Question : हिन्दी रंगमंच का विकास
(2007)
Answer : हिन्दी रंगमंच की जड़ें संस्कृत रंगमंच और लोक मंच की परंपरा में मानी जाती है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाट्यकला के विभिन्न अंशों पर विचार करने के साथ-साथ रंगमंच और उसकी कला का भी विस्तृत विवेचन किया है। संस्कृत नाटकों की रचना अधिकतर रंगमंच पर अभिनीत किये जाने की दृष्टि से होती थी। मध्यकाल में रासलीला, रामलीला, नौटंकी आदि का उदय होने से जन - रंगमंच का प्रचलन बढ़ने लगा, लेकिन तत्काल परिस्थितियों में इसका विकास भी संभव न हो सका।
आधुनिक युग में सम्पूर्ण भारत में बंगाली रंगमंच ही सर्वप्रथम अस्तित्व में आया। व्यावसायिक होते हुए भी इस रंगमंच की दृष्टि
में कला और साहित्य का अपूर्व समन्वय हुआ था। 1870 ई- से पारसी रंगमंच का आविर्भाव हुआ। 1867-68 में ‘‘विक्टोरिया नाटक मंडली,’’ 1870 में ‘‘एल्फिंसटन नाटक मंडली’’, 1871 में ‘‘एलफ्रेड नाटक मंडली, 1874-75 में ‘‘ओरिजनल विक्टोरिया नाटक मंडली’’ की स्थापना हुई थी। इन थियेट्रिकल कंपनियों की कोई सुनिश्चित नाट्य-शैली नहीं थी।
कथनाकों का चुनाव कभी फारसी प्रेम-कथाओं से, तो कभी रामायण-महाभारत से और कभी अंग्रेजी नाटकों-‘हेमलेट’, ‘रोमियो-जूलियट’ से या फिर कभी-कभी जन प्रचलित कथाओं- ‘पूरनभगत’, ‘गोपीचंद’ आदि से किया जाता था। कथानक कैसा भी हो, इसका मुख्य उद्देश्य दर्शकों को मनोरंजन करना होता था। हालांकि हिन्दी रंगमंच और सामान्य जन रुचि के लिए ये नाटक ठीक नही थे, लेकिन इन सीमाओं के बावजूद पारसी रंगमंच हिन्दी नाटकों को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया।
1936 में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रोत्साहन से भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का गठन किया गया। इप्टा ने हिन्दी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में नाटकों को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इप्टा ने अपने नाटकों का मंचन जनता के बीच किया और ऐसे नाटक अधिक खेले, जिनमें गरीब जनता के दुख-दद्र को विषय बनाया गया हो। 1944 में पृथ्वीराज कपूर ने फ्पृथ्वी थियेटर्सय् की स्थापना की। यह पारसी रंगमंच से प्रभावित होने पर भी उससे भिन्न था और इसने किसी न किसी रूप में प्रगतिशील नाट्य परंपरा से अपने को जोड़े रखा।
1947 के आसपास महानगरों (मुम्बई, दिल्ली) के अतिरिक्त उपनगरों बनारस, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद आदि में भी रंगमंचीय वातावरण क्रियाशील हो रहा था। अनेक छोटी-बड़ी नाट्य संस्थाएं मूल नाटक या अनुवादों का अभिनय प्रस्तुत करने लगी थीं।
साथ ही साहित्यिक नाटकों का सृजन भी होने लगा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार का ध्यान कलाओं के विकास की ओर आकर्षित हुआ और उसको समृद्ध बनाने के लिए भारत सरकार ने ‘संगीत नाटक अकादमी’ की स्थापना की। सन् 1959 ई- में इस अकादमी की ओर से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और एशियन थियेटर स्कूल की स्थापना हुई। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रें द्वारा समय-समय पर नाटकों का अभिनय व प्रदर्शन भी किया जाता है तथा इसके पास ओपेन एयर थियेटर भी है।
कोलकाता में स्थापित फ्अनामिकाय् (1955), ‘अदाकार’ (1966) तथा ‘संगीत कला मंदिर’ (1945) तथा मुम्बई में सत्यदेव दुबे के निर्देशन में चलने वाली नाट्य संस्था थियेटर यूनिटय्, जयपुर का रवीन्द्र रंगमंच, कानपुर की संस्था दर्पण, इलाहाबाद का प्रयाग रंगमंच, वाराणसी की नागरी नाटक मंडली, श्री नाट्यम् आदि नाट्य संस्थाएं हिन्दी रंगमंच के विकास में सक्रिय योग दे रही हैं।
