Question : भारत में उद्योगों के विकास का अनुरेखन कीजिए तथा इस संदर्भ में बहुराष्ट्रिकों एवं उदारीकरण नीतियों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिएः
(2006)
Answer : भारत के औद्योगिक विकास का इतिहास काफी प्राचीन एवं गौरवपूर्ण है। यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति से पूर्व ही भारत औद्योगिक दृष्टि से विकसित था। भारतीय उद्योग कृषि के साथ एकीकृत थे। भारतीय दस्तकार तथा कारीगर कपड़ा बुनने, मिट्टी के बर्तन बनाने, आभूषण, धातु निर्मित सामान, चमड़ा के सामान, काष्ठशिल्प बनाने में दक्ष थे।
भारत जलयान निर्माण के लिए भी प्रसिद्ध था। वाराणसी के सिल्क उत्पाद, ढाका के मलमल तथा आगरा एवं मेरठ के कालीन आदि वस्तुओं की विश्व में काफी मांग थी। लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् भारत के घरेलू उद्योग के उत्पाद कारखानों में बनी उत्पादों का मुकाबला नहीं कर सके तथा नष्ट हो गए।
औपनिवेशिक काल में औद्योगिक विकास की शुरुआत 1854 ई. से मानी जा सकती है। इसी वर्ष मुंबई में सूती वस्त्र के कारखाने की स्थापना की गई। 1879 में प्रथम कागज का कारखाना लखनऊ में, 1855 ई. में प्रथम जूट मिल रिसरा में तथा 1874 ई. में लोहा इस्पात का आधुनिक कारखाना कुल्टी में स्थापित किया गया। 1870 ई. में कानपुर में ऊनी वस्त्र उद्योग तथा 1904 ई. में मद्रास में सीमेंट उद्योग की स्थापना की गई। 1907 ई. में जमशेदपुर में टाटा लोहा एवं इस्पात कंपनी की स्थापना के साथ ही भारत के औद्योगिक विकास में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व भारत में औद्योगिक विकास की गति धीमी थी। केवल उन्हीं उद्योगों को प्रोत्साहित किया गया, जिनका विकास ब्रिटेन में कठिन था। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ।
1923 ई. में ब्रिटेन सरकार द्वारा भारत के औद्योगिक विकास के लिए प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। कई उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया गया। लोहा, इस्पात, चीनी, सीमेंट, इंजीनियरिंग सामान आदि उद्योगों की स्थापाना की गई। मुंबई, अहमदाबाद तथा हुगली औद्योगिक प्रदेश का तेजी से विकास हुआ। आटोमोबाइल, एल्यूमीनियम, रसायनिक उर्वरक, जहाजरानी आदि उद्योगों का भी विकास हुआ है। 1947 में देश के विभाजन का जूट एवं सूती वस्त्र उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। स्वतंत्रता के पूर्व भारत का औद्योगिक विकास के सामान कागज आदि उपभोक्ता वस्तुओं तक ही सीमित था। सीमेंट, लौहा-इस्पात, अन्य धातु उद्योग, रासायनिक उद्योग, इंजीनियरिंग उद्योग जैसे आधारभूत उद्योगों की प्रगति धीमी थी। स्वतंत्रता के पश्चात् 1948 ई. में प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। इस नीति में उद्यमी तथा सत्ता दोनों के रूप में राज्य की भूमिका निर्धारित की गई। प्रथम पंचवर्षीय योजना में उद्योगों के विद्यमान क्षमता के पूर्ण उपयोग पर मुख्य जोर दिया गया। सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में कई उद्योग लगाए गए।
