Question : प्रवसन के कारणों एवं परिणामों को स्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : लोगों का व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से अपने निवास का स्थायी या अस्थायी परिवर्तन प्रवसन कहलाता है। किसी प्रदेश में प्रवसन जनन क्षमता, मृत्युदर, जनसंख्या के विकास तथा जनसंख्या संरचना को निश्चित करने वाले तत्व होते हैं। विस्तार के आधार पर प्रवास, अंतर्राष्ट्रीय, अंतः प्रदेशीय, अंतः नगरीय, ग्रामीण-ग्रामीण, अंतरनगरीय, ग्रामीण अथवा शहरी हो सकता है। दूरी के आधार पर अत्यधिक दूर अथवा पास, निर्णय के आधार पर स्वतंत्र या दबाव में हो सकता है। प्रवास व्यक्तिगत और सामूहिक भी हो सकता है। सामाजिक संगठन के आधार पर पारिवारिक, जातिगत और व्यक्तिगत आदि हो सकता है। प्रवसन के अनेक कारण हो सकते हैं। ये कारण प्राकृतिक आपदाओं, जलवायु परिवर्तन, महामारियों, सूखे-बाढ़ से लेकर सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक हो सकते हैं। मुख्य कारण निम्न हैं-
प्रवसन की प्रक्रिया दोनों ही स्थानों अर्थात् जहां से वे जाते हैं और जहां वे जाते हैं, के समाजों, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण प्रवसन के परिणाम निम्न हैं:
Question : भारत में लिंगानुपात के कारण तथा परिणामों की विवेचना कीजिए।
(2006)
Answer : भारत में लिंगानुपात का तात्पर्य प्रति 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या से है। लिंगानुपात पर जन्म के समय लिंगानुपात, पुरूषों एवं स्त्री मृत्यु दर, प्रवास आदि कारकों का प्रभाव पड़ता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों तथा विभिन्न सामाजिक समूहों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा जनसांख्यिकीय दृष्टि से भिन्नता पाई जाती है, जिसका प्रभाव लिंगानुपात पर भी पड़ा है।
भारत में गांवों की तुलना में नगरों में लिंगानुपात कम पाया जाता है। इसका कारण यह है कि गांवों से पुरूष जनसंख्या का प्रवास अधिक होता है। विभिन्न सामाजिक समूहों में लिंगानुपात के अध्ययन से पता चलता है कि इसाइयों एवं जनजातियों में लिंगानुपात अधिक है। इसका कारण इन समाजों में स्त्रियों की उत्तम स्थिति है। साथ ही जनजातियों में पुरूषों के जोखिमपूर्ण कार्यों में संलग्न होने के कारण आयु संभाव्यता कम है। सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन तथा महिलाओं की निम्न स्थिति के कारण अनुसूचित जातियों में लिंगानुपात कम पाया जाता है।
दक्षिण भारत तथा हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में लिंगानुपात अधिक है। इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में उच्च स्तर के कारण मृत्यु दर कम है। इसके अलावा इन क्षेत्रों से पुरूषों का प्रवास भी विभिन्न क्षेत्रों में हुआ है। इसके विपरीत उत्तर-पश्चिमी भारत में लिंगानुपात कम है।
पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हरित क्रांति वाले क्षेत्रों मे न केवल पुरूष जनसंख्या का आप्रवास हुआ है, बल्कि निम्न सामाजिक स्तर के कारण यहां महिलाओं की मृत्यु दर भी अधिक है। पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों में एक ओर जनसंख्या वृद्धि दर को कम करने की चाहत तथा दूसरी ओर पुरूष बच्चे की कामना के कारण महिला भ्रूण हत्या को बढ़ावा मिला है। इसका प्रभाव लिंगानुपात पर पड़ रहा है। स्त्री जनसंख्या की कमी के कारण इन क्षेत्रों में गंभीर सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
Question : भारत में जनसंख्या विस्फोट एवं भोजन सुरक्षा पर एक निबंध लिखिए।
(2006)
Answer : भोजन सुरक्षा का तात्पर्य प्रत्येक समय पर प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक भोजन उपलब्ध कराना है। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि हुई है। 1951 में भारत की जनसंख्या लगभग 36.1 करोड़ थी, जो 2001 में लगभग तीन गुनी हो चुकी है। भारत में खाद्यान्न का उत्पादन 1951 में लगभग 53 मिलियन टन था, जो वर्तमान में लगभग चार गुना हो चुका है। इसके बावजूद भारत में खाद्य एवं पोषक आहार की समस्या बनी हुई है।
कुपोषण सूचकांक के अनुसार 119 देशों में भारत का 117वां स्थान है एवं इसका स्थान उप-सहारा क्षेत्र से भी नीचे है। सर्वाधिक कुपोषित जनसंख्या भारत में निवास करती है। भारतीय अपनी कुल आय का एक तिहाई भोजन पर खर्च करते हैं, इसके बावजूद भारत में औसतन 2500 कैलोरी से कम ऊर्जा प्राप्त करते हैं। भारत में औसतन प्रोटीन उपलब्धता 60 ग्राम प्रतिदिन है, परंतु 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या को 35 ग्राम से भी कम प्रोटीन प्राप्त होता है।
