Question : हिन्दी आलोचना और डा. रामविलास शर्मा
(2005)
Answer : डा. रामविलास शर्मा ने हिन्दी-भाषा और साहित्य की गौरवशाली परंपराओं का अनुसंधान करते हुए नवीन-आलोचना दृष्टि का विकास किया। वे मार्क्सवाद की समझ का उपयोग अपने ढंग से करते हैं- मार्क्सवाद के प्रगतिशील तत्वों का उपयोग उन्होंने आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना- दृष्टि के समर्थन और ग्रहण के साथ किया। डा. शर्मा की आलोचना में भारतीय लोक-परम्पराओं, क्लासिकल भारतीय साहित्य की उदात्त-भावभूमि के साथ लोक-चित्तवृत्ति की पकड़ रहती है। कवियों में निराला, कथाकारों में प्रेमचन्द्र और आलोचकों में रामचन्द्र शुक्ल उन्हें प्रिय हैं। उनकी व्यवहारिक समीक्षा का चरम उत्कर्ष ‘निराला की साहित्य साधना’ (1969) में परिलक्षित होता है। हिन्दी ही नहीं समस्त भारतीय-समीक्षा के इतिहास में किसी कवि की यह सबसे विशद् और प्रमाणिक व्याख्या है। डा. शर्मा की दृष्टि में भारतीय-साहित्य की समग्र्र परंपरा रही है और इसी दृष्टि से ‘परम्परा का मूल्यांकन’, ‘आस्था और सौंदर्य’ की दृष्टि-व्यापकता सामने आती है। उल्लेखनीय है कि आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय-सांस्कृतिक नवजागरण की आन्तरिक शक्तियों का जितना गहन-गम्भीर ज्ञान रामविलास शर्मा को है, उतना इधर के किसी भी आलोचक में नहीं मिलता। उन्होंने "भारतेन्दु युग और हिन्दी-भाषा की विकास परम्परा", "महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण" (1977), "लोकजागरण और हिन्दी-साहित्य", "मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य", "नई कविता और अस्तित्ववाद" जैसी पुस्तकों से यह सिद्ध कर दिया है।
डा. शर्मा आलोचना में ‘मूल्यों’ की लड़ाई निर्भयता से लड़ते हैं और नागेन्द्र हों या हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय हों या मुक्तिबोध उनकी दुर्बलताओं को साफ-साफ कहने में हिचक महसूस नहीं करते हैं। मूलतः डा. शर्मा ने आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि को ही विकसित, परिष्कृत और व्याख्यायित करते हुए आगे बढ़ाया है। उनके चिंतन से जाहिर है कि आचार्य शुक्ल की आलोचना राह ही सही है और उसी को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। आचार्य शुक्ल को ’एकांगी समाजशास्त्री’, ‘शुद्ध ब्राह्मणवादी आलोचक’, ‘प्रतिगामी आलोचक’ आदि-आदि कहने वाले शुक्ल विरोधी आलोचकों को ललकारते हुए डा. शर्मा कहते हैं- फ्शुक्लजी ने न तो भारत के रूढि़वाद को स्वीकार किया, न पश्चिम के व्यक्तिवाद को। उन्होंने बाह्य जगत और मानव जीवन की वास्तविकता के आधार पर नये साहित्य-सिद्धांतों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध किया। देशभक्ति और जनतन्त्र की साहित्यिक परंपरा का समर्थन किया। उनका यह कार्य हर देश प्रेमी और जनवादी लेखक तथा पाठक के लिए दिलचस्प होना चाहिए।"
डा. रामविलास शर्मा ने प्राचीन समाज और साहित्य का मूल्यांकन करने की मार्क्सवादी पद्धति की व्याख्या करते हुए लिखा- "यह आवश्यक नहीं कि शोषक वर्ग ने जिन नैतिक अथवा कलात्मक मूल्यों का निर्माण किया है, वे सभी शोषण मुक्त वर्ग के लिए अनुपयोगी है। प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन में मार्क्सवाद से यह सहायता मिलती है कि हम उसकी विषय-वस्तु और कलात्मक सौन्दर्य को ऐतिहासिक दृष्टि से देखकर उनका उचित मूल्यांकन कर सकते हैं।" डा. शर्मा ने ‘विषय-वस्तु’ और ‘कलात्मक सौन्दर्य’ को ऐतिहासिक दृष्टि से देखकर भारतेन्दु युग, निराला और प्रेमचन्द का मूल्यांकन किया है। उन्होंने इन तीन साहित्यकारों की रचनाओं के मूल्यांकन के माध्यम से हिन्दी साहित्य को प्रगतिशील धारा का विकास स्पष्ट किया है। कहना न होगा कि शुक्लजी के बाद वे हिन्दी के सर्वाधिक प्रखर आलोचक थे।
Question : आलोचक रामचंद्र शुक्लः
(2004)
Answer : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने गंभीर अध्ययन, काव्य गुणों को पहचानने की अद्भुत क्षमता और विश्लेषण बुद्धि के द्वारा हिदी आलोचना को अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रदान किया। वे हिन्दी आलोचना के प्रशस्त-पथ पर, एक ऐसे आलोक-स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसके प्रकाश में हम आगे और पीछे दोनों ओर हम बहुत दूर तक देख सकते हैं। शुक्ल जी ने द्विवेदी-युग की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा को काफी विकसित और समृद्ध किया। आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि यद्यपि द्विवेदी-युग में विस्तृत समालोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया था, किंतु वह आलोचना भाषा के गुण-दोष विवेचन, रस, अलंकार आदि की समीचीनता आदि बहिरंग बातों तक ही सीमित थी। उसमें स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना, जिसमें किसी कवि की अन्तर्वृत्तियों का सूक्ष्म विवेचन होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएं दिखाई जाती हैं, बहुत ही कम दिखाई पड़ी। समालोचना की यह कमी आचार्य शुक्ल की व्यवहारिक आलोचना से दूर हुई। शुक्लजी ने गुण-दोष कथन से आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंतः वृत्ति की छानबीन की। इस प्रकार की समीक्षा का आदर्श शुक्लजी की सूर, तुलसी और जायसी संबंधी समीक्षाओं में देखा जा सकता है। इन समीक्षाओं में शुक्लजी के गंभीर अध्ययन, वस्तुनिष्ठ विवेचन, सार ग्राहिणी दृष्टि, संवेदनशील हृदय और प्रखर बौद्धिकता का सामंजस्य मिलता है। इसके अलावा प्राचीनता और नवीनता के समुचित समन्वय से प्राप्त प्रगतिशील विचारधारा, रसवादी, नीतिवादी, मर्यादावादी और लोकवादी दृष्टि का सम्यक् परिचय प्राप्त होता है। इन सबके चलते शुक्लजी ने हिन्दी आलोचना में अपना विशिष्ट व्यक्तित्व स्थापित किया और वे एक ऐसे आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित हुए, जिनमें सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक समीक्षा का उत्कृष्ट रूप दिखाई पड़ता है। हिन्दी में ही नहीं आधुनिक काल की समूची भारतीय आलोचना परंपरा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का विशिष्ट स्थान और महत्व है।
शुक्लजी की आलोचना-पद्धति, वैज्ञानिक-अध्ययन चिन्तन से पुष्ट और तर्कपूर्ण तो है पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे पूर्वाग्रह और अनुदारता से मुक्त है। शुक्लजी रसवादी, नीतिवादी और लोकमंगलवादी हैं तथा इन मान्यताओं के प्रति उनकी अडिग आस्था है। इन्हीं अडिग आस्था के कारण वे कवि के रूप में सूरदास की श्रेष्ठता को तो स्वीकार करते हैं, पर उन्हें तुलसी के समकक्ष नहीं रखते, क्योंकि सूरदास ने लोकपक्ष पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना तुलसीदास ने, और कबीर को तो उन्होंने विवेचना के योग्य भी नहीं समझा। उनकी लोकमंगलवादी दृष्टि रीतिकालीन कवियों को भी पर्याप्त महत्व नहीं देता और छायावादी कवियों का विरोध करता है। वे छायावाद का विरोध ‘लोकपक्ष’ के अत्यन्त दुर्बल होने के कारण ही किया। बाद में जब छायावादी कवियों ने जीवन की सहज-सामान्य बातों को अपनी कविताओं का विषय बनाना आरंभ किया तो, शुक्लजी ने उनकी प्रशंसा करने में पीछे न रहे। निराला की सामाजिक और ऐतिहासिक प्रसंगों से जुड़ी कविताओं तथा पंत की प्रकृति संबंधी कविताओं की उन्होंने प्रशंसा की है। स्पष्ट है कि शुक्ल जी लोकमंगल, लोक धर्म, लोक मर्यादा आदि को केन्द्र में रखकर ही वे साहित्य की श्रेष्ठता और उत्कृष्टता का निदर्शन करते हैं। अतः कुछ मान्यताओं से संबंधित पूर्वाग्रहों के होने पर भी शुक्लजी उच्चकोटि के समालोचक थे।
Question : आलोचक नागेंद्रः
(2002)
Answer : डा. नागेन्द्र ने हिन्दी आलोचना को व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों ही दृष्टियों से समृद्ध किया। वे एक रसवादी आलोचक हैं तथा रसवाद पर इनका आग्रह अन्य सभी आलोचकों से बढ़-चढ़कर है। आलोचक नागेन्द्र ने ‘रस सिद्धांत में रस की सांगोपांग विवेचना करते हुए इसे पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। आचार्य द्विवेदी की मानवतावादी समीक्षा में जहां साहित्येत्तर तत्वों की बहुलता है, वहां नागेन्द्रजी एकान्ततः साहित्यिक समीक्षा-सिद्धांतों के पक्षपाती हैं। इधर समीक्षा में वाजपेयी जी का मार्ग मध्यवर्ती है और वे साहित्यिक मूल्यों पर बल देते हुए भी यथास्थान साहित्येत्तर मूल्यों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार यदि वाजपेयी जी, द्विवेदी जी और डा. नागेन्द्र की आलोचना-मार्गों का वृत्त बनाया जाय तो वाजपेयी जी की स्थिति मध्यवर्ती ठहरती है और उनकी वृत्त-परिधि एक ओर द्विवेदी जी की वृत-परिधि को स्पर्श करती है, तो दूसरी ओर नागेंद्र की। डा. नागेन्द्र की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं
‘भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका,’ ‘काव्य में उदात्त तत्व,’ ‘अरस्तु का काव्यशास्त्र’ तथा रस सिद्धांत।
सर्वप्रथम छायावादी आलोचक के रूप में ही उन्हें ख्याति मिली। उनकी छायावादी काव्य का मूल्यांकन स्वच्छंदतावादी आलोचना को परिपुष्ट करता है। उन्होंने काव्य में आत्माभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण माना और छायावाद को ‘स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह’ माना है। उन्होंने स्थापित किया कि भक्ति आंदोलन के बाद हिंदी साहित्य में छायावाद एक बड़ा काव्यांदोलन था। पंत के काव्य का मूल्यांकन करके डा. नागेन्द्र ने जहां उनके काव्य को समझने की दृष्टि दी, वहीं उनकी कविता से ही अपनी आलोचना का मूल्य निकाले।
रसवाद पर अपनी दृष्टि केंद्रित करके भी नागेन्द्र जी आधुनिक साहित्य और समसामयिक आंदोजनों से बराबर संपृक्त रहे हैं। इसके कारण उनकी रसवादी दृष्टि में एक नया संतुलन आया है। नागेन्द्रजी परिष्कृत आनन्दानुभूति में नैतिक मूल्यों को समावेश कर व्यावहारिक और सैद्धांतिक समालोचना में एकसूत्रता लाने की कोशिश की है तथा इसमें वे सफल हुए हैं। पूर्व और पश्चिम के काव्यशास्त्रें का प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद करने-कराने में उनका सर्वाधिक योग है। उनकी प्रेरणा से आचार्य विश्वेश्वर ने ‘अभिनवभारती,’ ‘वक्रोक्तिजीवित,’ ‘ध्वन्यालोक,’ ‘नाट्यदर्पण,’ ‘काव्यप्रकाश’ आदि को हिन्दी में अनुदित किया। पाश्चात्य काव्यशास्त्र के कुछ क्लासिक ग्रंथों के अनुवाद भी उनके देख-रेख में हुए-‘अरस्तु का काव्यशास्त्र’ ‘काव्य में उदत्त तत्व’ और ‘काव्य कला’ आदि प्रमुख हैं। इन अनुवादों से एक ओर हिन्दी-समीक्षक को अनुदित मूल ग्रंथों के अध्ययन-विश्लेषण द्वारा अपनी स्वतंत्र मान्यताएं स्थिर करने का अवसर मिला है और दूसरी ओर स्वयं नागेन्द्रजी को अपने समीक्षा-सिद्धांतों को समन्वि एवं संतुलित बनाने के लिए वृहत आयाम मिल गया है।
