Question : हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का उल्लेख कीजिए।
(2006)
Answer : साहित्य का इतिहास साहित्यिक दृष्टि से रचनाओं का अध्ययन और मूल्यांकन है। इसमें हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया-कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं।
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा को दो भागों में बांटा जा सकता है-शुक्ल पूर्व के इतिहास लेखन और शुक्लोत्तर इतिहास लेखन। शुक्ल पूर्व में जो भी इतिहास लेखन हुआ, वह सभी एक संग्रह मात्र हैं और इन संग्रहों का प्रयोजन हिन्दी साहित्य का परिचय देना था। मतलब यह महज सूचना मूलक इतिहास है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का पहला प्रयास फ्रेंच विद्वान गार्सा द तॉसी ने ‘इस्तवार द ला लितरे- त्थुर ऐन्दुई एन्दुस्तानी ‘लिखकर किया। इसमें इन्होंने हिन्दी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्णक्रमानुसार किया है। इसका प्रथम भाग 1839 में तथा दूसरे भाग का प्रकाशन 1847 में हुआ। 1871 में प्रकाशित द्वितीय संस्करण में साहित्य के इतिहास को तीन भागों में बांटा गया है।
तॉसी ने इस ग्रंथ में साहित्यिक रचनाओं का मात्र परिचय दिया है, वे रचनाओं का गंभीर मूल्यांकन प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं करते। उन्होंने इस ग्र्रंथ में औपनिवेशिक भेदवादी दृष्टि का परिचय देते हुए हिन्दू और मुसलमान में भेदवादी बुद्धि प्रस्तुत की है। इतिहास लेखन के क्षेत्र में दूसरा महत्वपूर्ण प्रयास 1878 में शिव सिंह सरोज के रूप में शिव सिंह सेंगर के द्वारा किया गया है। इस पुस्तक में 1000 कवियों के जीवन चरित्र लिखने के साथ-साथ उनकी कविताओं का उद्धरण दिया गया है। इस ग्रंथ में न तो काल विभाजन की और न ही प्रवृत्तियों की परम्परा को निद्रिष्ट किया गया है।
इस प्रकार इतिहास दृष्टि से इसका कोई सरोकार नहीं है। हिन्दी साहित्य का पहला वास्तविक इतिहास जार्ज ग्रियर्सन की पुस्तक ‘द मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ को माना जाता है, जो 1988 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में पहली बार हिन्दी-साहित्य का काल विभाजन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है तथा किसी एक काल की खास प्रवृत्ति से संबंधित रचनाकारों तथा उनकी रचनाओं की विवेचना किया गया है। ग्रियर्सन ने उन सामाजिक आर्थिक राजनैतिक परिस्थितियों तथा प्रेरणा स्रोतों का उल्लेख किया है, जनके भीतर से रचना प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं।
1913 में मिश्र बन्धु ने ‘मिश्र बन्धु विनोद’ की रचना की। इस ग्रंथ में पांच हजार कवियों को स्थान दिया गया है और इसे आठ से अधिक काल-खण्डों में विभक्त किया गया है। इतिहास के रूप में इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ-साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्व को स्पष्ट करने का यत्न किया गया है। इसके बाद 1918 में गिब्ज - ए स्केच ऑफ हिन्दी लिटरेचर तथा 1920 में फादर एफर्ड के द्वारा ए हिन्दी ऑफ हिन्दी लिटरेचर का प्रकाशन किया गया। ये दोनों ग्रंथ में कुछ नया नहीं है बल्कि तासी और ग्रियर्सन की तरह ही उपनिवेशवादी दृष्टि का ही प्रतिफल करते हैं।
शुक्ल पूर्व दौर में जो भी इति हास लेखन हुआ, उसमें इतिहास दृष्टि नाममात्र की थी। इस पृष्ठभूमि में साहित्यिक इतिहास लेखन के क्षेत्र में शुक्ल जी ने अपनी सशक्त उपस्थिति को दर्ज कराते हुए इसे स्पष्ट और गहरी इतिहास दृष्टि से लैस किया।