Question : हिन्दी नाटक के उद्गम और विकास पर प्रकाश डालिए।
(2004)
Answer : हिन्दी नाटक के आधुनिक मौलिक स्वरूप का विकास भारतेन्दु युग में हुआ। हालांकि मध्ययुग के उत्तरार्द्ध में ब्रजभाषा हिन्दी में भी कुछ ऐसे नाटक प्रणीत हुए, जिनकी मूल प्रकृति तो काव्यपरक ही है, किन्तु संवाद-शैली में रचे होने के कारण इन्हें नाटक की संज्ञा दे दी गयी। इस प्रकार के काव्य परक नाटकों में-रामायण नाटक (प्राणचन्द चौहान) 1610 ई., करूणाभरण (लछिराम) 1657 ई, शकुन्तला (नेवाज) 1680 ई., रामकरुणाकर एवं हनुमन्नाटक (उदय) 184 ई. इत्यादि प्रमुख है। किन्तु इनकी सृजनात्मक प्रवृत्ति तत्वतः नाट्योपयोगी उतनी नहीं है, जितनी काव्योपजीवी है। वास्तव में हिन्दी नाटक के आधुनिक रूप का विधिवत विकास भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने ही किया। वे एक कुशल नाटककार एवं रंगकर्मी थे। उन्होंने पारसी रंगमंच की व्यवसायिकता को खत्म करने के लिए या जनता पर उस रंगमंच के प्रभाव को तोड़ने के लिए एक अव्यवसायिक रगमंच आंदोलन शुरू किया। इसके लिए उन्होंने एक नाट्य मंडली बनायी थी, जिसमें बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, किशोरी लाल गोस्वामी, काशीनाथ खत्री आदि शामिल थे। भारतेन्दु ने नाटक के माध्यम से एक सुरूचिपूर्ण राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का नवोन्मेष करना चाहते थे। मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों को शिक्षा समाज-सुधार आदि उनका अभीष्ट था। इसी प्रयोजन से भारतेन्दु ने अपने नाटकों और प्रहसनों में तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि प्रश्नों और समस्याओं को रूपायित किया तथा पुनरूत्थानमूलक समाधान प्रस्तुत किया। उनके मंडल के अन्य रचनाकारों ने भी उन्हीं के आदर्शों का अनुसरण किया।
भारतेन्दु ने स्वयं अनुदित और मौलिक सब मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की, जिसे विषय और प्रवृत्ति के आधार पर पौराणिक, ऐतिहासिक, रोमानी, सामयिक उपादानों के आधार पर रचित प्रहसन और प्रतीकवादी वर्गों में रखा जा सकता है। इनकी कुछ प्रमुख नाटक-विधा-सुन्दर (1868), रत्नावली (1868), सत्य हरिश्चन्द्र (1875), भारत दुर्दशा (1890), अंधेर नगरी (1891), आदि। भारतेन्दु मंडल के कुछ अन्य प्रमुख नाटककार जिन्होंने नाटकों की रचना कर हिन्दी नाट्य साहित्य को समृद्ध किया, उनमें- देवीकानन्दन खत्री (सीताहरण-1876), शीतलाप्रसाद त्रिपाठी (रामचरितावली), श्रीनिवासी दास (प्रह्लाद चरित्र, रणधीर, प्रेममोहिनी), बालकृष्ण भट्ट (नलदमयंती स्वयंवर, नया रोशनी का विष), राधाचरण गोस्वामी (अमर सिंह राठौर), राधाकृष्ण दास (दुखिनी बाला) आदि।
भारतेन्दु के उपरान्त कुछ समय के लिए हिन्दी में मौलिक नाटकों का अभाव रहा। मौलिक नाटकों की दृष्टि से द्विवेदी युग हिन्दी साहित्य का सबसे दरिद्र कालखंड है। किन्तु इस बीच विभिन्न भाषाओं से नाटकों का अनुवाद अवश्य बड़े पैमाने पर हुआ। बांग्ला, अंग्रेजी, संस्कृत नाटकों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुए। शेक्सपीयर के नाटकों, संस्कृत के नाटक मृच्छकटिकम्, मालतीमाधव, मालविकाग्निमित्र आदि का हिन्दी में अनुवाद हुआ। इसी समय सत्यनारायण कविरत्न ने उत्तररामचरित और मालती माधव का अनुवाद किया। मौलिक नाटककारों में किशोरीलाल गोस्वामी, हरिऔध, शिवनंदन सहाय, देवी प्रसाद पूर्ण आदि का नाम महत्वपूर्ण है, पर ये लोग साहित्य में नाटकों के बजाय अन्य विधा की रचनाओं के लिए विख्यात हैं। इसी से इस काल में मौलिक नाटकों की स्थिति का पता चलता है। इस काल के कुछ मौलिक नाटकों में गोस्वामी जी का चौपट चपेट, मयंक-मंजरी, हरिऔध की रूक्मिणी परिणय, पद्युम्न विजय व्यायोग, शिवनंदन सहाय का सुदामा, पूर्ण जी का चंद्रकला भानुकुमार आदि प्रमुख है।