1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव द्वारा अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र में सामरिक महत्व की भूमिका सौंपी गई। दूसरीपंचवर्षीय योजना में पूंजीगत तथा वस्तुओं का उत्पादन करने वाली मशीनों के निर्माण पर विशेष बल दिया गया। इस योजना के दौरान उद्योगों का उल्लेखनीय विकास एवं विविधीकरण हुआ। सार्वजनिक क्षेत्र में लोहा एवं इस्पात के तीन बड़े कारखानों की स्थापना की गई। हैवी इलेक्ट्रीकल तथा हैवी इंजीनियरिंग उद्योगों की स्थापना की गई। रासायनिक उद्योगों में भी तीव्र प्रगति हुई। चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगीकरण की विषमता को दूर करने का प्रयास किया गया। निर्यातोन्मुखी औद्योगिक इकाइयों की स्थापाना की गई। 1977 की औद्योगिक नीति में ग्रामीण औद्योगीकरण को प्राथमिकता दी गई। जिला औद्योगिक केद्रों की स्थापाना की गई। छठी पंचवर्षीय योजना में उदरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इलेक्ट्रानिक उद्योग में तेजी से प्रगति होने लगी।
1991 की नई औद्योगिक नीति में उदारीकरण के अनेक उपायों की घोषणा की गई तथा निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया गया। इस नीति के अंतर्गत निवेश संबंधी बाधाएं हटा दी गइंर्, आयात-निर्यात को उदार बनाया गया, कुछ क्षेत्रों में विदेशी प्रौद्योगिकी के आयात की छूट दी गई, विदेशी विनियोग को बनाया गया, औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली का सरलीकरण किया गया, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या में कमी की गई। सार्वजनिक क्षेत्र के चुने हुए उपक्रमों का विनिवेश किया गया।
ऊर्जां, तेल शोधन, इलेक्ट्रॉनिक, रसायनिक व दूर-संचार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गई। कई पूंजीगत एवं उपभोक्ता उद्योगों में पूंजी निवेश में तीव्र वृद्धि हुई। परंतु अधिकांश निवेश भारतीयों द्वारा किया गया है एवं बहुराष्ट्रियों कंपनियों ने कम निवेश किया। कुल विदेशी निवेश का एक-चौथाई से भी अधिक उपभोक्ता उद्योग में हुआ। आधारभूत उद्योग तथा पूंजीगत उद्योग में अपेक्षाकृत कम विदेशी निवेश हुआ। इस प्रकार उदारीकरण के पश्चात् बहुराष्ट्रियों कंपनियां, जिनके उत्पादों हेतु विकसित देशों के बाजार संतृप्त हो चुके हैं, भारत के विस्तृत बाजार से आकर्षित होकर यहां कारखाने लगाने को उद्यत हुई। उदारीकरण के प्रारंभिक वर्षों में देशी कंपनियों के साथ भागीदारी का मार्ग चुना, परंतु अब वे पूर्ण स्वामित्व वाले कारखाने स्थापित करने की ओर अग्रसर हुए। तथापि अभी भी पूंजी निवेश त्वरित लाभ वाले उद्योगों, दूर-संचार, कम्प्यूटर, खाद्य एवं पेय पदार्थ, फार्मास्युटिकल की ओर ही अधिक उन्मुख हैं।
औद्योगिक उत्पादन की औसत वार्षिक वृद्धि दर
क्षेत्र | 1981-82 से 1990-91 | 1993-94 से 2000-01 |
बुनियादी वस्तुएं | 7.0 | 5.8 |
पूंजीगत वस्तुएं | 11.5 | 7.5 |
अर्न्तवर्ती वस्तुएं | 5.9 | 8.5 |
उपभोक्ता वस्तुएं | 6.7 | 7.4 |
सामान्य वस्तुएं | 7.8 | 7.2 |
इस प्रकार उपर्युक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि उदारीकरण के पश्चात् औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक की औसत वार्षिक वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत से घटकर 7.2 प्रतिशत हो गई। बुनियादी एवं पूंजीगत वस्तुओं के क्षेत्र में विफलता उल्लेखनीय है।
अतः यह कहा जा सकता है कि उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण विदेशी विनियोग को आकर्षित करने में सफल हो सकती है एवं इसी प्रकार देशी विनियोग को बढ़ावा दे सकती है। परंतु यह अधिक उत्पादन के साथ अधिक रोजगार कायम करेगी तथा औद्योगिक आधार को मजबूती प्रदान करेगी, इसमें संदेह है।