भारत में गरीब जनसंख्या की वृद्धि दर अधिक है। इसका परिणाम यह है कि लगभग 3.5 करोड़ जनसंख्या के पास क्रय शक्ति का अभाव है। इस प्रकार जहां स्वतंत्रता के पश्चात् तीन दशक तक खाद्यानों तक भौतिक पहुँच महत्वपूर्ण था, वहीं वर्तमान समय में जनसंख्या वृद्धि तथा आर्थिक विषमता में वृद्धि के कारण आर्थिक रूप से खाद्यानों तक पहुंच एक महत्वपूर्ण समस्या है।
भारत में खाद्य एवं पोषक आहार की समस्या का एक प्रमुख कारण यह भी है कि यहां भोजन में विविधता का आभाव है तथा अभी लोग परंपरागत खाद्य पदार्थों पर निर्भर हैं। भोजन सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए न केवल खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की आवश्यकता है, बल्कि साथ ही भोजन की आदतों में भी सुधार लाना होगा। इसके अलावा गरीब जनसंख्या को भी आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाना आवश्यक है, ताकि उनकी क्रय शक्ति में वृद्धि हो सके।
Question : भारत में जनजातीय क्षेत्रों की पहचान कीजिए और उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं पर प्रकाश डालिए
(2005)
Answer : भारतीय जनजातियों का वितरण चार मुख्य प्रदेशों में केन्द्रित पाया जाता हैः
(i) उत्तरी तथा उत्तर-पूर्वी प्रदेशः इस प्रदेश में हिमालय के उप-प्रदेश तथा भारत की पूर्वी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमान्त की पहाडि़यां, तिस्ता घाटी और ब्रह्मपुत्र नदी का जमुना पद्मा वाला भाग सम्मिलित होता है। इस सम्पूर्ण प्रदेश में देश की कुल जनजातियों का लगभग 12.33% भाग पाया जाता है। जहां पाए जाने वाले जनजातियों में गारो, खासी, बुक्सा, लेप्चा, भोटिया, राजी, मुइयां, रंगपान, कोनायक आदि प्रमुख हैं।
(ii) मध्यवर्ती प्रदेशः यह प्रदेश प्रायद्वीपीय भारत के पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्रों पर फैला हुआ है। इसका फैलाव उत्तर में गंगा तथा नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी के बीच है। इस प्रदेश में जनजातियों के क्षेत्र मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, छत्तीसगढ़, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, गुजरात, झारखंड तथा उड़ीसा में फैले हैं। दक्षिणी गुजरात एवं बस्तर इस क्षेत्र की बाहरी सीमा बनाते हैं। कुल जनजातियों का लगभग 81% इसी प्रदेश में मिलते हैं। यहां की प्रमुख जनजातियां है- खरिया, मुंडा, भील, संथाल, भूमिज, ओरांव, बिरहोर, गोंड, बैगा, कोरकु, मुरिया आदि।
(iii) दक्षिणी प्रदेशः जनजातियों का तीसरा प्रमुख वर्ग पश्चिमी घाट के सबसे दक्षिणी भाग में पाया जाता है, जो वयनाड से कन्याकुमारी के बीच फैला हुआ है। कुल जनजातियों का लगभग 6-5% इस प्रदेश में पाया जाता है। चेंचु, कुरूम्बा, पनियान, यूराली, कडार आदि इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियां हैं।
(iv) अंडमान निकोबार द्वीपों का एकाकी प्रदेशः उपरोक्त तीन भौगोलिक क्षेत्रों के अतिरिक्त एक छोटा एकाकी क्षेत्र और है, जिसके अंतर्गत अंडमान निकोबार द्वीप समूह सम्मिलित किए जाते हैं। इस क्षेत्र मे ओंग, जारवा, उत्तरी सण्टीली, अंडमानी और निकोबारी जनजातियां रहती हैं। यहां कुल जनजाति का केवल 0.13% भाग पाया जाता है। जनजातियों की अपनी कई समस्याएं हैं, जो इस प्रकार हैं-
(i) जनजातियों द्वारा देश की आर्थिक क्रियाओं में भाग लेने के कारण कुछ समस्याएं। उत्पन्न हुई है। यथा, नयी राजनीतिक संस्कृति का उदय और उसके संगठनात्मक एवं विघटनात्मक पक्ष, जनजातियों में पृथकता की भावना का विकास एवं देश में अशांति में वृद्धि।
(ii) जनजातियों द्वारा देश की आर्थिक क्रियाओं में भाग लेने से उत्पन्न समस्याएं। जैसे-जनजाति अर्थव्यवस्था पर बाजार अर्थव्यवस्था का प्रभाव, भूमि की समस्याएं, औद्योगीकरण की समस्याएं, नवीन आर्थिक अवसरों से उत्पन्न समस्याएं एवं अपरंपरागत व्यवसायों को अपनाने से उत्पन्न समस्याएं।
(iii) जनजातियों द्वारा देश की सांस्कृतिक क्रियाओं में भाग लेने से उत्पन्न समस्याएं। जैसे- सामाजिक-सांस्कृतिक अस्तित्व का अभाव अन्य वर्गों के साथ समानता, जनजातीय समूह में नवीन स्वरूपों का उदय, विकास, तनाव व संघर्ष।
(iv) विभिन्न क्षेत्रों में नवीन उद्योगों, बांध निर्माण एवं कारखानों की स्थापना के कारण उसके विस्थापन एवं पुनर्वास की समस्या उत्पन्न हुई है।
(v) विभिन्न जनजातियों को राष्ट्रीय मुख्य घारा से जोड़ने एवं उसके एकीकरण करने की भी एक विकट समस्या है।
Question : भारत की जनसंख्या नीति का मूल्यांकन कीजिये और राष्ट्र के जनसंख्या नियंत्रण पर उसकी प्रासंगिकता का परीक्षण कीजिये।
(2004)
Answer : नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति-2000 के तीन मुख्य उद्देश्यों में तात्कालिक उद्देश्य आपूर्ति क्षेत्रों में पर्याप्त मात्र में गर्भ निरोधकों, स्वास्थ्य सुरक्षा ढांचा व स्वास्थ्य कर्मियों की आपूर्ति करना है, मध्यकालीन उद्देश्य सन् 2010 तक कुल प्रजननता दर को 2:1 के प्रतिस्थापन स्तर तक लाना है तथा दीर्घकालिक उद्देश्य सन् 2045 तक पहले के 2016 के बदले) स्थिर जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करना है।
नयी नीति में एक महत्वपूर्ण बात है- जनसंख्या स्थिरीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय जनसंख्या कोष’की स्थापना। जनसंख्या नियंत्रण के मामले में पिछड़े राज्यों को वित्तीय सहायता इस कोष से उपलब्ध करायी जायेगी। इसके अलावे जनसंख्या नियमन से सम्बद्ध कार्यक्रमों के क्रियान्वयन एवं समीक्षा तथा जनसंख्या नियंत्रण के लिए व्यापक जन अभियान तैयार करने में सहायता प्रदान करने हेतु प्रधानमंत्री के ही नेतृत्व में एक सौ सदस्यीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का भी गठन किया गया है।
परन्तु अगर समग्र तौर पर देखा जाय तो भारत की जनसंख्या नीति ढीली-ढाली ही रही है। प्रथम दो पंचवर्षीय योजनाएं औषधालय उपागम (clinical approach) तथा तृतीय पंचवर्षीय योजना विस्तार उपागम के लिए परीक्षण की अवधि बन कर ही रह गयी। चतुर्थ योजना में परिवार नियोजन को परिवार कल्याण के रूप में लागू कर कैफटेरिया उपागम अपनाया गया। वस्तुतः अभी तक की हमारी जनसंख्या नीति सकारात्मक उपायों (positive measurers) जैसे बंध्याकरण, गर्भ निरोधक, गर्भपात इत्यादि पर जरूरत से ज्यादा अवलंबित रही है। नई जनसंख्या नीति, 2000 के कुछेक अच्छी बातों को छोड़कर अभी तक जनांकिकी संरचना तथा सामाजिक-आर्थिक विकास के गतिशील अंतक्रिया को नजरअंदाज किया जाता रहा है।
वस्तुत हमारी जनसंख्या वृद्धि की समस्या सीधे तौर पर सामाजिक सरंचना एवं सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ी हुई है। क्रमिक रूप से गिरती लिंग अनुपात, विशिष्ट आयु वर्ग में उच्च शिशु मृत्यु दर, गरीबी, अशिक्षा, महिलाओं के लिए कार्य करने के अवसर, महिला शिक्षा, अनिवार्य शिक्षा, वृद्ध आयु सुरक्षा, जनसंख्या शिक्षा आदि बातों पर कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए जनसंख्या नीति में बाध्यता के तत्व पर भी विचार करने की जरूरत है।
सबसे महत्वपूर्ण है जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम को एक व्यापक जन-आंदोलन के रूप में चलाना। इस संदर्भ में जनसंख्या नीति, 2000 की भी आलोचना इस आधार पर की जाती है कि प्रधानमंत्री के पास समय की कमी को देखते हुए उन्हें जनसंख्या आयोग का नेतृत्व देना ठीक नहीं है।
बहरहाल अभी तक की जनसंख्या नीति एक गंभीर संदेश देने एवं व्यापक जन-जागरूकता नीति में जनसंख्या स्थिरीकरण के लक्ष्य को 2016 से 35 वर्ष बढ़ाकर 2045 करना भी राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी को दर्शाता है एवं नकारात्मक संदेश देता है। जनसंख्या नियंत्रण में हमारी जनसंख्या नीति तभी प्रासंगिक बनेगी जब छिट-पुट उपाय छोड़कर हम उपर वर्णित कमियों को दूर कर एक व्यापक नीति बनायें तथा सारा जोर लगाकर जनसंख्या स्थिरीकरण एवं विकास का लक्ष्य प्राप्त करें। अस्तु जनसंख्या की किसी भी नीति के केंद्र बिन्दु में जनजीवन की गुणवत्ता होनी चाहिए।
Question : ‘किसी भी क्षेत्र के आर्थिक अभिलक्षण उसके जनसंख्या प्रतिरूप पर भौतिक अभिलक्षणों के मुकाबले कहीं ज्यादा सीधा प्रभाव डालते हैं।’ उदाहरण देते हुए इस बात को स्पष्ट कीजिए।
(2004)
Answer : भौतिक एवं आर्थिक अभिलक्षणों में से कौन जनसंख्या प्रतिरूप पर ज्यादा प्रभाव डालते हैं, इस पर विद्वानों में मतभेद रहा है। कुछ दशाओं में प्रथम तथा कुछ दशाओं में द्वितीय अभिलक्षण निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
सामान्यतया यह माना जाता है कि विज्ञान व तकनीकी विकास के साथ-साथ गैर भौतिक तत्वों का महत्व बढ़ने लगता है। इन गैर-भौतिक तत्वों में आर्थिक अभिलक्षण जनसंख्या प्रतिरूप यथा वितरण व वृद्धि प्रतिरूप आदि पर ज्यादा सीधा प्रभाव डालते प्रतीत होते हैं।
आर्थिक कारक निःसन्देह आज बहुत महत्वपूर्ण बन गये हैं। किसी क्षेत्र की आर्थिक जीवन क्षमता वहां के निवासियों के खाद्य-सामग्री एवं रोजगार अवसर प्रदान करने की क्षमता पर निर्भर करती है, जिनका वहां की कुल जनसंख्या और वितरण प्रतिरूप पर गहरा प्रभाव होता है। कुल मिलाकर एक आर्थिक तंत्र विशेष के अन्तर्गत विशिष्ट तरह का ही जनसंख्या प्रतिरूप जन्म लेता है और विकसित होता है। इस कारण से कृषि समाज एवं औद्योगिक समाज के जनसंख्या प्रतिरूप में भिन्नता पायी जाती है।
इसी प्रकार किसी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में धंधों की विविधता एवं वहां की जनसंख्या घनत्व एक दूसरे से धनात्मक सह-सबंध रखते हैं। यही कारण है कि औद्योगिक समाज के क्षेत्रों में न केवल मानव बस्तियों का आकार ही बड़ा है बल्कि जनसंख्या प्रति क्षेत्र इकाई भी ज्यादा ऊंची है।
हाल के दशकों में शक्ति संसाधन एवं खनिजों का जनसंख्या वितरण पर गहरा प्रभाव बढ़ता नजर आता है। खनिजों की जनसंख्या वितरण को प्रभावित करने की क्षमता यू.एन.ओ. (1973) के अनुसार निम्न बातों पर निर्भर करती हैः
(i) खनिज का कच्चा माल के रूप में महत्व
(ii) खनिज की अन्य स्थानों पर उपलब्धता
(iii) उसका आवागमन व्यय
इस संदर्भ में छोटानागपुर प्रदेश का उदाहरण काफी समीचीन है। हालांकि यहां पर भौतिक अभिलक्षण कुछ ज्यादा अनुकूल नहीं है क्योंकि धरातल ऊंचा-नीचा व पथरीला है तथा मिट्टी भी घाटियों को छोड़कर उपजाऊ नहीं है। परन्तु आज यह प्रदेश अपनी प्रचुर खनिज सम्पदा के कारण बड़े उद्योगों का क्षेत्र हो रहा है जिसके कारण यहां जनसंख्या का अच्छा घनत्व मिलता है।
आर्थिक अभिलक्षणों के प्रभाव का अध्ययन भारत में जनसंख्या घनत्व के विश्लेषण द्वारा किया जा सकता है। भारत को सामान्यतः चार घनत्व प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है जैसा कि यहां दिए गए चित्र में दिखाया गया हैः
(1) अत्यधिक जनघनत्व वाले प्रदेश (घनत्व 500 व्यक्ति/किमी2)ः गंगा के मैदान, पूर्वी तट एवं मालाबार तट वाले इस प्रदेश में कृषि के लिए भौगोलिक स्थितियां अनुकूल होने के कारण अधिक जनसंख्या मिलता है। हालांकि भौगोलिक स्थितियां अनुकूल होने के कारण ही कृषि बहुसंख्य लोगों के भरण पोषण का साधन है, पर ज्यादा सीधा प्रभाव कृषि का पड़ता है जो एक आर्थिक क्रिया है। दूसरी तरफ सतलज-गंगा के मैदान में वर्षा पूरब की अपेक्षा कम होती है, परन्तु हरित क्रांति के कारण विकसित कृषि के फलस्वरूप यहां उच्च जनघनत्व मिलता है।
(2) अधिक घनत्व वाले प्रदेश (घनत्व 350-500): गंगा एवं सतलज के मैदानी भाग के अलावा इसमें दार्जिलिंग पहाड़ी, तमिलनाडु के उच्च भाग एवं पश्चिमी घाट पहाडि़यों के क्षेत्र आते हैं। मैदानी भाग को छोड़कर जिन क्षेत्रों में खनिजों की उपलब्धता अधिक है एवं औद्योगीकरण पनप रहा है, परिणामतः जनसंख्या वृद्धि दर भी तीव्र है एवं घनत्व सामान्य से अधिक है।
(3) सामान्य घनत्व वाले क्षेत्र (150-350): सामान्य रूप से विशाल प्रायद्वीपीय पठार इसी श्रेणी में आता है। सामान्यतया इस क्षेत्र में कृषि के लिए भौगोलिक परिस्थितियां उतनी अनुकूल नहीं हैं, जितनी उत्तरी मैदानी भाग में। फिर भी खनिजों की प्रधानता के कारण इस क्षेत्र में औद्योगीकरण-नगरीकरण का विकास हुआ है तथा पोषण क्षमता पर्याप्त है। छोटानागपुर पठारी भाग इसी क्षेत्र में आता है, जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है। हिमालय पर्वतीय प्रदेश में स्थित उत्तरांचल (घनत्व 159) भी इसी वर्ग के अन्तर्गत आता है।
(4) न्यून जनसंख्या वाले क्षेत्र (150 से कम): इसमें हिमालय एवं उत्तर-पूर्वी भारत आता है, जहां भौगोलिक परिस्थितियां प्रतिकूल हैं तथा आर्थिक पिछड़ापन भी है।
निष्कर्ष रूप में कहें तो प्रतिकूल भौतिक परिस्थितियों के बावजूद किसी प्रदेश में जनघनत्व अधिक हो सकता है अगर वहां आर्थिक विकास की संभावनाएं मौजूद हों। महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल, तमिलनाडु, पश्चिमी घाट पहाडि़यां इत्यादि के उदाहरण इसकी पुष्टि करते हैं। यहां तक कि राजस्थान के न्यून वर्षा वाले क्षेत्र में एक गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिले में सिंचाई की सुविधाओं के विकास के कारण कृषि का विकास तथा आर्थिक प्रगति हो रही है, जिसका सीधा प्रभाव जनसंख्या के वितरण प्रतिरूप पर पड़ा है।
जनसंख्या प्रतिरूप पर आर्थिक अभिलक्षणों के सीधे प्रभाव का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है- नगरों व महानगरों में जनसंख्या का वितरण। अपने आस-पास के क्षेत्रों के समान ही भौतिक परिस्थितियां होने के बावजूद इन नगरीय केन्द्रों में अति उच्च जनसंकुल मिलता है, जिसका कारण है, इन नगरों में होने वाली आर्थिक गतिविधियां। महानगरीय केन्द्रों, जैसे-कोलकाता, चेन्नई, दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, चण्डीगढ़, कानपुर, बंगलौर इत्यादि जहां औसत घनत्व 5971 व्यक्ति/किमी2 से ऊपर है, में जनसंख्या का जमाव वहां उपलब्ध द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों व नगरीय सुविधा के कारण है। आर्थिक क्रियाकलापों के कारण ही बड़े नगरों की ओर गांवों से प्रवास होता है जो इन नगरों की तीव्र जनसंख्या वृद्धि दर का एक प्रमुख कारण है।
Question : भारत में शहरी क्षेत्रों की जनगणना की परिभाषा पर चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : भारत में नगरीय बस्तियों की जनगणना 1891 से प्रारंभ हुई। इसके अन्तर्गत किसी भी ऐसी बस्तियों को नगरीय बस्ती कहा गया, जहां वाणिज्यि एवं व्यापार का कार्य होता था और ‘जनगणना’ अधीक्षक की दृष्टि में वजह नगरीय सुविधा उपलब्ध हो।
इस परिभाषा की व्यापाक आलोचना की गयी क्योंकि इसमें जनसंख्या आकार निर्धारित नहीं था। अतः 1901 में अधिक व्यापक परिभाषा प्रस्तुत की गई, जिसके अनुसार निम्नलिखित का पालन अनिवार्य थाः
नगरीय क्षेत्र की परिभाषा में व्यापक परिवर्तन 1951 में किया गया । कई शहरों के समूह को टाऊन ग्रुप की संज्ञा दी गयी तथा इसे ही 1971 ई. की जनगणना में नगरीय पुंज कहा गया।
2001 की जनगणना में नगरीय पुंज को और परिभाषित किया गया तथा इसके विकास हेतु तीन शर्तों का पालन आवश्यक बताया गया है। प्रथमतः केन्द्रीय नगर कानूनी दृष्टि से मान्यता प्राप्त नगर हो। दूसरा कम-से-कम एक सहायक नगर हो और एक उपबस्ती हो। तीसरा नगर-समूह की जनसंख्या 20,000 हो।
2001 में नगरीय बस्ती की परिभाषा के लिए सामान्यतः उन्हीं शर्तों का पालन किया गया है, जिसका पालन 1971 ई. की जनगणना में किया गया था। लेकिन 2001 की जनगणना में स्पष्ट किया गया है कि सभी नगरनिगम या नगरपालिका, सभी अधिसूचित क्षेत्र तथा सभी सैनिक छावनी स्वतः नगरीय बस्तियां हैं। उनके जनगणना मान्यता पर किसी प्रकार का पुनर्विचार किया जायेगा। लेकिन वो बस्तियां जो नवीन नगरीय नगरीय बस्ती के रूप में आयेंगे उनके लिए निम्न तीन शर्तों का पालन अनिवार्य हैः
Question : भारत में वर्तमान जनसंख्या घनत्व के वितरण प्रतिरूप के कारणों का खुलासा कीजिए।
(2002)
Answer : भारत में जनसंख्या के घनत्व के प्रतिरूप को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों को हम भौतिक एवं अभौतिक दो वर्गों में रख सकते हैं। भौतिक कारकों में जलवायु की दशाएं, धरातलीय उच्चावच्च, जल की उपलब्धता, वनस्पति का स्वरूप, मृदा की उर्वरता इत्यादि प्रमुखता से प्रभाव डालते हैं।
अभौतिक कारणों में शिक्षा का प्रसार, महिलाओं की सामाजिक स्थिति, स्त्री शिक्षा, धर्म एवं संस्कृति के मूल्य, कृषि की व्यवस्था, स्वास्थ्य सरकारी नीति, रहन-सहन इत्यादि प्रमुख हैं।
इन दोनों प्रमुख कारकों के मिले जुले प्रभाव से ही भारत के घनत्व के वितरण की दशा को समझा जा सकता है। घनत्व के आधार पर भारत को तीन भागों में बांटा जा सकता है।
अत्यधिक घनत्व वाले राज्य
पश्चिम बंगाल : 904
बिहार : 880
केरल : 819
उत्तर प्रदेश : 689
सामान्य घनत्व वाले प्रदेश
पंजाब : 482
तमिलनाडु : 478
झारखंड : 338
महाराष्ट्र : 314
आंध्र प्रदेश : 275
कम घनत्व वाले प्रदेश: इसमें सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तर पूर्वी राज्य आदि आते हैं।
राज्यों, अन्दर भी जनसंख्या घनत्व में विभिन्नता देखी जा सकती है। जैसे कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद आदि सघन जिले हैं, जबकि वहीं बाड़मेर, चुरु, चंबा, कुल्लू आदि जिले विरल हैं।
Question : जनजाति क्षेत्रों के विकास में जनजाति विकास खंडों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
(2002)
Answer : जनजाति विकास खंडों की स्थापना 1980 के दशक के प्रारंभ में शुरू की गयी थी। इसकी सर्वप्रथम अनुसंशा यू-सी आयोग ने की थी, जिसने दो रणनीतियां अनपाने की बात की।
(i) टीएसपी (Tribal Sub plan): इस जनजातीय उप आयोजना का उद्देश्य उन क्षेत्रों का विकास सुनिश्चित करना था, जहां जनजातियों की जनसंख्या 5000 से अधिक है।
(ii) एमएडीए: (Marginal Ara Development Agency): यह उन क्षेत्रों के लिए था, जहां जनजातियों की संख्या 5000 से कम थी।
जनजातीय विकास खंडों ने जनजातियों के आर्थिक संबलन एवं उनके पर्यावरण की रक्षा दोनों कार्यों का बीड़ा उठाया। आर्थिक क्षेत्र में जनजातियों का भोजन, नौकरी, पोषण आदि मुहैया करना प्रमुख उद्देश्य है। जनजातीय जीवन पद्धति में तथा उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक रीति-रिवाजों एवं मान्यताओं में ज्यादा घुसपैठ न हो, इस बात पर भी बल दिया गया।
पारिस्थितिकी एवं उनके निवास स्थल के वातावरण से सुरक्षा पर भी पूरा बल दिया गया है। झूम कृषि, वनों का कटना इत्यादि पर सकारात्मक रोक लगाये गए। सामाजिक क्षेत्र में शिक्षा का प्रसार, चिकित्सा की सुविधा इत्यादि भी मुहैया कराये गये हैं। जनजातीय संस्थाओं को भी पुनर्जीवन देने का कार्य किया गया है। इन तमाम प्रयासों के बावजूद यह प्रयोग पूर्णतया सफल नहीं रहा है। सिर्फ आंशिक सफलता ही आंकी जा सकती है।
Question : भाषा, धर्म एवं पंरपरा किस प्रकार भारत के सांस्कृतिक प्रादेशीकरण का आधार प्रस्तुत कर सकते हैं? स्पष्ट कीजिए।
(2002)
Answer : भारत की सभ्यता एवं संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। हजारों वर्षों की सभ्यता एवं संस्कृति में अनेक संस्कृतियों का विलय हुआ है तथा इससे अनेक परंपराओं का प्रस्फुटन हुआ है। इसी कारण से इसे विविधता में एकता का देश कहा जाता है।
A. हिमालय क्षेत्र - A1 पश्चिमी हिमालयA2 पूर्वी हिमालय
B. हिन्दुस्तानी क्षेत्र - B1 पंजाबी क्षेत्र, B2 हरियाणवी क्षेत्र, B3 राजस्थानी क्षेत्र, B4 गुजराती क्षेत्र, B5 मराठी क्षेत्र, B6 हिन्दी क्षेत्र,
C. प्रायद्वीपीय क्षेत्र - C1 मलयाली क्षेत्र, C2 कोंकणी क्षेत्र,C3 कन्नड़ क्षेत्र, C4 तमिल क्षेत्र, C5 तेलगू क्षेत्र
D. द्वीपीय क्षेत्र - D1 अण्डमान क्षेत्र, D2 लक्षद्वीप क्षेत्र
E. बंगाली क्षेत्र
F. उड़िया क्षेत्र
प्रादेशीकरण एक प्रक्रिया है, जिसमें हम एक क्षेत्र विशेष की समान विशेषताओं का संकलन करते हैं तथा विषमताओं को विलग करते हैं। इन समान विशेषताओं के आधार पर ही प्रदेश का निर्माण होता है। जैसे एक जलवायु प्रदेश में समान वृष्टि या तापमान का पाया जाना अथवा एक सांस्कृतिक प्रदेश में एक ही भाषा, जाति या धर्म के लोगों का पाया जाना।
सर्वप्रथम ब्लाश महोदय ने सांस्कृतिक कारकों के आधार पर सांस्कृतिक प्रादेशीकरण का कार्य किया। प्रो- कुरियन ने भारत का सांस्कृतिक प्रादेशीकरण किया और तीन स्तर बनाएं- (i) Macro Level (ii) Meso Level (iii) Micro Level, आर. एल. सिंह ने पुनः 1968 में कुरियन से मिलते-जुलते विचार रखे।
भाषा एवं प्रदेश: भारत एक बहुभाषीय देश है। 1956 की जनगणना के अनुसार भारत में 844 भाषा एवं बोलियां हैं। लेकिन 97 प्रतिशत जनसंख्या सिर्फ 17 भाषाएं बोलती हैं। भारत में राज्यों का निर्माण भी भाषा के आधार पर किए गये हैं। जैसे पंजाब एवं हरियाणा का विभाजन, असम एवं अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों का विभाजन। सूक्ष्म विभाजन (Micro level Division) करने पर हम पाते हैं कि अनेक राज्यों के बीच में अनेक भाषाई क्षेत्र पाये जाते हैं। जैसे- बिहार के अंदर भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि भाषाई प्रदेश, गुजरात के अंदर कच्छ प्रदेश इत्यादि। मेवाड़ी-राजस्थानी, डुंगरी इत्यादि राजस्थान में आम बोलियां हैं।
धर्म एवं प्रदेश: भारत में सभी धर्म एवं समुदाय के लोग निवास करते हैं, जिनमें हिन्दू 82 प्रतिशत, मुसलमान 12 प्रतिशत और ईसाई, बौद्ध, पारसी तथा जैन प्रमुख हैं। धर्म एक सामाजिक बधंन का कार्य करता है तथा अधिवासों को जन्म देता है। धर्म संस्कृति का मूलभूत तत्व भी माना जा सकता है। क्योंकि यह मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान एवं मानसिक संबल प्रदान करता है। भारत में पंजाब राज्य में सिख समुदाय एवं नानक परंपरा हावी है। इसी तरह से जम्मू कश्मीर में इस्लाम, सिक्किम एवं अरुणाचल प्रदेश में बौद्ध एवं अन्य पूर्वोत्तर प्रदेशों में ईसाई हैं।
Micro level पर हम पाते हैं कि जम्मू- कश्मीर में तीन विभाग हो सकते हैं- (i) जम्मू में हिन्दू (ii) कश्मीर में इस्लाम तथा (iii) लद्दाख में बौद्ध धर्म। इसके अलावे अन्य जिला स्तर पर भी विभाग देखे जा सकते हैं। जैसे- मुर्शिदाबाद में मुस्लिम बहुल जातियां रहती हैं।
ब्रुक और वेब ने भारत को एक ही परंपरा वाला देश माना है। परंपरा के आधार पर हम भारत को तीन भागों में बांट सकते हैं।
(क) हिमालय प्रदेश (ख) हिन्दुस्तानी क्षेत्र (ग) प्रायद्वीपीय क्षेत्र।
हिमालय प्रदेश की संस्कृति भी पूर्व में झूम कृषि परंपरा, जनजातीय पंरपरा आदि से प्रभावित है। पश्चिम में भ्रमणशील निवास और भेड़ पालन आदि की पंरपरा है।
हिन्दुस्तानी क्षेत्र में सघन कृषि, मानसून जलवायु, ऋतु परिवर्तन के अलावे भाषा से जुड़ी पंरपरा अक्षुण्ण है। विदेशी उपनिवेश का प्रभाव गोवा, पांडिचेरी, दमन व दीव आदि में दिखता है।
इस तरह भारत में विभिन्न संस्कृतियां, भाषा एवं धर्म परंपरा के आधार पर प्रादेशीकरण का सुदृढ़ आधार हैं।
Question : भारत की जनसंख्या की लिंग तथा आयु संरचना का विवरण दीजिये।
(2001)
Answer : लिंग संरचना का तात्पर्य पुरुषों एवं स्त्रियों की जनसंख्या के अनुपात से है। भारत में लिंगानुपात की गणना प्रति एक हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या के आधार पर की जाती है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में लिंगानुपात 933 है। पिछली शताब्दी में भारत के लिंगानुपात में निरंतर गिरावट आयी है। 2001 की जनगणना में लिंगानुपात में मामूली वृद्धि हुई है, परंतु 0 से 6 वर्ष के आयु-वर्ग में लिंगानुपात पिछले दशक में 945 से घटकर 927 हो चुका है। भारत में लिंगानुपात ऋणात्मक है। इस ऋणात्मक लिंगानुपात के मुख्य कारण अशिक्षा, परंपरागत समाज, लिंग आधारित भेदभाव, गरीबी आदि हैं। दुर्भाग्यवश साक्षरता एवं प्रति व्यक्ति आय में निरंतर वृद्धि के बावजूद लिंगानुपात में गिरावट जारी है। हाल के वर्षों में जन्म पूर्व लिंग परीक्षण के कारण लिंगानुपात में सकारात्मक परिवर्तन की संभावना क्षीण है। भारत में लिंगानुपात का वितरण अत्यंत ही असंतुलित है। केरल, एकमात्र राज्य है, जहां लिंगानुपात (1058) धनात्मक है। छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराचंल, हिमाचल प्रदेश, गोवा, उत्तराचंल एवं पूर्वी भारत के अधिकांश राज्यों में लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत से अधिक है। यह यहां की जनसंख्या में स्त्रियों के सामाजिक स्तर व जनसंख्या के प्रवास-प्रवाह का प्रतीक है। सामान्यतः अधिक साक्षरता, आधुनिकीकरण एवं नगरीकरण, ईसाई एवं जनजातीय जनसंख्या वाले प्रदेशों में लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत से अधिक है। दूसरी ओर हरियाणा, पंजाब, सिक्किम, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लिंगानुपात 900 से भी कम है। इसके अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, नागालैंड, गुजरात, असम जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों में लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत से कम है। परंपरागत मानसिकता, अशिक्षा एवं लिंग आधारित भेदभाव, जनसंख्या का आप्रवास आदि इन प्रदेशों में निम्न लिंगानुपात के प्रमुख कारण हैं। इसी प्रकार भारत के सभी बड़े नगरों में लिंगानुपात काफी कम है, जिसका कारण इन नगरों में पुरुष जनसंख्या का आप्रवास है।
आयु संरचना का तात्पर्य भारत में विभिन्न आयु वर्ग की जनसंख्या से है। भारत में 0-14 वर्ष की जनसंख्या का अनुपात लगभग 36 प्रतिशत है। यह अनुपात विकसित देशों से काफी अधिक है, जिसका कारण उच्च जन्म दर एवं निम्न मृत्यु दर है। 15-59 वर्ष की जनसंख्या का अनुपात लगभग 58 प्रतिशत है। यह विकसित देशों की तुलना में कम है। यह कार्यशील जनसंख्या है। भारत में 60 वर्ष से अधिक आयु की जनसंख्या का अनपुात लगभग 6.5 प्रतिशत है, जो विकसित देशों की तुलना में कम है। हाल के वर्षों में भारत की जनसंख्या वृद्धि दर में कमी आने के कारण उत्पादक आयु वर्ग की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। अतः आने वाले समय में इसका एक कुप्रभाव यह हो सकता है कि भारत में बेरोजगारी एवं अल्प बेरोजगारी की समस्या और भी गंभीर हो सकती है।
Question : भारत में नृजातीय एवं प्रजातीय विविधताओं की उत्पत्ति का विवेचन कीजिए।
(1999)
Answer : भारत में निग्रिटो, आद्य आस्ट्रेलियाई, मंगोलॉयड, भूमध्यसागरीय, चौड़े सिर वाले पाश्चात्य, नार्डिक एवं इनकी उप-प्रजातियां पायी जाती हैं। इन लोगों ने भिन्न-भिन्न समय पर इस देश में प्रवेश किया। भारत में उनके आप्रवास, अधिवास तथा बाद में देश के भीतर उनके स्थानांतरण के कारण विभिन्न नृ-जातीय एवं सांस्कृतिक समूहों में काफी हद तक पारस्परिक मिश्रण की प्रक्रिया द्वारा ही नृजातीय एवं सांस्कृतिक विविधताओं की नींव पड़ी और उनकी स्पष्ट विशिष्टताओं का विकास हुआ।
