Question : "भारतीय कृषि में संस्थागत कारकों की शास्त्र प्रतिरूप एवं शस्त्र उत्पादकता पर जकड़ है" इसको तर्क द्वारा सही साबित कीजिए।
(2007)
Answer : संस्थागत कारक शब्द से उस विशेष व्यवस्था का बोध होता है, जिसके अंतर्गत स्वामित्व एवं प्रबंधन किया जाता है। स्वामित्व और प्रबंधन द्वारा कृषि उत्पादकता एवं शस्त्र प्रतिरूप पर सीधा प्रभाव डाला जाता है। कृषि उत्पादकता का अर्थ है- प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन। इसी प्रकार सभी फसलों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। खाद्य फसलें और-गैर खाद्य फसलें। गैर खाद्य फसलों में तिलहन, रेशेदार फसलें, अनेक रोपण फसलें तथा चारे की फसलें प्रमुख हैं, जबकि खाद्य फसलों के अंतर्गत अनाज, ज्वार, बाजरा, दाल तथा फल तथा सब्जियों को रखते हैं। शस्त्र प्रतिरूप और उत्पादकता पर संस्थागत कारकों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
यद्यपि विगत कुछ वर्षों, मुख्यतः योजनाकाल में कृषि में काफी प्रगति हुई है तथापि विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारतीय कृषि उत्पादकता प्रति हेक्टेयर तथा प्रति व्यक्ति, दोनों मापदण्डों पर बहुत कम है। हमारे देश में कृषि के पिछड़ेपन के कई प्राकृतिक, आर्थिक, सामाजिक, संस्थागत कारण हैं, जो समुच्चयिक रूप से कृषि की प्रगति में गत्यारोध उत्पन्न करते हैं। इसमें संस्थागत कारक प्रमुख हैं, क्योंकि अन्य सभी समस्याओं को तो काफी हद तक सुधारा जा चुका है। लेकिन संस्थागत कारक के कारण ही कृषि का विकास धीमी गति से हो रहा है। इन्हीं संस्थागत कारकों के कारण संरचनात्मक सुविधाओं उर्वरक, सिंचाई, बीज, यंत्र के विकास के बाद भी तीव्र वृद्धि कृषि की नहीं हो पा रही है। वस्तुतः यह तीव्र विकास में अवरोध संस्थागत कारकों से ही हुआ है।
संस्थागत कारणों में जोतों का उपविभाजन एवं विखंडन एक विकट समस्या है, जिसके कारण शस्त्र प्रतिरूप और शस्त्र उत्पादकता प्रभावित हुई है। भारत में जोत लाभकर नहीं है। लाभकर जोत अधिकतम कार्यक्षम और साथ ही परिचालन की दृष्टि से आदर्शतम आकार वाली होती है। लाभकर जोत भूमि की उर्वरता, खेती का तरीका और शस्य प्रतिरूप पर निर्भर करती है। लाभकर जोत के निर्धारण का मुख्य तत्व भूमि की उर्वरता है। भूमि जितनी अधिक उर्वर होगी, कृषक परिवार को उपयुक्त जीवन स्तर प्राप्त करने के लिए उतनी ही कम भूमि की आवश्यकता होगी। पुनः खेती का तरीका एक अन्य तत्व है। यदि किसान ट्रैक्टर आदि कृषि यंत्रों का उपयोग करता है, तो लाभकर जोत बड़े आकार की अर्थात् 100 एकड़ या उससे अधिक होगी, इसके विपरीत यदि वह खेती की पुरानी तकनीकों का प्रयोग करता है, तो वह 15 से 20 एकड़ तक के खेत से बड़ी जमीन का देखभाल नहीं कर सकेगा। लाभकर जोत का आकार इस बात पर निर्भर करता है कि किस प्रकार की फसल उगाई गई है। उदाहरण के तौर पर सब्जियों की खेती अत्यधिक सघन होती है, अतः कम खेत से ही उपयुक्त जीवन स्तर प्राप्त किया जा सकता है, जबकि पशुपालन व गेहूं के लिए अधिक खेत की आवश्यकता होती है। भारत में शस्य उत्पादकता व शस्य प्रतिरूप को प्रभावित करने में जोतों का उपविभाजन एवं विखंडन प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जोतों के विभाजन के कारण उसकी संख्या नित्य बढ़ती जाती है।
1990-91 के आंकड़ा अनुसार देश की कुल क्रियाशील जोतों में 59.4% (1 हेक्टेयर से कम), 18.8% छोटी (1-2 हेक्टेयर), 13.1% अर्द्धमध्यम (2-4 हेक्टेयर), 7% मध्यम (4-10 हेक्टेयर) और 1.0% (बड़ी, 10 हेक्टेयर से अधिक) जोतें हैं। इसके अधीन क्षेत्रफल का प्रतिशत क्रमशः 13.4, 15.6, 22.3, 28.6 और 20.1 है। स्पष्ट है कि आधा से अधिक जोतें 1 हेक्टेयर से छोटी है, जबकि 1960-61 में ऐसी जोतें 40.7% ही थीं। एक तो छोटी जोतों की संख्या में तीव्र वृद्धि हो रही है, जबकि बड़ी जोतें कम हो रही हैं, दूसरा यह कि जोतों के क्रमशः छोटे आकार के साथ जोतों की संख्या अधिक होती जा रही है, यथा सीमांत जोतों की संख्या 1970-71 में 360 लाख थी, जो 1990-91 में 620 लाख हो गयी। यह क्षेत्रफल की दृष्टि से 150 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 250 लाख हेक्टेयर हो गई, जो कुल क्षेत्रफल का 9% से बढ़कर 15% हो गया। भारत में जोतों के छोटे आकार के कारण निम्न हैं:
भारत इन अलाभप्रद जोतों पर स्वावलम्बी जीविका चलाना भी कठिन है, क्योंकि इनका आकार जीवन-निर्वाह स्तर से भी नीचे है। कृषक भूमि की क्षमता से अधिक उपयोग करने की कोशिश करता है, परन्तु अत्यन्त लघ्वाकार जोतों के कारण कृषक परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता, न परिवार के सभी सदस्यों को भरपूर कार्य मिल पाता है। गरीबी तथा जोतों के लघु आकार के कारण न तो उत्पादकता संरक्षात्मक या उत्पादनवर्द्धक विधियों (उन्नत बीज, सिचाई, उर्वरक, श्रेष्ठ कृषि यन्त्र, कीटनाशक) का ही प्रयोग कर पाता है और न ही भूमि सुधार। अस्तु, आधुनिक ढंग से कृषि करने की गुंजाइश सीमित है। फलतः उत्पादकता कम है। जोत छोटी होने के साथ-साथ बिखरी हुई भी है। यह कृषि जोतों की दुहरी समस्या है।
अकाल एवं कृषि आयोग ने अपने प्रतिवेदन में खेतों के बिखराव को भारतीय कृषि में सबसे प्रबल बाधक माना है। जोतों को छोटे-छोटे खण्डों में बिखरे होने से कृषक के घन, श्रम और समय व्यर्थ नष्ट होते हैं। प्रत्येक खेत के लिए मार्ग उपलब्ध नहीं होने के कारण कृषि कार्य में बाधा पड़ती है तथा कृषक द्वारा सिंचाई आदि के साधन जुटाने, फसल की देख-रेख करने में भी अवरोध उत्पन्न होता है, जिससे उत्पादन कम होता है। खेतों की सीमाओं के रूप में कृषि भूमि का बड़ा हिस्सा व्यर्थ पड़ा रहता है, साथ ही सुरक्षात्मक बाड़ तथा रास्ता बनाने में भी बहुत भूमि नष्ट हो जाती है। इन विखण्डित तथा प्रकीर्ण खेतों पर आधुनिक विकसित उपकरणों तथा विधियों का प्रयोग भी संभव नहीं हो पाता। इन कारणों से शस्य उत्पादकता बढ़ नहीं पाती है। पुनः छोटे जोत के कारण फसल का चुनाव भी स्वतंत्र रूप से नहीं हो पाता, अतः शस्य प्रतिरूप भी प्रभावित होता है।
संस्थागत कारकों में भूमिका असंतुलित वितरण अर्थात् भूमि के स्वामित्व में असमानता भी शस्य प्रतिरूप व उत्पादकता पर अपना प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। अंग्रेजी शासन काल से ही भूमि पर जमीदारों का आधिपत्य रहा। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की 42% भूमि का स्वामित्व 4% ग्रामीणों के हाथों में था और 5 करोड़ व्यक्ति भूमिहीन कृषि मजदूर थे। 1952 के जमींदारी उन्मूलन कानून द्वारा जमींदारी तो समाप्त हो गयी, परन्तु भूमि का न्यायोचित वितरण अब तक नहीं हो सका है।
भूमि सुधार के अनेक प्रयासों के बावजूद अभी भी मात्र 1% धनी किसानों के पास कुल भूमि का 20% है। 1980-81 में लगभग 13% बड़े किसानों के स्वामित्व में कुल भूमि का 52% था जबकि लगभग 56% उप सीमान्त तथा सीमांत किसानों के पास 12%। इस प्रकार एक ओर बड़ी जोतों के भूस्वामी प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि नहीं कर पाते और दूसरी ओर मध्यम और छोटी जोत वाले कृषकों का जोताकार उपविभाजन के कारण लघु से लघुतर होता जा रहा है। इसके कारण शस्य उत्पादकता अैर फसल प्रतिरूप पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