Question : भारत के औद्योगिक परिदृश्य पर उदारीकरण की नीति की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
(2002)
Answer : उदारीकरण की नीति को 1991 में अपनाया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य भारतीयों के रहन-सहन एवं आमदनी में सुधार, उद्योगों को विश्वस्तरीय बनाना, भारतीय उत्पादों को विश्व में और शहरी उत्पादों को भारत के बाजार में होड़ में शामिल करना तथा विदेशी प्रौद्योगिकी को भारत में लाना है।
भारत में 1991 के पहले का औद्योगिक परिदृश्य, सरकार की नीतियां, कच्चे माल की सुविधा, बाजार, यातायात के साधनों की उपलब्धता आदि तथ्यों पर निर्भर करता रहा है, जिससे अधिकतर उद्योग कच्चे माल के स्रोतों या शक्ति संसाधनों अथवा बाजार के स्थान पर ही अवस्थित थे। इसके अलावे सरकार की पिछड़े भागों की उन्नति की नीति के कारण कुछ उद्योग पिछड़े जिलों में भी स्थापित किए गये थे। उदाहरणस्वरूप- छोटानागपुर का औद्योगिक क्षेत्र कच्चेमाल पर, कलकत्ता का बाजार पर तथा भिलाई या बरौनी जैसे कारखाने पिछड़े क्षेत्र के विकास की नीति पर स्थापित हुए थे।
आज के परिप्रेक्ष्य में यह दिखाई पड़ता है कि औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति बदल रही है। सर्वप्रमुख परिवर्तन यह है कि उद्योग अब निर्यात की दृष्टि से भी स्थिर हो रहे हैं तथा आवागमन की सुविधा बढ़ने से यातायात शुल्क का महत्व घट रहा है। उदाहरणस्वरूप- विशाखापत्तनम् का लौहा इस्पात उद्योग जो तटीय स्थिति में है। इसी तरह पारादीप, गोपालपुर, हुगली, इन्नूर आदि क्षेत्र का विकास निर्यात के उद्देश्य से ही किया जा रहा है।
नये-नये विशेष निर्यात क्षेत्रों की स्थापना से भी औद्योगिक परिदृश्य बदल रहा है। गुजरात के मैदान का क्षेत्र, बंबई-पुना-नासिक का त्रिभुजीय क्षेत्र, दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ये सभी हर तरह का उत्पाद बना रहे हैं तथा इनका विस्तार सर्वाधिक है। उदारीकरण से निजी क्षेत्र निवेश कर रहा है, जैसे रिलायंस ने कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र में प्राकृतिक गैस खोज निकाला है तथा वहां पेट्रो-केमिकल उद्योग की स्थापना करने की घोषणा की है।
Question : भारत के औद्योगिक क्षेत्रों की वृद्धि, लक्षण एवं वितरण प्रतिरूप का वर्णन कीजिए।
(2001)
Answer : औद्योगिक प्रदेश का तात्पर्य ऐसे प्रदेशों से है जहां विभिन्न श्रृंखलाबद्ध उद्योगों के अनेक कारखाने केंद्रित हों एवं औद्योगिक भू-दृश्य विकसित हो। स्वतंत्रता के पश्चात एक ओर विभिन्न औद्योगिक उत्पादों की मांग में तेजी से वृद्धि हुई तो दूसरी ओर कच्चे माल की उपलब्धता, तकनीकी, परिवहन एवं संचार आदि के क्षेत्र में भी तेजी से प्रगति हुई। इसके फलस्वरूप भारत में भारी उद्योग, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग, उपभोक्ता उद्योग, इंजीनियरिंग, पेट्रो-केमिकल उद्योग आदि का तेजी से विकास हुआ। नियोजित विकास नीति के बावजूद स्थानीयकरण की विशेष सुविधा के कारण उद्योगों का विकास विशेष प्रदेशों में हुआ है। भारत के बड़े औद्योगिक प्रदेश निम्नलिखित हैंः
