Question : नागरी लिपि में सुधार के प्रयास
(2008)
Answer : देवनागरी लिपि में हिंदी लेखन और मुद्रण की दृष्टि से जो दोष हैं उनकी ओर कई विद्वानों का ध्यान गया है और समय-समय पर सुधार करने का प्रयास किया गया है। सबसे पहले इस मुद्दे पर महान राष्ट्रीय नेता बालगंगाधर तिलक का ध्यान गया।
1904 में उन्होंने अपने पत्र केसरी के लिए कुछ टाइपों को मिलाकर या उसके हेर-फेर से उनमें कमी के प्रयोग आरंभ किए और वे टाइपों की छंटाई करते-करते 190 टाइपों का एक फांट बना लिया, जिसे तिलक फांट कहते हैं।
इसी समय सावरकर बंधुओं ने स्वरों के लिए ‘अ’ की बारह खड़ी तैयार की, जैसे- अ से ही िअ, अी, अु, अू, अे, अै, जबकि ओ, औ तो चलते ही हैं। डॉ- श्याम सुंदर दास ने सुझाव दिया कि ड-, ×ा के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाए, जैसे-अड़्ग या म×च की जगह अंक, मंच का प्रयोग हो।
डॉ- गोरख प्रसाद मात्रओं को व्यंजन के बाद दाहिने हाथ अलग रखने के पक्ष में थे, जैसे-क,ल,बै ल आदि।
काशी के श्रीनिवास ने सुझाया कि महाप्राण वर्ण हटाकर अल्पप्राण के नीचे कोई चि” लगा दिया जाए। इससे भी वर्णों की संख्या में कमी होगी।
1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में महात्मा गांधी के सभापतित्व में नागरी लिपि सुधार समिति बनाई गई, जिसके संयोजक काला कालेकर थे।
इस समिति की सिफारिशें निम्नलिखित थीं:
1983 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय की ओर से देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण का प्रकाशन हुआ। इसके सुझाव निम्नलिखित हैं:
Question : देवनागरी लिपि के ‘गुण-दोष’ की विवेचना कीजिए।
(2005)
Answer : ब्राह्मी लिपि से निष्पन्न गुप्त लिपि एवं गुप्त लिपि से निष्पन्न कुटिल लिपि से ही देवनागरी लिपि विकसित हुई है। इसके अस्तित्व में आने का प्रमाण आठवीं-नवीं शताब्दी में मिलता है। वैसे यह उत्तर भारत की लिपि मानी जाती है, किन्तु दक्षिण भारत में भी इस लिपि में लिखे हुए आठवीं शताब्दी के लेख प्राप्त हुए हैं। राष्ट्रकूट वंश के राजा दन्तिदुर्ग के सामनगढ़ दानपत्र जो 754 ई. का है, में यह लिपि उपलब्ध है। दक्षिण की देवनागरी लिपि ‘नन्दि नागरी’ के नाम से जानी जाती है। देवनागरी लिपि का वर्तमान स्वरूप सैंकड़ों वर्षों के प्रयोग पर आधारित क्रमिक विकास का परिणाम है। यह अपने जन्म के साथ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के अतिरिक्त आधुनिक मराठी एवं हिन्दी द्वारा अपना ली गयी।
प्रत्येक लिपि में कुछ-न-कुछ विशेषताएं होती हैं, किंतु इनके साथ हर लिपि की कुछ सीमाएं भी होती हैं। इसी प्रकार नागरी लिपि भी इसका अपवाद नहीं है। इस लिपि की कुछ अपनी विशेषताएं हैं, जिसे वैज्ञानिकता की कसौटी पर देखा जाए तो ये विशेषताएं कुछ तो इस लिपि के गुणों को दर्शाती है और कुछ विशेताएं इसके दोषों को हमारे सामने लाती है। इस लिपि की निम्न विशेषताओं (गुणों) को रेखांकित किया जा सकता हैः
