि विद्वानों ने माना है कि पृथ्वीराज रासो का जो संस्करण नागरीप्रचारिणी सभा से हुआ है, वही प्रमाणिक है।
दूसरा वर्ग रामचन्द्र शुक्ल, कविराज, श्यामलदान, गौरीशंकर, हरीश्चन्द्र ओझा, डा- बूलर, मुंशी देवीप्रसाद आदि विद्वानों का है, जो रासो को सर्वथा अप्रमाणिक ग्रंथ घोषित करते रहे हैं। आश्चर्य है कि शुक्लजी अप्रमाणिक मानते हुए भी उसे अपने इतिहास में आदिकाल के अन्तर्गत स्थान देते हैं। तृतीय वर्ग के विद्वान-मुनि जिनविजय, डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी, डा- हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि यह मानते हैं कि पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदायी ने ही पृथ्वीराज रासो लिखा था, किन्तु उनका मूल रूप आजकल उपलब्ध नहीं है।
चौथा मत नरोत्तमदास स्वामी का है। उन्होंने सबसे अलग बात कही है कि चन्द्र ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में रासो की रचना की थी। उनके इस मत से कि रासो मूलतः प्रबन्ध काव्य नहीं था- इस मत से अन्य कोई विद्वान सहमत नहीं है। वस्तुतः आरंभ में यह ग्रंथ विवादास्पद नहीं था। कर्नल टॉड ने इसकी वर्णन शैली तथा काव्य सौन्दर्य पर रीझकर इसके लगभग 30 हजार छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। तासी भी इसकी प्रमाणिकता में सन्देह नहीं करते थे। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने इस ग्रंथ का मुद्रण भी आरंभ कराया था। सन् 1875 ई॰ में डा- बूलर ने पृथ्वीराज विजय ग्रन्थ के आधार पर इसे अप्रमाणिक रचना घोषित किया।
फलतः राजस्थान के कुछ इतिवृत्त खोजियों-कविराज मुरारिदान, श्यामलदान, गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा आदि ने इस काव्य को अप्रमाणिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया। वस्तुतः यह विवाद इतना उलझ गया है कि अब तक कुछ विद्वान इसे अप्रमाणिक कृति सिद्ध करने में जुटे हुए हैं। वे एतदर्थ नये-नये तर्क खोजते रहते हैं। कुछ विद्वान ऐसे भी हैं, जो उनके द्वारा खोजे गये तर्कों को निराधार सिद्ध करने के लिए सामग्री जुटाते रहते हैं।
जो लोग पृथ्वीराज रासो को अप्रमाणिक रचना मानते हैं, उनका तर्क निम्नलिखित है-
यदि इन तर्कों एवं तथ्यों को ही अन्तिम प्रमाण माना जाय तो पृथ्वीराज रासो को अप्रामाणिक रचना ही कहा जा सकता है। किन्तु इसके प्रमाणिक होने के संबंध में भी कुछ तथ्यगत तर्क हैं, जो निम्नलिखित हैं-
वस्तुतः विद्वानों ने बाल की खाल खींचने की चेष्टा में अनेक ऐसे तर्क प्रस्तुत किये हैं, जो इस काव्य की प्रमाणिकता के लिए उचित कसौटी नहीं बन सकती।
पृथ्वीराज रासो ही नहीं रामचरित मानस, सूरसागर, बीजक आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों पर भी यदि अनेक प्रकार के तर्क दिया जाय तो उनकी अप्रमाणिकता भी किसी-न-किसी सीमा तक सन्देह का विषय बन सकती है। रामचरितमानस में तो प्रक्षिप्त अंश स्वीकार किये भी जाते हैं। कई ऐसे पद भी मिलते हैं, जो सूर और मीरा दोनों के नाम से प्रसिद्ध है।
अतः प्रक्षिप्तांशों या इतिहास विरोधी कथनों के आधार पर पृथ्वीराज रासो को अप्रमाणिक मानना उचित नहीं है। चन्द्र ने पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का जैसा सजीव वर्णन किया है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वह पृथ्वीराज का समकालीन कवि था। अतः पृथ्वीराज रासो को पूर्णतः अप्रमाणिक मानना उचित नहीं है। यदि इस विवाद में कोई सत्यांश झलकता है, तो वह यह कि पृथ्वीराज रासों में पर्याप्त प्रक्षिप्त अंशों का भी समावेश हुआ है।
अतः हम निष्कर्ष के रूप में अधिक-से-अधिक यही कह सकते हैं कि पृथ्वीराज रासो एक अर्ध- प्रमाणिक रचना है, जिसके रचनाकार का मूल उद्देश्य काव्य रचना करना था, न कि अपने समय के ऐतिहासिक तथ्यों को संकलित करना।
Question : सूर की राधा
(2005)
Answer : सूरदास ने अपने सूरसागर की रचना श्रीमद्भागवत् पुराण के आधार पर की है। भागवत के प्रसंगों से प्रभाव ग्रहण करके सूर ने उनको मौलिक रूप में प्रस्तुत किया है। अपने सूरसागर के कथ्य को रसमय बनाने के लिए भागवत से इतर वर्णन भी किये हैं। राधा का वर्णन उनमें से एक है। भागवत पुराण में राधा का वर्णन नहीं है। सूरदास ने जो राधा का वर्णन किया है, वह विद्यापति की, राधा की छवि है। उससे बहुत बढ़ा-चढ़ा हुआ है। सूर ने भ्रमरगीत में राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन बचपन के प्रेम से आरंभ किया है। गोपियां इसी का संकेत करते हुए कहती हैं- "लरिकाई को प्रेम कहो अलि कैसे छूटत।" ब्रज की गली में अचानक कृष्ण की भेंट राधा से होती है, वे उससे पूछने लगते हैं।
"बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति, काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज-खोरी।"
राधा से यही प्रथम भेंट दोनों के बीच धीरे-धीरे प्रेम में बदल जाता है। यह प्रेम अचानक नहीं बढ़ता, सूरदास ने वर्णन किया है कि दोनों का प्रेम एक दूसरे के घर आने-जाने, साथ खेलने से प्रगाढ़ होता चला गया। राधा के प्रेम बढ़ाने में नंद भी सहायक सिद्ध हुए। वे कहते हैं कि दोनों यहीं गायों के पास खेलना, यहां वे दूध दुहने के स्थल पर मिलते हैं। क्रीड़ा विनोद बढ़ता रहता है। इस प्रकार सूर की अपनी विशेषता यह है कि उन्होंने राधा-कृष्ण की बाल-क्रीड़ा में राधा और कृष्ण के एक दूसरे के प्रति व्यक्त प्रेम को बड़ी स्वाभाविकता के साथ चित्रण किया है। साधारण बालकों की तरह राधा अपनी माता से रूठ जाती है, जब उसे कृष्ण के यहां खेलने जाने से रोकती है- "खेलन को मैं जाऊं नहीं।
और लरिकनि घर-घर खेलत मोही को पर कहत तुहीं।"
डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूर की राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- फ्मगर प्रेम गाढ़ से गाढ़तर होता जाता है। पनघट पर ठठोली होती है, रास्ते में छेड़-छाड़ पर कहीं भी वह प्रेम उच्छ्वास के रूप में फूट नहीं पड़ता।
"सूर ने राधा का वर्णन गोपियों के साथ भी किया है और अलग से भी उसके स्वरूप को उठाया है। गोपियों के साथ विनोद क्रीड़ा में, दानलीला, मानलीला, चीरहरण, वंशीवादन, रासोत्सव में राधा भी शामिल होती है। सूर ने उनमें बार-बार प्रमुखता राधा को दी है। गोपियां राग में मग्न है, मगर सूर कहते हैं- "नंद सुत वृषभानु तनया रास में जोरी बनी"। सूर ने राधा का वियोगिनी रूप का भी विस्तार से चित्रण किया है। रासलीला के समय भी कृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर वह विरह व्यथित होकर चुप हो जाती है- फ्क्यौं राधा नहिं बोलत है" ऐसा कहकर गोपियां उसकी व्याकुलता का अनुमान लगाती है। राधा के विरहिणी रूप का सबसे अधिक हृदयस्पर्शी चित्रण सूर ने भ्रमरगीत प्रसंग में किया है, यहां राधा की विरह को मूल रूप में चित्रण किया गया है, वह प्रकट नहीं होता। एक पद में सूर ने राधा की विरह व्यथित स्थिति का जो चित्र दिया है, वह राधा के सारे विरह दुख को मूर्तिमंत कर देता है- "अति मलीन वृषभानु कुमारी।
हरि सम जल भीज्यौ उर अंचल, तिहि लालच न धुवावति सारी"। श्रीकृष्ण के ब्रज जाते समय भी राधिका के मूक विरह का ही कवि ने वर्णन किया हैः
"कंठ वचन न बोलि आवै हृदय परिहस मीन।
नैन जल भरि रोइ दीनी ग्रसित आपद दीन।"
राधा के स्वरूप विश्लेषण का नानाभांति से आख्यान मिलता है। भारतवर्ष के किसी कवि ने राधा का वर्णन इस पूर्णता के साथ नहीं किया। बाल-प्रेम की चंचल लीलाओं की इस प्रकार की परिणति सचमुच आश्चर्यजनक है। संयोग की रस-वर्षा के समय जिस तरस प्रेम की नदी वह रही थी, वियोग की ऑच से वही प्रेम सान्द्रगढ़ हो उठा। यही है सूर की राधा! विश्व साहित्य में ऐसी प्रेमिका नहीं है।
Question : बिहारी का अर्थगर्भत्व
(2005)
Answer : सतसैया के दोहरे, अरू नावक के तीर।
देखन में छोटन लगत, घाव करत गंभीर।।
हिन्दी साहित्य के मध्यकाल (रीतिकाल) के इस अन्यतम महाकवि के संबंध में यह किसी प्रशंसक की उक्ति है, जो उनके महत्व को इंगित करता है। बिहारी रीतिकाल क्या, किसी भी काल के उन दुर्लभ कवियों में हैं, जिसने इतना कम लिखकर इतना अधिक यश अर्जित किया है। 24 मात्र के छोटे दोहा छंद में लगभग 700 दोहे की रचना बिहारी ने की। ये सभी अनूठे हैं, जिसकी समता साहित्य में दुर्लभ है। यह एक ओर श्रृंगार से परिपूरित है तो दूसरी ओर अर्थ गंभीरता में भी अद्वितीय है। उदाहरण के लिए प्रथम पद ही देखा जा सकता हैः
"मेरी भवबाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झॉइ परत, स्याम हरित दुति होय।।"
इस पद में एक ओर राधा-माधव से कवि आर्शीवचन की कामना करता है, तो दूसरे ओर श्लेष अलंकार का यह बेजोड़ उदाहरण है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण को देखा जा सकता है- फ्बतरस लालन लाल की, मुरली धरी लुकाय," गोपियां कृष्ण से बातचीत का आनंद उठाना चाहती है। अतः कृष्ण की मुरली को छिपा कर रख दिया है। कृष्ण, उनसे मुरली वापस देने की याचना करते हैं। हां-ना का खेल चलता रहता है। ‘नैन और भौं (भू) का उपयोग कवि ने किस कुशलता से किया है, वह दर्शनीय है। कवि को मानव जीवन का पर्यावेक्षण कितना गहरा था यह भी देखा जा सकता है, उसके पद में प्रयुक्त शब्द कितने भावों को छिपाए हुए है, यही छिपा हुआ भाव हमें चमत्कृत कर देता है। यही कवि-शक्ति है, जिसमें बिहारी बेजोड़ हैं:
"कनक-कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।"
यहां सोना और धतूरा की तुलना द्वारा कवि ने दिखाया है कि किसमें मादकता अधिक होती है। धतूरा खाकर तो मनुष्य एक बार नशे में रहता है, लेकिन जिसे सोना की प्राप्ति होती है वह तो सर्वदा मदहोशी में ही रहता है। बिहारी के कवि शक्ति को एक अन्य पद में देखा जा सकता है-
"नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहिं काल।
अलि कलि सों जो बिंध्यों आगे कौन हवाल।।"
यहां कवि ने प्रत्यक्ष रूप से भ्रमर को संबोधित किया है कि हे! भ्रमर अभी तो कलि विकसित भी नहीं हुआ है और तू अभी से उसके मोहपाश में फंस गए, अभी ही तुम्हारा यह हाल है तो जब कलि फूल बन जाएगी तो क्या हालत होगी? अप्रत्यक्ष रूप से महाराजा जयसिंह को संबोधित है, जो अपनी नई रानी के मोहपाश में बंधकर राज-काज भूल गए थे। इसका प्रभाव यह पड़ा कि वे पुनः राजकाज की ओर अग्रसर हुए।
यही कवि का अर्थगर्भत्व है, जिससे कविशक्ति का निर्माण होता है तथा जो बिना प्रभावित किए नहीं रहती, बिहारी ने तो स्वर्णकार की भांति एक-एक शब्द इस तरह मोती की भांति गढे़ हैं कि एक तरफ वह अलंकार का उदाहरण बन गए हैं तो दूसरी ओर अपनी गंभीर अर्थवत्ता के कारण, याद किए जाते हैं। आखिर बिहारी को इसी कारण तो श्लेष का कवि कहा जाता है।
Question : हिन्दी के आदिकालीन साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षरों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
(2005)
Answer : आदिकालीन साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षरों को विषय की दृष्टि से तीन वर्गों में विभक्त किया है- धर्म संबंधी रचनाओं के रचनाकार, चारण कवि तथा लौकिक साहित्य के रचनाकार। फ्धर्म संबंधी रचनाकारों" के अन्तर्गत् नाथ, सिद्ध तथा जैन रचनाकारों का उल्लेख किया जा सकता है। वस्तुतः इन तीनों संप्रदाय के रचनाकारों का मुख्य उद्देश्य अपनी रचना के माध्यम से धर्म तथा साधना पक्ष का प्रचार-प्रसार काव्य के माध्यम से करना है। यद्यपि जैन कवियों ने केवल धर्म संबंधी साहित्य की रचना ही नहीं की है अपितु उन्होंने फ्रासो" के नाम से भी काव्य की रचना की तथा लौकिक साहित्य लेखन में भी योगदान दिया।
धर्म संबंधी रचनाकारों में सिद्ध कवियों का महत्वपूर्ण स्थान है। इन सिद्ध कवियों की संख्या 84 मानी जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लइपा, डोक्मिया, कुक्कुरिपा आदि प्रमुख है। इनमें केवल 14 सिद्धों की रचनाएं ही अभी तक उपलब्ध है। सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य को सिद्ध साहित्य कहा जाता है। यह साहित्य वस्तुतः बौद्ध धर्म के वज्रयान का प्रचार करने हेतु रचा गया। अनुमानतः इस साहित्य का रचनाकाल सातवीं से तेरहवीं शती के मध्य तक है। इन सिद्ध कवियों की रचनाएं प्रमुखतः दो काव्य रूपों में मिलती हैं- "दोहा कोष" तथा "चर्यापद" सिद्धाचार्यों के लिखित दोहो का संग्रह "दोहा कोष" के नाम से जाना जाता है तथा उनके द्वारा रचित पद "चर्यापद" या "चर्यागीत" के नाम से प्रसिद्ध है।,
सिद्ध कवियों में सरहपा का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इन्हें सरहपाद, राहुलभद्र आदि कई नामों से जाना जाता है। इनका समय 769 ई. के लगभग स्वीकार किया जाता है। माना जाता है कि इन्होंने 32 ग्रंथों की रचना की। जिनमें ‘कायाकोश’, ‘दोहाकोष’, ‘सरहपादगीतिका’ तथा ‘चर्यागीति- दोहाकोष’ प्रमुख है। ये ग्रंथ वज्रयान की विवेचना से संबद्ध है। शबरपा को सरहपा का शिष्य माना जाता है। अनुमानतः इन्होंने 16 ग्रंथों की रचना की, जिनमें ‘चर्यापद’ इनकी प्रसिद्ध कृति है। इन्होंने स्वाभाविक जीवन पर बल देते हुए, माया मोह का विरोध किया है। चौरासी सिद्धों में लुइपा का सर्वोच्च स्थान माना जाता है। ये शबरपा के शिष्य थे। इनके काव्य में दर्शन एवं रहस्य भावना का प्राधान्य है। डोम्भिपा ने 21 ग्रंथों की रचना की, जिनमें ‘डोम्बि-गीतिका’ प्रमुख है। कुक्कुरिपा ने लगभग 16 ग्रंथों का प्रणयन किया। कण्हपा ने सर्वाधिक कृतियों की रचना की। इनकी 74 रचनाएं मानी गई हैं, जिनमें ‘कण्हपादगीतिका’ तथा ‘दोहाकोष’ प्रमुख हैं। इन सिद्ध साहित्य की भाषा को अपभ्रंश तथा हिन्दी के सन्धि काल की भाषा माना जाता है। अतः इसे ‘संध्या या सन्ध्या भाषा’ का नाम दिया गया है।
नाथ योगियों की संख्या 9 मानी गयी है। इनके नाम- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, जलंधर और मलयार्जुन हैं। इस संप्रदाय का आचार्य गोरखनाथ को माना जाता है तथा मत्स्येन्द्रनाथ उनके गुरु थे। इनकी रचना काल 13वीं शती मानी जाती हैं। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या चालीस मानी जाती है, इनमें- सबदी, पद, प्राण संकली, सिष्यादासन आदि प्रमुख हैं। नाथ योगियों का काव्य सिद्ध साहित्य की तरह ही सिद्धांत प्रतिपादन हेतु लिखा गया था। इसीलिए इनका साहित्य प्रतीकात्मक शैली में रचित है। प्रतीकों के माध्यम से इन्होंने अपने मन्तव्य को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। इनके साहित्य में प्रयुक्त प्रतीकों में सूर्य, चन्द्र, गगन, कमल आदि हैं। नाथ योगियों ने आचरण की शुद्धि और चरित्रवानता पर बहुत जोर दिया।
जैन कवियों में स्वयंभू को प्रथम कवि माना जाता है। इनका जन्म सातवीं शती में हुआ। इनकी प्रमुख कृतियों में ‘रिट्ठणेमिचरिउ’, ‘पउमचरिउ’ तथा ‘स्वयंभू-छंदस’ हैं। "उपम चरिउ" इनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह जैन रामायण है तथा इसमें राम की कथा है। इस कृति के काव्य सौन्दर्य के आधार पर ही स्वयंभू को अपभ्रंश का ‘वाल्मीकि’ कहा जाता है। रिट्ठणेमिचरिउ में महाभारत और कृष्ण की कथा है। जैन कवि पुष्पदन्त का आविर्भाव काल 10वीं शती के प्रारंभ में माना जाता है। पहले ये शैव थे परन्तु बाद में जैन धर्म में दीक्षित हो गए थे। इनकी उल्लेखनीय कृतियों में ‘तिसटिट्ठिमहापुरिस गुणलंकार महापुराण’ तथा ‘णायकुमारचरिउ’ (नागकुमार चरित) है। इन दोनों कवियों द्वारा रचित ग्रंथों के अतिरिक्त मेरूतुंग की फ्प्रबंधचिन्तामणि", मुनिरामसिंह की "पाहुड़ दोह", धनपाल की "भविसपत्र कहा" भविष्यदत्त का आदि भी जैन साहित्य की उल्लेखनीय कृतियां हैं। जैन कवियों की रचनाओं में उपदेशात्मक प्रवृत्ति की प्रधानता है तथा घटनाओं की बहुलता का अभाव है।
आश्रयदाता राजा के उन आश्रित कवियों को, जो उनकी वीरता एवं प्रशस्ति का गायन करते थे तथा युद्धों में उनके साथ रहते थे, चारण कहा जाता था। चारण कवियों में चंद्र वरदाई का प्रमुख स्थान है। इन्होंने अपने आश्रयदाता पृथ्वीराज चौहान की प्रशंसा में "पृथ्वीराज रासो" की रचना की। नरपति नाल्ह ने "बीसलदेव रासो" का प्रणय किया। इस ग्रंथ में विग्रहराज (बीसलदेव) की चरित कथा है। कवि जगनिक को "परमाल रासो" (आल्ह खंड) का रचयिता माना जाता है। ये महोबा के शासक परमार्दिदेव के दरबारी कवि थे। इस ग्रंथ में चौहान शासक ‘पृथ्वीराज तथा परमार्दिदेव’ के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। मेवाड़ के शासक खुमाण के वंश का इतिहास का अंकन करने वाले दलपति विजय भी एक प्रमुख चारण कवि थे। इन्होंने "खुमाण रासो" की रचना की। अन्य चारण कवियों में मधुकर कवि तथा भट्ट केदार का नाम लिया जाता है। मधुकर कवि ने ञयमयंक जस चंद्रिका" तथा भट्ट केदार ने जयचंद प्रकाश" की रचना की, परन्तु ये दोनों रचना अब उपलब्ध नहीं है। इन चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं के यश, शौर्य, गुणों और वीरता का चित्रण अत्युक्तिपूर्ण ढंग से किया है। इनकी रचनाओं की भाषा डिंगल है। वास्तव में इन कवियों का उद्देश्य ओजपूर्ण भाषा में काव्य का सृजन कर जनता को उत्तेजित करना था, ताकि उनमें युद्ध के प्रति उत्साह का संचार हो सके। "परमाल रासो" के एक उदाहरण में इन कवियों के वर्णन शैली एवं भाषा की ओज को देखा जा सकता हैः
"बारह बरस लै कूकर जिये, और तेरह लै जिये सियार,
बरस अठारह क्षत्री जीये, आगे जीवन का धिक्कार।"
आदिकाल के उपर वर्णित रचनाकारों के अलावा एक अन्य वर्ग के रचनाकार भी थे। इस वर्ग के रचनाकारों को हम लौकिक साहित्य के रचनाकारों में रख सकते हैं। इस वर्ग के साहित्यकारों के अन्तर्गत जनता के मनोरंजन हेतु मुकरियों तथा पहेलियों की रचना करने वाले अमीर खुसरो का नाम लिया जा सकता है। आदिकाल में खड़ी बोली को काव्य की भाषा बनाने वाले वे पहले कवि हैं। ‘खालिकबारी’, ‘पहेलिया’, ‘मुकरियां’, ‘दो सुखने’, ‘गजल’ आदि उनकी प्रमुख रचना है, वैसे इन्हें सौ ग्रंथों की रचना करने का श्रेय दिया जाता है। लौकिक साहित्यकारों में विद्यापति एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। विद्यापति मिथिला के राजा कीर्ति सिंह एवं शिव सिंह के आश्रित कवि थे। हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत विद्यापति के तीन ग्रंथों की चर्चा की जाती है- कीर्तिलता, कीर्तिपताका, तथा पदावली। कीर्तिलता एवं कीर्तिपताका चरित-काव्य है तथा ‘विद्यापति की पदावली’ एक श्रृंगारिक तथा भक्तिपरक रचना है। विद्यापति को 11 संस्कृत ग्रंथों की रचना करने का भी श्रेय है। धनपाल एक अन्य लौकिक साहित्यकार है। इनका समय 10वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने "भविसत्त कहा" नामक कथाकाव्य की रचना की।
आदिकाल में काव्य-रचनाकारों के अलावा कुछ गद्य रचनाकार भी हुए। इन रचनाकारों ने गद्य-रचना की दिशा में छिट-पुट प्रयास किया। गद्य रचनाकारों में राउलवेला के रचनाकार रोडा, उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण के रचयिता दामोदर शर्मा तथा वर्णरत्नाकर के रचनाकार ज्योतिश्वर ठाकुर का उल्लेख किया जा सकता है। दसवीं शताब्दी में रचित ‘राउलवेला’ को चम्पू-काव्य की प्राचीनतम हिन्दी-कृति माना जाता है। इसी रचना से हिन्दी में नखशिख-वर्णन की श्रृंगार परंपरा का आरंभ होता है। दामोदर शर्मा ने उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण में बनारस तथा उसके आसपास के प्रदेशों की संस्कृति और भाषा पर प्रकाश डाला है। यह बारहवीं शताब्दी की रचना है। मैथिली हिन्दी में रचित गद्य पुस्तक ‘वर्णरत्नाकर’ चौदहवीं शताब्दी की रचना है। हिन्दी गद्य के विकास में ‘वर्णरत्नाकर’ का योगदान काफी महत्वपूर्ण है। इस प्रकार आदिकालीन रचनाकारों ने हिन्दी साहित्य को अपभ्रंश-साहित्य के समानान्तर विकसित किया। इन रचनाकारों ने अनेक बोलियों को एकरूपता की ओर बढ़ाकर एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। अपनी कृतियों में जीवन के विविध पक्षों का चित्रण किया तथा अनेक काव्यरूप तथा शैली-शिल्प की नींव इन्होंने ही डाली। निश्चय ही हिन्दी साहित्य को इन्होंने समृद्ध किया।
Question : भक्तिकाल को लोक-जागरण की अभिव्यक्ति क्यों कहते हैं? सतर्क उत्तर दीजिए।
(2005)
Answer : मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का पूर्व-मध्ययुग भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है। ‘भक्तिकाल’ शब्द ही अपने प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने वाला है अर्थात् इस काल में भक्तिपरक रचनाओं की प्रधानता रही है। भक्तिकाल का प्रारम्भ निर्गुण संत काव्य से होता है। इस धारा के कवियों में उन संत कवियों का स्थान है, जिन्होंने एकेश्वरवाद में आस्था व्यक्त करते हुए निर्गुण-निराकार ईश्वर की भक्ति का संदेश दिया। सामाजिक स्तर पर इन संतों ने पाखण्ड और अन्धविश्वासों का पूरी दृढ़ता से खण्डन किया। मिथ्या आडम्बरों के प्रति जैसी अनास्था, इन संत कवियों ने व्यक्त की, वैसी न तो पहले कभी कोई समाज-सुधारक कर सका था और न परवर्ती युग में किसी को वैसा साहस हो सका। संत कवि सार्वभौम मानव-धर्म के प्रतिष्ठापक थे। उन्होंने किसी भी प्रकार के जाति-पांति एवं वर्ग-भेद को नहीं मानाः
"जाति-पांति पूछे नहीं कोई
हरि को भजे सो हरि को होई।"
इन भक्तों में अधिकांश कवि निम्न जाति से संबंधित थे। इन भक्तों ने अपने-अपने काव्य में सामाजिक न्याय की बातें कही हैं। समाज में समानता लाने के लिए एवं तथाकथित नीची जातियों में सम्मान की भावना बढ़ाने के लिए यह जरूरी था कि जाति व्यवस्था का कड़ा विरोध हो। धार्मिक भेदभाव के कारण समाज कमजोर होता जा रहा था। कबीर जाति व्यवस्था पर करारा चोट करते हैं और साथ ही धार्मिक एकता की बात भी करते हैं:
" छोटि-छोटि करता तुम्हहिं जाए, तौ ग्रभवास काहे की आए।
जनमत छोटि मरत ही होति, कहै कबीर हरि की निर्मल जोति आया"
निर्गुण संतों के द्वारा तत्कालीन समाज में एक प्रकार की वैचारिक क्रांति का उदय हुआ और परंपरागत रूढि़वादिता पर इन्होंने गहरा प्रहार किया। विद्वान, दार्शनिक और पंडितों का प्रभाव एक सीमित शिक्षित वर्ग तक था, किन्तु इन कवियों की वाणी का प्रभाव सामान्य जनता पर भी पड़ा और समाज के सभी वर्गों के व्यक्ति इनसे प्रभावित हुए।
संत कवियों के पास धर्म, दर्शन, भक्ति और चरित्र-निर्माण के लिए अपना निजी संदेश था। धर्म के क्षेत्र में संकीर्णता के घोर विरोधी थे, दर्शन के क्षेत्र में अद्वैत-दृष्टि से एकेश्वरवाद के समर्थक थे; भक्ति के क्षेत्र में ये कर्मकाण्ड-रहित निष्ठा और समर्थन में विश्वास रखते थे और चरित्र-विकास के लिए आचरित सत्य को जीवन-निर्माण की कसौटी मानते थे। इसके साथ ही संतों ने समन्वय दृष्टि का स्वस्थ रूप से विकास किया। कबीर, नानक, दादू, हरिदास निरंजनी आदि संतों ने जिस रूप में अपने विचार व्यक्त किए हैं, उनका आधार कोई एक मतवाद नहीं है। अद्वैतवाद, वैष्णवों की भक्तिभावना, सिद्धों-नाथों की सहज-सरल साधना आदि का इन्होंने समन्वय किया था, फलतः सामाजिक स्तर पर इनका समन्वय ग्राह्य बन गया था। संतों ने शास्त्र वचन को प्रमाण नहीं माना। शास्त्र की अवहेलना एक कठोर चुनौती थी, विभिन्न अनुभूतियों को प्रमाण मानने से शास्त्र-मर्यादा भी शिथिल हो गई।
"मैं कहता हों आंखिन देखी
तू कहता कागद की लेखी।"