1. मुंबई-अहमदाबाद-पुणे औद्योगिक प्रदेश: इस औद्योगिक प्रदेश का विकास स्वतंत्रता के पूर्व ही प्रारंभ हो चुका था। स्वतंत्रता के पश्चात अहमदाबाद, वड़ोदरा, शोलापुर, कोल्हापुर, थाणे, पुणे, कोयली, सूरत आदि अनेक औद्योगिक केन्द्रों का विकास हुआ है। इस प्रदेश के विकास के प्रमुख कारणों में तटीय स्थिति का लाभ, जल-विद्युत एवं पेट्रोलियम की सुविधा, स्थानीय कपास की सुविधा आदि महत्वपूर्ण हैं। स्वतंत्रता के पूर्व काल से ही दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत से रेलमार्गों एवं सड़क मार्गों द्वारा जुड़े होने के करण इस औद्योगिक प्रदेश को परिवहन की सुविधा भी प्राप्त है। सूती एवं तैयार वस्त्र इस औद्योगिक प्रदेश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्योग हैं। इस प्रदेश में सूती वस्त्र उद्योग का प्रारंभ 1854 ई. में ही हो चुका था। इस संपूर्ण प्रदेश में सूती, ऊनी, मिश्रित एवं कृत्रिम रेशे वस्त्र निर्माण की 100 से भी अधिक इकाइयां हैं। मुम्बई एवं अहमदाबाद को ‘कपास की महानगरी’ के नाम से जाना जाता है। औद्योगिक प्रदेश का दूसरा महत्वपूर्ण उद्योग पेट्रो रसायन, रसायनिक एवं औषधि उद्योग है। औषधि उत्पादन की दृष्टि से यह औद्योगिक प्रदेश भारत में अग्रणी है। अहमदाबाद, मुंबई एवं वड़ोदरा रासायनिक एवं औषधि उद्योग के प्रमुख केन्द्र हैं। कोयली, मुंबई, ट्राम्बे एवं जामनगर में तेल शोधन केन्द्रों की स्थापना की गयी है। विभिन्न प्रकार के मशीन एवं औजारों के उत्पादन की दृष्टि से भी यह प्रदेश महत्वपूर्ण है। हाल के वर्षों में इस औद्योगिक प्रदेश में इलेक्ट्रॉनिक एवं सॉफ्रटवेयर के क्षेत्र में तेजी से प्रगति हुई है। इन उद्योगों के अलावा इस औद्योगिक प्रदेश में सीमेंट, रासायनिक उर्वरक, वनस्पति तेल, जहाजरानी, ऑटोमोबाइल, साइकिल, बिजली के सामान, फिल्म उद्योग एवं विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों का भी पर्याप्त विकास हुआ है।
2. हुगली औद्योगिक प्रदेश: स्वतंत्रता के पूर्व से ही विकसित औद्योगिक प्रदेशों में हुगली औद्योगिक प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह प्राचीनतम औद्योगिक प्रदेश पश्चिम बंगाल में बंगाल की खाड़ी के तट पर हुगली नदी के दोनों ओर 120 किलोमीटर की लंबाई एवं 5 किलोमीटर की चौड़ाई में फैला हुआ है। इस औद्योगिक प्रदेश का विस्तार उत्तर में बिलासपुर से लेकर दक्षिण में हल्दिया तक विस्तृत है। कलकत्ता एवं हावड़ा के अलावा हल्दिया, श्रीरामपुर, रिसरा, शिवपुर, नैहाटी, काकीनाड़ा, टीटागढ़, बजबज, बिरलापुर, बांसबेरिया आदि यहां के प्रमुख औद्योगिक केन्द्र हैं। इस औद्योगिक प्रदेश के विकास के कारणों में जूट एवं कोयला जैसे कच्चे माल की सुविधा, समुद्रतटीय भौगोलिक स्थिति, सड़क, रेल एवं जल परिवहन की सुविधा, स्थानीय बाजार आदि की सुविधा महत्वपूर्ण हैं। इस प्रदेश में उद्योगों की विविधता काफी अधिक है। भारत के जूट उद्योग का यह सबसे बड़ा क्षेत्र है, जहां देश का 90 प्रतिशत जूट का सामान तैयार किया जाता है। यह प्रदेश कागज के उत्पादन में भी अग्रणी है। इस प्रदेश में सूती वस्त्र के अनेक कारखाने स्थित हैं।
यह देश के इंजीनियरिंग उद्योग का भी एक प्रमुख केन्द्र है। इसके अलावा इस औद्योगिक प्रदेश में ऑटोमोबाइल, जहाजरानी, पेट्रोरसायन, रासायनिक उर्वरक, चमड़ा से बनी वस्तुएं, इलेक्ट्रॉनिक, बिजली के सामान, औषधि एवं विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं से संबंधित उद्योगों का काफी विकास हुआ है। वर्तमान समय में यह औद्योगिक प्रदेश प्रदूषण, अत्यधिक मानवीय जमघट आदि की समस्या के दौर से गुजर रहा है।
