Question : धारणीय संवृद्धि एवं विकास की संकल्पना को सुस्पष्ट कीजिए।
(2005)
Answer : धारणीय संवृद्धि एवं विकास का सामान्य अर्थ है दीर्घकालीन विकास अथवा बिना विनाश किए विकास। कुछ विद्वान इसे संधृत विकास (Sustainable Develepment) भी कहते हैं, किन्तु वास्तव में सतत् विकास संविकास का एक पक्ष है। इसमें निम्नांकित तत्व सम्मिलित हैं-
(1) समेकित विकासः यह विकास आर्थिक-सामाजिक- सांस्कृतिक तथा पारितंत्रों की समग्रता को ध्यान में रखकर किया जाता है। पर्यावरण संकट, विकास का संकट, ऊर्जा संकट आदि समस्याएं एक दूसरे से अलग नहीं, वरन अन्योन्याश्रित हैं।
(2) संतुलित विकासः संतुलित विकास से आशय ऐसे विकास से है, जो समाज और समुदाय के सभी वर्गों को लाभान्वित करे। यह विश्व के विकसित और अल्प विकसित देशों के बीच अंतराल को कम करने पर बल देता है।
(3) सतत् विकासः इसका तात्पर्य यह है कि विकास ऐसा होना चाहिए जो न केवल मानव समुदाय की तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति करे, अपितु स्थायी तौर पर भविष्य के लिए भी विकास का आधार प्रस्तुत करे।
भारत विश्व के उन कुछ एक देशों में है जहां टिकाऊ विकास नीति के कार्यान्वयन की दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य किए गए हैं। यहां टिकाऊ विकास के कार्यक्रमों को दो चरणों में रखा जा सकता है-
(1) पहला चरणः 1990 के पूर्व तक अपनाए गए नीतियों एवं कार्यक्रमों को इस चरण में रखा जा सकता है, जिसमें निम्नलिखित नियमों को क्रियान्वित किया गया।
इसके अतिरिक्त मृदा संरक्षण मृदा वानिकी तथा क्षतिपूर्ति वानिकी जैसे कार्यक्रमों को भी राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गया।
(2) द्वितीय चरणः 1990 ई. के बाद और मुख्यतः 1992 के रियो-डी-जेनेरो घोषणा पत्र के बाद भारत में धारणीय संवृद्धि एवं विकास की नीतियों को अधिक गंभीरता से तैयार किया गया। 1990 के बाद इस दिशा में निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य किए गए-
इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि टिकाऊ तथा धारणीय विकास का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसका उद्देश्य दीर्घकालीन होता है तथा नियोजन (प्रक्रिया) के समय पर्यावरण के आधारभूत संतुलन व अनुशासन का पालन किया जाता है।
Question : धारणीय संवृद्धि एवं विकास की संकल्पना का मूल्यांकन कीजिए।
(2004)
Answer : धारणीय संवृद्धि एवं विकास से तात्पर्य है- विकास की वैसी प्रक्रिया से जो हमेशा के लिए सतत् रह सके तथा जिसका फायदा हरेक वर्ग एवं व्यक्ति को प्राप्त हो सके। यह संकल्पना काफी व्यापक है तथा अलग-अलग प्रदेशों में वहां की सांस्कृतिक-राजनीतिक एवं आर्थिक स्थितियों के अनुसार इसके अलग-अलग तत्व गिनाये जाते हैं। फिर भी कुछ मुख्य मुद्दों पर सभी एकमत हैं:
भारत के संदर्भ में देखें तो आर्थिक संवृद्धि धारणीय विकास के लिए उदारीकरण के दौर में। उदारीकरण के अन्तर्गत अर्थतंत्र में मुख्य प्रश्न सरकारी हस्तक्षेप के विस्तार एवं उसकी गुणवत्ता का है। आवश्यकता इस बात की है कि बाजार एवं राज्य का एक अभीष्ट समिश्र हो। अस्तु यह आवश्यक है कि विभिन्न कार्यकलाप की एक ऐसी तालिका बनायी जाय, जिससे यह ज्ञात हो सके कि कहां किस प्रकार का हस्तक्षेप प्रभावशाली एवं लाभप्रद होगा।
धारणीय विकास के लिए आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ सामाजिक विकास अपरिहार्य है। अपनी पुस्तक (Perspective on Indian Economy) (UBS 2000) में रंगराजन यह मानते हैं कि आर्थिक वृद्धि एवं सामाजिक विकास हेतु निम्न त्रि-सूत्रीय उपागम अनुकरणीय है- (i) उच्चतर आर्थिक वृद्धि दर (ii) सामाजिक विकास पर उच्चतर व्यय तथा (iii) संसाधनों का कुशल उपयोग।
इसके साथ ही आर्थिक कार्य कलाप के ऐसे भूविन्यास पर भी जोर देना अपरिहार्य है जिससे पारिस्थितिकी अक्षुण्णता एवं जैव विविधता बनी रहे। ऊर्जा के नवीकरण स्रोतों का विकास एवं अधिकाधिक उपयोग करना होगा ताकि पर्यावरण को नुकसान न हो।
भारत के लिए मानव संसाधन का सीमित आकार एवं उसकी गुणवत्ता का विकास धारणीय संवृद्धि एवं विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए परम आवश्यक है। जन भागीदारी में भी मुख्यतः महिलाओं की भागीदारी, नीतियों के विवेकपूर्ण क्रियान्वयन तथा भौतिक एवं आध्यात्मिक विचारों का अनुकूलतम समिश्र मानव विकास एवं धारणीय विकास के महत्वपूर्ण उपाय हैं।
इस प्रकार धारणीय विकास एवं संवृद्धि की संकल्पना अपने अंदर विकास के सभी आयामों को समाहित किये हुए हैं। धारणीय विकास के उपागम को अपना कर ही देश, समाज और प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण हो सकता है।Question : भूकंप विनाश के कारणों, प्रभावों एवं बचाव के उपयोग की व्याख्या करें।
(2002)
Answer : भूकंप का मूल कारण पृथ्वी की संतुलन अवस्था में अव्यवस्था का होना है। यदि विश्व के भूकंप क्षेत्रों पर दृष्टिपात किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि भूकंप प्रायः कमजोर एवं अव्यवस्थित भूपटल के सहारे पाये जाते हैं। अब तक यह माना जाता रहा है कि संतुलित तथा प्राचीन व्यवस्थित भागों में भूकंप नहीं आते हैं। परंतु 1967 ई. के कोयना भूकंप ने इस विचारधारा पर जमकर कुठाराघात किया है। विभिन्न भूकंप क्षेत्रों के पर्यवेक्षण एवं अध्ययन के आधार पर भूकंप के निम्न कारण बताये जा सकते हैं:
ज्वालामुखी क्रिया: ज्वालामुखी क्रिया एवं भूकंप एक-दूसरे के अभिन्न अंग माने जाते हैं अर्थात ज्वालामुखी के उद्गार के साथ प्रायः भूचाल अवश्य आता है। कभी-कभी भूकंप का कारण ज्वालामुखी का उद्गार होता है। ज्वालामुखी क्रिया में जब तीव्र एवं वेगवती गैसें एवं वाष्प धरातल के निचले भाग में बाहर प्रकट होने के लिए धक्के लगाती हैं, तो भूपटल में अनायास ही जोरों से कंपन पैदा हो जाता है तथा भयंकर भूकंप अनुभव किया जाता है। इसी प्रकार जहां पर भूपटल कमजोर होता है, वहां पर वेगवती गैसें तीव्रता के साथ भूपटल को तोड़कर विस्फोटक रूप में धरातल पर ज्वालामुखी के उद्गार के साथ प्रकट होती हैं। इस प्रकार के भयंकर उद्गार के साथ ही साथ भूपटल में कंपन पैदा हो जाता है। इस प्रकार के साधारण भूकंपों का प्रभाव 100 से 150 मील तक के क्षेत्रों में देखा जाता है। परंतु इस तरह के भूकंप की तीव्रता ज्वालामुखी के उद्गार की तीव्रता पर आधारित होती है। क्राकातोआ द्वीप एवं सिसली द्वीप के माऊंट एटना ज्वालामुखी के उद्गार के कारण भंयकर भूकंप आया था, जिससे अपार धन-जन की हानि हुई।
भूपटल भ्रंश: धरातलीय भागों के भूगर्भिक हलचलों का पर्याप्त असर होता है। भूगर्भिक हलचलों द्वारा भूपटल भ्रंश तथा वलन होता रहता है। इन परिवर्तनों के प्रमुख कारण खिंचाव तथा संपीडन की शक्तियां हैं। इन क्रियाओं का परिणाम यह होता है कि धरातलीय भागों का अगल-बगल अथवा ऊपर-नीचे की तरफ खिसकाव का होना है। इस अचानक परिवर्तन के कारण पृथ्वी में कंपन पैदा होता है। इसी प्रकार संपीडन की शक्ति के कारणभूपटल में मोड़ पड़ जाता है तथा मोड़दार वलित पर्वतों की रचना होती है। यह क्रिया जब तीव्रता के साथ अचानक संपन्न होती है, तो भूकंप का अनुभव किया जाता है। असम में सन् 1950का भूकंप, दरार के कारण धरातल में अव्यवस्था उपस्थित होने से ही आया था।
जोन I - तीव्रता V अथवा इससे कम, हल्का, कमजोर
जोन II - तीव्रता VI के लगभग, तेज, प्रबल, हानिकारक
जोन III - तीव्रता VII के लगभग, प्रबल, ज्यादा हानिकारक
जोन IV - तीव्रता VIII के लगभग, विनाशकारी
जोन V - तीव्रता IX तथा इससे उपर, भयंकर, विध्वंसकारी,
भूपटल भ्रंश पर ही आधारित वैज्ञानिक रीड ने भूकंप के कारणों के संबंध में प्रत्यास्थ पुनश्चलन सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इनके अनुसार अधोगत चट्टानें रबड़ की तरह लचीली होती है तथा खींची जाने पर बढ़ती हैं। चट्टानों का यह तनाव या खिंचाव धीरे-धीरे संपन्न होता है। प्रत्येक चट्टान में एक ऐसी सीमा होती है, जिसके बाद चट्टानें और तनाव को सहन नहीं कर सकती, परिणामस्वरूप चट्टान रबड़ की तरह टूट जाती है। जिस प्रकार रबड़का टुकड़ा अधिक खींचने पर टूट जाता है तथा शीघ्रता से अपने स्थान पर आने लगता है, उसी प्रकार विखंडित चट्टाने शीघ्रता से अपने स्थान को ग्रहण करना चाहती हैं और इसी प्रवृत्ति के कारण पृथ्वी में जोरों की कंपन होता है। इसका उदाहरण कैलिफोर्निया का भयंकर भूकंप है।
प्लेट टेक्टानिक सिद्धांत: अधिकांश भूकंपीय घटनायें विभिन्न प्लेट किनारों के सहारे ही घटित होती हैं। रचनात्मक प्लेट किनारों का निर्माण मध्य महासागरीय कटकों के सहारे होता है, जहां पर दो प्लेट टूटकर विपरीत दिशाओं में गतिशील होते हैं। इस कारण दाब मुक्ति होने से मध्य महासागरीय कटक के नीचे ऊपरी मैंटल का भाग पिघल जाता है तथा मैग्मा का निर्माण होता है, जो ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन के रूप में अग्रसर होता है। इस प्रक्रिया के कारण भूकंप होता है।
विनाशात्मक प्लेट किनारे आपस में टकराते हैं, जिस कारण अपेक्षाकृत अधिक घनत्व वाले प्लेट किनारे का कम घनत्व वाले प्लेट किनारेके नीचे क्षेपण हो जाता है। परिणामस्वरूप क्षेपित भाग मैंटल में चला जाता है। प्लेटों के इस आपसी टकराव, क्षेपित भाग की रगड़ एवं क्षेपित भाग के 200 किमी या उससे अधिक गहराई में जाकर अत्यधिक ताप के कारण पिघलकर मैग्मा बनकर ज्वालामुखी के केन्द्रित उद्भेदन के रूप में प्रकट होने के कारण तीव्र भूकंप आते हैं।
जहां पर दो प्लेट एक दूसरे के अगल-बगल सरकते हैं वहां पर संरक्षी प्लेट किनारे का निर्माण होता है एवं रूपान्तर भ्रंश का निर्माण होता है। परिणामस्वरूप यहां पर तीव्र भूकंप आते हैं। सन एण्ड्रियास भ्रंश इसका प्रमुख उदाहरण हैं।
भू-संतुलन में अव्यवस्था: भूपटल के विभिन्न भाग प्रायः संतुलित अवस्था में हैं। अब कभी भी इस संतुलन में क्षणिक अथवा दीर्घ कालिक अव्यवस्था उपस्थित हो जाती है, तो भूंकप का अनुभव किया जाता है। यद्यपि भू-संतुलन संबंधी तरह-तरह की अव्यवस्थायें तथा पुनर्व्यवस्थायें होती रहती हैं, परंतु भूकंप सदैव अनुभव नहीं किया जाता है। इसके विपरीत जब अव्यवस्था अचानक हो जाती है, तो भूकंप प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार के भूकंप प्रायः नवीन मोड़दार पर्वतीय क्षेत्रों में आते हैं, जहां पर पर्वत निर्माणकारी क्रिया के कारण भूपटल में अभी तक संतुलन स्थापित नहीं हो सका है।
जलीय भार: धरातलीय भाग पर जब जल का एकत्रीकरण हो जाता है, तो उससे उत्पन्न अत्यधिक भार तथा दबाव के कारण जल भंडार की तली के नीचे स्थित चट्टानों में हेर-फेर होने लगता है। जब यह परिवर्तन शीघ्रता से होता है, तो भूंकप का अनुभव किया जाता है। यहां पर जल भंडार का अभिप्राय भूपटल पर मानवकृत जलाशयों तथा बांधों से है क्योंकि चिरस्थायी जलभंडार अपना संतुलन स्थापित कर चुके हैं।
भूपटल में सिकुड़न: विकिरण द्वारा निरंतर ताप में ह्रास के कारण पृथ्वी के ताप में पर्याप्त कमी होने के करण भूपटल शीतल होने लगता है। इस प्रकार पृथ्वी के ठंडे होने से उसकी पपड़ी में संकुचन होता है जो पर्वत निर्माणकारी क्रिया को जन्म देता है। संकुचन तथा सिकुड़न जब शीघ्र एवं तीव्रता से होता है, तो भूपटल में कंपन पैदा हो जाता है तथा भूकंप का अनुभव किया जाता है।
गैस का फैलाव: भूपटल के नीचे जब किसी कारण से जल पहुंच जाता है, तो अत्यधिक ताप के कारण जल वाष्प अथवा गैस में बदल जाता है। जब इसकी तीव्रता अधिक हो जाती है तो यह ऊपर आने का प्रयास करती है फलस्वरूप भूपटल में कंपन होने लगता है तथा भूकंप का अनुभव किया जाता है।
