Question : भारत में जल संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता एवं उपयोगिता पर चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : मानव सहित जैव संसार के अस्तित्व के लिए जल अनिवार्य है। इसकी मांग में असाधारण वृद्धि हो रही है, लेकिन उपयोग के योग्य जल की आपूर्ति सीमित है। अत्यधिक उपयोग, प्रदूषण अथवा प्रबंधन में लापरवाही के कारण जल उपयोग के अयोग्य हो सकता है। जल सर्वत्र समान मात्रा में उपलब्ध नहीं है। एक स्थान पर जल की अधिकता है, तो दूसरे स्थान पर उसका अभाव। इन परिस्थितियों में जल की मांग और आपूर्ति के साथ-साथ जल संसाधनों के स्रोतों के बीच समन्वय बनाना अनिवार्य है।
जल के चार प्रमुख स्रोत हैं- पृष्ठीय जल, भौम जल, वायुमंडलीय जल और महासागरीय जल। पृथ्वी के धरातल पर जल वर्षण से प्राप्त करता है। वर्षण से प्राप्त संपूर्ण जल का उपयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका बहुत-सा भाग वाष्पीकृत हो जाता है तथा बहुत सा भाग बहकर नदियों, झीलों और तालाबों में चला जाता है, इसे पृष्ठीय जल कहते हैं। इसकी थोड़ी मात्रा मृदा में प्रवेश कर जाती है, इसे भौम जल कहते हैं।
भारत में नदियां पृष्ठीय जल का प्रमुख स्रोत हैं। अनुमान है कि भारत में कुल अपूरणीय भौम जल क्षमता लगभग 433.9 अरब घनमीटर है। कुल भौम जल क्षमता का अकेले उत्तर प्रदेश 19 प्रतिशत भाग वहन करता है। कुल भौम जल का 42 प्रतिशत भाग मैदानी भागों में ही है। मैदानी भाग की मिट्टी की प्रकृति भौम जल स्तर को घनी बनाती है, जबकि प्रायद्वीपीय भारत की संरचना भौम जल के विकास के अनुकूल नहीं है। कुल भौम जल के संसाधनों का एक चौथाई भाग घरेलू, औद्योगिक तथा अन्य संबंधित उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है और तीन चौथाई सिंचाई के लिए काम आता है।
भारत में भूमिगत जल के कुल उपलब्ध संसाधनों का केवल 38 प्रतिशत भाग ही अभी तक विकसित किया जा सका है। भौम जल संसाधनों की कुल संभावित क्षमता में राज्यानुसार बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। जम्मू-कश्मीर में यह 1.07 प्रतिशत और पंजाब में 98.34 प्रतिशत है। भारत में जिन राज्यों में वर्षा की मात्र में घट-बढ़ अधिक होती है तथा जिसके यहां पृष्ठीय जल की कमी होती है, उन क्षेत्रों में भौम जल संसाधनों का बड़े पैमाने पर विकास किया गया है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान इसके प्रमुख उदाहरण हैं। निम्न कारणों के कारण जल संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता हैः
उपलब्धता की दृष्टि सेः पृष्ठीय जल की कुल अनुमानित उपलब्ध मात्रा 1869 अरब घन मीटर है। इसमें से केवल 690 अरब घन मीटर ही उपयोग के लिए उपलब्ध है। साथ ही 450 अरब घन मीटर भौम जल की उपलब्धता को जोड़ने पर कुल उपलब्ध मात्रा 1140 अरब घन मीटर होती है। एक परंपरागत अनुमान की दृष्टि से भारत में सन् 2025 में 1050 अरब घन मीटर जल की आवश्यकता होगी। इस प्रकार कुल मिलाकर देश में जल की कोई कमी नहीं होगी। लेकिन हम इस तथ्य की उपेक्षा भी नहीं कर सकते कि भारत में जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घट गयी है। 1951 में यह 5514 घन मीटर थी, जो 2001 में 1829 घन मीटर रह गई।
राष्ट्रीय आकलन प्रादेशिक स्तर पर बहुत कुछ बदल जाते हैं। कुछ प्रदेश में जल संसाधनों का बाहुल्य है तथा कुछ में कमी है। पूरे वर्ष नमी की कमी वाले प्रदेशों में राजस्थान, पंजाब और हरियाणा के मैदानों के पश्चिमी तथा दक्षिण-पश्चिम भाग, पश्चिमी गुजरात तथा पश्चिमी घाट के पवन विमुख ढाल हैं। इसी प्रकार ट्टतुवत भिन्नताएं भी जल की आपूर्ति की समस्या पैदा करती हैं। इसके परिणाम स्वरूप वर्ष के अधिकांश भाग में जल की कमी अनुमन की जाती है। इसी कारण से संभावित जल संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग, संरक्षण और प्रबंधन आवश्यक हो गया है।