3. छोटानागपुर औद्योगिक प्रदेश: यह औद्योगिक प्रदेश धातु शोधन एवं भारी उद्योग के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।इस औद्योगिक प्रदेश का विस्तार झारखंड, पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा तक है। स्वतंत्रता के पूर्व इस प्रदेश में मुख्यतः खनन उद्योग एवं धातु उद्योग का विकास हुआ था, परंतु स्वतंत्रता के पश्चात विविध प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है। इस प्रदेश में लोहा एवं इस्पात उद्योग का विकास सर्वप्रथम 1874 ई. में बर्नपुर कुल्टी में हुआ। इसके पश्चात जमशेदपुर, दुर्गापुर, राऊरकेला एवं बोकारो में लोहा-इस्पात उद्योग की स्थापना की गयी। इस प्रदेश में उद्योगों के स्थानीयकरण के कारकों में विभिन्न प्रकार के खनिजों की सुविधा, जल-विद्युत, सस्ते श्रम एवं परिवहन की सुविधा महत्वपूर्ण हैं। इस औद्योगिक प्रदेश में जमशेदपुर में लोहा एवं इस्पात के अलावा मोटर कार, टिन, प्लेट, रेल के डिब्बे, कृषि यंत्र, बिजली के तार आदि के उद्योग स्थित हैं। आसनसोल में साइकिल, जे.के. नगर में एल्युमिनियम, चितरंजन में डीजल इंजन का कारखाना स्थित है। इसके अलावा गोमिया में बारूद का कारखाना, सिंदरी एवं दुर्गापुर में सीमेंट एवं रासायनिक उर्वरक के कारखाने, रांची में भारी मशीन का कारखाना, घाटशिला में तांबा गलाने का कारखाना, कांड्रा में कांच का करखाना, जपला, झींकापानी एवं खेलारी में सीमेंट के कारखाने स्थित हैं।
4. बंगलौर-मद्रास-कोयंबटूर औद्योगिक प्रदेश: इस औद्योगिक प्रदेश का विस्तार कर्नाटक एवं तमिलनाडु राज्यों में है। यह प्रदेश उत्तर में बंगलौर से लेकर दक्षिण में मदुरई तक फैला हुआ है। इस औद्योगिक प्रदेश का विकास स्वतंत्रता के पश्चात हुआ है। इस प्रदेश के विकास के कारकों में लौह-अयस्क, कपास, गन्ना जैसे कच्चे माल की सुविधा, परिवहन की सुविधा आदि महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि इस प्रदेश में कृषि, वन, पशु एवं खनिज आधारित उद्योगों का विकास हुआ है। इस प्रदेश में बंग्लौर, कोयंबटूर, मदुरई, मैटूर, तिरुचिरापल्ली, शिवकाशी, मैसूर, सलेम, मद्रास आदि महत्वपूर्ण औद्योगिक केन्द्र हैं। इस प्रदेश में सूती, ऊनी तथा रेशमी वस्त्र, चीनी, लोहा इस्पात, रबड़ की वस्तुएं, घड़ी, मशीन एवं औजार, टेलिफोन, बिजली के सामान आदि के उद्योगों का विकास हुआ है। इन उद्योगों के अलावा सीमेेंट, एल्युमिनियम, काष्ठ शिल्प, रासायनिक पदार्थ, इलेक्ट्रोनिक्स एवं सॉफ्रटवेयर, चमड़े की वस्तुएं, ऑटोमोबाइल आदि उद्योगों का भी विकास हुआ है।
5. दिल्ली औद्योगिक प्रदेश: इस औद्योगिक प्रदेश का विस्तार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में पाया जाता है। इस औद्योगिक प्रदेश का विकास स्वतंत्रता के बाद प्रारंभ हुआ। हाल के वर्षों में इस प्रदेश का काफी तेजी से विकास हुआ है। इस प्रदेश के विकास का मुख्य कारण उत्तर भारत में दिल्ली की केन्द्रीय स्थिति, वृहत बाजार, परिवहन, पूंजी की सुविधा एवं राजनीतिक प्रशासनिक सुविधा आदि हैं। दिल्ली, गाजियाबाद, मेरठ, मोदीनगर, गुड़गांव, ओखला, फरीदाबाद, सोनीपत, मुरादनगर, दादरी, नोएडा आदि इस प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक केंद्र हैं। इस प्रदेश में इंजीनियरिंग, रासायनिक, सूती एवं ऊनी वस्त्र, चमड़ा की वस्तुएं, रसायन, चीनी, साइकिल, ऑटोमोबाइल, बिजली के सामान, कांच, चीनी मिट्टी के सामान, औद्योगिक पाट-पुर्जे, सीमेंट, रबड़ के सामान आदि से संबंधित उद्योगों का विकास हुआ है। हाल के वर्षों में इस औद्योगिक प्रदेश में कंप्यूटर एवं सॉफ्रटवेयर उद्योग का भी तेजी से विकास हो रहा है।