शुक्ल जी पहले इतिहासकार हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास के पूर्व अपनी इतिहास दृष्टि की विस्तृत व्याख्या की। इतिहास लेखन में शुक्ल जी के समक्ष एक महत्वपूर्ण चुनौती हिन्दी साहित्य को काव्य शास्त्रीय रूढि़यों तथा दार्शनिक ऊहापोह के बन्धन से मुक्त करना था। स्पष्ट है कि साहित्य को सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भों को जोड़ना आचार्य शुक्ल के समक्ष चुनौती थी। शुक्ल जी ने इस चुनौती को आसानी से निपटाते हुए अपनी ऐतिहासिक दृष्टि को प्रतिष्ठित किया। शुक्ल जी ने मिश्र बन्धु विनोद के द्वारा प्रस्तुत सामग्री और ढांचे को अपनाया, लेकिन उनका मन सिर्फ तथ्यों के ढांचों में नहीं रमा। उन्होंने कवियों के जीवन वृत्त और ग्रंथ सूची से आगे बढ़कर कवियों के साहित्यिक सामर्ध्य का उद्घाटन किया।
प्रथम संस्करण में उन्होंने लिखा कि इतिहास की पुस्तक में किसी कवि की पूरी या अधुरी आलोचना नहीं आ सकती। फिर भी उन्होंने रचनाओं और रचनाकारों का जो मूल्यांकन और विश्लेषण किया, वह आज भी अपनी प्रमाणिकता के कारण व्यापक पाठक वर्ग के साहित्यिक विवेक का मार्गदर्शक बना हुआ है। उन्होंने महत्वपूर्ण रचनाओं के काव्यात्मक सौन्दर्य का विश्लेषण और मूल्यांकन नहीं किया है, वरन् उन्होंने पाठकों को वो साहित्यिक विवेक प्रदान किया, जिसके बदौलत असली और नकली कला के बीच विभेद किया जा सकता था। यह निभ्रान्त साहित्यिक विवेक आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि की मूल शक्ति है।
शुक्ल जी ने रचनाकारों की रचनाओं को अधिक प्रतिनिधत्व और उत्कृष्ट बनाया, साथ ही प्रवृत्ति साम्य और युग के अनुसार कवियों को समुदाय में रखकर उन्होंने सामूहिक प्रभाव डालने का प्रयास किया। उन्होंने विभिन्न कालखण्डों और इससे संबंधित रचनाकारों का सामान्य परिचय देकर एक ऐतिहासिक प्रवाह दिखाना चाहा, साथ ही साथ इस प्रवाह की गति के उत्थान और पतन के उसके पृष्ठभूमि के संदर्भ में विश्लेषण किया।
आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन के लगभग एक शताब्दी बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए।
उनकी हिन्दी-साहित्य की भूमिका, क्रम और पद्धति की दृष्टि से इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है, किन्तु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतंत्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कषों का प्रतिपादन किया गया है, जो हिन्दी-साहित्य के इतिहास लेखन के लिए नई दृष्टि, नई सामग्री और नई व्याख्या प्रदान करते हैं।
जहां आचार्य शुक्ल की ऐतिहासिक दृष्टि युग की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती है, वहां आचार्य द्विवेदी ने परम्परा को महत्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खण्डित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी दृष्किोण पर आधारित थी। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका‘ के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास सम्बन्धी कुछ और रचनाएं भी प्रकाशित हुई हैं - हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास, हिन्दी साहित्य का आदि काल आदि।
