Question : तकनीकी विकास और हिंदी
(2008)
Answer : भाषा और विज्ञान का अटूट संबंध है। जहां विज्ञान तथ्य की खोज करता है, वहीं भाषा उस तथ्य की अभिव्यक्ति करती है, अतः वैज्ञानिक या तकनीकी उपलब्धियों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए उसका स्वदेशी भाषा में अनुवाद आवश्यक है, जिसके कारण वैज्ञानिक उपलब्धियों के द्वारा प्रकाशित करने का प्रयास किए गए हैं। वर्तमान समय में विज्ञान का तीव्र विकास हो रहा है और विज्ञान के विकास के साथ-साथ शब्दों का भी विकास करना होगा। विश्व में जो भी नई वस्तुएं आयेंगी उनको प्रकट करने के लिए नये शब्द देने पड़ेंगे।
चूंकि वैज्ञानिक साहित्य ज्ञानात्मक होता है इसलिए इसकी मूल प्रवृति सूचनात्मक और विवेचनात्मक होती है।
अतः वैज्ञानिक साहित्य में सुनिश्चित अर्थ वाली पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार की शब्दावली के प्रयोग के कारण प्रत्येक विज्ञान की अपनी भाषा होता है। स्पष्ट है कि वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य में न तो भाषा का मनचाहा प्रयोग हो सकता है और न भाषा के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा तकनीकी शब्दावली विकसित करने की दिशा में लिए गए प्रयास उल्लेखनीय हैं।
हिंदी के उपयेाग और प्रचार-प्रसार के लिए आज आवश्यक प्रौद्योगिकी उपलब्ध है। देवनागरी लिपि के टाइप का विकास चार्ल्स विल्किन्स और पंचानन कर्मकार के द्वारा 1770 ई- में किया गया। टाइप के विकास के बाद हिंदी पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचार पत्रें की बाढ़ सी आ गई। आज हिंदी का प्रयोग रेडियो, टेलीविजन के कार्यक्रमों में हो रहा है। अनेक कार्यक्रम विज्ञान एवं तकनीकी से संबंधित होते हैं।
इन कार्यक्रमों में हिंदी के प्रचार-प्रसार में टंकण मशीनों (टाइप-राइटरों) का बड़ा योगदान रहा है। इलेक्ट्रो-मेकेनिकल टेलीप्रिंटर भी देवनागरी में बनाये गए हैं। अस्सी के दशक में इलेक्ट्रॉनिक टाइप-राइटर, इलेक्ट्रॉनिक टेलीप्रिंटर और कंप्यूटरों का प्रयोग बढ़ा है।
इन नवीन तकनीकों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने इस में पहल की है और इसके लिए देवनागरी कुंजी पटल तैयार किए गए हैं।
हिंदी के कंप्यूटर ‘सिद्धार्थ’ का विकास किया गया है। सीएमसी (हैदराबाद) ने ‘लिपि’ नामक एक त्रि-भाषी शब्द संसाधक का विकास किया है। यह वर्ड प्रोसेसर हिंदी, अंग्रेजी और अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में काम करता है।
सी-डेक पूना में अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद की एक कंप्यूटर प्रणाली का विकास किया जा रहा है। यह प्रणाली टैग पद्धति पर आधारित है। आईआईटी कानपुर में एक एकनाम पल वेस्ड मशीन ट्रांसलेशन पद्धति पर कार्य हो रहा है। कंप्यूटरों पर कार्य करने के लिए अब हिंदी में अनेक प्रकार के सॉफ्रटवेयर उपलब्ध हैं, जिसमें अक्षर, आलेख, शब्दमाला, शब्द रत्न, संगम भाषा आदि।
मशीनी अनुवाद के लिए ‘अनुसारक’ तथा मंत्र तकनीक विशेष महत्वपूर्ण हैं। हिंदी का निरंतर विकासमान वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता कि देश में करोड़ों मतदाता सूचियां, उसके परिचय-पत्र और आम चुनाव संबंधी अन्य सामग्री बड़ी तीव्रता से हिंदी में तैयार की जाने लगी है।
स्पष्ट है कि हिंदी के उपयोग तथा विश्व में प्रचार-प्रसार के लिए अब आवश्यक प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, लेकिन इसे और समृद्ध बनाने के लिए निरंतर नयी प्रौद्योगिकी का विकास करते रहना होगा और उसे तेजी से अपनाना भी होगा।Question : वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी के विकास की समीक्षा कीजिए।