उपरोक्त वृहत् औद्योगिकी प्रदेश के अलावा अनेक लघु औद्योगिक प्रदेशों का भी विकास हुआ है, जो निम्नलिखित हैं-
Question : भारत में सीमेन्ट अथवा सूती वस्त्र उद्योग के स्थानीयकरण हेतु कारकों की विवेचना कीजिए तथा इसके वितरण के प्रतिरूप का विश्लेषण कीजिए।
(1999)
Answer : सीमेंट उद्योग का स्थानीयकरण मुख्यतः परिवहन लागत द्वारा निर्धारित होता है। इस उद्योग में कच्चे माल का वजन ज्यादा होता है, इसीलिए परिवहन लागत को कम करने के उद्देश्य से ज्यादातर सीमेंट उद्योगों की स्थापना कच्चे माल के निकट होती है। सीमेन्ट में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल निर्माण प्रक्रिया में अपना अधिकांश वजन खो देते हैं। लगभग साढ़े पांच टन वजन के कच्चे माल से एक टन सीमेंट तैयार होता है। 100 टन सीमेंट के उत्पादन में 160 टन चूना-पत्थर, 38 टन कोयला तथा 5 टन जिप्सम की आवश्यकता होती है।
चूना-पत्थर और कोयला वजनदार होते हैं और इन्हें ढोने में अधिक व्यय भी होता है, अतः अधिकांश सीमेंट के कारखाने चूना-पत्थर एवं कोयला क्षेत्रों के निकट स्थापित कियेे गये हैं।
सीमेन्ट उद्योग और चूना-पत्थर
राज्य | चूना पत्थर के भण्डार (%) | सीमेंट उद्योग का प्रतिशत |
---|---|---|
मध्य प्रदेश राजस्थान कर्नाटक तमिलनाडु गुजरात |
34 6.5 13 1.5 13 |
17 11 10 10 8 |
तालिका में वर्णित राज्यों में से अधिकांश में अच्छी किस्म के कोयले का अभाव है, इसलिए इन्हें या तो खुले बाजार से या फिर असम या मेघालय जैसे दूर-दराज के क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार परिवहन लागत में वृद्धि हो जाती है। इसके अलावा इनमें से अधिकांश राज्य गहरे ऊर्जा संकट से गुजर रहे हैं जिसके फलस्वरूप सीमेंट की कीमत तथा इसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगितात्मकता पर असर पड़ता है। सीमेंट उद्योग में परिवहन मुख्यतः रेलगाडि़यों पर निर्भर है। डिब्बों की उपलब्धता में कमी को देखते हुए तथा परिवहन व्यय में कमी करने के उद्देश्य से थोक संचालन पर जोर दिया जा रहा है। इस तरह की एक परियोजना वाडी/ एल.एण्ड.टी. समूह एवं मुम्बई के बीच चलायी जा रही है।
सम्प्रति इस्पात उद्योग एवं उर्वरक उद्योग से प्राप्त लौहचूर्ण तथा अन्य अवशेषों द्वारा सीमेंट का उत्पादन भद्रावती तथा सिन्दरी जैसे स्थानों में हो रहा है, जिससे सीमेंट उद्योग का स्थानीयकरण परम्परागत स्रोतों से दूर देश के अन्य क्षेत्रों में हो रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सीमेंट उद्योग का वितरण काफी असमान है। अधिकांश कारखाने देश के पश्चिमी और दक्षिणी भागों में फैले हैं, जबकि मांग उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों में ज्यादा है।
सूती वस्त्र उद्योग: देश के सबसे बड़े उद्योग का दर्जा प्राप्त करने वाले इस उद्योग को देश के सबसे अधिक विकेन्द्रित उद्योग का दर्जा भी प्राप्त है। इस उद्योग का शुद्ध कच्चा माल कपास है। निर्माण प्रक्रिया में यह अपना वजन नहीं खोता है। जितना वजन कच्चा माल का होता है, उतना ही वजन तैयार माल का होता है। यही कारण है कि इस उद्योग का स्थानीयकरण कपास उत्पादक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा है। इसका स्थानीयकरण कपास उत्पादक क्षेत्रों से दूर ऐसे स्थानों पर भी हो गया है जहां बाजार, मजदूर, ऊर्जा जैसी सुविधाएं प्राप्त हैं। यह उद्योग हमारा सबसे पुराना उद्योग है।