(1) वर्णमाला का वर्गीकरणः विश्व के किसी भी कोने में प्रयुक्त वर्णमाला उतने वैज्ञानिक रूप में विभाजित या वर्गीकृत नहीं है, जितने वैज्ञानिक रूप में नागरी लिपि। उर्दू या रोमन लिपि भी इस कमी का अपवाद नहीं है। इसमें भी स्वर और व्यंजन (अलिप़फ़, बे, डी, ई, एफ आदि) या व्यंजन के वैज्ञानिक वर्ग (लाम, मीम, सी, डी आदि) मिले-जुले रूप में रखे गए हैं। नागरी लिपि में इस प्रकार की कमियां नहीं हैं। स्वर अलग है और व्यंजन अलग। स्वरों में भी ”स्व-दीर्घ के युग्म (अ-आ, इ-ई, उ-ऊ) साथ-साथ हैं। प्रारंभ में मूल स्वर (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ) हैं और उसके बाद संयुक्त स्वर (ए, ऐ, ओ, औ)। व्यंजनों, विशेषतः स्पर्श एवं अनुनासिक का विभाजन तो और भी वैज्ञानिक है। क, च, ट, त, प के वर्ग स्थान पर आधारित है और हर वर्ग के व्यंजन घोषत्व के आधार पर दो प्रकार के हैं- प्रथम दो अघोष तथा अन्तिम तीन घोष। इसके साथ ही इनके वर्गीकरण या विभाजन में प्राणत्व का भी ध्यान रखा गया है। पहले, तीसरे और पांचवें अल्पप्राण हैं तथा दूसरे, चौथे महाप्राण। अनुनासिक व्यंजन वर्गों के अन्त में हैं। अन्त में अंतःस्थ है।
(2) लिपि चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुरूपः नागरी में यह बहुत बड़ी विशेषता है कि जो लिपि-चिह्न जिस ध्वनि का द्योतक है, उसका नाम भी वही है, जैसे- आ, ओ, क, ब आदि। रोमन में ऐसा नहीं होने के कारण यह याद करना पड़ता है कि कौन चिह्न किस ध्वनि के लिए आता है, जैसे- 'F' चिह्न का नाम ‘एफ’ है, लेकिन जब यह शब्दों में प्रयोग होता है तो इसका उच्चारण ‘फ’ होता है। उर्दू लिपि में यह अवैज्ञानिकता इतनी अधिक तो नहीं है, नागरी की तुलना में अधिक अवश्य है।
(3) एक ध्वनि के लिए एक लिपि-चिह्नः अच्छी या वैज्ञानिक लिपि के लिए इस विशेषता का होना आवश्यक है। यों तो किसी लिपि में यह विशेषता सर्वदा नहीं रह सकती। इसका कारण यह है कि उच्चारण के स्तर पर ही किसी भाषा के ध्वनिचिह्नों का निर्धारण किया जा सकता है और भाषा की ध्वनियां उच्चारण की दृष्टि से परिवर्तित होती रहती है, जिसका अर्थ यह है कि एक समय किसी लिपि में यह हो सकती है और दूसरे समय उच्चारण में अन्तर हो जाने के कारण इसका अभाव हो सकता है। इसी प्रकार, एक भाषा के प्रसंग में लिपि में यह विशेषता हो सकती है और दूसरी भाषा के प्रसंग में नहीं हो सकती। इस प्रकार इसका संबंध लिपि के आंतरिक गुण से न होकर उनके प्रयोग से है। उर्दू लिपि में यह विशेषता नहीं है।