अंत में हम कह सकते हैं कि डा. नागेन्द्र यद्यपि रसवादी आलोचक है, किन्तु उनकी आलोचना दृष्टि नए साहित्य के संपर्क से बराबर विकसित होती रही। रस-सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या के साथ-साथ डा. नागेन्द्र के काव्य भाषा, काव्य बिम्ब, शैली विज्ञान, आदि पर भी जो कार्य किया है, वह हिन्दी की सैद्धांतिक आलोचना का समृद्ध करने वाला है। उनकी व्यावहारिक समीक्षाएं भी काफी मूल्यवान हैं।
Question : प्रगतिवादी आलोचना का स्वरूप
(2001)
Answer : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी आलोचकों का जब एक वर्ग छायावाद की प्रतिष्ठा में संलग्न था, उसी समय पंत जैसे छायावादी कवि युगान्त की घोषणा करके नए युग का आह्नान करने लगे थे और आकाश में उड़ते हुए छायावाद के कल्पना-विहग को दाने के लिए धरती पर आने की आवश्यकता का अनुभव होने लगा था। इसी समय (1936 ई.) ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का प्रथम अधिवेशन हुआ, जिसमें प्रेमचन्द ने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य के नए उद्देश्यों और सौंदर्य की नई कसौटियों और दृष्टियों पर विस्तृत प्रकाश डाला। इसी के साथ हिन्दी में प्रगतिशील लेखन और मूल्यांकन का दौर शुरू हुआ।
प्रगतिशील आलोचना यथार्थ का आग्रह करती थी। वह भारतीय साहित्य में स्वस्थ परंपरा का विकास करना चाहती थी। किन्तु प्रारम्भिक प्रगतिशील आलोचक अपने साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते समय अतिसरलीकरण करते थे। वे संयम की आवश्यकता समझते थे किन्तु प्राचीन एवं समसामयिक साहित्य के अन्तर्विरोधों को देखने में चूक जाते थे। प्रेमचन्द ने साहित्यकार को स्वाभावतः प्रगतिशील कहकर प्रगतिशीलता ही नहीं साहित्य की भी अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता बताई थी। जो प्रगतिशील नहीं है, वह साहित्यकार नहीं है। इस दृष्टि से प्राचीन साहित्यकारों की रचनाओं का भी विश्लेषण किया जाना और प्रगतिशीलता को विवेचित किया जाना चाहिए। था। किन्तु हिन्दी के प्रारंभिक प्रगतिशील आलोचकों ने न तो प्राचीन साहित्य और न ही समसामयिक साहित्य को ही परखने में विवेक से काम लिया।
हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना अपने साहित्य की प्रगतिशील परंपरा का परिचय स्वीकार करके आगे बढ़ने की जगह एक तरह से सर्व निषेधात्मक और उपदेशात्मक मुद्रा के साथ चली। प्रगतिवादी आलोचकों और लेखकों ने (जिन्हें प्रगतिवादी का प्रतिनिधि समझा जाता था।) खुलकर हिन्दी और संस्कृत के प्राचीन साहित्यकारों की भर्त्सना की, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, रंगेयराघव इसी प्रकार के प्रगतिवादी आलोचक थे, जो विद्वान एवं लोकप्रिय साहित्यकार होते हुए भी अक्सर ऐसी बातें लिख जाते थे, जो गलत भी होती थी और प्रगति, विरोधी भी। किसी भी साहित्यकार में दोष दिखाए जा सकते हैं। लेकिन यदि तुलसीदास जैसे अत्यन्त लोकप्रिय कवि को प्रगतिवादी विद्वान आलोचक-लेखक इन शब्दों में स्मरण करें तो इसे प्रगतिवाद की सही व्याख्या नहीं समझा जा सकता-
"ब्रजभाषा तब भी इस बारे में कुछ समझ से काम लेती है, लेकिन तुलसी बाबा को तो हम अपनी अवधी में लुटिया ही डुबोने के लिए तैयार दीखते हैं। शायद बाबा को अपने ‘मानस’ पर विश्वनाथ की मुहर लगवानी थी।’’ - राहुल सांकृत्यान
तुलसीदास जैसे महान कवि के संबंध में इस प्रकार का विचार व्यक्त करना प्रगतिशील आलोचना का परिचायक नहीं हो सकता, यह तो अंधी उग्रवादिता या संकीर्णता है।
उपर्युक्त विवेचन का अर्थ यह नहीं है कि प्रगतिवादी आलोचकों की रचनाओं की कोई उपयोगिता नहीं है या इन्होंने समसामयिक साहित्य को प्रभावित नहीं किया। पंत और प्रेमचन्द जैसे लोकप्रिय साहित्कारों का सहयोग प्रगतिवादी आंदोलन को शुरू से ही मिला। हिन्दी के प्रगतिवादी आलोचकों ने विदेशी प्रगतिवादी चिन्तकों विशेषतः लेनिन, स्टालिन, लेखानोव, काडवेल इत्यादि की साहित्यिक मान्यताओं से हिन्दी जगत को परिचित कराया। इस प्रकार प्रगतिवादी आलोचना के स्वरूप को एकांगी कहा जा सकता है, लेकिन महत्वहीन नहीं।
Question : सैद्धांतिक आलोचना
(2000)
Answer : सैद्धांतिक आलोचना की विशेषता है काव्य-शास्त्र के अनुसार चलना। द्विवेदी युग में अनेक विद्वानों ने रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा का पालन करते हुए काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की रचना कर, सैद्धांतिक आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैसे सैद्धांतिक आलोचना की नींव भारतेन्दु ने ही डाल दी थी, लेकिन इसका स्पष्ट विकास द्विवेदी युग में ही हुआ। द्विवेदी युग में हिन्दी के सैद्धांतिक या शास्त्रीय समीक्षा का विकास दो रूपों में हुआ। कुछ आलोचकों ने रीतिकालीन लक्षण-ग्रंथों की परंपरा में विवेचनापूर्ण लक्षण-ग्रंथों की रचना की और कुछ ने संस्कृत एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का समन्वय करके नए सिद्धांत-ग्रंथों का निर्माण किया। इस युग में राजा मुरारीदान ने फ्जसवंत भूषण", महाराजा प्रतापनारायण सिंह ने फ्रसकुसुमाकर", जगन्नाथ भानू ने काव्यप्रभाकर लाला भगवानदीन ने "अलंकारमंजूषा", सीताराम शास्त्री ने फ्साहित्य सिद्धांत" अयोध्या सिंह उपाध्याय ने फ्रसकलश" आदि सैद्धांतिक ग्रंथों की रचना कर, शास्त्रीय आलोचना को परिपुष्ट किया। इन ग्रंथों में रीति कालीन लक्षण-ग्रंथों की परंपरा का तो निर्वाह हुआ ही है, अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषा- साहित्यों के संपर्क और युगीन प्रभावों के फलस्वरूप कतिपय नयी बातों का भी समावेश हुआ है।
सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। यों तो उन्होंने कविता क्या है, साहित्य आदि निबंध में बहुत पहले ही अपनी काव्यशास्त्रीय मेधा और स्वतंत्र चिंतन- शक्ति का परिचय दिया था, पर उनकी पहली सैद्धांतिक आलोचना कृति काव्य में रहस्यवाद, इसी युग में प्रकाशित हुई थी। शुक्ल जी ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का गंभीर अध्ययन किया था। उन्होंने हिन्दी में पहली बार रस-विवेचना को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया। यद्यपि इस दृष्टि से उनका सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘रस-मीमांसा’ विवेच्य अवधि के बाद प्रकाशित हुआ, पर उनकी इस काल में प्रकाशित आलोचना पुस्तकों में भी उनके व्यापक और गंभीर अध्ययन तथा गहरी मनोवैज्ञानिकता का परिचय मिलता है। ‘चिंतामणि’ में संकलित निबंध इस कथन के प्रमाण रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस सिद्धांत के विवेचन में शुक्ल जी ने मौलिकता का परिचय दिया है, भले ही आज उससे सहमत न हुआ जा सके। उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भाव, विभाव रस आदि की पुनर्व्याख्या की तथा विभिन्न भावों की व्याख्या में उनका पाण्डित्य, मौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग-पग पर दिखायी पड़ता है। क्रोचे के अभिव्यंजनावाद और कुंतक के वक्रोक्तिवाद का तुलनात्मक विवेचन कर अभिव्यंजनावाद को भारतीय वक्रोक्तिवाद का ‘बिलायती उत्थान’ मानना भी उनके अध्ययन की गहरायी का परिचायक है। हिन्दी की सैद्धांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से ऊपर उठकर गंभीर स्वरूप प्रदान करने का श्रेय शुक्ल जी को ही है।
आचार्य शुक्ल के बाद नवीन लक्षण ग्रंथों की रचना तो नहीं हुई, किंतु भारतीय एवं पाश्चात्य सिद्धांत ग्रंथों के अनुवाद और उनके आधार पर नए सिद्धांतों के स्थापना का कार्य अवश्य हुआ ‘काव्यादर्श’ (दंडी) काव्यालंकार सूत्र (वामन) ध्वन्यालोक (आनंदवर्धन) आदि के साथ-साथ अरस्तु के ‘पोप-टिक्स’,लॉजाइनस के ऑन द सब्लाइम और होटेस के ‘आर्स पोएटिका’ के अनुवादों ने हिन्दी की सैद्धांतिक समीक्षा को समृद्ध किया और हिन्दी आलोचकों को भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य दृष्टियों के समन्वय से नयी साहित्य -दृष्टि के निर्माण में सहयोग प्रदान किया। इस समन्वित दृष्टि से लिखे गए ग्रंथों में रामकुमार वर्मा का ‘साहित्यशास्त्र’ भागीरथ मिश्र का ‘काव्यशास्त्र’ नंददुलारे वाजपेय का ‘नया साहित्य’ नए प्रश्न आदि हैं। कतिपय ग्रंथों में पाश्चात्य काव्य सिद्धांत का स्वतंत्र रूप से भी विवेचन किया गया है, जैसे- ‘पाश्चात्य साहित्यालोचन के सिद्धांत’ (लीलाधर गुप्त), ‘रोमांटिक साहित्यशास्त्र’ (देवराज उपाध्याय) आदि। हालांकि काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का जैसा गंभीर, तात्विक, मर्मग्राही एवं संश्लिष्ट विवेचन आचार्य शुक्ल ने किया है, उसका अभाव बना रहा तथा इन ग्रंथों में मात्र सामग्री ही उपस्थित की गयी है, तत्व का विवेचन नहीं किया गया है।
Question : क्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रसवादी दृष्टि और लोकमंगल की अवधारणा में समन्वय करने में सफल हुए हैं? युक्ति युक्त उत्तर दीजिए।
(2000)
Answer : आचार्य शुक्ल हिन्दी आलोचना और साहित्य के आधार स्तंभ हैं। उन्होंने हिन्दी आलोचना को आधुनिक बनाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। शास्त्र और द्विवेदी युगीन कोरे रचनाकार से संदर्भ से हटकर उन्होंने रचना को अपने विवेचन का केंन्द्र बिन्दु बनाया, जिसके लिए इतिवृत्त-कथन से आगे संश्लिष्ट छायावादी विधान ने अपने को प्रस्तुत किया। रामचन्द्र शुक्ल संस्कृत के न पंडित थे और न उनके पास अंग्रेजी की डिग्री थी। अपनी मानसिकता बनाने में उन पर कोई दबाव न था, यों इन दोनों प्रतिष्ठित भाषाओं का ज्ञान उन्हें था कि उनसे काम भर की सामग्री बराबर ले सकते थे। अंग्रजी में तो वे तत्कालीन प्रसिद्ध पन्नों में लिखते भी थे, और उससे उन्होंने अनुवाद भी कई प्रकार के किए थे। अंग्रेजी के अलावा कुछ थोड़ा अनुवाद बंगला से किया था, पर संस्कृत- ज्ञान उनका शायद ऐसा व्यवस्थित न था कि वहां से कुछ अनुवाद करते।
आचार्य शुक्ल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन के इतिहास में कहीं साहित्येत्तर मानदंड स्वीकार नहीं किए। उनकी प्रिय रचना तुलसी कृत रामचरितमानस रही। अधिकतर उसी में से उन्होंने अपने काव्य-मूल्य विकसित किए, जिस रचना के बारे में स्वयं कवि ने कहा है, "एहि महैं रघुपति नाम उदारा।" विलक्षण बात यह है कि इसके बावजूद अध्यात्म को काव्य और कला के विवेचन में कहीं प्रासंगिक नहीं माना। अपने प्रसिद्ध आलोचनात्मक निबंध ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ में वे लिखते हैं, "अध्यात्म शब्द की मेरी समझ में काव्य और कला के क्षेत्र में कोई कहीं जरूरत नहीं है।" दूसरी ओर निरे उपयोगितावाद की कसौटी भी वे अस्वीकार कर देते हैं। अपने चिंतन के केंद्रीय निबंध ‘कविता क्या है’ में वे स्पष्ट कहते हैं। "सुंदर और कुरूप काव्य में दो ही पक्ष हैं।" भला-बुरा, शुभ-अशुभ पाप-पुण्य, मंगल-अमंगल, अनुपयोगी-उपयोगी। ये शब्द काव्य क्षेत्र के बाहर के हैं।" इस प्रकार अध्यात्म और उपयोगितावाद दोनों ओर के दबाव से रचना को मुक्त करके, उसे उन्होंने स्वायत्त रूप में प्रतिष्ठित किया। जैसा संकेत किया गया है, अपने विवेचन में न तो वे क्लैसिक चिंतन प्रणाली के अनुसार शास्त्र को प्रधानता देते हैं, न रोमांटिक भाव-धारा के अनुकूल रचनाकार को। वे आधुनिक साहित्य चिंतन के क्रम में रचना को केंद्र में रखते हैं। यहां भी वे अतिरिक्त सावधानी यह बरतते हैं कि महत्व रचना का रहे, न कि रचना के ‘पाठ’ का, जैसा कि इधर कई नए समीक्षक आग्रह करते दिखाई देते हैं। वे इस आत्यंतिक प्रणाली से परिचित थे, जिसके अंतर्गत कृति की सत्ता कवि और श्रोता (या पाठक) दोनों से स्वतंत्र ठहरायी जाने लगी। कृति की ऐसी स्वतंत्र सत्ता आचार्य शुक्ल को स्वीकार्य नहीं। वे रचना को स्वायत्त मानते हैं, स्वतंत्र नहीं। कवि समाज (श्रोता या पाठक) और कृति की अंतर-प्रक्रिया में वे कृति या रचना को आलोचना के केंद्र में रखना चाहते हैं। इस प्रकार आचार्य शुक्ल के काव्य विवेचन में रचना की स्वायत्त सत्ता है, न वह अध्यात्म से बाधित है और न उपयोगितावाद से। पर दूसरी ओर वह अपने रचनाकार और समाज से स्वतंत्र नहीं है।
आचार्य शुक्ल की दृष्टि रसवादी है पर उनका रसवाद संस्कृत के आचार्यों से भिन्न है। रस सिद्धांत के इतिहास में शायद पहली बार शुक्ल जी ने रस और रूप के संबंध को आजू-बाजू रखकर रस के विधान में कल्पना की भूमिका को समझा। उनका कहना है कि- "संसार- सागर की रूप-तरंगों से ही मनुष्य की कल्पना का निर्माण और इसी की रूप गति से इसके भीतर विविध भावों या मनोविकारों का विधान हुआ है। वस्तुतः शुक्ल जी का रोष कल्पना को जीवन से अलग तथा कल्पना- सृष्टि को जीवन निरपेक्ष मानने के प्रति था।"
आचार्य शुक्ल कोमल कांत कविता को शब्द चमत्कार एवं लोकोत्तर रस की दुनिया से निकालकर जीवन-जगत के यथार्थ के बीच ले आए। उनके अनुसार कविता का लक्ष्य है "शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह।…… कविता मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडलों से ऊपर उठाकर, लोक सामान्य की भावभूमि पर ले जाती है।" यही हृदय की मुक्तावस्था है, जहां पहुंचकर व्यक्ति न केवल ‘स्व’ से ऊपर उठता है, बल्कि तटस्थ एवं उदासीन रहने के ‘असामाजिक रोग’ से भी छुट्टी पाता है। शुक्ल जी ने रस की नितांत लौकिक व्यख्या करते हुए मुक्तावस्था के रूप में रसदशा को परिभाषित किया है। व्यक्तिगत स्वार्थ-संबंधों से ऊपर उठकर शेष संसार के सुख-दुख को अपना सुख-दुःख समझना ही मुक्त हृदय की अवस्था है। यही रसदशा भी है। इसी दिशा में लोकमंगल के भाव जगते हैं। उनके लोकमंगल का साध्य है- सर्वसाधारण का चतुर्मुखी कल्याण- सर्वांगिक कल्याण।
आचार्य शुक्ल की व्यावहारिक समीक्षा तुलसी, जायसी और सूर पर प्रकाशित उनकी पुस्तकों के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य का इतिहास में संकलित है। तुलसी सूर और जायसी जैसे श्रेष्ठ और अपनी पसंद के कवियों का आचार्य शुक्ल ने विस्तृत विवेचन किया है। इसमें तुलसी को सर्वश्रेष्ठ माना है तो इसलिए कि उन्होंने भक्ति की चरम सीमा पर पहुंचकर भी लोकपक्ष नहीं छोड़ा था। ‘सूर’ उनके चरम आदर्श नहीं हैं तो इसलिए कि लोक संघर्ष से उत्पन्न विविध व्यापारों की योजना सूर का उद्देश्य नहीं था। कविता में रस और लोकमंगल का आग्रह ही उन्हें रहस्यवाद के विरोध तक ले गया है। रीतिकाव्य इन्हें इसी कारण नहीं सुहाता। छायावाद से उनका विरोध भी उस अमूर्त अगोचर, अज्ञेय के कारण है, जो सामान्य व्यक्ति की भावना और समझ के परे है।
शुक्ल जी हिन्दी आलोचना की सुदृढ़ भूमि एवं सुसंगत सिद्धांत तैयार कर पाए थे तो इसका कारण था- भारतीय काव्यशास्त्र एवं पाश्चात्य आलोचना शास्त्र की सीमाओं से उनका परिचय। उन्होंने दोनों से जमीन ली है, पर लीक अपनी बनायी है। लोकमंगल उनके जीवन-दर्शन का आधार था। वे साहित्य को जनता की चितवृत्ति, आशा, अकांक्षा एवं संघर्ष से जोड़ते थे। शायद इसलिए वे अपने समय के महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन छायावाद से टकरा सके।
आचार्य शुक्ल अनुभूति और बोध को सहचर मानते हैं। वे भाव और ज्ञान में विरोध नहीं मानते। वे मानते हैं कि जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान का विकास होता गया है, वैसे-वैसे उसका भाव प्रसार भी होता गया है पशु का ज्ञान मनुष्य से है तो उसके प्रेम की पहुंच भी उसी मात्र में सीमित है।
उसके प्रेम, क्रोध, हर्ष, शोकादि का क्षेत्र अत्यंत सीमित है। पर मनुष्य में ज्ञान-प्रसार के साथ-साथ भाव-प्रसार भी क्रमशः बढ़ता गया है। अपने परिजनों, अपने संबंधियों, अपने पड़ोसियों, अपने देशवासियों, क्या मनुष्य-मात्र और प्राणि-मात्र तक से प्रेम करने भर की जगह उसके हृदय में बन गयी है।" जब हमें किसी वस्तु का बोध नहीं होता, तब-तक हमें उसकी रसानुभूति भी नहीं हो सकती। वे रसानुभूति में बोध वृत्ति की उपस्थिति मानते हैं। अत्यंत स्पष्ट शब्दों में उन्होंने लिखा हैः "सत के भीतर ज्ञान का विषय भी रहता है हृदय का भी। उसी सत् को कोई सिर्फ जानकर रह जाता है और कोई उसके समक्ष हृदय निकालकर रखने लगता है।" इस प्रकार शुक्ल जी में रसवादी, नीतिवादी, मर्यादावादी और लोकवादी दृष्टि का सम्यक् समन्वय मिलता है, जो उनके प्रगतिशील विचारधारा का परिचायक है।
Question : आलोचना के क्षेत्र में डा. रामविलास शर्मा के योगदान पर एक विवेचनात्मक निबन्ध लिखिए।
(1999)
Answer : मार्क्सवादी आलोचकों में डा. रामविलास शर्मा का केंद्रीय स्थान है। वे हिन्दी के आलोचना-कर्म में प्रगतिवादी विचारधारा के एक मुख्य प्रवक्ता के रूप में आते हैं। लेकिन उनके लेखन में वाद का आग्रह हल्का होता जाता है तथा विवेचन की प्रधानता होती जाती है। इस प्रकार उनका संस्कार कुछ ऐसा बन गया कि वे किसी लेखक के विचार की जितनी अच्छी व्याख्या कर सकते हैं, उतनी उसकी रचनात्मकता की नहीं। और इसी प्रवृत्ति का एक परिणाम यह हुआ कि ध्वंसात्मक आलोचना उन्हें उतनी ही प्रिय है, जितनी अपने मत की स्थापना। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र संबंधी अध्ययन के अंतिम अंश में शिवदान सिंह चौहान की और ‘निराला की साहित्य साधना’ के तीसरे खंड की भूमिका में जानकी बल्लभ शास्त्री की, जिस मुद्रा में रामविलास शर्मा ने आलोचना की है, वह पद्मसिंह शर्मा की संहार-शैली की याद दिलाती है, और तब लगता है कि हिन्दी के इन दोनों तेजस्वी आलोचकों के भीतर कहीं एक प्रचारक तत्व है, जो इन्हें जोड़ता है।
अपनी रुचि और तैयारी के अनुकूल शर्मा जी का श्रेष्ठतम अध्ययन महावीर प्रसाद द्विवेदी को लेकर है, और इस बात का श्रेय भी उन्हें जाता है कि भारतेन्दु के कृतित्व को वे अनेक विभ्रमों से खींच कर केन्द्र में लाए। कबीर की तरह ही भारतेन्दु भी बहुत समय तक लेखक कम समाजसुधारक अधिक माने जाते थे। उन्हें आधुनिक साहित्य चेतना के केन्द्र में स्थापित करना रामविलास शर्मा का काम है यह काम शर्मा जी ने वैसे ही किया, जैसे जायसी और कबीर के कवि रूप का संधान रामचन्द्र शुक्ल तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया। इसी संदर्भ में यह भी स्पष्ट है कि ‘निराला की साहित्य साधना’, जो लेखक का कई दृष्टियों से सबसे बड़ा काम है, अपनी जीवनी में जितना पुष्ट है, आलोचना में उतना ही हल्का और सबसे अच्छा खंड तो तीसरा है, जिसमें निराला के पत्रों का संग्रह है, जिसकी भूमिका के एकदम आरंभ में रामविलास शर्मा ने स्वयं लिखा है, ‘एक तरह से तीनों खंडों में यह सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें मेरा लेखन कम है, दूसरों का अधिक से अधिक।’
डा. शर्मा ने अपने समीक्षात्मक निबंधों में साहित्य, कला, सौंदर्य, समीक्षा आदि के संबंध में अपनी मान्यताएं प्रस्तुत की हैं और अपनी व्यावहारिक समीक्षाओं में उनके अनुकूल आचरण करते हुए कवियों एवं साहित्यकारों का मूल्यांकन किया है।
कला के संबंध में अपनी मान्यता प्रस्तुत करते हुए डा. शर्मा ने कहा है- ‘कला की विषयवस्तु न वेदान्तियों का ब्रह्म है, न हेगल का निरपेक्ष विचार’ मनुष्य का इन्द्रिय बोध, उसके भाव, उसके विचार, उसका सौंदर्य बोध कला की विषयवस्तु है। डा. शर्मा कला और साहित्य में भेद नहीं करते। इसलिए उनका उपर्युक्त कथन कला और साहित्य दोनों के संबंध में मान्य समझा जाना चाहिए। वे इन्हीं तत्वों का उल्लेख साहित्य के संदर्भ में भी करते हैं और उसकी परिवर्तनशीलता के संदर्भ में अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं- ‘साहित्य का सभी तत्व समान रूप से परिवर्तनशील नहीं है। युग बदलने पर, जहां विचारों में अधिक परिवर्तन होता है, वहां इन्द्रिय बोध और भाव-जगत् में अपेक्षाकृत स्थायित्व रहता है।’ डा. शर्मा शाश्वत सत्य जैसी कोई चीज नहीं मानते। वे साहित्य को ऐतिहासिक-सामाजिक परिस्थितियों की उपज मानते हैं। सत्य चाहे दर्शन का हो, चाहे जीवन का, वह समाज-सापेक्ष ही होता है। नैतिक मान्यताएं और मूल्य भी विकासमान मानव-सामाज के साथ बदलते रहते हैं। कोई भी साहित्यकार अपने युग की ऐतिहासिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता। इसलिए साहित्य में शाश्वत सत्य की प्रतिष्ठा की बात करना एक प्रकार का भ्रम उत्पन्न करना है। सौंदर्य के संबंध में डा. शर्मा के विचार आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचारों से मिलते-जुलते हैं। वे सौंदर्य को वस्तुगत सत्ता मानते हैं। उनका कहना है कि-‘इंद्रियों से जिस सौंदर्य की अनुभूति होती है, बाह्य जगत् में उसकी वस्तुगत सत्ता है। इंद्रिय सौंदर्य की परख का साधन है, उसका कारण नहीं।’ वस्तु का गुण ही उसके सौंदर्य का कारण है। वस्तु का यह गुण मानव मन की उपज नहीं है, अतः सौंन्दर्य की सत्ता मानव-मन की नहीं होती। समीक्षा के संबंध में भी डा. शर्मा की स्पष्ट मान्यताएं हैं। वे उस समीक्षा को महत्व देते हैं, जो वस्तुवादी चिंतन पर आधृत हो, जिसमें द्वंद्वात्मक पद्धति का सहारा लेकर विषय-वस्तु का विश्लेषण किया गया हो, जिसमें साहित्यकार की सीमाओं का ध्यान रखते हुए, उसकी रचना में निहित प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी तत्वों की पहचान की गई हो और जिसमें साहित्यकार की भाव-संपदा एवं विचार वैभव की सापेक्षता में उसकी कला और भाषा-संरचना का विवेचन उपलब्ध हो। डा. शर्मा, आचार्य शुक्ल की आलोचना पद्धति की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं- ‘शुक्ल जी की आलोचना गंभीर है, इसलिए कि उसका आधार वस्तुवादी है। शुक्ल जी की गंभीरता का दूसरा कारण उनकी तर्क और चिंतन-पद्धति है। इस पद्धति को हम द्वंद्व नाम दें, तो अनुचित न होगा। विरोधी लगने वाली वस्तुओं का सामंजस्य पहचानना, उन्हें गतिशील और विकासमान देखना, संसार के विभिन्न भौतिक और मानसिक व्यापारों का परस्पर संबंध स्थापित करके उनका अध्ययन करना, इस पद्धति की विशेषताएं हैं।’ प्रकट है कि डा. शर्मा के मन में आदर्श समीक्षा का जो रूप विद्यमान था, वह बहुत कुछ आचार्य शुक्ल की समीक्षा में मूर्त है।
डा. शर्मा ने उन्हीं साहित्यकारों और कवियों की विस्तृत समीक्षा की है। जिसकी रचना का मूल स्वर राष्ट्रीय और जनवादी है। वे भारतेंदु और उनके युग के साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य की, इसी कारण प्रशंसा करते हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी को डा. शर्मा ने इसलिए महत्व दिया है कि वे पुरानी व्यवस्था को बदलने की मांग के समर्थक थे। वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध लड़ने वाली जनता की प्रमुख शक्तियां-किसान और मजदूर को पहचानते थे। डा. शर्मा आचार्य शुक्ल को अपना "आदर्श समीक्षक" मानते हैं, तो इस कारण कि उन्होंने हिन्दी की सैद्धान्तिक आलोचना को एक ठोस दार्शनिक आधार दिया, रस की अलौकिकता का निषेध किया, जीवन और साहित्य के भावों में बुनियादी अन्तर स्वीकार नहीं किया, भावों को उनके आधार से अलग करके नहीं देखा, लोक-हृदय में लीन होने की दशा को एक ठोस दार्शनिक आधार दिया, उस की अलौकिकता को ही रस-दश माना, रीति-ग्रंथों और उनकी सीमा में बंधे समीक्षकों का विरोध किया। प्रेम की अपेक्षा ‘करुणा’ को अधिक महत्व दिया और लोक-रक्षा के विधान में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका को पहचाना।
प्रेमचन्द भी डा. शर्मा के प्रिय लेखक हैं। वे उन्हें इसलिए प्रिय हैं कि उन्होंने जनता को अपनी कला का शक्ति-स्रोत माना है। वे इस बात के प्रमाण हैं कि जनता से अलग रह कर महान् साहित्य की रचना नहीं की जा सकती। वे उन गिने-चुने लेखकों में हैं, जिनकी रचनाओं से बाहर के साहित्य प्रेमी हिन्दुस्तान को पहचानते हैं। डा. शर्मा की निराला संबंधी समीक्षा उनके समीक्षक-व्यक्तित्व के चरम उत्कर्ष की साक्षी हैं। तीन खंडों में ‘निराला की साहित्य साधना’ लिखकर डा. शर्मा ने निराला का विस्तृत मूल्यांकन तो किया ही है, एक प्रकार से अपना भी कीर्ति-स्तंभ तैयार किया है। निराला के बाद उन्होंने मुख्यतः तीन कवियों-मुक्तिबोध, शमशेर और नागार्जुन का मूल्यांकन किया है। वे मुक्तिबोध के काव्य में अन्तर्विरोधों को पहचानने में सफल हुए हैं। उनका मानना है कि मुक्तिबोध का काव्य उनके आत्म-संघर्ष का काव्य है। इस आत्म-संघर्ष की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि- "उनके आत्म-संघर्ष के अनेक स्तर हैं। एक स्तर है- निम्न वर्ग की भूमि को छोड़कर हुए सर्वहारा वर्ग से तादात्म्य स्थापित करने का। दूसरा स्तर है- मन के दुःस्वप्नों, पाप-बोध, मृत्यु-चिन्तन, असामान्य मानसिक स्थिति से निकलकर स्वयं को और संसार को वस्तुगत रूप से देखने का तथा तीसरा स्तर है, अपनी काव्यकला को निरन्तर विकसित करने का। शमशेर के संबंध में डा. शर्मा का विचार है कि उनका काव्य रीतिवादी रूमानी सौंदर्य बोध और मार्क्सवादी विवेक के द्वंद्व का काव्य है। नागार्जुन के संबंध में वे स्वीकार करते हैं कि उनकी चर्चा नहीं के बराबर हुई है, किन्तु उनका विश्वास है कि भविष्य में जब अस्तित्ववाद का सैलाव सूख जायेगा, तब किसानों और मजदूरों के बीच जन्म लेने वाले जनान्दोलन से संबंधित कवियों को लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौंदर्य के बीच संतुलन स्थापित करने की समस्या होगी तो, उन्हें नागार्जुन से ही मार्ग-दर्शन प्राप्त होगा।
डा. रामविलास शर्मा उन आलोचकों में से हैं, जो रचना को रचनाकार से काट कर देखने में विश्वास नहीं करते। यदि यह सत्य है कि रचनाकार अपने अनुभूत सत्य को साहित्य में चित्रित करता है, तो उसका साहित्य समझने के लिए जरूरी है कि हम उस जीवन-पृष्ठभूमि को भी देखें, जिसने साहित्यकार का भौतिक संसार रचा था। सच्चे साहित्यकार का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्शों के अनुकूल दिशा में चलता है। आजकल कुछ अतिरिक्त उत्साही आलोचक ‘रचना के साथ न्याय करने के लिए रचना को, रचनाकार से सर्वथा विच्छिन्न करके समझना चाहते हैं। इस संदर्भ में साहित्यकार का व्यक्तित्व प्रधान महत्व रखता है और इस संदर्भ में बिना रचना विवेचित नहीं हो सकती। डा. शर्मा मार्क्सवादी आलोचना के नाम पर न तो सिद्धान्तों का अध कचरापन कृतियों पर थोपते हैं, न उन्हें यांत्रिक ढंग से लागू करते हैं। वे मार्क्सवादी आलोचना का सच्चा उपयोग करते हैं तथा व्यक्तियों की कथनी से नहीं, करनी के आधार पर उनका मूल्यांकन करते हैं। मार्क्सवादी आलोचना का उचित उपयोग डा. शर्मा प्रेमचन्द को कबीर, तुलसी और भारतेन्दु की परंपरा से जोड़ा है। ऐसा करके उन्होंने न केवल प्रेमचन्द को स्थापित किया, बल्कि प्रगतिवादी आलोचना पद्धति को भी हमारी जातीय परंपरा से जोड़ा है। इस प्रकार डा. रामविलास शर्मा हिन्दी आलोचना में अपना चक्रवर्तित्व स्थापित करते हुए, नयी दिशा एवं दृष्टि से हिन्दी आलोचना को प्रगतिशील परम्पराओं की आन्तरिक समझ की ओर प्रवृत किया।
Question : प्रगतिवादी चेतना
(1999)
Answer : प्रगतिवाद का संबंध जीवन और जगत के प्रति नये दृष्टिकोण से है। इस भौतिक जगत् को संपूर्ण सत्य मानकर, उसमें रहने वाले मानव समुदाय के मंगल की कामना से प्रेरित होकर प्रगतिवादी साहित्य की रचना की गई है। जीवन के प्रति लौकिक दृष्टि इस साहित्य का आधार है और सामाजिक यर्थाथ से उत्पन्न होता है, लेकिन उसे बदलने और बेहतर बनाने की कामना के साथ। प्रगतिवादी कवि न तो इतिहास की उपेक्षा करता है, न वर्तमान का अनादर, न ही वह भविष्य के रंगीन सपने बुनता है। इतिहास को वैज्ञानिक दृष्टि से जांचते-परखते हुए, वह वर्तमान को समझने की कोशिश करता है और उसी के आधार पर भविष्य के लिए अपना मार्ग चुनता है। यही कारण है कि प्रगतिवादी काव्य में ऐतिहासिक चेतना अनिवार्यतः विद्यमान रहती है। प्रगतिवादी कवि की दृष्टि सामाजिक यथार्थ पर केन्द्रित रहती है, वह अपने परिवेश और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव से प्रेरित होता है तथा जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण सकारात्मक होता है। मानव को वह सर्वोपरि मानता है।
प्रगतिवादी कवि के पास सामाजिक यर्थाथ को देखने की विशेष दृष्टि होती है। एक वर्ग चेतना प्रधान दृष्टि। नागार्जुन यदि दुखरन झा जैसे प्राइमरी स्कूल के अल्पवेतन भोगी मास्टर का यथार्थ चित्र अंकित करते हैं, तो सामाजिक विषमता के यर्थाथ को ध्यान में रखते हुए, इस सरल यर्थाथ को कविता में व्यक्त करने के लिए, यर्थाथ रूपों की समझ जरूरी है। कवि का वास्तव बोध और वस्तुपरक निरीक्षण दोनों पर ध्यान जाना चाहिएः
"धुन खाये शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बांचे
फटी भीत है छत चूती है आले पर विलुवइया नीचे
बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पांच तमाचे
इसी तरह दुखरन मास्टर गढ़ता है आदम के सांचे"
प्रगतिशील चेतना के कवि की दृष्टि सामाजिक यथार्थ के अनेक रूपों की ओर जाती हैं। कवि सामाजिक विषमता को उजागर करता हुआ कभी अपना विक्षोभ व्यक्त करता है, तो कभी अपना सात्विक क्रोध। कभी वह अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध सिंह गर्जना करता है, तो कभी शोषण और दमन के दृश्य देखकर अपना दुःख व्यक्त करता है।
प्रगतिवादी चेतना के कवि को प्रकृति और परिवेश के प्रति कवि का लगाव भी ध्यान आकृष्ट करता है। बांदा की, बुंदेलखंड की प्रकृति केदारनाथ अग्रवाल की कविता में इतनी सहज रची-बसी है कि वह कविता का सबसे प्रेरक तथ्य जान पड़ती है। प्रगतिवादी कवि प्रकृति में जिस जीवन सक्रियता का आभास पाता है, उसके लिए एक प्रकार का स्थानिक लगाव जरूरी हैः
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर
उसे लेकर भागी मैं, हरे खेत पहुंची-
वहां गेहुओं में, लहर खूब मारी
पहर दो-पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं।
प्रगतिवादी कवि सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में हैं। सामाजिक परिवर्तन की उनकी कल्पना स्वच्छंद स्वेच्छाचारी या अराजक नहीं है। वे वांछित दिशा में ही परिवर्तन की कल्पना करते हैं या प्रयत्न करते हैं। कविता उनके लिए सक्षम माध्यम है। वे जानते हैं कि भविष्योन्मुखी दृष्टि के अभाव में परिवर्तन की कामना का कोई अर्थ नहीं:
अब अभिक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब
पहुंचाना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी हमको
नीली झील की लहरीली थाहें
जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता अरूण कमल एक
यहां अरूणकमल भविष्य की ही कल्पना है, भविष्य का ही प्रतीक है।
प्रगतिशील कवि जीवन की स्वीकृति के कवि हैं। जीवनधर्मी लगाव उनके, यहां रेखांकित करने की चीज है। "मुझे विश्वास है कि पृथ्वी रहेगी"- यह सकारात्मक दृष्टिकोण प्रगतिवाद की महत्वपूर्ण विशेषता है। एक अन्य विशेषता मानवतावादी दृष्टिकोण है, किंतु प्रगतिवादी कवि आंख मूंदकर मानव प्रेम में विश्वास नहीं करते हैं। शोषण, दमन और उत्पीड़न करने वालों के प्रति घृणा और गरीब, शोषित, मेहनतकश और पीडि़त मानवता के प्रति गहरा प्रेम उनके मानवतावाद का आधार है।