उपभोग की दृष्टि से संरक्षण आवश्यकताः पीने और सफाई के लिए जल की आपूर्ति जीवन की आधारभूत आवश्यकता है। यह सभी के लिए स्वास्थ्य के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। लोगों को पेयजल की सुविधाओं को उपलब्ध कराने के प्रयत्नों के बावजूद अभी भी कुछ कामियां शेष हैं। लगभग 90 प्रतिशत नगरों को पेयजल की आपूर्ति की जा रही है, लेकिन आपूर्ति की गई जल की मात्रा और गुणवता निर्धारित मानकों पर खरी नहीं उतरती है। मलिन और अवैध बस्तियां सामान्यतः सुरक्षित पेयजल से वंचित हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की दशा शोचनीय है। राष्ट्रीय प्रायोगिक आर्थिक शोध परिषद के आकलन के अनुसार भारत के 50 प्रतिशत से अधिक गांवों में सुरक्षित पेयजल के साधन नहीं हैं। इसके परिणामस्वरूप हरेक साल जल जनित रोगों से मानवीय क्षतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसी प्रकार सिंचाई की कुल संभावित क्षमता के लगभग 68 प्रतिशत भाग को विकसित किया जा चुका है। फिर भी देश के कुल बोए गए क्षेत्र का दो-तिहाई भागवर्षा जल पर निर्भर है। इसमें भी प्रादेशिक भिन्नताएं अत्यंत व्यापक हैं। विगत कुछ वर्षों में भूमिगत जल द्वारा सिंचाई में वृद्धि हुई है। इसके कारण भौम जल स्तर काफी नीचे चला गया है और भौम जल संसाधन खत्म हो रहे हैं। 10 राज्यों के 114 जिलों को भौमजल के दोहन की दृष्टि से अतिशोषित और निराशाजनक जिले घोषित किया गया है। ये जिले पंजाब, हरियाणा, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु में हैं।
जल के उपयोग की निम्न क्षमता अन्य गंभीर समस्या है। यदि जल के उपयोग की क्षमता के वर्तमान स्तर में 10 प्रतिशत का सुधार कर लिया जाए, तो 1.4 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि की सिंचाई की जा सकती है। इस प्रकार उपयोग की दृष्टि से भी जल संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता है।
गुणवता की दृष्टि से आवश्यकः भारत में जल प्रदूषण एक प्रमुख समस्या है। जल प्रदूषण के प्रमुख स्रोत घरेलू अपशिष्ट जल, औद्योगिक अपशिष्ट जल एवं बहिःस्राव तथा कृषि रसायन हैं। भारत की तीन चौथाई पृष्ठीय जल संसाधन प्रदूषित हैं और 80 प्रतिशत प्रदूषण का कारण मल जल है। ऐसा अनुमान है कि प्रथम श्रेणी के नगरों से प्रतिदिन 12 अरब लीटर तथा द्वितीय श्रेणी के नगरों से 1.3 अरब लीटर मल जल निकलता है। नगर आधारित उद्योगों से भारी मात्रा में ठोस कचरा, तरल अपशिष्ट, विषैली गैस आदि नदियों में बह जाती है जिससे जल की गुणवता निम्न हो जाती है। उर्वरक और रसायन भी जल की गुणवता को प्रतिकूल स्तर तक ले जाती है। इस प्रकार ऊपर वर्णित तथ्यों के कारण जल संरक्षण अति-आवश्यक है।
जल संसाधन का उपयोगः जल संसाधन के बहुविध उपयोग हैं। जल के अनेक तथा प्रतिस्पर्धात्मक उपयोग है। जल के आर्थिक उपयोग में सिंचाई का बहुत अधिक महत्व है। जलविद्युत बनाने, उद्योगों, परिवहन, सफाई तथा मनोरंजन के लिए भी जल का उपयोग होता है। इन उपयोगों में प्रमुख उपयोग निम्न हैः
Question : "गैर पारंपरिक ऊर्जा ही भारत में भविष्य की ऊर्जा है"। इस कथन के पक्ष में तर्क दीजिए।
(2005)
Answer : मानव सृष्टि के आरंभ से ही किसी न किसी रूप में ऊर्जा का उपयोग करता आ रहा है। पहले केवल लकड़ी ईंधन के रूप में प्रयुक्त होती थी, परन्तु कालान्तर में औद्योगिक क्रांति के दौरान कोयला तेल और गैस की खपत दिनों दिन बढ़ती गई। भारत के ऊर्जा से संबंधित इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि प्रारंभ से लेकर पिछली कुछ शताब्दियों तक मानव मुख्यतः ऊर्जा के पारंपरिक श्रोतों पर ही निर्भर था। आग के आविष्कार के बाद पवन एवं जल ऊर्जा का दोहन आदि मानव की विकास यात्र के मील के पत्थर बने। औद्योगीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप ऊर्जा के उपलब्ध पारंपरिक श्रोतों पर दबाब बढ़ा है। साथ-साथ बढ़ते शहरीकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में भी तेजी से सुधार हुआ है। उनके लिए आवश्यक साधन, जिनमें यातायात के साधन भी शामिल हैं, तथा नई-नई उपभोक्ता वस्तुएं जुटाने के लिए भी ऊर्जा की खपत में लगातार वृद्धि हो रही है। इसके फलस्वरूप भारत में ऊर्जा संकट जैसी स्थिति उत्पन्न होती जा रही है।
भारत में ऊर्जा के कुल उपयोग का 60% व्यावसायकि श्रोतों (कोयला, तेल, गैस तथा नाभिकीय ऊर्जा आदि) से प्राप्त होती है। यहां व्यावसायिक ऊर्जा की खपत में पिछले पांच सालों में 6 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हो रही है। हालांकि इसके पूर्व यह वृद्धि 3.5 प्रतिशत के लगभग थी। इससे स्पष्ट है कि ऊर्जा की खपत में वृद्धि निरंतर जारी है। भारत में ऊर्जा खपत के चार महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं-(i) उद्योग (ii) कृषि (iii) यातायात/परिवहन तथा (iv) घरेलू क्षेत्र