भारत के आंशिक रूप से परिबद्ध प्रकृति ने नृजातीय विविधता को प्रभावित किया। उत्तर में हिमाचल एवं दक्षिण में समुद्र ने इसे विलगता प्रदान की। मानव-वैज्ञानिकों के अनुसार आदि मानव का विकास इस उप-महाद्वीप में नहीं हुआ, अर्थात् ये नृजातीय समूह दर्रों और बाद में नदी-घाटी मार्गों के माध्यम से यहां फैल गये। भारत की प्रादेशिक एवं भौगोलिक विभिन्नताओं ने इनके बसाव को प्रभावित किया। शुरू में नदी- बेसिन ही बसाव के केन्द्र रहे, परन्तु बाद में इनका परिक्षेपण अपेक्षाकृत अगम्य क्षेत्रों में हुआ, जहां ये आज तक सुरक्षित हैं। इन क्षेत्रों में सांस्कृतिक परिवर्तन सदैव निरुत्साहित हुआ है, क्योंकि इनका संपर्क बाहर के लोगों से बहुत ही सीमित था। लम्बे समय से भारत में नृजातीय विविधता होने के बावजूद संपर्क, अंतर्मिश्रण तथा परिवर्तनों के कारण एक नृजातीय एकता का जन्म हुआ है, जिसका आधार शारिरिक से ज्यादा मानसिक है।
Question : भारत में जनजातीय क्षेत्रों की समस्याओं और संभावनाओं का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।
(1998)
Answer : ‘जनजातीय कल्याण’की अवधारणा का सूत्रपात, आजादी प्राप्त करने के पश्चात् हुआ। इसके लिए संविधान की पांचवीं व छठीं अनुसूचियों में जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन व नियंत्रण के बारे में उपबंध भी शामिल किये गये। सरकार ने अनेक कार्यक्रमों व योजनाओं के माध्यम से जनजातीय कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया। इन सब के बावजूद जनजातीय क्षेत्र पिछड़ा ही रहा। इन क्षेत्रों की समस्याएं आज भी वहीं हैं, जो पहले थीं।
जनजातीय क्षेत्रों की समस्याएं निम्नलिखित हैं:
सरकार ने पिछले कुछ वर्षों से इन समस्याओं के समाधान के लिए विभिन्न कार्यक्रम व योजनाओं का क्रियान्वयन किया है, परन्तु इनका कोई विशेष फायदा नहीं पहुंचा है। जनजातीय क्षेत्रों की समस्याओं को देखते हुए निम्न प्रभावोत्पादक सुझावों पर विशेष बल दिया जाना चाहिए:
इस प्रकार आर्थिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक दिशा में परिवर्तन लाकर हम इन क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं।
Question : भारत में ग्रामीण आवासन प्ररूप के भौगोलिक नियंत्रण पर चर्चा कीजिये।
(1998)
Answer : भारत की भौगोलिक विविधता ने यहां के ग्रामीण आवासन प्ररूप को काफी हद तक नियंत्रित किया है, परन्तु इस सन्दर्भ में सामाजिक-आर्थिक कारकों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। ग्रामीण आवासन के प्र्ररूप को प्रभावित करने वाले भौगोलिक कारकों में उच्चावच, जलवायु, मृदा, जल की उपलब्धता आदि प्रमुख हैं।
उच्चावच की दृष्टि से देखा जाये तो समतल भूमि में एकग्र (Compact) ग्रामीण आवासन पाया जाता है तथा पहाड़ी क्षेत्रों में असमतल भूमि, कृषि व परिवहन की समस्याएं उत्पन्न करती हैं अर्थात् यहां बिखरे (Scattered) आवासन प्ररूप पाया जाता है। गंगा के मैदान में एकग्र ग्रामीण आवासन पाया जाता है, परन्तु सामाजिक पृथक्कीकरण के कारण यहां बिखरे आवासन भी दृष्टिगत होते हैं। जहां अधिक वर्षा होती है, वहां कृषि सुगमता से की जाती है तथा यहां के आवासन एकग्र होते हैं। परन्तु, रेगिस्तानी भूमि या अल्प वर्षा के क्षेत्रों में बिखरे आवासन पाये जाते हैं। जहां पानी का स्रोत उपलब्ध हो, वहां अवश्य एकग्र आवासन मिलते हैं, जैसे- राजस्थान में देखा गया है। नदियों के किनारे रेखीय आवासन प्ररूप पाया जाता है। उपयुक्त मृदा, कृषि कार्य को प्रोत्साहित करती है। चूंकि ग्रामीण जनता कृषि पर निर्भर होती है, अतएव जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्रों में ग्रामीण अधिवास का प्ररूप एकग्र होता है। कठोर मृदा क्षेत्रों में बिखरे अधिवास दृिष्टगत होते हैं। जहां सड़कें आपस में मिलती हैं, वहां ताराकार प्ररूप देखने को मिलता है। इसके अलावा ग्रामीण घरों के निर्माण में स्थानीय पेड़-पौघों का उपयोग किया जाता है।
इनके बावजूद कुछ स्थानों में सुरक्षा, सामाजिक कारणों आदि के कारण आवासन का प्ररूप प्रभावित होता है। कुछ ग्राम किलेबंद होते हैं, चाहे वे पानी के स्रोत से दूर ही क्यों न हो। इसी प्रकार, पिछड़े जाति के लोग एकग्र आवासन के निकट बिखरे रूप में पाये जाते हैं। इस प्रकार, भौगोलिक कारणों के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक कारकों ने भी ग्रामीण आवासन के प्ररूप को प्रभावित किया है।