Question : आप शीतयुद्धोत्तर वैश्विक व्यवस्था का उससे पूर्व की व्यवस्था से किस प्रकार विभदन करेंगे?
(2007)
Answer : शीतयुद्ध की समाप्ति से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यापक परिवर्तनों के आसार लगाये गये थे। इन संभावनाओं व आसारों को खाड़ी युद्ध की पूर्व संध्या पर जार्ज बुश सीनियर के उस वक्तव्य से बल मिला, जिसमें उन्होंने एक नई अंतरराष्ट्रीय वैश्विक व्यवस्था की स्थापना का उद्घोष किया था। बुश के अनुसार, खाड़ी युद्ध में सभी राज्यों का इराक के विरुद्ध कार्यवाही पर एकमत होना, इस नई व्यवस्था का द्योतक था। शीतयुद्धोत्तर विश्व में इस प्रकार स्थायित्व, शांति एवं सहयोग की नई किरणें तो प्रस्फुरित हुईं, परंतु शीघ्र ही भय, आतंक व असुरक्षा इत्यादि जैसी प्रवृत्तियां भी देखी जाने लगीं। 20वीं सदी का अंत होते-होते सभी महाद्वीपों में प्रजातीय हिंसा के रूप में शेष व प्रतिशोध की ज्वालायें भड़क उठीं। यह माना जा रहा था कि विचारधारा के अंत जैसे सिद्धांतों के प्रतिपादन से विश्व में प्रचलित विचाराधारात्मक वैमनस्य व ईर्ष्या, घृणा का अंत होगा तथा विश्व शांति की आकांक्षा सत्य स्थापित हो पायेगी, परंतु विश्व शीघ्र ही नये प्रकार के हिंसात्मक गतिविधियों का शिकार हो गया। ये हिंसात्मक तथा विध्वंसात्मक गतिविधियां मुख्यतः प्रजातीय तथा नृजातीय संघर्षों से जुड़ी हुई हैं।
शीतयुद्धोतर विश्व के संदर्भ में दो प्रकार की मान्यताएं स्थापित की गई हैं। कुछ सिद्धांतकारों की मान्यता है कि इस व्यवस्था में कुछ भी नया नहीं है। अमेरिका पहले भी एक वैश्विक शक्ति था और अब भी है। उसकी वैश्विक प्रभुसत्ता को चुनौती देने की कोई भी राज्य सक्षम नहीं हो पाया है। शीतयुद्ध के दौर में सोवियत संघ इस भूमिका को निभाता है। शीतयुद्धोत्तर विश्व में सोवियत संघ की भूमिका को निभाने के लिए कोई राज्य आगे नहीं आया है। उत्तर-दक्षिण विभेद शीतयुद्ध के दौर में भी थे, आज भी उपस्थित हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की संरचना व उनकी प्रकृति में कोई विशेष बदलाव आया हो, ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता है। वहीं दूसरे विद्वानों की मान्यता है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में शीतयुद्ध के बाद में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं। इस मत के अनुसार, वर्तमान संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का अभिमुख एक ध्रुवीय हो गया है तथा इस व्यवस्था को बहुध्रुवीय बनाने का प्रयास किये जा रहे हैं। इन सिद्धांतकारों की राय है कि इस व्यवथा से निपटने के लिए तृतीय विश्व के विकासशील व अल्पविकसित राज्यों में संरचनात्मक बदलाव देखे जा सकते हैं। इस संदर्भ में यूरोपीय परिदृश्य में भी राजनीतिक व भौगोलिक सीमाएं पुर्नरिभाषित हो रही हैं।