जैसा कि स्पष्ट है कि औद्योगिक क्षेत्र में ही व्यावसायिक ऊर्जा की सर्वाधिक खपत होती है। इसके बाद क्रमशः कृषि, यातायात तथा घरेलू क्षेत्रों में ऊर्जा की खपत होती है। बढ़ते हुए शहरीकरण तथा इसके अनुरूप फैलते हुए यातायात के साधनों को देखते हुए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि आनेवाले दिनों में इन क्षेत्रों में ऊर्जा की खपत बढ़ती ही जायेगी। अब तक जिस पारंपरिक ऊर्जा का उपयोग करते आए हैं, वह बहुत दूर तक हमारा साथ नहीं दे सकती है। वजह यह कि खुद उसके श्रोत सूखते जा रहे हैं। इसे नीचे की तालिका में दर्शाया गया है।
भारत में शक्ति | श्रोतों की समाप्ति का समय |
---|---|
शक्ति श्रोत तेल एवं गैस कोयला यूरेनियम यूरेनियम-238 तथा थोरियम-232 |
समाप्ति का समय (अनुमानित) 25-30 वर्ष 80-100 वर्ष 25-30 वर्ष 300 वर्ष |
कुछ सावधानियां अपना ली जाय तो पारंपरिक ऊर्जा श्रोतों की उन समय सीमाओं में कुछ वर्षों से लेकर कुछ दशकों तक की बढ़ोतरी और हो सकती है, किन्तु इतना तो तय है कि ये स्रोत एक-न-एक दिन समाप्त हो जाएंगे। इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत को पारंपरिक ऊर्जा के स्थान पर ऊर्जा के वैकल्पिक श्रोतों की खोज करनी होगी।
हमारे देश में हवा, पानी और सूर्य, प्रकृति प्रदत ऊर्जा के मूल श्रोतों के रूप में बहुतायत में उपलब्ध हैं। तकनीकी विकास के द्वारा इन्हें ऊर्जा के सरल और सर्वसुलभ साधन का रूप किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त समुद्री ज्वार, भूगर्भीय ऊर्जा, जैविक ऊर्जा भी ऐसे श्रोत हैं, जिनके द्वारा ऊर्जा समस्या का समाधान खोजा जा सकता है।
भारत में गैर परंपरागत ऊर्जा श्रोतों के अधिक से प्रयोग के महत्व एवं आवश्यकता को 1970 में पहचाना गया। पिछले 30 वर्षों में इस ऊर्जा के अनेक नए-नए स्रोतों का विकास किया गया। आज भारत ने इस दिशा में विशेष प्रगति कर ली है। इसमें ज्वारीय ऊर्जा, बायो गैस, बायोमास, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, लघु पन-बिजली और अन्य उभरती प्रौद्योगिकी से संबंधित कार्यक्रम शामिल हैं। निम्न सारणी पुनरूपयोगी ऊर्जा की कुछ प्रमुख प्रौद्योगिकी की उत्पादन क्षमता व उत्पादन (2002-03) के बारे में बताती है-
श्रोतों | उत्पादन क्षमता | उत्पादन |
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बायो गैस संयंत्र सौर ऊर्जा बायोमास ऊर्जा पवन ऊर्जा लघु पन-बिजली |
120 लाख (सं.) - 19,500 मेगावाट 45,000 मेगावाट 15,000 मेगावाट |
33.6 लाख संयंत्र 6.5 लाख वर्ग मी. क्षेत्र’ 200 मेगावाट 1628 मेगावाट 1438 मेगावाट |
’प्रति वर्ग कि.मी. 20 मेगावाट विद्युत उत्पादन किया जा सकता है।
ज्वारीय ऊर्जा (Tidal Energy): वैज्ञानिकों ने खम्भात की खाड़ी, कच्छ की खाड़ी, तथा गंगा की एश्च्यूरी पर उठने वाली ज्वारीय लहरों को विद्युत के उत्पादन के अनुकूल पाया है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि खम्भात की खाड़ी में 6000-7000 मेगावाट, कच्छ की खाड़ी 1000 मेगावाट विद्युत प्रतिदिन उत्पादित की जा सकती है, जबकि तापीय विद्युत अधिक से अधिक 500 मेगावाट प्रतिदिन तक उत्पादित की जा सकती है। पूर्वी तट पर सुन्दर वन क्षेत्र में विद्युत उत्पादन छोटे पैमाने पर संभव है।
भू-तापीय ऊर्जा (Geothermal Energy): देश के विभिन्न भागों में गर्म जल के 340 जलाशय पाए जाते हैं। इनमें विद्युत उत्पादन की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण गर्म जलाशय उत्तर-पश्चिम हिमालय और पश्चिमी तट पर पाए जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में पूगा, हिमाचल प्रदेश में पार्वती घाटी एवं पश्चिमी तट पर
भू-तापीय ऊर्जा प्राप्त की जाती है।
सौर ऊर्जा (Solar Energy): भारत में सौर ऊर्जा का भविष्य उज्जवल है। यहां पर वर्ष के अधिकांश समय में सूर्य की रोशनी काफी मात्र में सुलभ रहती है। 31 मार्च, 2002 तक इस प्रणाली के द्वारा 6.5 लाख वर्गमीटर संग्राहक क्षेत्र को चिन्हित किया जा चुका है। इससे 500 मेगावाट सौर ऊर्जा प्राप्त होती है। खाना बनाने के लिए विश्व की सबसे बड़ी सौर वाष्प प्रणाली राजस्थान के माउन्ट आबू में स्थापित की गई है।