उदाहरण के लिए ‘स’ ध्वनि के लिए उर्दू में तीन लिपि-चिह्न हैं- ‘से’, ‘स्वाद’, ‘सीन’। इसी प्रकार ‘ज’ के लिए- ‘जे’, ‘जाल’, ‘जोय’, ‘ज्वाद’ चार लिपि-चिह्न हैं। अंग्रेजी में भी यही गड़बड़ी है। उदाहरण के लिए ‘क’ ध्वनि के लिए- 'c', 'k', 'ch' या कभी 'ck' या 'Q' का प्रयोग होता है। नागरी लिपि में यह विशेषता पहले पाई जाती थी किन्तु अब हिन्दी आदि के प्रयोग में कुछ अवगुण (ट्ट-रि, श-ष) अवश्य आ गया है, किन्तु उर्दू या अंग्रेजी की तुलना में यह बहुत ही कम है।
लिपि-चिह्नों की पर्याप्तताः विश्व की अधिकांश लिपियों में चिह्न पर्याप्त नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनियां 40 से ऊपर हैं, किन्तु केवल 26 लिपि-चिह्नों से काम चलाना पड़ता है। उर्दू में भी ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, ढ़, थ, ध, फ, भ आदि के लिए लिपि-चिह्न नहीं हैं, और ‘हे’ से मिलाकर इनका काम चलाते हैं। इस दृष्टि से नागरी पर्याप्त सम्पन्न हैं। नागरी का प्रयोग जिन-जिन भाषाओं के लिए हो रहा है, यदि अपवादतः कुछ नव विकसित ध्वनियों (न्ह, म्ह, ल्ह) को छोड़ दें तो इसमें कोई कमी नहीं है।
मात्राओं का प्रयोगः नागरी लिपि में स्वर यदि स्वतंत्र रूप से आती हैं, तो पूरे वर्ण-चिह्न का प्रयोग होता है। (आग, ईद आदि), किन्तु व्यजंन के साथ ‘अ’ के अतिरिक्त अन्य सभी का मात्र-रूप (नाग, लीद आदि) प्रयुक्त होता है। इसके कारण चिह्नों की संख्या में वृद्धि तो हो गयी हैं और कुछ दृष्टियों से (जैसे एक ध्वनि के लिए एक से अधिक चिह्न) यह अवैज्ञानिक भी हैं, किन्तु इससे यह सुविधा है कि स्थान कम घिरता है। अतः यह एक सीमा तक गुण है और एक सीमा तक अवगुण है।
ह्रस्व तथा दीर्घ स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्नः इस दृष्टि से रोमन और नागरी का कोई मुकाबला नहीं है। रोमन में ए (A) अक्षर से ‘अ’ का भी काम लेते हैं, और ‘आ’ का भी। kamµ ‘कम’ भी है, और ‘काम’ भी। अंग्रेजी लेखन में यू (u) ‘उ’ (put) भी है और ‘ऊ’ (truth) भी। परन्तु नागरी में अ-आ, इ-ई, उ-ऊ में स्पष्ट अन्तर है। अतः रोमन की भांति भ्रम की गुंजाइश नहीं है।
सुपाठ्यताः लिखते हैं पढ़ने के लिए। अतः सुपाठ्यता किसी भी लिपि के लिए अनिवार्यताः आवश्यक गुण है। इस दृष्टि से नागरी बहुत ही वैज्ञानिक लिपि है। रोमन में उंस को मल, माल,मैल पढ़ने की भूल हो सकती है। उर्दू में ‘तर’, ‘तिर’, ‘तुर’ या ‘जूता’ को ‘जोता’, ‘जौता’ आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती प्रायः हो जाती है किन्तु नागरी में यह समस्या नहीं है।
व्यंजन चिह्नों की आक्षरिकताः नागरी का हर व्यंजन चिह्न व्यंजन न होकर ‘व्यंजन’ और ‘अ’ स्वर का योग है, जैसे क = क + अ; ख = ख + अ आदि। लिपि का ऐसा होना ही ‘अक्षरिकता’ है। अर्थात् व्यंजन-चिह्न वस्तुतः अक्षर है। यहां अक्षर का अर्थ है, व्यंजन और स्वर का संयुक्त रूप। नागरी लिपि की यह विशेषता एक दृष्टि से गुण भी है। जैसे- निर्मल (Nirmala)] केवल (Kewala) आदि।