पुनः संस्थागत कारकों में बिचौलियों का प्रभाव, पट्टे पर खेती करना आदि भी फसल प्रतिरूप और उत्पादकता को प्रभावित करता है। वर्तमान समय में सरकारी नीतियों के कारण बिचौलियों की भूमिका में तो काफी कमी आयी है, परन्तु ग्रामीण इलाकों में बिचौलियों की भूमिका आज भी प्रभावी है। पट्टे पर खेती की प्रथा भी शस्य उत्पादकता और फसल प्रतिरूप को प्रभावित करती है। पट्टे पर लिये जमीन को किसान अपनी भूमि नहीं मानता, उसके छिन जाने का डर हमेशा रहता है। जिसके कारण किसान पट्टे पर लिये भूमि का वैज्ञानिक आदानों द्वारा खेती नहीं करते, जिससे उत्पादकता में जड़ता होती है। पुनः पूंजी की कमी के कारण भी शस्य प्रतिरूप और उत्पादकता प्रभावित होती है। ऐसे कृषक प्रायः गरीब होते हैं, वे कृषि भूमि पर अधिक लागत वाली फसल का उत्पादन करने में सक्षम नहीं होते हैं, साथ ही फसलगत हानियों को उठाने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते हैं। जिससे शस्य प्रतिरूप और उत्पादकता प्रभावित होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय कृषि में संस्थागत कारकों की शस्य प्रतिरूप और शस्य उत्पादकता पर जकड़ है।
Question : भारत में शुष्क कटिबंधीय कृषि की समस्याओं एवं संभावनाओं की विवेचना कीजिए तथा इसके विकास की रणनीतियों एवं योजनाओं पर प्रकाश डालिए।
(2006)
Answer : सामान्यतः 75 सेंमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में बिना सिंचाई के की जाने वाली कृषि शुष्क कृषि कहलाती है। 75 सेमी. से अधिक वर्षा वाले भी शुष्क ऋतु में शुष्क कृषि की जाती है। इस कृषि की प्रमुख विशेषता है कि यह कृषि मिट्टी में उपलब्ध नमी की सहायता से की जाती है। मानसूनी वर्षा काफी अनिश्चित एवं अनियमित होती है। वर्षा ऋतु में भी शुष्कता के दौर आते हैं। भारत का लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र की जलवायु शुष्क या अर्द्ध शुष्क है। सिंचाई की सुविधा 35 प्रतिशत क्षेत्र में ही उपलब्ध है, जिसे बढ़ाकर अधिकतम 50 प्रतिशत किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में देश में शुष्क कृषि का विकास आवश्यक हो जाता है। परंतु भारत में शुष्क कृषि के विकास में कई भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं हैं।
भारत के अधिकांश क्षेत्र में दोमट या बलुई दोमट मिट्टी पाई जाती है, जिसकी जलधारण क्षमता कम होती है। यहां की उष्ण जलवायु भी शुष्क कृषि के विकास में बाधा है। उष्ण जलवायु के कारण मृदा में उपलब्ध नमी जल्द ही वाष्प बन कर उड़ जाती है। मृदा एवं जल शुष्क कृषि के मूल संसाधन हैं। मिट्टी की गुणवत्ता में काफी ह्रास है। विभिन्न कारणों से मिट्टी का वृहत् पैमाने पर अपरदन हुआ है। अवैज्ञानिक कृषि के कारण अम्लीयता, क्षारीयता एवं लवणीयता की समस्या उत्पन्न हुई है। चूंकि शुष्क कृषि सीमांत पर्यावरण में की जाती है, अतः इसके विकास के लिए समुचित मृदा एवं जल प्रबंधन आवश्यक है। देश में वर्षा की अपर्याप्तता एवं अनिश्चिता को देखते हुए शुष्क कृषि हेतु जल संरक्षण आवश्यक है। परंतु देश में जल संरक्षण की दिशा मे कम प्रयास हुए हैं।
शुष्क कृषि क्षेत्र में ग्रामीण जनसंख्या का गरीब वर्ग निवास करता है। ये मृदा एवं जल प्रबंधन हेतु आवश्यक सुविधाएं जुटाने में असमर्थ हैं। उदाहरण के लिए, शुष्क कृषि हेतु गहरी जुताई के लिए मशीनों की आवश्यकता होती है, ताकि अधिक से अधिक नमी का संरक्षण किया जा सके।शुष्क कृषि तकनीक के बारे में कृषकों को जानकारी का आभाव भी इसके विकास में बाधक साबित हो रही है। किसानों को समुचित मृदा जल एवं समय प्रबंधन तकनीक के बारे में जानकारी नहीं हैं। सरकारी स्तर पर भी इस दिशा में काफी कम प्रयास किए गए हैं। शुष्क कृषि में सूखा प्रतिरोधी तथा कम समय में तैयार होने वाले बीजों की आवश्यकता होती है। भारत में इस दिशा में अनुसंधान की प्रगति धीमी है। प्रसार सुविधाओं के माध्यम से प्रयोगशाला में प्राप्त सफलता को खेतों तक नहीं पहुंचाया जा सका है।
शुष्क कृषि हेतु मृदा की उर्वरता को बढ़ाने तथा समुचित खर-पतवार नियंत्रण तकनीक के बारे में भी जानकारी का अभाव है। भारत के कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 61 प्रतिशत भाग शुष्क कृषि के अधीन है, जिसका कुल कृषि उत्पादन में योगदान मात्र 40 प्रतिशत है। शुष्क कृषि के विकास के बिना भारत भविष्य में खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता है। भारत का अधिकांश दलहन शुष्क क्षेत्र में ही उपजाया जाता है तथा प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। विगत दशकों में दलहन की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में तेजी से कमी आई है। अतः कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए शुष्क कृषि का विकास आवश्यक है।
भारत में अधिकांश तिलहन भी शुष्क क्षेत्रों से ही प्राप्त होता है। हाल के वर्षों में तिलहन के आयात पर काफी विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ रही है। इसे रोकने के लिए शुष्क कृषि का विकास आवश्यक है। हरित क्रांति के पश्चात् देश में अनाजों के उत्पादन में कमी आई है। शुष्क क्षेत्रों में मोटे अनाजों के उत्पादन की व्यापक संभावनाएं हैं। इसके द्वारा न केवल गरीबों की खाद्य समस्या को सुलझाया जा सकता है, बल्कि प्रादेशिक विषमता को भी दूर किया जा सकता है।
भारत में शुष्क कृषि के विकास की व्यापक संभावनाएं हैं। विगत वर्षों में शुष्क क्षेत्रों में दलहन एवं तिलहन के उत्पादन में वृद्धि हेतु किये गये प्रयासों से इनके उत्पादन में वृद्धि हुई है। ऐसी संभावना है कि शुष्क कृषि के विकास के द्वारा उत्पादिता में 40 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि की जा सकती है। भारत की काली मिट्टी की जलधारण इनको उत्पादन में वृद्धि हुई है। क्षमता अधिक होने के कारण इस मृदा प्रदेश में शुष्क कृषि के विकास की व्यापक संभावनाएं है, देश में शुष्क कृषि के विकास हेतु 1000 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले 13472 सूक्ष्म जल विभाजन क्षेत्रों की पहचान की गई है।
Question : भारत में श्वेत क्रांति की सफलता एवं बाध्यताओं का एक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2005)
Answer : भारत में पशु उत्पाद के रूप में दुग्ध उत्पाद को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। यह भारतीय कृषि का परंपरागत उत्पाद है तथा भारत में परंपरागत दुग्ध उत्पाद जीवन निर्वाह ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अंग था। भारत में बढ़ती जनसंख्या, उसके कुपोषण की समस्या और नगरीय क्षेत्रों में दुग्ध की भारी कमी को ध्यान में रखकर दुग्ध उत्पाद के वाणिज्यिक विकास की प्रक्रिया जब आरंभ की गई तो भारत शीघ्र ही विश्व के अतिविकसित दुग्ध उत्पादक देशों में से एक हो गया। भारत में दुग्ध विकास की आधुनिक शुरूआत 1965 ई. में नेशनल डेयरी डेवलपमेन्ट बोर्ड के गठन के साथ हुआ। दूसरा महत्वपूर्ण कार्य आपरेशन फ्रलड कार्यक्रम की शुरूआत करना था, जो 1971 ई. में आरंभ किया गया। तीसरा महत्वपूर्ण कार्य था-1987 ई. में दुग्ध मिशन तकनीक की शुरूआत। आपरेशन फ्रलड तथा दुग्ध तकनीकी कार्यक्रमों की सफलता को ही भारत में श्वेत क्रांति कहा गया है। यह इसी क्रांति का ही परिणाम है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बन चुका है। 1965 ई. में भारत के कुल दूध का मात्र 2% वाणिज्यक दुग्ध के रूप में आता था, जो 1971 में 4% तथा आपरेशन फ्रलड-III कार्यक्रम के समापन पर (1996 में) 44% हो गया।
वर्ष | दुग्ध उत्पादन (मिलियन टन) | प्रति व्यक्ति प्रति दिन दुग्ध उपलब्धता |
---|---|---|
1951 1971 1981 1997 2000 2001 |
17 22 32 69 78 81 |
124 112 128 202 214 217 |
ऊपर की तालिका से स्पष्ट है कि प्रथम 20 वर्षों में उत्पादन की वृद्धि मात्र 5 मिलियन टन थी जबकि अंतिम 30 वर्षों में यह वृद्धि 60 मिलियन टन हो गई। यद्यपि तकनीकी मिशन (2000) व आपरेशन फ्रलड (1996) कार्यक्रम समाप्त हो चुका है, लेकिन उन कार्यक्रमों द्वारा दुग्ध उत्पादन को जो गति दी गई उसी का परिणाम है कि 21वीं सदी के प्रथम वर्ष में भारत दुग्ध उत्पादन में विश्व में प्रथम हो गया।
आपरेशन फ्रलड कार्यक्रम तीन चरणों में चलाया गया था। प्रथम चरण 1970-71 से 1974-75 वित्तीय वर्ष में चलाया गया जिसका मूल उद्देश्य महानगरों के दुग्ध आपूर्ति में सुधार लाना व इन्हें दुग्ध आपूर्ति हेतु एक दूसरे से जोड़ना था।
इसका दूसरा चरण 1978 से 1985 के बीच चलाया गया, जिसका उद्देश्य था, भारत के सभी जिलों में दुग्ध सहकारिता का विकास। भारत में दुग्ध क्रांति की सफलता का सबसे प्रमुख कारण तीन स्तरीय सहकारिता का विकास है-
(i) ग्रामीण स्तर पर दुग्ध उत्पादकों की सहकारिता
(ii) जिला स्तर पर दूध यूनियन का विकास तथा
(iii) राज्य स्तर पर दुग्ध महासंघ का विकास।
आपरेशन फ्रलड का तीसरा चरण 1987 से 1996 के बीच चलाया गया, जिसका उद्देश्य था दुग्ध उत्पादन की गुणवत्ता, उत्पादकता, विविधता व प्रतिस्पर्धात्मक क्षमताओं में वृद्धि लाना।
यद्यपि भारत में दुग्ध क्रांति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में पूर्ण सफल रही है, लेकिन इसकी सफलता में भारी विषमता है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश वे राज्य हैं, जहां अतिरिक्त दुग्ध का उत्पादन होता है। इन राज्यों में प्रति दिन कुल मिलाकर 18-20 लाख लीटर अतिरिक्त दुग्ध उत्पादित होता है, जिसकी आपूर्ति देश के महानगरों में होती है। सर्वाधिक दुग्ध संग्रह गुजरात तथा उसके बाद क्रमशः महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, पंजाब व उत्तर प्रदेश में होते हैं। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु उन राज्यों में हैं, जहां दुग्ध उद्योग का विकास 90 के दशक में तेजी से हुआ है। इन राज्यों में नगरों व महानगरों की वृद्धि तथा प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी के कारण दुग्ध उद्योग का तेजी से विकास हुआ है। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा यू-पी- के राज्य हैं, जहां निजी क्षेत्र में भी सामानान्तर उजली क्रांति के प्रभाव से दुग्ध उद्योग का विकास हुआ है।
पश्चिमी भारत में, और मुख्यतः महाराष्ट्र, गुजरात, और राजस्थान में दुग्ध उत्पादन का तेजी से विकास हुआ है। इसका मूल कारण इन राज्यों की उपार्द्र जलवायु है, जो फसल उत्पादन की तुलना में पशुपालन तथा चारे की कृषि के लिए अधिक अनूकूल है। पुनः इन राज्यों में जनघनत्व कम होने के कारण भी फसल उत्पादन का अधिक दबाब नहीं है। पुनः इन राज्यों के कृषक परंपरागत रूप से पशुपालन करते रहे हैं। इसीलिए आपरेशन फ्रलड कार्यक्रम इन क्षेत्रों में काफी सफल हुआ है।
पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उजली क्रांति का आधार हरित क्रांति का विकास है। खाद्य फसलों के उत्पादन में वृद्धि होने से कृषकों ने वैकल्पिक अर्थव्यवस्था में चारे की कृषि की तथा दिल्ली महानगरीय क्षेत्र की बढ़ती मांग भी इसके विकास का आधार बना। आंध्र प्रदेश, कनार्टक तथा तमिलनाडु में नगरीय विकास एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के कारण दुग्ध का विकास हुआ है। लेकिन पूर्व एवं पूर्वोत्तर भारत में इसका सीमित विकास हुआ है। इसका प्रमुख कारण तीव्र जनसंख्या वृद्धि, जनसंख्या के कृषि भूमि पर बढ़ता दबाब व जीवन-निर्वाह खेती की परंपरा है। पुनः जनजातियों में दुग्ध उत्पादन के प्रति कम रूचि भी इसके पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण है। जनजातियों में इसके प्रति जागृति है, लेकिन चारागाह के कमी के कारण इसका विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है।
भारत सरकार के पास आपरेशन फ्रलड-4 की योजना स्वीकृति के लिए भेजी जा चुकी है। इस योजना का मूल उद्देश्य भूमिहीन तथा अति पिछड़े लोग अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को आपरेशन फ्रलड की परिधि के अन्तर्गत लाना है। इसका दूसरा उद्देश्य भारत में चारे की कृषि का फैलाव दुधारी पशुओं का नस्ल सुधार आदि शामिल हैं। नीचे के मानचित्र में भारत के उन क्षेत्रों को दिखाया गया है, जो आपरेशन फ्रलड के अंतर्गत उजली क्रांति के क्षेत्र के रूप में जाने जाते हैं।
Question : नीली क्रांति की सफलता एवं संभावनाओं का एक विवरण प्रस्तुत कीजिए और साथ ही भारत ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर उसके प्रभावों पर भी टिप्पणी कीजिए।
(2003)
Answer : भारत के संसाधानात्मक विकास की दिशा में किये गये कार्यों में तीन कार्यों को क्रांतिकारी कार्य माना गया है। अतः इसका विकास कार्य गब्यात्मक है। इसके विकास के लिए विशेष विशेष कार्यक्रम चलाये गये थे। ये हैं हरित क्रांति, श्वेत क्रांति (1970 ई. में) तथा नीली क्रांति।
भारत में नीली क्रांति की शुरुआत 7वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ में किया गया था। भारत विश्व के उन कुछ देशों में से है जहां मत्स्य उत्पादन की असीम क्षमता है, लेकिन यह प्रारंभ से ही जीवन-निर्वाह रूप से कार्य कर रहा था। अतः यह अनुभव किया गया कि उजली क्रांति के ही समान भारत में मत्स्य उत्पादन को यदि क्रांतिकारी रूप दिया जाय तो भारत में निर्यात की वृद्धि की संभावनाएं हैं तथा साथ ही भारत के आन्तरिक उपभोग में वृद्धि होने से पौष्टिक आहार की उपलब्धता में भी सुधार हो सकता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर सातवीं पंचवर्षीय योजना में नीली क्रांति को प्रारंभ किया गया। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाये गये-
(i) समुद्री कृषि को सुधार करना व भारत के तटीय क्षेत्रों में लैगून तथा छिछले सागर में मछली पालन को प्रमुखता से विकसित किया गया।
(ii) मछली पकड़ने की क्रिया का मशीनीकरण किया गया।
(iii) 8 वीं योजना से गहन सागरीय मछली कार्यक्रम को विशेष प्राथमिकता दी गयी।
(iv) मछली परिष्करण केन्द्रों, शीत भंडारण गृह, एवं परिवहन साधनों का विकास किया गया।
इसके अलावा गहन सागरीय क्षेत्रों में लाइट वोर्ड का विकास, मछुआरों को मौसम की सूचना सहकारिता का विकास, मध्यस्थों की भूमिका की समाप्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय मछली की विश्वसनीयता को बढ़ाने की दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य किये गये।
उपर्युक्त प्रयासों के साथ परिणाम सामने आये तथा भारत के समुद्री मछली उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इस वृद्धि को निम्न तालिका से समझा जा सकता है।
वर्ष | कुल समुद्री उत्पाद (लाख टन) |
---|---|
1955 1971 1981 1991 2000 |
5.34 10.86 15.55 24.47 28.30 |
कुल उत्पादन की दृष्टि से केरल का प्रथम स्थान रहा, जो करीब 20 प्रतिशत (पूरे भारत का) उत्पादन के साथ अव्वल रहा। लम्बी तट रेखा तथा छिछले समुद्री तट के कारण गुजरात का दूसरा स्थान रहा। इसके बाद क्रमशः आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा पं. बंगाल का स्थान रहा।
भारत के कुल निर्यात में भी बढ़ोतरी हुई तथा निर्यात के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में भी इसकी भूमिका का विस्तार हुआ, जिसे नीचे की तालिका से समझा जा सकता है।
वर्ष | कुल निर्यात मूल्य (करोड़ रुपये) |
---|---|
1951 1985 1999 |
2 384 4627 |
(लक्ष्य 4000 करोड़ रुपये)
स्वच्छ जल के मछली उत्पादन में व्यापक परिवर्तन हुआ है। लेकिन इसका निर्यात कम होता है, जो कि आंतरिक मांग में वृद्धि का परिणाम है।
आंतरिक उत्पादन के मामले में पं. बंगाल सबसे बड़ा उत्पादक राज्य बन कर उभरा है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र व तमिलनाडु का स्थान है। इन पांचों राज्यों में व्यावसायिक स्तर पर स्वच्छ जल मछली पकड़े जाने का कार्य प्रारंभ हुआ है। सन् 2000 ई. तक स्वच्छ जल मछली का उत्पादन भी 28.54 लाख टन तक पहुंच गया है।
नीली क्रांति के दौरान मछली उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर 6.8 प्रतिशत रही।
संभावनाएंः भारत में मछली उत्पादन के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं। भारत का आर्थिक समुद्री क्षेत्र लगभग 24 लाख वर्ग किमी. है तथा इसमें 1800 प्रकार की मछलियां आती हैं। वर्तमान में मात्र 14 प्रकार की मछलियों का ही उत्पादन किया जाता है। अतः स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में विकास की असीम संभावनाएं मौजूद हैं। पुनः भारत में अनेक नदी व तालाब हैं, जिनमें साल भर जल रहते हैं। इन्हें मछली उत्पादन का क्षेत्र बनाया जा सकता है। भारत के आन्तरिक भाग में 16.2 लाख हेक्टेअर स्वच्छ जल के क्षेत्र हैं जिसमें मछली पालन को विकसित करने के लिए अनुकूल दशाएं उपलब्ध हैं। इन सबके अलावा भारत के आंतरिक एवं बाह्य मांग में भी तीव्र वृद्धि हो रही है। इन सबों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत में नीली क्रांति के विसरण एवं विकास की अनुकूल दशाएं वर्तमान है। जरूरत है उन अनुकूल दशाओं के पूर्ण एवं सार्थक दोहन की।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
भारत में नीली क्रांति का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर काफी सार्थक प्रभाव पड़ा है। भारत के समुद्री उत्पादन में वृद्धि से उन तटीय मछुआरों के आर्थिक स्तर में अच्छी वृद्धि हुई है। शीत गृहों की स्थापना लाइट बोर्डों का विकास तथा मशीनीकरण की सुविधा ने मछुआरों की कार्यकुशलता तथा उत्पादन क्षमता में काफी वृद्धि की है उनकी आर्थिक एवं क्रय शक्ति में भी आशानुकूल वृद्धि हुई है।
जहां तक आन्तरिक क्षेत्र में ग्रामीण कृषकों का सवाल है, तो वहां मछली पालन कृषि के वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हुआ है। इससे कृषि पर जनसंख्या के बोझ को कम करने में भी मदद मिली है। किसी कारणवश कृषि फसल के नष्ट होने की स्थिति में भी कृषकों की क्रय शक्ति बरकरार रहती है। कई-कई जगहों पर कृषि फसलों की भूमि में फसल एवं मछली पालन दोनों का विकास हुआ है, जिससे कृषकों को दोहरी उपज का फायदा मिलता है।
अतः स्पष्ट है कि नीली क्रांति ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
Question : भारत में शुष्क क्षेत्रों के विकास के कार्यक्रमों एवं नीति पर चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार 110 सेमी. की वर्षा रेखा शुष्क क्षेत्र एवं नम क्षेत्र को विभाजित करती है। इन क्षेत्रों में पं. राजस्थान कच्चा का रण, उड़ीसा, झारखंड, लद्दाख का पठार,
द. भारत का प्रायद्वीपीय पठार एवं महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्र शामिल हैं। ये सभी क्षेत्र 110 सेमी. की वर्षा रेखा के द्वारा सीमांकित किए जाते हैं। इन क्षेत्रों की मूल समस्या मौसमी सूखा एवं जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था का स्वरूप है। भारत के लगभग आधे राज्य इस शुष्क क्षेत्रों के अन्तर्गत आते हैं। वैसे भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 2/3 भाग इस समस्या से ग्रसित हैं।
उपर्युक्त विशाल क्षेत्रों की समस्या के समाधान के लिए सरकार आरंभ से ही प्रयासरत है। आजादी के बाद 1948 में ही सरकार ने दामोदर नदी घाटी परियोजना के रूप में बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना को मंजूरी दी। इसके प्रमुख उद्देश्यों में सूखे क्षेत्र को सिंचित करने का प्रयास भी शामिल था। इसके साथ शुरुआती पंचवर्षीय योजनाओं में सूखे क्षेत्रों में नहर सिंचाई को भी विकसित किया गया। जिसके परिणामस्वरूप पंजाब, हरियाणा, उत्तर-पश्चिमी राजस्थान एवं पं-उ-प्रदेश, कृषीय एवं मौसमी सूखे की समस्या से मुक्त हो गया। लेकिन 1967 के राष्ट्रव्यापी सूखे ने इन क्षेत्रों की समस्या के लिए नये सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। इसी के फलस्वरूप 5वीं योजना में क्षेत्र आधारित विकास कार्यक्रम के तहत सूखा क्षेत्र आधारित विकास कार्यक्रम को प्राथमिकता दी गयी। इस नीति के तहत लघुकालीन एवं दीर्घकालीन कार्यक्रम अपनाये गये। लघुकालीन कार्यक्रम के तहत खाद्य पदार्थ, पशुओं के लिए चारे एवं पेय जल की अपूर्ति की व्यवस्था पर जोर दिया गया। दीर्घकालीन कार्यक्रम के तत सिंचाई के साधनों का विकास किया गया, जिसमें बहुउद्देशीय योजना तथा नहर सिंचाई का विकास प्रमुख है। इसके अलावा निम्नलिखित कार्यक्रमों को अपनाया गयाः
(i) सूखा ग्रसित क्षेत्रों में वानिकी विकास कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी गयी। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से सामाजिक वानिकी और कृषि वानिकी को प्रोत्साहित किया गया। इसके प्रभाव से मृदा नमी के संरक्षण एवं फसलों के वाष्पोत्सर्जन को रोकने में सफलता मिली है।
(ii) इन क्षेत्रों में पशुपालन विकास कार्यक्रम चलाये गये हैं, जो सूखे क्षेत्र के लिए वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के रूप में कृषकों की क्रय क्षमता को गिरने नहीं देता है। इसी व्यवस्था के चलते यह क्षेत्र आज उजली क्रांति का क्षेत्र बन गया है।
(iii) सूखा प्रभावित प्रदेशों के लिए विशेष प्रकार के संकर बीज को विकसित किया गया है। ये कम वर्षा एवं कम मृदा नमी की स्थिति में भी अधिक उपज देने की क्षमता रखती है। जैसे:
कपास - पी.आर.एस. - 72
पी.आर.एस. -74
अरहर - ए.सी. - 5
गेहू - कल्याण गेहूं
(iv) 7वीं पंचवर्षीय योजना के समय सूखा ग्रसित प्रदेशों के लिए तीन विशेष कार्यक्रम अपनाये गये हैं:
(a) कृषि जलवायु प्रादेशिकरण के अन्तर्गत सूखा ग्रसित प्रदेशों के लिए फसल चक्र एवं फसल प्रारूप को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
(b) गहरी जुताई के लिए कृषकों को लोहे के हल के उपयोग पर जोर दिया जा रहा है।
(c) जल की मितव्ययिता को ध्यान में रखते हुए ड्रिप एवं स्प्रिंकल सिंचाई को विकसित किया गया है।
(v) आठवीं योजना से वाटररोड प्रबंध कार्यक्रम को भी सूखे क्षेत्र में प्राथमिकता से लागू किया गया है। यह पारिस्थितिकी के अनुरूप भूमि एवं जल प्रबंधन की योजना है। इसके अन्तर्गत जल विभाजक रेखा के अनुसार भूमि और जल की विशेषताओं के अध्ययन पर छोटे-छोटे प्रदेशों का निर्माण करना एवं बिना किसी बाहरी सिंचाई की मदद से फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देना है।
(vi) 1976-76 से इन क्षेत्रों के लिए केन्द्र एवं राज्यों के साझेदारी से एक विशेष कार्यक्रम ‘सूख संभावित क्षेत्र कार्यक्रम’ चलाया गया है, जो प्रखंड स्तरीय कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य इस प्रकार है।
(a) शुष्क कृषि को प्रोत्साहित करना।
(b) कृषकों को जल प्रबंधन का प्रशिक्षण देना।
(c) सार्वजनिक एव सामुदायिक वानिकी को प्रोत्साहित करना।
(d) मृदा नमी एवं मृदा की विशेषताओं के आधार पर कृषकों को भू-उपयोग के लिए प्रोत्साहित करना।
ऊपर वर्णित कार्यक्रमों में के द्वारा भारत मे सूखे के प्रभाव को कम करने का प्रयास किया गया है। इस दिशा में पर्याप्त सफलता भी मिली है। लेकिन 1987 ई. के सूखे ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस दिशा मे और सार्थक प्रयास की आवश्यकता है।
Question : भारत में हरित क्रांति के पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा करें।
(2002)
Answer : हरित क्रांति शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम W.S. Gaud ने खाद्यान्न उत्पादन में आई क्रांति, जो कि गेहूं के भ्ल्ट प्रकार के आविष्कार से संभव हुई थी, के लिए किया था। यह क्रांति भारत, पाकिस्तान एवं विकासशील देश में विद्यमान खाद्यान्न संकट को दूर करने में अत्यंत मददगार रहा।
उन्नत किस्म की बीज के अलावे अच्छी सिंचाई की व्यवस्था, आधुनिक यंत्रों का उपयोग, अच्छे उर्वरक का वैज्ञानिक प्रयोग इत्यादि हरित क्रांति के आधार थे। इसमें सस्ते मूल्य पर बिजली उपलब्ध कराने के साथ-साथ अन्य बैंकिंग एवं बाजार की सुविधा भी उपलब्ध करायी गयी। हरित क्रांति की सफलता के दो पक्ष रहे, एक सकारात्मक को दूसरा नकारात्मक।
सकारात्मक पक्ष
खाद्यान्न की उपज में बढ़ोतरी हुई। 1950 में भारत में 50 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था, जो बढ़कर अब 200 मिलियन टन हो चुका है। गेहूं के उत्पादन में 177 प्रतिशत, चावल में 76 प्रतिशत तथा मक्के में 56 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। खाद्यान्न में वार्षिक वृद्धि 2.62 प्रतिशत हो गयी, जो पहली बार जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक थी, अर्थात खाद्यान्न संकट दूर हुआ।
कृषि क्षेत्र में 1961 से 1999 के बीच 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 1960-61 में यह कुल कृषि क्षेत्र का 72 प्रतिशत था, जो 1970-71 में 78 प्रतिशत हो गया, 1980-81 में 81 प्रतिशत और अब 82 प्रतिशत के करीब है। पिछले तीन दशकों में गेहूं क्षेत्र में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिसमें 82 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र हैं तथा 95 प्रतिशत HYV के अंतर्गत आता है। चावल क्षेत्र में भी 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
भारतीय कृषि पहली बार बाजार में लाभदायक व्यापार के रूप में आई क्योंकि अब किसानों के पास अतिरिक्त अन्न मौजूद था। कृषि उत्पादों पर आधारित उद्योगों का विकास हुआ तथा कृषि में प्रयुक्त होने वाले यंत्रों के निर्माण में भी लौह एवं यांत्रिक उद्योग को बढ़ावा मिला। भारतीय किसानों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ भारतीय किसान बढ़े पैदावार को देखते हुए नवीन कृषि प्रणाली को अपनाने को तुरंत तैयार हो गये और कृषि सहायता से लाभदायक वाणिज्यिकी में परिणत हो गये। खाद्यान्न का आयात रुका तथा भारतीय मुद्रा का विदेश गमन भी नियंत्रित हुआ। भारत जैसे विकासशील देश में यह मुद्रा अधःसरंचना के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। ग्रामीण रोजगार के भी शुभ अवसर पैदा हुए। घरेलू उद्योग धंधे का भी विकास हुआ तथा मजदूरी में बढ़ोतरी हुई।
नकारात्मक पक्ष
परंतु हरित क्रांति के नकारात्मक पक्ष भी उभर कर सामने आये हैं। हरित क्रांति ने उसी क्षेत्र में सफलता पाई, जहां पर पूर्व से ही अधःसंरचना का विकास हुआ पड़ा था, किसान बड़े एवं धनी थे, कुल जोत अधिक थे तथा दूसरी भौगोलिक एवं सामाजिक शर्तें पूरी हो रही थीं। अतः यह पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में तो सफल रही, परंतु उड़ीसा, मध्य प्रदेश आदि में असफल रही, जिससे आर्थिक विकास में असमानता आयी। उत्तर प्रदेश के अंदर ही पूर्वी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विकास की विषमता दिखती है। इसी तरह कृष्णा, गोदावरी क्षेत्र एवं तेलगांना और रायल सीमा क्षेत्र में विषमता दिखती है।
अंतर्वैयक्तिक विषमता का भी जन्म हो गया। क्योंकि बडे़ किसान ही इसका भरपूर फायदा उठा सके। जबकि छोटे किसान आर्थिक रूप से असफल ही रह गये। गेहूं और चावल के उपज उवं उपज क्षेत्र में तो बढ़ोतरी हुई, परंतु तेलहन एवं दलहन की उपज एवं उपज क्षेत्र दोनों ही घट गये। अंर्तवैयक्तिक विषमता ने बड़े किसानों के समाज में प्रभुत्व को पूर्वस्थापित कर दिया। छोटे किसान अपनी जमीन को बढ़ी कीमत में बेचने पर प्रलोभित हो गये तथा उनकी आर्थिक दुर्गति बढ़ गयी। कृषि में यांत्रिकी के प्रवेश से रोगजार के अवसर भी घट गये।
हरित क्रांति के सर्वाधिक दुष्परिणाम पर्यावरणीय दृष्टि से उभर कर सामने आये। कृषि में HYV किस्म की आवश्यकता अधिक रहती है। हरित क्रांति के क्षेत्र में अपवाह प्रणाली बेहद खराब है। अतः नहरों से सिंचित क्षेत्र में जल जमाव एवं कूप तथा नलकूप क्षेत्र में लवणता की समस्या का जन्म हो गया। हरियाणा एवं पंजाब के अर्द्धशुष्क भौगोलिक दशा में लवणता को और बढ़ावा मिला।
कृषि क्षेत्र को बढ़ाने के लिए वनस्पति का विनाश हुआ, अधिक उर्वरक के प्रयोग से प्राकृतिक उर्वरता का ह्रास तथा कृषि प्रणाली में परिवर्तन (जैसे दलहन का न बोया जाना) आदि प्रयोगों एवं कार्यों से मृदा अपरदन एवं प्रदूषण दोनों बढ़े। एकल कृषि तथा कृषि पारिस्थितिकी पर प्रभाव भी नकारात्मक पड़े। एक ही फसल उपजाने से कृषि पारिस्थितिकी का विनाश हो रहा है।
रसायनिक खादों के उपयोग से तथा खाद्यान्नों में सीसा, तांबा, जस्ते आदि की मात्र बढ़ने से यकृत संबंधी रोग तथा जल जमाव से मलेरिया, डेंगू आदि रोग बढ़े। डीडीटी और कीटनाशक दवाओं को दुग्धकारी जानवर के दूध में पाया जाना भी घातक संकेत है। इस तरह एक तरफ तो हरित क्रांति ने खाद्यान्न समृद्धि किया तो दूसरी तरफ पर्यावरणीय एवं सामाजिक दुर्व्यवस्था को भी जन्म दे दिया।
Question : भारत के कृषि जलवायु आयोजन क्षेत्रों के भौगोलिक आधार का परीक्षण कीजिये।
(2001)
Answer : भारत में स्थलाकृति एवं जलवायु की दृष्टि से अत्यधिक विविधता पायी जाती है। इस विविधता का प्रभाव यहां की कृषि पर भी पड़ा है। अतः कृषि के नियोजित विकास हेतु योजना आयोग एवं राष्ट्रीय दूर-संवेदन एजेंसी ने विभिन्न भौगोलिक एवं सामाजिक-आर्थिक आधारों का प्रयोग करते हुए देश को 15 कृषि जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया है, जो निम्नलिखित हैं-
1. उत्तर-पश्चिमी पर्वतीय प्रदेश: जम्मू-काश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तरांचल में विस्तृत इस प्रदेश में हिममण्डित चोटियां, ऊबड़-खाबड़ धरातल एवं मिट्टी की पतली परत पायी जाती है। इस प्रदेश में ग्रीष्म ऋतु साधारण गर्म एवं शीत ऋतु कठोर होती है। इस प्रदेश में कृषि कार्य मुख्यतः आर्द्र ग्रीष्म ऋतु में होता है। शीत ऋतु में निम्न तापमान एवं हिमपात कृषि के विकास में बाधक हैं। कृषि कार्य मुख्यतः घाटियों तक ही सीमित है, जहां चावल, गेहूं, मक्का, जई, आलू एवं बेमौसमी सब्जियों की कृषि की जाती है। यह प्रदेश सेव, खुबानी, बादाम, अखरोट, चेरी, नासपाती, केसर आदि की कृषि के लिए प्रसिद्ध है। इस प्रदेश में ट्रांसह्यूमन द्वारा पशुचारण का कार्य किया जाता है।
2. उत्तर-पूर्वी प्रदेश: इस प्रदेश के अंतर्गत उत्तर-पूर्वी भारत के मैदानी एवं पवतीय प्रदेशों को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रदेश में वर्ष के अधिकांश महीनों में पर्याप्त वर्षा, उच्च सापेक्षिक आर्द्रता एवं पर्याप्त तापमान पाया जाता है, जो सालों भर फसल के उत्पादन हेतु उपयुक्त है। ब्रह्मपुत्र घाटी में उपजाऊ जलोढ़ मृदा पायी जाती है, जबकि पर्वतीय ढालों पर मृदा की पतली परत पायी जाती है। इस प्रदेश में चावल एवं चाय के अलावा जूट, अन्नानास, नारंगी, मक्का, अदरक, शब्जी आदि की कृषि की जाती है। पर्वतीय ढालों पर जनजातियों द्वारा अस्थायी कृषि इस प्रदेश की विशेषता है।
3. सतलज-यमुना मैदान: पंजाब एवं हरियाणा में विस्तृत इस प्रदेश की जलवायु महाद्वीपीय प्रकार ही है, जहां वार्षिक तापांतर बहुत अधिक होता है। वार्षिक वर्षा 50 सेमी. होती है, जो मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में होती है। शीत ऋतु में पश्चिमी विक्षोभों में थोड़ी बहुत वर्षा होती है। नहर एवं नलकूप द्वारा सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने के कारण यह भारत में हरित क्रांति का क्षेत्र बन चुका है। इस प्रदेश में चावल, गन्ना, कपास, मक्का, गेहूं, जौ, चना आदि फसलों के अलावा फलों एवं सब्जियों की कृषि भी का जाती है। इस प्रदेश में डेयरी उद्योग का भी पर्याप्त विकास हुआ है।
4. ऊपरी गंगा का मैदान: इस प्रदेश में आर्द्र जलवायु पायी जाती है, जहां ग्रीष्म ऋतु गर्म एवं शीत ऋतु ठंडी होती है। औसत वार्षिक वर्षा 60 से 120 सेमी. के मध्य होती है। वर्षा मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में होती है। हरित क्रांति के इस प्रदेश में चावल, गन्ना, मक्का, गेहूं एवं आलू प्रमुख फसल हैं। आम, अमरूद, नासपाती जैसे फलों की कृषि भी की जाती है।
5. मध्य गंगा का मैदान: पूर्व उत्तर प्रदेश एवं बिहार में स्थित यह संक्रमण जलवायु प्रदेश है। यहां गर्म व आर्द्र ग्रीष्म ऋतु तथा साधारण ठंड वाली शीत ऋतु होती है। औसत वार्षिक वर्षा 200 से 150 सेमी. होती है। इस प्रदेश में उपजाऊ खादर मृदा पायी जाती है। इस प्रदेश में मक्का, चावल, गन्ना, दलहन, गेहूं, तिलहन आदि फसलों की कृषि की जाती है। मुदा अपरदन, क्षारीयता एवं खारापन तथा जलरुद्धता इस प्रदेश की प्रमुख समस्याएं है।
6. निम्न गंगा का मैदान: पश्चिम बंगाल में विस्तृत इस प्रदेश की जलवायु ऊष्णार्द्र है। यहां न्यूनतम औसत तापमान 150 से ऊपर रहता है। इस प्रदेश की उपजाऊ खादर मृदा चावल एवं जूट की कृषि के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
7. दक्षिण पूर्वी पठारी प्रदेश: इस प्रदेश का विस्तार छोटानागपुर, बघेलखंड एवं महानदी बेसिन में है। यहां मुख्यतः लाल एवं पीली तथा जलोढ़ मृदा पायी जाती है। इस प्रदेश की जलवायु ऊष्ण एवं आर्द्र है। औसत वार्षिक वर्षा 125 सेंमी. होती है। ऊबड़-खाबड़ धरातल, मिट्टी में उर्वरापन की कमी, सिंचाई की सुविधा का अभाव आदि कारणों से यह प्रदेश कृषि की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। इस प्रदेश में मुख्यतः चावल, अरहर एवं मोटे अनाजों की कृषि की जाती है।
8. अरावली-मालवा उच्च भूमि: पश्चिमी मध्य प्रदेश एवं पूर्वी राजस्थान में विस्तृत इस प्रदेश में औसत वार्षिक वर्षा 50 से 100 सेमी. के बीच होती है। ग्रीष्म ऋतु में ऊंचा एवं शीत ऋतु में निम्न तापक्रम पाया जाता है। इस प्रदेश के दक्षिणी- पश्चिमी भाग में रेगुर मिट्टी पायी जाती है। भूमिक जल स्तर के नीचा होने एवं नहरी सिंचाई की सुविधा न होने के कारण इस प्रदेश की कृषि मानसून पर निर्भर है। इस प्रदेश में कपास, गेहूं , सोयाबीन, मक्का, मोटे अनाज, दलहन एवं तिलहन की कृषि की जाती है।
9. महाराष्ट्र का पठार: इस प्रदेश का विस्तार पश्चिम मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में है, जहां काली मिट्टी पायी जाती है। इस प्रदेश में सालोंभर ऊंचा तापमान पाया जाता है। वृष्टिछाया प्रदेश में स्थित होने के कारण औसत वार्षिक वर्षा 50 से 75 सेमी. के मध्य होती है। यह शुष्क कृषि का प्रदेश है। इस प्रदेश में कपास, दलहन, तिलहन सोयाबीन, मक्का, बाजरा के अलावा केला, अंगूर, चीकू एवं संतरा की कृषि की जाती है।
10. दक्षिणी आंतरिक प्रदेश: यह प्रदेश प्रायद्वीपीय पठार के दक्षिणी आंतरिक भाग में स्थित है। इस प्रदेश में अनुपाजाऊ लाल मृदा पायी जाती है। वर्षा की कमी एवं सिंचाई सुविधा के अभाव के कारण यह भारत का सूखाग्रस्त क्षेत्र है। यहां मुख्यतः मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, मूंगफली, दलहन आदि की कृषि की जाती है।
11. पूर्वी तटीय प्रदेश: इस प्रदेश में ऊष्ण- आर्द्र जलवायु पायी जाती है। वर्षा का औसत लगभग 100 सेमी. है। सालों भर उच्च तापमान पाया जाता है। इस प्रदेश में उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी पायी जाती है। इस प्रदेश में चावल, जूट, तम्बाकू, केला, नारियल, काजू, सुपारी आदि की कृषि की जाती है
12. पश्चिम तटीय प्रदेश: इस प्रदेश की जलवायु ऊष्ण एवं आर्द्र है। दक्षिणी भाग में वर्ष के अधिकांश महीनों में वर्षा होती है। यह प्रदेश उपजाऊ घाटियों एवं असमतल धरातल से युक्त है। चावल इस प्रदेश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण फसल है। इसके अलावा इस प्रदेश में नारियल, कहवा, चाय, मसाला, काजू आदि की कृषि भी बड़े पैमाने पर की जाती है।
13. गुजरात प्रदेश: गुजरात राज्य की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थिति के कारण इसे एक अलग कृषि जलवायु प्रदेश में रखा गया है। इस प्रदेश का तटीय भाग आर्द्र है जहां 100 सेमी. से भी अधिक वर्षा होती है। परंतु आंतरिक भाग शुष्क है। कुछ भाग में काली मिट्टी पायी जाती है तो अधिकांश भाग में हल्की जलोढ़ मिट्टी। इस प्रदेश में मुख्यतः मूंगफली, कपास, गेहूं, तंबाकू की कृषि की जाती है। कच्छ का रन कृषि की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है।
14. पश्चिमी राजस्थान: इस प्रदेश का विस्तार अरावली के पश्चिम से लेकर भारत-पाक सीमा तक है। इस प्रदेश की जलवायु ऊष्ण मरुस्थलीय है। अधिकांश क्षेत्र पर बलुई एवं चट्टानी मरुस्थल का फैलाव है। इस प्रदेश में जीविका का मुख्य साधन पशुचारण है। यहां ऊंट, भेड़ एवं बकरियां पाली जाती हैं। इस प्रदेश को गांधी नहर द्वारा सिंचाई की सुविधा प्राप्त है। गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, चारे की फसल आदि की कृषि की जाती है।
15. अंडमान निकोबार द्वीप समूह: इस प्रदेश में समुद्री जलवायु के कारण सालोंभर ऊंचा तापमान पाया जाता है तथा वर्षा भी काफी अधिक होती है। इस प्रदेश का अधिकांश भाग वनाच्छादित है। इस प्रदेश में चावल, मक्का, मसाले, नारियल तिलहन आदि की कृषि की जाती है।
भारत में कृषि उत्पादकता को बढ़ाने तथा पारिस्थितिक क्षेत्र को संतुलित बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न कृषि-जलवायु प्रदेशों में कृषि के विकास के लिए विशिष्ट नीतियां बनायी जायें।
Question : भारतीय कृषि के अभिनव रूपांतरण में अधःसंरचनात्मक एवं संस्थागत कारकों की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की नींव है। न सिर्फ राष्ट्र के घरेलू उत्पादन का लगभग 28.5% कृषि और इससे संबद्ध क्षेत्रों से प्राप्त होता है, बल्कि इससे हमारी जनसंख्या के अधिकांश भाग (65%) को रोजगार भी उपलब्ध होता है। कृषि के विकास को अधःसंरचनात्मक एवं संस्थागत कारक मुख्य रूप से प्रभावित करते हैं। अधःसंरचनात्मक कारणों के अन्तर्गत भूमि एवं मृदा, सिंचाई, ऊर्जा, उर्वरक एवं बीज आदि को शामिल किया जाता है, जबकि संस्थागत कारकों में जोतों का आकार, भूमि स्वामित्व, भू-एकत्रीकरण, भूमि सुधार, ऋण आदि को शामिल किया जाता है।
सम्प्रति भारतीय कृषि उत्पादन की दृष्टि से न सिर्फ आत्मनिर्भर हो गयी है, बल्कि अब अतिरिक्त खाद्यान्न का निर्यात भी हो रहा है। जहां एक ओर यह पक्ष संपन्नता का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर भारतीय किसान आज भी दरिद्रता व शोषण से ग्रस्त हैं। कृषि का विकास कुछ चयनित क्षेत्रों में ही हुआ है और इससे क्षेत्रीय असमानता को बढ़ावा मिला है। निश्चय ही यह तस्वीर इस बात का द्योतक है कि हमने कुछ मामलों में तो तरक्की की है, परन्तु कई अन्य मामलों में सुधार अपेक्षित है। अधःसंरचनात्मक एवं संस्थागत कारकों का मूल्यांकन निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः
(क) भूमि एवं मृदा: भारत में विभिन्न प्रकार की भूमि एवं मृदा पायी जाती है। हालांकि देश इस संसाधन में धनी है, फिर भी कई क्षेत्रों में बेकार, बंजर और कृषि के लिए अनुपयुक्त भूमि मौजूद है। इस दृष्टि से 1995-96 तक 15.22 प्रतिशत उपचार योग्य भूमि का उपचार किया गया। इसके अतिरिक्त 10-25 प्रतिशत बाढ़ ग्रसित उपचार योग्य भूमि का उपचार किया गया। इसके अलावा ऊसर भूमि का उपचार एवं भूमि समतलीकरण भी किया गया। इन सभी कार्यों से कृषि क्षेत्र का विस्तार हुआ। इसके बावजूद खाद्यान्न की खेती जो 1950-51 में 76.7 प्रतिशत भूमि पर हो रही थी, वह 1993-94 में घट कर 66.9 प्रतिशत रह गयी।
(ख) बीज: भारतीय बीज विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रजनक आधारभूत एवं प्रमाणित बीजों के वितरण से कृषक लाभान्वित हुए हैं। इसके अलावा नई प्रजातियों के बीजों ने प्रति हेक्टेयर पैदावार में बढ़ोत्तरी दर्ज करायी है। इसके बावजूद पेटेंट, बीजों का महंगा होना आदि समस्याएं कृषकों को अब भी परेशान कर रही हैं।
(ग) उर्वरक: खाद्यान्न उत्पादन में उर्वरकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। देश में उर्वरकों के संतुलित एवं समेकित इस्तेमाल के लिए केन्द्र ने एक योजना भी चलायी है। निश्चित ही इससे उत्पादन बढ़ा है और सरकार द्वारा सब्सिडी या रियायती दर पर किसानों को उर्वरक उपलब्ध हो रहा है। रासायनिक उर्वरकों से हानि को देखते हुए अब जैव उर्वरकों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है।
(घ) सिंचाई: भारतीय कृषि को बड़ी, मंझोली और लघु सिंचाई परियोजनाओं तथा कमान क्षेत्र व्यवस्थित विकास के जरिये सिंचाई सुविधा उपलब्ध करायी जा रही है। 1951 में सिंचाई क्षमता मात्र 226 लाख हेक्टेयर थी, जो आठवीं योजना के अंत तक बढ़ कर 917.9 हेक्टेयर हो गयी है। इसके अतिरिक्त भूमिगत जल संसाधनों का भी दोहन हो रहा है। इससे निश्चित तौर पर कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है। दूसरी ओर अव्यवस्थित सिंचाई से सेम, दलदली भूमि, मृदा क्षारीयकरण आदि की समस्याओं ने कई क्षेत्रों में समस्या पैदा कर दिया है।
संस्थागत कारकों में भूमि सुधार प्रमुख है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां नियम तो कई बनाये गये हैं परन्तु उनका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण, कृषकों को इसका वांछित लाभ नहीं मिल पाया है।
जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी कुछ लोगों का ही वर्चस्व बना हुआ है। खेतों के उपखण्डन एवं उपविभाजन से खेतों का आकार छोटा हो गया है और आर्थिक दृष्टि से ये अनुपयुक्त हो गये हैं। जहां भूमि स्वामित्व कृषकों को प्रदान किया गया है, वहां कृषकों को अतिरिक्त वित्तीय सहायता नहीं दी गयी है जिससे वे खेती करने में असमर्थ हैं और उनकी स्थिति खराब हो गयी है। लगान का भारी बोझ एवं असुरक्षा अभी भी इनमें व्याप्त है। भू-जोतों के सीमा निर्धारण में भिन्न-भिन्न मापदण्ड अपनाये गये हैं। इन नियमों के कतिपय दोषों के कारण अभी भी भूमि कुछ ही लोगों के हाथों में केन्द्रित है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में वित्त एवं विपणन सुविधाओं का भी अभाव पाया गया है। बैंक, कृषि की अपेक्षा उद्योग को ज्यादा ऋण मुहैÕया करा रहे हैं। भूमि सुधार की विफलता के कारण नक्सली आंदोलन तेजी से फैल रहा है और लोग खेती करने से घबरा रहे हैं। कृषक वर्ग अभी महाजनों की चपेट में है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि हमने आधारभूत संरचना के क्षेत्र में काफी प्रगति की है जिसका परिणाम कृषि उपज में बढ़ोत्तरी है, परन्तु भूमि सुधार के मामले में हम असफल रहे हैं, जिसके कारण उत्पादन वृद्धि के बावजूद कृषकों की दशा दयनीय बनी हुई है।
Question : भारत में कृषि की दक्षता और उत्पादकता में संस्थागत कारकों की भूमिका पर चर्चा कीजिये।
(1998)
Answer : संस्थागत कारकों का तात्पर्य उस प्रणाली से होता है, जिसके अंतर्गत भूमि का स्वामित्व व प्रबंधन होता है। इस संदर्भ में भूमि सुधार व अन्य संस्थागत कारक कृषि की उत्पादकता व दक्षता को संरचनात्मक कारकों की तरह ही प्रभावित करते हैं। भारत में कृषि दक्षता निम्न है, जिसके फलस्वरूप उत्पादकता भी निम्न है।
भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों का कानूनी व प्रशासनिक दोषों के कारण उचित ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। बड़ी भूमि के आकार का सामान्य क्षेत्रफल महज 2.29 हेक्टेयर है। बड़े-बड़े भूपतियों के पास आवश्यकता से अधिक जमीन है, जिस पर अक्सर वे कृषि कार्य नहीं करते हैं। इसके अलावा वे परंपरागत कृषि पद्धतियां अपनाते हैं, जिससे पैदावार प्रभावित होती है। कुछ भू-स्वामी, शहरों में रहते हैं तथा उन्हें कृषि के विषय में उचित जानकारी नहीं होती है। मजदूर किसान भी स्वामित्व व लाभ के अभाव में प्रेरणाविहीन कार्य करते हैं। इसके अलावा जहां कृषकों को स्वामित्व प्रदान किया गया है, वहां उन्हें वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप समुचित बीज, खाद व उपकरण के अभाव में कृषि उत्पादकता प्रभावित हो रही है। एक अन्य कारक जो कृषि उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है, वह है गैर-कृषि कार्यों के लिए कृषि भूमि का उपयोग। इन सभी कारणों को देखते हुए सरकार को चाहिये कि वह भूमि सुधार कार्यक्रम का सफल क्रियान्वयन करे। कृषक मजदूरों को भूमि स्वामित्व प्रदान करने के अलावा उन्हें, उचित वित्तीय व तकनीकी सहायता उपलब्ध कराये। इन प्रभावोत्पादक सुझावों के फलस्वरूप ही हम अपनी कृषि दक्षता व उत्पादकता को बढ़ा सकेंगे।
Question : भारत के विभिन्न कृषि प्रदेशों में शस्यक्रम (शस्य-स्वरूप) पर चर्चा कीजिये?
(1998)
Answer : शस्यक्रम का अभिप्राय, एक निश्चित समय में, किसी क्षेत्र विशेष में विभिन्न फसलों को उगाना है। शस्यक्रम को प्रभावित करने वाले कारकों में भौगोलिक व अन्य कारकों को शामिल किया जाता है। भौगोलिक कारकों में मृदा, जलवायु, पानी की उपलब्धता आदि प्रमुख हैं। अन्य कारकों में कृषि उत्पादन का लक्ष्य, उत्पादन मात्र, कृषि भूमि का आकार, कृषि पद्धति, बाजार मूल्य, सरकारी नीति आदि को शामिल किया जाता है। भारत की भौगोलिक विविधता तथा अन्य कारकों ने यहां के शस्यक्रम को प्रभावित किया है। भारत के विभिन्न कृषि प्रदेशों में शस्यक्रम का विवरण निम्नवत है:
1. शीतोष्ण कटिबंधीय हिमालय क्षेत्र: इस प्रदेश में मिश्मी पहाड़ी क्षेत्र, उत्तर-पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश में कुमाऊं व गढ़वाल पहाडि़यां, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू व कश्मीर को शामिल किया जाता है। यह क्षेत्र मुख्यतः फलों के उत्पादन के लिए विख्यात है। इसके अलावा पूर्वी हिमालय क्षेत्र में चाय व धान की खेती होती है, क्योंकि यहां वर्षा अधिक होती है तथा तापमान अपेक्षाकृत ऊंचा होता है। इसके विपरीत, पश्चिमी हिमालय शुष्क क्षेत्र है तथा यहां तापमान काफी कम होता है। यहां साग-सब्जी, आलू, मक्का व कहीं-कहीं धान उगाया जाता है।
2. शुष्क उत्तरी क्षेत्र: इस क्षेत्र में मृदा, जलोढ़ व रेतीली तथा वर्षा 750 मि.मी. से कम होती है। इस क्षेत्र के अंतर्गत उत्तरी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व दिल्ली के क्षेत्रों को शामिल किया जाता है। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से गेहूं का उत्पादन होता है। इसके अलावा मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास और वन आधारित फसलों का यहां उत्पादन होता है। उत्तर प्रदेश में मक्का, धान, ज्वार, व मूंगफली का उत्पादन होता है। मध्य प्रदेश में ज्वार, मूंगफली, तिलहन व कपास उगाया जाता है। पंजाब में धान, बाजरा व कपास की खेती होती है। राजस्थान में ज्वार, बाजरा आदि ग्रीष्म काल में तथा सर्दियों में तिलहन, चना आदि आदि की फसल उगाई जाती है।
3. पूर्वी क्षेत्र: इस क्षेत्र के अंतर्गत असम के पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर, शेष क्षेत्रों बिहार, उड़ीसा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय आदि के क्षेत्रों को शामिल किया जाता है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसल चावल है, क्योंकि यहां 1500 मि.मी. से अधिक वर्षा होती है तथा जलोढ़ मिट्टी पायी जाती है, जो चावल की खेती के लिए उपयुक्त होती है। इन क्षेत्रों में चावल के अतिरिक्त पटसन, दलहन, मक्का, गन्ना आदि की भी खेती होती है।
4. दक्षिणी क्षेत्र: इस क्षेत्र के अंतर्गत दक्षिणी गुजरात, दक्षिणी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिमी आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व पश्चिमी तमिलनाडु को शामिल किया जाता है। इन क्षेत्रों में वर्षा 500 से 1000 मि.मी. होती है तथा मृदा काली या लैटेराइट प्रकार की है। अतः इन क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा, कपास, मूंगफली आदि का उत्पादन किया जाता है। इन क्षेत्रों में मुख्यतः शुष्क खेती की जाती है।
5. तटीय क्षेत्र: पूर्वी व पश्चिमी घाट के समानान्तर तटीय क्षेत्रों में मुख्यतः बागानी फसलें और मसाले उगाये जाते हैं। यहां वर्षा 2500 मि.मी. से ऊपर होती है तथा मृदा जलोढ़ या लैटेराइट प्रकार की है। यह क्षेत्र रबर, काली मिर्च, इलायची, नारियल आदि के उत्पादन के लिये विख्यात है। खाद्यान्नों में यहां मुख्यतः चावल की खेती की जाती है।
हाल के वर्षों में भारत के शस्यक्रम में बदलाव आया है। गेहूं के उत्पादन क्षेत्र में विस्तार हुआ है, क्योंकि नये बीज, खाद व तकनीक द्वारा इसके उत्पादन में वृद्धि हुई है। चावल के क्षेत्र का प्रतिशत लगभग वही रहा है, जो कि कुल क्षेत्रफल का लगभग एक चौथाई हिस्सा है। गेहूं के विस्तार के कारण चना के क्षेत्रफल में गिरावट आयी है। सरसों व गन्ना के क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है। चावल उत्पादक क्षेत्रों में एकल फसल प्रणाली की जगह, अब बहुफसल प्रणाली अपनायी जा रही है। इसके अंतर्गत चावल-पटसन-गेहूं प्रणाली अपनायी जा रही है। शुष्क खेती द्वारा तिलहन व कपास के फसल क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। पहाड़ी क्षेत्रों में मिश्रित कृषि प्रणाली अपनायी जा रही है तथा पशुपालन को उचित महत्त्व दिया जा रहा है। इस प्रकार, भारत के शस्य क्रम में निरंतर बदलावा आ रहा है।