(2007)
Answer : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में विकसित करने के प्रयास बहुत पहले से ही शुरू हो गये थे। संस्कृत के ‘अमर कोश’ और ‘सर्वसंग्रह’ की परंपरा के अनेक कोश विभिन्न स्तरों पर तैयार हुए।
मध्ययुग में, महाराजा शिवाजी के शासनकाल में पंडित रघुनाथ नामक विद्वान ने प्रशासन खाद्य सामग्री, रक्षा-व्यवस्था आदि विषयों से संबंधित लगभग डेढ़ हजार शब्दों का एक कोश तैयार किया था, जो तत्कालीन प्रशासन के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। सन् 1848 ई. में प्रोफेसर डेकन कोर्स ने ‘हिन्दी-अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ छापा। हिन्दी की प्रशासनिक शब्दावली से संबंधित ग्रंथ एच.एच. विल्सन ने 1855 ई. में ‘डग्लासरी ऑफ जूडीशियल एंड रेवेन्यू टर्म्स, नामक ग्रंथ लंदन से प्रकाशित किया।
सन् 1913 ई. में प्रयाग (इलाहाबाद) में ‘विज्ञान परिषद’ नामक संस्था की स्थापना हिन्दी के माध्यम से विज्ञान की जानकारी जनसाधारण को देने के उद्देश्य से की गई।
इसी पृष्ठभूमि में 15 अगस्त, 1947 को भारत को आजादी मिली। स्वतंत्र भारत के संविधान में संघ सरकार को हिन्दी के प्रचार-प्रसार के दायित्व तथा विकास की दिशा का संकेत देते हुए कहा गया है कि - ‘‘जहां आवश्यक हो वहां हिन्दी के शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्त्तव्य होगा।’’ इसी दिशा-निर्देश के अनुसरण में 1950 में एक ‘‘वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली बोर्ड’’ गठित किया गया।
1952 में शिक्षा मंत्रलय ने ‘हिन्दी अनुभाग’ की स्थापना की, जिसे बाद में ‘हिन्दी प्रभाग’ का दर्जा दिया गया। इसके द्वारा तकनीकी शब्दावली के कई संग्रह तैयार किए गए और विषयानुसार अलग-अलग विशेषज्ञ समितियों ने उनकी प्रमाणिकता की पुष्टि की। इसने हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में विकास के लिए अनेक योजनाएं हाथ में किया, जिसमें नागरी टंकन यंत्र के मानक कुंजीपटल के निर्माण और वर्तनी के मानकीकरण की प्रक्रिया भी शामिल थी। तकनीकी शब्दावली के निर्माण में 1960 में स्थापित केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने महत्वपूर्ण कार्य किया।
इधर प्रायः सभी हिन्दी भाषी राज्यों की विभिन्न अकादमियों, संस्थाओं और प्रकाशन विभाग ने हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में समृद्ध करने के लिए असंख्य महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित कर चुके हैं, जिसमें प्रमुखतया निम्नलिखित हैं-
इसके अलावा हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में विकसित करने तथा समृद्ध बनाने की दृष्टि से आज सर्वाधिक महत्व सूचना प्रौद्योगिकी का है। इस सूचना प्रौद्योगिकी के महत्वपूर्ण अंग-आकाशवाणी, दूरदर्शन तथा कंप्यूटर है। इसने हिन्दी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के रूप में विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
दूरदर्शन से विविध वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों पर हिन्दी में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम तो इतने लोकप्रिय और उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं कि रस्मी तौर पर हिन्दी को असमर्थ, अपूर्ण और क्लिष्ट बताने वाले अनेक अंग्रेजीपरस्त दर्शक भी दूरदर्शन के हिन्दी के कार्यक्रमों को रुचिपूर्वक, तन्मय भाव से देखकर खुश होते हैं।