देवनागरी लिपि के दोषः कोई भी लिपि नितांत निर्दोष नहीं होती। वास्तव में जो लिपि मूलतः जिस भाषा के लिए बनती है, वह उस भाषा के लिए तो पर्याप्त और उपयुक्त होती है, परन्तु कालान्तर में उस भाषा की ध्वनियों में विकार आ जाता है। लिपि वैसी ही बनी रह जाती है। नागरी लिपि भी इसका अपवाद नहीं हैं जिसे निम्न प्रकार से देखा जा सकता है-
Question : नागरी लिपि की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए उनमें आपेक्षित सुधारों पर प्रकाश डालिए।
(2004)
Answer : भारत की प्राचीन लिपियों में सिंधु लिपि और ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध है। सिंधु लिपि और ब्राह्मी लिपि से देवनागरी का कोई सीधा संबंध नहीं है। ऐसा माना जाता है कि गुप्त काल के आरंभ में ब्राह्मी लिपि के दो भेद हो गए- दक्षिणी ब्राह्मी और उत्तरी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मी से तेलुगू और तमिल लिपियों का और बहुत बाद में कन्नड़ और मलयालम लिपियों का विकास हुआ। उत्तरी ब्राह्मी का ही ‘गुप्त लिपि’ नाम पड़ा, जो सारे गुप्त साम्राज्य में प्रयुक्त होता था। गुप्त लिपि से छठीं शताब्दी में सिद्ध मात्रिक लिपि का विकास हुआ, जिसके कुटिल या वक्र अक्षरों के कारण कालांतर में ‘कुटिल लिपि’ या ‘कुटिलाक्षर’ कहा गया, इस लिपि का प्रयोग कश्मीर से लेकर वाराणसी तक के विशाल क्षेत्र में होता था। इसी ‘कुटिल लिपि’ या ‘कुटिलाक्षर’ से उत्तर भारत की बहुत-सी लिपियों का विकास हुआ, जिनमें ‘देवनागरी’ भी एक है।
प्रत्येक लिपि की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं, जिसमें कुछ विशेषताएं तो उस लिपि के गुण होते हैं, किन्तु कुछ विशेषताएं उसके अवगुण को रेखांकित करते हैं। देवनागरी लिपि भी इसका अपवाद नहीं है। इसकी निम्नलिखित विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता हैः
1. वर्णमाला का वैज्ञानिक विभाजनः देवनागरी लिपि में प्रयुक्त वर्णमाला, जितने वैज्ञानिक और व्यवस्थित ढंग से वर्गीकृत है, उतने विश्व के किसी लिपियों में प्रयुक्त वर्णमाला वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत नहीं है। उर्दू या रोमन लिपि भी इसका अपवाद नहीं है। नागरी लिपि में स्वर और व्यंजन, जहां अलग-अलग हैं वहीं उर्दू या रोमन में स्वर एवं व्यंजन (अलिफ, बे, डी, ई, एफ आदि) या व्यंजन के वैज्ञानिक वर्ग (लाम, मीम; सी डी आदि) मिले-जुले रूप में रखे गए हैं। नागरी में यह दोष नहीं है। इसमें स्वर और व्यंजन अलग-अलग तो हैं ही, स्वरों में भी ”स्व-दीर्घ के युग्म साथ-साथ हैं। व्यंजनों (विशेषतः अनुनासिक एवं स्पर्श) का विभाजन तो और भी वैज्ञानिक है। क, च, ट, त, प