आरंभिक काल में इस उद्योग का स्थानीयकरण कपास उत्पादक क्षेत्रों यथा- मुम्बई-अहमदाबाद क्षेत्र तक सीमित था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद इसमें विकेन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति देखने को मिली। इस विकेन्द्रीयकरण के लिए नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों कारक जिम्मेदार थे। एक ओर जहां यातायात सुविधाओं का विकास, जलविद्युत संसाधन का विकास, सस्ता श्रम, कपास का कच्चा माल होना, बाजार आदि सुविधाएं अन्य स्थानों पर उपलब्ध हुईं, वहीं मुम्बई व अहमदाबाद जैसे शहरों में भूमि का अभाव, ऊंचे किराये, जीवन स्तर का महंगा होना आदि कारकों ने इस उद्योग को अन्य नगरों में विकसित होने को प्रेरित किया। दिल्ली, कानपुर तथा कलकत्ता जैसे शहरों में यह उद्योग इन्हीं कारणों से पनपा।
सूती वस्त्र उद्योग का जमाव गंगा के मैदान तथा प्रायद्वीपीय भू-भाग के शुष्क पश्चिमी भागों में अधिक है। महाराष्ट्र एवं गुजरात सूती वस्त्र उद्योग में सबसे आगे हैं। अन्य महत्त्चपूर्ण राज्यों में तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक हैं। कुछ क्षेत्र जैसे- उड़ीसा, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम आदि को छोड़ कर देश के अन्य हिस्सों में इस उद्योग का विकास हुआ है।
Question : भारत में औद्योगिक संपदाओं (Estates) के महत्त्व का परीक्षण कीजिये।
(1998)
Answer : भारत के औद्योगिक विकास व संतुलित क्षेत्रीय विकास के संदर्भ में औद्योगिक संपदाओं (estates) का विशेष महत्त्व है। वेबर के अनुसार, अनुकूल परिस्थितियों में उद्योगों में जमघट की प्रवृत्ति पायी जाती है। इसके द्वारा उद्योग एक दूसरे का लाभ उठाते हैं, जिससे संरचनात्मक खर्च में बचत होता है तथा उद्योगों को मुनाफा होता है। औद्योगिक संपदा के विकास में भौगोलिक कारक के साथ-साथ सरकारी समर्थन का भी बड़ा योगदान होता है। औद्योगिक संपदा में उद्योगों के बीच अंतर्संबंध तथा अंतर्निर्भरता पायी जाती है। उदाहरण के तौर पर, जमशेदपुर के लौह इस्पात कारखाना से प्राप्त कचड़े का इस्तेमाल, सिन्दरी में उर्वरक बनाने के लिए किया जाता है। यहां से प्राप्त इस्पात से रांची में भारी मशीन बनवाया जाता है। इस प्रकार, एक उद्योग दूसरे उद्योग को कच्चा माल देता है और स्वयं भी इस गठजोड़ से लाभान्वित होता है। इसके अलावा औद्योगिक संपदा में सरकार, आधारभूत संरचना मुहैया करा कर औद्योगिक इकाइयों की मुख्य परेशानियों को दूर करती है। नोएडा में बिजली, कच्चा माल, तकनीकी तथा वित्तीय सहायता द्वारा उत्पादन प्रणाली को सरल व कारगर बनाया जाता है। इससे माल निर्यात करने में भी सुविधा होती है। इसके फलस्वरूप उस क्षेत्र का सर्वांगीण विकास हुआ है। इससे महानगरों पर भार भी कम होता है। इन सबके बावजूद इन संपदाओं का विकास अपेक्षाकृत विकसित क्षेत्रों में ही हुआ है, जिससे संतुलित क्षेत्रीय विकास की अवधारणा को प्राप्त नहीं किया जा सका है।
Question : भारत में उर्वरक उद्योग के विकास के रुखों पर प्रकाश डालिए।
(1998)
Answer : एक ओर जहां अन्य देशों की तुलना में भारतीय कृषि की प्रति हेक्टेयर पैदावार बहुत कम है, वहीं जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि क्षेत्र में वृद्धि के आसार भी कम ही प्रतीत होते हैं। फलतः भूमि की उर्वरक क्षमता बढ़ाने के लिये सरकार ने रासायनिक उर्वरक उद्योग के विकास पर विशेष ध्यान दिया है। पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। इसके विकास के रुख को निम्न तालिका द्वारा समझा जा सकता हैः