पवन ऊर्जा (Wind Energy): भारत में पवन ऊर्जा की कुल संभावित क्षमता 45,000 मेगावाट आंकी गई है। वर्तमान में इससे 1340 मेगावाट विद्युत प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त कर ली गई है। जर्मनी, अमेरिका, डेनमार्क और स्पेन के बाद भारत का विश्व में पांचवां स्थान है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु और केरल के कई भागों में पवन ऊर्जा का बड़े स्तर पर विकास किया गया है।
बायोमास ऊर्जा (Biomass Energy): इसमें वन और कृषि उद्योग आधारित अवशिष्ट ऊर्जा समर्पित वृक्षारोपण के अलावा विकसित एवं नवीन तकनीकों से परिवर्तन के माध्यम से कृषि अवशिष्टों से ऊर्जा प्राप्त करना शामिल है। देश में बायोमास उत्पादन की अनुमानित क्षमता 19,500 मेगावाट है। गन्ने की खोई से 3500 मेगावाट की उत्पादन क्षमता प्राप्त की जा सकती है। वर्तमान में बायोमास ऊर्जा का उत्पादन 292 मेगावाट है।
भारत में परंपरागत ऊर्जा स्रोतों की सीमित उपलब्धता तथा उसके शीघ्र समाप्त हो जाने की आशंका के से यह कहा जा सकता है कि भविष्य में गैर परंपरागत ऊर्जा ही भारत की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है। पुनः भारत में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की कमी नहीं है तथा इसके निकट भविष्य में समाप्त होने की आशंका भी नहीं है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि गैर परंपरागत ऊर्जा ही भारत की भविष्य की ऊर्जा है।
Question : भारत के महत्वपूर्ण जीवीय संसाधन प्रदेशों की पहचान कीजिए। भारत में जीवीय संसाधन संरक्षण की समस्याओं एवं उपचारी उपायों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
(2004)
Answer : जीवीय संसाधन से तात्पर्य है वनस्पति एवं जीव-जन्तु। भारत के पास जीवीय संसाधनों की कोई कमी नहीं है। भारत में लगभग वनस्पति की 46 हजार प्रजातियां पायी जाती हैं तथा विश्व में वन्य जीवों की 15 लाख प्रजातियों में से 6.7 प्रतिशत भारत में पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त भारत में विश्व के 12 मेगा डाइवर्सिटी राष्ट्रों में शामिल किया गया है। भौगोलिक दृष्टि से भारत में निम्न वनस्पति क्षेत्र पाये जाते हैंः
वन्य जीवः भौतिक और जलवायविक विभिन्नताओं के कारण भारत में विविध प्रकार के वन्य जीव पाये जाते हैं। इन जीवों में कशेरूकी तथा अकशेरूकी दोनों शामिल हैं। भारत के इन बहुरंगी जीवों में कुछ दुर्लभ प्रजातियां भी हैं, जैसे- भारतीय सिंह एवं एकसिंघी राइनो।
ये जीव, वन्य पूरे देश में सुवितरित हैं। हिमालय प्रदेश में कई प्रकार की बकरियां एवं भेड़ काला एवं भूरा भालू, साह (Snow leapord) तेंदुआ इत्यादि पाये जाते हैं। सिंध-गंगा के मैदान में तेंदुआ, चीता, सांभर, पाढा (Hog deer), काला मृग तथा नील गाय मिलते हैं। प्रायद्वीपीय प्रदेश में बाइसन, रीछ, सांभर, मृग, हाथी एवं बाघ मिलते हैं। इस प्रकार भारत को 7 जीव-भौगोलिक प्रदेशों में बांटा जा सकता हैः (1) हिमालय प्रदेश, (2) उत्तरी मैदान, (3) राजस्थान मरूभूमि, (4) प्रायद्वीपीय पठार, (5) मालाबार तट, (6) नीलगिरी, (7) तट के सहारे महाद्वीपीय मग्नतट के प्रदेश।
पशु-संसाधन प्रदेशः भारत की प्रमुख पशु मेखला भारतीय मरूस्थल के चारों ओर उत्तरी-पश्चिमी भारत में (जहां वर्षा अपेक्षतया कम होती है) फैली हुई है। मिट्टी की प्रकृति, तापमान एवं वर्षा के अनुसार भारत के निम्नांकित पशु-प्रदेश हैं:
देश में जीवीय संसाधनों खासकर वनस्पति एवं वन्य जीवों का तेजी से ह्रास हो रहा है। जीवीय संसाधनों के संरक्षण में प्रमुख समस्याएं हैं- विकास कार्यों यथा कृषि, आवास, उद्योग इत्यादि के लिए निर्वनीकरण, अति-पशुचारण, जैव उत्पादों यथा हाथी दांत, कस्तूरी, सिंग, चमड़े इत्यादि के लिए वन्य जीवों का शिकार तथा पशुओं के लिए पर्याप्त चारे एवं प्रबंधन की समस्या।
जीवीय संसाधनों के संरक्षण की समस्याओं के लिए प्रमुख उपचारी उपाय निम्न हैंः
(क) विकास कार्यों को नियमित एवं नियंत्रित तरीके से करना
(ख) वृहद-स्तर पर वनीकरण कार्यक्रम चलाना।
(ग) देश के सभी भागों में राष्ट्रीय पार्कों एवं अभयारण्यों की संख्या में निरन्तर वृद्धि।
(घ) वन्य जीवों एवं पशु संसाधन के संरक्षण एवं विकास को प्राथमिकता देना, खासकर दुर्लभ प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाना।
(घ) प्राथमिक शिक्षा से ही वनों एवं जीवों के महत्व, संरक्षण एवं जागरूकता लाने जैसे तथ्यों का ज्ञान देना।
Question : हिमालय के वनस्पति क्षेत्रों के अनुक्रम को स्पष्ट कीजिए।
(2001)
Answer : हिमालय क्षेत्र में वनस्पति के वितरण पर ऊंचाई का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इसका कारण यह है कि ऊंचाई में वृद्धि के साथ तापमान में कमी आती है, अतः हिमालय क्षेत्र में ऊष्ण कटिबंधीय वनस्पति से लेकर टुंड्रा वनस्पति की पेटियों का एक क्रम पाया जाता है। हिमालय का पूर्वी भाग कर्क रेखा एवं समुद्र के अधिक निकट है। साथ ही यहां वर्षा भी अधिक होती है। पश्चिमी भाग न केवल कर्क रेखा से अधिक उत्तर है, बल्कि इस भाग में महाद्वीपीय जलवायु का भी प्रभाव है। इस भाग में वर्षा भी कम होती है। यही कारण है कि इन दोनों भागों की वनस्पति की पोटियों की ऊंचाई एवं सघनता में अंतर पाया जाता है।
पूर्वी हिमालय क्षेत्र में 900 मीटर की ऊंचाई तक ऊष्ण कटिंबधीय आर्द्र पर्णपाती वन की पेटी पायी जाती है। साल, शीशम, सागवान, बांस एवं सबई घास जैसी वनस्पतियां इस पेटी में पायी जाती हैं। 900 से 1800 मीटर के बीच उपोष्ण वनस्पति की पेटी पायी जाती है। ओक, चेस्टनट आदि वृक्ष इस पेटी में पाये जाते हैं। 1830 में 2740 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में शीतोष्ण प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इस पेटी में ओक, बर्च, मैपिल, मैग्नेलिया एल्डर, लारेल जैसे चौड़ी पत्ती वाले वन पाये जाते हैं। 2740 से 3660 मीटर की ऊंचाई के बीच शंकुधारी वनों की पेटी है, जहां चीड़ एवं स्प्रूस जैसे नुकीली पत्तियां वाले वृक्ष पाये जाते हैं। 3660 से 4870 मीटर की ऊंचाई के बीच सिल्वर, फर, जूनीपर आदि वृक्षों की अल्पाइन वनस्पति की पेटी स्थित है। 4870 से 5100 मीटर की ऊंचाई के बीच टुंड्रा वनस्पति की पेटी स्थित है। इस भाग में छोटी झाडि़यां, घास, काई एवं फूल वाले पौधे पाये जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में बर्फ के पिघलने पर इस पेटी की अल्पाइन झाडि़यों एवं अन्य पौधों में फूल निकल आते हैं एवं घास के उगने से चारागाह का विकास हो जाता है।
पूर्वी हिमालय के विपरीत पश्चिम हिमालय में परजीवी पौधों एवं फर्न का अभाव पाया जाता है। पर्वतपाद क्षेत्र में मुख्यतः शुष्क सवाना वनस्पति का विस्तार पाया जाता है। 1520 मीटर की ऊंचाई तक उपोष्ण बनस्पति का विस्तार पाया जाता है। 1520 मीटर से 3660 मीटर की ऊंचाई तक शीतोष्ण वनस्पति का विस्तार पाया जाता है, जिसमें चौड़ी पत्ती एवं नुकीली पत्ती वाले वृक्ष मिश्रित रूप में पाये जाते हैं। 3660 मीटर से 4570 मीटर की ऊंचाई तक अल्पाइन वनस्पति पायी जाती है।
Question : भारत की राष्ट्रीय वन नीति का परीक्षण कीजिए।
(2000)
Answer : भारत उन गिने चुने राष्ट्रों में है, जिसने 1894 में ही वन नीति अपना ली थी, जिसका उद्देश्य राजस्व प्राप्ति एवं वनों का सरंक्षण था। स्वतंत्रता के बाद मई 1952 को नवीन वन नीति घोषित की गई। इस नीति के अनुसार भूमि के 33 प्रतिशत भाग में वन होने चाहिए। वन संबंधी नीति के उद्देश्य हैं-
इसी भांति अब बिना पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति के देश के किसी भी महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संरक्षण क्षेत्र एवं राष्ट्रीय धरोहर क्षेत्र के निकट कोई भी नवीन परियोजना लागू नहीं की जा सकती। वन प्रबंधन में जनता की सहभागिता को संयुक्त वन प्रबंधन स्कीम (Joint Forest Management schemes) के द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। लकड़ी के उचित स्थानापन्न को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है ताकि वृक्षों का कम से कम कटाव हो। राष्ट्रीय वन नीति के उद्देश्यों के उचित अनुपालन की जरुरत है। इन संदर्भ में ठोस कार्यक्रम बनाने को आवश्यकता है।
Question : भारत में जीवीय संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता का परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : जैव विविधता के अन्तर्गत पौधे, पशुओं एवं सूक्ष्म जीवों की विभिन्न प्रजातियां शामिल होती हैं, जो पारिस्थितिकी एवं तत्सम्बन्धी अनेक प्रक्रियाओं से जुड़ी रहती हैं। इनका सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं जलवायवीय महत्त्व काफी अधिक है। वानस्पतिक प्रजातियों का कृषि, उद्योग एवं चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान होता है। साथ ही, अनेक प्रजातियां ऐसी हैं जो जलवायु को स्थायित्व प्रदान करती हैं और जल विभाजकों एवं भूमि को संरक्षण प्रदान करती हैं। पौधे गैसों के आदान-प्रदान, वर्षा, मृदा अपरदन की रोकथाम आदि के लिए उत्तरदायी हैं। इसी प्रकार वन्य जीव पारिस्थितिकी संतुलन बनाये रखने के लिए अपरिहार्य हैं।
आज औद्योगिक विकास, संकरित कृषि, जंगलों की कटाई, पर्यावरण प्रदूषण, वन्य जीवों की हत्या आदि कारकों से इस जैविक विविधता के खतरों का सामना करना पड़ रहा है। कई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। 1992 में हुए पृथ्वी शिखर सम्मेलन की कार्यसूची-21 में इस तथ्य को स्वीकार किया गया था कि जैव विविधता के वर्तमान ह्रास के लिए मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। अतः इनके संरक्षण के लिए निवारक एवं रक्षात्मक दोनों ही कदम उठाने अनिवार्य हैं।
Question : भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में पशुपालन तथा घरेलू उद्योगों की भूमिका पर एक निबंध लिखिए।
(1999)
Answer : भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि पर आश्रित है। भूमि पर अत्यधिक दबाव के कारण यहां के लोगों में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि व्याप्त है। यहां की अर्थव्यवस्था अन्य समस्याओं से भी ग्रसित है- मसलन पूंजी का अभाव, तकनीकी अक्षमता, ऊर्जा की कमी, माल बेचने के केन्द्रों का अभाव आदि। ये सभी समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए पशुपालन एवं घरेलू उद्योगों का विकास अपरिहार्य है। कृषि का पशुपालन एवं घरेलू उद्योग से गहरा सम्बन्ध है, अतः ग्रामीण अर्थौव्यवस्था के सर्वांगीण विकास के लिए इन दोनों क्षेत्रों का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
चूंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है, अतः पशुपालन का महत्त्व कई नजरिये से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके महत्त्व को निम्नलिखित तरीके से दर्शाया जा सकता हैः (i) ग्रामों में कृषि की शक्ति का आधार पशु है। चाहे खेत जोतना हो, कुएं से पानी निकालना हो या माल एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना हो, सभी क्रियाओं में पशुओं की सहायता ली जाती है। (ii) पशु हमें दुग्ध एवं दुग्ध उत्पाद प्रदान करते हैं, जिन्हें बेचकर गांव के लोगों को अतिरिक्त आमदनी होती है। (iii) पशु मांस गांव के लोगों को पौष्टिक आहार के साथ-साथ आमदनी भी देते हैं। (iv) पशुओं के गोबर का प्रयोग न सिर्फ बायोगैस उत्पादन में होता है, बल्कि इसका प्रयोग खाद के रूप में भी किया जाता है। (v) पशुओं के चमड़े, वसा, बाल, हड्डी, ऊन आदि का प्रयोग विभिन्न उद्योगों में होता है, अतः ये भी ग्रामीण जनता के आय के स्रोत हैं। (vi) गांवों में पशु आधारित उद्योगों की स्थापना से यहां के लोगों को आमदनी के साथ-साथ रोजगार भी प्राप्त होता है।
घरेलू उद्योग के अन्तर्गत लकड़ी का काम, हथकरघा, चमड़े का काम, हस्तशिल्प, टोकरियां बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना, चावल और आटा की मिलें, तेलघानी, गुड़ बनाना, चटाई बनाना आदि को शामिल किया जाता है। इन सभी कार्यों में कारीगरों का पूरा परिवार अपने-अपने धंधे में संलग्न होता है। कई पीढि़यों से काम करते रहने के कारण ये अपनी पारम्परिक कला में निपुण हो जाते हैं।
चूंकि ये सारे कार्य पूंजी के बजाय मजदूरों पर आधारित होते हैं, अतः इनसे ग्रामीण लोगों को आंशिक या पूर्ण रोजगार प्राप्त होता है। इनका सारा कच्चा माल ग्रामीण क्षेत्रों से ही प्राप्त होता है और इसमें पूंजी निवेश की भी कम जरूरत होती है।
पारंपरिक कला और कौशल से तैयार इन उत्पादों की मांग न सिर्फ देश के अन्दर, बल्कि विदेशों में भी बहुत है। इससे देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। पर्यावरण की दृष्टि से भी ये उद्योग उपयुक्त हैं, क्योंकि इनसे बड़े उद्योगों जैसा पर्यावरण प्रदूषण नहीं होता है।
इस प्रकार रोजगार, आमदनी और जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए पशुपालन एवं घरेलू उद्योग एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश हो गया है। हस्तशिल्प के निर्यात से इसे करोड़ों रुपयों की आमदनी प्राप्त हो रही है। इस प्रकार यदि हमें गरीबी एवं क्षेत्रीय विकास में असमानता की समस्या को दूर करना है तो हमें इन क्षेत्रों को बढ़ावा देना होगा।
Question : अंडमान व निकोबार द्वीपों के संसाधनों का परीक्षण कीजिये।
(1998)
Answer : अंडमान और निकोबार द्वीप समूह बंगाल की खाड़ी में स्थित है। यह द्वीप, पांच द्वीपों का समूह है, जिसमें लगभग 204 छोटे-छोटे द्वीप हैं। ये द्वीप ज्वालामुखी उद्गार से बने हैं। ज्वालामुखी के शांत हो जाने पर यहां तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण हुआ और लगातार अवतलन के कारण यह भाग ऊपर उठ गया। अन्ततः प्रवालद्वीप का निर्माण हुआ। इस रेतीली भूमि को पक्षियों के बीट ने उपजाऊ बना दिया। अंडमान द्वीप समूह की मुख्य फसल धान है। नारियल व सुपारी, निकोबार द्वीप समूह की मुख्य व्यापारिक फसलें हैं। इसके अतिरिक्त इस द्वीप में गन्ना, रेड ऑयल, खजूर आदि की खेती भी की जाती है। यहां के सदाबहार वनों में ‘अंडमान पाडोक’व ‘गुरजन’ जैसे वृक्ष पाये जाते हैं, जिनसे बहुमूल्य
लकड़ियां प्राप्त होती हैं। अंडमान व निकोबार द्वीप समूह मूंगा व मत्स्य पालन के लिए भी प्रसिद्ध है। इसके अलावा यहां पर्यटन उद्योग भी काफी विकसित है, जिससे यहां की सरकार को काफी आमदनी प्राप्त होती है।
चूंकि यहां मुख्यतः आदिवासी जातियां पायी जाती हैं, अतः यहां लघु उद्योगों व हस्तशिल्प उद्योगों को प्राथमिकता प्रदान की गयी है। यहां वन आधारित तथा कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना की गयी है। यहां लकड़ी पर आधारित उद्योग काफी विकसित है तथा सरकार ने इस संदर्भ में कई बड़ी इकाइयां स्थापित की हैं। सरकार ने पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने तथा पर्यावरण संरक्षण को अंजाम देने हेतु एक ‘मैरीन नेशनल पार्क’ की स्थापना की है। यहां तेल के भंडार पाये जाने की संभावना को देखते हुए सरकार अन्वेषण की दिशा में प्रयासरत है।
Question : भारत में नाभिकीय खनिजों के समुपयोजन और प्रक्रमण की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिये
(1998)
Answer : भारत में नाभिकीय खनिजों के भण्डार का पता लगाने का कार्य हैदराबाद स्थित ‘आणविक खनिज विभाग’ करता है। भारत में नाभिकीय ऊर्जा की संभावनाओं को देखते हुए इस विभाग ने कई नये स्रोतों का पता लगाया है। भारत में पाये जाने वाले नाभिकीय खनिजों में यूरेनियम, थोरियम और बेरीलियम प्रमुख हैं। भारत में यूरेनियम अयस्क मुख्यतः पेग्मेटाइट, मोनाजाइट व सिलिमेनाइट के रूप में पाये जाते हैं। भारत में 30,480 टन यूरेनियम के भण्डार मौजूद हैं। यूरेनियम के भण्डार बिहार के जादूगुड़ा और भाटी, राजस्थान में अजमेर, मेघालय में डोमियासेट, आंध्र प्रदेश में टुमलापल्लै, नेल्लौर आदि स्थानों में विद्यमान हैं। ‘भारतीय यूरेनियम निगम’ द्वारा यूरेनियम के खनन व प्रक्रमण का कार्य निर्देशित होता है। ‘इण्डियन रेयर अर्थ लिमिटेड’द्वारा केरल में प्राप्त मोनाजाइट रेत से इलमेनाइट, रूटाइल, जिर्कोन आदि का उत्पादन होता है। मोनाजाइट से प्राप्त थोरियम का आनुमानित भण्डार 5.8 लाख टन है। बेरीलियम, राजस्थान, तमिलनाडु, बिहार, जम्मू-कश्मीर तथा आंध्र प्रदेश में पाया जाता है।
भारत में साइरस, अप्सरा, जरलीना आदि परमाणु संयंत्रों के माध्यम से यूरेनियम द्वारा प्लूटोनियम प्राप्त किया जाता है। फास्ट ब्रीडर रिएक्टर द्वारा थोरियम से यूरेनियम-233 पैदा किया जा रहा है। फिलहाल भारत में नौ परमाणु संयंत्र कार्यरत हैं। नौवीं योजना के अंत तक देश में 2720 मेगावाट परमाणु बिजली पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है। भारत में नाभिकीय खनिज का प्रयोग कृषि, उद्योग, चिकित्सा व अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। टाटा शोध संस्थान, नाभिकीय शोध प्रयोगशाला (श्रीनगर) आदि जैसी संस्थाएं इस दिशा में नये प्रयोग करने में प्रयासरत हैं।
Question : भारत में बॉक्साइट के वितरण प्रारूप और समुपयोजन विधि का परीक्षण कीजिये?
(1998)
Answer : बॉक्साइट, अल्युमिनियम का आक्साइड है। बॉक्साइड के भण्डारों का निर्माण टर्शियरी युग में हुआ था। ये लैटेराइट शैल के बीच पाये जाते हैं, अर्थात् इनका वितरण लैटेराइट शैलयुक्त पठारी या पहाड़ी इलाके, मुख्यतः प्रायद्वीपीय पठार में पाया जाता है। आंतरिक या तटीय क्षेत्रों में अपक्षालन क्रिया के फलस्वरूप बॉक्साइट के भण्डार पाये जाते हैं। इस प्रकार, बॉक्साइट के क्षेत्रीय वितरण लैटेराइट शैल के वितरण से प्रभावित होते हैं। बॉक्साइट- मुख्यतः बिहार व मध्य प्रदेश के पठारी भाग, गुजरात के तटीय क्षेत्र, जम्मू व कश्मीर, पश्चिमी घाट, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में पाया जाता है।
देश के कुल बॉक्साइट उत्पादन का 36 प्रतिशत उत्पादन सिर्फ बिहार में होता है। यहां रांची, पलामू व मुंगेर जिले में बॉक्साइट का उत्पादन होता है। रांची के निकट बगडुपहाड़, सेरदंग, जर्दापहाड़, मैदनपाट, मडुआपाट, पलामू में नेतरहाट, जमीरपाट और मुंगेर के खड़गपुर पहाडि़यों में बॉक्साइट का खनन होता है। मध्य प्रदेश में अमरकंटक पठार (सरगुजा, रायगढ़, बिलासपुर), मैकाल श्रेणी (शहडोल, दुर्ग, मण्डला, बालाघाट) तथा जबलपुर (कटनी क्षेत्र) में बॉक्साइट का खनन होता है। गुजरात के दक्कन ट्रैप व भुज क्षेत्र के लैटेराइट क्षेत्रों में बॉक्साइट का खनन होता है। यह मुख्यतः जामनगर, भावनगर, जूनागढ़ व कच्छ जिलों में पाया जाता है।
महाराष्ट्र के पठारी भाग में कोल्हापुर, थाना, रत्नागिरि, सतारा आदि जिलों में बॉक्साइट के भण्डार पाये जाते हैं। तमिलनाडु में नीलगिरि, पलनी, कोडयकनाल, शेवराय तथा कोलैमलई पहाडि़यों में बॉक्साइट का खनन होता है। कर्नाटक में बेलगांव, बकनूर-नवगे कटक, बाबाबुदान श्रेणी तथा कनारा जिला में बॉक्साइट पाया जाता है। उड़ीसा में कालाहाड़ी व कोरापुट जिला में बॉक्साइड के भण्डार विद्यमान हैं। आंध्र प्रदेश में अनंतगिरि पठार, विशाखापट्टनम आदि स्थानों में बॉक्साइट का खनन किया जाता है।
इसके अलावा जम्मू व कश्मीर के ऊधमपुर व पुछ जिले तथा उत्तर प्रदेश के बांदा, वाराणसी इलाहाबाद व मिर्जापुर जिलों में भी बॉक्साइट पाया जाता है। हाल में गोवा के क्यूपेम व कणकोंण तालुक में भी बॉक्साइट के भंडार का पता चला है। बॉक्साइट को अल्युमिनियम में परिवर्तित करने के लिए इससे ऑक्सीजन को बाहर निकाला जाता है। यह प्रक्रिया विद्युतीकरण द्वारा सम्पन्न की जाती है। अतः विद्युत की मांग को देखते हुए, ज्यादातर शोधनशाला पनबिजली स्रोत के निकट स्थापित किये जाते हैं।
बिहार से प्राप्त बॉक्साइट का भारत अल्युमिनियम कंपनी द्वारा स्थापित मूरी संयंत्र में प्रक्रमण किया जाता है। इस संयंत्र से प्राप्त अल्युमिना को अल्युमिनियम में परिवर्तित करने के लिए पुनः उसे अलुपुरम (अलवाय) भेजा जाता है। अल्युमिना को गलाने के संयंत्र अलवाय के अलावा हीराकुंड व बेलगांव में स्थित हैं। रेनुकूट स्थित हिन्डालको संयन्त्र को विद्युत की आपूर्ति रिहन्द परियोजना द्वारा होती है। इसके अलावा बालको व मालको को ऊर्जा क्रमशः कोरबा व मेट्टूर से प्राप्त होती है। जे.के. नगर स्थित नालको में भी अल्युमिना गलाने का संयंत्र स्थापित किया गया है। विद्युत आपूर्ति की कमी के कारण ये संयंत्र अपनी स्थापित क्षमता का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। फलतः अल्युमिनियम की मांग व पूर्ति में फासला बढ़ता जा रहा है और हमें अल्युमिनियम का आयात करना पड़ रहा है।
हमारे देश में बॉक्साइट का 80 प्रतिशत प्रयोग अल्युमिनियम प्राप्त करने में होता है। शेष बॉक्साइट का इस्तेमाल रसायन उद्योग, शोधन कारखानों आदि में होता है। बॉक्साइट का इस्तेमाल टिटेनियम और वेनेडियम प्राप्त करने में भी होता है। इसमें तांबा व मैग्नेशियम मिलाने से ड्यूराल्मिन प्राप्त होता है, जिसका इस्तेमाल हवाई जहाज या रेल डिब्बों के निर्माण में होता है।
चूंकि बॉक्साइट के विशाल भंडार होने के बावजूद, हमें अल्युमिनियम का आयात करना पड़ रहा है, अतः यह आवश्यक है कि सभी संयंत्रों को अबाधित विद्युत आपूर्ति की जाये। इसके लिए सरकारी प्रयास के अतिरिक्त स्वयं इन संयंत्रों को अपने इस्तेमाल के लिए विद्युत केंद्र खोलने चाहिये। बॉक्साइट खनन में नवीन तकनीक का प्रयोग तथा नये भण्डारों का पता लगाने का कार्य भी हमें आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर ले जा सकता है।