सैद्धांतिक तौर पर देखा जाये तो शीतयुद्ध के बाद की व्यवस्था का विश्लेषण विभिन्नताओं का समेकन करता है। नव उदारवादी सिद्धांतकारों के अनुसार इस व्यवस्था में शांति के प्रति सजगता तथा सचेत प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। सूचना तथा प्रौद्योगिकी के पहियों पर लोकतंत्र व मुक्त बाजार व्यवस्था के प्रसार से सहयोग के नये आधारों की स्थापना हुई है। इन सिद्धांतकारों का मानना है कि वर्तमान विश्व जबकि एकमत की ओर अग्रसर है, विभिन्नताओं की ओर ध्यान दिये जाने की ओर अधिक महत्व दिया ठीक जाना नहीं। फ्रांसीस फूकीयामा ऐसे विचारों के मुख्य समर्थक हैं। फूकीयामा के अनुसार, समष्टिवाद व व्यक्तिवाद लोकतंत्र के पारस्परिक संघर्ष में लोकतंत्र की निर्विवाद जीत हुई है। इन्हीं मान्यताओं से वैश्विक राजनीति पारिभाषित, नियंत्रित व संचालित होगी। इनसिद्धांतकारों का मानना है कि यूएसएसआर के विघटन तथा पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों के पतन से एक नवीन युग का प्रारंभ हुआ है, जिसके तहत विश्व में निर्विवाद रूप से पूंजीवादी लोकतांत्रिक उदारवादी मान्यताओं को बल मिला है तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया से इन आदर्शों और मूल्यों को और अधिक बल मिला है।
नव यथार्थवादी सिद्धांतकारों ने शीतयुद्धोत्तर की व्यवस्था को अपने दृष्टिकोण से विश्लेषित करने की कोशिश की है। नव यथार्थवादियों के अनुसार शीततयुद्ध के बाद की व्यवस्था में गतिरोध, संघर्ष व अराजकता के तत्व विद्यमान हैं। जॉन मैरासाइमर का मानना है कि शीतयुद्ध का शांतिपूर्ण आकलन इतिहास का गलत आकलन साबित हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि संभवतः नाभिकीय अवरोधों के कारण शीतयुद्ध के दौरान अंतरराष्ट्रीय स्थायित्व स्थापित हुआ, परंतु शीतयुद्धोत्तर विश्व में नाभिकीय प्रसार की समस्याएं, नयी जटिलताओं को प्रस्तुत कर रही हैं। जॉन मैराइसरमर नवीन व्यवस्था में एकीकृत जर्मनी का संशय के दृष्टिकोण से देखते हैं, और शक्तिशाली व प्रभावशाली जर्मनी के प्रति आशंकित होते हैं। राबर्ट कैप्लान जैसे सिद्धांतकारों का मानना है कि वस्तुतः शीतयुद्ध का मुख्य लक्ष्य तृतीय विश्व के विकासशील व अल्पविकसित देशों के खनिज पदार्थों व अन्य संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए शुरू हुआ था। वर्तमान शीतयुद्धोत्तर विश्व में भी विकसित देशों के द्वारा यह प्रयास निरंतर जारी हैं। यद्यपि अब इसके लिए नवीन साधनों और तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है। विकसित राज्य तकनीक संपन्न राज्य हैं जबकि विकासशील व अल्पविकसित राज्य आज भी तकनीकी रूप से पिछड़े हैं। शीतयुद्धोत्तर विश्व व्यवस्था में भी विकसित राज्यों द्वारा विकासशील राज्यों को तकनीक प्राप्ति न करने देने की कोशिशें जारी हैं। डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत बौद्धिक संपदा अधिकारों के द्वारा तकनीकी हस्तांतरण पर प्रतिबंध इन विचारों की पुष्टि करता है। इसके साथ ही इस संगठन के अंतर्गत सभी सदस्य राज्यों को समतलता के स्तर पर देखा जाना तथा विकासशील देशों के प्रति इस प्रकार की प्रवृत्तियों का पाया जाना, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के विकसित देशों की ओर झुके होने की प्रवृत्ति को ही दर्शाता है। यद्यपि कुछ सिद्धांतकार शीतयुद्धोत्तर विश्व में पारंपरिक युद्ध होने की संभावना से तो इंकार करते हैं परंतु सामाजिक व सांस्कृतिक संघर्षों के तीव्र होने की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करते हैं। इन सिद्धांतकारों के अनुसार शीतयुद्धोत्तर विश्व में असुरक्षा, भय इत्यादि के प्रजातीय, भाषायी व धार्मिक आधारों पर संभावनाओं के प्रबल होने से इंकार नहीं किया जा सकता है।