इनमें उन्होंने अपने तद्विषयक विचारों को अधिक व्यवस्थित एवं पुष्ट रूप में प्रस्तुत किया है। वस्तुतः वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने आचार्य शुक्ल की अनेक धारणाओं और स्थापनाओं को चुनौती देते हुए उन्हें सबल प्रमाणों के आधार पर खण्डित किया। साथ ही उनके युग-रूचिवादी एकांगी दृष्किोण के समानान्तर अपने परम्परापरक दृष्टिकोण को स्थापित करके उन्होंने हिन्दी-साहित्य के अध्येताओं के लिए एक व्यापक एवं संतुलित इतिहास दर्शन की भूमिका तैयार की। वैसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी घटना, रचना या धारा की शुद्ध विकासवादी व्याख्या करने के लिए परम्परा और युग-स्थिति, दोनों पक्ष ही विचारणीय हैं। आचार्य द्विवेदी ने जहां परम्परा पर बल दिया, वहां आचार्य शुक्ल ने युग-स्थिति पर अतः कहा जा सकता है कि दोनों के मत इस दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक हैं।
आचार्य द्विवेदी के ही साथ-साथ इस क्षेत्र में अवतरित होनेवाले एक अन्य विद्वान डा. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी-साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (1938) में 693 ई- से 1693 ई- तक की कालावधि को ही लिया है। सम्पूर्ण ग्रंथ को सात प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यतः शुक्ल जी के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया गया है। ऐतिहासिक व्याख्या की दृष्टि से यह इतिहास आचार्य शुक्ल के गुण-दोषों का ही विस्तार है। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 16 खण्डों में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का वृहद इतिहास अलग-अलग सम्पादकों के नेतृत्व में लिखा गया है। इसमें इतिहास लेखन के सामान्य सिद्धांत को पहले ही स्वीकृत कर लिया गया था, फिर भी इसमें लेखकों की दृष्टि टकराती हैं। इसके बाद भी इस ग्रंथ के द्वारा दी गई जानकारी प्रमाणिक है, विशेषकर उसका भाषा खण्ड और रीतिकाल खण्ड काफी उपयोगी है।
उपर्युक्त इतिहास ग्रंथों के अतिरिक्त भी अनेक शोध-प्रबन्ध और समीक्षात्मक ग्रंथ लिखे गए हैं, जो हिन्दी-साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास को तो नहीं, किन्तु उसके किसी एक पक्ष, अंग या काल को नूतन ऐतिहासिक दृष्टि और नयी वस्तु प्रदान करते हैं।
इस प्रकार के शोध-प्रबन्ध और समीक्षात्मक ग्रंथों में डा- भागीरथ मिश्र का ‘हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास, श्री पशुराम चतुर्वेदी का उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र का हिन्दी साहित्य का अतीत, डा- नलिनविलोचन शर्मा का साहित्य का इतिहास दर्शन आदि प्रमुख हैं।
1986 में हिन्दी साहित्य का संवेदना और विकास लेखक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के क्षेत्र में समग्र और सन्तुलित इतिहास की लम्बे समय से महसूस हो रही कमी को दूर किया। पारम्परिक इतिहास लेखन के विपरीत चतुर्वेदी जी ने साहित्य और संवेदना को एक साथ देखने और परखने का प्रयत्न किया है। उन्होंने समस्त जनता के चित्तवृत्तियों के संश्लेषण को संवेदना की संज्ञा दिया है।
इस प्रकार गार्सा द तॉसी से लेकर अब तक की परम्परा के संक्षिप्त सर्वेक्षण से यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी की ही अवधि में हिन्दी-साहित्य का इतिहास लेखन अनेक दृष्टियों, रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर गया है। इतना ही नहीं, हमारे लेखकों ने न केवल विश्व-इतिहास-दर्शन के बहुमान्य सिद्धान्तों और प्रयोगों को अंगीकृत किया है, अपितु उन्होंने ऐसे नये सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये हैं, जिनका साम्यक् मूल्यांकन होने पर अन्य भाषओं के इतिहासकार भी उनका अनुसरण कर सकते हैं।
Question : हिन्दी साहित्य के इतिहासों का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताइए कि आप किस इतिहास ग्रंथ को पूर्णतः समझते हैं और क्यों?