उपर्युक्त कारणों द्वारा विनाशकारी तथा भयंकर भूकंपों का जन्म होता है। इनके अलावा कुछ और भी कारण हैं, जिनसे सामान्य भूकंप आते हैं। पृथ्वी के घूर्णन के कारण कभी-कभी कमजोर भागों में भूकंप का अनुभव किया जाता है। वर्तमान समय में अणुबमों के विस्फोट तथा परीक्षणों द्वारा भी भूकंप आते हैं। चूने की चट्टानों वाले प्रदेश में कंदराओं की छत जब टूटकर नीचे गिरती है, तो साधारण भूकंप आता है। हिमखंडएवं शिलाखंड का टूट कर नीचे गिरना तथा सागरीय तटीय भागों पर सागरीय लहरों के कटाव के कारण जब महाद्वीप का तटीय भाग टूट कर सागर में गिरता है, तो साधारण कंपन का अनुभव किया जाता है।
भूकंप पृथ्वी की एक ऐसी अंतर्जात घटना है, जिसका नाम सुनते ही मानव हृदय कांप उठता है। इसके विनाशकारी प्रभाव के कारण ही भूकंप को मानव के लिए अभिशाप माना जाता है। यद्यपि भूकंप द्वारा सरंचनात्मक कार्य भी होते हैं, लेकिन विध्वंसात्मक कार्यों की अपेक्षा ये नगण्य होते हैं।
भूकंप द्वारा मानव निर्मित रचनात्मक वस्तुओं की क्षति होती है। सड़कों का फटना, रेल पटरियों का जुड़ना, पुलों का नष्ट हो जाना, भवनों का गिरना आदि इसके उदाहरण हैं। भूकंप का सबसे बुरा प्रभाव नगरों पर होता है। भूकंप के कारण नगर कभी-कभी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। कल-कारखाने बर्बाद हो जाते हैं। भूकंप के आकस्मिक तथा भयंकर प्रभाव से मकान आदि तीव्र गति से दोरायमान हो जाते हैं जिस कारण मकानों में खदानों में तथा कारखानों में भयंकर आग लग जाती है, जिससे अपार धन-जन की हानी होती है। भूकंप के भयंकर कंपन के कारण अनायास ही धरातल का कुछ भाग फट जाता है तथा दरार का निर्माण हो जाता है। भूकंप के आवेग से टूटे हुए विशाल खंड के नदियों के मार्ग में आ जाने से नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, जिस कारण या तो उनमें बाढ़ आ जाती है अथवा उनका मार्ग परिवर्तित हो जाता है। अन्य प्रभावों में भूस्खलन एवं स्थल भाग में उभार प्रमुख हैं। सागर के तटवर्ती स्थलीय भागों में भूकंप के आवेग से सागर में ज्वार-तरंगे उठने लगती हैं, जिससे समीपवर्ती भागों में पर्याप्त क्षति होती है। कैरोलिना, कलकत्ता, असम, जापान का सगामी खाड़ी और भारत के कोयना नगर का भूकंप प्राकृतिक प्रकोप की दिल दहला देने वाली भयंकर घटनाएं हैं।
यद्यपि भूकंप का सामान्य अर्थ विनाशकारी घटना से ही लगाया जाता है तथापि अप्रत्यक्ष रूप से उससे कुछ लाभ भी अवश्य होते हैं। भूकंप के कारण स्थल में उभार हो जाने से नवीन स्थल खंड का निर्माण हो जाता है, जो कई दृष्टिकोणों से लाभदायक होते हैं। भूकंप के प्रभाव से चट्टानों में टूट-फूट तथा भूस्खलन होने लगताहै। इस क्रिया से चट्टानें कमजोर हो जाती हैं तथा अपक्षय की क्रिया आसान हो जाती है। फलस्वरूप चट्टानों के विघटन तथा वियोजन से मिट्टियों की रचना के लिए आवश्यक पदार्थ मिल जाते हैं। भूकंप के कारण धरातल पर लावा का विस्तार हो जाता है। इसी लावा से काली मिट्टी की संरचना होती है। मूल्यवान खनिजों का पृथ्वी के आतंरिक भाग से धरातल पर आना, स्थल भाग के धंसने से झील का निर्माण होना और जल स्रोतों का उद्भव होना आदि भूंकप के लाभकारी प्रभाव हैं। पृथ्वी के आंतरिक बनावट के विषय में भूकंपीय लहरों द्वारा ही जानकारी प्राप्त होती है।