Question : ‘स्वर्णिम चतुर्भुज’से क्या तात्पर्य है? उसके निष्पादन में की गई प्रगति और भारत की अर्थव्यवस्था पर उसके प्रभावों की चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : ‘स्वर्णिम चतुर्भुज योजना’ राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना का एक भाग है, जो राष्ट्रीय राजमार्गों में गुणात्मक तथा मात्रत्मक सुधार की दिशा में उठाया गया एक प्रमुख कदम है। प्रधानमंत्री (भूतपूर्व) श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सड़कों के महत्व को महसूस किया। उनकी इसी दूरदर्शितापूर्ण सोच ने राजमार्ग क्रांति की संकल्पना को जन्म दिया। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम प्रधानमंत्री की पहल पर प्रारंभ किया गया एक अति महत्वाकांक्षी एवं बड़ा कार्यक्रम है, जिसे दो चरणों में लागू किया जा रहा है। पहले चरण को स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना का नाम दिया गया है, जिसके तहत 5846 कि.मी. लंबी सड़कों को चार लेन वाली विश्वस्तरीय सड़कों में बदला जा रहा है। इसमें कोलकाता, मुंबई, चेन्नई और दिल्ली को छः गलियों (लेन) वाले परम राजमार्गों से जोड़ा जाएगा।
5846 किलोमीटर लंबाई की सड़कों वाले इस सर्किट पर 25000 करोड़ रुपये से अधिक की लागत आएगी। इस परियोजना के पूर्ण होने पर भारत के महानगरों के बीच समय दूरी काफी घट जाएगी। इनके निर्माण का दायित्व राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को सौंपा गया है। उम्मीद है कि इस परियोजना का 95% भाग दिसम्बर, 2005 तक पूरा हो जाएगा। इसे नीचे दिए गए मानचित्र में दर्शाया गया है।
निष्पादन में की गई प्रगतिः स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना को 31 दिसम्बर, 2003 तक पूरा करने का लक्ष्य था। इस समय तक इस परियोजना का कुल 5846 किलोमीटर की सड़कों में से 1490 किलोमीटर पर काम पूरा हो चुका था। शेष 4356 किलोमीटर पर काम चल रहा था। इतने बड़े स्तर के कार्य हेतु बहुत बड़ी मात्र में धन की आवश्यकता थी। आधारिक अवसंरचना के व्यावसायीकरण पर डॉ- राकेश मोहन समिति के अनुसार इस परियोजना के निर्माण एवं विकास हेतु (2001 से 2006 के बीच) 32,000 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। इसी दौरान इसके अनुरक्षण हेतु लगभग 6,000 करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अनुमान है।
यह कार्य किसी भी दशा में सरकार केवल अपने संसाधनों से पूरा नहीं कर सकती। इसके लिए निजी तथा बहुपक्षीय वित्तीयन एजेंसियों का सहयोग आवश्यक है। सड़क क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने के लिए राष्ट्रीय सड़क नीति 1997 घोषित की जा चुकी है और उसी के अनुरूप सरकार ने सड़क निर्माण के क्षेत्र में उतरने वाली निजी कंपनियों के लिए अनेक छूटों की घोषणा भी कर दी है।
राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम के पहले चरण ‘स्वर्णिम चतुर्भुज’को पूरा करने के लिए डीजल एवं पेट्रोल पर उपकर लगाकर तथा बाजारों से उधार लेकर 16846 करोड़ रुपए जुटा लिए गए हैं। 7862 करोड़ रुपए वा“य सहायता (विश्व बैंक तथा एशियाई विकास बैंक) के रूप में प्राप्त हुए हैं। निर्माण-परिचालन-हस्तांतरण व्यवस्था (BOT) के तहत 1690 करोड़ रुपए का निवेश निजी क्षेत्र कर रहा है, जबकि 2 हजार करोड़ रुपए टोल टैक्स मार्ग से प्राप्त होने हैं। 1902 करोड़ रुपए भारतीय राजमार्ग प्राधिकरण अपने स्तर पर उपलब्ध करा रहा है।
आर्थिक समीक्षा 2004-05 के अनुसार 31 जनवरी, 2005 तक 4480 कि.मी. का कार्य पूर्ण हो गया है तथा 1366 किलोमीटर अभी निर्माणाधीन है। इसे नीचे की सारणी में दर्शाया गया है।
स्वर्णिम चतुर्भुज योजना की प्रगति (31 जनवरी, 2005 की स्थिति)
मद | कुल लंबाई (कि.मी.में) |
---|---|
पूरी की गई निर्माणाधीन कुल संचयी व्यय |
4480 1366 5846 20115 करोड़ रु. |
भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभावः स्वर्णिम चतुर्भज परियोजना के पूर्ण हो जाने पर भारत के चारों महानगरों को जोड़ने वाले राजमार्ग विश्व स्तरीय हो जाएंगे। इससे यात्रियों तथा माल का परिवहन तीव्रगामी तथा सुगम हो जाएगा। हो सकता है कि परियोजना के अंतर्गत निर्मित सड़कों पुलों उपमार्गों के उपयोग हेतु वाहन चालकों को टोल टैक्स देने से परिवहन लागतें बढ़ी हुई दिखाई दें, किन्तु साफ-सुथरी गड्ढा मुक्त सड़कों पर ईंधन की कम खपत तथा वाहन अनुरक्षण व्यय की लागत में कमी आने से परिवहन की कुल वास्तविक लागत वर्तमान की तुलना में काफी कम होगी। इतना ही नहीं सड़क निर्माण की इस परियोजना का प्रभाव अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों पर भी व्यापक रूप से पड़ रहा है। इसे निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत दिखाया गया है-
(i) रोजगार सृजनः इस परियोजना से प्रति दिन लगभग 1.5 लाख कर्मचारियों (कुशल और अकुशल) को प्रत्यक्ष रोजगार प्राप्त हो रहा है। जैसे-जैसे अधिक टुकड़ों पर काम शुरू होगा ये आंकड़े काफी बढ़ जाएंगे। अप्रत्यक्ष रोजगार कई गुणा अधिक प्राप्त हो रहा है।
(ii) ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहनः भीतरी इलाकों से मुख्य बाजार केन्द्रों महानगरीय शहरों तक सीधी और तेजी से पहुंच संभव हो गई है। इससे खेतिहर पैदावार को तेजी से मंडियों में पहुंचाना आसान हो गया है तथा जल्दी खराब हो जानेवाली वस्तुओं की पहुंच के दायरे और निर्यात संभावनाओं में वृद्धि हुई है।
(iii) उद्योगों को बढ़ावाः सीमेंट, इस्पात, मोटरगाड़ी, सड़क निर्माण, पर्यटन उद्योगों को बढ़ावा मिला है। 2001-04 के दौरान सीमेंट की औसत वार्षिक खपत 25 से 40 लाख टन और इस्पात की 2-5 से 3-0 लाख टन रही है। बेहतर राजमार्गों से माल वाहकों के फेरे कम समय में पूरे हो सकेंगे तथा कई धुरों वाले अधिक कुशल ट्रकों को सड़क पर उतारने में मदद मिली है। अप्रैल-सितम्बर, 2003 में कामर्शियल वाहनों की बिक्री 32% बढ़ी है। भारतीय सड़क निर्माण कम्पनियां विश्व में कहीं भी सड़क परियोजनाएं पूरी करने में सक्षम हो जाएगीं। तेज रफ्रतार और सुविधाजनक यात्र से अधिक संख्या में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आकर्षित होंगे।
(iv) भारी राष्ट्रीय बचतः विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, स्वर्णिम चतुर्भुज के पूरे हो जाने पर ही ईंधन की बचत, वाहनों के कम घिसाव और द्रुत परिवहन आदि के कारण लगभग 8000 करोड़ रुपए सालाना की बचत होगी।
इसके अलावा सड़कों का निर्माण अत्याधुनिक तरीके से करने के लिए निर्माण कंपनियों को 5100 टिप्पलर्स, 1000 ट्रेक्टर्स, 100 ट्रांजिट मिक्सचर्स तथा 100 डीजल जेनरेटर सैटों की आवश्यकता होगी। इससे सड़क निर्माण मशीनरी उद्योग लाभांवित होगा। पुनः नवनिर्मित राजमार्गों के किनारे आवासीय बस्तियों, रेस्टोरेंटों, होटलों, ईंधन स्टेशनों, यातायात नगरों, मोटर गैराजों आदि के निर्माण से बड़ी मात्र में रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि सरकार ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के माध्यम से राष्ट्रीय राजमार्गों को विश्वस्तरीय बनाने का जो संकल्प लिया है, वो समग्र सड़क क्रांति की दिशा में एक अच्छा प्रयास है। इससे बिन्दु से बिन्दु तक तीव्रगामी परिवहन सुविधा तो विकसित होगी ही, कृषि उद्योग व्यापार का भी तेजी से विकास होगा।
Question : भारत में औपनिवेशिक पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर अवधियों के दौरान नदी जल परिवहन के विकास का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए। प्रादेशिक विकास में नदी परिवहन की भूमिका को उजागर कीजिए।
(2004)
Answer : भारत में नदी द्वारा जल परिवहन काफी प्राचीनकाल से होता आ रहा है। सिन्धु घाटी सभ्यता के समय से ही व्यापार का कार्य नदी द्वारा होता था एवं कई नगर जैसे हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल आदि नदियों के किनारे बसे हुए थे। मेगास्थनीज एवं एरियन के वर्णनों से ज्ञात होता है कि गंगा और उसकी 17 सहायक नदियां और सिन्धु और उसकी 13 सहायक नदियों में नौकाओं द्वारा परिवहन प्राचीनकाल में सम्भव रहा।
औपनिवेशिक पूर्व अवधि में पूर्व-मध्यकाल से सल्तनत काल तक नदियों-नहरों द्वारा जल परिवहन का पर्याप्त विकास हुआ। यद्यपि नौकाओं द्वारा नदी मार्ग से माल ढ़ोने का कार्य धीमी गति से होता था, तथापि व्यापारी जल मार्ग को व्यापारिक यातायात की दृष्टि से वरीयता देते थे। नदी का प्रयोग यात्री तथा व्यापारी दोनों करते थे। नौका निर्माण का उद्योग उस काल में काफी जोरों पर था क्योंकि सैनिक दस्ते भी प्रायः नौकाओं द्वारा ही नदियों को पार किया करते थे। नदी जलमार्ग की दृष्टि से पंजाब में मुख्यतः सिंधु नदी का अधिकतम उपयोग हुआ, इसका कारण यह था कि सिंधु नदी अंततः अरब सागर जुड़ी थी जिसके रास्ते आगरा तक मार्ग प्रायः नदियों द्वारा ही तय किया जाता था। पटना एवं बंगाल के बीच गंगा नदी में छोटी-बड़ी नौकाओं के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के जहाज भी चलते थे। लखनौती में हजारों लघु परंतु वेग से चलने वाली नौकाओं का उल्लेख तत्कालीन ग्रंथों में मिलता है। नदी मार्ग पर व्यापारिक सुविधाएं प्रदान करने के लिए स्थान-स्थान पर पुलों और घाटों का निर्माण कराया जाता था।
सल्तनत काल की उपेक्षा मुगलकाल में जलमार्गों का उपयोग एवं विकास अधिक हुआ। समकालीन स्रोतों में नदियों द्वारा यात्र करने व माल ढ़ोने के उदाहरण पर्याप्त संख्या में मिलते हैं। नदियों के मुहाने पर ही बंदरगाहें होती थीं जहां व्यापार-माल को इकट्ठा किया जाता था। उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्र में बहने वाली नदियों और विशेषकर सिंधु नदी में नौकाचालन के उदाहरण सर्वाधिक मिलते हैं। उत्तरी भारत में गंगा तथा उसकी सहायक नदियां जलमार्ग का काम करती थीं जिनसे व्यापारिक माल इलाहाबाद से बनारस व पटना के रास्ते बंगाल में ढाका तक जाता था। गंगा और ब्रह्मपुत्र के बारे में रेनेल का कहना है कि ‘इन दोनों नदियों ने अपनी शाखाओं द्वारा सम्पूर्ण बंगाल में इस प्रकार का जाल फैला रखा है कि इन सभी के द्वारा देश (प्रदेश) के सभी भागों तक पहुंचा जा सकता है।’समकालीन अध्ययन सामग्री में अकेले आगरा से बंगाल दस हजार टन नमक प्रतिवर्ष नदी के रास्ते जाने का उल्लेख मिलता है।
कालान्तर में अंग्रेजों की स्वदेशी धन्धों के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति स्वार्थी रजवाड़ों व सुल्तानों की फूट एवं निरंतर संघर्ष (18वीं व 19वीं सदी) तथा सबसे महत्वपूर्ण रेलों के विकास की नीति के कारण आन्तरिक जल परिवहन का विकास अवरोधित होता गया एवं सम्पूर्ण राष्ट्रीय सेवा मात्र स्थानीय सेवा बनकर रह गयी।
इस प्रकार रेलमार्गों की स्थापना से पूर्व भारत में नदियां परिवहन का प्रमुख साधन थीं, बाद में द्रुतगामी रेल तथा सड़कमार्ग के विकास के कारण नदी जलमार्ग का महत्व कम होता गया। स्वातंत्र्योत्तर भारत में वर्तमान में देश की यातायात व्यवस्था में आन्तरिक जलमार्गों का योगदान मात्र एक प्रतिशत है।
वर्तमान समय में भारत सरकार ने नदी जल परिवहन के महत्व को स्वीकार किया है। भारत के परिवहन मंत्रालय के एक अनुमान के अनुसार देश में नौ-परिवहन योग्य जलमार्गों की लंबाई 19000 किमी. है, जिसमें 15000 किमी. लंबी नदियां और 4000 किमी. लंबी नहरें हैं। कुल नदी मार्गों का 10,000 किमी. भाग वर्ष भर परिवहन के योग्य रहता है। 3500 किमी. जलमार्ग में स्टीमर चलते हैं और 5700 किमी. लंबे मार्ग में बड़ी देशी नावें चल सकती हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में आन्तरिक जलमार्गों के पुनरुत्थान के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास किये गये हैं। 1952 में प्रथम योजनाकाल में केन्द्रीय सरकार के सहयोग से असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश राज्यों के लिए गंगा-ब्रह्मपुत्र जल परिवहन बोर्ड की स्थापना की गई। उसके बाद के विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में आन्तरिक बन्दरगाह बनाने, नहरें बनाने, जलमार्गों पर सुविधाएं मुहैया कराने आदि पर करोड़ों रुपये खर्च किये गये हैं।
देश में इन जलमार्गों के विकास की योजनाएं तैयार करने के लिए केन्द्रीय आन्तरिक जल-परिवहन बोर्ड का गठन किया गया है। दूसरा निकाय केन्द्रीय आन्तरिक जल परिवहन निगम कोलकाता-पांडू (गुवाहाटी के निकट), कोलकाता-करीमगंज (असम में), कोलकाता-बांग्लादेश तथा हल्दिया-पटना के मध्य होने वाले माल यातायात के प्रबंधन, रख-रखाव एवं विकास हेतु उत्तरदायी है। तीसरा निकाय भारतीय आन्तरिक जलमार्ग प्राधिकरण, राष्ट्रीय जलमार्गों के विकास एवं देखभाल की जिम्मेदारी निभाता है। कुल मिलाकर 10 जलमार्गों को राष्ट्रीय जलमार्ग के रूप में विकसित करने की योजना है जिसमें निम्नलिखित चार जलमार्गों को राष्ट्रीय जलमार्ग का दर्जा दिया जा चुका हैः
(1) एन-डब्ल्यू-1: इलाहाबाद से हल्दिया (1620 किमी.)
(2) एन-डब्ल्यू-2: सदिया से घुबरी (891 किमी.)
(3) एन-डब्ल्यू-3: कोल्लम से कोहापुरम (केरल, 168 किमी)
(4) एन-डब्ल्यू-4 (प्रस्तावित): काकीनाडा से मरक्कानम (1100 किमी.) केन्द्रीय जल आयोग द्वारा उत्तर की नदियों को प्रायद्वीपीय नदियों से जोड़ने की एक महत्वाकांक्षी योजना पर विचार किया जा रहा है जो नदी जल परिवहन के लिए वरदान सिद्ध होगा।
वर्तमान में भारत के महत्वपूर्ण आंतरिक जलमार्गों में गंगा, भागीरथी, हुगली प्रणाली, ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां, महानदी, कृष्णा एवं गोदावरी के डेल्टाई प्रवाह, केरल की नहरें व पुराने नदी मार्ग, गोआ में मांडवी व जुआरी नदियां, नर्मदा व ताप्ती के निचले भाग इत्यादि हैं। यहां दिए गए चित्र में कुछ महत्वपूर्ण नदी जलमार्गों को दिखाया गया हैः
देश के प्रादेशिक विकास में नदी परिवहन अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यह सबसे सस्ता यातायात साधन है। जैसा कि हम पहले भी देख चुके हैं, नदी जल परिवहन ने औपनिवेश पूर्व समय में भी उत्तरी भारत में व्यापार की उन्नति एवं प्रादेशिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज भी यह औद्योगिक उत्पादन की लागत व्यय को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। खनिज पदार्थ तथा भारी माल ढोने में यह सबसे सस्ता परिवहन साधन है। कुछ प्रदेशों जैसे गंगा के डेल्टाई भागों में जहां नदियों की वितरिकाओं के कारण सड़क व पु बनाना कठिन है, नदी जल परिवहन यातायात का एक उत्तम साधन है जो प्रदेश के आर्थिक विकास के लिए जरूरी है।
Question : भारत के विदेशी व्यापर पर पत्तनों के बढ़ते हुए महत्व पर चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : भारत के लगभग 7500 किमी. लंबी तट रेखा है। इस पर 12 बड़े पत्तन तथा 181 मध्यम और छोटे दर्जे के समद्री पत्तन सेवारत है। बड़े पत्तनों के माध्यम से 90 प्रतिशत से अधिक विदेश व्यापार होता है। सम्पूर्ण बन्दरगाह से भारत को कुल 98 प्रतिशत विदेशी व्यापार संपन्न होता है। कांदला, मुम्बई, न्हावा शेवा, मर्मगांव, न्यू मंगलौर तथा कोच्ची पश्चिमी तट पर स्थित प्रमुख पत्तन हैं। इन बंदरगाहों का पृष्ठ प्रदेश मध्य तथा आंशिक उत्तरी भारत तक विस्तृत है। यह पृष्ठ प्रदेश कपास, मंगफली, कहवा तथा अनाज के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। इन चीजों का निर्यात पश्चिमी तट के बन्दरगाहों से ही किया जाता है। इसके अलावा इलेक्ट्रानिक्स गुड्स हल्के तथा मध्यम स्तर के इंजीनियरिंग सामान तथा चमड़े की बनी वस्तुओं का भी निर्यात किया जाता है।
पूर्वी तट के बंदरगाहों में कोलकाता, हल्दिया, पारादीप, विशाखापत्तनम, चेन्नई, इन्नौर तथा तूतीकोरन प्रमुख हैं। इन बंदरगाहों के पृष्ठ प्रदेश भी विभिन्न उत्पादों के मामले में धनी हैं। इन बंदरगाहों से निर्यात होने वाली प्रमुख वस्तुओं में वस्त्र, इंजीनियरिंग के सामान, जूट के सामान तथा लौह-अयस्क प्रमुख है। इसके अलावा दक्षिण भारत के बंदरगाहों से संसाधित मछली एवं अन्य समुद्री उत्पाद तथा चमड़े के बने सामान भी निर्यात किये जाते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारत के विश्व व्यापार में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज उसके व्यापारिक संबंध कुछ देशों तक सीमित न रहकर संसार के सभी देशों के साथ स्थापित हो गये हैं। इसमें समुद्री बंदरगाहों की काफी अहम भूमिका है। इन बंदरगाहों के आधुनिकीकरण एवं अन्य सुविधाओं के विकास ने भारत के आयात एवं निर्यात दोनों ही तरह के व्यापार में मात्रत्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन लाया है। आज भारत के निर्यात वस्तुओं की संख्या 7500 से अधिक हो गयी है, जबकि स्वतंत्रता के समय यह संख्या मात्र 50 थी।
स्वतंत्रता के बाद इन 56 वर्षों में देश ने पर्याप्त उन्नति करके औद्योगिक रूप से विकसित देशों में 10वां स्थान प्राप्त कर लिया है। आयात की दृष्टि से भारत मे अनेक परिवर्तन हुए हैं। आर्थिक विकास की आवश्यकता ने आयात में भारी वृद्धि की है। आयात वस्तुओं के स्वरूप एवं प्रकार में अनेक परिवर्तन हुए हैं। आज का भारत उन्नत किस्म की मशीनें, अयस्क, कच्चा माल, तेल व रासायनिक खाद का आयात करता है। यह सब देश के औद्योगिक एवं कृषि विकास के लिए आवश्यक है। इन आयातित पदार्थों की बढ़ती हुई मांग के कारण देश का वर्तमान विदेशी व्यापार का संतुलन विपरीत स्थिति में आ गया है।
माल परिवहन की दृष्टि से मुंबई सबसे बड़ा बंदरगाह है। इसलिए मुंबई को भारत में लगभग 15000 मालवाहक जलयानों पर माल चढ़ाया और उतारा जाता है। इन पत्तनों के माध्यम से 70 प्रतिशत माल विदेशों को भेजा जाता है। हमारे पत्तनों से आयात अधिक एवं निर्यात कम होता है। अतः अपनी राष्ट्रीय आय और संपदा बढ़ाने तथा लोगों की खुशहाली के लिए संसाधित माल के निर्यात पर अधिक बल देने की आवश्यकता है।
Question : भारत में तेल एवं प्राकृतिक गैस के पाइप लाइन जालक्रमों की विवेचना कीजिए। प्रादेशिक विकास में उनकी पूरक भूमिका पर प्रकाश डालिए।
(2002)
Answer : किसी देश में शक्ति के संसाधनों के विकास को वहां के औद्योगिक विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है। इसका कारण यह है कि शक्ति के संसाधनों का जितना अधिक उपयोग व्यापारिक स्तर पर किया जाता है, उत्पादनों की मात्र एवं विविधता भी उतनी ही अधिक होती है। शक्ति के संसाधन शांति एवं विकास के साथ अन्य विपरीत समयों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनके समुचित विकास द्वारा ही देश में औद्योगिक आत्मनिर्भरता प्राप्त की जा सकती है।
भारत में खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र असम घाटी, गुजरात में खंभात की खाड़ी का समीपवर्ती क्षेत्र एवं मैदानी क्षेत्र, मुंबई तट से 115 किमी दूर अरब सागर में स्थित बॉम्बे हाई नामक क्षेत्र, कृष्णा-गोदावरी का डेल्टा क्षेत्र आदि हैं। खनिज तेल प्राप्ति के अन्य संभावित क्षेत्र हैं- पश्चिम बंगाल का सुदंरवन क्षेत्र, बिहार का किशनगंज एवं रक्सौल, राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर तथा बाड़मेर जिले, कावेरी नदी घाटी एवं पाकिस्तान का खाड़ी क्षेत्र, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह का उपतटीय क्षेत्र इत्यादि।
प्राकृतिक गैस खनिज क्षेत्र से संबंधित क्षेत्रों में ही पाये जाते हैं। इसमें मिथेन गैस की प्रधानता हाती है तथा इसकी मात्र 80 प्रतिशत तक होती है। यह अत्यधिक प्रज्वलनशील तथा पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित व उपयुक्त होता है। इस महत्वपूर्ण शक्ति के संसाधनों को देश के विभिन्न भागों में पहुंचाने के लिए सर्वोपयोगी माध्यम टैंकर तथा पाइपलाइन हैं, जिसमें पाइपलाइन आर्थिक दृष्टि से कम खर्चे वाला एवं सर्वाधिक उपयुक्त होता है।
भारत में पाइपलाइन के द्वारा परिवहन 1908 के दशक में मात्र 5035 किमी. तक ही व्यवस्थित था, जो 1996 में बढ़कर 7000 किमी. तक हो गया।
भारत में पाइपलाइन द्वारा परिवहन सर्वप्रथम असम के डिग्बोई से नूनामाटी तक स्थापित किया गया, जिसका पुनः विस्तार बिहार के बरौनी क्षेत्र तक किया गया। इसकी कुल लंबाई 1167 किमी. है। पुनः इसका विस्तार उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर तक किया गया। नहरकटिया एवं नूनामाटी के बीच के पाइपलाइन का उद्घाटन 1962 में तथा नूनामाटी और बरौनी के बीच के पाइपलाइन का 1964 में तथा हल्दिया और कानपुर के बीच इसका पुनःविस्तार 1966 में किया गया।
एक अत्यंत महत्वपूर्ण पाइप लाइन गुजरात के सलाया क्षेत्र से उ.प्र. के मथुरा तक स्थापित किया गया है, जिसकी लंबाई 1256 किमी. है तथा इससे खनिज तेल को मथुरा के तेल संशोधक संयंत्र तक पहुंचाया जाता है। मथुरा से इसका पुनर्विस्तार क्रमशः हरियाणा के पानीपत और पंजाब के जालंधर शहरों में किया गया है। गुजरात के कोयली क्षेत्र से भी यह पाइप लाइन के द्वारा जुड़ गया है। एक और महत्वपूर्ण पाइप लाइन मुंबई के औद्योगिक क्षेत्र और पुणे को जोड़ता है। बंगाल के राजबंध और मौरी ग्राम को भी पाइप लाइन के द्वारा जोड़ दिया गया है।
प्राकिृतिक गैस का उत्पादन भारत में 1985 के बाद ही व्यापक स्तर पर संभव हो सका है। कावेरी के उपतटीय प्रदेश खंभात की खाड़ी में नंदा, जैसलमेर बेसिन में तनोत तथा दक्षिणी भसीन क्षेत्र में गैस बहुतायता, से प्राप्त किया जाता है। 1990 में अद्यिक्कामंगलम्, जो तमिलनाडु में है, गुजरात का अंदादा, असम का खोवाघाट, आंध्र प्रदेश का लिंगला, मुंबई तथा कच्छ के उपतटीय क्षेत्रों में खोजा गया।
अभी हाल में रियालंस पेट्रोकेमिकल्स के द्वारा कृष्णा-गोदावरी बेसिन में अब तक का सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस का श्रोत खोजा गया है।
भारत में सर्वप्रमुख गैस पाइप लाइन HBJ पाइप लाइन है जो 1750 किमी लंबी है तथा यह महाराष्ट्र के हजीरा, मध्य प्रदेश के बीजापुर और उ.प्र. के जगदीशपुर जिलों को जोड़ती है। इस लाइन द्वारा प्राकृतिक गैस को राजस्थान के सवाई माधोपुर तथा उ.प्र. के अओनला, औरेया और शाहजहांपुर के उर्वरक संयंत्रों तक पहुंचाया जाता है। इसका पुर्नविस्तार दिल्ली तक किया गया है।
कुछ और महत्वपूर्ण पाइप लाइनों की स्थापना की जा रही है, जिसमें गुजरात के कांदला और वीरमग्राम को, पंजाब के भटिंडा जिले से जोड़ा जा रहा है। यह पानीपत, जोधपुर, कोटा आदि शहरों को भी खनिज तेल पहुंचायेगा।
कुछ अन्य प्रस्तावित पाइप लाइन हैं:
आशा है, आने वाले समय में पाइप लाइन देश की अर्थव्यवस्था में शरीर की धमनियों की भांति ऊर्जा शक्ति का प्रवाह करेंगे।
Question : भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की अभिनव प्रवृतियों का विश्लेषण कीजिए।
(2000)
Answer : भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संरचना एवं प्रवृति में स्वतंत्रता के बाद मुलभूत परिवर्तन हुए हैं और यह हाल के वर्षों में ज्यादा अच्छे से परिलक्षित होता है। इन अभिनव प्रवृतियों को निम्न शीर्षकों के अंतर्गत विश्लेषित किया जा सकता है-
अहितकर व्यापार संतुलनः स्वतंत्रता के बाद खाद्यान्न, कच्चे माल, उद्योगों के लिए मशीनों के आयात एवं आयातित पेट्रोलियम पदार्थों की ऊंची कीमतों के कारण व्यापार घाटा बढ़ता ही चला गया है। व्यापार घाटा 2 करोड़ से बढ़कर 1999-2000 में 42,658 करोड़ रुपये हो गया है। सिर्फ 1972-73 में विशेष प्रयासों के कारण यह 104 करोड़ रुपये से भारत के पक्ष में रहा है अन्यथा इसमें थोड़े उतार-चढ़ाव के साथ बढ़ोत्तरी ही हुई है। भारत में शुद्ध व्यापारिक घाटे का सबसे बड़ा कारण खनिज तेल में देश की आयात पर निर्भरता है। हाल में 2002-2003 में भुगतान संतुलन का चालू खाता देश के पक्ष में रहा है, जिसका मुख्य कारण विदेशों से अनिवासी भारतीयों तथा भारतीयों द्वारा विदेशी मुद्रा में पैसा भेजना है।
पूंजीगत वस्तुओं तथा नयी तकनीक का बढ़ता आयातः गैट (GATT) के बाद नयी तकनीक के अंतर्प्रवाह तथा भारतीय विनिर्माताओं को विश्व-स्तर पर प्रतियोगात्मक बनाने के उद्देश्य से आयात का अधिक उदारीकरण हुआ है, जिसके कारण पूंजीगत वस्तुओं तथा नीय तकनीक का आयात बढ़ रहा है।
व्यापार की दिशा में परिवर्तनः भारत के व्यापार की दिशा ये दर्शाती है कि OECD (Organisation for Economic Cooperation and Development) देशों, जिसमें यूरोपीय संघ भी शामिल है, को गये हमारे निर्यात में पर्याप्त विविधीकरण तथा बेहतर स्थायित्व आया है। इसके अलावे व्यापार की दिशा का विस्तार भी हुआ है, जैसे- ओपेक देश, पूर्वी यूरोप तथा अन्य विकासशील देश। देश का आधे से ज्यादा व्यापार अब व्म्ब्क् देशों के साथ होता है।
निर्यात में विनिर्मित वस्तुओं का बढ़नाः औद्योगीकरण की जड़ें मजबूत होने के साथ हमारे निर्यात में काफी विभिन्नताओं एवं परिसर की विनिर्मित वस्तुओं की मात्र स्थान पर रही हैं, जैसे- इंजीनियरिंग वस्तुएं, रासायनिक उत्पाद मशीन यंत्र, रेडीमेड कपड़े, कंप्यूटर सॉफ्रटवेयर इत्यादि। यहां दी गई सारणी में हमारे निर्यात की प्रमुख सामग्रियों को दिखाया गया है-
सामग्री | हिस्सेदारी (प्रतिशत में) (2001-2002) |
---|---|
1. रत्न और आभूषण 2. सिले-सिलाये कपडे़ 3. सूती वस्त्र का सूत 4. इंजीनियरिंग का सामान 5. रसायन एवं रासायनिक सामान 6. पेट्रोलियम उत्पाद 7. चमड़ा एवं चमड़े का सामान 8. समुद्री उत्पाद 9. अन्य |
16.7 11.4 10.7 15.9 13.8 4.8 4.4 2.8 19.5 100.0 |
श्रोत: आर्थिक समीक्षा, 2002-03
नये व्यापारिक साझीदारः स्वतंत्रता से पूर्व यूनाईटेड किंगडम भारत का मुख्य व्यापारिक साझीदार था। वर्तमान में यू.के. के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, जर्मनी, जापान तथा ओपेक के देश भारत के लिए मुख्य व्यापारिक साझीदार बनकर उभरे हैं। भारत के विदेशी व्यापार की प्रकृति एवं प्रमुख देशों का योगदान वर्ष 1999-2000 में निम्न प्रकार है-
क्षेत्र | आयात प्रतिशत | निर्यात प्रतिशत |
---|---|---|
एशिया अमरीका जापान जर्मनी ब्रिटेन बेल्जियम रूस अफ्रीका फ्रांस शेष अन्य देश |
17.5 7.5 5.0 4.0 5.8 7.4 1.3 3.2 1.6 43.5 100.0 |
20.4 22.7 4.5 4.8 6.0 3.7 2.5 3.0 2.4 29.7 100.0 |
तालिका से स्पष्ट है कि भारत के विदेश व्यापार का एक बड़ा अंश शेष अन्य देशों के साथ होता है, जिनमें अधिकांश विकासशील देश हैं।
आयात संरचना में परिवर्तनः 1980 के पश्चात भारत के आयात स्वरूप में स्पष्ट परिवर्तन होता रहा है क्योंकि 1975-80 के पश्चात भारत खाद्यान्नों में प्रायः आत्म-निर्भर होता गया। बढ़ते औद्योगीकरण व नगरीकरण के साथ देश के आयात संरचना में खनिज तेल, पूंजीगत वस्तुओं तथा उपभोक्ता वस्तुओं का महत्व बढ़ रहा है।
व्यापार समझौतों में वृद्धिः उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में भारत आये दिन द्विपक्षीय व्यापार समझौतों के साथ-साथ क्षेत्रीय संगठनों यथा ASEAN, E.U. के साथ व्यापार समझौते कर रहा है जिसके फलस्वरूप भविष्य में हमारे विदेशी व्यापार में काफी वृद्धि की संभावना है।
वस्तुएं | प्रतिशत हिस्सेदारी (2001-2002) |
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1.पेट्रोलियम उत्पाद 2.मोती एवं बहुमूल्य पत्थर 3.पूंजीगत वस्तुएं 4.विद्युत मशीनें 5. सोना व चांदी 6. रसायन आदि 7. खाद्य तेल 8. अन्य |
27.2 9.0 11.4 7.40 8.8 2.6 28.2 100.0 |
स्रोत: आर्थिक समीक्षा, 2002-03
व्यापार नीति में बदलावः पहले के नियंत्रित व नियमनात्मक व्यापार नीति के स्थान पर 1992 से भारत की व्यापार नीति के दो मुख्य उद्देश्य हैं- निर्यात का बढ़ावा तथा आयात प्रतिस्थापन द्वारा आयात का नियमन।
Question : भारत में अंतः एवं अंतः प्रदेशीय व्यापार को बढ़ावा देने में ग्रामीण बाजार केन्द्रों की भूमिका।
(1999)
Answer : किसी देश के व्यापार को अांतरिक एवं बाह्य व्यापार में विभाजित किया जाता है। आंतरिक व्यापार को पुनः अंतर प्रादेशिक या राज्यों के बीच व्यापार एवं आंतरिक प्रादेशिक या राज्य के अंदर होने वाले व्यापार में बांटा जाता है। जहां तक अंतः प्रादेशिक व्यापार का संबन्ध है, इसे दो भागों में बांटा जाता हैः (i) तटीय, और (ii) स्थलीय या रेल एवं सड़क पर आधारित।
अंतः प्रादेशिक व्यापार का मुख्य आधार प्रदेश की आवश्यकता से अधिक उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को संग्रहित कर स्थानीय बाजार से दूसरे प्रदेशों को आपूर्ति करना है तथा उस प्रदेश के आवश्यक पदार्थों की आपूर्ति बाहर से आये हुए पदार्थों को स्थानीय बाजार से प्राप्त कर वितरित करना है। इस संदर्भ में ग्रामीण बाजार एक अहम् भूमिका अदा करते हैं और आर्थिक एवं सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। सातवीं योजना में स्थानीय बाजारों को नियंत्रित बाजारों की संज्ञा प्रदान की गयी है। इन बाजारों से निम्नलिखित लाभ हो रहे हैं- (i) ये बाजार बहुस्तरीय बाजार तंत्र के स्थायी अंग बन गये हैं, जिससे प्रदेश का संपूर्ण अर्थतंत्र संपूर्ण देश के अर्थतंत्र का नियोजित अंग बन गया है, (ii) प्रदेश में शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं का व्यापक व्यापार संभव हो सका है, (iii) बिचौलियों की भूमिका सीमित हो गयी है, (iv) साप्ताहिक बाजारों से ग्रामीण जनता अपनी जरूरत की वस्तुएं खरीद तथा अन्य पदार्थ बेच रही है, तथा (v) इससे नगरीय बाजारों का दबाव व दबदबा कम हो रहा है।
इन सभी लाभों के बावजूद ये ग्रामीण बाजार संरचनात्मक सुविधाओं से वंचित हैं। सरकार नियम- कानून बनाकर तथा संरचनात्मक विकास कर स्थिति को सुधारने का प्रयास कर रही है। इन प्रभावोत्पादक उपायों के क्रियान्वयन द्वारा ही ग्रामीण बाजार सही मायने में एक निश्चित एवं सक्रिय भूमिका निभाने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं।
Question : भारतीय रेलमार्ग और सड़क जाल के परिपूरक एवं प्रतिस्पर्धात्मक स्वरूप का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : भारत जैसे विशाल एवं भौगोलिक विविधता वाले देश के आर्थिक विकास में रेल एवं सड़क दोनों ने अपने दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है। रेल और सड़क परिवहन दोनों के अपने-अपने लाभ हैं और कई क्षेत्रों में इनमें पूरकता भी पायी जाती है, परन्तु तुलनात्मक लाभ की दृष्टि से दोनों में प्रतिस्पर्धा भी पायी जाती है।
रेल और सड़क मार्ग कई मामलों में एक-दूसरे के पूरक का काम करते हैं। सड़क कृषकों को स्थानीय बाजार एवं रेलवे स्टेशन तक पहुंचने में मदद करता है, उत्पादन क्षेत्र को दूर स्थित उपभोक्ताओं से तथा शहरों को गांव के कृषकों के साथ जोड़ता है। कोई भी सड़क मार्ग, फसलों, सीमेंन्ट, लौह-इस्पात, कोयला जैसी वजनदार एवं बड़ी मात्र की वस्तु के उत्पादकों को अन्तिम उपभोक्ता तक नहीं पहुंचा सकता है। दूसरी ओर सड़क मार्ग रेल की सहायता के बगैर मार्ग को उचित मात्र में ढोने के लिए सामान नहीं हासिल हो सकता है। यात्रियों के आवागमन में भी रेल एवं सड़क एक-दूसरे के पूरक हैं। लगभग 250 कि.मी. का सफर तय करता हो तो यात्री सड़क परिवहन को प्राथमिकता देता है, परन्तु इससे दूर जाने के लिए वह रेल परिवहन का चयन करता है। इस पूरकता का उदाहरण जम्मू एवं कश्मीर में देखा जा सकता है। जहां जम्मू तक रेल सुविधा है पर आगे दुर्गम क्षेत्रों में जाने के लिए सड़क ही एकमात्र यातायात का साधन है।
इस पूरकता के बावजूद सड़क और रेल मार्गों में प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। आम तौर पर इस प्रतिस्पर्धा में सड़क ही प्राथमिकता हासिल कर लेता है। ऐसा सड़क मार्ग के लाभ एवं रेलमार्गों के कतिपय दोषों के कारण होता है। सड़क मार्ग, रेल मार्गों से निम्नलिखित दृष्टि से श्रेष्ठ हैंः
(i) बस एवं लॉरी कम्पनियां यात्री एवं माल की ढुलाई में रेलवे को पीछे छोड़ देती हैं।
(ii) कुछ विशेष सेवाएं, जैसे- माल को अंतिम मुकाम तक पहुंचाना, द्वार से द्वार वितरण एवं एकत्रण, सुविधानुसार समय का निर्धारण, द्रुत गति से वितरण आदि में सड़क परिवहन ही एकमात्र साधन है। इसीलिए वैगन भार से कम माल के लिए व्यापारिक वर्ग सड़क परिवहन को ही प्राथमिकता देता है।
(iii) सड़क परिवहन से माल द्रुत गति से बिना ज्यादा पैकिंग या बर्बादी के अपने मुकाम तक पहुंच जाता है।
इन लाभों के अतिरिक्त रेलवे प्रणाली के दोष भी सड़क को बेहतर सिद्ध करते हैं। रेलवे के कुछ दोष इस प्रकार हैं: (i) रेलवे कर्मचारियों का कार्यकाल निश्चित होता है, (ii) रेलवे को रियायती दरों पर जरूरी माल की ढुलाई करनी पड़ती है, जिससे उसकी आमदनी और रख-रखाव पर बुरा असर पड़ता है, (iii) सार्वजनिक रूप से उपयोगी सेवाओं का भार रेल पर होता है, जिससे इसे काफी हानि होती है, (iv) पहाड़ी या अन्य दुर्गम क्षेत्रों में रेल पटरियों का अभाव है, तथा (v) माल बुकिंग में समय का ज्यादा लगाना, सुस्त गति एवं ढुलाई के वक्त माल की बर्बादी भी इसके निर्बल पक्ष हैं। इन्हीं बातों के मद्देनजर मसानी समिति ने अपनी सिफारिश में आर्थिक विकास के लिए सड़क मार्ग को रेलवे से बेहतर माना था।
सम्प्रति रेल-सड़क समन्वय की अवधारणा जोर पकड़ रही है। रेलवे समाज के हित में कार्य करने के कारण वांछित लाभ से वंचित रहा है। इसीलिए यह जरूरी है कि रेलवे को सड़क की प्रतिस्पर्धा से बचाया जाये। सरकार ने मोटरगाड़ी अधिनियम 1939 के तहत विशेष दूरी तथा किस्म के माल की ढुलाई में रेलवे को एकाधिकार आदि के प्रावधानों द्वारा रेल को सुरक्षा प्रदान करने की चेष्टा की है। मसानी समिति ने इन उपायों का विरोध किया, क्योंकि रेलवे को सुरक्षा प्रदान करने के क्रम में सरकार सड़क परिवहन को बलि का बकरा बना रही थी। यह बहस अब भी जारी है। हम चाहे किसी भी प्रकार के समन्वय की बात करें परन्तु ऐसा करना संभव नहीं प्रतीत होता है। हमें तो इस प्रतिस्पर्धा से उम्मीद करनी चाहिए कि सड़क एवं रेल सेवाओं दोनों में सुधार आये और राष्ट्र के आर्थिक विकास में दोनों अपने-अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सकें।
Question : भारत की अर्थव्यवस्था में एकीकरण कारक के तौर पर रेलवे की भूमिका पर चर्चा कीजिये।
(1998)
Answer : भारत में रेलवे की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी। भले ही उनका मकसद साम्राज्यवादी था, फिर भी उन्होंने भारत को एक सूत्र में बांध दिया। भारत एक विशाल देश है और इसके आर्थिक संसाधन, यथा-खनिज, कृषि उत्पाद, कच्चा माल आदि बिखरे रूप में मिलते हैं। यद्यपि दूरदराज के क्षेत्रों को जोड़ने में रेलवे की अपेक्षा सड़कों ने ज्यादा योगदान दिया है, परन्तु रेलवे का अपना विशेष महत्त्व है। कोयला, तेल, तांबा, मैंगनीज आदि खनिज काफी भारी होते हैं अर्थात् इनकी ढुलाई का कार्य सड़कों के माध्यम से नहीं किया जा सकता है। रेलवे न सिर्फ इनका सुगमता से परिवहन करती है, बल्कि इस स्थानांतरण द्वारा बहुमूल्य मुद्रा की बचत भी करती है। इस प्रकार, हमारे उद्योगों को कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो जाता है। इसके अलावा देश के प्रमुख केन्द्रों को अन्य क्षेत्रों से जोड़ कर उत्पादित माल को बाजार भी उपलब्ध कराती है। इससे दूरदराज के क्षेत्रों को भी उपभोग की सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जाता है। कृषि उपकरण, बीज, खाद आदि को किसानों तक पहुंचाने तथा उत्पादित कृषि उपजों को मंडियों तक पहुंचाने में भी रेलवे का विशेष योगदान रहा है। हमारे देश का आर्थिक विकास पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भर है, जिसका वितरण रेलवे द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार, विभिन्न केन्द्रों को आपस में जोड़कर तथा इनमें अंतर्संबंध स्थापित कर रेलवे ने भारत का आर्थिक एकीकरण किया है तथा राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा दिया है।