राष्ट्रीय व क्षेत्रीय प्रसारण केन्द्रों से विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के लिए विभिन्न विषयों के शिक्षण-संबंधी कार्यक्रम अंग्रेजी के अलावा हिन्दी में भी प्रस्तुत किए जाते हैं। इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) की ओर से तैयार किए गए कार्यक्रम हिन्दी को विश्वस्तरीय वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा सिद्ध करते हैं। इसके अलावा हिन्दी के दैनिक समाचार बुलेटिनों का भी कुछ अंश अब विभिन्न प्राकृतिक, भौगोलिक, खगोलीय अथवा चिकित्सा-विषयक नयी जानकारियों का हिन्दी के माध्यम से प्रत्यक्ष साक्षात्कार कराता है।
भारत में कंप्यूटर बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक के आस-पास आया। हिन्दी का पहला कंपयूटर ‘सिद्धार्थ’ नवें दशक के शुरू में नई दिल्ली में आयोजित तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान सन् 1984 ई- में सामने आया। इसका विकास आई-आई-टी- कानपुर ने किया था। यहां के वैज्ञानिकों ने ‘जिस्त’ (ग्राफिक्स इंडियन स्क्रिप्ट टर्मिनल) कार्ड नामक तकनीक का विकास किया, जिससे कंप्यूटर हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में काम कर सकता था। जिस्ट कार्ड को कंप्यूटर के सी-पी-यू- में लगा देने पर अंग्रेजी में काम करने वाला कंप्यूटर बहुभाषिक हो जाता है।
सी-डेक पूना ने टैग पद्धति पर आधारित कंप्यूटर पर अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद विधि का भी विकास कर लिया है। इसके अलावा आज कंप्यूटर पर काम करने के लिए हिन्दी (नागरी) के अनेक साफ्रटवेयर उपलब्ध हैं, जिसमें अक्षर, आलेख, शब्दमाला, शब्दरत्न, चाणक्य भाषा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। हाल ही में आई-बी-एम- टाटा कंपनी ने ‘हिन्दी डॉस’ नामक ऐसी तकनीक का विकास किया है जिसमें ‘कमांड’ और ‘मेन्यु’ भी हिन्दी में हैं।
Question : वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास में हिन्दी भाषा के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
(2006)
Answer : हिन्दी भाषा ने अपनी लगभग एक हजार वर्ष की विकास यात्र में कई महत्वपूर्ण मंजिलें पार की हैं। सर्वप्रथम यह लोक-चेतना की अभिव्यंजिका बनी, फिर एक ओर इसमें पारलौकिक दार्शनिक चिंतन को जन-सामान्य की परिस्थितियों के अनुकूल व्याख्यायित करने का अवसर मिला तो दूसरी ओर मानव के लौकिक जीवन से पारमार्थिक जीवन की ओर अग्रसर होने की विभिन्न स्थितियों और गतिविधियों को स्थायी शब्द मंजुषाओं में आबद्ध करने का प्रयास हुआ। हिन्दी कभी वीर गाथाओं की गायिका बनी तो कभी शाश्वत् जीवन-मूल्यों से संवलित भक्ति भावना की संवाहिका। कालांतर में यह सरल साहित्यिक भाषा की परिधि से आगे शास्त्रीय भाषा का स्वरूप धारण करने की ओर प्रवृत्त हुई।
उत्तर मध्यकाल में हिन्दी में अनेक काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के अतिरिक्त भाषाशास्त्र, ज्योतिष, वैद्यक, पशु,-चिकित्सा, स्वास्थ्य विज्ञान, नीतिशास्त्र और व्यावहारिक ज्ञान आदि से संबंधित रचनाओं का प्रणयन भी प्रभूत परिमाण में हुआ। आधुनिक काल तक आते-आते हिन्दी सामान्य व्यवहार और बहुआयामी साहित्यिक सृष्टि की सूत्रधारिणी बने रहने के साथ-साथ विविध विषयक ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी सामग्री को भी भाषिक धरातल पर उपलब्ध कराने में सक्षम होती चली गई। संक्षेप में, हिन्दी सामान्य भाषा से साहित्यिक भाषा और साहित्यिक भाषा से वैज्ञानिक और तकनीकी भाषा बनने की दिशा में निरंतर अग्रसर रही है।
