Question : सुरक्षा असमंजस और असुरक्षा असमंजस के बीच अंतर को स्पष्ट कीजिए।
(2008)
Answer : सुरक्षा असमंजस और असुरक्षा असमंजस के संबंध में विधिवत रूप में पचास के दशक में प्रयोग किया गया जब सुरक्षा असमंजस को पहली बार जॉन हर्ज ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में प्रस्तुत किया। यद्यपि इस अवधारणा की शुरूआत को प्रथम विश्व युद्ध के संदर्भ में प्रचलित किया गया, यद्यपि इसके इतिहास को प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों के लेखनों में भी देखा जा सकता है। यह एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय स्थिति का सूचक होता है, जब दो या दो से अधिक राष्ट्र आपस में संघर्ष की स्थिति में विद्यमान हेाते हैं हालांकि संघर्ष की यह स्थिति युद्ध के स्तर पर उपस्थित नहीं होती है।
दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि दो या अधिक राष्ट्र के बीच किसी मुद्दे को लेकर पारस्परिक मतभेद के कारण संघर्ष की स्थिति तो होती है, परंतु संघर्ष की यह स्थिति अभी इतने विकराल रूप में उपस्थित नहीं होती है कि युद्ध का रूप धारण कर ले, अर्थात् तनावपूर्ण स्थिति के बावजूद स्थिति को नियंत्रण में रखा जाता है। यह तनावपूर्ण स्थिति मुख्यतः सुरक्षा संबंधी होती है। सुरक्षा से संबंध होने के कारण प्रत्येक संबंधित राज्य अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए अपनी सुरक्षा को मजबूत करने का प्रयास में प्रयासरत हो जाता है। भारत और पाकिस्तान के संबंधों के अंतर्गत भी इन अवधारणा को देखा जा सकता है। एक-दूसरे से असुरक्षित होने के भय ने दोनों देशों को अपनी सुरक्षा के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया है, फलस्वरूप शुरुआती चरण से ही दोनों देश शास्त्रों की प्राप्ति की दौड़ में सम्मिलित हैं। इस सदर्भ में भारत की स्थिति अधिक सुदृढ़ नजर आती है क्योंकि उसे अधिक शक्तिशाली राज्य चीन से भी असुरक्षा असमंजस बना रहा है। 1998 में किये गये भारत द्वारा परमाणु परीक्षण के अंतर्गत मुख्य खतरा पाकिस्तान को न बताकर चीन को बताया गया, यह सब इसी दिशा में संकेत करते हैं।
Question : तीसरी दुनिया के देशों के मामलों में भारत की भूमिका का एक समालोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2006)
Answer : तीसरी दुनिया शब्द प्रायः अविकासशील देशों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त किया जाता है, जिन्हें निम्नस्तरीय विकसित देश भी कहते हैं। इनमें से बहुत से देश गुटनिरपेक्ष हैं तथा विकसित राष्ट्रों की तुलना में अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्षरत हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीसरे विश्व की अवधारणा एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के निर्धन, कमजोर तथा समस्यायुक्त देशों को अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में विशिष्ट तथा भिन्न तत्व के रूप में समूहित करने का सरल साधन है। ये देश पूर्व में विकसित देशों के साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशीय शोषण के शिकार रहे हैं। ये देश आज भी एक नव उपनिवेशवादी स्थिति में रह रहे हैं एक ऐसी स्थिति जिसमें उनके पास राजनीतिक स्वतंत्रता तो है, वे प्रभुसत्ता संपन्न भी हैं, किंतु इसके साथ ही आज भी आर्थिक रूप से विकसित तथा धनी देशों पर निर्भर हैं। इन अविकसित देशों के पास संसाधनों की कमी है। विकसित राष्ट्रों ने सहायता देने या तकनीकी के हस्तांतरण के लिए जो शर्तें लगायी हैं, वे इतनी कठोर हैं कि तीसरी दुनिया के देशों के सामने यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इनके बिना ही गुजारा किया जाए या फिर वह तकनीकी रूप से विकसित राष्ट्रों के पिछलग्गू बन जायें।
इसलिए ये देश अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में एक बेहतर सौदा करना चाहते हैं, ताकि विकासशील राष्ट्रों की भागीदारी को धीरे-धीरे बढा़कर विकासशील तथा धनी राष्ट्रों के बीच आय तथा संसाधनों के समान बंटवारे पर आधारित नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था स्थापित कर सकें।
भारत भी तीसरी दुनिया का ही देश है। अपनी स्वतंत्रता से ही इसने अपने आय को विश्व के विकासशील राष्ट्रों में शामिल किया हुआ है। यह तीसरी दुनिया के अधिकारों का समर्थक है तथा तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विश्व के विकसित देशों के साथ बातचीत करने में मुख्य भूमिका निभाता रहा है।
इसने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्राप्ति पर उत्तर-दक्षिण बातचीत करवाने के लिए तथा विकासशील राष्ट्रों के बीच व्यापारिक, आर्थिक, तकनीकी तथा सांस्कृतिक संबंध स्थापित करने अर्थात् दक्षिण-दक्षिण सहयोग की स्थापना करने के लिए अनेक साहसिक कदम उठाए हैं।
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद नव उपनिवेशवाद तथा नस्ली भेदभाव के विरूद्ध संबंधों तथा अफ्रीकी-एशियाई एकता की स्थापना करना, भारतीय विदेश नीति के मूलभूत सिद्धान्त रहे हैं। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मामलों तथा समस्याओं पर अपना स्वतंत्र तथा निर्भीक निर्णय देने में कभी हिचकिचाहट प्रकट नहीं की। इस प्रकार स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने की प्रतिबद्धता तथा इसके कारण प्राप्त की गयी नयी सफलता के कारण तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के लिए भारत प्रेरणा तथा विश्वास का स्रोत बन गया है। शीत युद्ध के दौरान भारत द्वारा अपनाई गयी तथा प्रचलित गुटनिरपेक्ष की नीति ने तीसरी दुनिया के देशों की स्वतंत्रता तथा उनके व्यक्तित्व को बनाये रखने के लिए सदैव महत्वपूर्ण तथा मुख्य भूमिका निभाता रहा है।
अपने बडे़ आकार, विशेष सामरिक स्थिति, प्रशिक्षित मानव शक्ति की बहुलता तथा विकास के आधारभूत ढांचे के कारण भारत तीसरी दुनिया के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अत्यधिक सकारात्मक तथा रचनात्मक भूमिका निभाता रहा है। सन् 1981 के कैनकुन शिखर सम्मेलन के बाद भारत ने की महासभा के लिए एक प्रस्ताव की रूपरेखा तैयार करने में विकासशील देशों को सहायता प्रदान की जिसमें यह प्रस्ताव रखा गया कि अंतराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करने के लिए उत्तर-दक्षिण के सभी देशों के बीच सर्वसम्मति के आधार पर समझौता किया जायेगा।
भारत ने सन् 1982 में दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों का नई दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें 44 विकासशील देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि तीसरी दुनिया के देशों के मामलों में भारत की भूमिका कापफ़ी सकारात्मक रहा है।
Question : निर्गुट आंदोलन में, भारत की भूमिका समालोचनात्मक आकलन प्रस्तुत कीजिए।
(2006)
Answer : भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को विश्व में शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए विकसित किया। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है- शक्तिशाली गुटों से दूर रहना। उस युग में इसका अर्थ था-अमेरिकी गुट बनाम सोवियत गुट की शक्ति की राजनीति से अलग रहना। श्री नेहरू ने मिड्ड के राष्ट्रपति नासिर, युगोस्लाविया के टीटो तथा इंडोनेशिया के सुकार्णों की सहायता से गुटनिरपेक्षता को वैश्विक आंदोलन के रूप में विकसित किया।
अनेक अफ्रीकी-एशियाई देशों एवं युगोस्लाविया के साथ-साथ भारत ने भी किसी भी फौजी गुट में शामिल न होने का निर्णय लिया, क्योंकि वे अपने देशों को शीत युद्ध की रणभूमि में नहीं बदलना चाहते थे। एक प्रकार से गुटनिरपेक्षता स्वहित और स्वाभिमान से जागरूक देशों की सामूहिक शक्ति का परिचायक है। इसका उद्देश्य शांति, विकास और सहयोग के लक्ष्य को पाना है। भारत की गुटनिरपेक्षता को सबसे गंभीर चुनौती अक्टूबर 1962 में चीन द्वारा हमले के साथ प्रस्तुत हुई। उस समय भी भारत ने अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति को नहीं छोड़ा। गुटनिरपेक्षता की नीति ने ही भारत को एक सशक्त देश और गुटनिरपेक्ष देशों का नेता बना दिया। भारत ने हमेशा से ही गुटनिरपेक्ष देशों में सामंजस्य बनाने का नेतृत्व किया है। इसने सभी गुटनिरपेक्ष देशों के बीच विवाद को आपसी समाधान से सुलझाया है। आज भारत की तटस्थ भूमिका के कारण ही निर्गुट आंदोलन मजबूत हुआ है। आज भारत के बदौलत ही विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद गुटनिरपेक्ष ही एक ऐसी सबसे बड़ी संस्था है, जिसमें अनुचित युद्ध, आंतरिक मामलों में दखलअंदाजी, आतंकवाद के विरूद्ध और न्यायसंगत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था तथा शांति स्थापना के लिए संघर्ष करने की क्षमता है। इस तरह से निर्गुट आंदोलन में भारत की भूमिका सराहनीय है।
Question : गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण करने में क्या भारत के लिए कोई देशीय सामाजिक-राजनीतिक आधार था?
(2006)
Answer : भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति इसलिए अपनायी क्योंकि वह निर्णय लेने की स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहता था। इस नीति को अपनाये जाने के स्पष्ट देशीय, सामाजिक व राजनीतिक आधार थे। इसके अतिरिक्त आर्थिक विकास पर भारत बहुत अधिक बल दे रहा था। एमएस राजन ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाने के कारणों का उल्लेख किया है। पहला, यह विश्वास किया जाता है कि अमेरिका व सोवियत गुट के साथ भारत की संलग्नता अंतरराष्ट्रीय तनाव को बढ़ा सकती थी। भारत ने यह अनुभव किया कि देश के आकार को ध्यान में रखते हुए भौगोलिक व सामाजिक महत्व के कारण और सभ्यता के विकास में उसके योगदान के आधार पर अंतरराष्ट्रीय तनाव कम करने और दोनों गुटों के बीच एक सेतु का कार्य करने की सकारात्मक भूमिका उसे निभानी थी। दूसरे भारत न तो एक बड़ी शक्ति था और न बिल्कुल महत्वहीन राष्ट्र ही था। भारत के पास एक महान शक्ति बनने की संभावना अवश्य थी। गुटनिरपेक्षता की नीति भारत की वर्तमान आवश्यकताओं और उसकी राष्ट्रीय पहचान बनाए रखने के लिए आवश्यक थी, दूसरी ओर गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य यह भी था कि भविष्य में भारत को एक महान शक्ति के रूप में उभरने में सहायता मिले। भारत ने भावात्मक तथा वैचारिक कारणों से भी किसी शक्ति गुट में शामिल न होने का निर्णय किया। भारत पश्चिमी गुट में इसलिए भी शामिल नहीं हो सकता था क्योंकि इस गुट के अनेक देश उपनिवेशवादी शक्ति थे या रह चुके थे। दूसरी ओर सोवियत गुट में इसलिए शामिल नहीं हो सकता था क्योंकि साम्यवाद की विचारधारा भारत को कभी भी स्वीकार्य नहीं थी। भारत किसी भी अन्य प्रभुता संपन्न देश की तरह अपने निर्णय स्वयं करना चाहता था। भारत का यह पारंपरिक विश्वास है कि सत्य और अच्छाई किसी एक धर्म या दर्शन के एकाधिकार में नहीं होते। भारत में सहनशीलता में विश्वास करता था। उस समय की स्थिति में सहनशीलता और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व ही देश के हित में थे। अंतिम कारण था कि देश की आंतरिक स्थिति भी गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के लिए बहुत कुछ उत्तरदायी थी।