मानव को परंपरागत रूढ़ शास्त्र-परंपरा से मुक्ति केवल इन निर्गुण संत कवियों की आत्मानुभवमयी दृढ़ वाणी से ही मिली थी। वस्तुतः ये कवि अपने युग के मिथ्याडम्बरों और धार्मिक रूढि़यों के खोखलेपन से परिचित होकर ही सत्य के उद्घाटन का साहस कर सके थे। यदि निर्गुण संत-काव्य-परंपरा के भक्त कवियों की वाणी का मूल उद्देश्य पर विचार किया जाये, तो वह मानव-समाज के सामूहिक कल्याण की वाणी है। उनकी दृष्टि में मानववाद ही एक ऐसा स्तर है, जिस पर समाज की व्यवस्था संभव थी। अतः उन्होंने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक व्यापक वैचारिक क्रांति को जन्म देकर लोक जागरण लाने का प्रयास किया।
निर्गुण संत कवियों के साथ ही इस युग में ‘प्रेमाख्यान काव्य’ के नाम से एक दूसरी काव्यधारा भी प्रवाहित हो रही थी। इस धारा के अधिकांश कवि सूफी थे। इन सूफी कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास किया है। यह प्रयास प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में देखा जा सकता है। काव्य के माध्यम से समाज में भावनात्मक एकता लाने का यह प्रयास हिन्दी-भक्ति-साहित्य की सबसे बड़ी देन है। समग्र रूप में कहा जा सकता है कि सूफी सन्त-काव्य-परंपरा का समस्त काव्य सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक स्तर पर अपने पूर्ववर्ती काव्य से सर्वथा भिन्न, किन्तु जन-मानस के अत्यंत निकट है और समाज को आडम्बर से मुक्त करने वाला है। उसका संदेश-ईश्वर प्रेम के साथ मानवतावाद से भी परिपूर्ण है। भाव और भाषा के धरातल पर यह काव्य सर्वजनसुलभ और संवेद्य है, इसलिए इसे लोक जागरण का काव्य कहा जा सकता है।
भक्तिकाल की दूसरी महत्वपूर्ण काव्य धारा सगुण भक्ति का था। इन सगुण भक्ति के कवियों ने मध्ययुगीन हिन्दू जनता में जिस रूप में ईश्वर-विश्वास पैदा किया, वह अद्भुत और अभूतपूर्व था। हिन्दू जाति नैराश्यपूर्ण मनोदशा में जीवित थी, उसके लिए काव्य-रूपी संजीवनी का प्रयोग इन भक्त कवियों द्वारा किया गया और वह चमत्कारी सिद्ध हुआ। अवसाद, कुण्ठा, निराशा और दैत्य भावना से मुक्त होकर हिन्दू जाति ईश्वर के सगुण अवतारी रूप में आश्रय पा सकी। इन भक्त कवियों ने लोक-मानस को आश्वस्थ करने में माता-पिता, पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी, भाई.बहिन, राजा-प्रजा आदि पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों का वर्णन किया और उनको आदर्श की भित्ति पर प्रतिष्ठित करने में सफलता प्राप्त की। तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ इस दिशा में सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। लोक-मर्यादा की स्थापना के लिए इससे उत्तम ग्रंथ न तो हिन्दी में पहले लिखा गया था और न इसके बाद लिखा गया। तुलसी की कविता में समस्त पीडि़तों के कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता है। परहित कातरता उनकी संबल है। तुलसी लोगों को रास्ते पर लाने के लिए कहते हैं:
"परहित सरिस धरम नहीं भाई
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।"
तुलसी की भक्ति मोक्ष और निर्वाण का प्रयोजन लेकर नहीं चलती उसका प्रयोजन है समाज में गैरियत मिटाकर समता का साम्राज्य स्थापित करना।
"तुलसी ममता राम सी।
समता सब संसार।।"
तुलसीदास के सभी ग्रंथ भक्ति, प्रेम और समन्वय की दृष्टि से उच्च कोटि के हैं। उन्होंने अनेक प्रकार के समन्वय पर बल देकर समाज को वि श्रृंखला होने से बचाया। शैव, वैष्णव, सगुण व निर्गुण के बीच वैमनस्य को दूर करने का स्वस्थ एवं संयत प्रयास तुलसी ने अपने काव्य के माध्यम से किया। वे साफ शब्दों में कहते हैं:
"अगुण-सगुण दुखी ब्रह्म स्वरूपा।"
सगुण भक्ति के एक अन्य धारा कृष्ण भक्त कवियों का था। इन कवियों का मुख्य उद्देश्य कृष्ण लीलाओं का वर्णन करना था, अतः इनके काव्य में सामाजिक पक्ष लगभग उपेक्षित हो गया है, फिर भी इन कृष्णभक्त कवियों ने कृष्ण एवं गोपियों के प्रेम के माध्यम से समाज को ‘प्रेम’ का संदेश देने का प्रयास किया है। सूर ने तो अपने नायक कृष्ण से खेल-खेल में ही असूरों का संहार कराकर लोक कल्याण का संदेश देने का भी प्रयास किया है। इन्होंने कुछ पदों में अपने समय के शासन प्रबंध, समाज-व्यवस्था, राजदरबार आदि पर भी अपने स्पष्ट अभिमत दिये हैं। धार्मिक रूढि़यों पर उनकी चोट का नमूना ‘जरत ज्वाला गिरत गिर तें स्वकर काटत सीस’ पद है, तो तत्कालीन शासन व्यवस्था पर उनकी करारी मार भले अध्यात्मिक रूपक में उनके ‘जनमसाहिबी करत गयो’ शीर्षक पद में देखी जा सकती है। अतएव लोक-संग्रह भाव का कृष्ण भक्तों में अभाव नहीं था। यह बात और है कि इन भक्त कवियों ने उसकी अभिव्यक्ति सत् पर जाकर नहीं की है।
इस प्रकार सभी भक्त कवियों ने तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था के समानान्तर एक आदर्श राजनीति, सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था की मांग की। तुलसी का रामराज्य, सूर का गोकुल, जायसी का सिंहलद्वीप और कबीर का ‘अमरदेशवा’ इसी आदर्श का प्रतीक है। इन कवियों ने अपने इस आदर्श की पूर्ति के लिए लोक जागरण या जनचेतना लाने के लिए अपने-अपने ढंग से प्रयास किया। इस प्रकार सम्पूर्ण भक्ति काव्य तत्कालीन सड़ी-गली व्यवस्था के प्रति लोक-जागरण का ही काव्य है, भले ही किसी कवि के पास इसकी तीव्रता अधिक है, किसी के पास कम। परन्तु सभी भक्त कवियों का एक ही आदर्श है कि-
"नही कोई दरिदू न दुःखी न दीना,
नही कोई अकूत न लक्षणहीना।"
Question : "नवजागरण और छायावाद" विषय पर एक निबंध लिखिए।
(2005)
Answer : नवजागरण का प्रथम चरण भारतेन्दु युगीन हिन्दी को माना जाता है। इस समय साहित्य में नवजागरण परक चेतना की अभिव्यक्ति मिली है। इस काल के नवजागरण को डा. रामविलास शर्मा ने भक्तिकालीन लोक जागरण का ही विस्तार माना है, जिसमें सामंतविरोधी चेतना के साथ-साथ साम्राज्यवाद विरोधी चेतना का भी समावेश हो गया। नवजागरण का आरंभ बांग्ला साहित्य से हुआ लेकिन हिन्दी साहित्य तक आते-आते इसका स्वरूप बिल्कुल भिन्न हो चुका था। हालांकि नवजागरण की मूल प्रकृति तो देशी ही थी लेकिन यह यूरोपीय नवजागरण से भी प्रभावित था तथा इस पर भारतीय प्रबोधनकालीन चिन्तन का प्रभाव भी था। इस कारण इसमे व्यक्ति-स्वतंत्रता, उदार-मानवतावाद, बौद्धिकता, जनतांत्रिकता तथा राष्ट्रीय चेतना आदि का भी समावेश हुआ। जहां यूरोपीय नवजागरण का मूल तत्व बौद्धिकता थी, वहीं इसने बौद्धिकता को एक मूल्य के रूप में अपनाते हुए भी उसे भावुकता से संतुलित किया। इसी प्रकार समग्रता बांग्ला नवजागरण का विशिष्ट गुण है, लेकिन हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण का आगमन दो चरणों में होता है- पहले हिन्दू नवजागरण का आगमन होता है, जिसका केन्द्र बनारस बना और लगभग एक पीढ़ी के बाद मुस्लिम नवजागरण का आगमन होता है, जिसका केन्द्र अलीगढ़ बना। स्पष्ट है कि हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण का आगमन सांप्रदायिक पृष्ठभूमि में होता है। लेकिन, ठीक विपरीत स्थिति हिन्दी साहित्य और बांग्ला साहित्य में अभिव्यक्त नवजागरण के स्वरूप को लेकर है। हिन्दी साहित्य में जिस नवजागरण की अभिव्यक्ति मिली, उसमें हिन्दुओं या मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह नहीं मिलता। इसके विपरीत बांग्ला साहित्य में अभिव्यक्त नवजागरण हिन्दू रंग लिए हुए है। और उसका उदाहरण बंकिमचन्द्र का साहित्य है। यह नवजागरण राष्ट्रीय चेतना के विकास का प्रथम चरण है। लेकिन, भारत की तत्कालीन परिस्थितियां अन्य देशों से भिन्न थी, क्योंकि यह राजनीतिक दृष्टि से पराधीन था। इसलिए अपेक्षित था कि उसके नवजागरण का स्वरूप भी अन्य देशों से भिन्न होता। इन्हीं कारणों से भारतेन्दु युगीन भारत में हम नवजागरण की विशेषता के रूप में दो परस्पर विरोधी मूल्य के रूप में राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति का सह-अस्तित्व मान पाते हैं। स्पष्ट है कि यह अन्तर्विरोध इस युग की सच्चाई है तथा इस अन्तर्विरोध के मूल में तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक स्थिति मौजूद थी।
अंग्रेजी शासनकाल के दौरान ही पाश्चात्य संस्कृति के प्रगतिशील तत्वों का भारत में आगमन हुआ। यातायात और संचार व्यवस्था का विकास हुआ, कानून का शासन, पाश्चात्य शिक्षा और पाश्चात्य विचारधारा का आगमन हुआ। अंग्रेजी शासन के दौरान हुए इन सकारात्मक परिवर्तनों के प्रति रचनाकारों ने आभार प्रकट किया, जो राजभक्ति के रूप में हुई। प्रेमधन ने 1857 के बाद हुए सत्ता परिवर्तन को महारानी का उपकार माना तथा इसके लिए उनके प्रति आभार प्रकट कियाः
"लेकर राज कम्पनी के कर सौ निज हाथन,
किये सनाथ भोली भारत की प्रजा अनाथन।"
इस राजभक्ति के साथ-साथ देशभक्ति का स्वर भी सुनाई पड़ता है। देशभक्ति ही इनके साहित्य का मूल स्वर था और इसके परिप्रेक्ष्य में ब्रिटिश सत्ता का कोपभाजन बनने से बचने के लिए इन्होंने राजभक्ति का स्वर बुलंद किया। राजभक्ति के पार्श्व में देशभक्ति का स्वर बुलंद कर, ये रचनाकार पराजित भारतीय मानसिकता को तबाह कर जागृति का संदेश देना चाह रहे थे। इसलिए भारतीयों की दुर्दशा से व्यथित भारतेन्दु सामूहिक रूदन हेतु भारतीयों का आह्नान करते हैं:
रोवहु सब मिलि के, आवहु भारत-भाई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।
इस प्रकार नवजागरण काल हिन्दी साहित्य में नवीनता के प्रवेश का युग था। साहित्य को नए राह पर लाने के लिए भारतेन्दु ने इस युग में जो कार्य किया। उसे अन्य कवियों ने आगे बढ़ाया। साहित्य में जहां नए-नए गद्य विधाओं का प्रवर्तन हुआ, वहीं काव्य के विषय-वस्तु, भाषा-शैली और छंद विधानों में भी परिवर्तन आया। इस दौर के साहित्यकारों ने देश प्रेम, राष्ट्र सम्मान तथा राष्ट्रीय चेतना से संबंधित रचनाएं की। इसी का परिणाम है कि पहले से चली आ रही परंपरा एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों में परिवर्तन आया।
आधुनिक हिन्दी काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति छायावाद का उदय कब हुआ, इस पर साहित्यकारों एवं आलोचकों में काफी मतभेद है।
फिर भी मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि 1916-18 के बीच इसका उदय हुआ तथा 1935-36 में प्रगतिवाद के उदय के साथ इसका पर्यावसान हो गया। छायावाद के अर्थ को लेकर भी आलोचना-जगत् में पर्याप्त विवाद रहा है। इसका कारण यह रहा है कि ‘छायावाद’ शब्द किसी ऐसे अर्थ का बोध नहीं कराता, जिसके आधार पर छायावादी काव्य की विशेषताओं को समझा जा सके। अतः छायावाद के अर्थ को समझने के लिए हमें उन प्रवृत्तियों को समझना होगा, जो छायावादी काव्य में पायी जाती हैं। छायावादी काव्य द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता से भिन्न यह व्यक्तिक भावनाओं का काव्य था। मुक्ति की जो आकांक्षा उस युग की नयी पीढ़ी में पैदा हुई थी, वही काव्य के रूप में "छायावाद" बनकर अवतरित हुईः
छोटे से, घर की लघु सीमा में
बंधे हैं, क्षुद्र भाव
यह सच है प्रिय
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है
सदा ही निःसीम भू पर। ("पंचवटी प्रसंग")
छायावादी काव्य इसी मुक्ति का, स्वाधीनता का काव्य है। यह व्यक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का काव्य है। इसी मुक्ति की अभिलाषा ने कवियों को रूढि़यों और वर्जनाओं से संघर्ष करना सिखाया तथा प्रकृति से प्रेम करना सिखाया। यही भावना ने कवियों को राष्ट्र गौरव व राष्ट्र प्रेम का पाठ पढ़ाया और ये ही विषय उनके काव्य की अन्तर्वस्तु बने। छायावादी कवि बंधन को तो पहचान चुके थे, परन्तु मुक्ति का मार्ग उनके सामने स्पष्ट नहीं था। यही अस्पष्टता रहस्य भावना के रूप में व्यक्त हुई। छायावादी कवियों की मुक्ति की आकांक्षा काव्य-शिल्प के क्षेत्र में भी व्यक्त हुई। मानसिक स्वाधीनता ने कवियों को कल्पनाशील बनाया। उन्होंने काव्य के लिए नये-नये क्षेत्र ढूंढे। नयी भाषा ढूंढी, नया शिल्प और नये छंद ढूंढे और जब छंद का बंधन अच्छा नहीं लगा तो मुक्त छंद में भी रचनाएं की। इसी बंधन मुक्ति की अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में होती हैः
"खुल गए छन्द के बंधपाश के रजतपाश,
अब गीतमुक्त अब युगवाणी बहती अनायास।"
छायावादी कवियों की भाषा सरस, कोमल और सहज थी। द्विवेदी युगीन काव्य बर्हिमुखी थी, इसलिए उनकी भाषा में स्थूलता ओर वर्णनात्मकता अधिक थी। लेकिन छायावादी काव्य भावना एवं कल्पना प्रधान होने के कारण उसकी भाषा अधिक सूक्ष्म, चित्रत्मक तथा वक्रता प्रधान थी। छायावादी कवियों ने मुक्तक लिखे, गीत लिखे, लम्बीं कविताएं लिखीं। "तुलसीदास" ने जैसे खंड काव्य की रचना की तो कामायनी जैसा महाकाव्य की भी रचना की। काव्य शिल्प के क्षेत्र में छायावाद ने हिन्दी कविता में क्रांति ला दी।
छायावाद ने प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी जैसे महान कवि दिये। प्रसाद प्रेम और सौंदर्य के कवि है, तो निराला संघर्ष और विद्रोह के कवि हैं। भावबोध और कला दोनों ही दृष्टि से निराला में जितनी विविधता है, उतनी अन्य कवि में नहीं। महादेवी के काव्य की मुख्य विशेषता चिरंतन वेदना और एकाकीपन है। इसी कारण उन्हें आत्मवेदना का चित्रकार कहा जाता है। पंत को शिवत्व और सौंदर्य के कवि के रूप में जाना जाता है, हालांकि वे प्रगतिशीलता से भी प्रभावित रहे तथा अरविन्द के प्रभाव में वे आध्यात्म की ओर भी झुके। लेकिन उनकी समस्त काव्य यात्र शिव और सौंदर्य की ही यात्र है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से ‘छायावाद’ हिन्दी साहित्य का महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु है।
Question : कबीर का दर्शनः
(2004)
Answer : कबीर का लक्ष्य जिस प्रकार कविता करना नहीं था, उसी भांति दर्शन की गुत्थी को सुलझाना भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। किंतु भक्ति में प्रेम की विविध भाव-व्यंजनाओं के साथ-साथ कबीर की ब्रह्म, जीव, जगत्, माया आदि से संबंधित विचारधारा भी सम्मुख आयी है। इन विचारों के आधार पर ही हम उनकी विभिन्न धारणाओं को जान सकते हैं। कबीर अपने ब्रह्म को त्रिगुणातीत बताते हैं, वह सत्-रज-तम से परे है। ये जो तीन गुण हैं वह रूपात्मक सत्ता को निरूपित करता है लेकिन कबीर का ब्रह्म अरूपात्मक है। इसलिए वह इन तीनों से परे है-
"रजगुण, तमगुण, सतगुण कहिबे
यह सब तेरी माया, चौउथे पद को जो जन चीन्हे
तीन्हि परम् पदु पाया।"
कबीर का ब्रह्म चौथे पद की पहचान से ही संभव है, जो निर्गुण की ओर ले जाता है। लेकिन कबीर का निर्गुण वेदांतियों की तरह न तो निषेधात्मक है और न सगुणवादियों की तरह रूपात्मक। यह ब्रह्म निर्गुण है, लेकिन प्रेम, दया से रहित नहीं है। इससे कोई भी अपना नेह जोड़ सकता है। इसलिए कबीर का यह ब्रह्म निर्गुण होते हुए भी गुणों को विकसित करता है और गुण में रहते हुए भी उसके परे चला जाता हैः
गुण में निर्गुण, निर्गुण में गुण
आन बाट क्यों बहिये।
कबीर की माया अन्य संतों की माया के आस-पास ही है । यह सांख्यवादियों की तरह ही ब्रह्म से संबद्ध और त्रिगुणात्मक प्रकृति का हैः
"राजस तामस सातिग तीन्यूं ये सब तेरी माया"
कबीर की यह माया बहुत पापनी व्याभिचारिणी व कुलटा है। इसने समस्त संसार को अपने वश में कर रखा हैः
"तू माया रघुनाथ की, खेलड़ चढ़ी अहेड़ै।
चतुर चिकारे चुणि-चुणि मारे, कोइ द छोड़या नेडै़।।"
कबीर ने इस माया से मुक्ति के लिए उपाय भी बताया है। इससे त्रण का एकमात्र उपाय प्रभु-भक्ति है। इसी भक्ति के सम्बल से कबीर ने इसे विजित किया हैः
"कबीर माया पापणीं, फंद ले बैठी हाटि।
सब जग तो फंदै पड्या, गया कबीरा काटि।।"
कबीर संसार की सत्ता को मिथ्या मानते हैं। अद्वैतियों के ही समान उसके मिथ्या भाव को प्रकट करने के लिए सेसल, फूल आकाश-नीलिमा, धुआं-धौटहर आदि के उपमान प्रयुक्त करते हैं:
"दिनां चाटि के सुरंग फूल, तिनहि देखि कहा रह्यौ भूल।"
वे मानते हैं कि इस संसार का नाश निश्चित है, इसकी उत्पत्ति और प्रलय में कुछ समय नहीं लगता, वह भी पूर्ण अनिश्चित हैः
"ज्यू जल बूंद तैसा संसारा, उपजत बिन सत लगै न वाटा"
जगत् की उत्पत्ति के संबंध में कबीर का मानना है कि जगत ब्रह्म का ही व्यक्त रूप है तथा ब्रह्म एवं जगत् के इस संबंध को बिंब-प्रतिबिंब के सदृश्य विधान से स्पष्ट किया है।
जीव को अद्वैतवादियों की तरह कबीर ने ब्रह्म का ही अंश माना है। उनका मानना है कि समस्त जीवात्मा ब्रह्म का अंश होने के कारण एक है, किंतु अपने साकार में हमें पृथक्-पृथक् दिखाई देता हैः
"पानी ही ते हिम भया हिम हवें गया बिलाय।
जो कुछ था सोइ भया, अब कुद कह्या न जाय।।"
आत्मा (जीव) और परमात्मा (ब्रह्म) का यह पृथक्त्व माया के कारण होता है तथा माया के आवरण हटते ही आत्मा और परमात्मा पुनः एक हो जाता हैः
"जल में कुम्भ, कुम्भ में जल, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, इहि तथ कहूयों ग्यानी"
इस प्रकार कबीर का दर्शन ब्रह्म, जीव एवं जगत् में माया के कारण ही भेद की कल्पना करता है अन्यथा माया रहितता के स्तर पर ब्रह्म, जीव एवं जगत तात्विक स्तर पर एक ही है।
Question : सूर-सूर तुलसी और केशवदासः
(2004)
Answer : सूर, तुलसी और केशवदास की काव्य प्रतिभा की तुलना करते हुए किसी रीतिकालीन सूक्तिकार ने लिखा है- "सूर-सूर तुलसी ससी, उड्गन केशवदास"
इसके बाद अपने समय के कवियों पर कटाक्ष करता हैः
"अब के कवि खद्योत सम
जहं तहं करता प्रकास।।"
सूरदास की महत्वपूर्ण रचना ‘सूरसागर’ है, जो एक उन्मुक्त प्रबंध है। सूर के काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है। इन्होंने भागवत पुराण को उपजीव्य बनाकर राधाकृष्ण की लीलाओं का वर्णन सूरसागर में किया है। लीला-वर्णन में सूर का ध्यान मुख्यतः भाव-चित्रण पर रहा। जिसमें वात्सल्य भाव को श्रेष्ठतम कहा जायगा। बाल-भाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेम भावों के चित्रण में सूर का कोई जोड़ नहीं है। बालक की विविध चेष्टाओं और विनोदों के क्रीड़ास्थल मातृहृदय की अभिलाषाओं, उत्कण्ठाओं और भावनाओं के वर्णन में सूरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरते हैं। भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग एवं वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवास-जनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रसंग तो सूर की काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योक्ति एवं उपालम्भ काव्य में गोपी-उद्धव-संवाद को पढ़कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव प्रदान किया, वह तो सर्वविदित है ही। सूर की भाषा में चित्रत्मकता, आलंकारिता, भवात्मकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता तथा बिम्बात्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान है। इस प्रकार भाषा-सौष्ठव, अलंकार-योजना, अर्थ-गाम्भीर्य आदि सभी दृष्टियों से सूर का काव्य अद्वितीय है। राम भक्ति शाखा के महान कवि तुलसीदास की काव्य कला पर विचार किया जाय तो वे हिन्दी के अद्वितीय कवि ठहरते हैं। गोस्वामी जी ने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिसमें रामचरितमानस सर्वश्रेष्ठ है। उनकी सभी रचनाओं में भाव-वैविध्य विद्यमान है। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के भावों, अनुभूतियों तथा संवेगों को मनोरम और रसानुकूल अभिव्यक्ति प्रदान की है। भाव-वैविध्य के अनुरूप शैली वैविध्य भी गोस्वामी जी की रचनाओं की विशेषता है। अपने समय में प्रचलित छप्पया पद्धति, गीति पद्धति, कवित्त-सवैया-पद्धति, सूक्ति पद्धति, दोहा-चौपाई की प्रबंध-पद्धति आदि सभी काव्य-शैलियों का सफल प्रयोग तुलसी ने अपनी रचनाओं में किया है। प्रबंध-सौष्ठव, चरित्र- चित्रण, प्रकृति-वर्णन, अलंकार विधान, भाषा और छंद प्रयोग की दृष्टि से भी वे अद्वितीय कवि हैं।
केशवदास को ‘रीतिकाल का प्रर्वतक’ कवि माना जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में- रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, कविप्रिया, रतन बावनी आदि प्रमुख हैं। यदि कवित्व की दृष्टि से इनकी प्रबंध रचनाओं को देखा जाय तो रतन बावनी जो थोड़ा आदर दिया जा सकता है। इसमें वीर रस का उत्कृष्ट रूप मिलता है। रामचंद्रिका और रतन बावनी के अतिरिक्त इनकी शेष प्रबंध रचनाएं कवित्व की दृष्टि से साधारण कोटि की ही कही जाएगी। जहां तक मुक्तक रचनाओं का प्रश्न है तो इसके रचयिता रसिक होते हुए भी रस का समुचित परिपाक करने में पूर्ण रीति से समर्थ नहीं हो सका है। अभिव्यंजना की दृष्टि से केशव का समग्र साहित्य शिथिल कहा जाएगा। छंदों के प्रयोग में भी अनगढ़पन नजर आता है और भावों की मौलिकता तो इसमें है ही नहीं-अधिकांश विदग्ध-उक्तियां संस्कृत की उक्तियों का ब्रजभाषा में रूपांतर मात्र है। इस प्रकार समग्र रूप से काव्य कला की तुलना सूर, तुलसी और केशवदास से की जाय तो उपर्युक्त उक्ति सही जान पड़ती है।
Question : ‘पृथ्वीराज रासो में श्रृंगार और वीर रस युगीन जीवन-गौरव का प्रतिबिम्ब है।’ समीक्षा कीजिए।
(2004)
Answer : किसी भी साहित्यिक कालखंड में रचित साहित्य में जो प्रवृत्तियां उभरकर सामने आती हैं, उसका संबंध तदयुगीन परिवेश से होता है। पृथ्वीराज रासो की रचना हिन्दी साहित्य के आदिकाल में हुई। इसके रचनाकार चन्दवरदायी दिल्ली और अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान का सामन्त और राजकवि थे। इस काव्य में दो प्रमुख प्रवृत्तियां सामने आती हैं- श्रृंगार और वीर। ये दोनों प्रवृत्तियां उस समय (आदिकाल) के परिवेश से घनिष्टता के साथ जुड़ा हुआ है। चन्दवरदायी ने तत्कालीन परिवेश से ही रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त कर, इस ग्रंथ की रचना की। आदिकालीन साहित्य पृथ्वीराज रासो की रचना देश के पश्चिमी छोर पर की थी और इस क्षेत्र में जितने भी रासों काव्य की रचना की गयी उनकी प्रधान प्रवृत्ति वीरगाथात्मकता और श्रृंगारिकता ही रही। इसका कारण यह है कि आदिकालीन भारत का पश्चिमी भाग आंतरिक अशांति और बाह्य आक्रमण से त्रस्त था। इस समय का भारतीय राजनीतिक इतिहास हिन्दू सत्ता के अवसान और इस्लामी सत्ता के विस्तार को रेखांकित करता है। इन्हीं परिस्थितियों ने ऐसी मनःस्थिति को जन्म दिया, जिसमें जनता का एक वर्ग लड़ते हुए जीना चाहता था और मरते-मरते भी जीवन का रस भोग लेना चाहता था। इन्हीं परिस्थितियों की उपज पृथ्वीराज रासो है। इस काव्य के रचनाकार कवि चन्दवरदाई पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि हैं और जैसा कि हम जानते हैं, कवि चंद्र और पृथ्वीराज बचपन के मित्र थे तथा दोनों की मृत्यु भी साथ-साथ हुई। चंदवरदाई युद्धादि में सदैव पृथ्वीराज के साथ ही रहते थे। स्पष्ट है कि कवि चंद एक हाथ में यदि लेखनी धारण करते थे तो दूसरे हाथ में तलवार। वे अपने प्रबंध के रचयिता भी हैं और उसका एक पात्र भी है, जो तत्कालीन स्थितियों को अच्छी तरह भोगा था। इसी कारण उन्होंने अपने ग्रंथ में पृथ्वीराज द्वारा किए गए युद्धों का अत्यंत सजीव वर्णन तथा पृथ्वीराज के रण-कौशल का सशक्त चित्रण किया है। चन्दवरदाई में व्यूह रचना की अद्भुत क्षमता है। वे पृथ्वीराज और मोहम्मद गोरी के मध्य युद्ध को अपनी आंखों से देखकर रचना में उतारा है। लेकिन साहित्कार का काम केवल वस्तु-स्थिति का चित्रण नहीं है, वरन् दबे भाव को सामने लाना है, हार को जीत में बदलना है और हृासोन्मुख होने से बचाना है। चंदवरदाई एक साहित्यकार के रूप में अपने इस दायित्व से वाकिफ थे। उन्होंने पराजित भारतीय मानसिकता को तबाह कर अपने आशावादी दृष्टिकोण का परिचय दियाः