उसके इस क्रमिक विकासजन्य स्वरूप को सामान्य भाषा और वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के बीच अन्तर के द्वारा ही समझा जा सकता है।
मानव-संस्कृति के प्रमुखतया दो आयाम निर्दिष्ट किये गए हैं-(1) प्रगतिपरक और (2) अभिव्यक्तिपरक। अभिव्यक्तिपरक आयाम के अर्न्तगत सौन्दर्य-बोध और धार्मिक चेतना की वृत्तियां आधारभूत रहती हैं। परिणामतः मानवीय आस्था के द्योतक विभिन्न उपासना पद्धतियां- धार्मिक विश्वास, जीवन मूल्य, साहित्य सृजन इतिहास बोध और प्राकृतिक पर्यवेक्षण आदि विषय अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं।
दूसरी ओर, प्रगतिपरक आयाम का सीधा संबंध ज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष से है।
मानव के भौतिक विकास की विभिन्न गतिविधियों के सुचारू संचालन के निमित्त अपेक्षित ज्ञान-विज्ञान की विश्लेषणात्मक व्याख्या इसकी मूलाधार है, जिसकी केन्द्रीय धुरी निश्चय ही आर्थिक वृत्ति होती है। अर्थशास्त्र, वाणिज्य विज्ञान की विभिन्न शाखाएं, तकनीकी संसाधन एवं संचार-प्रौद्योगिकी आदि विषय इसी प्रगतिपरक आयाम से संबंधित हैं। इस दृष्टि से सामान्य (साहित्यिक) भाषा और वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा के स्वरूप में अन्तर होना स्वाभाविक है।
साहित्यिक भाषा में कल्पना की व्यापक उड़ान बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियों की तुलिकाएं एक ही भावानुभूति अथवा वस्तुस्थिति का बहुकोणीय बिम्बात्मक चित्रण कर एक विलक्षण आनंदलोक का सृजन करती हैं।
परन्तु वैज्ञानिक भाषा में कोरी कल्पना का प्रवेश निषिद्ध है। उसकी जगह प्रायः संभावना ले लेती है-संभावना भी वही, जो ठोस सच पर आधारित हो तथा किसी निश्चित निष्कर्ष की प्राप्ति में सहायक हो सके। इस प्रकार वैज्ञानिक भाषा में संक्षिप्तता और वस्तुनिष्ठता अनिवार्य है। अतएव इस भाषा में केवल ‘अभिधा’ शब्दशक्ति कार्य करती है। एक शब्द का एक ही सुनिश्चित अर्थ अभीष्ट होने के कारण, अनेकार्थी शब्दों या एक ही अर्थ के द्योतक विभिन्न पर्यायों की तालाश वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा में निरर्थक हैं। विलोम अथवा भिन्नार्थक शब्दों का भी इस भाषा में कोई महत्त्व नहीं। अभीष्ट संकल्पना का संवाहक कोई एक ही स्वतः संपूर्ण शब्द यहां पर्याप्त है। अर्थात् वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जो किसी सुनिश्चित संकल्पना का बोध कराते हैं तथा उससे किसी अन्य अर्थ के बोध की संभावना ही नहीं होती।
इसी प्रकार, उस सुनिश्चित संकल्पना के प्र्रतीक-रूप में नियत शब्द का स्थान कोई अन्य शब्द नहीं ले सकता। प्रयोजनात्मक स्तर पर किसी विशेष संकल्पना या अवधारणा की अभिव्यक्ति के लिए एक ही शब्द किस प्रकार सर्वथा भिन्न तात्पर्य का द्योतक बन जाता है, इसे निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है- जैसे ‘प्रेजिडेंट (च्तमेपकमदज) सामान्य सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार में इनके लिए हिन्दी के अनेक समतुल्य शब्द मिलते हैं-अध्यक्ष, सभापति प्रधान इत्यादि।
किन्तु संवैधानिक प्रयोजन के संदर्भ में इसी प्रेजिडेंट शब्द के लिए मात्र ‘राष्ट्रपति’ शब्द ही मान्य है। मूलतः उत्स के स्तर पर भाषा प्रायः एक सुनिश्चित ध्वनि - समूह, रूप - संरचना एवं वाक्य-विन्यास का सांचा लिए रहती है, किन्तु ज्यों-ज्यों वह विकास और प्रसार के विविध पड़ाव पार करती है, त्यों -त्यों उसके प्रकार्यात्मक प्रयोजनों के दायरे भी विस्तृत होने लगते हैं। तब उन बहुविध प्रयोजनों का निर्वाह करने के लिए भाषा की ध्वनि-रूप-वाक्यपरक संरचना की विभिन्न रेखाएं मूलतः एक-सी होते हुए भी अनायास लगने लगती हैं।
उदाहरणतया संज्ञा शब्द की ध्वनि-व्यवस्था और रूप-रचना सदा एक-सी रहेगी, किंतु सामान्य मानव-व्यवहार में यह शब्द चेतना का द्योतन करता है (जैसे दुर्घटना के कारण वह संज्ञा-शून्य हो गया), जबकि यही शब्द व्याकरणिक प्रयोजन के दायरे में आते ही एक विशिष्ट पारिभाषिक प्रयुक्ति बन जाता है। इस प्रकार प्रयोजन का दायरा बदलते ही किसी भाषिक इकाई का संदर्भ, अर्थ और प्रकार्य एकदम भित्र हो जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सामान्य साहित्यिक स्तर पर प्रयुक्त होने वाली भाषा वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में प्रयुक्त होने पर वह अपने मूल संरचनात्मक सांचे (ध्वनि, शब्द, पद वाक्य आदि) से अलग नहीं हो जाती, उसका संरचनात्मक स्वरूप यथावत रहता है, केवल उसके प्रयोजनपरक प्रकार्य का स्तर या दायरा बदल जाता है। वह (भाषा) सामान्य न रहकर विशेष हो जाती है। उसका यह विशेषीकृत रूप ही उसे वैज्ञानिक और तकनीकी भाषा का अभिधान ग्रहण करने के योग्य बनाता है। सामान्य और विशेषीकृत भाषा के स्वरूप में अन्तर का एक सोपान किसी शब्द का दोहरा प्रकार्य है। सामान्य स्तर पर वह शब्द सर्वसमावेशी भाषिक अभिरचना का अंग होता है किन्तु विशेषीकृत रूप में वही शब्द किसी विशिष्ट सैद्धान्तिक संकल्पना का एकमात्र रूढ़- प्रतीक-भर बना रहता है।
उदाहरणतया बाजार हिन्दी का सामान्य शब्द है , परंतु शेयर बाजार, विश्व बाजार, काला बाजार आदि प्रयुक्तियों में यही शब्द अर्थशास्त्र या वाणिज्य क्षेत्र की प्रयोजनपरक इकाई है।
वर्तमान समय में वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा की एक मुख्य विशेषता यह है कि पश्चिम के विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आगमन के कारण हिन्दी में विज्ञान की शब्दावली में प्राचीन संस्कृत शब्दों के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक शब्दावली को भी ग्रहण किया गया है, जैसे - हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कैलोरी आदि। उदाहरण के लिए निम्नलिखित वाक्यों को देखा जा सकता है-
रसायनशास्त्र का एक मूलभूत नियम कहता है, किसी रसायनिक पदार्थों की, उसके शुद्ध रूप में संरचना सदैव एक ही रहती है।
उदाहरण के लिए, पानी सदैव हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना होता है, जो 1ः 8 के अनुपात में संयुक्त होते हैं। उष्मा उपने आप किसी ठंडे पदार्थ से गर्म पदार्थ की ओर नहीं बहती। यह उष्मा की गति का दूसरा नियम है।
इन उदाहरणों में अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक शब्दावली के प्रयोग के अलावा एक और बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि भाषा में अर्थ की सुनिश्चितता है, जैसे संयुक्त शब्द यहां मिलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विज्ञान में वह केवल इसी अर्थ में प्रयुक्त होगा परन्तु प्रशासनिक क्षेत्र में इसका भिन्न प्रयोग देखा जा सकता है, जैसे संयुक्त निदेशक या संयुक्त सचिव आदि। इसी प्रकार यहां उष्मा का बहना आम बोलचाल में जल के बहने या किसी अन्य तरल पदार्थ के बहने की तुलना में विशिष्ट और सुनिश्चित अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
इस प्रकार जब विज्ञान की कोई संकल्पना जब एक अर्थ और प्रयोजन को स्थिर कर लेती है तब भाषा भी उसके लिए स्थिर और अपरिवर्तनीय शब्द उपलब्ध कराती है।