(2000)
Answer : साहित्य का इतिहास साहित्यिक दृष्टि से रचनाओं का अध्ययन तथा मूल्यांकन है। इसमें साहित्य की विकासमान परंपरा, उसके उद्भव से आज तक की स्थिति का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल का कथन काफी उपयोगी हैः "जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होती हैं, तब यह निश्चय है कि जनता की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य पंरपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।"
हिन्दी साहित्य का इतिहास लेखन 19वीं शताब्दी से आरंभ हुआ है। हालांकि इसके पूर्व विभिन्न लेखकों ने ऐसे ग्रंथों की रचना की थी, जिसमें हिन्दी के विभिन्न रचनाकारों के जीवन-वृत्त और कृतित्व का परिचय दिया गया था, पर इहें इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। ये ग्रंथ मूलतः इत्तिवृत्तात्मक हैं और इसमें कालक्रम सन् संवत का भी अभाव है, मूल्यांकन का तत्व तो इन ग्रंथों में है ही नहीं- चौरासी वैष्णव की वार्त्ता, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्त्ता भक्तभाल, कविमाला, कालिदास-हजारा आदि ऐसे ही ग्रंथ हैं।
हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास फ्रेंच विद्वान गार्सा-द- तासी ने किया। उन्होंने फ्रांसीसी भाषा में इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई एन्दुस्तानी नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें तांसी साहित्यिक रचनाओं का परिचय देकर रह जाते हैं और रचनाओं का गंभीर मूल्यांकन प्रस्तुत करने का कोई प्रयास नहीं किया। तांसी के बाद शिव सिंह सेंगर ने शिव सिंह सरोज की रचना की। इसमें वर्णानुक्रम से कवियों का इत्तिवृत्त प्रस्तुत किया गया है। इतिहास के रूप में इस ग्रंथ का महत्व नहीं है। पर इस ग्रंथ में अधिक से अधिक कवियों और कविताओं को एक साथ इकट्ठा करने का महत्वपूर्ण काम किया गया है। 1888 में प्रकाशित जार्ज ग्रिर्यसन की रचना फ्मार्डन बर्नेक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान" को हिन्दी साहित्य का पहला वास्तविक इतिहास माना जाता है। इस ग्रंथ में पहली बार काल विभाजन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया तथा किसी एक काल की खास प्रवृत्तियों से संबंधित रचनाकारों तथा कालों का कालक्रमानुसार विवेचन किया गया है। ग्रियर्सन का इतिहास लेखन का महत्व इस बात में है कि इनका ग्रंथ बाद के इतिहासकारों के के लिए पथ प्रदर्शक सिद्ध हुआ। 1913 में मिश्र बंधु ने मिश्र बंधु विनोद की रचना की। यह ग्रंथ इतिहास न होकर फ्साहित्यकार कोश" है तथा इसमें पांच हजार कवियों का विशाल वृत्त संग्रह दिया गया है।
शुक्ल पूर्व दौर में जो भी इतिहास लेखन हुआ उसमें इतिहास दृष्टि नाममात्र थी। इस पृष्ठभूमि में साहित्य इतिहास लेखन के क्षेत्र में शुक्ल जी ने अपनी सशक्त उपस्थिति को दर्ज कराते हुए इसे स्पष्ट और गहरी इतिहास दृष्टि से पूर्ण किया। शुक्ल जी पहले इतिहासकार हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास लिखने के पूर्व अपनी इतिहास दृष्टि की विस्तृत व्याख्या की। उनकी साहित्येतिहास संबंधी अवधारणा में निम्नलिखित बातें शामिल हैं:
(1)प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।
(2)जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य का स्वरूप भी परिवर्तित होता चला जाता है।
(3)जनता की चित्रवृत्ति के परिवर्तन के चलते राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का अवलोकन भी आवश्यक है।
इस प्रकार शुक्ल जी ने जनता की चित्तवृत्ति के साथ साहित्य का संबंध जोड़ते हुए उसके क्रमिक विकास और परिवर्तन का आलेख प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसके साथ ही साथ उन्होंने प्रेरक परिस्थितियों का भी साम्यक् विवेचन किया है। यद्यपि शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को एक नयी इतिहास दृष्टि और जनवादी चेतना से पूर्ण किया, तथापि वे सामाजिक व राजनैतिक अंतर्विरोध को अपने यहां जगह नहीं दे पाए। शायद शुक्ल जी विकास प्रक्रिया की जटिलता को समझने में या तो असफल रहे या फिर समझने के बावजूद उसकी उपेक्षा की।
अपने वैचारिक आग्रह के कारण सिद्धनाथ साहित्य सहित आदिकालीन धार्मिक साहित्य, भक्ति अंदोलन के उद्भव कबीर, छायावाद और रहस्यवाद विषयों के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाए। यद्यपि शुक्ल जी ने युगीन स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य का विश्लेषण किया तथा रचनाकार का व्यक्तित्व और ऐतिहासिक परंपरा उनके यहां उपेक्षित रह गयी।
1939 में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका लिखकर साहित्य इतिहास लेखन के क्षेत्र में आए। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय, जहां युगीन परिस्थितियों पर बल दिया, वहां आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने परंपरा को इतिहास लेखन का आधार बनाया। उन्होंने आचार्य शुक्ल के युग रुढि़वादी दृष्टिकोण के समानान्तर अपने परंपरा पूरक दृष्टिकोण को स्थापित करके हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के लिए एक व्यापक और संतुलित इतिहास-दर्शन की भूमिका तैयार की। दरअसल परंपरा और युगीन परिस्थितियों के सम्यक् मूल्यांकन से संतुलित इतिहास का निर्माण हो सकता है, अतः यह कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी के मत एक-दूसरे के पूरक हैं। आचार्य द्विवेदी के इतिहास लेखन की दो सीमा है। पहली सीमा यह है कि द्विवेदी जी पंरपरा पर अतिशय बल देने के कारण नवीन इतिहास की पृष्ठभूमि के रूप में भाववादी दृष्टिकोण को स्वीकार करने में असमर्थ हैं, क्योंकि इसमें रचनाकार की युगीन परिस्थितियों को आपेक्षित महत्व नहीं मिल पाया है। इनकी दूसरी महत्वपूर्ण सीमा सामाजिक ढांचे के विवेचन के क्रम में आर्य-अनार्य जैसे नस्लीय दृष्टिकोण का सहारा लेना है साथ ही भारतीय चिंतन धारा के स्वाभाविक विकास की उनकी अवधारणा आधुनिक काल के उदय का समर्थन करने में असमर्थ है। इन सीमाओं के बावजूद द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य को एक नये इतिहास बोध से व्यस्क किया।
आचार्य द्विवेदी के बाद डा. रामकुमार वर्मा ने ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ लिखा जो अलोचनात्मक कम और विवरणात्मक अधिक है। वर्मा जी की समस्या यह है कि उन्होंने विभिन्न काव्य धाराओं के मूल्यांकन के क्रम में भावुकता से काम लिया है और इसी कारण इनका इतिहास ग्रंथ काव्यात्मक हो गया है। अन्य इतिहास लेखकों में धीरेन्द्र वर्मा, नागेन्द्र, रामविलास शर्मा, डा. बच्चन सिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। धीरेन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य के इतिहास तीन खंडों में विभाजित हैं तथा अलग-अलग खंडों का इतिहास लेखन अलग-अलग परिपाटियों को अपनाते हुए किया गया है। इस कारण दृष्टि संबंधी एकरूपता का अभाव इसकी महत्वपूर्ण बन जाती है। डा. नागेन्द्र