Question : ‘प्रभुत्वात्मक स्थायित्व’ की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
(2008)
Answer : 1991 में सोवियत संघ के विघटन से साम्यवाद का पतन, सं. रा. अमेरिका एक नवीन चुनौती के रूप में स्थापित हुआ। इस घटना से संपूर्ण विश्व में यूएस को चुनौती प्रदान करने वाला कोई राष्ट्र नहीं बचा। कई साम्यवादी राष्ट्र अस्तित्व में बने रहे, लेकिन ये यूएस के लिए चुनौती नहीं रहे। यूएसएसआर का उत्तराधिकारी रूस का उभरना भी यूएस के लिए कोई चुनौती प्रदान नहीं कर सका। वैश्विक स्तर पर उदारवादी प्रजातंत्र और पूंजीवाद की ओर उन्मुखता बढ़ी।
इस प्रवृत्तियों का विकास, यूएस की नीतियों के सैद्धांतिक पक्ष के अनुरूप भी था। यूएस वस्तुतः इन्हीं प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। इस तरह से यूएस द्वारा प्रभुत्वात्मक स्थायित्व की संकल्पना को ग्रहण किया जाना, 1991 के पश्चात, यूएस की विदेश नीति में तीन स्पष्ट पक्ष देखे जा सकते हैं, ये हैं- आर्थिक नेतृत्व की स्थापना, सैन्य शक्ति का सशक्तीकरण और गतिशीलता तथा विश्व भर में प्रजातंत्र का प्रसार। 1991 के पश्चात् विभिन्न अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने इन तीन पक्षों को बल प्रदान करने का दृष्टिकोण दर्शाया है। बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश इत्यादि की नीतियों में यह स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। यूएस नीतियों का तृतीय पक्ष अन्य नीतियों को वैधता प्रदान करने का कार्य करता है। इस प्रकार की विदेश नीति के अनुसरण के माध्यम से यूएस ने स्वयं के प्रभुत्व को बल प्रदान किया है। यूएनएससी में यूएस की भूमिका और उसके बढ़ते प्रभाव ने स्वयं को विश्व के प्रहरी के रूप में स्थापित किया है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ, डब्ल्यूबी के माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार किया है।
इसके माध्यम से वह तृतीय विश्व के राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करने का प्रयास करता है। क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों के माध्यम से यूएस का जुड़ना वास्तव में यूएस द्वारा अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयास है जैसे- नाफ्रटा, एपिक, जी-8। शीतयुद्धोत्तर काल में भी नाटो का विस्तार करना और पूर्वी यूरोप के क्षेत्रों को इसमें सम्मिलित किया जाना। इसके अलावा यूरोप के बाहर के क्षेत्रों को भी नाटो के माध्यम से प्राप्त करना। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोषारोपण की नीति को लागू करना और उसके माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार करना। आतंकवाद के मुद्दे के माध्यम से भी विश्व पर प्रभाव डालना। इसके अलावा सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र में भी यूएस के प्रभुत्व की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।
Question : "पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों में, उनके देशीय विक्षोभ अक्सर भारत की विदेश नीति के तनाव बन जाते हैं।" उदाहरण प्रस्तुत करते हुए चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों में उनके देशीय विक्षोभ अक्सर भारत की विदेश नीति के तनाव बन जाते हैं। इसी संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि भारत के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती पड़ोसियों के बिगड़े तेवर सुधारने की है। विदेश नीति के अंतर्गत उन लक्ष्यों का समाकलन किया जाता है जिनकी प्राप्ति राज्य दूसरे राज्यों के सापेक्ष प्राप्त करना चाहते हैं और इस संदर्भ में भारत के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह विदेश नीति निर्धारण में उन तत्वों को भी समाकलित करने की कोशिश करे जो उसके पड़ोसी राज्यों में विक्षोभ उत्पन्न करने में प्रमुख कारक के रूप में उपस्थित होते हैं।
चीन से संबंधों के सामान्यीकरण का दारोमदार सीमा विवाद के हल पर अधिक निर्भर है। पाकिस्तानी परमाणविक कार्यक्रम चिंता का मामला है। इसे विडम्बना ही समझा जा सकता है कि आज पाकिस्तान और बांग्लादेश के पारस्परिक संबंध भारत-बांग्लादेश संबंधों की अपेक्षा मधुर है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर छोटी-मोटी झड़पें पिछले 20 वर्षों से भी अधिक समय से होती रही है।
चीन और भारत दोनों यूरोपीय उपनिवेशवाद के शिकार रहे थे। चीन में 1949 की क्रांति ने एक नये जनवादी लोकतंत्र को जन्म दिया, जिसे शीघ्र ही भारत ने मान्यता प्रदान कर दी। भारत ने अमेरिका द्वारा निरंतर निषेधाधिकार के प्रयोग के बावजूद चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व दिलवाने के लिए दो दशक तक प्रयास किये।
इस बीच 1954 में चीन और भारत ने वाणिज्य और व्यापार संधि के साथ ही पंचशील के प्रसिद्ध सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। चीन द्वारा तिब्बत पर पूर्ण अधिकार करने के विरोध में दलाई लामा ने भारत में शरण ली। चीन इससे क्रोधित हुआ, पंचशील के विरुद्ध उसने भारत की प्रादेशिक अखंडता को चुनौती दी और 1962 में भारत के साथ युद्ध करके उसे अपमानित किया।
भारत की पराजय से प्रोत्साहित होकर पाकिस्तान ने भारत से युद्ध के द्वारा कश्मीर छीनने की योजना बनाई। इस षड्यंत्र में चीन और अमेरिका दोनों ने पाकिस्तान की सहायता की। न केवल 1965 के भारत-पाक युद्ध में, बल्कि 1971 के युद्ध में भी चीन ने पाकिस्तान का साथ दिया। भारत और चीन के मध्य 1962 से ही राजदूत स्तर के संबंध निलम्बित रहे थे। इंदिरा सरकार ने 1976 में भारत-चीन संबंध सामान्य बनाने की पहल की और राजदूत स्तर पर संबंध स्थापित किये। परंतु सीमा विवाद को सुलझाया नहीं जा सका। अंततः डैग जियाओ पिंग के सुझाव पर दोनों देशों ने सीमा विवाद पर कोई बातचीन न करके, अन्य क्षेत्रों में संबंध सुधारने के प्रयास आरंभ किये। वाजपेयी और राजीव गांधी की यात्राओं ने संबंध सामान्य बनाने की दिशा में योगदान दिया। चीन और भारत के बीच 1991 से अनेक ऐसे कदम उठाये गये, जिन्होंने 1996 के अंत में विश्वास स्थापित करने वाले उपायों के संबंध में एक समझौता संभव बनाया।
वर्तमान संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि दोनों ही देश अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में विशेषकर दक्षिण एशिया में नेतृत्व की भूमिका को निभाने के लिए उत्सुक हैं तथा विश्व में उभरती नवीन आर्थिक शक्ति के रूप में पहचाने गये हैं। इस संदर्भ में विवादों को क्रमिक रूप से सुलझाने की ओर कृत संकल्पित हैं। भारत और पाक के संबंध 1947 से शत्रुतापूर्ण रहे हैं। पाक का जन्म मुस्लिम लीग के दो राष्ट्रों के सिद्धांत को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा मान्यता प्रदान किये जाने के कारण हुआ था। भारत और पाकिस्तान के मध्य नदियों के जल विभाजन जैसी समस्याओं को तो सुलझा लिया गया परंतु कश्मीर के प्रश्न पर पाक ने भारत से स्थायी शत्रुता मोल ले ली। भारत ने स्वतंत्र चुनाव के द्वारा गठित कश्मीर की विधानसभा के माध्यम से विलय का अनुमोदन करवा लिया। पाक ने अमरीकी सैनिक सहायता और सैनिक गठबंधनों की सदस्यता स्वीकार की और भारत के विरोधी चीन से मित्रता की। 1965 में भारत की सेनाओं ने पाक को पराजित किया। ताशकंद समझौते से दोनों देशों ने अपनी सेनाओं को युद्धपूर्व की स्थिति में वापस बुला लिया। पुनः 1971 में एक निर्णायक युद्ध हुआ। पाक की सेना ने पूर्व क्षेत्र में भारत के समक्ष आत्मसमर्पण किया और स्वतंत्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। शिमला समझौते के द्वारा भारत और पाक ने पारस्परिक वार्ता से सभी द्विपक्षीय प्रश्नों के समाधान का निर्णय लिया, परंतु कश्मीर के प्रश्न पर कोई प्रगति नहीं हुई और पाक निरंतर इस प्रश्न का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की चेष्टा करता रहा है। कारगिल की घटना के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में फिर खटास देखी गई। वर्तमान में दोनों के बीच शांति प्रक्रिया को पुनः शुरू किया गया है।
भारत और नेपाल में सांस्कृतिक समानता के बावजूद समय-समय पर मतभेद उत्पन्न होते रहे हैं। चीन ने नेपाल को अपने प्रभाव में लेने के कई प्रयास किए, परंतु भारत ने नेपाल को निरंतर आर्थिक और तकनीकी सहायता देकर वहां सड़कों के निर्माण और पानी बिजली के विकास में सहायता और सहयोग देकर मित्रतापूर्ण संबंध बनाये रखने की चेष्टा की।
वर्तमान समय में मार्क्सवादी दल के नेतृत्व वाली सरकार के साथ भी भारत ने संबंधों को मधुर बनाने की नीति को प्रश्रय दिया है।
बांग्लादेश के जन्म में भारत का प्रमुख योगदान रहा था। बांग्लादेश की 1971 में स्थापना के बाद 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या तक, भारत बांग्लादेशी संबंध मधुर रहे। उसके पश्चात धर्म के नाम पर पाक ने बांग्लादेश में भारत विरोधी वातावरण बना दिया। दोनों देशों के बीच प्राकृतिक सीमा न होने के कारण, बांग्लादेश से काफी संख्या में रोजगार की तलाश में बांग्लादेशी नागरिक भारत में अवैध रूप से आते रहे हैं, जिसके कारण भारत की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। दोनों देशों के मध्य तीन बीघा नामक सीमावर्ती प्रदेश तथा बांगाल की खाड़ी में उभरे न्यूमूर नामक द्वीप के स्वामित्व को लेकर कुछ विवाद उत्पन्न होते रहे। परंतु मुख्य समस्या गंगा के जल के विभजन की ही रही है। भारत में फरक्का बांध से जो पानी छोड़ा जाता है, वह कमी वाले समय में दोनों देशों की पानी की आवश्यकता पूरी नहीं कर पाता। यह समस्या दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनाने के मार्ग में एक बड़ी बाधा है।
भारत और श्रीलंका के बीच लम्बे समय से ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। दोनों ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद में रहने के पश्चात् नवोदित, विकासशील, तृतीय विश्व के देश हैं। दोनों ही देशों में लोकतंत्र सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है। अतीत में भारतीय मूल के तमिल लोग समय-समय पर जाकर श्रीलंका में बस गये थे। उनसे संबंधित समस्या ने दोनों देशों के बीच जातीय प्रश्न उत्पन्न कर दिया था। दोनों देशों में शीर्ष स्तर की अनेक वार्ताएं हुईं।
1980 के दशक में तमिलों और सिंहली जातियों के बीच हिंसक दंगे भड़क उठे। तमिल मूल के लोग एक स्वतंत्र राज्य की मांग कर रहे थे, जो श्रीलंका सरकार तथा बहुसंख्यक वर्ग को स्वीकार्य नहीं थी। हिंसा को समाप्त करने के उद्देश्य से 1987 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्धन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के तहत भारत ने एक शांति बल श्रीलंका भेजा, परंतु यह बल सफल नहीं हुआ क्योंकि सिंहली बहुसंख्यकों ने इसका विरोध किया। अंत में 1990 में शांतिबल को भारत वापस बुला लिया गया।
वर्तमान समय में दोनों देशों के संबंध मधुर कहे जा सकते हैं। भारत ने म्यांमार के साथ सामान्य संबंध बनाये रखने के लिए सदा चेष्टा की है। उत्तर-पूर्व के कुछ उग्रवादी तत्वों को बर्मा के उत्तरी भागों से जो शस्त्रस्त्र प्राप्त होते रहे हैं, उनसे भारत चिंतित रहा है, यद्यपि इसमें म्यांमार सरकार का कोई हाथ नहीं है, परंतु म्यांमार (म्यांमार) के सैनिक शासकों द्वारा लोकतांत्रिक शक्तियों का दमन किया जाना भारत के लिए चिंता का विषय है।
फिर भी किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति पर चलते हुए भारत ने म्यांमार में लोकतांत्रिक दलों को किसी प्रकार से समर्थन प्रदान नहीं किया।
म्यांमार भारतीय उपमहाद्वीप, चीन तथा दक्षिण पूर्व एशिया के तिराहे पर स्थित है। सी. राजामोहन का तर्क है कि संसाधनों से भरपूर म्यांमार, एशिया के प्रति भारत की किसी भी गंभीर नीति का केंद्र बिंदु होना चाहिए। परंतु म्यांमार के प्रति भारत की विदेश नीति के निर्धारकों ने कभी भी उत्साहपूर्वक ध्यान नहीं दिया। अब समय आ गया है कि भारत म्यांमार को बढ़ते हुए महत्व की ओर ध्यान दे तथा उस देश को अपनी विदेश नीति में उच्च प्राथमिकता दे। 1990 के दशक से भारत को इस दिशा में विशेष प्रयास किये हैं।
इसके परिणामस्वरूप भारत और म्यांमार के बीच कार्यकारी सहयोग का आरंभ हुआ। वर्तमान में दोनों देशों के साथ भारत का सहयोग जारी है। भारत के उपरोक्त देशों के साथ संबंधों के विवेचन से य स्पष्ट हो जाता है कि दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति के निर्धारण में इन देशों के साथ संबंधों की विशेष भूमिका है।
Question : भारत की विदेश नीति तेजी से बदलती हुई अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की बराबरी कर सकती थी। इस पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : भारत की विदेश नीति निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के अनुरूप समयानुसार परिवर्तित करने की कोशिश करती रही है।
भारतीय विदेश नीति के तहत कभी गुट निरपेक्षता की बात की जाती है जो प्रधानमंत्री नेहरू के समय में काफी सक्रिय रही है एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन भी प्राप्त रहा, परंतु भारत के साथ चीन का युद्ध ने भारतीय विदेश नीति में परिवर्तन निहायत जरूरी कर दिया एवं भारत की सुरक्षा के विकल्प भी ढूंढने पड़े। भारत का संबंध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगभग सभी देशों के साथ अच्छा रहा है एवं भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ के क्रियाकलाप में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए हमेशा से शांति का समर्थक रहा है। परंतु कुछ आंतरिक्ष सुरक्षा के तहत भारत को परमाणु परीक्षण भी करने पड़े। यह परमाणु परीक्षण सर्वप्रथम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर 1974 में किया गया, जिससे संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में हलचल सी मच गई, परन्तु यह भारत के लिए आवश्यक था। दूसरी बार प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के समय में परमाणु परीक्षण 1998 में किया गया, जिससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी आलोचना के साथ-साथ समर्थन भी मिला। अतः सुरक्षा के दृष्टिकोण से भारत का परमाणु प्रयोग आवश्यक था, जो शायद अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के बराबरी में एक कदम के रूप में अंकित किया जा सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बराबरी के लिए एक आवश्यक कदम था, जो वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह के निर्देशन पर 1990 में कार्यान्वित किया गया। उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की नीति के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था एवं बाजार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खोल दिया गया, जिससे आज भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर अग्रगण्य स्थान प्राप्त है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था में काफी सुधार आया है एवं साथ-साथ इसका सेंसेक्स एवं सकल घरेलु उत्पाद में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होते जा रहा है। आज भारत की साफ्रटवेयर कंपनी को विश्व में नम्बर एक का माना जाता है। तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य भारत के मेधावी छात्रों का उत्तरोत्तर प्रगति एवं विकास ने समुचे तकनीकी एवं विज्ञान के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी काफी प्रगति की है।
उपरोक्त सभी तथ्यों को एक साथ जोड़कर अगर मूल्यांकन किया जाए तो इस बात से कदापि यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति से बदलती हुई अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की बराबरी नहीं करती है। इन सभी तथ्यों के कारण ही आज भारत की दावेदारी संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्यों में की जाने लगी है।
साथ ही शांति के क्षेत्र में भी भारत का योगदान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सार्थक रहा है एवं आनेवाले समय में भी भारत की विदेश नीति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बराबरी करने से नहीं चुकेगी।