जयशंकर प्रसाद के अविर्भाव के साथ हिन्दी नाट्य साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। नाट्य समीक्षक यह स्वीकार करते हैं कि प्रसाद ने हिन्दी नाट्य सृजन को एक नई शैली दी, नूतन प्राण-प्रतिष्ठा की और सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संचेतना की भावोच्छ्वासपूर्ण अभिव्यक्ति की। उन्होंने भारतीय नाट्य विधान के अंतर्द्वंद का सुन्दर समन्वय कर एक नूतन नाट्य शिल्प का विकास किया। प्रत्येक पात्र को प्रसाद ने एक निजी व्यक्तित्व प्रदान किया, जिसके कारण पात्रों की भीड़ में हर पात्र की अपनी अलग व विशिष्ट पहचान स्थापित हुई। चरित्र विकास की मौलिकता ही प्रसाद के नाटकों की अन्यतम विशेषता है।
इस काल में ऐतिहासिक नाटकों की धूम रही, स्वयं प्रसाद ने रोमांटिक धर्मी ऐतिहासिक सांस्कृतिक नाटकों का सृजन किया। प्रसाद के अतिरिक्त हरिकृष्ण प्रेमी, गोविंद वल्लभ पंत, सेठ गोविन्द दास आदि ने ऐतिहासिक नाटक लिखे। ‘उग्र’ ने महात्मा ईसा नामक साहसपूर्ण नाटक लिखा। सामाजिक समस्याओं पर नाटक लिखने वालों में लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा भुवनेश्वर प्रमुख हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा ने ऐतिहासिक और सामाजिक दोनों प्रकार के नाटक लिखे। इसी समय एकांकियों का भी प्रचलन हुआ और रेडियों नाटक का भी।
प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों पर अपने समय अर्थात् 20वीं शती की समस्याओं का पूरा प्रभाव है। नाटक राष्ट्रीयता अतीत गौरव की भावना से पूर्ण है। इसमें सांप्रदायिक एकता और विश्वबंधुत्व की भावना भी दिखाई पड़ती है, जिसे अन्तर्राष्ट्रीय भावना भी कह सकते हैं। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण उनका चन्द्रगुप्त (1931) तथा स्कंदगुप्त (1928) नाटक है। नारी के शोषण को व्यक्त करने के लिए प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी (1953) की रचना की। प्रसाद की अन्य नाट्य कृतियों में-अजातशत्रु, राजश्री, विशाख जनमेजय का नागयज्ञ और कामना महत्वपूर्ण है। अन्य लेखकों की ऐतिहासिक नाट्य कृतियों में प्रेमी जी का शिवसाधना और रक्षाबन्धन, गोविन्द वल्लभ पंत का राजमुकुट तथा उदयशंकर भट्ट की पौराणिक आधार वाले नाटक राधा, विश्वामित्र और मत्स्यगंधा आदि प्रमुख हैं।
इसी समय श्री लक्ष्मी नारायण मिश्र ने मुक्ति का रहस्य (1932) और सिंदूर की होली (1934) लिखकर हिन्दी नाटकों को नया मोड़ दिया। दोनों समस्या नाटक है, जिसमें समकालीन जीवन की समस्याओं को अंकित किया है जो बहुत कुछ व्यक्ति के मनोजगत् से संबद्ध हैं। इसमें भावुकता से भरसक बचा गया है।
इस दौर में एकांकी नाटकों का प्रचलन बढ़ा। प्रसाद के एक घूंट को अनेक विचारकों ने एकांकी कहा है। कथा-साहित्य में जो स्थान कहानी का है, वहीं रूपक के क्षेत्र मे एकांकी का। रामकुमार वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, भुवनेश्वर आदि ने एकांकी साहित्य की श्री वृद्धि की।