द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य के इतिहास में नामकरण, प्रवृत्तियां, लेखक के साहित्य और उस काल की साहित्यिक उपलब्धियों को क्रमिक रूप से रखा गया है। विभिन्न अध्यायों को अलग-अलग इतिहासकारों द्वारा लिखे जाने के कारण विभिन्न कालों में एक ही आलोचना दृष्टि नहीं मिलती। डा. रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि मार्क्सवादी सिद्धांतों से प्रभावित है। उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के संकेतों तथा सूत्रों को आगे बढ़ाते हुए हिन्दी भाषा के गठन-निर्माण और विकास का प्रमाणिक विवेचन किया है। हिन्दी भाषा और साहित्य के जातीय स्वरूप के पहचान खोज और रक्षा उनके लेखन का प्रमुख लक्ष्य है। वस्तुतः हिन्दी साहित्य के जातीय रूप और विशेषताओं के विकास का प्रश्न उनके इतिहास लेखन में प्रमुख रूप से उभरकर सामने आया है। इस दृष्टि से उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को नयी जमीन और नयी दिशा प्रदान की।
1986 में हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास लिखकर रामस्वरूप चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के क्षेत्र में समग्र और संतुलित इतिहास को लंबे समय से महसूस हो रही कमी को दूर किया। चतुर्वेदी जी की इतिहास दृष्टि पर आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी के इतिहास दृष्टि का प्रभाव है। लेकिन चतुर्वेदी जी ने बहुत कुशलता से इसे दोनों की इतिहास दृष्टियों को संश्लेषित कर एक नयी इतिहास दृष्टि का सूत्रपात किया है। यह नयी दृष्टि पारंपरिक इतिहास लेखन से अपने संबंध को बनाए रखते हुए अपने विशिष्ट और मौलिक पहचान कायम करती है। इस पुस्तक में हिन्दी भाषा और साहित्य की पड़ताल करते हुए ऐतिहासिक परंपरा में उनके विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इतिहास और विकास के अंतर को बतलाते हुए, उन्होंने कहा कि इतिहास में जहां इतिवृत्त पर बल होता है, वहीं विकास में इतिवृत्त के उस अंश पर बल होता जहां, दिखाया जाता है कि एक युग पिछले युग से और एक रचनाकार अपने पहले के रचनाकार से कहा और क्यों भिन्न तथा विशिष्ट है। संवेदनात्मक विकास को समझने में सुविधा के मद्दे नजर ही कवि कीर्तन के बजाय कविता कीर्तन को प्राथमिकता दी है और इसी कारण यहां युग का विश्लेषण प्रतिनिधि रचनाकारों के आधार पर हुआ है।
पारंपरिक इतिहास लेखन के विपरीत चतुर्वेदी जी ने समस्त जनता के चित्रवृत्ति के संश्लेष को संवेदना की संज्ञा देते हुए कहा कि इस पुस्तक में साहित्य और संवेदना को एक साथ देखने और परखने का प्रयत्न किया गया है। संवेदना में बदलाव को समझने में साहित्यिक युग की परिकल्पना और उनके बीच के महत्वपूर्ण अंतरालों को समझा जा सकता है। इसलिए साहित्य के विकास के साथ-साथ संवेदना के विकास को रेखांकित करना आवश्यक है।
चतुर्वेदी जी ने साहित्यिक विकास के साथ-साथ आर्थिक विकास का गहरा विश्लेषण किया है और भाषा और साहित्य के गतिशील संबंधों को पूरी प्रमाणिकता से विश्लेषित किया है। वे भक्ति काल को न तो इस्लाम की प्रतिक्रिया मानते हैं और न ही भारतीय चिंतन धारा का स्वाभाविक विकास। उनके अनुसार यदि भक्ति आंदोलन पर इस्लाम का प्रभाव है, तो भारतीयों की प्रतिक्रिया भी। इस प्रकार हम चतुर्वेदी जी के इतिहास ग्रंथ को पूर्णतः मान सकते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती इतिहास ग्रंथों की कमियों को दूर करने का सार्थक एवं प्रशंसनीय कार्य किया है।