परिवर्तनवादियों के अनुसार भी शीतयुद्धोत्तर विश्व में शक्तिशाली, प्रभावशाली व समृद्ध राज्य अविकसित राज्यों का शोषण कर रहे हैं तथा उनके अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे हैं। इसके लिए मुख्यतः अमेरिका को उत्तरदायी मानते हैं, जो कि लोकतंत्र और मानव अधिकारों का सहारा लेकर अपने स्वार्थसिद्धि को पूरा करने में संलग्न है। सामरिक दृष्टिकोण से भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अस्थायित्व तथा असुरक्षा के भाव नजर आते हैं। यूरोपीय परिदृश्य में रूस की उपेक्षा भूराजनीतिक कारणों से नहीं की जा सकती। प्रशांत रिम तथा यूरोप के मध्य एक सेतु तथा एक ऐसे राज्य के रूप में जिसकी सीमाओं पर चीन व भारत जैसे दो वृहद राज्य अब स्थित हो। वह नये व उनके सहयोग से विश्व व्यवस्था को चुनौती प्रदान करने में सक्षम है।
वैचारिकता के द्वंद्व की समाप्ति अर्थात् पूर्व-पश्चिम के वैचारिक दृष्टिकोण के संघर्ष का अंत मान भी लें, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि इससे उत्तर-दक्षिण संघर्षों की भी समाप्ति हो गई है। शीतयुद्धोत्तर विश्व में इसके विपरीत विकसित व विकासशील राज्यों के मतभेद विकट स्वरूप प्राप्त करते जा रहे हैं। डब्ल्यूटीओ तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठ रहे विवाद इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि विकासशील देश अब एकजुट होकर विकसित देशों के मत को चुनौती देने का प्रयास कर रहे हैं। चीन व जापान के उदय से अमेरिका के वित्तीय व राजनीतिक प्रभावों की चुनौती मिलने की संभावना बढ़ रही है। यह बहुध्रुवीय व्यवस्था का द्योतक कहा जा सकता है परंतु बहुध्रुवीय व्यवस्था में निष्ठाओं के पारिभाषित न होने के कारण असुरक्षा के भावों के बने रहने की संभावना बनी रहती है। बहुध्रुवीय व्यवस्था अमेरिका के लिए भी विस्मय का प्रश्न है, क्योंकि अमेरिका को बहुध्रुवीय व्यवस्था में नेतृत्व का अनुभव प्राप्त नहीं है, न ही वह इस व्यवस्था के निर्देशन में सक्षम है, न ही वह इस स्थिति में अलगावादी नीतियों का वरण कर सकता है अर्थात् वैश्विक शक्ति की विवशता शीतयुद्धोत्तर विश्व की अराजकता की पुष्टि करता है।
Question : "समसामायिक वार्तालाप में विकास की विमाएं केवल आर्थिक के मुकाबले ज्यादा बड़ी हैं।" इस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
(2007)
Answer : विकास से तात्पर्य मात्र आर्थिक विकास से न लगाकर राजनीति क्षेत्र में इसका तात्पर्य राजनीतिक विकास से लगाया जाता है। इस विषय के प्रारंभिक लेखकों में ल्यूसियन पाई वह व्यक्ति था जिसने राजनीतिक विकास की संकल्पना का सबसे अधिक गहराई के साथ विश्लेषण किया है। उसके अनुसार राजनीतिक विकास का अर्थ सांस्कृतिक प्रसार और जीवन के पुराने प्रतिमानों को नयी मांगों के साथ अनुकूलित, संबंधित और समायोजित करना था। राजनीतिक विकास की दिशा में पहला कदम राष्ट्रवाद पर आधारित राजव्यवस्था का विकास करना था। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास को विभिन्न अर्थों में देखा गया हैः
1. प्रत्येक राष्ट्र में समाज का आधारभूत ढांचा पाया जाता है। जिसमें असमानतायें, गरीबी, असंतोष, जीवन का निम्नस्तर इत्यादि पाया जाता है। राजनीतिक विकास में आर्थिक विकास की पूर्व शर्त के रूप में इसलिए भी माना जाता है कि राजनीतिक व्यवस्था आर्थिक उन्नति के लिए सतत प्रयास करती है। राजनीतिक तंत्र, आर्थिक विकास करने में सक्षम है। समाज में बुनियादी आवश्यकताएं, जीवन स्तर में सुधार, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना, आर्थिक समानता स्थापित करना, आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार माना जाता है।
2. आज का युग तकनीक और विज्ञान का युग है। औद्योगिक क्रांति के बाद से औद्योगीकरण की प्रक्रिया तेजी से विकसित होती जा रही है। प्रत्येक राष्ट्र में औद्योगिक समाज पाया जाता है। इस औद्योगिक समाज के पास विकास के संसाधन होते हैं। इन साधनों के माध्यम से औद्योगीकरण के लिए प्रयास किये जाते हैं, तथा राजनीतिक तंत्र के साथ जुड़कर उत्पन्न की गई वस्तुओं का लाभ, उपयोग जनसाधारण के लिए अधिक-से-अधिक मात्रा में उपलब्ध कराती है। औद्योगिक घराने राजनीति में और शासन व्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, इसलिए देश के विकास संबंधी जो असमानताएं उत्पन्न हो जाती हैं, उनको राजनीतिक व्यवस्था द्वारा हल करने का प्रयास किया जाता है।
3. आधुनिकीकरण की दिशा में चलना राजनीतिक विकास का अंतिम लक्ष्य माना जा सकता है। कुछ राष्ट्रों में राजनीतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में जनता की सहभागिता अधिक पायी जाती है। शासन तंत्र जनसाधारण का और राष्ट्र का आधुनिकीकरण करने के लिए तत्पर रहता है, ऐसे राष्ट्रों में आधुनिकीकरण की स्थिति मजबूत पाई जाती है।
4. राज्य में अनेकों जातियां पाई जाती है। भिन्न-भिन्न जातियों में भाषा की विभिन्नताएं भी पायी जाती हैं। नागरिकों का रहन-सहन भिन्न-भिन्न प्रकार का पाया जाता है। आधुनिक समय में राजनीतिक विकास के अंतर्गत जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति इत्यादि को राज्य के निर्माण में सहायक माना जाता है। राष्ट्रीय राज्य एकता, अखंडता और सुरक्षा से संबंधित है। राष्ट्रीय राज्य में संकीर्ण भावनाओं को समाप्त कर राष्ट्रीय भावनाओं की स्थापना, राजनीतिक विकास का मुख्य लक्षण है। मानवता, सद्भावना मित्रता और सांस्कृतिक संबंधों की स्थापना के लिए अनेकता में एकता तथा विश्व सरकार, विश्व राज्य, विश्व मानव समुदाय के रूप में एक-दूसरे राष्ट्रों के नागरिकों को अंतरराष्ट्रीयता के सूत्र में बांधने का नाम राजनीतिक विकास है।
5. जब राष्ट्र का निर्माण होता है और राजनीतिक विकास की प्रक्रिया शुरू होती है तब शासन तंत्र को प्रभावशाली प्रशासन की अत्यंत आवश्यकता होती है। प्रशासन में लगे हुए लोगों को नौकरशाही के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रशासन प्रभावशाली होगा तो शासन की विकास संबंधी सभी योजनाएं आसनी से लक्ष्यों को प्राप्त करेगी। प्रशासनिक गुण दक्षता के कारण राजनीतिज्ञों से लोक सेवक राजनीतिक विकास में अधिक शक्तिशाली पाये जाते हैं। कानून बनाना और लागू करना शासन की वैधानिकता को दर्शाता है। जैसे-जैसे राजनीतिक विकास होता चला जायेगा, वैसे-वैसे राष्ट्र में वैधानिक प्रक्रिया स्थिर और मजबूत होती जायेगी।
6. राजनीतिक विकास जनसाधारण को शासनतंत्र में अधिक से अधिक सहभागिता लेने के लिए अवसर उपलब्ध करवाता है। जितनी ज्यादा जनता की सहभागिता होगी, उतना ही राजनीतिक विकास संभव होगा। शासन तंत्रों के कार्यों में यद्यपि जनसाधारण बाधाएं उत्पन्न करता है लेकिन राजनीतिक विकास में जनसाधारण सहयोग भी करने लगता है। जनसाधारण में शासन की आस्थाएं मजबूत बनती चली जाती हैं जिन देशों में राजनीतिक तंत्र सर्वाधिकारवादी अवसरवादिता को जन्म देता है। राजनीतिक विकास राष्ट्रीय राजनीति में निगरानी रखने का कार्य करना चाहता है।
7. शासन तंत्र जब लोकतंत्र की स्थापना करता है तब लोकतंत्र की संस्थाओं, संरचनाओं, क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का निर्माण भी होता है। लोकतंत्र जनता का अपना शासन माना जाता है। लोकतंत्र के सिद्धांत, मूल्य, आस्था, परंपराओं और आदर्शों के लिए शासन व्यवस्था में समानता, स्वतंत्रता और न्याय की स्थापना करने के लिए लोकतंत्र में सैद्धांतिक लोकतंत्र की स्थापना की जाती है, लेकिन व्यवहार में सीमित लोकतंत्र की स्थापना की जाती है। कालांतर में लोकतंत्र परिपक्व हो जाता है। सार्वजनीकरण बड़े पैमाने पर पाया जाता है। लोकतंत्र मानवीय व्यवहार में होना चाहिए तभी राजनीतिक विकास सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र एवं आर्थिक लोकतंत्र दोनों में समानता स्थापित करने का राजनीतिक विकास प्रयास करता है।
8. प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में विकास धीमी गति से चलता है। धीरे-धीरे परिवर्तन होने से विकास में तीव्रता आती है। विकास और परिवर्तन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां विकास की आवश्यकता होती है वहां परिवर्तन अवश्य होता है। परिवर्तन के बिना विकास संभव नहीं है। राष्ट्र में जिस क्षेत्र में राजनीतिक विकास किया जाता है उस क्षेत्र में स्थायी विकास और व्यवस्थित विकास योजनागत तरीके से करने का प्रयास किया जाता है। क्रमानुसार किया गया विकास, स्थायी विकास और व्यवस्थित विकास भी इसी तरह सही दिशा में ले जाने के लिए प्रयास करता है। समाज की सामाजिक स्थिति और आर्थिक स्थिति दोनों स्थायी और अवस्थित विकास के लिए अनिवार्य मानी जाती है।
9. राजनीतिक विकास जब विकास की दिशा में अग्रसर होगा तब दूसरे होने वाले प्रभावों पर इसका प्रभाव पडे़गा। प्रभाव शक्ति के बिना नहीं पड़ सकता इसलिए राजनीतिक विकास एक शक्ति का प्रतीक बन जाता है। इसके माध्यम से जनसाधारण में विकास की क्षमता उत्पन्न की जाती है।
10. यह बहुपक्षीय विकास की प्रक्रिया है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं पर एक साथ राजनीतिक विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। जैसे ही समाज में विकास शुरू होता है, आर्थिक प्रक्रियाओं में परिवर्तन होता है, इसके बाद में राजनीतिक क्रिया तथा प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन आता है। इसके साथ-साथ सांस्कृतिक प्रभाव पड़ने लगता है, इसलिए बहुआयामी बन जाता है। विकास का मानव जीवन के सभी पक्षों के साथ सीधा संबंध स्थापित हो जाता है।
राजनीतिक विकास की उपरोक्त विशेषताओं का वर्णन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि राजनीतिक विकास ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक राष्ट्र की राजनीतिक व्यवस्था नये प्रकार के लक्ष्यों को पाने के लिए निरंतर प्रयास करती है और अपनी राजनीति शक्ति को विकसित करते हुए प्रयासरत रहती है। इससे शासन व्यवस्थाओं की क्षमताओं में अद्भुत शक्ति का राजनीतिक विकास होता चला जाता है।