के वर्ग स्थान पर आधारित हैं तथा हर वर्ग के व्यंजन को घोषत्व के आधार पर दो वर्गों में बांटा गया है; प्रथम दो अघोष तथा अंतिम तीन घोष। इसके वर्गीकरण में प्राणत्व का भी ध्यान रखा गया है। इसमें पहले (क, च, ट, त, प), तीसरे (ग, ज, ड, द, ब), पांचवें (ड-, ञ, ण, न, म) अल्पप्राण हैं तथा दूसरे (ख, छ, ठ, थ, फ), चौथे (घ, झ, ढ, ध, भ) महाप्राण। व्यंजन वर्गों के अंत में अनुनासिक हैं। सबसे अंत में अंतःस्थ व्यंजन (य, र, ल आदि) हैं।
2. लिपि चिह्नों का नाम ध्वनि के अनुरूपः नागरी लिपि के अक्षरों के नाम तथा इसके लिखित व उच्चारित रूप में एकरूपता है जैसा कि अन्य लिपियों में हैं, उदाहरण के लिए रोमन लिपि में ‘उ’ ध्वनि का बोध ‘यू’ (U) अक्षर से भी होता है (PUT) और द्वित्व ‘ओ’ से भी (FOOT) इसके अतिरिक्त ‘इ’ के लिए रोमन लिपि में कहीं ई (E) अक्षर प्रयुक्त होता है तो कहीं आई (I)। साथ ही एक अक्षर कई ध्वनि का भी बोध होता है, जैसे ‘यू’ (U) से ‘अ’ ध्वनि का भी बोध होता है। (Under) और ‘उ’ का भी (PUT) उसी तरह सी (C) से ‘स’, ‘च’ और ‘क’ का सूचक है, जैसे- Central, Chabra, Cat. परंतु नागरी लिपि में जो लिपि-चिह्न, जिस ध्वनि का द्योतक है, उसका नाम भी वही है।
3. एक ध्वनि के लिए एक लिपि चिह्नः किसी भी लिपि में यह विशेषता हमेशा नहीं रह सकती। कारण यह है कि उच्चारण के स्तर पर ही ध्वनि-चिह्नों का निर्धारण किया जाता है और उच्चारण में परिवर्तन के साथ ही ध्वनि भी बदल जाती है। अतः उच्चारण परिवर्तन के कारण यह विशेषता लुप्त भी हो सकती है। इसी प्रकार लिपि में यह विशेषता किसी भाषा के प्रसंग में हो सकती है तो दूसरी भाषा के प्रसंग में नहीं भी हो सकती है। नागरी लिपि में मूलतः यह विशेषता पायी जाती थी, लेकिन अब हिन्दी आदि के प्रयोग में भी कुछ अवगुण (ऋ-री, श-ष) अवश्य आ गए हैं, किन्तु उर्दू या अंग्रेजी की तुलना में बहुत कम। जैसे ‘स’ ध्वनि के लिए उर्दू में तीन लिपि-चिह्न हैं- ‘से’, ‘स्वाद’, ‘सीन’। इसी प्रकार ‘ज’ के लिए- ‘जे’, ‘जाल’, ‘जोप’, ज्वार’ चार लिपि चिह्न हैं। अंग्रेजी में भी ‘क’ ध्वनि के लिए- 'C', 'K', 'CK' या कभी 'Q' का प्रयोग होता है।
4. लिपि चिह्नों की पर्याप्तताः विश्व की अधिकांश लिपियों में चिह्न पर्याप्त नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनि 40 से ऊपर हैं, किन्तु केवल 26 लिपि चिह्नों का प्रयोग किया जाता है। उर्दू में भी ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, ढ़, थ, ध, फ, भ आदि के लिए लिपि चिह्न नहीं हैं और ‘हे’ से मिलाकर काम चलाया जाता है। इस दृष्टि से नागरी लिपि पर्याप्त सम्पन्न है, जिसमें ध्वनियों के लिए 58 लिपि चिह्न हैं, जिसमें 12 स्वर, 44 व्यंजन तथा अनुनासिक और विसर्ग हैं।
5. ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्नः यह नागरी लिपि की अनोखी विशेषता है। रोमन में ‘ए’ (A) से ‘अ’ का भी काम लेते हैं और ‘आ’ का भी, जैसे- Kam, ‘कम’ भी है और ‘काम’ भी। अंग्रेजी में ‘यू’ (U) ‘उ’ भी है और ‘ऊ’ भी, परंतु नागरी में अ-आ, इ-ई, उ-ऊ में स्पष्ट अंतर है। अतः रोमन की भांति इसमें भ्रम की गुंजाइश नहीं है।
मात्रओं का प्रयोगः नागरी लिपि में स्वर यदि स्वतंत्र रूप से आते हैं, तो पूरे वर्ण चिह्न का प्रयोग होता है (आग, ईद आदि), किंतु व्यंजन के साथ आने पर ‘अ’ के अतिरिक्त अन्य सभी का मात्र-रूप (नाग, लीद, चतुर) प्रयुक्त होता है, जिससे स्थान कम घिरता है।
6. सुपाठ्यताः सुपाठ्यता किसी भी लिपि के लिए अनिवार्यतः आवश्यक गुण है, क्योंकि लिखते हैं, पढ़ने के लिए। इस दृष्टि से नागरी लिपि बहुत ही वैज्ञानिक लिपि है। रोमन की तरह उसमें Mal को मल, माल, मेल पढ़ने की परेशानी उठाने की संभावना ही नहीं है। उर्दू में भी ‘तर’, ‘तिर’, ‘तुर’ या ‘जूता’ को ‘जोता’, ‘जौता’, ‘जूता’आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती हो जाती है, किन्तु देवनागरी में यह समस्या नहीं है।
7. आक्षरिकताः नागरी लिपि का हर व्यंजन-चिह्न के साथ ‘अ’ स्वर का योग है, जैसे- प = प् + अ, त = त् + अ आदि। लिपि के इस गुण को ‘आक्षरिकता’ कहते हैं। अर्थात्, नागरी लिपि का प्रत्येक व्यंजन-चिह्न वास्तव में ‘अक्षर’ है। नागरी लिपि की यह विशेषता वास्तव में अवगुण है, किन्तु स्थान कम घेरने की दृष्टि से यह गुण भी है, जैसे- कमल = KAMALA, निर्मल = NIRMALA आदि।
8. व्यंजनों की संयुक्त रूप में लिखने की व्यवस्थाः यह विशेषता केवल देवनागरी लिपि में है। इससे उच्चारण की शुद्धता तो बनी रहती है और स्थान भी कम घिरता है। जैसे- DWARA = द्वारा (उच्चारण) द्वारा = शुद्ध उच्चारण।
विश्व की कोई भी लिपि सभी दृष्टियों से पूर्णतः वैज्ञानिक नहीं है और देवनागरी लिपि इसका अपवाद नहीं है। हालांकि यह लिपि विश्व की अनेक लिपियों की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है, किंतु उसमें काफी कमियां हैं और उस कमियों को दूर भी किया जा सकता है।
वैज्ञानिक लिपि की पहली विशेषता ‘वर्णनात्मकता’ है, किन्तु देवनागरी लिपि ‘आक्षरिक’ है। लेकिन यह कमी देवनागरी की प्रकृति में है। अतः इसे छोड़ा जा सकता है, किंतु वैज्ञानिक लिपि के लिए आवश्यक अन्य गुणों के हिसाब से इसे सुधारा जा सकता हैः
Question : नागरी लिपि में सुधार के विभिन्न प्रस्ताव:
(2002)