‘चार बांस चौबीस हाथ, अष्टांगुल प्रधान
एतो पे सुल्तान है, मत चूको चौहान।’
इस तरह का अन्त बैगर राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हुए संभव नहीं है। स्पष्ट है कि कोई भी रचनाकार ऐतिहासिक घटनाओं को साहित्यिक संवाद के रूप में ही प्रस्तुत करता है।
यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि पृथ्वीराज रासो में जो राष्ट्रीयता का स्वरूप है, वह युगीन परिस्थितियों के अनुरूप ही अत्यन्त संकुचित एवं संकीर्ण है। आदिकाल में देश छोटे-छोटे रियासतों में बांटा हुआ था। उन रियासतों के राजा अपने छोटी सी रियासत को ही राष्ट्र मानते थे तथा ये अपने पड़ोसी राज्यों के भूमि अर्जन, उनका मानमर्दन और नारीलिप्सा। के लिए युद्ध करना गर्व की बात समझते थे। प्रतिस्पर्द्धा, प्रतिशोध एवं विलासिता की प्रवृत्ति की वजह से रियासतों में वैमनस्य था। झूठे स्वाभिमान की रक्षा के लिए अधिकांश युद्ध लड़े गए। इनके आपसी झगड़ों ने एकता को समाप्त कर दिया, जिसके कारण विदेशी आक्रमण के खतरे को जानते हुए भी ये एकजुट नहीं हो पाते थे। इन राजाओं की सबसे बड़ी कमजोरी थी कि अपनी व्यक्तिक योग्यता एवं वीरता को सांगठनिक क्षमता में नहीं बदल सके थे। जनता को इन राजाओं की स्वार्थ प्रेरित युद्धों से कोई लेना-देना नहीं था तथा वह इनके युद्धों से उदासीन थी। स्वयं पृथ्वीराज ने चौदह विवाह किया था एवं हर विवाह के लिए एक युद्ध किया था। स्पष्ट है कि इस काल में अधिकांश युद्ध राजाओं के ऐयाशी के लिए ही लड़े गए, न कि राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य की रक्षा के लिए। अतः पृथ्वीराज रासो में जो वीर रस का जो स्वरूप है, वह इन्हीं राजाओं सामन्तों की वीरता का गौरव है। जो इस युग की परिस्थितियों से ही प्रेरित है।
जिस तरह जीवन में शौर्य एवं प्रेम को अलग-अलग वर्गों में बांटा नहीं जा सकता उसी तरह काव्य में भी पृथ्वीराज रासों में शौर्य और श्रृंगार का आस-पास का संबंध है। प्रेम शौर्य के लिए उकसाता है। चंदवरदाई के इस काव्य का आधा भाग यदि शौर्य के सजीव चित्रों से भरा है तो आधा भाग श्रृंगार के कोमल दृश्यों से सजा है। जैसा कि आचार्य शुक्ल आदिकाल की प्रवृत्तियों के विश्लेषण के क्रम में कहते हैं कि इस काल में यदि राजनीतिक कारणों से भी युद्ध हो रहे थे तो वहां भी इन कारणों का उल्लेख न कर रूपवती स्त्री को इस कारण कल्पित करके रचना की जाती थी। इसका अर्थ है कि इस प्रेम के पीछे शासकों और उसके आश्रित कवियों का भोग लिप्सा था। इसी का प्रभाव या छाया पृथ्वीराज रासों में भी देखा जा सकता है। पृथ्वीराज के चौदह-चौदह विवाहों का उल्लेख इस ग्रंथ में है, साथ ही प्रत्येक विवाहों के लिए युद्ध का भी वर्णन है। पृथ्वीराज ‘संयोगिता स्वयंवर’ में जाने से पहले अपनी पत्नी ‘इक्षिनी’ से आदेश लेने जाते हैं, तो वह कहती हैः
‘आम बौरा गये हो
कदम फूल चुके हो,
भौरे भावमत होकर झूम रहे हो
मकरन्द की झड़ी लगी हो
तब कोई युवती रमणी अपने
प्रियतम को घर से बाहर जाने की
अनुमति कैसे दे सकती है।’
दूसरी पत्नी शशिव्रता प्रसंग में चन्दवरदाई ने विरहजन्य भावों को गाढ़ा बनाने के लिए षड् ऋतु वर्णन का सहारा लिया है। चन्दवरदाई ने वयः संधि (13 से 19 वर्ष की युवती) से गुजरती हुई, युवती का अनुपालन करते हुए भी नवीनता का समावेश किया हैः
‘राका औरू सूरज्ज विच
उदय अस्त दूहू बेर
बरस शशिव्रता शोभई
मानो श्रृंगार सुमेर।’
यहां शशिव्रता के शरीर को ही सुमेरू पर्वत बना दिया गया है। जिसमें एक ओर किशोरावस्था का सूर्य डूब रहा है एवं दूसरी ओर यौवनावस्था का चांद उग रहा है और इन दोनों के आभा से श्रृंगार मूर्ति शशिव्रता खिल उठी है।
पृथ्वीराज रासो में नारी का सौन्दर्य चित्रण परिपाटी के अनुकूल किया गया है, लेकिन मौका मिलते ही इसके रचनाकार ने मौलिकता दिखाने का भी प्रयास किया है। इस ग्रंथ में संयोग श्रृंगार के साथ-साथ वियोग श्रृंगार का भी चित्रण किया गया है। लेकिन इसमें वर्णित प्रेम का स्वरूप भोगवादी ही है, सात्विक नहीं। कवि चंदवरदाई ने इसमें श्रृंगार के संयोग पक्ष पर ही ज्यादा जोर दिया है तथा प्रेम के नए-नए रोमांस प्रस्तुत किया है। पृथ्वीराज रासो में प्रेम की गहराई या सात्विकता का अभाव तत्कालीन शासकों की भोग-लिप्सा को ही जाहिर करता है।
इस प्रकार पृथ्वीराज रासो का श्रृंगार और वीर रस पृथ्वीराज चौहान तथा उस जैसे अन्य तत्कालीन शासकों की मनोवृत्तियों को ही दिखाता है। ये शासक समाज अपनी अतिशियोक्ति पूर्ण वीरता के कारनामों का बखान करना तथा सुनना गौरव की बात समझते थे, तो स्थूल प्रेम के वर्णनों के माध्यम से अपनी भोगवृत्तियों को तुष्ट करना चाहते थे। अतः हम कह सकते हैं कि पृथ्वीराज रासो में वर्णित श्रृंगार और वीर रस तत्कालीन शासक वर्ग का (जनता का नहीं) जीवन गौरव का प्रतिबिम्ब है।
Question : विद्यापति के कृष्ण
(2003)
Answer : विद्यापति प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। सौंदर्य कवि का दर्शन है और यही उनकी जीवन-दृष्टि है। इनकी तीन रचनाएं प्रसिद्ध हैं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका एवं पदावली। पदावली विद्यापति के यश का आधार है। इसमें राधा-कृष्ण संबंधित पद भी है। इन पदों में राधा-कृष्ण अपना अलौकिकत्व छोड़कर लौकिक व्यक्तियों के समान प्रेम-भावना में विह्वल होते हैं। लोक में जिस प्रकार किशोरी दुर्निवार प्रिय मिलन और लोक लाज के कारण तीव्र अंन्तर्द्वन्द्व झेलती है, उसी प्रकार राधा को चित्रित किया गया है। लेकिन कुछ लोग विद्यापति की पदावली में रहस्यवाद का दर्शन करते हैं और उन्हें विद्यापति के कृष्ण में अलौकिकता का अभास मिलता है, और कृष्णा के रूप में ब्रह्म का दर्शन प्राप्त होता है। लेकिन विद्यापति के कृष्ण वास्तव में श्रृंगार से अभिभूत सामान्य नायक ही है, ये अलौकिक प्रेमी और श्रृंगारी के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। तभी तो विद्यापति राधा के रूप को वर्णन कर बार-बार कृष्ण को उससे मिलने के लिए प्रेरित करते हैं:
भनइ विद्यापति सुनउ मुरारि, सुपुरूख बिलसरा से बर नारि।।
विद्यापति कह सुनह मुरारि। बसन लागल भाव रूप निहारि।।
विद्यापति भक्तिपरक पदों में वे विशुद्ध भक्त के रूप में अवतरित नहीं होते हैं। आचार्य शुक्ल, राम कुमार वर्मा, बाबूराम सक्सेना प्रभृति विद्वानों का मत है कि विद्यापति विशुद्ध रूप से श्रृंगारी कवि है और उनका कृष्ण सामान्य नायक है अर्थात् उनके पदों में जो राधा-कृष्ण का उल्लेख है ,वह रीतिकालीन कवियों के पदों में हुए उल्लेख-‘राधा कन्हाई सुमिरन को बहानों है’ का ही रूप है। विद्यापति के कृष्ण को एक श्रृंगार प्रेरित दक्ष नायक के सभी गुण मौजूद हैं, क्योंकि इनके कृष्ण संयोग की स्थिति में अतिशय कामुक सिद्ध होता है। वियोग की स्थिति में भी उनके नायक में वासना युक्त श्रृंगारिक भावना ही नजर आता हैः
‘से बिनु राति दिबस नहीं भावएं, ताहि रहत मन लागी’
इस प्रकार विद्यापति के कई पदों से स्पष्ट होता है कि उन्होंने राधा-कृष्ण के बहाने से नायक-नायिका के विरह-मिलन का सूक्ष्म और मार्मिक चित्रण किया है। यहां तक कि अपने भक्ति परक पदों में अधिकांशतः राधा-कृष्ण की संयोग लीलाओं का वर्णन ही अधिक किया है, जिसमें सात्विकता का अभाव तो है ही, कहीं-कहीं तो अश्लीलता की सीमा तक पहुंच गया है। इस प्रकार इनके कृष्ण ब्रह्म अवतारी अलौकिक कृष्ण न होकर काम की इच्छा से सम्पन्न दक्ष नायक ही हैं।
Question : जायसी कृत कन्हावतः सांस्कृतिक संगम
(2003)
Answer : मलिक मुहम्मद जायसी एक सूफी कवि हैं और इनकी प्रसिद्धि का आधार कन्हावत या पद्मावत है। इस ग्रंथ में चितौड़ के राजा रतनसेन तथा सिंहल द्वीप के राजकुमारी पद्मावती के बीच होने वाला प्रेम व्यापार का मार्मिक चित्रण है। पर जायसी अपने इस ग्रंथ में प्रेम का चित्रण करके ही नहीं रह जाते। वे बीच-बीच में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच चलने वाले संघर्ष को समाप्त कर समन्वय की भावना लाने का भी संदेश देना नहीं भूलते। वे इस सांस्कृतिक समन्वय या सामाजिक सौहार्द व प्रेम के जरिये ही लाना चाहते हैं। वे स्वयं भी प्रेम को ‘साध्य’ मानते हैं क्योंकि इसी प्रेम के बदौलत मनुष्य बैकुण्ठी हो सकता हैः
‘मानुष प्रेम भयहुं बैकुंठी
ना ही तो का छार भर मुठ्ठी।’
जायसी ने अपने कन्हावत (पद्मावत) में अलौकिक प्रेम तत्व की व्यंजना भले ही निरंतर स्थान-स्थान पर की है, पर उनके सामने अपने युग के समाज की पुरी विडम्बनाएं और सत्ता संघर्ष रहा है और रचनाकार के रूप में रंगमंच पर घटित इस सारे रंग विधान को उन्होंने तटस्थ दृष्टि से देखा है। इन्हीं परिस्थितियों में जायसी ने अपने इस ग्रथ में हिन्दू तथा इस्लाम दो संस्कृतियों का संघर्ष व्यंजित करते हुए एक समन्वित मानवीय संस्कृति की खोज करने का प्रयास किया है। हिन्दू और तुर्क शक्तियों के टकराहट के धार्मिक उन्माद के लहराते हुए इस सागर की तरंगों में रूप ग्रहण करते निर्मल भाव की व्यंजना का प्रयत्न कन्हावत में किया गया है जो प्रेम का व्यापक मूल्य है, मनुष्य की सच्ची उपलब्धि है।
जायसी ने अपने ग्रंथ कन्हावत में हिन्दू घरों में प्रचलित कहानियों को चुना और इस तरह हिन्दू लोकमानस के समीप आने का प्रयास किया। उनके इस काव्य में सूफी दर्शन से संबंधित उतने प्रतीक नहीं मिलते, जितने कि वेदांत दर्शन से संबंधित प्रतीक। कन्हावत में (तोता) आत्मा का प्रतीक है एवं पिंजड़ा शरीर का। योगदर्शन, आत्मानुवेषण और आत्मशोध का दर्शन है। इसकी ओर इशारा करते हुए जायसी कहते हैं:
‘गढ़तस बांक जैसी तोरी काथा
परखि देखि ते अरही की छाया
पाइये बाहि जुझि हठ जिन्हें
जेहि पावा ते आपहु चिन्हें।’
यहां हठयोग का विरोध नहीं है, बल्कि योग के अन्तरालिक क्रियाओं से अपने ही भीतर उस ब्रह्म को पाने का रास्ता बताया गया है। जब यह जीवात्मा उस ब्रह्म या परमात्मा से एकाकार हो जाती है तो सारा भेद परीसीमित हो जाता है।
जायसी की यह स्वीकृति दर्शन तक ही नहीं है। वे कन्हावत में अवधी भाषा का प्रयोग किया है लेकिन लिपि फारसी है। वे इस ग्रंथ में हिन्दू कथाओं को ही सिर्फ नहीं अपनाया है, बल्कि हिन्दुओं के लोक-विश्वास, शकुन-विचार, जादू-टोना, तीर्थ-व्रत, लोक-व्यवहार आदि का भी समावेश किया है। स्पष्टतः यह ग्रंथ दो संस्कृतियों हिन्दू और मुस्लिम का संगम है।
Question : केशवदास की रामचन्द्रिका में संवाद योजना
(2003)
Answer : नाटक, उपन्यास, कहानी, प्रबंध काव्य आदि में पात्रों के बीच जो वार्ताएं होती हैं, उसे ही संवाद कहा जाता है। प्रबंधकाव्य में संवाद या कथोपकथन के माध्यम से ही कवि को कुछ न कुछ अथवा सब कुछ कहने का अवसर मिलता है। इससे काव्य की कथा का विस्तार तो होता ही है पात्रों के चरित्र-चित्रण में सहयोग मिलता है। इसके अलावा कथावस्तु में रोचकता एवं मनोहारिता आती है। लेकिन संवादों में शिथिलता के कारण कथानक में व्यवधान भी पैदा हो जाता है। अतः सफल संवाद वही है जो चरित्र-चित्रण में पूर्ण सहयोग प्रदान करे।
केशवदास की रामचन्द्रिका में कई संवाद हैं, जैसे- राम-लक्ष्मण संवाद, सीता-हनुमान संवाद, रावण-अंगद संवाद, राम-पशुराम संवाद, रावण-अंगद संवाद, सीता-रावण संवाद आदि। इन संवादों में कुछ संवाद काफी विस्तृत हैं, जैसे- राम-पशुराम संवाद, रावण-अंगद संवाद आदि। कुछ संवाद काफी संक्षिप्त हैं, जैसे- सीता-रावण संवाद, सीता-हनुमान संवाद आदि।
केशवदास की रामचन्द्रिका में संवाद योजना की प्रशंसा करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि- ‘रामचन्द्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में। इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है (जैसे, लक्षमण, राम, परशुराम संवाद तथा लव-कुश के प्रसंग के संवाद) तथा वाक्पटुता और राजनीति के दावपेंच का अभास भी प्रभावपूर्ण है। उनका रावण-अंगद संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त और सुंदर है। ‘वास्तव में केशव के संवादों से कथावस्तु के सायक् विस्तार में मदद मिलती है तथा कथा को रोचक एवं ग्रा“य बनाने में भी इनकी संवाद योजना सफल रही है। चरित्र विकास में भी काफी सहायक हैं। एक उदाहरणः
रावण सीता का अपहरण करके उसे लंका तो ले जाता है किन्तु उसके मन को वशीभूत नहीं कर पाता। अतः वह राम की बुराई करते हुए कहता हैः
‘कृतहनी कुदाता कुलन्याहि चाहै। हितू नग्न मुंडीन को ही सदा है’
अनाथै सुन्यों मे अनाथानुसारी। वसै चित्त दंडी जटी मुंडधारी।।
रावण के ये शब्द उसकी नीति-निपुणता एवं मनोवैज्ञानिक ज्ञान के परिचायक हैं। रावण की इन कुशलतापूर्ण बातों का उत्तर सीता भी कुशलता से देती हैं
‘मति तनु धनु रेखा नेक नाकी न जाकी।
खल सर रवर धारा क्यों सहै तिच्छ ताकी।।’
केशव के संवादों में वस्तु-ध्वनि एवं अलंकार ध्वनि की योजना सर्वत्र देखा जा सकता है। इनकी संवाद योजना में संक्षिप्तता, स्वाभाविकता तथा अभिनेयता के गुण सर्वत्र मिल जाते हैं। ये संवाद असिधार के समान तीक्ष्ण है तथा अपनी लक्ष्य सिद्धि में काफी सफल हुए हैं। इन संवादों में कहीं भी शिथिलता नहीं आई है।
Question : ‘भक्ति साहित्य सचमुच सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण की उपज है’- इस कथन की समीक्षा कीजिए।
(2003)
Answer : भक्ति काव्य महज सर्जनात्मक साहित्य नहीं है, बल्कि वह धर्म, संस्कृति और सामाजिक मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन भी है। वह गहरे मानवीय सरोकारों से उपजा है। इस मानवीय सरोकार के कारण ही इसमें एक ओर सामंतवाद विरोधी चेतना मौजूद है, तो दूसरी ओर ब्राह्मणवादी पुरोहित वर्चस्व वाली व्यवस्था के विरूद्ध उग्र विद्रोही स्वर, जाति संप्रदाय और क्षेत्र विशेष की सीमाओं को अतिक्रमित करता हुआ, भक्ति आंदोलन भारत की करोड़ों, जनता के बीच अपनी पहचान बनाती है। सच तो यह है कि यह एक लम्बे सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद का प्रतिफल है। यह संवाद उतर भारत और दक्षिण भारत के बीच (लोक और शास्त्र), हिन्दू और इस्लाम के बीच और अतीत एवं वर्तमान के बीच चल रहा था। पूरा का पूरा संवाद ज्ञान के आलोक में अज्ञान के विरूद्ध था। इसीलिए तो जागरण का सातत्य भक्तिकाव्य का मूलस्वर है। इसी का आह्नान करते हुए तुलसी को विनय पत्रिका में लिखना पड़ा
‘अब लौ नसानी अब न नसैहो
रामकृपाभव-निसा सिरानी
जागे फिरि न डसै हो।’
यह जागरण अज्ञान से मुक्ति है। और इसे व्यक्त करते हुए कबीर कहते हैं
‘संतों आई ज्ञान की आंधी रे
भ्रम की टाटी सबै उड़ा ली
माया रहीं न बांधि रे।’
भक्ति साहित्य में सांस्कृतिक संवाद की वजह से ही निर्गुण और सगुण, ज्ञान और भक्ति, सनातनता और सृजनात्मकता में द्वन्द्व कम और सहअस्तित्व अधिक पाते हैं। यदि तुलसी का मार्ग सगुण भक्ति है तो फिर ज्ञान पर इतना जोर क्यों देते हैं?
‘नहीं ज्ञान सम सुख जग माही’
कबीरदास जी ज्ञानमार्गी हैं लेकिन शास्त्र की केन्द्रीय सत्ता ‘शब्द’ को नकार नहीं सकते
‘शब्दे वेद पुराण कहत है
शब्दे सब ठहरावे’
तुलसीदास सगुण मार्गी होने के कारण अवतारवादी हैं। उनके राम विष्णु के अवतार हैं। कबीर अवतार विरोधी हैं और राम एवं कृष्ण का भेद नहीं कर पाते हैं, परन्तु कहते तो हैं, अवतार की ही बात। यह उस युग की अवतारवाद का ही प्रभाव थाः
‘अजामिल, गज गणिका सब पतित करम
किन्हा सेउं उत्तर पार गये’
राम नाम लीन्हा।’
स्वयं तुलसी में सनातनता एवं सृजनात्मकता का बड़ा गहरा द्वन्द्व है। तुलसी की सनातनता कहती है- ‘होइहें सोई जो राम रचि राखा। उनकी सृजनात्मकता सावधान करती है-‘जो जस करहि तस फल चाखा।’ इधर कबीरदास जी निर्गुण ब्रह्म के उपासक है, लेकिन वे भी सगुण रूप को नकारते नहीं
‘नाम निरंजन नयनन मध्ये
नाना रूप धरन्त।’
कबीर के लिए गुण में ही निर्गुण है एवं निर्गुण में ही गुण समाया हुआ है। तुलसी के लिए- ‘अगुण-सगुणदुयी ब्रह्म स्वरूपा’।
यदि भक्तिकाल में निगुर्ण और सगुण के बीच में ज्ञान और भक्ति के बीच में, सनातन और सृजनात्मकता के बीच में एक दूसरे को स्वीकारने और सहने की प्रवृत्ति मिलती है तो यह सांस्कृतिक संवाद की वजह से ही। इस संवाद की वजह से ही पूरे भक्तिकाल में अलग-अलग धाराओं के बीच एक ही स्वर सुनाई पड़ता है। और दो विरोधी प्रवृत्तियों के बीच संवाद तभी स्थापित होता है, जब जागरण हो या एक दूसरे को जानने समझने की उत्सुकता हो। अतः भक्ति साहित्य इसी सांस्कृतिक जागरण का साहित्य है।
भक्तिकाव्य का अपना एक सामाजिक अभिप्राय है। यहां भक्ति और नैतिकता एक नये संकल्प के रूप में उभरती है। पहली बार हम देख पाते हैं कि भक्ति और सामाजिक यथार्थ के बीच एक क्रिया-प्रतिक्रिया है। भक्ति अपने आध्यात्मिक आग्रह की हठवादिता त्यागकर सामाजिक स्वरूप अख्तियार करती है। इसमें दो राय नहीं है कि भक्ति आंदोलन में कुछ विरोधमूलक स्थितियां भी पैदा हुई, लेकिन आमतौर पर यह भक्ति आंदोलन तत्कालीन समाज की समस्त दबी-छिपी हुई सच्चाइयों को सामने लाता है। इसका प्रभाव यदि आज भी समाज में मौजूद है, तो इसलिए कि अपने समय के इतिहास एवं समाज में इसकी जड़ें दूर-दूर तक धसी एवं फैली रही हैं। उसमें यदि अपने समय के वास्तविकताओं का चित्रण है तो उसकी आलोचना भी। उसमें यदि तत्कालीन सामंती सत्ता के क्रूरता का चित्र है तो उसके विरोध का साहस भी है। एक तरफ व्यवस्था की साजिशों एवं षड्यंत्रों पर बेवाक टिप्पणी करता है, तो दूसरी तरफ जनता की निर्द्वन्दता और निर्भयता को भी प्रकट करता है। सम्पूर्ण भक्ति साहित्य समानता और लोकमंगल की चाह लिए जनता का साहित्य है। समानता के इसी चाह को स्वयं वर्णव्यवस्थावादी होते हुए भी, व्यक्त करते हैं तथा उच्चवर्ण और उच्चवर्ण की उच्चता की खबर लेते हैं:
‘ऊंच निवासू, नीच करतूती
देख न सकही पराई विभूति।’
कबीर तो स्वयं को उच्च वर्ण का मानने वाले से सीधे-सीधे प्रश्न करते है- ‘तू जो बामण बामनी जाय, आन बाट ह्नै क्यों नहीं आया।’ तुलसी समस्त पीडि़तों के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध हैं, परहित कातरता उनकी संबल है। वे लोगों को रास्ते पर लाने के लिए कहते हैं-
‘परहित सरिस धरम नहीं भाई
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।’
तुलसी की भक्ति मोक्ष और निर्वाण का प्रयोजन लेकर नहीं चलती, उसका प्रयोजन है समाज में गैरियत मिटाकर समता का साम्राज्य स्थापित करनाः
तुलसी ममता राम सी।
समता सब संसार।।
महज यह तुकबंदी नहीं है, बल्कि तुलसी का जीवन दर्शन है। तुलसी ने यदि तत्कालीन समाज में विभिन्न विरोधी मतों में सामंजस्य स्थापित किया तो सामाजिक विकास के लिए। उनके कविता के नायक तो जन्म से ही लोकमांगलिक कार्यों से बंधे हैं- ‘राम जन्म जन मंगल हेतु’। इधर सूरदास के प्रेमी कृष्ण भी खेल-खेल में असुरों का संहार कर लोकमंगल का कार्य करते हैं। कबीर, रैदास आदि संत तो जीवन भर जातिवाद के कोड़े से लहूलुहान होते रहे हैं-
‘जात न पूछौ साधु की
पूछ लीजिय ज्ञान’
इसी जातिवाद से आहत होकर इसका विरोध करते हैं और ईश्वर के एकत्व का बोध कराते हैं: ‘एक बून्द ते विश्व रचौ है
को बामन को सुदा।’
नामदेव भी इस जात-पांत वाली व्यवस्था का कुछ इसी तरह विरोध करते हैं:
‘कहा करौ जाति कहा करौ पाति
राम के नाम जपौ दिन राती।’
तत्कालीन समाज की एक मुख्य समस्या सम्प्रदायवाद था और इन भक्त कवियों ने वह चीत्कार सुनी थी, जो संप्रदायवाद के दो पाटों में पिसी हुई जनता के मुख से निकली थी। इस कबीर ने संप्रदायवाद के असलियत को सामने रखा और बताया कि यदि हिन्दू और मुसलमान एक ही ईश्वर के सृजन हैं, तो उनके अलग-अलग सांप्रदायिक वजूद का क्या मतलब रह जाता है। उन्होंने संप्रदायवाद के खूनी खेल को देखा था, उससे आहत हुए थे। तभी तो कबीर ने दोनों को फटकार लगाईः
‘हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी, तुर्कन की तुर्काइ
अरे इन दोउ राह न पाई।’
दादूदयाल ने हिन्दू और मुसलमान को एक ही शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में देखा और चाहा है कि दोनों में सच्चा बंधुत्व विकसित होः
‘दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान
दोनों भाई आंख है, हिन्दू-मुसलमान’
जायसी तो प्रेम के जरिय समाजिक सौहर्द लाना चाहते हैं। जायसी तथा उस समय के अन्य सूफी कवियों ने हिन्दू धर्म में प्रचलित प्रेम कथाओं को उन्हीं की भाषा में कहकर हिन्दुओं के मन में बैठे हुए परायेपन के बोध को खत्म करना चाहा। उनके लिए प्रेम है ‘साध्य’, क्योंकि इसी प्रेम के बदौलत मनुष्य बैकुण्ठी हो सकता है
‘मानुष प्रेम भयहुं बैकुंठी
ना ही तो का छार भर मुठ्ठी।’
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सभी भक्त कवियों ने सबसे श्रेष्ठ मनुजत्व को ही माना है। इस मनुजत्व के सामने हर वस्तु, हर प्रथा या मान्यता, यहां तक की स्वयं देवता भी पीछे हैं:
‘बड़ा भाग मानुष तन पावा
सूर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।’
चंडीदास ने इसी मनुजत्व को सबसे बड़ा सत्य स्वीकारा है- ‘सवार ओपरे मानुष सत्या’। वे कहते हैं कि देवताओं को भी अपनी विश्वसनीयता प्रमाणित करने के लिए मनुष्य रूप ही धारण करना पड़ा है, क्योंकि मनुष्यता ही विश्वास की कसौटी है।
इस प्रकार समस्त भक्त कवियों ने अपने सामाजिक-सांस्कृतिक अभिप्रायों को अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। हालांकि इसके लिए वे धर्म का सहारा अवश्य लेते हैं, लेकिन इनका उद्देश्य कर्मकांड में उलझना नहीं है, इनका उद्देश्य तो भक्ति के माध्यम से शेष संसार से जुड़ना है। अपनी अनुभूतियों का विस्तार करते हुए जन-जन तक पहुंचाना है। कहने की जरूरत नहीं कि भक्ति-काव्य सामाजिक सांस्कृतिक जागरण का काव्य है।
Question : ‘नागार्जुन जनता, धरती और मानव प्रेम के पुजारी है’ अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
(2003)
Answer : प्रगतिवादी कवियों में नागार्जुन का केन्द्रीय स्थान है। उनकी कविताओं का कथ्य एवं शिल्प मानवीय संवेदना के अनुरूप प्रभावोत्पादक है। समकालीनता, यथार्थनिष्ठा, प्रगतिशीलता, मानवीय सहानुभूति व वर्गीय चेतना नागार्जुन की कविताओं का वैचारिक पक्ष है। वे विपन्न मानवता के सच्चे साथी हैं। सत्ता व संस्कृति के प्रचलित द्वन्द्व में नागार्जुन जनसंस्कृति के पक्ष में दृढ़ता से खड़े होते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- ‘वे (नागार्जुन) मजदूरों’ किसानों और गरीब जनता के समर्थ पक्षधर है। समकालीनता से जुड़ा हुआ ऐसा क्रांतिकारी लेखक हिन्दी में दूसरा नहीं है।
नागार्जुन का जीवन दर्शन विचारधाराओं के स्वस्थ संघर्ष का प्रतिफल है। समाजवाद, मार्क्सवाद और मानवतावाद इनकी प्रिय विचारधाराएं हैं। वे पूंजीवाद, साम्राज्यवाद का विरोध करते हैं। मानवीय विचारधारा के मूल में स्वतंत्रता। समानता, बन्धुत्व व न्याय की प्रबल अकांक्षा है। उनकी अकांक्षा का केन्द्र बेहतर समाज है, एक समतामूलक समाज जो सुख-समृद्धि से युक्त हो, अन्याय व शोषण से मुक्त हो। नागार्जुन मानव-मुक्ति के पक्ष में बोलने वाले रचनाकार हैं। उनका जीवन-दर्शन सामान्य जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्ध हैः
प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
..................................................................................
अन्ध बधिर व्यक्तियों को सही सह बतलाने के लिए
..................................................................................
प्रतिबद्ध हूं, जी हां शतधा प्रतिबद्ध हूं।
नागार्जुन अभावग्रस्त मानवता को देखकर व्यथित हो उठते हैं। उनके भीतर का रचनाकार जनजीवन में फैले विषय अंधकार को समाप्त कर नवजीवन के आलोक को बिखेरने के लिए व्याकुल हो उठता है। ये तरूण वर्ग के आवाहन हैं
‘निविड़ अविद्या से मन मूर्छित
तन जर्जर है भूख प्यास से
व्यक्ति-व्यक्ति दुख-दैन्य ग्रहत है।
दुविधा में समुदाय पस्त है
लो मशाल अब घर-घर को आलोकित कर दो।’
किसी भी देश काल में जीवन की परिस्थितियां कितनी ही कटु क्यों न हों जाए, समस्या के समाधान का वास्तविक बिन्दु मानवीय शुभत्व की प्राप्ति में निहित रहता है। नागार्जुन युगजीवन की विद्रूपता से बार-बार टकराते हैं। घायल मानवता की चीख-पुकार सुनते हैं। जन सामान्य की जड़ हो चुकी संवेदना को जगह-जगह टटोलते हैं। प्यासी पथरायी आंखों में मजदूरों की वास्तविकता इसी रूप में प्रकट हुई है
कुली, मजदूर हैं
बोझा ढ़ोते हैं, खीचते हैं ठेला
धूल-धूआं, भाप से पड़ता है सबका
थके मांदें जहां तहां हो जाते ढेर
नागार्जुण की रचनाओं में सच्चा मानवतावाद मुखरित हुआ है। वे एक बेहतर मानव समाज का स्वप्न देखते हैं। उनकी कविताओं में भविष्योन्मुखी जीवन दर्शन सक्रिय है। अरूणोदय नामक कविता में वे कहते हैं:
लक्ष्य स्पष्ट है, पंथ कठिन है
रात्रि शेष यह आगे दिन है।
नागार्जुन जन सामान्य के जीवन स्तर को सुधारने की अकांक्षा लेकर अपने साहित्य का सृजन करते हैं उनका न केवल काव्य बल्कि सम्पूर्ण साहित्य उन साधारण लोगों का साहित्य है, जो अपनी सारी मेहनत, निष्ठा और ईमानदारी के बावजूद एक घृणित और नाटकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं।
लेकिन इस बात का अहसास है कि उनका वास्तविक शत्रु कौन है, लड़ाई किस मोर्चे पर लड़नी है और जहां वे अपनी जमीन पर, अपने पैरों पर खड़े होकर अपने हथियारों से यह लड़ाई लड़ते हैं, लड़ सके हैं, वहीं आम आदमी के जद्दोजहद की बड़ी प्रभावशाली तस्वीर अपनी सम्पूर्ण वास्तविकता, यथार्थ और मानवीय गरिमा के साथ अपने (उपन्यासों और कहानियों) में अंकित किया है।
इनके कथा साहित्य उपन्यास और कहानियों में बलचनमा, दुखमोचन, ताराचरण जैकिसुन, कामेश्वर आदि ऐसे बहुत से पात्र हैं, जिन्हें समाज और आम जन विरोधी प्रतिक्रियावादी तत्वों की पूरी पहचान है और नागार्जुन के ये पात्र उन सारी चीजें। के विरोध में खड़े है, जो सामान्य जन का शोषण करते हैं। इन पात्रों द्वारा आम आदमी की हक की लड़ाई वास्तव मे नागार्जुन के जनता और मानव के प्रति पक्षधरता तथा उनके प्रेम को प्रदर्शित करता है।
प्रकृति की भावनात्मक सत्ता और ग्राम जीवन की सहजता उन्हें आकर्षित करती है। नागार्जुन का अपना, अपने देश, वहां की प्रकृति से काफी लगाव है और यह धरती प्रेम ही उनकी कविताओं की ताकत है। उनकी कविताओं में जो सामाजिक यथार्थ है, छद्म प्रगतिशीलता का उद्घाटन है, साम्राज्यवाद के विरूद्ध प्रतिक्रिया है, उसके मूल में उनकी राष्ट्रीय चेतना, अपने देश की धरती से प्रेम, वहां की प्रकृति से लगाव ही है। वे अपनी इस भूमि प्रेम को इस प्रकार व्यक्त करते हैं:
आज तो मैं दुश्मन हूं तुम्हारा
पुत्र हूं भारत माता का
और कुछ नहीं हिन्दुस्तानी हूं महज।
प्रणों से भी प्यारे हैं मुझे अपने लगे
प्रणों से भी प्यारे हैं मुझे अपनी भूमि
नागार्जुन का अपने धरती प्रेम में वे सभी सजीव और निर्जीव प्राणों शामिल होते हैं जो इस धरती के अंग है, यहीं वास करते हैं तथा जिनका जीवन स्रोत यही धरती हैं। इस धरती के क्षुद्रतम प्राणी भी नागर्जुन की कविता के लिए पवित्र है और ये क्षुदप्राणी कवि की संवेदना को जगाने में सक्षम है। एक मादा सूअर जो धूप में पसर कर अपने छौनों को दूध पिला रही है-वह भी नागार्जुन की संवेदना की हकदार है, क्योंकि यह भी तो मादरेहिन्द की बेटी है-
‘पैने दांतों वाली’
धूप में पसरकर लेती है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...
जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुणगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे-हिंद की बेटी है
भूरे-भूरे बारह थनों वाली।’
यहां इस कविता में जीवन की क्षुद्रता का ऐश्वर्य मिलता है और इसीलिए यह कविता केवल मांदा सूअर की कविता नहीं है, यह जीवन मात्र के प्रति, उसके क्षुद्रतम अंश के प्रति कविता का अर्ध्य है। इस प्रकार नागार्जुन की संवेदना इतनी व्यापक है कि इस धरती का हर एक जीव और निर्जीव इसमें स्थान प्राप्त कर लेता है। यहां कुछ भी त्याज्य नहीं है, कुछ भी वर्जित नहीं है।
इस प्रकार नागार्जुन का साहित्य संघर्षशील मानवता के सुख-दुख की सचेतन अभिव्यक्ति है। उन्होंने सोये हुए मानव समाज की जगाने का कार्य किया है। नागार्जुन की जनपक्षधरता हमेशा स्पष्ट रही है। वे हमेशा साधारण सामान्य के रचनाकार रहे हैं तथा उनकी रचना में सामान्य ही प्रतिष्ठित है।
वे कभी असामान्य, असाधारण और अलौकिक की ओर नहीं दौड़ते। यहीं सामान्य उन्हें जनता, धरती और मानव से प्रेम करने को प्रेरित करती है।
Question : मलिक मुहम्मद जायसीः
(2002)
Answer : जायसी प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहीउद्दीन के शिष्य थे और जायस में रहते थे। वे सूफी संत के साथ-साथ कवि भी थे। उनकी प्रमुख रचनाओं में पदमावत्, अखरावट, आखिरी कलाम, चित्रवट आदि प्रमुख हैं। जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है ‘पद्मावत’ जिसको पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि उनका हृदय कैसा कोमल और ‘प्रेम की पीर’ से भरा हुआ था। वे मननशील और मानवीय संवेदना के कवि थे। उन्हें जीवन का व्यापक अनुभव था। उनका यही अनुभव उनकी कृति पद्मावत में दिखाई पड़ता है। जायसी ने कहीं भी इस महान काव्य ग्रंथ को सूफी काव्य मानने का आग्रह नहीं किया है। अतः जायसी को सूफी कहना तर्क संगत नहीं लगता लेकिन वे सूफीमत से भलीभांति परिचित थे। जायसी अपने पद्मावत में प्रेम पर विशेष जोर देते हैं, उनके लिए पद्मावत एक प्रेम कथा है बाकी कुछ नहीं। उनका आग्रह बस यही है और उन्होंने इस प्रेमकथा के लिखने का प्रयोजन भी बताया है
"औ मन जानि कबित अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महं चीन्हा।"
जायसी प्रेम के कवि हैं। उनकी मुख्य चिंता है प्रेम के लौकिक रूप का व्यापक और कालातीत बनाना। प्रो. विजयदेवनारायण शाही के अनुसार-"जायसी का प्रस्थान बिंदु न ईश्वर हैं न कोई नया नया अध्यात्म। उनकी चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य है" इसीलिए जायसी ने अपनी कविता के केंद्र में मनुष्य को रखा है, वह मनुष्य जो सुख में उल्लासित होता है और दुःख में रोता है। वह सच भी बोलता है और झूठ भी ईर्ष्या-द्वेष सभी मानवोचित भाव उसमें निहित हैं। प्रेम में वह सब कुछ भूल जाता है। जायसी ने इसी मनुष्य के प्रेम को महाकाव्यात्मक गरिमा प्रदान की है। जायसी के उस प्रेम-काव्य में सिर्फ प्रेम नहीं, ट्रेजडी भी हैं, जिसको सुनकर हर आदमी तिलमिला जाता हैः
"मुहम्मद कवि जो प्रेम का, ना तन रकत न मांसु।
जेई मुख देखा तेइं हंसा, सुना ते आये आँसु।।"
जायसी की इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए यदि पद्मावत को देखें तो साफ पता चलता है कि इस प्रेमाख्यान में एकनिष्ठ प्रेम तो है, किंतु उसमें जायसी का ट्रेजिक विजन भी है। पद्मावत में रतनसेन और पदमावती का प्रेम सीधा-सपाट नहीं है। यह अनेक विघ्न-बाधाओं से गुजरता हुआ चरम बिंदु पर पहुंचता है। ध्यान रहे कि जायसी ने यह प्रेमाख्यान इतिहास और लोककथा को अपनी कल्पना से समन्वित करके लिखा है।
जायसी ने प्रेम को भारतीय जनमानस में स्थापित कर दो प्रमुख संप्रदाय-हिन्दू और मुस्लिम को एकसूत्र में बांधना चाहते थे। हांलांकि यही कार्य कबीर ने भी किया। पर दोनों के कार्यों के ढंग में अंतर था और इसका सामाजिक प्रभाव भी अलग-अलग हुआ। शुक्ल जी के शब्दों में-"कबीर ने अपनी झाड़ फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास हुआ, वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करनेवाला नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है, वह उनके द्वारा व्यक्त न हुआ।" परंतु जायसी के संबंध में कहा जा सकता है कि उन्होंने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाकर सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्य मात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने में इन्होंने काफी सफलता प्राप्त की।
Question : ‘बिहारी सतसई’ की काव्यगत विशेषताएं:
(2002)
Answer : संस्कृत के ‘सप्तशती’ और ‘सप्तशतिका’ शब्दों का रूपांतरण ही ‘सतसई’ और सतसैया है। हिंदी की सतसई परंपरा शैली एवं विषय की दृष्टि से संस्कृत प्राकृत की परंपरा से संबद्ध होते हुए भी थोड़ा भिन्न रूप लिए हुए है। संस्कृत-प्राकृत की सप्तशतियों में कहीं एक कवि के और कहीं विभिन्न कवियों के मुक्तक संग्रहित रहते थे। परंतु हिन्दी सतसई में एक ही कवि विशेष के मुक्तक संग्रहित रहते हैं। संस्कृत-प्राकृत की सप्तशतियों में मुक्तक संग्रहों के नाम का आधार छन्द विशेष (कवि-प्रयुक्त) था, किन्तु हिन्दी सतसइयों का नाम कवि विशेष अथवा विषय विशेष के नाम पर रखा गया है और सभी में एक ही दोहा छंद का प्रयोग मिलता है।
‘बिहारी सतसई’ को हिन्दी में सतसई परंपरा के प्रारंभ का श्रेय प्राप्त है। इस मुक्तक को काव्य का उत्कृष्ट रूप प्राप्त है। मुक्तक रचना में सफलता के लिए शुक्ल जी ने दो विशेषताओं-कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास-शक्ति का उल्लेख किया है। ‘बिहारी सतसई’ में ये दोनों विशेषताएं अपने समृद्ध रूप में विद्यमान हैं। उन्होंने दोहा जैसे छोटे छंद में भाव-गंभीरता को बांध कर रख दिया है। अमरूक कवि ने जिस भाव को चार पंक्तियों के मालिनी छंदशून्य वासगृहं विलोक्य-में प्रस्तुत किया है, उसे बिहारी ने दोहा छंद में इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
"मैं मिसहा सीतो समुझि, मुह चूम्यो ढिंग जाइ।
हंस्यो खिसानी गल गह्यौ, रही गरै लपटाइ।।"
इस छंद में बिहारी ने कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति का अद्भुत परिचय दिया है।
बिहारी रमणीय प्रसंगों की उद्भावना और संयोजन में जितने पटु हैं, भाषा के चुस्त प्रयोग में उतने ही सुदक्ष। इसीलिए वे दोहे की छोटी-सी जमीन पर इतने करिश्में दिखा सके हैं, जैसे नट कूदकर छोटी-सी कुंडली से शीघ्रता से निकल जाता है। ध्यातव्य है कि एक से एक बारीक सूझ बिहारी की कविता में मिलेगी। फिर, खूबी यह है कि ये कल्पनाएं एक-दूसरे से जुड़ी प्रतीत होती हैं। कल्पना की इसी समाहार शक्ति के कारण बिहारी ने एक-एक दोहे में अपार अर्थ-गम्भीर्य भर दिया है-"अर्थ अमित अरू आखर घोटे"-तुलसी की इस उक्ति को बिहारी ने चरितार्थ किया है।
बिहारी की काव्य-भाषा में समास-शक्ति के कारण अद्भुत कसावट आ गई है। थोड़े में बहुत अधिक कह देना बिहारी का बहुत बड़ा कौशल है और यही उसकी सफलता का रहस्य है। लेकिन इसके लिए उन्हें शब्दों को ज्यादा तोड़-मरोड़ नहीं करने पड़े हैं।
संक्षिप्तता और सांकेतिकता के अतिरिक्त, बिहारी की काव्य की दूसरी विशेषता है वाग्वैदग्ध या कथन-चातुरी। बिहारी एक साधारण-सी लगने वाली बात को भी इस खूबी से, इस शब्दावली में कहते हैं कि वह साधारण बात भी अपूर्व-असाधारण हो जाती है। अच्छे गहने और अच्छे वस्त्र के अभाव में भी वस्तुतः सुन्दर स्त्री सुंदर लगती है। इस साधारण बात को बिहारी इस खूबी से कहते हैं कि एक अपूर्व चमत्कार आ जाता हैः
"भूषण भार संभारिहैं क्यों यह तन सुकुमार।
सूधो पाय न परत महि, सोभा ही के भार।।"
बिहारी ने शब्दों का निपुण और बेजोड़ प्रयोग किया है। यदि किसी शब्द विशेष को बदलकर पर्यायवाची अन्य शब्द रख दिया जाय तो सारा चमत्कार ही चौपट हो जाएगा। उनके दोहे में प्रत्येक शब्द एक विशिष्ट चित्र, ध्वनि और अर्थ रखता है। निम्नलिखित दोहे में प्रत्येक शब्द एक शब्द-चित्र दे रहा है और लगता है कि आंखों के सामने तस्वीरों की रील चल रही हैः
"भरत, ढ़रत, बूड़त, तिरत, रहत, धरी लौं नैन।
ज्यों-ज्यों पट झटकति, हंसति, हठति, नचावति नैन।।"
Question : नयी कविताः
(2002)
Answer : ‘नयी कविता’ भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गई उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता, कविता से आगे नये भाव बोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधानों का अन्वेषण किया गया है। ये कविता अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में पूर्ववर्ती प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है। नई कविता पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का प्रभाव था। इस दौर में पश्चिम में अस्तित्ववाद जैसे नये दर्शन की लोकप्रियता बढ़ी। आधुनिकतावाद की भी व्यापक चर्चा होने लगी। नयी कविता के रचनाकारों पर इन दोनों विचारधाराओं का प्रभाव भी पड़ा। इसके अलावा इस पर मार्क्सवाद का भी प्रभाव देखा जा सकता है। इस प्रकार नई कविता में वस्तुतः दो तरह की धारा प्रमुख रही है, एक जो अस्तित्ववाद-आधुनिकतावाद से प्रभावित थी, दूसरी जो मार्क्सवाद से प्रभावित थी। हालांकि कुछ ऐसे कवि भी थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से कोई पक्ष ग्रहण नहीं किया।
नयी कविता की प्रवृत्तियों की परीक्षा करने पर उसकी सबसे पहली विशिष्टता जीवन के प्रति आस्था में दिखाई पड़ती है। आज की क्षणवादी और लघु-मानववादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति नाकारात्मक नहीं, स्वीकारात्मक दृष्टि है। नयी कविता में जीवन को पूर्ण मानकर उसे भोगने की लालसा है। मनोविज्ञान द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि हम क्षणों में जीते हैं। क्षणों की अनुभूतियां संपूर्ण जीवनानुभूति की बाधन नहीं साधक है। क्षणों को सत्य मानकर नयी कविता जीवन की एक-एक अनुभूति को, एक व्यथा को, एक-एक सुख को सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार करता है। लघु मानवत्व की जो बात नयी कविता में है, उसका संबंध भी जीवन की पूर्णता में ही है।
नयी कविता मानवतावादी है, लेकिन उनकी दृष्टि यथार्थवादी है। इस कारण उनका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। यह कविता मनुष्य को उसके भीतर तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है, न कि किसी कल्पित सुंदरता और मूल्यों के आधार परः
"अच्छा
खण्डित सत्य
सुधार नीरन्ध मृषा से
अच्छा
पीडि़त प्यार
अकम्पित निर्ममता से"- अज्ञेय
नयी कविता ने लोक जीवन की अनुभूतियों सौंदर्य बौध, प्रकृति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। इसने लोकजीवन के बिम्बों, प्रतीकों एवं शब्दों, उपमानों आदि को लोकजीवन से चुनकर अपने को अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बनाया। इस कविता में मुक्त छंद पर अधिक बल दिया गया तथा काव्य संरचना में कुछ नए मूल्य स्थापित किए। इसकी काव्य संरचना दो प्रकार की हैः
"प्रगीतात्मक" और "नाटकीयता" प्रायः छोटी कविताओं की संरचना मूलतः प्रगीतात्मक है और लम्बी कविताओं की संरचना नाटकीय। भाषा की दृष्टि से नये कवियों ने पुरानी काव्य संस्कृति का त्याग किया और बातचीत की सामान्य भाषा का अपने कविता में उपयोग किया। इस प्रकार नयी कविता की भाषा गद्य के आस-पास है। इन कवियों ने अपने निजी प्रतीक व्यवस्था से समृद्ध किया है। हरी घास, इंद्रधनुष, सेतु,सागर, मछली, चंद्रकांतशिला आदि बीसियों प्रतीक अज्ञेय द्वारा विकसित और प्रयुक्त हुए हैं।
नयी कविता के दौर में काव्य-बिम्ब पर काफी जोर दिया गया। बिम्ब की इसी आग्रह के कारण नयी कविता में कथ्य उपेक्षित हो गया और कविता की अच्छाई.बुराई बिम्ब पर निर्भर हो गई। लेकिन बाद में बिम्ब का मोह टूटने लगा, क्योंकि नये कवियों ने महसूस किया कि बिम्ब-विधान सीधे सत्य-कथन के लिए बाधक है।
Question : आदिकालीन रासो-साहित्य की प्रमुख विशेषताओं के बारे में एक निबंध लिखिए।
(2002)
Answer : आदिकाल में वीरगाथात्मक, धार्मिक तथा श्रृंगारिक तन प्रकार के ‘रासो’ या ‘रास’ के नाम से काव्य लिखे गए। इसमें वीरगाथात्मक रासो काव्य उन चारण कवियों द्वारा रचित हैं, जो किसी राजा के आश्रित तथा दरबारी कवि थे। उन्होंने आश्रयदाता की प्रशस्ति हेतु काव्य रचना की। इनका काव्य अत्युक्ति पूर्ण वर्णनों एवं काल्पनिक घटनाओं से भरा हुआ है। अतः इनमें ऐतिहासिक तथ्यों का अभाव है। वस्तुतः ये ऐतिहासिक रचनाएं न होकर काव्य कृतियां हैं। धार्मिक रासो काव्य धर्म परक घटनाओं एवं उपदेशों को आधार बनाकर लिखे गए हैं। यद्यपि इनमें भी वीर रस देख जा सकता है, किंतु इसका अन्त शांत रस में ही हुआ है। श्रृंगारपरक रासो कृतियों नायक-नायिका के वियोग, संदेश प्रेषण तथा पुनर्मिलन से संबद्ध हैं। इन रासो काव्य की कुछ सामान्य विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता हैः
आश्रयदाताओं की अत्युक्तिपूर्ण वर्णनः इस काल के कवियों का आदर्श अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम तथा औदार्य प्रभृति गुणों का अतिशियोक्तिपूर्ण वर्णन करके उन्हें प्रसन्न करना था। इस काल में केंद्रीय सत्ता के अभाव के कारण एक तो विदेशियों के आक्रमण बढ़ गए थे और दूसरे आपसी ईर्ष्या-द्वैष भाव में वृद्धि हो गई थी। इन कारणों से युद्ध इस काल की अनिवार्य घटना हो गयी। इस काल के राजपूत शासकों को जहां विदेशियों के प्रतिरोध के लिए जूझना पड़ रहा था तो वहीं अपने प्रति द्वन्दियों से प्रतिरोध के लिए भी संघर्षरत रहना पड़ता था। इन संघर्षरत योद्धाओं को प्रोत्साहित करना युगधर्म था, जिसका पालन इस युग के कवियों ने किया, लेकिन कवियों ने अपनी कल्पना पर संयम नहीं रख पाया, जिससे उनकी रचनाओं में यथार्थ का स्थान अतिरंजना ने ले लिया। उन्होंने इन अतिरंजना को वर्णित करने के लिए मिथ्या का सहारा लिया, इस कारण उनका वर्णन अस्वाभाविक और अविश्वसनीय हो गया है।
ऐतिहासिकता और कल्पना का समिश्रणः अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन तथा प्रशस्ति काव्य होने के कारण इनके वर्णनों में ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा नहीं हो पाई है और काल्पनिक वर्णनों की प्रधानता हो गई है। चूंकि यह काव्य वर्णन प्रधान है। इस कारण इन कवियों का सहज ही काल्पनिक घटनाओं और अत्युक्तियों का सहारा लेना पड़ता था। रासो काव्य के रचयिताओं ने अपने कथानक का प्रारंभ तो ऐतिहासिक घटनाओं से किया है परंतु चरित नायक के अलौकिक तथा शौर्यपूर्ण कार्यों का उल्लेख तथा वर्णन करने हेतु वह काल्पनिक घटनाओं तथा अनैतिहासिक व्याख्यानों का अंकन करता है।
राष्ट्रीयता का अभावः आधुनिक काल से पूर्व राष्ट्रीयता की परिभाषा संकुचित थी। प्रत्येक राज्य सर्वतंत्र, स्वतंत्र होने के कारण राष्ट्र माना जाता था। सार्वभौमिकता कल्पना से परे की वस्तु थी। फलतः इस काल के कवि ने कूप मण्डूकता का परिचय दिया। अजमेर और दिल्ली के राजकवि को कन्नौज, महोबा अथवा किसी अन्य राज्य के उत्कर्ष-अपकर्ष से कोई सरोकार नहीं था। यहां तक कि वे एक आश्रयदाता नृप को छोड़ देने पर संभवतः उसके राज्य को ही पराया राज्य समझने लग जाते थे। मिथ्याभिमान एवं प्रतिशोध की भावना से पूर्ण उस युग के राजाओं से परिपालित कवियों की इस संकुचित वृत्ति पर न आश्चर्य है और न ही तुच्छता है। मुहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित करने वाले जयचन्द की प्रशंसा में यह केदार का ‘जयचंद प्रकाश’ तथा मधुकर भट्ट का ‘जयमयंक जस चंद्रिका’ लिखना तत्कालीन कवियों की अराष्ट्रीय भावना अथवा संकुचित दृष्टिकोण का ही परिचायक है।
युद्ध और प्रेम का वर्णनः रासो काव्य में चरित नायकों के युद्ध अधिकांशतः अपने राज्य का विस्तार करने के कारण होते थे। इन कृतियों में श्रृंगार तथा वीर दोनों रसों का सुंदर परिपाक हुआ है। जैसे ‘पृथ्वीराज रासो’ का नायक पृथ्वीराज चौहान वीर योद्धा होने के साथ-साथ प्रेमी भी है। कवि ने युद्ध वर्णनों में पृथ्वीराज की वीरता एवं पराक्रम का चित्रण किया तथा दूसरी ओर रूप-सौन्दर्य तथा प्रेम का सुंदर अंकन भी किया है।
इन कवियों ने युद्ध वर्णन अत्यंत ही सजीव ढंग से किया है मानो आंखों के सामने ही युद्धों का चित्र उपस्थित हो जाता है, घोड़ों का दौड़ना, शस्त्रें का चलना, युद्ध के बाजों का बजना आदि सभी कुछ कवियों की वाणी से मुखरित हुआ है। चन्द कवि के युद्ध वर्णन का एक उदाहरणः
बज्जिय घोर निसान रान चौहान चंहुं दिस।
सकल सूर सामन्त समय बल जंत मंत्र तिस।।
उट्ठि राज प्रिथिराज बाग मानो लग्ग वीर नट।
कढ़त तेग मन बेग लगत मनो बीजु सट्ट घट।।
यहां पर द्वित्व वर्ण-प्रधान भाषा और छंद की योजना ऐसी हुई है, जो युद्ध-वर्णन को बहुत स्वाभाविक बना देने वाली है।
प्रेम के अन्तर्गत रासो कवियों ने श्रृंगार रस के संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों का सुदर अंकन किया है। नखशिख वर्णन, वियोग में नायिका का अपने प्रियतम के पास संदेश पहुंचाना तथा विरह के अनेक रूपों का वर्णन इन काव्यों में हुआ है। संयोग तथा पुनर्मिलन से इन नायिकाओं के विरह जनित दुःख की समाप्ति होती है।
काव्य रूपः रासो काव्य में प्रबंध एवं मुक्तक दोनों ही प्रकार के काव्य रूप मिलते हैं। पृथ्वीराज रासो तथा विजयपाल रासो को प्रबंध काव्य की कोटि में रखा जाता है। इसका वर्ण्य विषय विस्तृत है तथा चरित नायक के संपूर्ण जीवन की कथा समेटे है। चन्दनवाला रास तथा संदेश रासक एक खंड काव्य है। गेय काव्य के अंतर्गत "बीसलदेव रासो" का उल्लेख किया जाता है। इस कृति में आदि से अंत तक एक ही छंद का प्रयोग किया गया है। "उपदेश रसायन रास" मुक्तक काव्य है। इसमें नीति और धर्मोपदेश के पद हैं। इसके अलावा लोकगीत शैली में परमाल रासो के रचना हुई।
भाषागत विशेषताएं: इन वीरगाथाओं की भाषा साहित्यक राजथानी मिश्रित पुरानी हिन्दी है। विद्वानों ने इसे ‘डिंगल’ नाम दिया है। यह भाषा वीरत्व के स्वर के लिए सर्वथा उपयुक्त है। हालांकि ‘डिंगल’ पर संस्कृत, अरबी, फारसी, प्राकृत, पंजाबी, ब्रज तथा उपभ्रंश का भी प्रभाव दृष्टव्य है। उदाहरण के लिए- ‘हरषत आनंद मन महि हुसल, लै जु महल भीतर गई’ (पृथ्वीराज रासो)। इस अंश में ब्रजभाषा का सुंदर समिश्रण देखा जा सकता है। इसके अलावा उस युग में प्रचलित मुहावरों, सूक्तियों आदि का प्रयोग भी रासो काव्य में बहुतायत से किया गया है। द्वित्व प्रधान वर्णों का प्रयोग भी वीर रस के वर्णनों में बहुत अधिक स्थानों पर कवियों ने किया हैः उदाहरण के लिए-
"भभक्कै भभक्कै बहै रक्तधारं।
सनक्कै सनक्कै बहै बान भारं।।" - परमाल रासो
यहां शब्दों की ध्वनि के माध्यम से कवि ने रूधिर के बहने का चित्र अंकित कर दिया है। कति चंद ने तो पद्मावती के सौंदर्य वर्णन में भी अनेक स्थानों पर द्वित्व वर्णों का प्रयोग किया है
"यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरप्पि झट।
चंच चह्टिट्य लोभ, लियो तब गतित अप्प कर।"
वस्तुतः रासो साहित्य की भाषा केवल डिंगल, पिंगल या अपभ्रंश नहीं है, अपितु उनमें अनेक बोलियों एवं विविध भाषाओं का सम्मिश्रण है। वीगाथात्मक रासो काव्य में तो व्याकरण की शुद्धता का प्रायः अभाव ही है, क्योंकि चारण कवियों का उद्देश्य अपनी ओज से युक्त कविताओं द्वारा उत्साह का संचार करना तथा अन्युक्तिपूर्ण वर्णनों द्वारा अपने आश्रयदाता का प्रसन्न करना था। कई स्थानों पर तो उन्होंने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग भी किया है, जिसका कोई अर्थ नहीं, परंतु उसके अभीष्ट भाव को सुनने वालों में संचार हो जाता है, जैसे- कड़-कक्करं, तड़-तत्तरं आदि। वस्तुतः इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं है, बल्कि शब्द ध्वनि पर ही जोर दिया गया है। श्रृंगारिक रासो काव्य की भाषा में कठोर वर्णों का प्रायः अभाव ही है तथा इसकी भाषा सरल और अलंकार युक्त है।
रस, अलंकार एवं छंदः वीरगाथात्मक रासो काव्य में वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता है। अन्य रासो काव्य में रौद्र, बीभत्स, अद्भुत तथा शांत रसों की भी अभिव्यक्ति हुई है। अलंकारों की प्रयोग की दृष्टि से यह काव्य पर्याप्त समृद्ध है। अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक तथा अतिशयोक्ति आदि अलंकारों की छटा पाठकों के हृदय को आनंद विभोर कर देती है। छन्दों का प्रयोग भी परिस्थिति तथा वर्णन के सर्वथा अनुकूल ही हुआ है। दूहा, गाहा या गाथा, रोला, कुण्डलियां उल्लाल, चउपइ आदि बहुमुखी छंदों का प्रयोग मिलता है। "परमालरासो" के छंद का नाम ही "अल्हा" पड़ गया है। इस छंद में एक प्रवाह और गतिशिलता हैः
"बारह बरस लौं कूकर जीए, औ तेरह लौं जिएं सियार।
बरस अठारह छत्री जीएं, आगे जीवन को धिक्कार।।"
आचार्य द्विवेदी ने चारण कवियों के छन्दोविधान की प्रशंसा में लिखा है- ‘रासो के छन्द जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कंपन उत्पन्न कर देते हैं।’
Question : विद्यापति भक्त कवि या श्रृंगारी कवि हैं? विवेचन कीजिए।
(2002)
Answer : विद्यापति भक्तिपरक पदों में विशुद्ध भक्त के रूप में अवतरित होते हैं अथवा लौकिक श्रृंगारी कवि के रूप में- यह प्रश्न हिन्दी के विद्वानों में वाद विवाद का मुद्दा आज भी बना हुआ है। सर्वश्री आचार्य शुक्ल, बाबूराम सक्सेना, हरप्रसाद शास्त्री तथा रामकुमार वर्मा आदि विद्वानों के अनुसार विद्यापति भक्त न होकर विशुद्ध रूप से श्रृंगारी कवि हैं। उनके पदों में राधा-कृष्ण का उल्लेख रीतिकालीन कवियों के पदों में हुए उल्लेख ‘राधा कन्हाई सुमिरन को बहानो है’- का ही रूप है। शुक्ल जी के अनुसार ‘विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के हैं। जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं।... इन पदों की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टि से की गई है, भक्त के रूप में नहीं।
विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परंपरा में नहीं समझना चाहिए।’ जो लोग विद्यापति को आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं, उन्हें आड़े हाथों लेते हुए वे लिखते हैं-"आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं, उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीतगोविन्द’ को आध्यात्मिक संकेत बताया गया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।" डा. रामकुमार वर्मा का कथन है- " विद्यापति के भक्त हृदय का रूप उनकी वासनामयी कल्पना के आवरण में छिप जाता है। श्रीकृष्ण और राधा संबंधी जो पद उन्होंने लिखे हैं, उनमें भक्ति न होकर वासना है।"
इसके विपरीत डा. ग्रियर्सन, आचार्य श्यामसुंदर दास, डा. नागेन्द्रनाथ गुप्त तथा डा. जनार्दन शर्मा आदि विद्यापति को सूर तथा नन्ददास की श्रेणी का भक्त मानते हैं। डा. ग्रियर्सन का उद्घोष हैः ‘हिन्दू धर्म का सूर्य अस्त हो सकता है, वह समय भी आ सकता है, जब कृष्ण में श्रद्धा और विश्वास का अभाव हो जाये, कृष्ण-प्रेम की स्तुतियों के प्रति-जो भवसागर के रोग की दवा है-विश्वास जाता रहे, तो भी विद्यापति के गीतों के प्रति, जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है, लोगों की आस्था और श्रद्धा कभी कम न होगी।’ आचार्य श्यामसुंदर दास विद्यापति को भक्त स्वीकार करते हुए कहते हैं-"विद्यापति ने राधा और कृष्ण की प्रेमलीला का जो विशद् वर्णन किया है, उस पर विष्णु स्वामी तथा निम्बार्क मतों का प्रभाव प्रत्यक्ष है। विद्यापति राधा और कृष्ण के संयोग श्रृंगार का ही विशेषतः वर्णन करते हैं। उसमें कहीं-कहीं अश्लीलत्व भी आ गया है, पर अधिकांश स्थलों में प्रिय राधा का प्रियतम कृष्ण के साथ बड़ा ही सात्विक और रसपूर्ण सम्मिलन प्रदर्शित किया गया है।"
इन विविध विचारधाराओं के बीच विद्यापति के भक्ति प्रधान गीत और श्रृंगार प्रधान गीतों की पड़ताल थोड़ी सावधानी से करने की जरूरत है। क्योंकि इनके यहां भक्तिकालीन कवियों की तरह न तो एकेश्वरवाद मिलती है और न रीतिकालीन कवियों की तरह लोलुप भोगवाद। इनके काव्य में ऐसी जीवनानुभूति है कि भक्ति श्रृंगार पर और ज्यादातर जगहों पर श्रृंगार भक्ति पर हावी नजर आता है। विद्यापति के यहां श्रृंगार और भक्ति की धाराएं कई.कई दिशाओं में फूटकर इनके जीवनानुभव को फैलाती हैं और कवि के वैराट्य को दर्शाती हैं।
आज के प्रवक्ताओं ने जो भक्ति और श्रृंगार के मानदंड बनाए हैं उनके आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संग्रह को देखा जाए तो राधा कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत श्रृंगारिक हैं और जो भक्ति गीत हैं, उनमें प्रमुख हैं- शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना आदि। उल्लेखनीय है कि विद्यापति ने स्त्री-पुरूष प्रेम विषयक जो भी श्रृंगारिक पद लिखे हैं, वे अपने जीवन के अंतिम तीस-बत्तीस वर्षों से पूर्व ही अर्थात् उन्होंने शिव सिंह जैसे प्रिय मित्र की मृत्यु के बाद इन्होंने श्रृंगारिक रचनाएं नहीं की। भक्ति और श्रृंगार-दोनों प्रवृत्तियों मध्यकाल के साहित्य में पाई जाती हैं। यह अलग बात है कि भक्ति काल का समय निर्धारण जब से होता है, उसके चार-पांच वर्ष बाद विद्यापति ने श्रृंगारिक गीतों की रचना छोड़ दी। कहा जा सकता है कि इनकी श्रृंगारिक रचनाओं का प्रायः सर्वांश भक्तिकाल के पूर्व ही लिखा गया। लेकिन भक्तिकाल की जो रचनाएं हैं उनका संबंध किसी न किसी तरह अपभ्रंश साहित्य की भक्ति परक रचनाओं से है और अपभ्रंश साहित्य की भक्तिपरक रचनाओं की मुख्य विशेषताएं राधाकृष्ण संबंधी पदों में भक्ति और श्रृंगार का समन्वय, श्रृंगार का अत्यंत मुखर रूप, संगीत-प्रेम-भक्ति का समन्वय है।
अवश्य ही विद्यापति के पदों में संगीतमयता, प्रेम और भक्ति के इतने उत्कृष्ट रूप का कारण अपभ्रंश के विरासत का ही प्रभाव रहा हो। पर शुक्ल जी को भक्तिपरक रचनाओं में श्रृंगारिक पुट होना अच्छा नहीं लगता।
उनकी दृष्टि में विषय वासना में लिप्त रहने वाले स्थूल दृष्टि के लोगों पर इसका प्रभाव ठीक नहीं पड़ता। सूर के पदों के संबंध में भी शुक्ल जी को शिकायत है कि भक्ति रचना में श्रृंगारमय आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना का समाज पर कल्याणकारी असर नहीं हुआ था, आगे के साहित्य में जो उन्मादकारिणी उक्तियों भरी श्रृंगारिक रचनाएं हुई वह इसका ही परिणाम है।
गीत गोविन्दम के एक श्लोक में जयदेव ने कहा है कि यदि आपका मन सरस हो, हरि स्मरण करना चाहें और विलास के कुतूहल में रमना चाहें तो आप जयदेव की मधुर कोमलकांत पदावली सुनें। भगवत् में तो श्रृद्धा और रति को भक्ति की सीढ़ी माना गया है। तंत्र साधना वाले साहित्य युग में "पंचमकार सेवन" भी गौर तलब है।
विद्यापति के पदों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि लौकिक प्रेम ही ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति में परिणत हो जाता है। लौकिक प्रेम भी जोड़ने का काम करता है और ईश्वरीय प्रेम भी। एकात्म्य की जो स्थिति भक्ति में दिखाई देती है और विद्यापति जिसे आत्मा परमात्मा के मिलन रूप में कहते हैं- "तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना।" यह स्थिति लौकिक प्रेम में कैसे फलित होती है यह देखने के लिए कृष्ण के विरह में नायिका द्वारा गाया गया वह गीत है- "अनुखन माधव सुमरइत राधा भेल मधाई।" अर्थात् प्रेम में सुध-बुध खोकर दिवानी होने वाली राधा की जो व्याकुलता यहां हैं, भक्ति में यही व्याकुलता और विह्नलता भक्तों को होती है।
संगीत के अलावा भक्ति और श्रृंगार की यह तात्विकता जहां एकमेक होती है, वहां विद्यापति के कुछ भक्तिपरक पदों में श्रृंगार और भक्ति का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। जो विद्यापति श्रृंगारिक गीतों में समर्पण और सौंदर्य की हद तक लीन है, रमण, विलास, विरह मिलन के और पक्षों को इतनी तल्लीनता से चित्रित करते हैं और- "यौवन बिनु तन, तन बिनु यौवन, की यौवन पिय दूरे" कहते हुए प्रिया के बिन तन और यौवन की सार्थकता ही नहीं मानते, वहीं विद्यापति अपने भक्तिपरक गीतों में विनीत और नम्र हो जाते हैं तथा पहले के रमण और आराम को बेकार मानते हैं- ‘आध जनम हम निन्दे गमाओल, जरा शिशु कत दिन गेला; निधुवन रमणी रसरंगे मातल, तोह भजब कौन बेला।’ इनता ही नहीं जिस विद्यापति ने श्रृंगारिक गीतों में नायिका के मनोवेग को जीवन दिया है, उसे प्राणवान किया है, वहीं विद्यापति उस "रमणि" को तप्त बालू पर पानी की बूंद के समान कहकर भगवान के शरणागत होते हैं। वे- "जावत जनम हम तुअ न सेवल पद, युवति मनि मअ मेलि, अमृत तेजि किए हलाहल पीउल, सम्पदे विपदहि भेलि।" कहकर स्वयं श्रृंगार और भक्ति के सारे द्वैध को समाप्त कर देते हैं। जीवन के दो कालखंडों और दो मनःस्थितियों में एक ही रचनाकार विद्यापति द्वारा रचनाधर्म का यह फार्क कवि की तल्लीनता को ही दिखाता है कि वे जहां कहीं भी हैं मुकम्मल हैं। अतः हमें श्रृंगारिक विद्यापति और भक्त विद्यापति को समझने का प्रयास करना चाहिए और जब फ्नीवीं कसरत वरजति राधा," फ्जब सरोज धरो श्रीफल पर" आदि पंक्तियों के रचनाकार सूरदास भक्त कहला सकते हैं तो विद्यापति के पदों में श्रृंगारिकता के कारण उनके भक्त रूप को कैसे अस्वीकृत किया जा सकता है? इस प्रकार तत्कालीन परिस्थिति एवं परंपरा का ध्यान में रखते हुए विद्यापति को श्रृंगारी भक्त ही मानना उचित है न कि कोरे श्रृंगारी कवि कहना।
Question : "तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ हिन्दी काव्य परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण महाकाव्य माना जाता है"- विचार कीजिए।
(2002)
Answer : अवधी बोली और मुख्य रूप से दोहा चौपाई छंदों में निबद्ध तथा सात काण्डों में विभक्त ‘रामचरितमानस’ गोस्वामी जी की ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य है। इसमें साहित्य, समाज और जीवन को तत्कालीन देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नये सिरे से निर्मित किया गया है। तुलसी ने रामचरित मानस में भारतीय जनता की कलात्मक अनुभूतियों का एक मनोरम चित्र खींचा है। इस महाकाव्य में विकसित धार्मिकता, दार्शनिकता एवं नैतिक समन्वय का असाधारण उदाहरण है। जहां एक ओर युग-बोध की भावनाओं को चित्रित किया है, तो दूसरी ओर विभिन्न सांस्कृतिक चेतना के बढ़ते हुए आयामों को ही, भावुकतापूर्ण अभिव्यंजित कर स्वयं को तथा भारतीय जनमानस को आशान्वित किया है।
सबसे पहले ‘रामचरितमानस’ का वस्तु-परीक्षा करें तो पाते हैं कि इसमें काव्य-विद्या का ही नहीं वस्तु की संयोजना और संघटना का एक अभिनव प्रयोग हुआ है। मानस का कार्य एक ऐसा कार्य है, जो जीवन की समस्त मूलभूत समस्याओं और उसके समाधानों को समाहित किये हुए है। राम का धरती पर अवतार ही समस्या को सही संदर्भ में परखने का परिणाम है। राम ने अपने अवतार लेने का ‘कार्य’ ही पृथ्वी के भार को हटाना बताया हैः
"हरिहउं सकल भूमि गरूआई।
निर्भय होहु देव समुदाई।।"
रामचरितमानस का यह कार्य अन्य अनेक कार्यों से बंधा और सधा है। इन सभी कार्यों के दो-दो रूप हैं-बाह्य और अभ्यंतर। बाह्य का संबंध जगत में घटने वाली मानवी कार्य-व्यापार से है और आभ्यंतर का व्यक्ति के भीतर अथवा मन में पनपने वाली भावना अथवा मनोवृत्तियों से है। फिर दोनों के भी दो-दो रूप हैं- कुरूपता के और सुरूपता के। कुरूपता का रूप पृथ्वी के भार अथवा यों कहें कि धरती पर जीवन के स्वस्थ और सुखमय विकास को अवरूद्ध कर देने वाली स्थिति का कारण है, जबकि सुरूपता का पृथ्वी पर से भार के हटाने या यों कहें कि ‘विश्राम’ की स्थिति पाने हेतु है।
मानस की पूरी कथा दारिद्रय और संतत्व के उभय पुलिनों को विविध प्रकारों से छूती-हटती हुई बालकांड के (आरंभिक खण्ड) ‘रावण-चरित’ से लेकर ‘रामराज्य’ की स्थापना तक बढ़ती गयी है। सभी अवान्तर अथवा आनुषंगिक कथाएं-यदि संपाती जैसी एकाध कथा को अपवाद मान लें तो आधिकारिक कथा का अनिवार्य अंग है। आधिकारिक और प्रासंगिक कथानकों के बीच आख्यान और इतिवृत्त जैसा संबंध है। कथानकों के बीच संबंधों से घटनाओं में जो मोड़ आता है अर्थात् आकस्मिकता आती है उसे दैव विधान और प्रारब्ध की तर्किकता से विश्वसनीय तथ कूतूहलवर्द्धक बनाया गया है। चित्रपटल के ऐसे आकस्मिक परिवर्तनों के लिए प्रारंभ से अंत तक जिन युक्तियों का आश्रय लिया गया है उनमें शंका और समाधान की प्रश्नोत्तर शैली, अवतारी महापुरूष का अति प्राकृतिक दिव्य शक्ति का प्रदर्शन तथा कुछ पात्रों के पूर्वजन्म की कथा का वाचन आदि कौशल द्रष्टव्य है।
अब यदि रामचरितमानस में वर्णित विषय को देखा जाय तो मानव जीवन के लगभग सभी पहलुओं का सिन्नवेश इसमें है। यदि घरेलू संबंधों की ही देखा जाय तो ‘रामचरितमानस’ में भाई.भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, सास-बहु, आदि के रिश्ते विषम परिस्थितियों में तपकर खरे होते हैं। आज जब रिश्तों में बिखराव आ गया है और व्यक्ति अकेलेपन की यातना से जूझ रहा है, तब ये रिश्ते और भी महत्वपूर्ण हो उठते हैं। पाठक उन रिश्तों को लौटा लाने के लिए व्यग्र हो जाता है।
मानस के ग्रामवासियों और जनजातियों के भोले प्रेम को देखकर हम मनुष्यता की बुनियाद पहचान सकते हैं। वन मार्ग में पड़नेवाले गांव की स्त्रियों का राम, लक्ष्मण और सीता के प्रति निर्हेतुक प्रेम देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। को, किरात, भील, निषाद जैसी अस्पृश्य जातियां राम के लिए फलों का ढ़ेर लगा देती हैं, पलकों के पांवड़े बिछा देती हैं। शबरी के जूठे बेर खाकर राम वर्णाश्रम की रीढ़ तोड़ देते हैं। मानस में अनेक स्थलों पर मानवीय जीवन-प्रसंग अत्यंत मर्मस्पर्शी हो उठे हैं। जैसे-जनक वाटिका में राम सीता का मिलन, चित्रकूट की सभा, लक्ष्मण की मूर्च्छा, भरत-मिलाप आदि हैं। यह महाकवि तुलसी की भावुकता और कलात्मक सामर्थ्य की निर्णायक कसौटी है। आचार्य शुक्ल ने तुलसीदास द्वारा वर्णित इन मार्मिक स्थलों की काफी प्रशंसा करते हैं।
रामचरित मानस में तुलसी ने ‘कलियुग और रामराज्य के वर्णन के माध्यम से एक आदर्श राजनीतिक व्यवस्था का विचार रखा है। तुलसी का रामराज, उनके कलियुग के पेट से निकलता है। जिस तरह कलियुग ‘रामचरित मानस’ में अनेक स्थलों पर विविध रूपों में विद्यमान है, उसी प्रकार रामराज्य भी कलियुग और रामराज्य तुलसी के कृतित्व के संरचनात्मक घटक हैं। जहां राम हैं वहीं सुराज भी है। राम का राज्य समस्त पृथ्वी पर है- ‘भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला।’ इस प्रकार तुलसी ने अपने ‘रामचरित मानस’ में मानव जीवन के हर पहलुओं का समावेश किया है, जीवन का कोई भी क्षेत्र इससे बाहर नहीं है।
काव्य कला की दृष्टि से भी ‘रामचरितमानस’ एक आदर्श रचना है। भारतीय और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र में निर्दिष्ट महाकाव्य के सभी लक्षणों पर खरी उतरने वाली यह एक उत्कृष्ट रचना है। कथा प्रबंध का सर्गबद्ध होना, नायक का उच्चकुल-सम्भूत तथा धीरोदात्त होना, शान्त का अंगीरूप में तथा श्रृंगार, करूण, वीर और रौद्र आदि अन्य रसों का अंगरूप में होना, वर्णन की सुन्दरता, पुरूषार्थ चतुष्ट्य में से धर्म का लक्ष्य रूप में रहना। आदि भारतीय काव्य लक्षणों का सुंदर विकास ‘रामचरितमानस’ में देखने को मिलता है। इसी प्रकार कथा का अतीत से संबंध होना, अतिप्राकृत शक्तियों का कथा में भाग लेना, तथा कथा के अंत में आदर्शों की विजय का चित्रित होना आदि पाश्चात्य दृष्टि को एपिक के लक्षणों की भी ‘रामचरितमानस’ में सुंदर नियोजना मिलती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण विश्व की सर्वोच्च कृतियों में प्रमुख स्थान प्राप्त है।
वस्तुतः मानस एक ऐसा महाकाव्य है, जिसमें मानव-जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान है। यह लौकिक और आध्यात्मिक-दोनों क्षेत्रों का अद्भुत मार्गदर्शक ग्रंथ है। यदि एक ओर यह भक्ति का आकर ग्रंथ है, तो दूसरी ओर इससे हमारी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्याओं का समाधन भी प्राप्त होता है।
गोस्वामी जी ने इसमें विभिन पात्रों के अद्भुत आदर्श और अनुकरणीय चरित्र की सृष्टि की है, वह अन्य पूर्ववर्ती रामकथा- काव्यों में दुर्लभ है। भरत और राम के पारस्परिक प्रेम जैसा आदर्श रूप गोस्वामी जी ने प्रस्तुत किया है, वैसा रूप किसी दूसरे रामकथा ग्रंथ में नहीं मिलता। वस्तुतः मानस के पात्रों में मानवता का जो निष्कलुष किन्तु व्यवहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है, वैसा किसी भी पूर्ववर्ती समकालीन अथवा परवर्ती रचना में नहीं दिखाई देता। गोस्वामी जी ने इसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निर्वैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण पराकाष्ठा के साथ मिलते हैं। अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण ‘रामचरितमानस’ एक श्रेष्ठ काव्य के साथ ही धर्मग्रंथ के रूप में लोकमान्य है और चिरकाल तक लोकप्रिय बना रहेगा।
Question : जायसी का रहस्यवाद
(2001)
Answer : मध्यकाल में रहस्यवाद से आशय एक ऐसे संबंध से है, जो भक्त और निर्गुण ईश्वर के बीच पाया जाता है तथा जिसकी प्रकृति भावनात्मक होती है। प्रायः विद्वानों ने इस बात की विस्तृत चर्चा की है कि यदि सांस्कृतिक व्यवस्था ईश्वर के प्रति स्वतंत्र चिंतन और प्रेम के विकल्प पैदा नहीं करती है, तो भक्त श्रेणी के व्यक्तियों को रहस्यात्मक तरीकों से ऐसे संबंध विकसित करने पड़ते हैं। सूफियों का रहस्यवाद, इसी मूल सिद्धांत पर आधारित है। उन्होंने इस्लाम में वर्णित खुदा और बंदे के सैद्धांतिक संबंध केा अस्वीकार करके एक भावनात्मक संबंध स्थापित करने की इच्छा रखी और चूंकि ये संबंध सीधे-साधे व्यक्त करना खतरनाक हो सकता था। इसलिए इसकी अभिव्यक्ति के लिए एक प्रतीकात्मक पद्धति अपनायी। सूफियों का रहस्यवाद इसी प्रवृत्ति का परिचायक है।
जायसी के काव्य में उनका रहस्यवाद चार रूपों में मिलता हैः 1. अद्वैत भावना पर आधारित रहस्यवाद 2. प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्ति रहस्यवाद। 3. भारतीय योग-मार्ग की साधना पद्धति के माध्यम से अभिव्यक्त रहस्यवाद। 4. सूफी-प्रेम भावना के माध्यम से अभिव्यक्त रहस्यवाद।
भारतीय दर्शन में अद्वैतवाद में ब्रह्म, जगत और जीव का संबंध दूसरे प्रकार का है। उपनिषद या वेदान्त दर्शन में यह माना गया है कि मूलरूप से ब्रह्म, जगत और आत्मा में अद्वैत की स्थिति है अर्थात् यदि व्यक्त रूप में जगत और जीव विद्यमान है, तो भी वे मूलतः ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
सभी सत्ताओं को एक ही सत्ता के रूप में देखने की यह दृष्टि ‘सर्ववाद’ कहलाती है। स्पष्ट है कि जिस ईश्वर से भक्त प्रेम कर रहा है, यदि वह ईश्वर ही जीव और जगत के रूप में भी व्यक्त होता है, तो भक्त का प्रेम जगत और जीव से संबद्ध होकर विकसित होगा और रहस्यवाद भी जगत और लोकसापेक्ष होगा। शुक्लजी के अनुसार जायसी का रहस्यवाद मूलतः इसी कारण से रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद है।
प्रकृतिमूलक रहस्यवाद में प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया जाता है। पद्मावत में प्रकृति के माध्यम से परोक्ष सत्ता की ओर संकेत किया गया है-
"धन अमराउ लगु चहुं पासा। उठा भूमि हुत लागि अकाशा"
"जेइ वह पाउ छांह अनूपा। फिरि नहि आइ सहै यह धूपा"
सिंहलद्वीप की अमराइयों की सुखदायी छाया के वर्णन द्वारा असीम सत्ता का आनन्दमयी छाया का ही आध्यात्मिक संकेत है।
जायसी ने सूफी भावना के अनुकूल ईश्वर की कल्पना प्रेम के रूप में की है। पद्मावत में जिस प्रेम का चित्रण किया है, वह अलौकिक प्रेम है- जीवात्मा का परमात्मा के प्रति प्रेमः
"सुनतहि राजा गा मुरझाई। जानौं लहरि सुरूज कै आई।"
"आहुठ हाथ तन सरवर, हिला कंवल तेहि मांट।
नैनन्हि जानहुं नियरे, कर पहुंचत अंबगाई।"
इस पंक्ति में कवि ने सूफी भावना के अनुकूल ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति का चित्रण किया है।
जायसी ने अपनी रहस्यभावना की अभिव्यक्ति के लिए हठयोगियों में प्रचलित साधना पद्धति को भी स्वीकार किया है। वे अपनी प्रेम साधना के अन्तर्गत हठयोगियों के कुंडली योग की सब परिभाषाओं को स्वीकार कर लिया हैः
"घरी घरी घरियार पुकारा, पूजी बार सो आवन मारा।
नौ पैरी पर दसम दुबारा, तेहि पर बाज राज-घटियार।"
इन पंक्तियों में शरीर के नौ द्वारों तथा उसके बाद एक द्वार ‘ब्रलरन्ध्र’ की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार जायसी ने रहस्यवाद के विभिन्न रूपों को, विशेषकर साधनात्मक रहस्यवाद को भी अत्यन्त सरस और मधुर बना दिया है। हिन्दी के रहस्यवादी कवि के रूप में यह जायसी की सबसे बड़ी देन है।
Question : जनवादी कविता की प्रवृत्तियां
(2001)
Answer : नयी कविता के दौर में शमशेर बहादुर सिंह, गजानन माधव मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय आदि कवियों के काव्य में नयी कविता की आधुनिकतावादी दृष्टिकोण का प्रभाव नहीं है। इन कवियों ने काव्य में जीवन के प्रति साकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्त किया है। 1967 के बाद बदली परिस्थतियों ने एक बार फिर कविता में वामपंथी रुझान को उभारने में मदद की। इसी दौर में जनवादी कविता ने हिन्दी काव्य को दूर तक प्रभावित किया। जनवादी कविता में जो यह ‘जन’ शब्द है, वह सर्वहारा का ही पर्याय है। आवश्यकतानुसार इस जन शब्द का अर्थ सर्वहारा, सीमांत, किसान, निम्न मध्यवर्ग और अब उस व्यक्ति, वर्ग या संस्था से लिया जाता है, जो व्यवस्था परिवर्तन वाले समाजवादी आंदोलन में आस्था रखते हैं।
जनवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्ति व्यवस्था का विरोध है। जनवादी कवि यह मानकर चलता है कि सत्ता दमन का साधन है तथा जो इस सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करता है वही क्रांतिकारी है। जनवादी कविता की यह दृष्टि निश्चय ही उथली है। इसके अलावा जनवादी कविता के समर्थकों ने उन रचनाकारों के साहित्य को प्रतिक्रियावादी कहकर तिरस्कृत किया, जो किसी सरकारी या गैर सरकारी प्रतिष्ठान से मोटी तनख्वाह उठाते रहे हैं। इनका मानना था कि क्रांतिकारी लेखक वह है, जो बेकार और फटेहाल है। परन्तु विपन्नता से क्रांतिकारी लेखन स्वयं सिद्ध होता है। यह मानना जनवाद की सतही समझ ही कहा जाएगा। जनवादी कविता में सर्वहारा को गिरमामंडित करने की काफी प्रवृत्ति रही है। स्वप्निल के निम्न कविता में जनता की प्रशस्ति गान किया गया है-
रोटी का स्वाद खेत से शुरू होता है
और जब नहीं पहुंच पाता है
भूखे आदमी के मुंह तक
तब भूखा आदमी भूकंप की तरह
पूरे ग्लोब पर उठता है
और सारी चीजें उसके इशारे पर नाचने लगती है।
हालांकि जनवादी कविता का रुख नकारात्मक है, लेकिन उसमें सामान्य जनता के जीवन संघर्ष की गतिविधियों और हलचलों का सजीव अंकन भी है। देश के राजनीतिक, सामाजिक जीवन और जनचेतना के विकास को जनवादी कवियों ने गंभीरता से रूपायित किया है। सातवें दशक के अंत में बंगाल से जिस क्रांति की लहर उठी और जिसमें किसानों की मुक्ति चेतना सक्रिय हुई, उससे कुछ जनवादी कवियों का सीधा संबंध रहा है। निम्न पंक्तियां क्रांति के बीच से ही चुने हुए एक क्षण का साक्षात्कार कराती हैं:
"एक रात, जब मैं ताजे और गर्म शब्दों की तलाश में था, हजारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे, निश्चिंत सो रहे थे। उन बच्चों की लम्बाई मेरी कविता लिखने वाली कलम से थोड़ी सी बड़ी थी, तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गये। वे कोने में भरी हुई बंदूकों की तरह, सायरनों की तरह सफेद चीते की तरह पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह।"
जनवादी कविता में यथार्थ के चित्रण के साथ-साथ सुनिश्चित आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी मिलता है। कभी-कभी कवि यथार्थ चित्रण की वस्तुपरकता और आलोचनात्मक दृष्टिकोण की वैचारिकता में सामंजस्य नहीं बिठा पाता है और इस कारण वस्तुपरकता पर वैचारिकता हावी होती चली जाती है।
जनवादी कविता में शिल्पगत प्रयोग भी बहुत किए गए हैं। नये जनवादी कवियों पर मुक्तिबोध के गहरे प्रभाव के कारण फैंटेसी के प्रति आसक्ति दिखती है। जो कवि फैंटेसी की प्रविधि को पचा नहीं पाते, उनकी कविता अमूर्त भाव या विचार की तरह लगती है। छोटी जनवादी कवितायें अपने सधे हुए कथ्य और शिल्प के कारण आकर्षक बन पड़ी है।
Question : दरबारी वातावरण में विकसित रीतिकाव्य की उपलब्धियां क्या है?
(2001)
Answer : रीतिकालीन कविता जनता के बीच से उठकर राजदरबारों की कैद में आ गयी थी। उसने भक्तों की कुटिया को त्यागकर सामन्तों के महलों में अपनी जगह तलाशी। इसी कारण आलोचकों को इस कालखंड की रचनाओं में दोष पहले दिखाई देते हैं और गुण बाद में। लेकिन इस कालखंड की रचनाओं को निष्पक्षता से देखा जाए तो बहुत सारी उपलब्धियां सामने आती हैं। इसमें संदेह नहीं कि रीतिकाल के कवि व आचार्य भी थे। उनके काव्यशास्त्रीय पक्ष को देखें तो स्पष्ट होता है कि वे नवीन सिद्धांतों को उद्भावनाएं तो नहीं कर सके पर प्राचीन सिद्धान्तों का पुनराख्यान पूरे मनोयोग से किया है। हालांकि उनके विवेचन में अनेक दोष मिलते हैं, लेकिन गुणों से रहित भी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा को हिन्दी में सरस रूप से अवतरित किया तथा हिन्दी काव्य को शास्त्र चिंतन की प्रौढ़ता प्रदान की। उन्होंने शास्त्रीय विचार को सरस रूप से हिन्दी में प्रस्तुत किया। अन्य भाषाओं में संस्कृत आलोचना से वर्तमान आलोचना का संबंध जहां टूट गया है, वहां हिन्दी और मराठी में अंतः सूत्र बना रहा। फलतः हमारी वर्तमान आलोचना की समृद्धि में इन रीतिकारों का स्पष्टतः योगदान है। रीतिकाल के उस युग में, जबकि बौद्धिक ”ास अपनी चरम पर था, इन रीति कवियों ने काव्य के बुद्धि पक्ष को जाने-अनजाने में पोषण देकर अपने ढंग से बड़ा काम किया।
भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में इन रीतिकवियों का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान रस को ध्वनि के प्रभाव से मुक्त कर रसवाद की पूर्ण प्रतिष्ठा करना है। जैसा कि हम जानते हैं, संस्कृत काव्यशास्त्र का सर्वमान्य सिद्धान्त ध्वनिवाद ही रहा है। हालांकि यहां भी रस का महत्वपूर्ण स्थान था। लेकिन उसका विवेचन प्रायः "असंलक्ष्यक्रम-व्यंग्य ध्वनि" के अन्तर्गत अंग के रूप में होता रहा है। हिन्दी के रीतिकार आचार्यों ने रस की ध्वनि की परतंत्रता से मुक्त किया तथा दो शताब्दियों तक रसराज श्रृंगार की ऐसी अविच्छिन्न धारा प्रवाहित की कि यहां ‘ श्रृंगारवाद’ एक प्रकार से स्वतंत्र सिद्धान्त के रूप में ही प्रतिष्ठित हो गया। मधुरा भक्ति से प्रेरित श्रृंगार भाव में जीवन के समस्त कूट भावों को निमग्न कर इन आचार्यों ने भारतीय काव्यशास्त्र के प्राण-तत्व आनन्द की पुनः प्रतिष्ठा का सराहनीय प्रयत्न किया। रीति युग के अधिकांश आचार्यों द्वारा ध्वनि की उपेक्षा और नायिका भेद के प्रति उत्कट आग्रह इसी प्रवृत्ति का द्योतक है। देव जैसे कवियों ने अत्यंत प्रबल शब्दों में रसकुटिल, अधम व्यंजना पर आश्रित ध्वनि का तिरस्कार कर रसवाद का पोषण किया। रामसिंह ने रस के आधार पर काव्य को तीन भेदों- उत्तम, मध्यम और अधम में विभाजित किया तथा रस सिद्धान्त के सार्वभौम प्रभुत्व का प्रतिपादन किया।
कला के क्षेत्र में रीति कवियों की व्यावहारिक उपलब्धियां भी कम नहीं है। ब्रजभाषा के काव्यरूप का पूर्ण विकास इन्होंने ही किया। वह कांति, माधुर्य और मसृणता आदि गुणों से जगमग हो उठीं। शब्दों को जैसे खराद पर उतार कर कोमल और चिक्कण रूप प्रदान किया गया हो। सवैया और कवित्त की रेशमी जमीन पर रंग-बिरंगे शब्द माणिक, मोती की तरह ढुलकने लगे। इन दोनों छंदों की लय में अभूतपूर्व मृदुला और लोच आ गया। स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि रीति कवियों का छंद विधान एक बंधी हुई लीक पर ही चलता है, उनमें स्वर और लय की सूक्ष्म संयोजनाओं के लिए अवकाश नहीं है। लेकिन इसे दृष्टि दोष ही कहा जा सकता है, सवैया और कवित्त के विधान के अन्तर्गत अनेक प्रकार के सूक्ष्म लय परिवर्तन कर रीतिकवियों ने अपनी कोमल संगीत-रूचि का परिचय दिया है। रीतिपूर्व युग के तुलसी और गंग, जैसे समर्थ कवियों और उधर रीतिमुक्त कवियों में घनानन्द जैसे प्रवीण कलाकारों के छंद विधान के साथ तुलना करने पर स्वतः स्पष्ट हो जाता है- ये कवि अपने सम्पूर्ण काव्य वैभव के होते हुए भी रीतिकवियों के या छंद-संगीत की सृष्टि करने में नितांत असफल रहे हैं। इसी प्रकार अभिव्यंजना की साज-सज्जा और अलंकृति की दृष्टि से रीति काव्य का वैभव अपूर्व है। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि रीतिकाव्य में अलंकरण सामग्री का वैसा विविधता नहीं है, जैसा सूर और तुलसी के काव्य में मिलता है- इन अलंकरण सामग्री का वैसा सूक्ष्म संयोजन भी नहीं है जैसा कि पंत के काव्य में मिलता है, परन्तु विलास युग के रंगोज्वल उपमानों और प्रतीकों के प्रचुर प्रयोग से रीतिकाव्य की अभिव्यंजना दीपावली की तरह जगमगाती है। अतः रीतिकाव्य के कलात्मक महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता तथा इसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन इसी रूप में किया जाना चाहिए।
इसमें संदेह नहीं कि रीतिकाव्य में सूर, मीरा और घनानन्द जैसी आत्मा की पुकार नहीं है; न जायसी, तुलसी अथवा आधुनिक युग के विशिष्ट महाकाव्यों के समान व्यापक जीवन-समीक्षा और छायावादी कवियों का सूक्ष्म-सौंदर्य-बोध का ही अभास मिलता है, परन्तु मुक्तक परंपरा की गोष्ठीमण्डन कविता का जैसा उत्कर्ष रीतिकाव्य में हुआ है, वैसा न उसके पूर्ववर्ती काव्य में और न परवर्ती काव्य में ही संभव हो सका।
सामाजिक स्तर पर भी रीतिकाव्य की उपलब्धियों को भुलाया नहीं जा सकता है। घोर पराभव के उस युग में समाज के अभिशाप्त जीवन में सरसता का संचार इन कवियों ने किया। इसमें संदेह नहीं कि उनके काव्य का विषय उदात्त नहीं है- इसमें जीवन के भव्य मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं थी, अतः उनके द्वारा प्राप्त आनन्द भी उतना उदात्त नहीं था। काव्य वस्तु के नैतिक मूल्य का काव्य-रस के नैतिक मूल्य पर निश्चय ही प्रभाव पड़ता है और इस दृष्टि से रीति काव्य का नैतिक मूल्य निश्चय ही कम है। फिर भी अपने युग की आत्मघाती निराशा को कम करने मे उसका योगदान स्तुत्य है। इसमें संदेह नहीं कि इस सत्य को अस्वीकार करना कृतघ्नता होगी। चूंकि कला का एक महत्वपूर्ण एवं अतर्क्य उद्देश्य मनोरंजन भी है; यह मनोरंजन मानव-जीवन की जितनी अपरिहार्य आवश्यकता है, इसकी पूर्ति करने वाली कला या काव्य कला का अपना मूल्य भी निश्चय ही उतना ही असंदिग्ध है। रीतिकाव्य का मूल्यांकन कला के इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर करना चाहिए उसकी मूलवर्ती प्रेरणा यही थी और इसी की पूर्ति में उसकी सिद्धि निहित है। कला की दृष्टि से रीतिकाल का अपना महत्व है। वास्तव में हिन्दी साहित्येतिहास में सर्वप्रथम रीति कवियों ने ही काव्य को शुद्ध कला का रूप दिया। अपने शुद्ध रूप में रीति कविता न तो राजाओं और सैनिकों को उत्साहित करने का साधन थी, न धार्मिक प्रचार अथवा भक्ति का माध्यम, न सामाजिक सुधार की परिचायिका ही। काव्य-कला का अपना स्वतंत्र महत्व था। उसकी साधना उसी के अपने निमित्त की जाती थी, वह अपना साध्य आप थी।
इसके अलावा रीतिकालीन कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका श्रृंगारिक काव्य। रीतिबद्ध कवियों ने चूंकि रीतिनिरूपण के क्रम में सभी काव्यांगों का उदाहरण श्रृंगार रस में दिया। इसलिये श्रृंगार के समस्त आयामों और विभिन्न पक्षों का चित्रण जिस परिणाम में यहां उपलब्ध है, उसी परिणाम में अन्यत्र नहीं। बिहारी ‘मतिराम’, ‘देव’ ने अपने श्रृंगारिक काव्य में भावों की विलक्षणता पर बहुत बल दिया। वे यत्र-तत्र बिखरी हुई भाव सामग्रियों को कल्पना के सहारे इकट्ठा करते हैं और फिर अर्थ सौरस्य के साथ उसे प्रभविष्णु (विलक्षण) अभिव्यक्ति में डालते हैं। ‘बिहारी’ की रचना बारीकी तथा शब्द विन्यास में निपुणता के चलते जो शब्दों की कारीगरी मिलती है, उसके कारण उन्हें ‘गागर में सागर भरने वाला’ कवि कहा जाता है तथा उनके दोहों को ‘देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’ कहकर सम्मान दिया जाता है।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाव्य का अपना विशिष्ट स्थान है। सैद्धान्तिक दृष्टि से भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा को हिन्दी में अवतरित करते हुए विवेचन एवं प्रयोग दोनों के द्वारा रसवाद की पूर्ण प्रतिष्ठा इसी युग में हुई। सर्जना के क्षेत्र में कविता के कला-रूप की सिद्धि करते हुए भारतीय मुक्तक परंपरा का विकास इसी काल में हुआ। एकान्त की विशिष्टता की दृष्टि से भारतीय वाडमय में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के वाडमय में यह काव्य विद्या, जो आलोचना और सर्जना के संयोग से बनी है, अपना उदाहरण आप ही हैं, किसी भी भाषा में इस प्रकार का काव्य प्रचुर परिणाम में नहीं रचा गया। अतः ‘संयोग’, ‘शास्त्र का अपरिपक्व ज्ञान, युग की दुषित प्रवृत्ति’ आदि कहकर रीतिकाव्य की उपलब्धियों की उपेक्षा करना न तो रीतिकवियों के साथ न्यायपूर्ण होगा और न ही हिन्दी साहित्य के लिए लाभकारी।
Question : नागार्जुन अथवा मुक्तिबोध की काव्यगत विशेषताएं रेखांकित कीजिए।
(2001)
Answer : नागार्जुन की काव्यगत विशेषताएं: नवीन युग और उसकी चेतना की अन्तहीन इकाइयों के मध्य, अपने ‘स्व’ को सम्पूर्णता के साथ संपृक्त कर, जीवन को खुली आखों से देख कर, स्वंय से स्वंय को संयोग स्थापित कर, यथार्थ की सपाटता में अपने-आपको सम्मिलित कर, उसके मधुर-कटुतिक्त का आवरणहीन आलेखन नागार्जुन के काव्य का मेरू-दंड है। व्यक्ति में समष्टि का समावेश और समष्टि में व्यक्ति का अशेष योगदान नागार्जुन के काव्य का चिन्तन है। वे जीवन की समस्त उपलब्धियों को पचा कर कविता में विद्रोह प्रस्तुत करते हैं तथा अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को ही कविता में उड़ेल देते हैं। वे और उनकी कविता अभिन्न है। ‘सत्य’ नागार्जुन की कविता का प्राण है। सत्य ही उनकी रचनाओं में नानाविधि रूपायित हुआ है। फिर वह चाहे ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ हो, चाहे ‘बादल को घिरते देखा हो’ और चाहे ‘प्रेत का बयान’ हो। सत्य ही उनकी कविता का कथ्य है और इसी सत्यकथ्य के कारण उन्हें विषय- निर्वाचन की कोई परेशानी नहीं है। सत्य के छोटे-बडे़ अनेकानेक बिन्दु एक ओर उनके काव्य को विविधता से भर देते हैं, तो दूसरी ओर यही उनके शिल्प को भी मांज देते हैं। नागार्जुन की एक-एक कविता खंड सत्य की अखंड दस्तावेज है। इसे रूपायित करने में उन्हें इस बात की कतई चिन्ता नहीं होती कि उसे कैसे आकार प्रदान किया जाए। अपने ‘स्वत्व’ के अनुरूप वह स्वयं ही आकार ग्रहण करती है और इस तरह उनका कथ्य और शिल्प एकाकार है। इसी कारण वह कहीं गंभीर है, कहीं प्रसन्न है और कहीं किंचित ठंडा भी, किन्तु उसमें गतिहीनता कहीं नहीं है। इस प्रकार नागार्जुन का काव्य कथ्य और शिल्प के तनाव-घुमाव से मुक्त एक सहज, जीवन्त और उन्मुक्त रचना-प्रक्रिया है।
नागार्जुन साधारण, सामान्य के कवि हैं। यह सामान्य ही उनके काव्य में प्रतिष्ठित है तथा यह सामान्य ही उनकी कविता का संस्कार है। वे किसी असामान्य, असाधारण और अलौकिक की ओर नहीं दौड़ते। ‘नाकहीन मुखड़े’ के बिम्ब में दर्पण के आरपार में विशिष्ट की अपूर्व छवि है। यह केवल छवि के लिए ही छवि नहीं है वरन् कितनी ही सांकेतिक मुद्राएं इसमें एक साथ आकार ग्रहण कर लेती हैं। ‘खुरदरे पैर’ भी इसी सामान्य का स्थिति बोध हैः
दे रहे थे गति रबड़विहिन ठूंठ पैडलों को
चला रहे थे एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र
..................................................................................
देर तक टकराये
उस दिन आंखों से वे पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयां।
नागार्जुन संस्कृत, पालि, प्राकृत, मैथली और भोजपुरी की विराट्-विपुल शब्द-संपदा लेकर खड़ी बोली में आये हैं। शब्दों का ऐसा विराट भंडार हिन्दी के कम ही लेखकों के पास है। इस भंडार के चयन करते समय वे कीमियागोरी पर ध्यान नहीं देते हैं, वे उसे अनगढ़ ही रहने देते हैं और इस अनगढ़ ढे़र से ही वे कभी ‘युगधारा’ कभी ‘सतरंगे पंखों वाली’ और कभी ‘प्यासी पथराई आंखों’ के बिंबों का निर्माण करते हैं। इसी से कभी ‘अन्त पच्चीसी’ का निर्माण होता है, कभी ‘प्रेत का बयान’ का और कभी ‘आग और शोले’ का। जो है, उसे वैसा ही अंकित कर देना नागार्जुन के लिए महज अनुकरण नहीं है, वह तो अन्तस्-बाह्य से एकाकार हो इस रूप में व्यंजित होता है कि उसमें ‘करुणा’ और ‘आवेश’ एक साथ ही ध्वनित हो उठते हैं। यह एक ऐसी सपाट बयानी है जो सहज-ग्राह्य भी है और व्यंजक भी। ‘नागहीन मुखड़ा’ शीर्षक रचना सपाट और खड़ा बिंब रचना प्रस्तुत करती है, यथाः
गठरी बना गयी
माघ की ठिठुरन
दे गया दिखायी झबरा माथा
सुलग उठी माचिस की तीली
बीड़ी लगा धूंकने नाकही न मुखड़ा
डूब गया सबकुछ अंधेरे में-
शायद दुबारा खिंच जाय कश
चमके शायद दुबारा बीड़ी का सिरा
नागार्जुन ने कहीं-कहीं आमने-सामने दो विरोधी भाव वाले बिंबों को रखकर एक ऐसे भाव-शिल्प को बानगी प्रस्तुत की है जो हिन्दी में एक अलग टाइप हैः
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलायी पांखें कई दिनों के बाद
बिंब प्रसूति की उद्भूत क्षमता नागार्जुन में है। घर, घाट, मैदान, प्रकृति और जीवन में फैले हुए विस्तृत उपकरणों से नागार्जुन ने जो बिम्ब प्रसूत किये हैं, वे उनके अपने हैं, सहज भाव से निरूपित
नागार्जुन की अन्यतम विशेषता उनके व्यंग्यों में निहित है। वे हास्य कभी नहीं लिखते अर्थात् नागार्जुन ने हास्य के लिए हास्य की निर्मित कभी नहीं की। वे व्यंग्य लिखते हैं और उनका व्यंग्यकार सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से रूंपृक्त हो, उसके तार-तार अलग कर सत्य का उद्घाटन करता है। इस व्यंग्य में विद्रोह तथा परिवर्तन की उद्दाम आकांक्षा समाहित है। उनका व्यंग्य न तो बैठे-ठाले का शगल है और न कवि-सम्मेलनी काकातुआ। सामाजिक जीवन की विषम स्थितियों के जैसा यथार्थ स्वरूप नागार्जुन ने निरूपित किया है, वैसी हिन्दी में अन्यत्र तो है ही नहीं, अन्य किसी भाषा में भी है या नहीं, यह शोध का विषय है। नागार्जुन व्यंग्य के माध्यम से सही स्थिति का बोध तो देते ही हैं, पर साथ ही कभी करुणा, कभी क्षोभ और कभी आक्रोश से पाठकों या श्रोताओं को जोड़ देते हैं।
नागार्जुन दायित्व-बोध के कवि हैं। वे केवल सामाजिक यथार्थ के ही कवि नहीं हैं, वरन जीवन की अखंडता के कवि हैं। इसीलिए देहरी और आंगन प्रकृति और परिवेश, रति और विरति, स्मृति और संबोधन सभी कुछ उनका अपना है, इसी कारण जहां कवि कालीमाई को धार्मिक आवरण से अलग कर बौद्धिकता की आंख से परखता है, वहीं ‘झुक आये कजरारे मेघ’, ‘काली सप्तमी का चांद’ और ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी रचनाओं में वह ऋतुबोध से सर्वथा शराबोर भी हो उठता है। एक ओर वह ‘शूर्पणखा’, ‘अहल्या’, ‘रेणुका’ आदि जैसी रचनाओं में पुरानी गाथाओं में अन्तर्निहित वर्तमान सत्य को उजागर करता है तो दूसरी ओर ‘कालिदास’ जैसी रचनाओं से कवि की रचना-प्रक्रिया को भी प्रस्तुत करता हैः
कालिदास सच-सच बतलाना।
इन्दुमती के मृत्यु-शोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
शिवजी की तीसरी आंख से
निकली हुई महाज्वाला में
धृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रन्दन सुन आंसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास सच-सच बतलाना
रति रोई या तुम रोये थे?
नागार्जुन घर और परिवार के भी सहज कवि हैं और उनका परिवार बोध सम्पूर्ण रूप से भारतीय है। ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ और ‘यह दन्तुरित मुस्कान’ जैसी रचनाएं इस तथ्य का प्रमाण हैं। ऐसी अन्य रचनाओं में शिल्प की उत्कृष्टता देखी जा सकती है।
नागार्जुन बंधी-बंधाई लीक के कवि नहीं हैं, उनमें प्रयोगधर्मिता सतत् जागरूक है। दोहे, बारवै, गीत, तुकबंदी, छन्दबद्ध और छन्दविहीन सभी पर नागार्जुन का समान अधिकार है। वे ‘चना जोर गरम’ से लगा कर ‘मंत्र कविता’ तक के सर्जन हैं, मुक्त छंद से लेकर ‘भस्मांकुर’ खंड-प्रबंध की रचना तक वे समर्थ हैं।
नागार्जुन वादों से परे निर्विवाद हैं। कभी उन्हें लोगों ने साम्यवादी कहा और कभी विद्रोही। यह तो बाबा नागार्जुन का एक-एक अलग रूप है। कुल मिला कर वे जीवन की अच्छाई के कवि हैं। घिसीपिटी शब्दावली में ‘लोकमंगल’ के कवि हैं। इसीलिए ही वे ‘अन्नपचीसी’ और ‘चना जो गरम’ की रचना करते हैं तो ‘प्रेत का बयान’ और ‘आग और शोले की भी रचना करते हैं। उनकी अनेकानेक रचनाएं उनके जीवन काल में ही खो गयी हैं, अनेक पत्रिकाओं के पृष्ठों में बिखरी पड़ी है। और उससे भी अधिक पांडुलिपियों में कैद हैं। इन सारी रचनाओं को यदि देखा जाय तो जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जो उनके काव्य का अंग नहीं बना। इस प्रकार नागार्जुन के लिए जीवन का प्रत्येक कण पवित्र है और कविता का सहज स्वाभाविक अवलम्ब।
मुक्तिबोध की काव्यगत विशेषताएं: मुक्तिबोध अपने काव्य की सर्जन-प्रक्रिया को अचेतन व्यापार न मानकर उसे ‘ठोस वास्तविकता’ का साक्षात्कार मानते हैं। इसके बारे में वे कहते हैं- ‘वास्तविकता का एक साक्षात्कार कवि को दूसरे साक्षात्कार तक पहुंचा देता है और यह प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती, चलती रहती है। स्पष्ट है कि मुक्तिबोध वास्तविकता को अपने काव्य का एक दृढ़ आधार बनाकर चलते हैं। यही कारण है कि यथार्थ, कटु यथार्थ का जितना बोध मुक्तिबोध को है, उतना संभवतः किसी अन्य कवि को नहीं है। कवि जीवन के विविध क्षेत्रों से संबद्ध यथार्थ का चित्रण करता है। यह यथार्थ कल्पना का न होकर भोगे हुए या घटित जीवन का यथार्थ है। मतलब यह है कि यथार्थ भोगा पहले गया है, व्यक्त बाद में किया गया है। कवि के समक्ष यथार्थों का संग्रह है और उसे ‘स्याह पहाड़’ की संज्ञा देते हुए कहता हैः
‘आज के अभाव के, व फल के उपवास के
व परसों की मृत्यु के
दैन्य के, महा अपमान के, व क्षोभपूर्ण
भयंकर चिन्ता के उस पागल यथार्थ का
दीखता पहाड़-
स्याह’
ट्रेजडी और संत्रस का प्रयोग मुक्तिबोध के काव्य में आधुनिक जीवन के पीड़ाबोध के संदर्भ हुआ है। कवि इस संत्रस के आधारभूत कारणों को अपनी कविता में विवेचित किया हैः
‘विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
सुनता हूं ध्यान से
अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और
पाता हूं अकस्मात्
स्वर के स्वर में
औरांगउटांग की बोखलाती हुंकृति
ध्वनियां एकाएक भयभीत
पाता हूं पसीने से सिंचित
अपना यह नग्न मन’
मुक्तिबोध की कविता वैविध्य और विरोध से परिपूर्ण कविता है। वस्तुतः उसका उद्भव ही विविध विरोधों की मंत्रणा में भी अनुभूतियों से हुआ है। इसी कारण उनकी कविता में यंत्रणा, त्रस, पीड़न, भूख, मृत्यु, दरिद्रता तथा सामाजिक उलझनों का आशावाद और साथ-ही-साथ एक विचित्र अवसाद और नैराश्य की कथाएं भी हैं। अनेक अन्तर्कथाओं के सूत्रों के रूप में मुक्तिबोध की कविताएं में एक साथ ही अनुकूल और प्रतिकूल जीवन-विधान के अनुभव मिलते हैं इस प्रकार विरोध की अनेक दिशाएं उनके काव्य में मिलती है। मुक्तिबोध के जीवन प्रसंग को देखने तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपने ‘समाज’ अपने इतिहास, अपने अस्तित्व और अपने आप से काफी लड़ाई लड़ी है। अपने आप से लड़ने की इस लड़ाई में उनका सही विरोध और विद्रोह व्यक्त हुआ है। उनकी अंधेरे में शीर्षक कविता उनके अपने अन्दर की इस लड़ाई की प्रतीक कविता है, जिसमें घोर अवसाद और घोर विद्रोह के तत्व पूर्ण समानता से भरे गए हैं।
सामाजिकता और वास्तविकता के निर्वाह के साथ-साथ मुक्तिबोध अपने काव्य में स्वयं अपने लिए भी सचेत रहे हैं। ‘सैल्फ कांशसनेस’ का यह भाव उनकी अनेक कविताओं में देखा जा सकता है। अधिकतर ऐसे अवसरों पर कवि ने आत्मालोचन अधिक की है। आत्मालोचन में उन्होंने स्वयं को कई स्थलों पर विशिष्ट भी सिद्ध किया है, किन्तु ध्यातव्य यह है कि अपने इस निष्कर्ष में उन्होंने कहीं भी अहंकार का आश्रय ग्रहण नहीं किया। निरर्थक भावुकता भी ऐसे स्थलों पर देखने को नहीं मिलेगीः
‘मैं केवल तुम पर जीवित हूं।
मेरी सांस, किन्तु तेरा तन,
मेरी आस और तेरा मन,
तू है हृदय और मैं लोचन
मैं हूं पूर्ण, अपूर्ण झेलकर,
मैं अखंड, खंडित प्रतिमा पर।’
सामाजिकता और वास्तविकता तथा उससे कतिपय पक्षों का आधार ग्रहण कर निर्मित होने वाले काव्य में व्यंग्य और विद्रूप का अंतर्भूत हो जाना स्वाभाविक ही है। वस्तु-सत्य तो यह है कि नई कविता का जल ही वस्तुतः जीवन के विद्रूप वैषम्यों का व्यंग्यमय प्रत्यंकन के लिए, उसी अर्थ में हुआ। इस काव्य वैशिष्ट्य के लक्ष्य अनेक हुआ करते हैं- विविध परिवेश, मूल्य, राजनैतिक, सामाजिक स्थितियां आदि। एक परिवेश पर व्यंग्य इस प्रकार हैः
गांधी की मूर्ति पर,
बैठे हुए घुग्घू ने
गान शुरू किया,
हिचकी की ताल पर,
टेलीफून खम्भों पर थमें हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक-काल सूरों में
थर्राना और झनझनाना शुरू किया
रात्रि का काला-स्याह
कन-टोप पहने हुए
आसमान बाबा ने हनुमान-चालीसा,
डा. रामविलास शर्मा के शब्दों में मुक्तिबोध की कविता असुरक्षित जीवन की कविता है। उसमें भावबोध की अस्थिरता और विचारों की उलझन भी है। यह बिलकुल ठीक है। असुरक्षा का भाव नियमबद्ध जीवन को तोड़ कर रख देता है। इस कवि की कविताओं को रखने से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है।
इस प्रकार मुक्तिबोध के काव्य में आज के जीवन के परिवेश के अभाव, आकस्मिकता, षड्यंत्र, उच्चश्रृंखलता, हत्याएं, कुंठित मानसिक स्थितियां, तनाव, घुटन, संत्रस आदि तत्व घनीभूत रूप में अन्तर्भूत हैं।Question : सूफी काव्य धारा
(2000)
Answer : हिन्दी साहित्य के मध्यकाल के आरंभ से पूर्व ही एक ऐसी काव्य- परंपरा का प्रवर्तन हो चुका था जिसे- ‘प्रेममार्गी’ (सूफी) शाखा, प्रेम काव्य, प्रेमाख्यान काव्य, सूफी काव्य आदि नामों से पुकारा जाता है। इस परंपरा के काव्य ग्रंथों में प्रेम तत्व की प्रमुखता है, किंतु इसका प्रेम तत्व परंपरागत भारतीय श्रृंगार भावना से थोड़ा भिन्न है। सूफी प्रेम तत्व में संयोग को कम वियोग श्रृंगार या विरह पक्ष को विशेष महत्व दिया गया है। यही कारण है कि सूफी कवियों ने अपने काव्य में पूरा ध्यान प्रेमी-प्रेमिकाओं के विरह वर्णन इस अवधि में झेले जाने वाले कष्ट प्रिय (ईश्वर) को पाने के लिए सभी प्रकार के प्रयत्नों में लगा है। वस्तुतः यहां विरह दशा ही वह मनोभूमि है, जो चित्त की समाधि या प्रिया के प्रति नितांत एकनिष्ठता लाती है। सूफियों ने विरह वर्णन के अंतर्गत ऋतु वर्णन और बारहमासा वर्णन का विशेष महत्व दिया है और विरह का इतना अतिरंजित- ऊहात्मक -वर्णन किया है कि विरह के ताप से सूरज लाल पड़ जाता है, गेहूं का पेट फट जाता है, कौआ काला पड़ जाता है और आंख से आंसू की जगह खून बहता है, खून मांस गिरने का यह वर्णन, अनुपात में इतना बढ़ जाता है कि प्रायः वीभत्सता भी आ जाती है। पर सूफी कवियों में जायसी का विरह- वर्णन हिन्दी साहित्य की निधि है। इसमें मनुष्य और अन्य जीवों के बीच इस अनुभूति को शामिल किया गया है।
सूफी कवियों ने अपनी प्रेम-कहानी में जितना ध्यान उसके घटना चक्रों, रहस्यात्मक वर्णनों, विस्तार-विवरणों, प्रसंग और परिवेश चित्रण पर केंद्रित किया है, उतना चरित्र-चित्रण पर नहीं। मूलतः ये सभी पात्र सूफी प्रेम सिद्धांत को सामने लाने के माध्यम मात्र रहे हैं। यही कारण है कि इन पात्रों में मानव जीवन के वैविध्य की झलक पर भी मानव जीवन के पूर्ण चित्र नहीं मिलते हैं।
सूफी काव्यों को काव्य रूप की दृष्टि से प्रबंधकों की कोटि में रखा जाता है। किंतु सूफी कवियों का प्रबंधत्व भारतीय काव्यशास्त्र के नियमों में बंधकर नहीं चलता है। इन प्रबंधकाव्यों के लिए भारतीय प्रबंध काव्यों की भांति सर्गबद्धता अनिवार्य नहीं है और न नायक का उच्च कुलीन होना ही अनिवार्य है। वास्तव में सूफी काव्य का ढांचा प्रेम कथा के प्रतिपादन पर खड़ा होता है- महान नायक की भारतीय अवधारणा पर खड़ा नहीं होता।
सूफी काव्यों की कथा, पात्र योजना, स्थान यात्र तथा अन्य विवरण सभी प्रतीक के रूप में आए हैं। "चित्रवती", "मधुमालती", "हंस जवाहर", "पद्मावत" आदि काव्यों की पूरी कथा ही प्रतीक है, जिसमें लौकिक प्रेम कथा के उदय, क्रम विकास परिणाम में अलौकिक प्रेम की झांकी मिलती है। पूरी कथा में नायक आत्मा का प्रतीक होता है और नायिका परमात्मा का प्रतीक बनकर आती है। इसलिए यह सभी प्रेम काव्य एक प्रकार के कथा, रूपक या प्रतीक काव्य है। सूफी काव्य में अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है। इस काव्य भाषा की सर्जनात्मकता का ठेठ देशी रूप जायसी के फ्पदमावत" से मिलता है। अलंकारों के क्षेत्र में सूफियों ने प्रचलित परंपरा का ही अनुसरण किया है। नवीन अलंकार विधान के उल्लेखनीय उदाहरण हिन्दी के सूफी काव्यों में नहीं मिलते हैं। रूपक, उपमा, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि में सूफी डूबे रहते हैं। अरबी-फारसी से प्रभावित होने पर भी सूफियों की पूरी उपमान योजना भारतीय है। सूफियों की छंद योजना फारसी की बहरों पर आधारित न होकर अपभ्रंश के चरित-काव्यों, धर्म कथाओं तथा सिद्धों के कतिपय फुटकर पदों में उपलब्ध चौपाई. दोहा ही है। जायसी की दोहा-चौपाई पद्धति को फ्कड़वक बद्ध पद्धति कहना चाहिए, जो अपभ्रंश के चरित काव्यों से गृहीत की गई है। चौपाई, दोहा, छंद में भी जायसी पुरानी शास्त्रीय व्यवस्था नहीं मानते हैं। उनकी स्वच्छंदता ही उनकी शक्ति बन गयी है।"
Question : घनानन्द की काव्यगत विशेषताएं
(2000)
Answer : घनानन्द का नाम रीतिमुक्त या रीति स्वच्छंद कवियों में सर्वोपरि है। रीति की प्रवाहमान धारा के विरुद्ध खड़े रहकर एक नव्यतम काव्यधारा का प्रर्वतन करने का श्रेय घनानन्द को है। ब्रजभाषा कविता को परंपराओं के बंधन से मुक्त कराकर एक नयी दिशा देने में महत्वपूर्ण पहल घनानन्द ने की। अतः रीति स्वच्छंदता इनके काव्य की केंद्रीय विशेषता है। उन्होंने रीतिबद्ध कवियों के समान काव्यशास्त्र द्वारा निर्धारित परिपाटी या रूढि़यों में बंधकर काव्य सृजन न करेक अपने मनोभावों के अनुरूप काव्य रचना किया। तथा स्वच्छंद काव्यधारा का प्रवर्तन किया। इन्होंने भाव और शिल्प दोनों ही क्षेत्र में स्वच्छंदता को अपना कर काव्य की रचना की। घनानन्द की स्वच्छंदता उनके बिंब-विधान, भाषा प्रयोग और प्रेम की मनः स्थितियों के चित्रण में सर्वत्र देखा जा सकता है। आधार भाषा के स्तर पर घनानंद की भाषा परंपरागत साहित्यिक ब्रजभाषा से अलग एक रूप में है। ब्रज के एकदम ठेठ प्रयोग उनकी भाषा में अपेक्षाकृत अधिक है।
घनानंद के जीवन वृत्त का स्पष्ट प्रभाव उनके काव्य में मिलता है। घनानंद मुगल शासक मुहम्मदशाह के दरबार में मीरमुंशी थे, उसी समय उन्हें सुजान नामक वेश्या से अनुराग हो गया। बाद में इन्हें दरबार से भी निकाल दिया गया तथा सुजान ने भी इन्हें ठुकरा दिया। प्रेम के इस पीर की झलक घनानंद के काव्य में देखा जा सकता है। घनानंद ने अपनी इस आंतरिक अनुभूतियों को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। अतः उनके काव्य में बनावटीपन नहीं है, बल्कि एक सहज स्वाभाविकता है। इनकी कविता आत्मप्रदर्शन का साधन न होकर आत्माभिव्यक्ति का साधन है, कारण है कि इनकी कविताओं में भावावेग की तीव्रता है तथा उसमें कवि को कसक और पीड़ा की अभिव्यक्ति मिली है।
प्रेम का अनुभव स्वयं होने के कारण घनानंद ने प्रेम-सौंदर्य और विरह-वेदना को एकनिष्ठ होकर इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को भी स्थापित करने में सफलता पायी है। इस प्रकार स्वानुभूत प्रेम होने के कारण प्रेम का गहन एवं स्वाभाविक चित्रण घनानंद की विशेषता है। इनके प्रेम में जीवन की ताजगी, तीव्रता तथा ऊर्जा मिलती है। प्रेम में छल-कपट, दुराव-छिपाव तथा कृत्रिमता के लिए कोई जगह नहीं हैः
"अति सूधो सनेह कौ मारग है, यहां नैकु सयानप बांक नहीं, तहं सांचै चलै तजि आपनपौ, झिझकें कपटी यो निसांक नहीं"
घनानंद के प्रेम की एक प्रमुख विशेषता विरह की प्रधानता है। ये अपने प्रेम की सार्थकता विरह और पीड़ा में ही मानते हैं, मिलन और भोग में नहीं। इनके प्रेम में संयोग के समय भी वियोग की आशंका व्याप्त रहती है
"यह कैसो संयोग न बूझि परै कि वियोग क्यौं हूं विछोलत है"
इस प्रकार घनानंद के वियोग वर्णन में ऊहात्मकता एवं संयोग वर्णन में अश्लीलता का अभाव है। इनके विरह-वर्णन की खास विशेषता यह है कि यहां विरह नारी का न होकर पुरुष का है।
इस प्रकार घनानंद का वियोग काफी मार्मिक उदात्त, पुष्ट और प्रभावी है। इनका कला पक्ष भी उन्नत और समृद्ध है। काव्य-गुण, रसछंद, अलंकार और भाषा सभी दृष्टियों से उनका कलापक्ष पौढ़ता के चरम रूप को प्रस्तुत करता है।
Question : नयी कहानी
(2000)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति तक हिन्दी में कोई कहानी आंदोलन नहीं चला। स्वतंत्रता के बाद नयी कहानी के रूप में एक ऐसा कहानी आंदोलन चला, जिसने कहानी के पारंपरिक प्रतिमानों को नकार दिया और अपने मूल्यांकन के लिए नयी कसौटी का निर्धारण किया। जिस कालखंड की कहानी को नयी कहानी कहा जाता है, उसे मोटे तौर पर 1954 से सन् 1963 की सीमाओं में बांधा जा सकता है। इस अन्य कहानियों से अलग पहचान के लिए ‘नयी कहानी’ किसने कहा। इस पर भी थोड़ा मतभेद है। कुछ लोग इसका श्रेय नामवर सिंह को देते हैं तो कुछ लोग दुष्यंत कुमार को। लेकिन इस संदर्भ में नामवर सिंह की यह बात ही ठीक लगती है। कहानी की चर्चा में अनायास ही ‘नयी कहानी’ शब्द चल पड़ा है और सुविधानुसार इसका प्रयोग कहानीकारों और आलोचकों ने भी किया है। स्वतंत्रता मिल जाने पर भारतीय मानस में एक नयी चेतना, नये विश्वास और नयी आशा-आकांक्षा का जन्म हुआ। उसे एक बदला हुआ यथार्थ मिला, जिसने सामाजिक संबंधों, मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को नया संदर्भ प्रदान किया। नयी कहानी के आंदोलनकारियों ने जिसमें राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर के नाम प्रमुख हैं- इस बदले हुए यथार्थ और नये अनुभव- संबंधों की प्रमाणिक अभिव्यक्ति पर बल दिया।
नयी कहानियों ने परिवेश की विश्वसनीयता अनुभूति की प्रमाणिकता और अभिव्यक्ति की ईमानदारी का प्रश्न उठाया और आग्रह किया कि ‘नयी कहानी’ अपने युग-सत्य से सीधे जुड़ी हुई है, जिसका मूल उद्देश्य पाठक को उसके समकालीन यथार्थ से यथार्थ रूप से परिचित कराना है। फणीरश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, अमरकांत, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, शानी, ऊषा प्रियंवदा, हरिशंकर परसाई तथा शैलेश मटियानी जैसे कहानीकारों ने अपने युगीन यथार्थ की मार्मिक एवं प्रमाणिक अभिव्यक्ति करके नयी कहानी आंदोलन को तीव्र किया। राजेन्द्र यादव ने एक दुनिया समानान्तर नामक पुस्तक का संपादन करके नयी कहानी का एक प्रमाणिक संग्रह प्रस्तुत किया। इस पुस्तक में संग्रहीत अनेक कहानियों के लेखक ने आगे चलकर अपने विशिष्ट रचना-शिल्प के आधार पर अपनी अलग पहचान बनायी, जैसे रेणु को आंचलिक कथाकार के रूप में ख्याति मिली।
नयी कहानी के साथ जुड़ा ‘नयी’ शब्द कहानी की नयी संवेदना, नयी दृष्टि और नये संबंध को रेखांकित करती है। स्वतंत्रता के बाद होने वाले सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन ने सामाजिक जीवन में काफी उथल-पुथल मचाई, पुराने रिश्ते-नाते बिखर गए, परिवार का परंपरागत ढांचा, जो प्रेमचन्द के समय ही चरमरा गया था, अब बुरी तरह बिखर गया। ‘नयी कहानी’ ने इन सारे परिवर्तित-विघटित होते हुए संबंधों एवं मूल्यों को बड़ी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाया। महानगरीय, कस्बाई एवं ग्रामीण जीवन का बोध, यथार्थ-चित्रण,ऐतिहासिक मोहभंग, मध्यवर्गीय जीवन का मार्मिक अंकन, सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों के बिखराव और मिलान की सही पहचान, नवीन भाषा शिल्प आदि नयी कहानी की मुख्य विशेषता है। मोहन राकेश ने ‘मलबे की मालिक’ कमलेश्वर ने ‘दिल्ली में एक मौत’ जैसी कहानियां लिखकर स्वतंत्र्योत्तर भारत के नगरीय जीवनबोध को ईमानदारी के साथ चित्रित किया है। वास्तव में नयी कहानी में स्थूल कथानकों के स्थान पर सूक्ष्म कथा तंतुओं को प्रधानता मिली, सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता का प्राधान्य हुआ। इस प्रकार हिन्दी की समूची कहानी यात्र में ‘नयी कहानी’ अपनी अलग पहचान बनायी।
Question : क्या रीतिकालीन काव्य दरबारी- काव्य होते हुए भी लोकजीवन से जुड़ा हुआ है? सोदाहरण उत्तर दीजिए।
(2000)
Answer : साहित्य के निर्माण में युगीन परिस्थितियों की महत्व पूर्ण भूमिका होती है। इस दृष्टि से यदि रीतिकालीन युगीन परिस्थितियों का आकलन करें, तो हम पाते हैं कि यह घोर अव्यवस्था का युग था। सारा देश युद्ध और विप्लव का क्षेत्र बना था। सामन्त लोग वैभव और विलास में डूबे हुए थे तथा उनकी दृष्टि है देहिक सुखों तक ही सीमित रह गयी थी। इन्हीं परिस्थितियों में रीतिकालीन - काव्य की रचना हुई। चूंकि रीतिकालीन कविता जनता के बीच से उठकर राजदरबारों की केंद्र में आ गई थी। उसने भक्तों की कुटिया को त्यागकर, सामंतों के महलों में अपनी जगह तलाशी। इसी कारण वह जनाकांक्षाओं और जनानुभूतियों के चित्रण की जगह सामंतों की अभिरुचियों के चित्रण में ही अधिक लगी रही। रीतिकालीन कवि भक्त कवियों के विपरीत राजाश्रय में रहते हैं। ये मानते थे कि कवि का सम्मान राजसभा में है और राजसभा या राजा का सम्मान कवि से हैः
‘कवि से लस्त भूप
भूप से लस्त कवि।’
भक्तिकाल के भक्त कवियों को सीकरी से कोई काम न था- ‘संतन को सिकरी से को काम’, लेकिन रीतिकालीन कवियों की स्थिति यह है कि सीकरी के बिना- ‘सरै न एकौ काम।’ रीतिकालीन कविता सामंती परिवेश और उनके ब्यौरों से पटी हुई है। इनके कवियों की सरस्वती भी कमलों से सुशोभित और भ्रमरों से मुखरित स्वच्छ सरोवरों में स्नान करती हुई सुंदरियों के अनावृत्त सौंदर्य को देखकर फूटती है। अपने इतिहास में शुक्ल जी ने रीतिकाल को एक विचित्र संयोग कहा है। भक्तिकाल के सांस्कृतिक जागरण और इसकी जनोन्मुखी कविता के बाद दरबारी सामंती संस्कृति से जुड़ी हुई रूढि़बद्ध, जनजीवन से कटी हुई, अलंकार और नायिका भेद से बंधी हुई और शब्द कौशल के सहारे टिकी हुई कविता का आना और दो सौ वर्षों तक प्रभावशाली बना रहना विचित्र संयोग ही नहीं एक ऐतिहासिक त्रसदी है। आचार्य शुक्ल रीतिकालीन कविता के सीमित भाव क्षेत्र, श्रृंगार प्रियता और साहित्यिक सुरुचि के अभाव के कारण की चर्चा करते हुए कहते हैं कि तत्कालीन जनता की रुचि, इसका कारण नहीं है। कारण है राजाओं-महाराजाओं की रुचि जिनके लिए कर्मण्यता और वीरता का अवसर नहीं रह गया था। यहां शुक्ल जी ने दो टुक शब्दों में रीतिकालीन कविता के वर्गाधार को स्पष्ट कर दिया है।
रीतिकालीन कवियों ने अपनी काव्य प्रतिभा दरबारी संस्कृति के संरक्षक तत्वों से मंजी थी। इस कारण रीतिनिरूपण या श्रृंगार के चित्रण में उलझे इन कवियों की कविता गुदगुदाती है, चमत्कृत करती है, लेकिन रसानुभूति कराने वाला भावोन्मेष पैदा नहीं करती है। बिहारी, देव, चित्रण मतिराम आदि कवि जितनी शक्ति काव्यकौशल पर खर्च करते हैं, उतनी भाव सौंदर्य के चित्रण पर नहीं। कृत्रिमता और अस्वाभाविकता, इनके काव्य के दो आवश्यक गुण हैं। सामान्य जीवनानुभव से इनका कुछ लेना-देना नहीं था। जीवन की गहराई और मार्मिकता से ये अपने को दूर रखते हैं। शुक्ल जी ने ठीक लिखा है कि जायसी आदि ने जो रानी का चित्रण किया है वह सामान्य नारी की तरह उनकी रानी एकापन भूल जाती है, लेकिन रीतिकालीन कवि सामान्य नायिकाओं का चित्रण भी रानियों की तरह करते हैं। यहां यदि संगमरमरी महल, खसखाने, गुलगुली गिल में गलीचा यदि नहीं है, तो इनकी नायिकाओं के प्रेम का दम घुटता है। मतलब साफ है, यहां प्रेम की आंतरिकता की नहीं बाह्य सजावट और शोभा की दरकार है। पद्माकर आदि ने तो होली के बहाने नग्नता एवं अश्लीलता से भी परहेज नहीं किया है। इनकी कविता में मोहकता और रसिकता भले ही मिल जाए लेकिन इनमें प्रेम संबंधी मर्यादा नहीं मिलती है। पद्माकर को कुछ पंक्तियां देखी जा सकती हैं:
""फाग के भीर, अभीरन में गही
गोविन्द ले गयी भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर
उपर नाई अबीर की झोली।
छीनी पितम्बर कम्मर तै
सुबिदा दयी मिडि़ कपोलन रोरी।
नैन नचाय कहयो मुस्काय
लला फिर आइयो खेलन होरी।।"
रीतिकालीन श्रृंगारिक कवियों ने प्रेम-चित्रण के क्रम में भोगवादी मनोवृत्ति का इजहार किया है। इनका प्रेम उपभोक्तामूलक संस्कृति की देन है। यह जनता के एक बड़े हिस्से के अनुभव से दूर की चीज है। इसमें नायक और नायिकाओं का न तो व्यक्तित्व उभरता है और न ही एक-दूसरे के प्रति उत्सर्ग की भावना दिखती है। हालांकि यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि डा. नागेन्द्र ने ऐसे प्रेम को गृहस्थिक प्रेम कहा है। गृहस्थिक प्रेम तो दाम्पत्य जीवन से उद्भूत होता है। यह पति-पत्नी का मोहक पारिवारिक प्रेम है। यह एक का एक के प्रति प्रेम है। जबकि रीतिकालीन प्रेम एक के प्रति प्रतिबद्ध प्रेम नहीं है। यह किसी कामतृ षित नायक का नारी सामान्य के प्रति प्रेम है, किसी विशेष के प्रति नहीं, क्योंकि वह प्रेम तो गृहस्थिक होता है। ‘देव’ कहते है कि नारियों के अलग-अलग व्यक्तित्व नहीं होते हैं। क्या गांव की क्या शहर की नारियां सभी एक जैसी होती हैं:
"कौन गने पुरवन नगर
कामिनी एकै रीति।"
रीतिकालीन प्रेम न तो जीवन व्यापार से पैदा हुआ है और न ही इसका संबंध तत्कालीन वास्तविकता से है। यहां तो प्रेम एक वस्तु है ठीक उसी तरह जिस तरह रीतिकालीन कविता एक वस्तु है। यह दरबारी जरूरतों की पूर्ति का साधन मात्र है। इन कवियों ने यदि नायिका भेद का चित्रण किया है तो जाहिर है कि इनका नायिका भेद नारी के भोग्य रूपों का ही विस्तार है, ऐसा चित्रण राजाओं महाराजाओं के कामवासना को उत्तेजित करने के लिए किए जाते थे। रीतिकालीन कविता नारी के यदि व्यक्तित्व को खारिज करती है, उसे सामाजिक प्रयोजनों के योग्य नहीं समझती, उसे काम-क्रीड़ा की वस्तु मानती है तो वह भी उपभोक्तामूलक सांस्कृतिक मानसिकता की वजह से। ‘देव’:
"काम अंधकारी जगत
लखे न रूप-कुरूप
तातै कामिनि एक ही
कहन-सुनन को भेदा"
रीतिकालीन भक्ति से संबंधित कविता को यदि देखा जाय तो वह भी दरबारी भोगवादी संस्कृति से ही सरावोर है, उसे सामान्य जन से कुछ लेना-देना नहीं है। मर्यादावादी रामकाव्य का रसिकोपासना की ओर मुड़ना इसका प्रमाण है। ‘रामचरणदास जी’ ने ‘स्वसुखी संप्रदाय’ बनाकर, ‘जीवाराम जी’ ने ‘ततसुखी सम्प्रदाय’ गढ़कर क्रमशः स्त्रीभाव एवं सखीभाव से माधुर्योपासना शुरू की। इनके इष्ट राम नहीं राम लला हैं और इनकी रुचि असुर संहार कर जनसामान्य को कष्टों से मुक्त करने में न होकर प्रमोद वन में सीता के साथ अभिसार करने में है। प्रेमाख्यानाक और कृष्णा काव्य तो पहले से मधुर्योपासना की ओर मुड़े थे। इस काल में भक्ति अपने आध्यात्मिक औदात्य को त्यागकर ऐहिकता को महत्व देती है। यदि तत्कालीन परिवेश में ही कामवासना की अभिव्यक्ति की होड़ थी तो ये भक्त कवि उससे कहां तक बचते। दरबारी कवियों ने भक्ति के जो पद रचे उसमें भी चमत्कारवाद से पीछा नहीं छुड़ा पाये हैं:
‘‘ तदी तीरथ हरि राधिका
तन थ्विती कर अनुराग
जेही ब्रज केली निकुंज मग
पग-पग होत प्रयाग।’’
डा. नागेन्द्र ने राजाओं, सामंतों की कुरीतियों को छिपाकर रीतिकालीन कविता एवं दरबारी काव्य के उदय के लिए समस्त जनता की कुरुचि को कारण माना है। घोर सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाह्य अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर की चाहरदिवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन होता था, न धर्म चिंतन अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम था- काम। जीवन की बाह्य असफलताओं से आहत मन नारी के अंगों में मुंह छिपाकर कम-से-कम बेसुध और विभोर तो हो जाता था। यहां डा. नागेन्द्र ने रीतिकालीन कविता के वास्तविक वर्गाधार को छिपा लिया है। वे समस्त जनता के विलास वृत्ति को ही, इसके कारण के रूप में देखते हैं जो उचित नहीं है। आचार्य द्विवेदी ने रीतिकाल पर उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य और काव्यशास्त्र के प्रभाव के कारणों को स्पष्टीकरण करते हुए, रीतिकाव्य के सामाजिक आधार के संबंध में जो विचार व्यक्त किया है, वह उचित ही है। द्विवेदी जी ने कहा है कि उस युग में समाज दो श्रेणियों में बंटा हुआ था। एक वर्ग उत्पादक था इसमें किसान तथा उसके खेतों से जुड़ी हुई, जातियां- लोहार-कंहार, बढ़ई, जुलाहे इत्यादि थे। दूसरा वर्ग भोक्ता था। इसमें राजा, नवाब, रईस या इनके भोग में सहयोग देने वाले मनसबदार आदि थे। इन दोनों के बीच एक तीसरा वर्ग कवि, चित्रकार, नर्तक, शिल्पी और अन्य कलावंतों का था। ये लोग आते तो थे उत्पादक वर्ग से ही, लेकिन ये राजा- रईस, नवाब आदि का मनोविद करके जीविकोपार्जन करते थे। जिस वर्ग को इन्हें मनोविद करना था, उनके जीवन से ये लोग परिचित नहीं थे। इनके रुचियों की भी इन्हें जानकारी नहीं थी। ऐसी स्थिति में इन राजा- रईसों की अभिरुचियों की जानकारी के लिए इन्हें पुस्तकीय ज्ञान की जरूरत थी। पुस्तकों से ही यह पता चल सकता था कि इन राजाओं की जरूरतें क्या हैं। राजाओं की जरूरतों के अनुरूप कविता लिखने, इन्हें नायिका भेद, शंृगार और शब्द कौशल आदि की जरूरत थी। ये चीजें इन्हें रति रहस्य आदि कामशास्त्रीय ग्रंथों एवं अलंकार शास्त्रें में ही मिल सकती थी। हर युग के कवि अपनी रचनात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप ही अपनी परंपराओं से जुड़ते हैं। रीतिकालीन कवि भी अपनी दरबारी संस्कृति, को ध्यान में रखकर ही उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य एवं काव्यशास्त्र संबंध जोड़ा। उन्हें अपनी आश्रयदाताओं की आवश्यकता को पूरा करना था न कि लोक जीवन की आवश्यकता को और आश्रयदाताओं को जो चाहिए था, वह भक्तिकालीन कविता से जुड़ने में नहीं मिलती। इस प्रकार रीतिकालीन काव्य लोकजीवन से न जुड़ा होकर दरबारी संस्कृति से जुड़ा हुआ है।
Question : "भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई, उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भावना जगाई।" कथन की समीक्षा कीजिए।
(1999)
Answer : भक्ति आंदोलन वर्तमान के सापेक्ष अतीत का पुनर्मूल्यांकन है। यह महज धार्मिक आंदोलन नहीं है, वरन् यह उस सांस्कृतिक जागरण की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो गहरे मानवीय सरोकार से उपजी है। इस मानवीय सरोकार के कारण ही इसमें एक ओर सामंतवाद विरोधी चेतना मौजूद है, तो दूसरी ओर ब्राह्मणवादी, पुरोहित वर्चस्व वाली व्यवस्था के विरुद्ध, उग्र विद्रोही स्वर। जाति, संप्रदाय और क्षेत्र विशेष की सीमाओं को अतिक्रमित करता हुआ भक्ति आंदोलन भारत की करोड़ों जनता के बीच अपनी पहचान बनाता है। सच तो यह है कि यह लंबे सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद का प्रतिफल है। यह संवाद उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच चल रहा था, लोक और शास्त्र के बीच चल रहा था, हिन्दू और इस्लाम के बीच चल रहा था। पूरा का पूरा संवाद ज्ञान के आलोक और अज्ञान के अंधकार के विरुद्ध था। इसलिए जागरण का सातत्य भक्तिकाल का मूलस्वर है। इसी का आह्नान् करते हुए तुलसी ने विनयपत्रिका में लिखा हैः
"अब लौं नसानी, अब लौं नसैहों।
रामकृपा भव निसा-सिरानी, जागै फिरि न डसैहों।"
यही बात कबीर अपने ढंग से कहते हैं-
"संतों आई ज्ञान की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबे उड़ा ली, माया रही न बाँधि रे।"
इन समकालीन भक्तों के अलावा आधुनिक काल के विद्वानों ने भक्ति आंदोलन के प्रेरणा स्रोत या उदय की व्याख्या की है। इनमें ग्रियर्सन, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्ति की उदय की व्याख्या तीन भिन्न रूपों में करते हैं। ग्रियर्सन इस संदर्भ में किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाते कि यह कहां से आई, इसका प्रादुर्भाव क्यों और कब हुआ? फिर भी वे अनुमान के आधार पर भक्ति आंदोलन को ईसाइयत की देन बतलाते हैं। तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में ग्रियर्सन लिखते हैं- ‘हम अपने आपको ऐसे आंदोलन के समक्ष पाते हैं, जो उन सब आंदोलनों से अधिक विशाल है, जिन्हें भारत वर्ष ने कभी देखा है। यहां तक कि बौद्धधर्म से भी अधिक विशाल, क्योंकि इसका प्रभाव आज तक विद्यमान है। उन्होंने इस संदर्भ में अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहा- फ्बिजली की चमक के समान अचानक इन समस्त धार्मिक मतों के अन्धकार के ऊपर एक नई बात दिखाई दी। कोई हिन्दू नहीं जानता कि यह नई बात कहां से आई और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का निश्चय नहीं कर सकता है।" ईसाइयत की देन के संदर्भ में ग्रियर्सन के अनुमानों का मूल कारण यह है कि दूसरी-तीसरी सदी में कुछ ईसाई मद्रास तट पर आकर बसे थे। ग्रियर्सन का मानना है कि इन्हीं के वंशजों के प्रभाव के कारण दक्षिण में एक ऐसा भक्ति आंदोलन उठा, जो देखते ही देखते देश भर में फैल गया। उनके इस अनुमान का दूसरा आधार कृष्ण भक्ति काव्य में मौजूद प्रपत्तिवाद का सिद्धान्त है। वे प्रभु ईसा और कृष्ण को एक ही मानते हैं। लेकिन यह ध्यान देने बात है कि भक्ति आंदोलन का प्रपत्तिवाद अलवारों प्रपत्तिवाद से मेल खाता है तथा यह ईसाई धर्म के प्रपत्तिवाद से भिन्न है।
आचार्य शुक्ल अपने इतिहास में भक्ति के उदय की व्याख्या करते हुए इस बात का स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि यह धारा एक रूप में दक्षिण से उत्तर की ओर आ रही थी फ्भक्ति का, जो स्रोत दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजनीतिक परिवर्तनों के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पुरा स्थान मिला।" आचार्य शुक्ल का स्पष्ट मत है कि मुस्लिम शासकों के भयानक अत्याचारों से घबराकर हिन्दू जनमानस धीरे-धीरे निराश होता गया। अपनी रक्षा का कोई लौकिक सहारा न देखकर उसने परलौकिक शक्तियों की ओर अपनी आशा भरी दृष्टि डाल दी। फिर क्या था, उनकी वृत्ति दिन-व-दिन अन्तर्मुखी होती गई और एक समय ऐसा भी आया, जब वह सम्पूर्ण व्याधियों और बाधाओं को भुलाकर ईश्वर के मनन, कीर्तन, भजन और गुणगान में वाणी एवं कर्म से संलग्न हो गए। शुक्ल जी के शब्दों में "अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?"
