Question : नई सहस्त्रब्दी के प्रारंभ होने के समय से संयुक्त राष्ट्र (यू. एन.) की भूमिका में आए प्रमुख परिवर्तनों का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
(2007)
Answer : संयुक्त राष्ट्र संघ शब्द की रचना का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को जाता है तथा इसकी स्थापना के आरंभिक बिंदु के रूप में अटलांटिक आलेख को देखा जा सकता है। 1943 की मास्को घोषणा तथा 1944 के डम्वर्टन ओकस प्रस्तावों, 1943 याल्टा सम्मेलन इत्यादि से होते हुए 26 जनवरी, 1945 को सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन के द्वारा इसकी स्थापना की गई। परंतु सदस्य राज्यों के अनुमोदन के बाद व्यवहारिक रूप में 24 अक्टूबर, 1945 को यह स्थापित हुआ। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में महान शक्तियों की सहमति, राज्यों की वैधानिक समानता तथा वैश्विकता के अद्भुत समन्वय के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ को न्यायपूर्ण शांतिपूर्ण वैश्विक समुदाय की आशाओं का प्रतीक माना गया है। 1945 से अब तक इसकी सदस्यता में लगातार वृद्धि इसकी वैधानिकता की पुष्टि करता है। सुरक्षा, सामाजिक तथा आर्थिक विकास, मानव अधिकारों का संरक्षण यूएनओ के मुख्य उद्देश्य हैं। इसके अतिरिक्तः
मूलभूत रूप में एक सुखी, समृद्ध वैश्विक स्थिति की स्थापना तथा उसके लिए सहिष्णुता व शांति का प्रसार यूएनओ का मुख्य लक्ष्य है। इसकी व्यापकता की पुष्टि इसकी उद्देशिका में निहित है, जिसमें राज्यों के स्थान पर लोगों का उल्लेख है। साथ ही इसके अनुच्छेदों में राज्यों का भी वर्णन है, इसलिए इसके द्वारा राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता को स्वीकारा गया है।
अपनी स्थापना के लगभग 6 दशकों में यूएनओ के क्रियान्वयन के नकारात्मक तथा सकारात्मक तथ्य स्थापित होते हैं। शीतयुद्ध जहां इसकी अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति का अवरोधक बना वहीं दूसरी ओर इस दौरान कई बिंदुओं पर सकारात्मक परिणाम भी स्थापित हुए। 1950 के दशक में महासभा में शांति के लिए एकता प्रस्ताव का पारित होना इसी दिशा में संकेत कहा जा सकता है। साथ ही 1956 में मिड्ड संकट का निराकरण या फिर पनामा व स्वेज समस्याओं में परिपक्वता का परिचय इसके सकारात्मक क्रिया का बोध कराते हैं। अफ्रीकी राज्यों की प्रजातीय समस्याओं निशस्त्रीकरण को समर्थन, उपनिवेशवाद की समाप्ति, तृतीय विश्व में विकास की आवश्यकता, मानव मर्यादाओं का संरक्षण तथा उसके लिए युद्धों में मानवीय हस्तक्षेप, जैसे अन्य बिंदु यूएनओ की सार्थकता का बोध कराते हैं। परंतु सच यह भी है कि कई मुद्दों पर वैचारिक द्वंद्व के कारण, अपर्याप्त कोष तथा राज्यों के पारस्परिक भिन्नताओं के कारण यह कई कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका है। सुरक्षा परिषद में 1945-90 की अवधि में 193 बार महाशक्तियों द्वारा निषेधाधिकार का प्रयोग इसकी पुष्टि करता है। यूएनओ के कार्यों का आकलन दो आधारों पर किया जा सकता हैः
जहां पहले आधार पर नकारात्मक व सकारात्मक दृष्टिकोण की स्थापना की गयी है, वहीं दूसरे आधार में शीतयुद्धोत्तर विश्व में यूएनओ की सार्थकता की समीक्षा की जाती है। मूल्यात्मक दृष्टिकोण के अंतर्गत जो इसकी प्रासंगिकता का समर्थन करते हैं, वह इस तर्क का प्रयोग करते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध का न हो पाना अपने आप में इसकी प्रासंगिकता का वर्णन करता है, वहीं दूसरी राय में इसे अमेरिकी शक्ति का उपकरण माना जाता है। शीतयुद्धोत्तर विश्व में वैचारिक द्वंद्व की समाप्ति से शांति की अवधारणा को बल मिला तथा प्रथम खाड़ी युद्ध में सुरक्षा परिषद के अंतर्गत महाशक्तियों ने जिस तालमेल का परिचय दिया, वह अपने आप में अनोखा था। इससे वैश्विक समृद्धि के प्रति यूएनओ के नये दृष्टिकोण का परिचय भी मिला तथा इसी परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक बहुपक्षवाद की अवधारणा की स्थापना भी की गई।
परंतु शीघ्र ही इन अपेक्षाओं को धक्का तब लगा जब यूएनओ बाल्कन राज्यों में शांति बहाली के प्रयत्नों में सफल नहीं हो सका। साथ ही प्रजातीय हिंसाओं में अप्रत्याशित वृद्धि तथा यूएनओ की इन पर नियंत्रण न करवाने की विफलता ने इसके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। द्वितीय खाड़ी युद्ध मैं जिस प्रकार सुरक्षा पदिषद की अनदेखी की गई तथा मुद्राकोष व डब्ल्यूटीओ में जैसे गतिरोध उत्पन्न हो रहे हैं, उनसे भी यूएनओ के प्रति एक नकारात्मक दृष्टिकोण को ही बल मिला है।
यूएनओ के प्रति नकारात्मक भाव की स्थापना उसके कार्य पद्धति के कारण है। वर्तमान में यूएनओ असंख्य समितियों, परिषदों, आयोगों, संस्थाओं, कार्यालयों, केंद्रों इत्यादि का एक शिथिल संघ बनकर रह गया है, जिससे न तो अंतरराष्ट्रीयता का संवर्धन होता है और न ही राज्यों के मध्य विसंगतियों की समाप्ति। यह सच है कि विकासशील राज्यों के द्वारा दबाव गुटों के निर्माण से उसकी समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान तो मिली है परंतु इनसे विभाजक प्रवृत्तियां भी संवर्धित हुई हैं। विश्लेषकों की राय में इससे यूएनओ के प्रभाव की बजाय अमेरिकी प्रभुत्व को ही बल मिला है। इन विश्लेषकों की राय यह है कि कम-से-कम शीतयुद्ध के दौरान कई मौकों पर यथा चीन की मान्यता के प्रश्न पर, फिलीस्तीन को स्थाई पर्यवेक्षक बनाने के प्रश्न पर या फिर यहूदीवाद को प्रजातिवाद के रूप में परिभाषित करने के प्रश्न पर या ग्रनेडा के प्रश्न पर अमेरिकी विरोध के बावजूद प्रस्ताव पारित किये गये। परंतु शीतयुद्धोत्तर विश्व में इस प्रकार के अवसर नहीं देखे जा सकते। अनुदानों की ओट में शक्तिशाली या विकसित राज्य यूएनओ की क्रियाओं पर नियंत्रण रखते हैं।
लोकतांत्रिक घाटे के अंतर्गत सभी क्षेत्रों का पूर्ण प्रतिनिधित्व न हो पाना भी इसकी सार्थकता पर प्रश्न उठाता है। एक स्थायी सेना का अभाव, महासचिव की शक्तिहीनता, आकस्मिक घटनाओं से निपटने के लिए उपयुक्त संरचनाओं का अभाव इत्यादि ऐसी समस्याएं इसके क्रियान्वयन को सीमित करती हैं। आज भी सुरक्षा परिषद में निषेधाधिकारों का प्रयोग जारी है। मध्य पूर्व की समस्या ज्यों की त्यों बनी है। न ही गरीबी तथा अशिक्षा पर विजय प्राप्त किया जा सका है। व्यापक विनाशक शास्त्रों का अधिक्य, परमाणु अप्रसार पर मतैक्य का अभाव तथा पर्यावरणीय समस्याओं पर मतैक्य न बनने के कारण भी संगठन पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। सबसे बढ़कर आतंकवाद के निराकरण के लिए न ही कोई नयी संरचना का विकास किया गया है और न ही उसके लिए राज्यों की सामूहिक प्रतिबद्धता का कोई परिचय मिल सका है।
इन समस्याओं के आलोक में यूएनओ में सुधारों की अपेक्षा की जाती है जिनके दो आधार हैः
1990 के दशक में यूएनओ ने राज्य स्तरीय विशिष्ट सुधारों के अंतर्गत नयी परियोजनाओं की स्थापना की है तथा इसी दिशा में यूएनडीपी कार्यक्रमों की स्थापना तथा उसके संयोजकों की नियुक्ति भी की गई है। संगठनात्मक स्तर पर एक ओर सामाजिक आर्थिक परिषद के नवक्रियात्मक आयोगों के दायित्वों का पुनर्विलोकन किया गया है, साथ ही कोफी अन्नान के वित्तीय अनुशासनों की सिफारिशों तथा महासभा तथा सुरक्षा परिषद की अनुशंसाओं को भी बाध्यकारी बनाने का प्रस्ताव सम्मिलित है।
बुतरस-बुतरस घाली तथा विरेन्द्र दयाल के शांति के प्रस्तावों के अंतर्गत चार भूमिकाएं पारिभाषित की गई हैं- निवारण कूटनीति, शांति निर्माण, शांति स्थापना तथा शांति बहाली।
वित्तीय अनुशासन के अंतर्गत बजटीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए कई नियुक्तियों पर रोक लगाया गया है तथा विशिष्ट अभिकरणों के उद्देश्यों को भी पुनर्पारिभाषित किया गया है। 2004 में इन्हीं तर्कों के मद्देनजर तथा 2000 में स्थापित सहस्त्रावधि विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक सुधार समिति का गठन किया गया, जिसकी अनुशंसाओं से बहुपशवाद को एक नया आधार मिला है तथा इसके अंतर्गत इस बात पर बल दिया गया कि वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्रों में व्यापक निर्धनता, बीमारी तथा आतंकवाद जैसी समस्याओं के त्वरित निराकरण की आवश्यकता है। इस तरह से कहा जा सकता है कि यूएनओ मानवीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। राज्यों की सहमति तथा सुदृढ़ भविष्य के निर्माण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का यह उदाहरण है। वर्तमान में इसे व्यावहारिक बनाने के लिए कई सुधारों की आवश्यकता है तथा प्रजातांत्रिक कोष तथा यूएनएफईसी इत्यादि जैसी अवधारणाओं पर राज्यों के मध्य सहमति देखी जा सकती है। हाल ही में आयल फॉर फूड कार्यक्रमों में हुई गड़बडि़यों के कारण संस्था की छवि पर चोट भी पहुंची है। परंतु यह भी सच है कि वर्तमान भू-राजनीतिक आवश्यकताओं से व वैश्विक चुनौतियों से सामूहिक प्रयत्नों के द्वारा ही निपटा जा सकता है तथा इस दिशा में इस वैश्विक संगठन की चिरकालिक प्रासंगिकता है।Question : भू-राजनीति की परिभाषा दीजिए और आधुनिक नाभिकीय युग में भी इसके प्रचलन के कारण बताइए।
(2007)
Answer : भूराजनीति की अवधारणा आधुनिक नाभिकीय युग में एक बार पुनः प्रासंगिक हो गई है तथा सिद्धांतकारों द्वारा इसे पुनर्पारिभाषित करने का प्रयत्न जारी है। पॉल कैनेडी, ब्रेजेंस्की, माइकल स्ट्मर, शुल्ज, जैसे समसामयिक सिद्धांतकारों ने भूराजनीति को अपने विश्लेषणों का केंद्र बिंदु- बनाया है। मेंकाइडर ने अपने वक्ष स्थल सिद्धांत के अंतर्गत यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि यूरोप और एशिया अर्थात् यूरेशिया पर जिस भी शक्ति का नियंत्रण होगा, वही विश्व की प्रभावी शक्ति होगी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में भू-राजनीति को सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रें के नियंत्रण की परियोजना के रूप में देखा जा सकता है इसी परियोजना के अंतर्गत भूतपूर्व सोवियत संघ व अमेरिका ने अलग-अलग क्षेत्रें में सैन्य संधियों के आधार पर अपने विरोधी राज्यों को संतुलित करने का प्रयत्न किया। वस्तुतः शीतयुद्ध के गतिरोध उन्हीं क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं, जिनका सामरिक महत्त्व था। शीतयुद्धोत्तर विश्व में भू राजनीति को एक बार फिर से नस्लवादी व प्रजातीय विचारों के दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। 1990 के दशक में, सोवियत संघ के विघटन से विश्व शांति की अपेक्षा नाभिकीय शक्तियों की संख्या में वृद्धि ही हुई है। ऐसी स्थिति में भू-राजनीति की महत्ता और भी बढ़ी है और इस विचार को बल मिला है कि किसी निश्चित भूखंड पर किसी विशेष प्रजाति के लोगों को ही रहने का अधिकार है। इन भावनाओं का प्रतिकूल प्रभाव न सिर्फ राज्यों के पारस्परिक संबंधों पर देखा जा सकता है, बल्कि इससे राज्यों की आंतरिक व्यवस्थायें भी प्रभावित हुई है, तथा उनमें असुरक्षा के स्पष्ट भाव देखे जा सकते हैं।
समकालिक अन्तराष्ट्रीय व्यवस्था में एक बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण की कोशिश भी भू-राजनीति को प्रेरित करती है। कुछ विद्वानों के अनुसार अमेरिकी वर्चस्व आज एक मौलिक व भूराजनैतिक तथ्य है, परंतु यह वर्चस्व क्षणिक है तथा इसे चुनौती अवश्य मिलेगी। क्षेत्रीय एकीकरण की अवधारणा के अंतर्गत अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश की जा रही है। इस संदर्भ में बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था की स्थापना के प्रयत्न की भू-राजनीति के प्रश्न ही माने जाने लगे हैं।
Question : "अफगान गृह युद्धय् ने यू. एस. को दक्षिण एशिया में दीर्घकाल से प्रतीक्षित एक शक्ति-बढ़त प्रदान कर दी थी।
(2007)
Answer : 1978 में अफगानिस्तान में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान की स्थापना की गई। जहीरशाह की सत्ता पलट व मुहम्मद दाउद की सत्ता प्राप्ति। सोवियत संघ द्वारा समर्पित नूर मुहम्मद तराकी द्वारा राष्ट्रपति पद की प्राप्ति, साम्यवादी शासन के विरोध में विभिन्न प्रजातीय गुटों के द्वारा इस्लामिक आंदोलन की स्थापना 1979 में तराकी की मृत्यु, बरबराक करमाल द्वारा साम्यवादी प्रवृत्तियों की प्रति झुकाव तथा सोवियत संघ को प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का निमंत्रण देना। इस हस्तक्षेप के विरोध में स्थानीय प्रजातियों द्वारा मुजाहिदीन की स्थापना की गई। नव शीत युद्ध की स्थापना तथा सोवियत हस्तक्षेपों के विरोध में अमेरिका, इंग्लैंड, पाकिस्तान, चीन, सउदी अरब व ईरान द्वारा मुजाहिदीनों को आर्थिक व सैन्य सहायता दिया जाना। सोवियत संघ का आंतरिक विघटन तथा 1988 में जेनेवा समझौता के अंतर्गत सोवियत संघ की सेना की वापसी। सोवियत सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान में प्रजातीय गुटों के द्वारा तालिबान का समर्थन तथा 1996 में राष्ट्रपति नजीबुल्ला की हत्या, 9/11 के बाद तालिबान के विरूद्ध तथा आतंकवाद के विरूद्ध अमेरिकी नेतृत्व में कार्रवाई तथा संयुक्त सेना का गठन, संयुक्त सेना द्वारा ‘नार्दन एलायंस’ को समर्थन, 25 नवंबर, 2001 काबुल पर नार्दन एलायंस का नियंत्रण, 2002 में बान सम्मेलन, जहीर शाह की वापसी तथा सभी प्रजातीय समूहों की भागीदारी के अंतर्गत हामिद करजई के नेतृत्व में अंतरिम सरकार की स्थापना।
अफगान गृहयुद्ध के विश्लेषण से अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के संचालन व अध्ययन में नये तत्वों की समाविष्ट हुई है। इस गुहयुद्ध से जहां एक ओर यह स्पष्ट है कि प्रजातीयवादी राजनीति के अत्यंतिक स्वरूप की प्राप्ति वैश्विक सुरक्षा के आधारों को प्रभावित करती है, दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि अविकसित समाजों में स्थायित्व के नाम पर किये गये वाह्य हस्तक्षेपों से समाज में प्रतिरोधवादी प्रवृत्तियों का उद्भव होता है, जो कालांतर में वैश्विक स्वरूप प्राप्त कर सकती है।
इसी विचार के अर्तगत यह माना जा रहा है कि अमेरिका ने सोवियत संघ के विघटन के पश्चात दक्षिण एशिया में बहुप्रतीक्षित शक्ति बढ़त को प्राप्त कर लिया है।
अफगानिस्तान को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेकर जहां अमेरिका दक्षिण एशिया पर नजर रख सकता है, वही मध्यपूर्व के इस्लामी राज्यों पर भी प्रभावी भूमिका की स्थापना कर सकता है।