Answer : देवनागरी लिपि में हिन्दी लेखक और मुद्रण की दृष्टि से जो दोष हैं, उनकी ओर कई विद्वानों का ध्यान गया है और समय-समय पर सुधार करने का प्रयास किया गया है, पहले इस मुद्दे पर महान राष्ट्रीय नेता बालगंगाधर तिलक का ध्यान गया। 1904 में उन्होंने अपने पत्र केसरी के लिए कुछ टाइपों को मिलाकर या उनके हेर-फेर से, उनमें कमी के प्रयोग आरंभ किए और वे टाइपों की छंटाई करते-करते 190 टाइपों का एक फांट बना लिया जिसे ‘तिलक फांट’ कहते हैं। इसी समय सावरकर बंधुओं ने स्वरों के लिए अ की बारहखड़ी तैयार की, जैसे- अ से ही िअ, अी, अु, अू, अे, अै, जबकि ओ, औ तो चलते ही हैं। डा. श्याम सुन्दर दास ने सुझाव दिया कि ड-, ञ के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाए, जैसे-अड्-ग या म×च की जगह अंक, मंच का प्रयोग हो। डा- गोरख प्रसाद मात्रओं को व्यंजन के बाद दाहिने हाथ अलग रखने के पक्ष में थे, जैसे-क, ु, ल, ब, , ल। काशी के श्रीनिवास ने सुझाया कि महाप्राण वर्ण हटाकर अल्पप्राण के नीचे कोई चिह्न लगा दिया जाय। इससे भी वर्णों की संख्या में कमी होगी।
1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में महात्मा गांधी के सभापतित्व में नागरी लिपि सुधार समिति बनाई गई, जिसके संयोजक काका कालेलकर थे। इस समिति की सिफारिशें निम्नलिखित थीं:
1.शिरोरेखा लिखने में भले ही न हो, छपाई में रहनी चाहिए।
2.इ की मात्र (ि) बाईं ओर ही रहे उ, ऊ, ऋ, ए, एै, ओ, औ की मात्रएं और अनुस्वार चिह्न व्यंजन के बाद हटाकर अलग से लगाया जाय।
3.रेफ () को भी अलग से व्यंजन के बाद लगाया जाए; जैसे- ध { म, स { व आदि।
4.कोई व्यंजन-संयोग नीचे ऊपर (च्, द्ध) न हो।
5.सावरकर बंधुओं की बताई गई बारहखड़ी स्वकार किया जाये।
6.विराम चिह्न (। ; , आदि) पूर्ववत् बने रहें।
7.ध, भ में गुजराती घुंडी लगाई जाय (ध, भ) 1983 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय की ओर से ‘देवनागरी लिपि’ तथा ‘हिन्दी वर्तनी का मानवीकरण’ का प्रकाशन हुआ। इसके सुझाव निम्नलिखित हैं:
1.खड़ी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप खड़ी पाई को हटाकर ही बनाया जाना चाहिए। जैसे-ख्+य=ख्य (व्याख्या); स्+व=स्व (स्वयं) आदि।
2.र् पहला व्यंजन हो तो उसके लिए ऐफ ही होना चाहिए; जैसे-धर्म, वार्ता आदि।
3.र दूसरा अर्थात् पूरा व्यंजन हो तो पाई के साथ न होगा। जैसे-प्रकार, क्रम आदि।
4.पाई न होने पर ‘र’ इस प्रकार होगा, जैसे-ट्राम, द्रव्य, राष्ट्र आदि।
5.अनुस्वार और अनुनासिक दोनों का प्रयोग होना चाहिए।
6.विराम चिन्ह्न अंग्रेजी से यथावत् ग्रहण किये जा सकते हैं, किंतु पूर्ण विराम (.) न ग्रहण किया जाय, विराम चिह्न इस प्रकार होना चाहिए-।, ;, ?, ।,:, - =)
7.हिंदी के परसर्ग संज्ञा-शब्दों से अलग और सर्वनाम के साथ सटाकर लिखना चाहिए, जैसे-बालक ने, बच्चे से, उसका, तुमको, मैंने। सर्वनाम के साथ दो परसर्ग आने पर दूसरे को काटकर लिखा जाय, जैसे-उसके लिए, आदि। यदि सर्वनाम के तुरंत बाद निपात हि या तक आये तो परसर्ग पृथक हो जायेगा, जैसे-आप ही के लिए, आप तक में आदि।