रासायनिक उर्वरक उत्पादन का रुख(हजार टन में)
वर्ष | नाइट्रोजन उर्वरक | फास्फेट उर्वरक | उपभोग(N+P2O3)(लाख टन) |
---|---|---|---|
1950-51 1955-56 1968-69 1974-75 1979-80 1983-84 1990-91 |
9 80 541 1184 2226 2230 2256 |
9 12 210 311 757 850 875 |
न्यून न्यून 24.50 25.79 52.56 53 54 |
इस तालिका से स्पष्ट है कि आजादी के समय उर्वरक का उत्पादन काफी कम था, परन्तु हरित क्रांति के समय (1967-68) में उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई। इसके बावजूद 1980 से 1990 के दशक में उत्पादन में कोई खास वृद्धि नहीं हुई। 1993-94 में तो उत्पादन में 7.1 प्रतिशत की गिरावट आयी। यदि हम उर्वरक के उपभोग पर नजर डालें, तो हम पायेंगे कि हरित क्रांति के दौरान उर्वरकों के उपभोग में काफी वृद्धि हुई। 1980 से 1990 के दशक में उपभोग की मात्र लगभग 54 लाख टन पर स्थिर रही। हाल के वर्ष में उर्वरक की मांग जिस तेजी से बढ़ रही है, उतनी तेजी से हम उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं।
उत्पादन की मंद गति का मुख्य कारण कच्चे माल की कमी है। उर्वरक उद्योग में कच्चे माल के तौर पर रॉक फास्फेट, पोटाश, सोडियम नाइट्रेट, जिप्सम, कोयला, नैप्था आदि का इस्तेमाल होता है। भारत में इन खनिजों की कमी है। हमें रॉक फास्फेट, सल्फर, नैप्था आदि का आयात करना पड़ता है। हाल के वर्षों में गैस आधारित उर्वरक उद्योग को एच-बी-जे- पाइपलाइन के बिछ जाने से अवश्य लाभ हुआ है तथा गुना, बरेली, जगदीशपुर जैसे क्षेत्रों में गैस आधारित उर्वरक उद्योग लगाये गये हैं।
भारत में उर्वरक के उत्पादन में सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रम, यथा-राष्ट्रीय खाद निगम, हिंदुस्तान खाद निगम आदि का अधिक योगदान रहा है। उन उपक्रमों का उत्पादन स्तर उत्साहवर्द्धक नहीं है। इसके अलावा सरकार किसानों को सस्ते दामों पर उर्वरक उपलब्ध कराने के लिये भारी मात्र में रियायत देती है। इससे उर्वरक के मूल्यों पर असर होता है और सरकार को अनावश्यक खर्च वहन करना पड़ता है।
सरकार की उर्वरक नीति भी कम दोषपूर्ण नहीं है। यूरिया घोटाला इसका ज्वलंत उदाहरण है। सरकार ने एक ओर नाइट्रोजन क्षेत्र को अपने नियंत्रण में रखा, वहीं दूसरी ओर फास्फेट व पोटाश क्षेत्रों को नियंत्रण से बाहर कर दिया। इसका असर यह हुआ कि यदि कोई यूरिया के माध्यम से नाइट्रोजन प्राप्त करना चाहे तो उसे रियायत मिलेगी, परन्तु अगर वह इसे डी-ए-पी- के द्वारा प्राप्त करे, तो वह रियायत से परे होगा।
इन दोषपूर्ण नीतियों के बावजूद सरकार ने कुछ सार्थक कदम भी उठाये हैं। इसने शाहजहांपुर, बिजनाला, विजयपुर आदि स्थानों पर नये उद्योग लगाये हैं। इसके अलावा ईरान, जॉर्डन व ओमान के सहयोग से एक संयुक्त परियोजना को भी मंजूरी दी है। साथ ही, उर्वरक उद्योग में इस्तेमाल किये जाने वाले कच्चे माल के आयात में विशेष छूट का भी प्रावधान किया है। रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन की सीमितता तथा इनके हानिकारक प्रभाव से आजकल जैविक उर्वरकों का प्रचलन बढ़ा है। आशा की जा रही है कि इनके व्यापक प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों की मांग में कमी होगी और हम उर्वरक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकेंगे।