Question : विदेश नीति विश्लेषण के एक साधन के रूप में निणर्यन सिद्धान्त की भूमिका का विश्लेषण एवं मूल्यांकन कीजिए।
(2006)
Answer : द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् रिचर्ड स्नाइडर, एच. डब्ल्यू ब्रक और बर्तन सापिन ने विदेश नीति के अध्ययन में निर्णयपरक विश्लेषण अपनाने का प्रयत्न किया।
यह सिद्धान्त उन अंतर्राष्ट्रीय कर्ताओं के अधिमान्य व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है, जो अन्तर्राष्ट्रीय घटना चक्र को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं। निर्णयपरक सिद्धान्त विदेश नीति निर्माण की लंबी प्रक्रिया में लिए जाने वाले निर्णयों के अध्ययन पर जोर देता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन से पूर्व निर्णयपरक सिद्धान्त का प्रयोग गणित, समाज वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री व मनोवैज्ञानिक अपने-अपने विषयों के अनुसंधान में करते रहे हैं।
लोक प्रशासन में हरबर्ट साइमन ने इस सिद्धान्त का प्रयोग किया। राजनीति विज्ञान में इसका प्रयोग विदेशनीति के अध्ययन, मतदान व्यवहार, विधायकों में मतगणना व जनमत के अध्ययन के लिए किया जा रहा है। जेम्स राबिन्स के अनुसार, निर्णय करण एक सामाजिक प्रक्रम है, जो निर्णय लेने के लिए कोई समस्या छांटता है और उसके कुछ थोड़े से विकल्प निकालता है, जिनमें से कोई एक विकल्प कार्यरूप में परिणत करने के लिए छांट लिया जाता है। निर्णयपरक सिद्धान्त अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक नए दृष्टिकोण से देखता है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मूल इकाइयां यद्यपि राज्य हैं, तथापि राज्यों का समस्त कार्य संचालन प्रशासन के उच्चाधिकारियों द्वारा ही होता है। राज्य के नाम पर सारा निर्णय व्यक्ति ही लेते हैं। स्वाधीनता के बाद भारत की विदेश नीति पर नेहरू की, नाजी जर्मनी पर हिटलर की, सोवियत संघ पर स्टालिन की, व चीन की विदेश नीति पर माओ के व्यक्तित्व की अनूठी छाप देखी जा सकती है।
इस प्रकार निर्णयपरक दृष्टिकोण उन कार्यकर्त्ताओं पर भी ध्यान केंद्रित करता है जो निर्णयकर्ता कहलाते हैं और उन राज्यों पर भी, जो निर्णय करने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं।
निर्णय लेने में पर्यावरण का विशेष महत्व होता है। किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति से संबंधित निर्णय एक विशिष्ट पर्यावरण में लिए जाते हैं। इस पर्यावरण का निर्णय करने वाले तत्वों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
1. आन्तरिक पर्यावरण के घटक तत्वः व्यक्तित्व, संगठन का स्वरूप, भौतिक व प्रौद्योगिकी दशाएं, बुनियादी मूल्य और समाज में कार्यशील प्रभावक तत्व, दबाव समूह आदि।
2. बाह्य पर्यावरण के घटक तत्वः अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था, पड़ोसी राष्ट्रों की शक्ति की दृष्टि से स्थिति, महाशक्तियों से संबंधों का स्वरूप आदि। इन समस्त कारणों का सम्मिलित प्रभाव निर्णय पर पड़ता है। यदि इन सबका सम्यक् ज्ञान हो व उचित विश्लेषण हो सके तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर क्या दृष्टिकोण अपनाएगा। हैरल्ड और मार्ग्ररेट स्प्राउट विदेश नीति के अध्ययन में पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल देते हैं। वे इस तथ्य के अध्ययन पर बल नहीं देते कि कोई निर्णय कैसे और क्यों लिया जाता है? जबकि अलेक्जेंडर जार्ज व जुलियट जार्ज विदेश नीति संबंधी निर्णय के ठीक अध्ययन के लिए निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व की विविध विधाओं का विश्लेषण करना आवश्यक मानते हैं अर्थात् भारत की निर्गुट विदेश नीति को समझने के लिए नेहरू और इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को समझने से उस काल की विदेश नीति का स्वरूप समझने में सहायता अवश्य मिलती है।
कुछ विद्वान उन कार्य कर्ताओं के व्यवहार के अध्ययन पर बल देते हैं, जो विदेश नीति निर्माण में सही मायने में भाग लेते हैं। ये कार्यकर्ता दो प्रकार के हैं-
1. विदेश सेवा में अधिकारी के रूप में कार्य करने वाले। कोहन का विचार है कि विदेश नीति के निर्माण में हिस्सा लेने
वाले सरकारी और गैर सरकारी अधिकारियों के दृष्टिकोणों और विश्वासों के अनुसार ही विदेश नीति का व्यवस्थित विश्लेषण होना चाहिए। किसी देश की विदेश नीति के निर्णयों में जितना प्रभाव राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री आदि का होता है उतना अन्य तत्वों का नहीं। अतः निर्णयकरण की प्रक्रिया में हमें निर्णय करने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व के अध्ययन पर अधिक बल देना चाहिए।
2. दूसरा विदेश नीति निर्माण में विधायिका और कार्यपालिका की विशिष्ट भूमिका होती है। अतः रोजर हिल्समैन के विचार में विधायिका व कार्यपालिका की संरचना, सदस्यों के आचरण आदि का अध्ययन किया जाना चाहिए।
विदेश नीति के विश्लेषण में निर्णय परक सिद्धान्त का मूल्यांकनः इस उपागम से अन्तर्राष्ट्रीय आचरण व व्यवहार को समझने में अधिक सहायता मिल सकती है। यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय को विदेश नीतियों की परस्पर क्रिया मानें तो इस परस्पर क्रिया को समझने के लिए एक मात्र उपयोगी दृष्टिकोण निर्णयपरक सिद्धान्त ही है, फिर भी निर्णयपरक दृष्टिकोण अ.रा. का आंशिक सिद्धान्त ही है, जिसके निम्न कारण हैं। यह नीति विज्ञान का हिस्सा है, इसका विश्लेषण अत्यंत जटिल एवं उलझन में डालने वाला है, तथ्यों की प्रामाणिकता की जांच नहीं की जा सकती, यह केवल इतना बताता है कि कोई निर्णय क्यों लिया गया? साथ ही यह अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समुचित उत्तर भी नहीं देता है। निर्णयपरक सिद्धान्त का क्षेत्र भी संकीर्ण है। इन त्रुटियों के कारण चाहे निर्णयपरक सिद्धान्त से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के एक व्यापक सिद्धान्त की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई हों तो भी इसने अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को अधिक मानवीय बना देने और समझने का प्रयत्न किया है। राज्यों के निर्णय मूर्त व्यक्ति ही लेते हैं और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिए इन मूर्त व्यक्तियों की भावनाओं, संवेगों और दृष्टिकोणों को समझना आवश्यक है।
Question : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, सभी राजनीति के समान, शक्ति के लिए एक संघर्ष है। टिप्पणी कीजिए।
(2006)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘राजनीतिक यथार्थवाद’ के मुख्य समर्थक हंस जे. मार्गेन्थो रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के एक यथार्थवादी प्रतिमान का निर्माण करने का श्रेय उन्ही को प्राप्त है। यह सिद्धान्त राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष के सभी पहलुओं का वर्णन करता है। मार्गेन्थो अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का आदर्शवादी विचारधारा का शांति की ओर संचालन’ के रूप में खण्डन करता है तथा इसका वर्णन ‘राष्ट्रों के मध्य संघर्ष के रूप में करता है। मार्गेन्थो कहता है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्य सभी राजनीतियों की तरह शक्ति के लिए संघर्ष है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अंतिम उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, इसका तात्कालिक उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना होता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने हितों को शक्ति द्वारा प्राप्त करने को प्रयत्न करता है। इससे राष्ट्रों के मध्यम शक्ति के लिए संघर्ष का जन्म होता है तथा यही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बिंदु, अच्छी वास्तविकता तथा पूर्ण तानाबाना है। इस प्रकार मार्गेन्थो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति के दृष्टिकोण को अपनाते हैं तथा अपना सारा अध्ययन राष्ट्रीय शक्ति के मूल्यांकन पर लगाते हैं। इनका मानना है कि एक राष्ट्र हमेशा अपने हितों को बनाए तथा सुरक्षित रखना चाहता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय शकि्त एक साधन है। इस तरह प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के साथ शक्ति संघर्ष में लिप्त रहता है। वह कहते हैं कि शक्ति संघर्ष राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों की स्वाभाविक तथा अपरिवर्तनीय वास्तविकता है तथा इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझना बहुत आवश्यक है। यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सच्चा तथा वास्तविक स्वरूप है। इसी कारण मार्गेन्थो जैसे इसके समर्थक अपने आपको यथार्थवादी कहते हैं। यथार्थवाद विरोध एवं संघर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक शाश्वत तत्व के रूप में देखता है, एक ऐसे तत्व के रूप में जिसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संस्था द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इसलिए कूटनीति की चुनौती यही है कि ऐसे साधनों को विकसित किया जाए, ताकि शक्ति संघर्षों में सफलता हासिल किया जा सके।