Question : “प्रेमचन्द्र की कहानियां व्यापक सामाजिक आधार पर विकसित हुई है” कथन की समीक्षा कीजिए।
(2007)
Answer : सिर्फ सतह पर दिखने वाली सच्चाई का ही नाम यथार्थ नहीं है। यथार्थ केवल चित्रण की भंगिमा को ही नहीं कहते, यथार्थ तो व्यक्ति और समाज, जीवन और संदर्भ के द्वंद्वात्मक संबंध का आकलन है। यह अनावश्यक और आवश्यक का प्रतिनिधिक चित्रण है। प्रेमचंद्र की कहानियां यथार्थवाद के क्रमिक विकास को रेखांकित करती हैं। उसमें हमारी तत्कालीन जीवन परंपरा की तमाम विशेषताएं समाहित हैं।
प्रेमचंद्र की कहानियों में कथावस्तु, विचार और संरचना का एक सचेत विकास दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद्र रचना को स्वायत्त नहीं मानते थे। इसलिए उनकी रचनाएं व्यापक यथार्थ का सीधा साक्षात्कार हैं। वे जो जीते थे, वही रचते थे। इसलिए जीवन और रचना कर अद्धैत ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। जीना, सोचना और रचना उनकी रचना प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। इसलिए प्रेमचंद्र जी की कहानियां अपनी कलात्मकता और यर्थाथ परकता के सम्वेत् रूप को लेकर हमारे सपने उपस्थित होती हैं।
प्रेमचंद्र जी ने इस संक्रमणकालीन उदासी को अपने उपन्यास ‘गोदान’ या ‘कफन’ कहानी में तो चित्रित किया ही है, यह मानसरोवर भाग-1 की कहानी ‘पूस की रात’ में भी अपनी मार्मिकता और कलात्मकता के साथ उपस्थित है। ‘पूस की रात’ का हलकू अपनी खेती के अलाभकता हो जाने की वजह से ही उसकी क्षति की भरपाई मजदूरी से करता है, लेकिन जब मजदूरी द्ववारा किए हुए तीन रुपये महाजन का कारिन्दा झपट लेता है, तो हलकू की त्रसदी शुरू होती है। हलकू का मोहभग कृषि व्यवस्था से उसका मोहभंग है।
हलकू परिश्रम और परिश्रम के प्रतिकाल में इस शोषक व्यवस्था के कारण जो दूरी पैदा हुई, उसी कारण अलगाव का शिकार हुआ। उसका मोहभंग पाठक को उसके गहरे विषाद से अवगत कराता है। साथ ही साथ एक ऐसी व्यवस्था का स्वप्नकल्पी भी बनाता है, जिसमें व्यक्ति अपने परिश्रम के अनुरूप उचित पारिश्रमिक पा सके। इस उदासी और विषाद के रंग के साथ-साथ यथार्थवाद का एक दूसरा पहलू भी है- साम्राज्यवादी विरोधी चेतना का विकास। प्रेमचंद्र की कहानियों में यह साम्राज्यवादी चेतना कई रंग-रूपों के साथ उपस्थित होती है। ‘मां’ शीर्षक कहानी में करूणा का त्याग पुत्र के प्रति मातृत्व में तब्दील कर देता है। ‘अनुभव’ शीर्षक कहानी में प्रेमचन्द्र ने दिखाया कि राष्ट्रभक्त केवल वे नहीं हैं, जो देश के लिए कुर्बानियां देते हैं, बल्कि वे भी हैं जो इन कुर्बानी देने वालों के प्रति सच्ची करूणा पालते हैं।
प्रेमचंद्र इसमें यह भी दिखाने से नहीं चुकते कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों में राष्ट्रीय चेतना के प्रति अधिक जागरूकता है। ‘तावान’ शीर्षक कहानी में उन्होंने यह दिखाया कि जिनके लिए गांधीवाद या राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्रीय पराधीनता से मुक्ति चेतना के साथ-साथ भारतीय जनता की रूढि़ के रूप में होती है, तो ऐसा राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्रीय पराधीनता से मुक्ति चेतना में नहीं होता।
पिकेंटिग, सत्याग्रह और घातक है। प्रेमचंद्र अपनी ऐसी कहानियों के जरिए सामाजिक चेतना का निर्माण करते हैं।
यूरोप में पूंजीवाद जब अपनी चरम अवस्था में सामंतवाद के ताबूत में अपनी अंतिम कीलें ठोक चुका था, उसी समय भारत में इस पूंजीवाद ने सामंतवाद के साथ अपना एक नापाक गठजोड़ कायम किया। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद ने मरे हुए सामंतवाद को जिंदाकर पूंजीवाद के साथ उसका एक ऐसा रिश्ता तैयार किया कि दोनों के मेल से भारतीय जनता में एक दीर्घकालिक शोषण चलाया जा सके।
यह स्वाभाविक था कि प्रेमचंद्र की कहानियों में इस कारण साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के साथ सामंतवाद विरोधी चेतना भी मिलती है। यह सामंतवाद विरोधी चेतना उनके यर्थाथवाद की तीसरी मुख्य विशेषता है।
‘ठाकुर का कुआं’ एवं ‘घासवाली’ जैसी कहानियां इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। ‘ठाकुर का कुआं’ में प्रेमचंद्र ने व्यवस्थावाद विरोध का झंडा गंगी के हाथ में थमाया है। यह अछूत हैं, मजदूर वर्ग की है, नारी भी है। प्रेमचंद्र जानते थे कि जब तक व्यवस्था के सबसे नीचले तल पर विद्रोह पैदा नहीं होगा तब तक व्यवस्था की पट उल्टी नहीं जा सकती।
महाजनों, सामंतों और पुरोहितों की जो व्यवस्था प्रकृति की देन ‘पानी’ पर भी अपनी इजारेदारी कायम करती हैं, जो पानी और प्यास के बीच दीवारें खड़ी कर दूरियां पैदा करती है, उसे जलाकर खाक किए बगैर मानवीय संबंधों का विकास नहीं हो सकता।
‘घासवाली’ कहानी की भूलिया चैन सिंह का चैन उड़ा देती है। उसकी सामंती अकड़ पर प्रहार करके उसने न केवल अपनी साहसिकता का परिचय दिया, बल्कि तथाकथित बड़ों की काम लोलुपता को भी बेपर्दा किया, जो चैन सिंह पहले महज एक सवर्ण था, उसकी बंद आंखें खुल जाती हैं, वह अब आदमी हो जाता है। प्रेमचन्द्र की कहानियां मानवोत्थान की कहानियां हैं। इसमें गूंगा, बैजुबान, दलित-बंधित अपने हकों के लिए लड़ते हुए दिखते हैं।
‘ठाकुर का कुआं’ और ‘घासवाली’ शोषितों और अछूतों की मुक्ति का स्वर उनके समस्त कथा साहित्य में गुंथा हुआ है। प्रेमचन्द्र ने नारी मुक्ति की समस्या को वैधव्य के संदर्भ में अंकित किया है। ‘स्वामिनी’ और ‘बेटो वाली विधवा’ में वैधव्य पीड़ा झेलती हुई स्त्रियां अपने-अपने ढंग से अपने संघर्ष को वाणी देती हैं।
प्रेमचन्द्र की कहानियों में यह समाजवादी यथार्थवाद अपने अधुरे रूप में अनके यथार्थवाद की पांचवीं उल्लेखनीय विशेषता है। इनकी कहानियों में यथार्थवाद की सारी अकूत परंपराएं मिलती हैं। इन परंपराओं को स्मरण कर ही प्रेमचन्द्र के यथार्थवादी दृष्टिकोण पर कोई राय कायम की जा सकती है।
यदि हम किसी बने-बनाए सांचे में प्रेमचन्द्र जी को फिट करना चाहेंगे, तो कभी सांचा छोटा पड़ेगा तो कभी प्रेमचन्द्र के सामाजिक यथार्थवाद का मूल्यांकन। इस प्रकार प्रेमचंद्र की रचनाओं के भीतर बैठने पर स्पष्ट होता है कि उनकी कहानियों का विकास व्यापक सामाजिक आधार पर हुआ है न कि छिछले कल्पनाओं के आधार पर।
Question : हिन्दी के आंचलिक उपन्यासकार
(2006)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी में आंचलिक उपन्यासों की रचना की विशेष प्रवृत्ति का उदय हुआ। इसके शुभारंभ का श्रेय फणीश्वरनाथ रेणु को है। बिहार के अंचल विशेष के जीवन यथार्थ, रहन-सहन, आचार-विचार को पर्याप्त निजता एवं रागात्मकता के साथ विचित्र करते हुए रेणु ने ‘मैला आंचल और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यासों की रचना की।
वह स्वातंत्र्योत्तर भारत में एक अंचल की आत्मपहचान से जुड़ी हुई सृजनात्मकता की एक सहज-स्वाभाविक आकांक्षा का प्रतिफल है। प्रेमचन्द्र के बाद भारतीय ग्रामीण जीवन बदले हुए सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में नवोन्मेष का प्रतिफल है।
प्रेमचन्द्र के बाद भारतीय ग्रामीण जीवन को बदले हुए सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में नवोन्मेष के साथ चित्रित करने की यह ललक जितनी स्वतंत्रता की क्रोड़ से पैदा हुई है। शहरी जीवन की कुण्ठा, घुटन, एकरसता और आत्माभिमुखता की ऊब से भी प्रकट हुई है। प्रेमचन्द्र के बाद हिन्दी उपन्यास में जो गांव गायब हो गया था, उसे रेणु ने नये सौंदर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया। उसके बाद कई लेखकों ने, जैसे- उदयशंकर, भट्ट (सागर, लहरें और मनुष्य (1956), कब तक पुकारूं), राही मासूम रजा (आधा गांव), शिवप्रसाद सिंह (अलग-अलग वैतरणी) विवेकी राम (बबूल, पुरूष पुराण, लोकऋण, सोना माटी, समर शेष हैं), शैलेश महियानी(कबूतर रगना, दो बूंद जल), शानी (काला जल) आदि आंचलिक उपन्यासों की रचना करके भारत के विभिन्न अंचलों के जीवन-यथार्थ, आशा-आकांक्षा, संघर्ष-टूटने, राजनीतिक-सामाजिक पिछड़ेपन- जागृति आदि का चित्रण किया है।
इन आंचलिक उपन्यासकारों द्वारा छोटे-छोटे अपरिचित अंचलों की यह खोज ही आंचलिकता का मूल कारक बन कर सामने आई। छोटे से अंचल को, जैसा कि मैला आंचल के संदर्भ में रेणु ने कहा, सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतीक मानकर यह छोटे से गोल शीशे मे पूरा ताजमहल दिखाने वाला आग्रह था। अपने उपन्यास की अन्तर्वस्तु की ओर संकेत करते हुए जब रेणु जी उसमें शूल और धूल तथा कीचड़ और चंदन एवं सुंदरता और कुरूपता एक साथ और एक जगह ही सब कुछ होने की बात करते हैं, तो वस्तुतः वे अंचल की संपूर्णता की ही बात कर रहे होते हैं। इस अंचल के संपूर्ण अन्तर्बाह्य व्यक्तित्व को वे संपूर्ण निष्ठा के साथ उद्घाटित करने की बात भी करते हैं। यह निष्ठा ही वस्तुतः अपने लिए चुने गए अंचल से लेखक को एक रागात्मक और आत्मीय सूत्र से जोड़ती है। यह रागात्मकता उत्कट रूप धारण करने पर उस अंचल के प्रति एक रोमानी भावावेश में भी बदलती दिखाई देती है और लेखक अपने उपन्यास में वर्णित अंचल को एक स्वतंत्र और संपूर्ण व्यक्तित्व बनाकर उपस्थित करता है।
Question : ‘वास्तव में हिन्दी उपन्यास का प्रारंभ प्रेमचन्द्र से होता है।’ इस कथन की समीक्षा कीजिए।
(2006)
Answer : हिन्दी उपन्यास का जन्म 1877 ई॰ से माना जाता है। इसी वर्ष श्रद्धाराम फुल्लौरी ने भाग्यवती नामक सामाजिक उपन्यास लिखा था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस उपन्यास की काफी प्रशंसा की है। यह भले ही अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास न हो, किन्तु विषय-वस्तु की नवीनता के आधार पर इसे हिन्दी का प्रथम आधुनिक उपन्यास कहा जाता है। इसमें तत्कालीन हिन्दू समाज की अनेक कुरीतियों का आलोचनात्मक एवं यथार्थवादी रीति से चित्रण हुआ है और स्त्रियों के लिए सदुपदेश दिए गए हैं। 1918 ई॰ में प्रेमचन्द्र का सेवासदन प्रकाशित हुआ। प्रेमचन्द्र के आगमन से हिन्दी-उपन्यास में नया युग प्रारम्भ होता है। यहीं से हिन्दी उपन्यास की दिशा और गति में ऐसा परिवर्तन आता है कि हम कह सकते है कि वास्तविक अर्थों में उपन्यास युग का आरम्भ हुआ। उपन्यास-साहित्य की सृष्टि जिस उद्देश्य को लेकर हुई थी।
उस उद्देश्य की पूर्ति प्रेमचन्द्र से पूर्व के उपन्यासों द्वारा नहीं हुई। उससे भी प्रेमचन्द्र के पहले के उपन्यासों द्वारा नहीं हुई। पश्चिम में उपन्यासों का जो विकास हो गया था, उससे भी प्रेमचन्द्र के पहले के उपन्यासकार लाभान्वित नहीं हो सके थे। प्रेमचन्द्र ने पहली बार उपन्यास के मौलिक क्षेत्र, स्वरूप और उद्देश्य को पहचाना।
प्रेमचन्द्र ने पहली बार इस सत्य को पहचाना कि उपन्यास सोद्देश्य होने चाहिए अर्थात्, उपन्यास या कोई भी साहित्यिक विधा मनोरंजन के लिए नहीं होती, वरन् वह मानव-जीवन को शक्ति और सुन्दरता प्रदान करनेवाली सोद्देश्य रचना होती है। सोद्देश्यता हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में पहले-पहल प्रेमचन्द्र में ही व्यक्त हुई और यही प्रेमचन्द्र के उपन्यासों की सफलता का रहस्य है, यह कहना गलत है। सोद्देश्यता (अर्थात नैतिकता की स्थापना या उपदेश का नियोजन) तो भारतेन्दुकालीन और द्विवेदीकालीन साहित्य की खास चीज थी।
परीक्षा गुरू, सौ अजान एक सुजान, नूतन ब्रह्मचारी और तत्कालीन सामाजिक और ऐतिहासिक उपन्यासों को शक्ति नहीं दे सकी बल्कि उन्हें कला के स्तर से गिराने में सहायक ही हुई। मेरा मानना है कि यथार्थ की पकड़ ही प्रेमचन्द्र की मुख्य विशेषता है, जो उनके उपन्यासों को पूर्व के उपन्यासों से अलग कर उपन्यास-साहित्य की स्थाई निधि बनाने में समर्थ हुईं। यथार्थ सतह पर फैली हुई गंदगी नहीं है।
यह तो मानव-जीवन के बुनियादी प्रश्न, उसके अनेकानेक बाहरी-भीतरी स्वरूपों को बनानेवाली, बदलनेवाली परिस्थितियां, समस्याएं, आपसी सम्बन्ध और मानव मन के भीतर के अनेक गहन रहस्मय सत्य हैं।
कहने का मतलब है कि यथार्थ एक व्यापक और संश्लिष्ट वस्तु है, जिसमें मानव-सामज के सामूहिक और व्यक्तिगत, बाहरी और भीतरी, परिस्थितिगत और मानसिक, अन्धकार समय और प्रकाशमय सभी प्रकार के सत्य एक-दूसरे से मिले-जुले होते हैं। जिनकी दृष्टि सतही और एकांगी होती है, वे यथार्थ को धरातल पर लक्षित होनेवाली घटनाओं और व्यापारों का पर्याय मान लेते हैं।
प्रेमचन्द्र हिन्दी में रचना करने के पूर्व उर्दू में कई उपन्यासों की रचना कर चुके थे, जिसमें प्रेमा अर्थात् दो सखियों का विवाह 1907 में हिन्दी में प्रकाशित हो चुका था। उनके अन्य आरंभिक उपन्यास असरारे मआबिद उर्फ देवस्थान रहस्य, किसना, रूठी रानी आदि थे। इसमें भी प्रेमचन्द्र ने उपन्यास को मनोरंजन से ऊपर उठाकर जीवन के सीधे सम्पर्क में लाने का प्रयास किया था।
उन्होंने आर्यसमाज से प्रेरणा अवश्य ग्रहण की थी, पर उनकी अपनी विशिष्ट जीवन - दृष्टि भी निर्मित हो चुकी थी, जो इन उपन्यासों में अभिव्यक्ति पाना चाह रही थी।
किन्तु हिन्दी में उपन्यास की कोई परंपरा न होने के कारण प्रेमचन्द को उसका समुचित ढांचा (फार्म) नहीं मिल रहा था। संभवतः अपने लिए सही भाषा की तालाश भी वे नहीं कर पाये थे। परिणामतः इस काल के उनके सभी उपन्यास एक प्रतिभाशाली लेखक के ‘बचकाने प्रयास’ जैसा लगता है। सेवासदन उनकी पहली प्रौढ़ कृति है, जहां से उनके नये औपन्यासिक जीवन का ही नहीं, हिन्दी उपन्यास के एक नये युग का भी प्रादुर्भाव होता है।
प्रेमचन्द्र के उपन्यास में उनके चारों ओर फैले हुए जीवन और अनेक सामाजिक समस्याओं-पराधीनता जमींदारों, पूंजीपतियों और सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसानों का शोषण, निर्धनता, अशिक्षा, अन्धविश्वास, दहेज की कुप्रथा, नारी की स्थिति, वेश्याओं की जिन्दगी, वृद्ध विवाह, विधवा-समस्या, साम्प्रदायिक वैमनस्य, अस्पृश्यता, मध्यम वर्ग की कुण्ठाएं आदि ने अभिव्यक्ति पाई है। तथा इन्हीं समस्याओं ने प्रेमचन्द को उपन्यास लेखन के लिए प्रेरित किया था।
प्रेमचन्द ने एक-एक कर बड़ी बेसब्री से इन समस्याओं और जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने उपन्यास में स्थान दिया। प्रेमचन्द्र ने समस्याओं को उसके सही रूप में देखा है, यथार्थ के जटिल स्वरूप को पूरी सच्चाई के साथ पहचाना और चित्रित किया है। प्रेमचन्द्र मूलतः उस भारतीय संस्कारों के समर्थक थे, जो सेवा, त्याग, परोपकार, सन्तोष, सत्याचरण आदि विशेषताओं का पूंजीभूत रूप है। प्रेमचन्द्र देख रहे थे कि भारतीय समाज अपनी ये विशेषताएं खो चुका है जो कुछ बचा है वह इनका विकृत रूप है। नए काल में इनका विघटन हो रहा है।
शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी प्रेमचन्द्र ने हिन्दी - उपन्यास को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। यों सुघटित और चारों ओर से दुरूस्त कथानक गढ़ने का कौशल देवीकानन्दन खत्री भी दिखा चुके थे, पर चित्रणीय विषय के अनुरूप शिल्प के अन्वेषण का प्रयोग हिन्दी उपन्यास में पहली बार प्रेमचन्द्र ने ही किया।
उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए दृश्य अत्यंत सजीव, गतिमान और नाटकीय हैं। उनके उपन्यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्दों के चुनाव तथा वाक्य योजना की दृष्टि से उसे-सरल और बोलचाल की भाषा कहा जा सकता है, पर भाषा की सरलता को निर्जीवता, एकरसता और अकाव्यात्मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए। प्रेमचन्द्र के उपन्यासों में विशेषतः गोदान में, भाषा का वैविध्य जितने स्तरों पर दिखायी पड़ता है, वह हिन्दी के उपन्यास-साहित्य में अब तक दुर्लभ है। इतनी सरल भाषा को एक-साथ इतने स्तरों पर काम में लाना प्रेमचन्द- जैसे उपन्यासकार द्वारा ही सम्भव था। भाषा के सटीक, सार्थक और व्यंजनापूर्ण प्रयोग में वे अपने समकालीन ही नहीं, बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़ जाते हैं। वस्तुतः प्रेमचन्द्र ने ही हिन्दी- उपन्यास को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम प्रदान किया। हालांकि उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द्र की रचनात्मक सक्रियता केवल दो दशकों तक सीमित हैं।
सेवासदन से गोदान तक की उनकी रचना-यात्र सन् 1918 से 1936 के बीच संपन्न हुई। भारतेंदु युग के लेखकों से उन्हें उपन्यास की जो परम्परा प्राप्त हुई, उसे प्रेमचन्द्र में पहचान पाना कठिन है। इन अठारह वर्षों में उपन्यास असाधारण रूप और गति से प्रौढ़ होता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने उपन्यास को मनोरंजन की सीमा से मुक्त किया। उन्होंने उपन्यास की पठनीयता को क्षति पहुंचाए बिना उपन्यास को जीवन ओर समाज के व्यापक सत्य से जोड़ा।
मानव चरित्र की संभावनाओं को उपन्यास से जोड़कर एक ओर यदि उन्होंने उपन्यास को इकहरे और स्थूल पात्रें से बचाकर उनमें हाड़-मांस के सजीव मानव की प्रतिष्ठा की, वहीं मनोवैज्ञानिक उपन्यास के लिए भी जीवन तैयार की।
प्रेमचन्द्र मध्यर्ग से उपन्यास के रिश्ते को समझते थे, इसलिए इसमें भारतीय मध्यवर्ग के लिए उन्होंने उसी के जीवन के वास्तविक चित्र दिए। लेकिन इस मध्यवर्गीय अन्तर्वस्तु के महत्व को समझकर भी, वे इसी से बंधे नहीं।
एक खेतिहर देना के रूप में भारत की पहचान को स्वीकृति देते हुए उन्होंने उपन्यास को बुनियादी वर्गों किसान और मजदूर से जोड़ा। प्रेमचन्द्र के समय तक मजदूर आंदोलन में अधिक तेजी नहीं आ पायी थी। भारतेंदुयुगीन लेखकों की अन्तर्वस्तु के संदर्भ में प्रेमचन्द्र के उपन्यासों पर विचार करने पर उनके क्रांतिकारी महत्व को और भी सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। प्रेमचन्द्र ने सनातन हिन्दू आदर्शों के गरिमापूर्ण बखान का रास्ता छोड़कर उनकी जड़ता और अन्तविरोधों को उद्घाटन किया और उनकी संवेदनहीनता पर गहरी चोट की।
उन्होंने राजभक्ति और देशभक्ति के द्वन्द्व से भी अपने को मुक्त किया और स्वाधीनता, आंदोलन की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश राज की अनविरोधी साम्राज्यवादी भूमिका को विस्तारपूर्वक अंकित किया।
इस साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के विकास में उन्होंने साम्प्रदायिक सहयोग और सद्भाव के महत्व को कदाचित पहली बार इतनी गंभीरतापूर्वक समझा और हिन्दु मुसलमान के साझां कार्यभार की अनिवार्यता को रेखांकित किया। इसी तरह उपन्यास की भाषा और समूचे रचनातंत्र के संदर्भ में प्रेमचन्द्र की सक्रियता का यह काल अभूतपूर्व उपलब्धियों और विकास का काल है|
प्रेमचन्द्र ने उपलब्ध उपन्यास के स्वरूप को ही नहीं बदला, उपन्यास की अवधारणा में भी इस परिवर्तन को देखा जा सकता है। प्रेमचन्द्र से ही वस्तुतः उपन्यास को वह स्वीकार्यता प्राप्त हुई कि उसे लुकछिप कर पढ़े जाने के बजाय किशोर और युवा मानसिकता के संस्कार निर्माण की दिशा में एक सहायक और अनिवार्य घटक माना जाने लगा। निष्कर्ष रूप में प्रेमचन्द्र काल को हिन्दी उपन्यास का स्थापना काल कह सकते हैं, जिसमें प्रेमचन्द्र ने इस स्थापना में मुख्य भूमिका अदा की तथा इस काल के अन्य रचनाकारों ने उनका अनुसरण करते हुए अपने-अपने ढंग से समृद्धि प्रदान किया।
Question : हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारः
(2004)
Answer : मनोविज्ञान का चित्रण प्रेमचंद के उपन्यासों से ही आरंभ हो गया था, किंतु आलोचकों ने प्रेमचंद के मनोविज्ञान को उतना महत्व नहीं दिया है, जितना उनके सामाजिक यथार्थ को। प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों की एक ऐसी पंक्ति तैयार हुई, जिसने हिन्दी को अनेक श्रेष्ठ उपन्यास की रचना कर समृद्ध किया है। जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय इस परंपरा के अग्रणी रचनाकार हैं। फ्रायड, एडलर और युग की मनोविश्लेषण-संबंधी मान्यताओं का इन लेखकों पर गहरा प्रभाव है। मनुष्य के अंतर्जगत् की सूक्ष्म एवं गहन पड़ताल करके उसके अन्तः सत्य को उद्घाटित करना, इन लेखकों का उद्देश्य है। ये उपन्यासकार वास्तव में पात्रों का मनोवैज्ञानिक शोध करते हैं, मनुष्य वास्तव में कैसा है, इसका पता लगाना ही इन उपन्यासकारों का कार्य है। फ्रायड के कुंठावाद के आधार पर ये लेखक मनुष्य की दमित वासनाओं, कुंठाओं, काम-प्रवृतियों अहं, दंभ और हीन भावना आदि ग्रथिंयों का चित्रण करके हिन्दी उपन्यास में व्यक्ति का ऐसा रूप प्रस्तुत किया, जिसमें वह अपनी आंतरिक छवि देख सकता है। इन उपन्यासकारों ने ब्रह्म सत्य की अपेक्षा अंतः सत्य को ही प्रमाणिक और विश्वसनीय माना है।
मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में चरित्र-निर्माण से संबंधित सारी प्रमुख धारणाएं बदल गयीं। एक सुसंबद्ध व्यक्तित्व के अभाव में मनुष्य की भली व बुरी, सद् या असद्, कार्य- श्रृंखला से विश्वास ही हट गया। मनुष्य क्षणों में जीता है। एक क्षण में वह बहुत भला और एक क्षण में बहुत बुरा। एक क्षण ऊंचाई को चूमता हुआ, एक क्षण में पाताल को स्पर्श करता हुआ लक्षित हो सकता है। उसकी आंतरिक जीवन-सत्ता को उसकी समस्त विविधता और जटिलता में व्यक्त करना ही उपन्यासकार का फर्ज बन गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जीवनी-प्रधान उपन्यासों का चलन शुरू हुआ जीवनी-प्रधान उपन्यास मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की मात्र एक प्रकार है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि समस्त मनोवैज्ञानिक उपन्यास जीवनी-प्रधान उपन्यासों की तरह नहीं है। अन्य उपन्यासों में पात्रों घटनाओं आदि का नियोजन सामान्य उपन्यासों की तरह ही होता है। जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी के उपन्यास तथा अज्ञेय की ‘नदी का द्वीप’ उपन्यास मनोवैज्ञानिक होते हुए भी वस्तु-संघटन में प्रेमचंद आदि के उपन्यासों की तरह ही हैं।
जैनेन्द्र के परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी_ इलाचंद्र जोशी के संन्यासी, पर्दे की रानी, प्रेत और छाया और अज्ञेय के शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप जैेसे उपन्यासों से यह कथा-परंपरा समृद्ध हुई है। जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास में सामाजिक मर्यादाओं के बीच अपनी पहचान बनाने वाले पात्रों की सृष्टि की है, जो सामाजिक दबावों एवं व्यक्तिगत आग्रहों के कारण द्वंद्वग्रस्त होकर आत्म-यातना का शिकार हो गए हैं। अज्ञेय अपने उपन्यासों में अपनी विद्रोही-भावना, वरण की स्वतंत्रता आदि को व्यक्त करते हैं। इलाचन्द्र जोशी के उपन्यासों पर मनोविश्लेषणवाद का इतना प्रभाव है कि उनके उपन्यास फ्रायड की मान्यताओं के साहित्यिक संस्करण प्रतीत होते हैं। इन मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में स्वातंत्र्योत्तर काल के लेखक देवराज का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने-पथ की खोज, रोड़े-पत्थर, अजय की डायरी और मैं, वे और आप जैसे उपन्यासों की रचना की है। मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों ने कथ्य और शिल्प में प्रयोगशीलता को प्रश्रय दिया, इस कारण इन्हें प्रयोगवादी उपन्यासकार भी कहा जाता है।
Question : ‘अज्ञेय की कविताओं का केन्द्रीय भाव मानव व्यक्तित्व की समस्या है।’ सतर्क उत्तर दीजिए।
(2004)
Answer : ‘भग्नदूत’ और ‘चिन्ता’ की छायावादी कविताओं से अपनी काव्य-यात्र आरम्भ करने वाले अज्ञेय प्रयोगवाद और नयी कविता के विशिष्ट कवि हैं। इस धारा के कवियों में उनका स्वर सबसे अधिक वैविध्यपूर्ण है। उनका स्वर अहं से लेकर समाज तक, प्रेम से लेकर दर्शन तक, आदिम गन्ध से लेकर विज्ञान की चेतना तक, यत्र-सभ्यता ले लेकर मानव सौंदर्य तक फैला हुआ। लेकिन अज्ञेय ने अपने कविताओं के केन्द्र में व्यक्ति को ही रखा है। अज्ञेय व्यक्ति को कितना महत्व देते हैं, उन्हीं के शब्दों में- ‘मैं ऐसा मानता हूं कि अब तक जितने प्राणी हमारी जानकारी में आए हैं, उनमें मानव श्रेष्ठ प्राणी है।’ इसके बाद उनका मानना है कि- ‘मानव समाज का आधार व्यक्ति इकाई है।’ व्यक्ति और समाज के परस्पर सबंधों को लेकर अज्ञेय के सम्पूर्ण चिन्तन का यह निचोड़ है। व्यक्ति सत्ता की महत्ता को उन्होंने अपनी कविताओं में इतने पुरजोर ढंग से प्रतिपादित किया है कि कभी-कभी उन पर व्यक्तिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि अज्ञेय का सम्पूर्ण चिन्तन व्यक्ति केन्द्रित है, किन्तु जिस व्यक्ति की वे बात करते हैं, वह एक मूल्य सृष्टा स्वाधीन मानव है।
प्रगतिवाद में आदमी भीड़ में कहीं खो गया था तथा आदमी की अपनी कोई अहमियत नहीं रह गयी थी। इसके विपरीत अज्ञेय (अन्य प्रयोगवादी कवि भी) उस भीड़ से खीचकर आदमी को स्थापित करना चाहते हैं। उनका मानना है कि आखिर समाज बनता कैसे है? हमारे, आपके और उनके मिलने से ही न। जाहिर है कि, बेहतर समाज का निर्माण तभी किया जा सकता है जब हम, आप और वे बेहतर हों। इसलिए व्यक्ति की अहमियत को जब तक नहीं समझा जाएगा, तब तक अच्छे समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। यह बात और है कि व्यक्ति का सच ही अंततः सामाजिक सत्य में विसर्जित हो जाता है और अगर ऐसा नहीं होता है तो उसकी अपनी कोई पहचान नहीं बन पाती। अपने व्यक्तित्व को खोकर सामाजिकता को पाना अज्ञेय का लक्ष्य नहीं है। आलोचकों ने अज्ञेय की व्यक्तिकता पर यह आरोप लगाया है कि- उनकी व्यक्तिकता नदी के उस द्वीप की तरह है, जो अंहकारी है, एकनिष्ठ है, आत्मनिष्ठ है एवं अपने ही खोज में रहने वाली कोई वस्तु है। लेकिन अज्ञेय इस भ्रम को दूर करते हुए एवं आलोचकों की दृष्टि को साफ करते हुए कहते हैंः
‘यह दीप अकेला
स्नेह भरा है, गर्व भरा मदमाता
इसे भी पंक्ति को दे दो
यह वह विश्वास नहीं
जो अपनी लघुता में भी कांपा।’
अज्ञेय की यह व्यक्तिकता ‘स्व’ की तलाश है, जिसकी परिणति अन्ततः सामाजिकता में होने वाली है। अज्ञेय ‘स्व’ को सामाजिकता में विसर्जित करने की बात करते हैं, किन्तु ‘स्व’ को पहचानकर भीतर का ‘स्व’ और बाह्य का विस्तार कहीं न कहीं जुड़ ही जाता है। अज्ञेय कहते हैं:
‘मुझको और मुझको और मुझको
मुझको ऐ सागर, कहीं जोड़ दो’
अज्ञेय प्रयोगवादी कवि हैं और प्रयोगवादी कविता ह्नासोन्मुख कविता, ह्नासोन्मुख मध्यर्गीय समाज के जीवन का चित्र है। अज्ञेय ने जिस नये सत्य के शोध और प्रेषण के नये माध्यम की खोज की है, वह सत्य इसी मध्यवर्गीय समाज के व्यक्ति का सत्य है। अतः वे उसी यथार्थ की अभिव्यक्ति देते हैं। जिसे आदमी या मानव भोगता है, अनुभव करता है। अज्ञेय व्यापक जन-जीवन के अंकन के फेरे में नहीं पड़ते हैं, वे खुद अपने जिए हुए जीवन के ही विभिन्न दर्दों को अंकित करना पसन्द करते हैं।
प्रयोगवाद में अज्ञेय जैसे मध्यवर्गीय कवियों ने व्यक्ति मन के सत्यों को उद्घाटित करने में ही नये सत्यों की प्रतीति और उनका संप्रेषण समझा। मध्यवर्ग आज ह्नासोन्मुख है। वह अपने चारों ओर के कठोर परिवेश के दबाव से टूट रहा है। उसकी अकांक्षाएं विराट् हैं, सपने रंगीन हैं, संवेदनाएं कोमल हैं। वह अपने चारों ओर खड़ी कठोर सामाजिक बंधनों और आर्थिक वैषम्य की अभेद्य दीवारों से टकराकर अपने में लौट आता है और स्वयं को समाज से कटा हुआ, खण्डित और कुण्ठित समझने लगता है। पीड़ा के अनेक स्तरों से उलझी हुई संवेदनाओं को मन का गहरा यथार्थ मान बैठता है। यह मध्यवर्गीय व्यक्ति या कवि जन-जीवन के सामूहिक जागरण से असंपृक्त रहने के कारण अपनी सीमाओं को तोड़ने का कोई प्रयास न करके ‘स्व’ की गुफा में पीड़ा के मणि खोजता रहता है। इस प्रकार वह जनजीवन के प्रवाह से कटकर उसी के बीच में नदी के द्वीप की तरह अपनी इकाई में अवस्थित रहता है। अज्ञेय और प्रायः सभी प्रयोगवादी कवियों में यह स्थिति देखी जा सकती हैं। यह पीड़ा-बोध अज्ञेय में इतना गहरा और सजग है कि वे इसे दार्शनिक स्तर पर एक चिरन्तन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं:
दुःख सबको मांजता है
और, चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने किन्तु, जिनको मांजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें।
अज्ञेय यथार्थवादी हैं। वे मध्यवर्गीय व्यक्तिजीवन की समस्त जड़ता, कुण्ठा, अनास्था, पराजय और मानसिक संघर्ष के सत्य को बड़ी बौद्धिकता के साथ उद्घाटित करते हैं। यों तो मध्यवर्गीय व्यक्ति जीवन की पीड़ा के अनेक स्तर उनके कविताओं में उभरे हैं:
चेहरे थे असंख्य। आंखें थीं।
दर्द सभी में था। जीवन का दंश सभी ने जाना था।
अज्ञेय आधुनिक चिंतन में मनुष्य सारे मूल्यों का स्रोत और उपादान है और वह स्वयं ही उनके विघटन का भी कारण है। सहस्राब्दों में निर्मित और विकसित मानवीय मूल्य अब विघटित होते जा रहे हैं, यह हमारी वर्तमान सभ्यता की चिंता का केन्द्रीय विषय है। यों तो संक्रमण और मूल्यहीनता की स्थिति मानवीय इतिहास में अनेक बार आयी है, परन्तु अब तक के संक्रमण अपनी प्रकृति में संशोधन और सुधारपरक अधिक थे। इधर प्रायः द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद से तो मूल्य संबंधी मौलिक आधार ही जैसे उखड़ गए हैं।
मूल्य-विघटन की इस स्थिति को लाने में विज्ञान और प्रविधि का सबसे अधिक हाथ है। इसने सारे मानवीय संबंधों और प्रतिमानों को अस्थिर कर दिया है। परिवार, धर्म, प्रेम और सामाजिक आचरण की अन्य मर्यादाएं अनिश्चित हैं। यह इसलिए भी है कि जहां मनुष्य-मनुष्य से टकरा रहा है, वहां अनेक राष्ट्र और जातियां, उनकी जीवन पद्धतियां और संस्कृतियां परस्पर टकरा रही है। इन प्रभावों, संघातों को उनकी बढ़ती हुई संख्या में आत्मसात् करना, समरस बनाना एक सीमा के बाद संभव नहीं लगता। फलतः संसार के विभिन्न क्षेत्रों के बीच परस्पर के सम्पर्क से जितनी समता विकसित होती है, उससे कहीं अधिक संघर्ष बढ़ता है। ऐसी स्थिति में अनुभूति का क्षरण मानव जीवन में अर्थ की विकास प्रक्रिया को बाधित करता है। इसका अन्ततः परिणाम है अनर्थक, मूल्हीन, अर्थहीन जीवन की स्थिति।
आधुनिक साहित्य में मानवीय व्यक्तित्व और उनकी सर्जनात्मकता की सबसे गहरी और सार्थक चिंतन अज्ञेय के कृतित्व में मिलता है। उपर जो समकालीन जीवन की समस्याओं की ओर जो संकेत किया गया है, उनसे उबरने के लिए मनुष्य के सर्जनात्मक व्यक्तित्व को सुरक्षित रखते हुए विकसित करना ही आधुनिक जीवन का सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा जब यह सर्जनात्मक व्यक्तित्व स्वाधीन होगा तभी वह दायित्व का अनुभव कर सकेगा। अज्ञेय की कविताओं में इस मानव व्यक्तित्व की स्वाधीनता, सर्जनात्मकता और दायित्व का सूक्ष्म और प्रभावी रूप से अंकन हुआ है। उनके काव्य में ये मौलिक चिंतन सर्वत्र परिव्याप्त है। यंत्र में आवृत्ति और प्रसार की क्षमता तो है, पर सर्जन की शक्ति नहीं है। सर्जन व्यक्तित्व की विशिष्ट्य में ही संभव हैः
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया, सब तुम्हें दिया।
कवि आगे कहता हैः
एक क्षण औरः
लंबे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते। बूंद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से बज्र जिससे फोड़ता चट्टान को।
इस तरह अनुभव की अद्वितीयता, व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य और सर्जनात्मक क्षमता-मानवीय अस्तित्व और उसकी सार्थकता के यही मूल उपादान हैं। कुल मिलाकर अज्ञेय की कविताएं ह्नासोन्मुख मध्यवर्गीय जीवन का यथार्थ है।
Question : स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी की गति और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
(2003)
Answer : आजादी के बाद (1947 ई.) भारत में जो कहानीकारों की नई पीढ़ी आई उसने हिन्दी कहानी के वस्तु, शिल्प और संचेतना में काफी परिवर्तन उपस्थित किया। इस समय हिन्दी कहानी का त्वरित एवं बहुयामी विकास हुआ। हिन्दी कहानी कई छोटे-बड़े कहानी-आंदोलनों से गुजरती हुई, स्वयं को नये-रूप-रंग में ढालती हुई एक नये मुकाम पर पहुंची। समय-समय पर उठने वाले कहानी आंदोलनों ने एक ओर तो हिन्दी कहानी को नई समृद्धि, दृष्टि और कलात्मक ऊंचाई दी तो दूसरी ओर संकीर्णताओं, अविचारित आग्रहों और स्वार्थों के कारण उसें क्षति भी पहुंचाई है।
देश की आजादी के साथ विभाजन की त्रसदी भी जुड़ी हुई है। इस विभाजन से उत्पन्न संहार, ध्वंस और सामूहिक हत्याओं ने जो मानवीय मूल्य का विघटन किया, उसे यशपाल चनद्रगुप्त विद्यालंकार, उपेन्द्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर, मोहन राकेश तथा भीष्म साहनी ने चित्रित किया है। इन्हीं दिनों अज्ञेय ने शरणार्थी नामक संग्रह प्रकाशित किया।
1950 के बाद कहानियों में व्यक्तिवादी स्वर प्रमुख होने लगा। मार्क्स और फ्रायड के प्रभावों से आगे बढ़कर अस्तित्ववादी दर्शन ने जीवन के बुनियादी सवालों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। स्वतंत्रता के बाद मिलने वाले सुख की कल्पना शीघ्र ही विच्छिन्न हो गई। व्यक्ति एक तरह से कटाव और अलगाव महसूस करने लगा। मानवीय मूल्य तो समाप्त होने लगे पर जीवन के प्रति आस्था थी। अज्ञेय ने व्यक्ति के आत्मसंघर्ष तथा व्यक्ति और परिवेश के संघर्ष का चित्रण किया है। उनकी रोज, पहाड़ का धीरज आदि कहानियां इसी नए यथार्थ पर आधारित है। निर्मल वर्मा, रामकुमार, उषा प्रियंवदा की कहानियां, इस अस्तित्ववादी चिन्तन को नया मोड़ दिया।
1955 ई. के आस-पास नई कहानी आंदोलन का जन्म हुआ। इस आंदोलन ने स्वातंत्र्योत्तर स्थितियों के दबाव से पैदा होने वाली मानसिकता की जटिलता को अपनी संवेदना में समेट लिया। इसीलिए नई कहानी की वस्तु संवेदना के अनेक पक्ष है। उन सभी को सामूहिक तौर पर नई कहानी की वस्तुगत विशेषताओं में गिना जाता है। आंचलिकता, नए पारिवारिक संबंध, भ्रष्टाचार, व्यंग्य-विडंबना आदि नई कहानी की संवेदना का निर्माण करते हैं।
नयी कहानी के साथ जुड़ा ‘नयी’ शब्द पहले की कहानी से मात्र अलगाव दिखाने के लिए नहीं प्रयुक्त हुए हैं, बल्कि उसके पीछे कहानी की नयी संवेदना, नयी दृष्टि और नए स्पबंध को रेखांकित करने की भावना भी थी। 1950 के बाद देश विकास की ओर अग्रसर हुई। सड़क, पुल और परिवहन सुविधाओं का विकास हुआ औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण की गति तीव्र हुई। स्त्री-पुरुष को शिक्षा और नौकरी के लिए समान अवसर उपलब्ध हुए। इन परिवर्तनों के कारण सामाजिक जीवन में काफी उथल-पुथल हुई। पुराने रिश्ते-नाते टूटे, परिवार का परंपरागत ढांचा जो प्रेमचन्द के समय ही चरमरा रहा था, बुरी तरह बिखर गया। स्त्री-पुरुष संबंधों में परिवर्तन आया। सामाज के विभिन्न वर्गो में नयी चेतना विकसित हुई। नयी कहानी ने इन्हीं परिवर्तनों को, विघटित होते हुए संबंधों एवं मूल्यों को बड़ी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाया। महानगरीय, कस्बाई एवं ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण, ऐतिहासिक मोहभंग, मध्यवर्गीय जीवन का मार्मिक अंकन, पारिवारिक संबंधों में विखराव, नवीन भाषा-शिल्प आदि ‘नई कहानी’ की उल्लेखनीय विशेषता है। भीम साहनी, मोहन राकेश, कमलेश्वर, ऊषा प्रियवंदा ने अपनी कहानियों में नगरीय जीवन-बोध को चित्रित किया है। रेणु ने ‘तीसरी कसम’ जैसी कहानियों के माध्यम से अंचल विशेष की आशा-अकांक्षा को नये भाषा-शिल्प में प्रस्तुत करके, आंचलिक कथा-लेखन का मार्ग प्रशस्त किया। ‘नयी कहानी’ में सूक्ष्म कथा-तन्तुओं को प्रधानता मिली। सांकेतिकता प्रतीकात्मकता, और बिम्बात्मकता का प्राधान्य हुआ।
1960 तक आते-आते ‘नयी कहानी’ जो संकल्प लेकर चली थी, वह पुराना पड़ गया तथा यह कहानी अपनी रूढि़यों में पड़कर निस्तेज हो गई। इसका कारण था कि स्वतंत्रता प्राप्ति को लेकर जो सपने थे वे अब चकनाचूर हो गए। देश तथा समाज अपनी असफलताओं और असमर्थताओं का शिकार हो गया। राजनीति के क्षेत्र में उठा-पटक, दलबन्दी नये दलों का निर्माण, दलों का टूटना-बिखरना तथा राजनीतिक आदर्शों का छिन्न-भिन्न होना। ये सब जो राजनीतिक परिदृश्य सामने आया, वह साहित्य जगत को भी प्रभावित किया। अब साहित्यकार भी नये-नये शिविर बनाने लगे या तोड़फोड़ करके नया साहित्यिक दल गठित करने लगे। इस सबके चलते सातवें दशक में हिन्दी कहानी में दो-तीन वर्षों के अन्तराल पर या कभी-कभी सामानान्तर छोटे-मोटे कहानी आंदोलन शुरू हुए। इन कहानी आंदोलनों में सचेतन कहानी, अकाहानी, सहज कहानी, समान्तर कहानी सक्रिय कहानी, जनवादी कहानी आंदोलन प्रमुख है। जनवादी कहानी, 1982 में दिल्ली में जनवादी लेखक संघ की स्थापना के बाद उदय हुआ। इस कहानी का आधार मार्क्सवाद है तथा यह सामान्य जन के संघर्ष की पक्षघर हैं। इसे प्रेमचन्द की जन पक्षधर कथा-परंपरा का विकास है। मध्यवर्ग और सर्वहारा के बीच निकटता अनुभव करना प्रेमचन्द की ऐतिहासिक समझ का परिणाम था। जनवादी कहानी का सर्वाधिक बल सर्वहारा वर्ग तथा मध्यवर्ग द्वारा किये जा रहे शोषण विरोधी संघर्ष पर हैं। इस कहानी के पात्र अपने अधिकारों के प्रति पूर्ण सजग है। इस प्रकार जनवादी कहानी की मूल प्रवृत्ति श्रमजीवी के प्रति सहानुभूति पूंजीवादी ताकतों को बेनकाब करना, उनके मंसूबों को विफल करना, शोषण-तंत्र को लुंज-पुंज करना और मेहनतकश जनता को एकजुट करके निर्णायक संघर्ष की ओर ले जाना है। चूंकि जनवादी कहानी जनसमस्याओं से जुड़ी, इस कारण यह जनता की सीधी-सादी भाषा और सहज शिल्प को अधिक महत्व देती है। इस कहानी को रचनात्मक गति देने वाले रचनाकारों में रमेश उपाध्याय (कल्पवृक्ष, देवी सिंह कौन) रमेश बत्तरा (कत्ल की रात, जिन्द होने के खिलाफ) नमिता सिंह, मदन मोहन आदि हैं।
कहानी में 1950 ई. के बाद जो अनेक आंदोलन चले वह दीर्घजीवी नहीं हुआ। इनका प्रयोगधर्मी मुहावरा जल्दी ही अपनी चमक और खनक खो बैठा। इनमें से अधिकांश आंदोलन कुछ यशोलिप्सु लेखकों की आत्म विज्ञप्ति और आत्मस्थापन की संकीर्ण मानसिकता से उपजे थे और उनकी तुष्टि के बाद वे समाप्त हो गये। समकालीन लेखक आंदोलन के इन खतरों और सीमाओं को समझ कर स्वतंत्र रीति से साहित्य-साधना को प्रश्रय दे रहे हैं। हालांकि कुछ लोगों ने समकालीन कहानी आंदोलन की संकीर्णताओं में नहीं फंसे है। वास्तव में समकालीन हिन्दी कहानी आज की परिस्थितियों का साक्षात्कार करती है और बिना किसी पूर्वाग्रह के समय के सच को पूरी ईमानदारी के साथ चित्रित करती हैं।
समकालीन हिन्दी कहानी में कई पीढि़यों और कई कहानी आंदोलनों से जुड़े कहानीकार शामिल हैं। इसके अलावा नए कहानीकार भी हैं- संजय (कामरेड का कोट, भगदत्त का हाथी) उदय प्रकाश (दरियाई घोड़ा, तिरिछ और अन्त में प्रार्थना) मदन मोहन (दलदल, फिर भी सूखा) आदि। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृणाल पाण्डेय, चित्र मुद्गल, प्रभा खेतान जैसी लेखिकाएं भी अपनी-अपनी रचनाओं के मध्यम से समकालीन कहानी को गति दे रही हैं।
शिल्प की दृष्टि से 1960-65 के बाद कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस दौर में उभरने वाले विद्रोह और आक्रोश ने कहानी को एक सपाटबयानी दी। कहानी का रूपबंध बदल गया। उसमें तत्वों की कोई प्रधानता नहीं रही। वह बिम्बों और प्रतीकों से भी मुक्त हो गई। अब निबंध, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण, डायरी आदि विधाएं भी कहानी में सम्मिलित हो गईं। परिणामस्वरूप कहानियों में जीवन यथार्थ को निसंग रूप से अभिव्यक्त करने की क्षमता आई।Question : महिला कथा-साहित्यकार कृष्णा सोबती।
(2001)
Answer : महिला कथाकार कृष्णा सोबती अकेली कहानीकार हैं जिन्होंने इतनी कम कहानियां लिखकर अपनी विशेष पहचान बनाई हैं। इन्होंने आधुनिक नारी की मनःस्थिति, पारिवारिक जीवन में पति-पत्नी के संबंध आदि विषयों को लेकर अनुभव के सीमित दायरे के अन्तर्गत कहानी रचना की है। इनकी प्रतिनिधि कहानियों का संग्रह ‘बादलों के घेरे’ सन् 1980 में प्रकाशित हुआ। लेकिन इसकी अनेक कहानियां नई कहानी आंदोलन में चर्चित हो चुकी थीं। इसके पूर्व उनकी अन्य चर्चित और विवादास्पद मानी जाने वाली कहानियां- ‘मित्रे मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’ आदि तब प्रकाशित हुई, जब नई कहानी का आंदोलन लगभग उतर चुका था। इसके बाद उनकी सिर्फ दो कहानियां और छपी हैं- ‘ए लड़की’ और ‘नामपट्टिका’। अपने कम लिखने के कारणों पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं- ‘मुझमे एक गहरा ठंडापन है। कभी-कभार लिखने बैठ ही जाती हूं, तो वह मेरे निकट समूची प्रक्रिया का एक अंग बन जाता है। कुछ भी लिखना मेरे निकट एक गंभीर और जोखिम भरी स्थिति बन जाती है। इसलिए मैं अपने लेखक को कभी पटाती नहीं, दांव पर नहीं लगाती। अपने से हटकर मैं उसे दूसरा व्यक्ति समझती हूं और उसकी इज्जत करती हूं...। नई कहानी के बेहद आत्मपरकता वाले दौरे में लेखक और भोक्ता के बीच की यह दूरी किसी हद तक आश्चर्यजनक लगती है। हालांकि कृष्णा सोबती के अपने अनुभव और आग्रह उनकी कहानियों में हैं, लेकिन उनके आधार पर उनके जीवन-प्रसंगों में प्रवेश की वैसी घूट नहीं मिलती, जिस तरह से उस दौर के अन्य बहुत से लेखकों के साथ मिलती है अर्थात् उनकी कहानियां उनके अनुभवों को तो संजोये हुए अवश्य है पर वह आत्मवृत्तांत के रूप में नहीं परिणत हुई है।
‘बादलों के घेरे’ में चौबीस कहानियां हैं, जिसमें ‘नफीसा’ एकदम आरंभिक दौर की है। इसमें संग्रहित कहानियों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इसमें पहले वर्ग में- ‘बादलों के घेरे’, ‘कुछ नहीं-कोई नहीं’, ‘दोहरी सांझ’, ‘पहाड़ों के साये तले’ आदि को रखा जा सकता है। ये सभी कहानियां प्रेम और स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित हैं। इन कहानियों में कृष्णा सोबती की उन कहानियों का आरंभिक सूत्र देखा जा सकता है, जो आगे चलकर ‘मित्रे मरजानी’ और ‘तीन पहाड़’ जैसी कहानियों में पूर्णता पाती हैं। अपने दूसरे वर्ग की कहानियों में लेखिका ने स्त्री की नियति को उसके परिवेशगत द्वंद्वात्मक संबंधों के संदर्भ में आंकने की कोशिश की है। इन कहानियों में लेखिका ने निषेध और नकारात्मकवादी दृष्टि को खारिज की हैं तथा स्त्री की यातना को उसके पूरे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अंकित किया है। इस वर्ग की प्रमुख कहानियों में- ‘बदली बरस गई’, ‘गुलाब जल गंडेरियां’ और ‘आजादी शम्मोजान की’ आदि प्रमुख हैं। अपने तीसरे वर्ग की कहानियों में अविभाजित पंजाब और देश-विभाजन की त्रसदी, यातनाओं और विडंबनाओं को चित्रित किया है। ‘सिक्का बदल गया’, ‘डरो मत’, ‘मेरी मां कहां...’ आदि कहानियां इसी वर्ग की हैं। मानवीय सद्भाव के क्षरण वाले उस भयावह दौर में भी, भावुक हुए बिना, लेखिका ने उस मानवीय तत्व को रेखांकित किया है, जो मनुष्य में बचे हुए विश्वास को जिंदा रखे हुए था। इस प्रकार कृष्ण सोबती ने इन्हीं तीन वर्ग की कहानियां लिखकर अपनी अलग पहचान बनाई।
Question : उतर शती की हिन्दी कहानी पर एक समीक्षात्मक अनुशीलन प्रस्तुत कीजिए।
(1999)
Answer : सामान्यतः सभी इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि ‘सरस्वती’ पत्रिका (सन् 1900) के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी कहानी का भी उदय हुआ। आरंभ में ‘सरस्वती’ में जो कहानियां प्रकाशित हुई, उनमें किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ जैसी वर्णनात्मक, केशवप्रसाद सिंह की ‘आपत्तियों का पहाड़’ जैसी स्वप्न-कल्पनाओं से भरपूर रोमांचक, कार्तिक प्रसाद खत्री की ‘दामोदर राव की आत्म-कहानी’ जैसी आत्मकथात्मक और पार्वतीनंदन की ‘प्रेम की फुआर’ जैसी घटना-प्रधान कहानियां उल्लेखनीय है। शिल्पविधि की दृष्टि से हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय (1903)’ को माना जाता है। इसे आचार्य शुक्ल ने लिखा था। इस प्रकार यदि हम कहानी की जीवनावधि को अधिक लंबी सिद्ध करने की थोथी माथापच्ची न करें, तो यह स्वीकार करने में कोई विशेष हानि नहीं है कि हिन्दी कहानी की विकास-यात्र सरस्वती पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही शुरू हुई और वह उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर चलती गई। इस पत्रिका के माध्यम से ही किशोरीलाल गोस्वामी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बंग महिला, ‘वृन्दावन लाल वर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, प्रेमचन्द प्रभृति महत्वपूर्ण कहानीकार प्रकाश में आये।
प्रारंभिक हिन्दी कहानी के कथानक स्थूल, विवरणात्मक और घटनाओं के कुतूहलपूर्ण चमत्कार पर ही आधारित है। यह विशेषता ’प्रेमसागर’, ‘नासिकेतोपाख्यान’ और ‘रानी केतकी की कहानी’ में ही नहीं, किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इन्दुमति’, रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ में भी मौजूद है।
प्रेमचन्द के आगमन से हिन्दी कहानी को एक नई दिशा एवं दृष्टि मिली। यद्यपि वे सन् 1907 से ही उर्दू में कहानियां लिखने लगे थे, किन्तु सन् 1916 में, जब उनकी ‘पंच परमेश्वर’ कहानी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई, तब से वे हिन्दी-कथा-क्षेत्र के महत्वूर्ण लेखक के रूप में न केवल जाने-पहचाने गये, बल्कि उनसे हिन्दी कहानी को एक नई दिशा मिली। उन्होंने हिन्दी के प्राचीन कथा-शिल्प को तोड़कर, युगानुरूप उसे नया रूप-रंग प्रदान किया। अब तक कहानी में कुतूहल, रोमांचकता और मनोरंजकता की प्रधानता थी, अब हिन्दी कहानी मनुष्य के यथार्थ से जुड़ गई। प्रेमचन्द ने पहली बार कहानी को मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, जीवन के यथार्थ चित्रण और स्वभाविक वर्णन से जोड़ने और कल्पना की मात्र कम करने का आग्रह किया। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर मानवीय संवेदना और हिन्दी कथा-संसार से देवता, राजा और ईश्वर को अपदस्थ करके दीन, दलित, शोषित प्रताडि़त मनुष्य को नायक के पद पर प्रतिष्ठित किया। यह उनका युगान्तकारी कार्य था, इसलिए उनके समय को हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचन्द युग के नाम से जाना जाता है। इसे हम हिन्दी कथा-साहित्य का वास्तविक विकास युग भी कह सकते हैं। इसी युग में कहानी को स्वतंत्र व्यक्तित्व मिला और अनेक ऐसी कहानियों का सृजन हुआ, जो अन्य भाषाओं की कहानियों की तुलना में खड़ी होने की सामर्थ्य भी रखती है।
प्रेमचन्द एक सजग कहानीकार थे। उन्होंने अपने युग को अपने संस्कारों में ढालकर प्रस्तुत किया। मध्युग भारतीय स्वतंत्रता-संघर्ष का स्वर्ण काल था, जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में था। गांधी जी के विचारों का प्रभाव उस समय के लेखकों पर पड़ा। आरंभ में प्रेमचन्द ने गांधी के प्रभावस्वरूप आदर्शवादी और सुधारवादी कहानियां लिखी, जिसमें देशभक्ति के साथ-साथ आदर्श, नैतिकता, मर्यादा, कर्त्तव्य परायणता आदि का स्वर काफी ऊंचा है। ‘सौत’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘विचित्र होली’, ‘आहूति’, ‘नमक का दारोगा’, ‘बड़े घर की बेटी’ आदि अनेक कहानियां प्रेमचन्द की उपर्युक्त कथन-प्रवृति को समझने में सहायक है।
प्रेमचन्द का कहानी-लेखन सन् 1916 से सन् 1936 तक के बीच संपन्न हुआ। यह ऐसा लेखन है जिसमें युग के समानान्तर चलने और युग की गति को समझने और बदलने की तीव्र आकांक्षा दिखाई पड़ती है। उन्होंने लगभग 300 कहानियां लिखीं। ये कहानियां अपने रूप-रंग में प्रेमचन्द कथा-शिल्प में विकास को संजोए हुए हैं। इनमें हम आसानी से देख सकते हैं, कि जो प्रेमचन्द आरंभ में देश के सुधारवादी आंदोलनों के प्रभाव में हल्के-फुल्के आदर्शवाद और सुधारवाद को ध्यान में रखकर सरल और हृदय परिवर्तनवादी कहानियां लिख रहे थे, उन्होंने ही आगे चलकर जटिल और क्रूर यथार्थ वाली कहानियां लिखी। उनकी ‘सवा सेर गेहूं’, ‘मुक्तिमार्ग’, ‘पूस की रात’, ‘सद्गति’, ‘कफन’ जैसी अनेक कहानियां उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी कहानी के विकास में प्रेमचद की तरह ही जयशंकर प्रसाद का योगदान उल्लेखनीय है। चूंकि प्रसाद जी कवि पहले हैं, कहानीकार बाद में। इस कारण उनकी कहानियों में भावुकता, कल्पनाप्रवणता, और काव्यात्मकता की प्रधानता है। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति और इतिहास के उन स्वर्णिम अध्यायों को फिर से प्रकाशित किया, जिसमें देशप्रेम, आत्मगौरव, आदर्श, प्रेम और कर्त्तव्य की मार्मिक झांकी अंकित है। अतीत के गौरवगान के द्वारा प्रसाद जी ने प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष को काफी बल प्रदान किया। इस दृष्टि से उनकी ‘देवरथ’, ‘सालवती’, ‘पुरस्कार’, ‘सिकन्दर की शपथ’, ‘चित्तौड़ का उद्धार’ जैसी कहानियां उल्लेखनीय हैं। प्रसाद जी की ऐतिहासिक इतिवृत्त पर लिखी गई, ऐसी अनेक कहानियां हैं, जो प्रेमभावना के विभिन्न रूपों को उद्घाटित करती हैं, जैसे- तानसेन, गुलाम, जहांआरा आदि। प्रसाद जी मूल्तः प्रेम और सौन्दर्य के रचनाकार हैं। यह उनकी विशिष्टता भी है और एक हद तक सीमा भी। उनकी यह विशिष्टता उनकी कहानियों में मौजूद है।
इस प्रकार प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों ने हिन्दी कहानी में दो समानान्तर धाराओं को विकसित किया- एक थी प्रेमचंद की समाजपरक यथार्थवादी धारा, दूसरी थी प्रसाद की भाववादी व्यक्तिवादी धारा। किन्तु इन दोनों धाराओं को विरोधी धाराएं न मानकर परस्पर पूरक और सहयोगी धाराएं मानना चाहिए। दोनों अपने समय के समाज को अपने-अपने ढंग से जगाने और आगे ले चलने का कार्य किया।
इस काल में प्रेमचन्द के परंपरा के कहानिकारों में सुदर्शन, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, ‘भगवती प्रसाद वाजपेय, ज्वालादत्त शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय है। प्रसाद की भाववादी धारा के कहानिकारों में चंडीप्रसाद ‘हृदयेश’, राधाकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक, मोहनलाल महतो, चतुरसेन शास्त्री प्रमुख हैं। इसी काल में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने उपयुक्त दोनों धाराओं से अलग हटकर अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई।
प्रेमचन्द और प्रसाद के बाद हिन्दी कहानी को दो प्रमुख प्रवृत्तियों ने प्रभावित किया- मनोवैज्ञानिक और सामाजिक यथार्थवाद। इसके प्रेरक थे- फ्रायड और कार्ल मार्क्स। हिन्दी कहानी पर इन दोनों चिन्तकों का विशेष प्रभाव है। इस काल में हिन्दी कहानी को नया आयाम देने वालों में जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, यशपाल आदि प्रमुख हैं। जैनेन्द्र ने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से ऊपर उठाकर व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। ‘खेल’, ‘अपना-अपना भाग्य’, ‘नीलम देश की राजकन्या’, ‘पाजेब’ आदि कहानियों में जैनेन्द्र ने व्यक्ति, मन की शंकाओं, प्रश्नों तथा आन्तरिक गुत्थियों को अंकित किया है। इलाचन्द्र जोशी ने कथा-साहित्य में व्यक्तिवाद को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। उनका चिंतन जैनेन्द्र से भिन्न है। वे मानव मन की गहराइयों में झांककर व्यक्ति-मन के भीतर दमित वासनाओं तथा कुंठाओं का विश्लेषण करते हैं। ‘आहूति’, ‘डायरी के नीरस पृष्ठ’, ‘दुष्कर्मी आदि उनकी प्रमुख कहानियां हैं। प्रेमचन्द के बाद के कहानिकारों में अज्ञेय महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में व्यक्ति-चरित्र को प्रधानता दी है। वे समाज का अध्ययन व्यक्ति के माध्यम से ही करते हैं और समाज की गली-सड़ी, खोखली मान्यताओं के बदले, व्यक्ति के भीतर स्थित दृढ़तर मान्यताओं को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करते हैं। इनके चिन्तन पर देशी और विदेशी चिन्तकों का प्रभाव है। अज्ञेय की प्रथम कहानी संग्रह त्रिपथगा 1931 में प्रकाशित हुआ तथा ‘रोज’ उनकी प्रसिद्ध कहानी है।
इस व्यक्तिवादी धारा के साथ ही इस समय यशपाल ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से समाज में फैली सब प्रकार की कुरूपताओं का पर्दाफाश किया। उनके कथ्य का क्षेत्र इतना व्यापक रहा कि समाज की कोई भी विकृति उनकी आंखों से ओझल नहीं हुई। उनकी दृष्टि मार्क्सवादी थी। अतः उनका लक्ष्य एक ही रहा- सामाजिक वैषम्य का उद्घाटन करना। उनकी प्रमुख कहानी संग्रहों में ‘पिंजडे़ की उड़ान, वो दुनिया, ‘ज्ञानदान’, ‘तर्क का तूफान’, चिंगारी, अभिशप्त आदि हैं। इस सामाजवादी परम्परां पर आगे चलकर राहुल, रांगेय राघव, नागार्जुन ने सशक्त कहानियां लिखी।
प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी के कई रचनाकार स्वातंत्रयोत्तर काल में भी रचनारत रहे और उन्होंने हिन्दी कहानी को नई गति और दिशा देने में अपना रचनात्मक सहयोग भी दिया। किन्तु सन् 1947 में आजाद हुए भारत में कहानीकारों की जो नई पीढ़ी तैयार हुई, उसने हिन्दी-कहानी के वस्तु, शिल्प और संचेतना में व्यापक परिवर्तन उपस्थित कर दिया।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से अब तक हिन्दी कहानी का त्वरित एवं अनेकायामी विकास हुआ, कई छोटे-बड़े कहानी, आंदोलनों के बीच से गुजरती हुई, हिन्दी कहानी आज जिस मुकाम पर पहुंची है, उसे देखते हुए कहना पड़ता है कि स्वतंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी अपने समय और समाज के साथ चलती हुई निरन्तर अपने को नये रूप-रंग में ढालती रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी में कई आंदोलन चले। ‘नयी कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘अकहानी’, ‘सहज कहानी’, ‘सक्रिय कहानी’, ‘समान्तर कहानी’ और ‘जनवादी कहानी’ के नाम से समय-समय पर उठने वाले कहानी आंदोलनों ने हिन्दी-कहानी को नई समृद्धि, दृष्टि और कलात्मक ऊंचाई भी दी है और संकीर्णताओं, अविचारित अग्रहों और स्वार्थों के कारण उसे क्षति भी पहुंचाई है।
स्वतंत्रता के बाद के रचनाकारों में राजेन्द्र यादव, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, हरिशंकर परसाई आदि प्रमुख हैं।