श्रेष्ठ निबंधकार बाबू गुलाब राय ने भी आचार्य शुक्ल के मतों की पुष्टि करते हुए हिन्दुओं की पराजित मनोवृत्ति को मनोवैज्ञानिक स्तर पर दो विभाग किया है- पहला, आध्यात्मिक श्रेष्ठता का द्योतन तथा दूसरा भोग-विलास में डूब जाना। पूर्व मध्यकालीन हिन्दू जनता ने प्रथम पक्ष अर्थात् आध्यात्मिक श्रेष्ठता द्वारा अपना महत्व प्रदर्शित करने का प्रयास किया।
आचार्य शुक्ल ने भक्ति आंदोलन के उद्भव को एक ओर मुसलमानी आक्रमण से जोड़ते हैं, तो दूसरी ओर दीर्घकालीन परम्परा से। उनका यह कहना कि हिन्दू जनता, अपने देव-मंदिरों और उनमें स्थित मूर्तियों को टूटते देखकर तथा पूज्य पुरुषों के अपमान को होते देखकर असहाय हो गई और उसने स्वयं को ईश्वर को समर्पित कर दिया, यह तर्क संगत नहीं लगता है। इसके विरुद्ध यह कहा जा सकता है कि यदि हिन्दू जनता मुस्लिम शासकों के अत्याचार एवं अपमान से पीडि़त थी, तो उसमें बदला लेने की भावना उठनी चाहिए थी, वीरता और शहादत का संचार होना चाहिए था, भक्ति का नहीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शुक्ल जी के मत पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते हैं- ‘जब मुसलमानों का हिन्दुओं पर अत्याचार बढ़ने लगा तो निराश होकर हिन्दू लोग भगवान का भजन करने लगे। यह अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे, तब उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की धारा को उमड़ना ही था तो पहले उसे सिंध में, फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण भारत में।"
वास्तव में भक्ति काव्य गहरे आत्मविश्वास की उपज है- ‘संतन को सिकरी सो का काम’ या ‘अब की तुलसी होहिंगे नर के मानसबदार।’ जैसी पंक्तियां इसे सत्यापित करती हैं। इसलिए भक्ति काव्य को हताशा की उपज कहना, कहीं से उचित नहीं है। खोजने पर भी भक्ति काव्य में हताशा के संकेत नहीं मिलते।
अधिकांश विद्वानों के अनुसार जिस भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण में हुई, उसके पुरस्कर्ता आलावर भक्त कहे जाते हैं। चौथी शताब्दी से नवीं शताब्दी तक मुख्य बारह आलवारों की परंपरा चली। यह आश्चर्यजनक है कि जिस समय शंकराचार्य अद्वैत का प्रचार कर रहे थे, लगभग उसी समय आलवार आचार्य शठकोप भक्ति का प्रचार कर रहे थे। आलवार संतों की भावनामय भक्ति में शाड्डों की उपेक्षा हुई। शाड्डानुमोदित भक्ति व्यक्तिक उपासना पर जोर देती है। अलवारों ने अपनी भक्ति को जन समुदाय से जोड़ा तथा कर्मकांड की अनिवार्यता को शिथिल किया था। वैष्णव भावना के विकास में अलवार संतों का प्रमुख प्रदेय यह है कि उन्होंने अपने अराध्य को सीधे संबोधित किया, कोई माध्यम स्वीकार नहीं किया। दूसरी बात, वे अपनी प्रार्थनाएं देशभाषा में ही प्रस्तुत की, संस्कृत को नहीं अपनाया। इससे उनके सबल आत्मविश्वास का पता चलता है। आगे चलकर रामानुजाचार्य आलवारों की भक्ति को शाड्ड की व्यवस्था में बांधते हैं।
भक्ति आंदोलन के सूत्रपात में शंकराचार्य की देन को विस्मृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि वैदिक ग्रंथों के पुनर्मूल्यांकन के सिलसिले में उन्होंने अद्वैतवाद की जो प्रतिष्ठा की और ‘माया के प्रति जो निषेधात्मक दृष्टिकोण अपनाया, उसका विरोध करने के समस्त भक्ति आंदोलन उठ खड़ा हुआ। शंकराचार्य के ‘दर्शन’ ने ही भक्ति आंदोलन के सभी आचार्यों- रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, विष्णुस्वामी, निम्बार्क, बल्लभाचार्य को उत्तेजित किया था। उनके ‘वेदांती’ व्याख्याओं की प्रतिक्रिया में ही इन आचार्यों के ‘दार्शनिक सम्प्रदाय’ अस्तित्व में आये तथा भक्ति आंदोलन को एक राष्ट्रव्यापी वैचारिक भूमि मिली। भक्ति काव्य भी इसी वैचारिक भूमि पर भावना का उद्रेक है। यह समस्त देश की मध्ययुगीन चेतना को झकझोर कर रख देता है। दक्षिण में आलवार, उत्कल में पंचसखा, बलरामदास, अनंतदास, यशोवंत दास, जग्गनाथदास, अच्युतानन्द दास, असम में शंकददेव, महाराष्ट्र का ‘बारकरी सम्प्रदाय (ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम), बंगाल में चैतन्य एवं मध्यभारत में रामानंद आदि प्रमाणित करते हैं कि भक्ति आंदोलन का स्वरूप देशव्यापी रहा है।
इस प्रकार पूर्वमध्यकालीन भक्ति आंदोलन विशुद्ध रूप से भारतीय परंपरा की देन है। वैसे भक्ति भावना के संकेत ऋग्वेद से लेकर पुराणों एवं उपनिषदों तक में बिखरे पड़े हैं। गीता का कर्मवादी दर्शन इसी भक्ति भावना से सराबोर है। इस भावना को हम भारतीय इतिहास में क्रमिक रूप से खोज सकते हैं। यह भक्ति भावना पूर्णतः दक्षिण के आचार्यों की देन है- ‘भक्ति द्राविड़ी उपजी लाये रामानन्द।’ स्पष्ट है कि भक्ति न तो मुसलमानों के अत्याचार से पीडि़त हिन्दू जन जीवन की थकी-हारी मनोवृत्ति के कारण अचानक उत्पन्न हुई और न यह भक्ति की इस भावना को भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परंपरा का विकसित रूप कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
Question : फ्छायावाद के बाद कविता बहुमुखी रूप धारण करने लगती है।" इस कथन के आधार पर छायावादोत्तर हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
(1999)
Answer : छायावादोत्तर काल की रचनाओं की परीक्षा करने पर यह प्रतीत होता है कि प्रस्तुत कालावधि के काव्य-साहित्य की अनेक प्रवृत्तियां हैं। इस बीच का इतिहास कई वादों और धाराओं से होकर गुजरा है। कई.कई जीवन-दृष्टियां तथा काव्य की वस्तु और शिल्प संबंधी मान्यताएं उभरी हैं। किसी धारा में व्यक्तिगत अनुभूति का घनत्व अधिक है, तो किसी में सामाजिक अनुभूति की स्फूर्ति। किसी में रोमानी दृष्टि की प्रधानता है, तो किसी में बौद्धिक यथार्थवादी दृष्टि की। कृतियों के आधार पर, यदि हम इन अनेक दृष्टियों, मान्यताओं और रचना-रूपों का वर्गीकरण करें तो स्पष्ट रूप से पांच-छह काव्य धाराएं उभरकर आती हैं। परन्तु यहां छायावादोत्तर काव्य का तात्पर्य वास्तव में उन काव्य प्रवृत्तियों से है, जो 1930 और 1940 में लोकप्रिय हुईं, परन्तु जिन्होंने काव्य आंदोलन का रूप धारण नहीं किया। इस काव्य धारा में मुख्य रूप से तीन काव्य प्रवृत्तियों को परिगणित किया जाता है। ये हैं- राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावना को व्यक्त करने वाला, काव्य, प्रेम और मस्ती का काव्य तथा हास्य-व्यंग्य का काव्य। इस काल की मुख्य बात यह है कि इस काव्य-धारा में कवियों ने राष्ट्रीय भावना, प्रणय भावना या सामाजिक यथार्थ, जिस किसी को काव्य का विषय बनाया, उसके प्रति उनका दृष्टिकोण, इन कवियों में वैचारिक गहनता या जीवन को देखने की सूक्ष्म दृष्टि का अभाव ही मिलता है। मुख्य बल अपने भावों के संप्रेषण पर अधिक है और उद्देश्य सामान्य पाठक तक अपनी भावनाओं को पहुंचाना है। इसलिए इन कवियों ने प्रायः गीतात्मकता का सहारा लिया है और ऐसी सहज और सरल भाषा में काव्य रचा है, जो आम पाठक को भी संप्रेषित हो सके।
छायावादोत्तर काल राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के ज्वार का काल था। इस समय स्वाधीनता के लिए संघर्ष तीव्र गति से चल रहा था। इस संघर्ष से कवि और लेखक भी अछूते नहीं रहे। 1930 के आसपास हिन्दी लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आई, जिन्होंने काव्य-रचना के साथ-साथ स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष में भी भाग लिया। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ऐसे ही कवि थे, जिन्होंने अपने काव्य में राष्ट्र प्रेम की भावना को व्यक्त किया, साथ ही स्वयं भी देश की आजादी के संघर्ष में भाग लिया और जेल गये। इसलिए इन कवियों की राष्ट्रीय भावना की कविताओं में सच्चाई और भावावेश दोनों दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए माखनलाल चतुर्वेदी की कविता ‘फूल की चाह’ को देखा जा सकता हैं:
"मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ पर जावें वीर अनेक।"
इन कवियों ने लोगों में राष्ट्र के लिए बलिदान भावना को तो व्यक्त किया ही, साथ ही जनता की वास्तविक दीन-हीन दशा को चित्रित करते हुए उनमें जागृति लाने का प्रयास भी किया है। देश की शोचनीय दशा ने प्रायः सभी कवियों की संवेदना को झकझोर दिया था। रामनरेश त्रिपाठी की कविता में इसी दशा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई हैः
"धधक रही सब ओर भूख की ज्वाला घर-घर में,
मांस नहीं है, निरी सांस है, शेष अस्थि पंजर में।
अन्त नहीं है, वस्त्र नहीं हैं, रहने का नहीं ठिकाना,
कोई नहीं किसी का साथी, अपना और विराना।"
इन कवियों ने वर्तमान की दीन-हीन दशा के साथ अतीत के गौरव की प्रतिष्ठा भी की। वे ऐसी अनेक रचनाएं रचे हैं, जिनमें भारत के प्राचीन वैभव का वर्णन था। इस मामले में सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ रचना इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इन कवियों ने राष्ट्रीय मुक्ति के लिए कविता के द्वारा क्रांति का आह्नान भी किया। दिनकर की कविता की निम्नलिखित पंक्तियां इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं:
"उठ भूषण की भाव रंगिनी, लेकिन के दिल की चिंगारी।
युग मुर्दित यौवन की ज्वाला, जाग-जाग रही क्रांति कुमारी।"
या फिर
"स्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाडे़ की रात बिताते हैं।
स्त्री की लज्जा, वसन बेच जब, ब्याज चुकाये जाते हैं।
मालिक तब तेल फुतेलों में, पानी सा द्रव्य बहाते है।"
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का स्वर इन कवियों में सर्वाधिक सशक्त एवं ओजपूर्ण था। दिनकर की ‘हुंकार’ में राष्ट्रीय क्रांति का ओजपूर्ण आह्नान है। स्वतंत्रता के संघर्ष को गतिशील एवं ताकतवर बनाने के लिए, इन कवियों ने जातीय एकता पर भी बल दिया। सभी जातियों एवं संप्रदायों में एकता के बिना स्वतंत्रता नहीं प्राप्त की जा सकती, यह इन कवियों के सामने स्पष्ट था। अंग्रेज सरकार लगातार कोशिश कर रही थी कि हिन्दू और मुसलमानों में दरार पड़ जाए, जिसमें वे सफल भी रहे। परन्तु इन कवियों ने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा। सियारामशरण गुप्त ने कहा- "हिन्दू मुसलमान दोनों ही एक डाल के हैं दो फूल।"
यह भावना यद्यपि बलवती रही परन्तु वास्तविकता में यह फलीभूत न हो सकी।
छायावादी काव्य में प्रणय भावनाओं को अभिव्यक्ति मिली है, परन्तु उनका प्रेम धीरे-धीरे स्थूल से सूक्ष्म की ओर, शरीर से अशरीर की ओर तथा लौकिक से अलौकिकता की ओर अग्रसर होता गया, जबकि छायावादोत्तर काल के इन कवियों के यहां प्रेम केन्द्रीय शक्ति की तरह है। बच्चन ने प्रेम के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा हैः
फ्यदि प्रणय जगा न होता इस निशा में
सुप्त होती विश्व की सम्पूर्ण सत्ता।
वह मरण की नींद होती जड़-भयंकर
और उसका टूटना होता असंभव
प्यार से संसार सोकर जागता है।
इसलिए है प्यार की जग में महत्ता।’’
छायावाद से इस काल के प्रेम में दूसरा अन्तर व्यक्तिवाद को माना जाता है। यद्यपि दोनों काव्य की मूलवृत्ति व्यक्तिनिष्ठ है, फिर भी दोनों में अंतर है। उनके अनुसार ‘छायावादी व्यक्ति चेतना शरीर से ऊपर उठकर मन और आत्मा को स्पर्श करने लगती है, जबकि इन कवियों में व्यक्तिनिष्ठ चेतना प्रधान रूप से शरीर और मन के धरातल पर ही व्यक्त होती रही है। इन्होंने प्रणय को ही साध्य के रूप में स्वीकार करने का प्रयास किया है। छायावादी काव्य जहां प्रणय को जीवन की यथार्थ-विषम व्यापकता से संजोने का प्रयास करता है, वहां प्रेम और मस्ती का यह काव्य या तो यथार्थ से विमुख होकर प्रणय में तल्लीन दिखायी देता है या फिर जीवन की व्यापकता को प्रणय की सीमाओं में ही खींच लाता है। बच्चन की ‘मधुबाला’, का ‘मधुशाला’ में यही दर्शन होता है।
"यह चांद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा-लहरा यह शाखाएं, कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झाने वाली कलियां हंसकर कहती हैं, मग्न रहो,
बुलबुल तक की फुनगी पर से, संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले, मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का, उपचार न जाने क्या होगा।
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा।"
प्रेम और मस्ती के इस काव्य में जीवन के प्रति किसी व्यापक दृष्टि का आभास नहीं मिलता। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इन कवियों ने जीवन में एक ऐसी प्रेम-भावना की आवश्यकता पर बल दिया है, जिसमें न आध्यात्मिक अमूर्तता हो, और न ही लौकिक संकीर्णता। शराब, सकी, मदिरायल, व्याला आदि प्रतीकों के माध्यम से इन कवियों ने एक धर्मनिरपेक्ष और जीवन सापेक्ष दृष्टिकोण को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया है।
छायावादोत्तर काल के कवियों ने प्रेम की अभिव्यक्ति में द्विवेदी युगीन नैतिकता और छायावादी रहस्यात्मकता दोनों का परित्याग किया, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इन्होंने ‘मुक्त निर्बंधभोग’ का समर्थन किया। इन कवियों ने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए मदिरालय संबंधित प्रतीकों का इस्तेमाल किया, इसलिए इस प्रवृत्ति को ‘हालावाद’ भी कहा गया है। वास्तव में प्रेम और मस्ती का यह काव्य स्वच्छंदतावादी भावधारा का ही विस्तार है। स्वानुभूति और तीव्र भावावेग इस काव्य की विशेषता है। एक और गुण जो इस काव्य में नजर आता है, वह है, उल्लास और जोश का भाव। यह जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का परिणाम है। आगे बढ़ना और बढ़ते ही जाना। परन्तु इस भाव-दृष्टि की मुख्य सीमा है कि कवियों के सामने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट नहीं हैः
हम दीवानों की क्या हस्ती।
है आज यहां, कल वहां चले ,
मस्ती का आलम साथ चला।
हम धूल उड़ाते जहां चले,
आए बनकर उल्लास अभी।
तुम कैसे आए, कहां चले?
आंसू बनकर बह चले अभी।
सब कहते रह गये, अरे
किस ओर चले? यह मत पूछो।
चलना है, बस इसलिए चले,
जग से उनका कुछ लिए चले।
जग को अपना कुछ दिए चले,
छायावादोत्तर काल की तीसरी प्रवृत्ति हास्य-व्यंग्य प्रधान कविताओं की है। हास्य-व्यंग्य के लेखन की प्रवृत्ति भारतेन्दु युग में अत्यधिक प्रबल थी, परन्तु द्विवेदी युग में आर्यसमाजी नैतिकतावादी दृष्टिकोण का प्रबल कारण हास्य व्यंग्य की धारा क्षीण-सी हो गई थी। यद्यपि छायावादोत्तर युग में हास्य-व्यंग्य की रचनाएं पर्याप्त मात्र में हुई, परन्तु महत्व की दृष्टि से उन्हें विशेष उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता।
इस युग के हास्य-व्यंग्य लेखन में मुख्यतः सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त पाखंड तथा भ्रष्टाचार पर व्यंग्य किया गया है। कभी-कभी राजनीति को भी व्यंग्य का माध्यम बनाया गया है। इस तरह के काव्य में ‘हास्य’ की मुखरता और व्यंग्य की तीव्रता स्वाभाविक रूप से व्यक्त हुई है। परन्तु इस युग के काव्य की सीमा यह है कि जीवन-यथार्थ की गहरी समझ के अभाव में और व्यापक जीवन दृष्टि न होने के कारण इन कविताओं में न तो निराला के काव्य में व्यक्त व्यंग्य जैसी गहराई आई है और न ही प्रगतिवादी दौर में रामविलास शर्मा, नागार्जुन आदि कवियों जैसी गहरी सामाजिक दृष्टि। यही कारण है कि यह काव्य हल्की-सी चुटकी लेकर रह जाता है। इस युग के प्रमुख हास्य-व्यंग्यकारों में हरिशंकर शर्मा, पांडेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’, अन्नपूर्णानंद आदि प्रमुख हैं।
Question : हिन्दी रासक-काव्य
(1999)
Answer : ‘रासक’ या ‘रासो’ शब्द का प्रयोग मूलतः राजस्थानी और ब्रजभाषा में हुआ है। राजस्थानी में युद्ध या कलह के रूप में, इसका व्यवहार हुआ, जबकि ब्रजभाषा में रासो को काव्य का विशिष्ट रूप माना गया है। इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है- उन्होंने ‘रास’ या ‘रासक’ से ही रासो की व्युत्पत्ति स्वीकार की है। उनके अनुसार प्राचीन राजस्थानी तथा अपभ्रंश में रासो का ही अगला रूप रासो हो गया, जिसमें मूलतः युद्ध संबंधी वर्णन प्रस्तुत किये जाते थे।
अब तक के उपलब्ध आदिकालीन ‘शासक साहित्य’ के अनेक रूपों का परिचय मिलता है। कहीं तो इसमें धार्मिक दृष्टि की प्रधानता है तथा कहीं वह वीरगाथाओं के रूप में रचित है। यद्यपि कुछ जैन शासक काव्यों में भी चरित नायक के शौर्य एवं पराक्रम का वर्णन किया गया है, परन्तु उन कृतियों की समाप्ति अंततः वैराग्य या शान्त रस में हुई हैं। उपर्युक्त दोनों विषयों से अलग हटकर कुछ कवियो ने श्रृंगारपरक रासो काव्य की भी रचना की, जिनकी कथावस्तु प्रेम, वियोग तथा पुनर्मिलन पर आधारित है। इस प्रकार रासक काव्य कृतियों के इस वैविध्य को देखते हुए काव्य विषय की दृष्टि से इन्हें प्रमुखतः तीन वर्गों में विभक्त कर सकते हैं- (1) वीरगाथात्मक रासो काव्य (2) श्रृंगारपरक रासो काव्य (3) धार्मिक एवं उपदेशमूलक रासो काव्य। परन्तु आदिकालीन काव्य की विशेष प्रवृत्ति वीरगाथात्मक रासक काव्य लेखन थी। आचार्य शुक्ल ने तो इसे प्रधान प्रवृत्ति मानकर इस काल का नामकरण ही ‘वीरगाथा काल’ कर दिया था।
इन वीरगाथात्मक रासो काव्य में ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा नहीं हो पाई है, क्योंकि यह राजाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्रस्तुत करता है। इसमें इतिहास और दोनों का समावेश है, लेकिन मुख्य रूप से काल्पनिक वर्णनों की ही अधिकता है। चूंकि यह ग्रंथ वर्णन प्रधान है, इस कारण इन कवियों को सहज ही काल्पनिक घटनाओं और अत्युक्तियों का सहारा लेना पड़ा है। वस्तुतः इन ग्रंथो को ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन करना भी उचित नहीं है, क्योंकि ये इतिहास न होकर काव्य ग्रंथ थे।
रासक या रासो काव्य का प्रतिपाद्य विषय आश्रयदाता राजा के शौर्य तथा वीरता का यशोगान करना था। रासो काव्य के रचयिताओं ने अपने चरित्र नायकों के युद्ध कौशल तथा वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। उन्होंने अपने वर्णनों में चरित्र नायक के समक्ष दूसरे राजाओं की हीनता का भी अंकन किया है। इन कवियों ने अपने काव्य का आदर्श रण-क्षेत्र में नायक राजा की वीरता के वर्णन को ही बनाया है, क्योंकि आश्रयदाता को प्रसन्न रखना इनका मुख्य कर्त्तव्य था।
रासक काव्य में श्रृंगार तथा वीर दोनों रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है। उदाहरण के लिए ‘पृथ्वीराज रासो’ के चरित्र नायक पृथ्वीराज चौहान वीर योद्धा होने के साथ-साथ प्रेमी भी हैं। कवि ने युद्ध वर्णनों में पृथ्वीराज की वीरता एवं पराक्रम का चित्रण किया तथा दूसरी ओर रूप-सौंदर्य तथा प्रेम का सुंदर अंकन भी किया है। युद्ध वर्णन में उन सभी वस्तुओं का विस्तृत वर्णन है, जिनका उपयोग युद्ध में होता था। सेना के सेनापतियों के नाम और रूप तक का विवरण, इन कवियों में मिलता है। प्रेम-चित्रण के अन्तर्गत शंृगार रस के संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों का सुंदर अंकन किया है। नख शिख वर्णन, वियोग में नायिका का अपने प्रियतम के पास संदेश पहुंचाना, तथा विरह के अनेक रूपों का वर्णन इन काव्यों में हुआ है। काव्य रूप की दृष्टि से शासक काव्य प्रबंध एवं मुक्तक दोनों में मिलते हैं। भाषा की दृष्टि से इस काव्य में ‘डिंगल’ तथा ‘पिंगल’ का प्रयोग किया गया है, जिस पर संस्कृत, अरबी, फारसी, प्राकृत, पंजाबी, ब्रज तथा अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
Question : कबीर के राम
(1999)
Answer : कबीर जब हरि, गोविन्द, राम, केशव, माधव आदि पौराणिक नामों का प्रयोग करते हैं, तो इसका सगुण अवतारों से उनका कोई मतलब नहीं होगा। वे अपने परम उपास्य निर्गुण ब्रह्म को ही इन नामों से संबोधित करते हैं। उनका राम निरंजन है, उसका रूप नहीं, रेखा नहीं, वह समुद्र भी नहीं, पानी भी नहीं, पवन भी नहीं, धरती भी नहीं, आकाश भी नहीं, सूर्य भी नहीं, चन्द्र भी नहीं, पानी भी नहीं, पवन भी नहीं ....समस्त दृश्यमान पदार्थों से विलक्षण, सबसे न्यारा, वह समस्त वेदों से अतीत, भेदों से अतीत, पाप और पुण्य से परे, ज्ञान और ध्यान का अविषय, स्थूल और सूक्ष्म से विवर्जित, भेख और भीख के अगम्य, डिंय और रूप से अतीत-अनुप गैलोक्य विलक्षण परम तत्व है। कबीरदास अपने पदों में बारबार- ‘दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना। राम नाम का मरम है जाना।’ जैसी बातें कहकर पुराण प्रतिपादित सगुण ब्रह्म का प्रत्याख्यान करना चाहा है। स्पष्ट है कि कबीरदास के राम पुराण प्रतिपादित अवतार नहीं थे, यह निश्चित है। वे न तो दशरथ के घर उतरे थे न लंका के राजा का नाश करने वाले हुए, न तो देवकी की कोख से पैदा हुए थे न यशोदा की कोख से पैदा हुए थे, और न यशोदा ने उन्हें गोद में खेलाया था, वे ग्वालों के संग घूमा करते थे, न उन्होंने गोवर्धन पर्वत को धारण ही किया था, न तो उन्होंने वामन होकर बलि को छला था, और न वेदोद्धार के लिए वराहरूप धारण करके धरती को अपने दांतों पर ही उठाया था, न वे गंडक के शालिग्राम हैं, न वराह, मत्स्य, कच्छप आदि वेषधारी विष्णु के अवतारः
"ता साहिब के लागौ साथ, दुख-सुख मेटि जौ रह्यों अनाथ।
नां दशरथधरि औतारि आवा, नां लंका का रांव सतावा।
देवैं करव न औतारि आवा, न जसवै ले गोद खेलावा।
ना वो ग्वालन के संग फिरिया, गोवरधन ले ना कर धरिया
बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी वेद लेन ऊधरिया।
गंडक सालिगराम न कोला, मच्छ कच्छ हवै जलहि न डोला।"
वस्तुतः कबीरदास जब निर्गुण भगवान का स्मरण करते हैं तो उनका उद्देश्य यह होता है कि भगवान के गुणमय शरीर की जो कल्पना की गई है, वह रूप उन्हें मान्य नहीं है। परंतु ‘निर्गुण’ से वे केवल एक निषेधात्मक भाव ग्रहण करते हों, सो बात भी नहीं है। वस्तुतः वे भगवान को सत्व, रज और तमोगुणों से अतीत मानते हैं और इसी गुणातीत रूप को निर्गुण शब्द से प्रकट करते हैं। हे संतो! मैं धोखा की बात किससे कहूं। गुण में ही निर्गुण है और निर्गुण में गुण। इस सीधे रास्ते को छोड़कर, कहां बहता फिरा जाए? लोग उसे अजर कहते हैं, अमर कहते हैं, पर असत्य बात कोई कहता ही नहीं। वस्तुतः वह अलख है, अगम्य है। निषेधात्मक विशेषण केवल धोखा है। यह तो ठीक है कि उसका कोई स्वरूप नहीं है, कोई वर्ण नहीं है, पर यह और भी अधिक ठीक है कि वह सब घट में समाया हुआ है और इसीलिए सभी रूप उसके रूप हैं और सभी वर्ण उसके वर्ण हैं, फिर उसे अरूप और अवर्ण कैसे कहें? पिंड और ब्रह्मांड की बातें कही जाती हैं, पर चाहे पिंड हो और चाहे ब्रह्मांड सभी देश और काल में सीमित हैं, पर उसका न तो आदि है और न अंत। फिर उसे पिंड और ब्रह्ममांड सभी देश और काल में सीमित हैं, पर उसका न तो आदि है और न अंत। फिर उसे पिंड और ब्रह्मांड में व्याप्त कह ही दिया गया, तो उसका ठीक-ठीक परिचय मिल गया? सही बात यह है कि वह पिंड से भी परे हैं और ब्रह्मांड से भी परे हैं। कबीरदास कहते हैं कि उनका हरि इन सबसे परे हैं। वह अगुण और सगुण दोनों के ऊपर है, अजर और अमर दोनों के अतीत हैं, अरूप और अवर्ण दोनों के परे हैं, पिंड और ब्रह्मांड के अगम्य है। यही कबीरदास का निर्गुण राम है।