यथार्थवादी नाट्य शैली एवं रंग-शिल्प को अपनाकर यथार्थवादी नाटक या समस्या नाटक लिखने का प्रसादोत्तर कालीन दौर कृपानाथ मिश्र (कृत ‘मणि गोस्वामी’ (1992), लक्ष्मी नारायण मिश्र) कृत ‘संन्यासी’ (1929 ई.) से ही प्रारंभ होता है। 1930 ई. के बाद हिन्दी में यथार्थ-परक समस्या नाटकों के सृजन की धारा अनवरत रूप से प्रवाहित हो चली। सेठ गोविन्ददास, उपेन्द्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर, मन्नू भंडारी, विनोद रस्तोगी आदि ने सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण करते हुए अनेक नाटक लिखे। इनमें नाटकों की नाट्याभिव्यक्ति की रीति यद्यपि यथार्थपरक थी, किन्तु यथार्थवादी रंगमंचीय प्रदर्शन हिन्दी में प्रचलन न होने के कारण उनका नाट्य लेखन रंग-शिल्प की दृष्टि से अधिक प्रभविष्णु नहीं बना। प्रसादोत्तर काल की एक प्रवृत्ति प्रसाद के नाट्यादर्श का अनुगमन करने की थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ बदली परिस्थितियों का प्रभाव लेखकों पर भी पड़ा। नव-निर्माण की आकांक्षा और नये युग की ओर बढ़ते कदम ने जहां लोगों में उत्साह और आशा का संचार किया। वहीं इस दिशा में बढ़ती असफलताओं ने लोगों को निराश और कुंठित भी किया, जिसका सर्वाधिक प्रभाव मध्यम वर्ग पर पड़ा। इस दौर के अधिकांश नाटक मध्यम वर्ग की आशाओं, आकांक्षाओं और विडंबनाओं को ध्यान में रखकर लिखे गए। नये युग के साथ जो नई राजनीतिक सामाजिक स्थितियां बन गयी थी, उनसे उभरी समस्याओं को भी नाटकों का विषय बनाया गया। विषय की दृष्टि से इस युग में भी पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक आदि नाटक लिखे गए। मुख्य बात यह है कि पौराणिक और ऐतिहासिक नाटकों (समस्या आधुनिक ही होती थी। इस अवधि में) वस्तु और शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण पौरालिक नाटकों में-लक्ष्मीनारायण लाल का ‘सूर्यमुख’ (1968) एवं ‘कलंकी’ (1971)_ रांगेय राधव का ‘स्वर्ग भूमि का यात्री’ (1951)_ सीताराम चतुर्वेदी का ‘सीता परित्याग’ (1964) एवं ‘शबरी’ (1953)_ धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ (1955) आदि उल्लेखनीय हैं। स्वातंत्र्योत्तर ऐतिहासिक नाटकों में मनुष्य के नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की झलक मिलती है। ये काल्पनिक होते हुए भी ऐतिहासिक रूप को बनाये रखते हैं। इस प्रकार के नाटकों में जगदीश चन्द्र माथुर का ‘कोणार्क’ (1951), ‘शरदीया’ (1959), मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’, लहरों के राजहंस आदि हैं।
इस काल में सबसे अधिक सामाजिक नाटकों की रचना हुई, जिसकी मुख्य विशेषता फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव है। इन समाजिक नाटकों द्वारा समाज में घटने वाली घटनाओं और समस्याओं के साथ तत्कालीन परिवेश को भी रूपायित किया गया।
समाजिक नाटकों में भागवती चरण वर्मा का ‘रूपया तुम्हें खा गया’, मोहन राकेश का ‘आधे-अधूरे’, मन्नू भंडारी का ‘बिना दीवारों के घर’ आदि प्रमुख हैं। आधुनिक काल की एक महत्वपूर्ण नाट्य धारा असंगत नाटकों का भी है। असंगत नाटकों का महत्वपूर्ण उद्देश्य परंपरागत मूल्यों के प्रति अनास्था प्रकट करना तथा उन्हें तोड़ना है। इस प्रकार के नाटकों का अधिक विकास नहीं हो पाया। इस काल में कुछ जनवादी नाटकों की भी रचना हुई तथा अनेक हिन्दीत्तर भाषाओं के नाटकों का अनुवाद भी हुआ। 1980 के आस-पास नुक्कड़ नाट्यान्दोलन की शुरूआत हुई। इस आंदोलन में रमेश उपध्याय, हरीश मदानी, सुरेशकांटक की प्रमुख भूमिका रही।