Question : कावेरी नदी विवाद पर एक समालोचनात्मक टिप्पणी लिखिए।
(2007)
Answer : न्यायमूर्ति एन. पी. सिंह की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय कावेरी जल-विवाद न्यायाधिकरण ने दशकों पुराने और राजनैतिक दृष्टिकोण से अतिसंवेदनशील कावेरी नदी विवाद में फरवरी 2007 को अंतिम फैसला सुनाया। कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व पुडुचेरी के बीच कावेरी जल बंटवारे के इस मामले में अंतिम फैसला सुनाने में कावेरी जल-विवाद पंचाट ने 16 वर्ष से भी अधिक का समय लिया। पंचाट के अंतिम फैसले के तहत कावेरी बेसिन में एक जल वर्ष (जून-मई) में पानी की उपलब्ध 740 टीएमसी फुट 30 प्रतिशत निर्भरता के आधार पर आकलित की गई है। इसमें से तमिलनाडु को 419 टीएमसी फुट, कर्नाटक को 270 टीएमसी फुट, केरल को 30 टीएमसी फुट और पुडुचेरी को 7 टीएमसी फुट पानी ‘सामान्य वर्ष’ में आवंटित करने का फैसला पंचाट ने दिया है।
पंचाट के फैसले के तहत कर्नाटक द्वारा तमिलनाडु को दिए जाने वाले वास्तविक पानी की मात्र सिर्फ 192 टीएमसी फुट सालाना होगी। ‘सामान्य वर्ष’ से तात्पर्य उस वर्ष से है, जिसमें कावेरी बेसिन में 740 टीएमसी फुट है। बेसिन में पानी कम रहने पर चारों राज्यों का हिस्सा बराबर घट जायेगा। पंचाट ने 10 टीएमसी फुट पानी पर्यावरण संरक्षण हेतु आरक्षित कर दिया है, जबकि समुद्र में बहाव के लिए 4 टीएमसी फुट आकलित किया है। ज्ञातव्य है कि तमिलनाडु ने 562, कर्नाटक ने 465, केरल ने 99.8, पुडुचेरी ने 9.3 टीएमसी फुट पानी की मांग रखी थी। उल्लेखनीय है कि कावेरी नदी जल बंटवारा एक अंतर्राज्यीय विवाद है, जिसमें कावेरी बेसिन में स्थित चार राज्य कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी शामिल हैं।
कावेरी बेसिन का जलग्रहण क्षेत्र 81,155 वर्ग किलोमीटर है। जिसका प्रारंभिक भाग कर्नाटक में बहता है, जिससे कर्नाटक इस नदी के जल पर अपना अधिक भाग का दावा करता है। जबकि तमिलनाडु में इसका प्रवाह क्षेत्र ज्यादा है और इस क्षेत्र में कृषि में संलग्न जनसंख्या अधिक है। इसके तहत तमिलनाडु अधिक जल चाहता है। इसी परिप्रेक्ष्य में कावेरी के पानी के प्रयोग को 1892 और 1924 के समझौते के तहत निर्णय दिया गया।
वर्तमान समय में पंचाट ने यह भी निर्देश दिया कि कोई भी ऊपरी राज्य ऐसा कोई कदम नहीं उठायेगा, जिससे निचले राज्य को पानी की आपूर्ति प्रभावित हो। हालांकि संबंधित राज्य आपसी समझौते और नियामक प्राधिकरण से परामर्श करके जलापूर्ति की रूपरेखा बदल सकते हैं। पूर्व में कर्नाटक पर यह आरोप लगता था कि वह पानी का अधिक उपयोग कर लेता है, जिससे तमिलनाडु, केरल के लिए जल आपूर्ति प्रभावित होती है। पंचाट के फैसले में यह भी प्रावद्यान डाला गया कि यदि किसी राज्य को इससे संबंधित कोई स्पष्टीकरण चाहिए, तो वह पंचाट से 90 दिनों के भीतर संपर्क कर सकता है।
इस प्रकार एक विवाद जो काफी समय से विवादित था, उसका तर्कसंगत निबटान करने का प्रयास किया गया। इसकी सफलता उसी समय होगी, जब संबंधित राज्य ईमानदारी से निर्णय को स्वीकार करें। पुनः जल के अन्य स्रोत और जल संरक्षण के द्वारा भी अतिरिक्त जल को उपलब्ध कराना आवश्यक है, क्योंकि आगे भी जल की आवश्यकता में वृद्धि होगी, तब इस नदी का जल सभी कार्यों के लिए कम पड़ेगा। अतः जल संरक्षण की नीति अपना कर नवीन जल स्रोत की आवश्यकता ही इस क्षेत्र के लिए आवश्यक उपाय है।
Question : भारत की औद्योगिक अर्थव्यवस्था/पैर्टन पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं उदारीकरण के प्रभाव पर प्रकाश डालिए।
(2007)
Answer : नई औद्योगिक नीति की घोषणा सन् 1991 में की गई थी। इस नीति के द्वारा बहुत बड़े स्तर पर औद्योगिक अर्थव्यवस्था पर से अनेक प्रकार के नियंत्रण हटा दिए गए हैं। नई औद्योगिक नीति के प्रमुख उद्देश्य हैं:
उदारीकरणः उदारीकरण के प्रमुख घोषित उपाय निम्न हैं-
सुरक्षा, सामरिक और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील उद्योगों की सूची में शामिल छः उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी वस्तुओं के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है। साथ ही 1956 से सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए सुरक्षित उद्योगों की संख्या 17 से घटा कर 4 कर दी गई है। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योग है- परमाणु ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा विभाग की सूची में दिखाए गए पदार्थ और रेल परिवहन। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकारी शेयरों में से कुछ भाग वित्तीय संस्थानों, सामान्य जनता और कामगारों को देने का फैसला किया है।
परिसंपत्तियों की प्रारंभिक सीमा खत्म कर दी गई है और अब लाइसेंस मुक्त किसी भी उद्योग में निवेश के लिए सरकार से पूर्व अनुमति लेनी नहीं पड़ती। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लक्ष्य विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देना है। विशेषकर महत्वपूर्ण ढांचागत क्षेत्रों में, ताकि देश के आधारभूत ढ़ांचे को मजबूत करने के प्रयासों को मदद मिल सके। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए दो प्रकार से अनुमोदन या स्वीकृति प्रदान की जाती है- प्रथम रिजर्व बैंक द्वारा स्वतः स्वीकृति तथा दूसरा सरकार अथवा विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड द्वारा स्वीकृति।
घरेलू निवेश की तरह, भारत में विदेशी निवेश पर भी परंपरा से नियंत्रण चला आ रहा था। भारतीय कंपनियों को विदेशी प्रौद्योगिकी तथा विदेशी निवेश के लिए समझौता अनुबंध करने से पूर्व प्रत्येक परियोजना के लिए पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य था। लेकिन उदारीकरण में इसे सरल किया गया। क्योंकि आर्थिक विकास की उच्चदर प्राप्त करने के लिए घरेलू पूंजी निवेश बढ़ाने में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश से बड़ी मदद मिलती है। इससे न केवल घरेलू उद्योग लाभान्वित होता है बल्कि उपभोक्ताओं को उन्नत प्रौद्योगिकी, विश्व में प्रचलित प्रबंधन कुशलता, मानव तथा प्राकृतिक संसाधनों के पूर्ण उपयोग का लाभ भी मिलता है। इसलिए विदेशी निवेश को उदार बना दिया गया है और सरकार ने नकारात्मक सूची को छोड़कर अन्य सभी मामलों में स्वतः प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी है।
बहुराष्ट्रीय निगम ऐसे उद्यम निकाय हैं, जो अपने मूल देश के बाहर अनेक देशों में उत्पादन एवं सेवा सुविधाओं का संचालन करते हैं। एक सामान्य स्वीकृत परिभाषा के अनुसार एक बहुराष्ट्रीय निगम वह उद्यम है, जो अपने कुल वैश्विक निर्गत का कम से कम 25 प्रतिशत अपने मूल देश से बाहर उत्पादित करता है। बहुराष्ट्रीय निगमों की व्यापक सफलता के पीछे निम्न कारण गिनाए जा सकते हैं।
वर्तमान समय में बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा विश्व अर्थव्यवस्था का लगभग एक तिहाई भाग पर नियंत्रण रखा जाता है। किसी भी देश के विकास पर बहुराष्ट्रीय निगमों का प्रभाव असमान होता है। अनेक स्थितियों में इन निगमों द्वारा गरीबी और अमीरी के मौजूदा अंतर को और अधिक बढ़ा दिया है। इनकी प्रवृत्ति एक छोटी-सी संख्या वाले आधुनिक क्षेत्र के कर्मचारी वर्ग को प्रोत्साहित करने की होती है।
इससे देश में पारश्रमिक का अंतर बढ़ता है। ये निगम अधिकांशतः महानगरों में अपना कार्य संचालित करते हैं, इसलिए ग्रामीण शहरी क्षेत्रों का असंतुलन और बढ़ जाता है। ये निगम अत्यावश्यक खाद्य उत्पादन की बजाए स्थानीय अभिजात वर्ग की मांग पर परिष्कृत एवं विलासी उपभोक्ता उत्पादों के निर्माण में संसाधनों का अपव्यय करती है। यद्यपि बहुराष्ट्रीय निगम देश की विदेशी मुद्रा में सुधार लाये हैं, किन्तु इसके दीर्घकालिक प्रभाव चालू एवं पूंजी, दोनों खातों में विदेशी मुद्रा अर्जन को घटा सकता है। मध्यवर्ती वस्तुओं की भारी मात्रा में आयात से चालू खाते की तथा ब्याज रॉयल्टी, प्रबंधन शुल्क इत्यादि से पूंजी खाते की स्थिति बिगड़ सकती है। सरकार के निगम करों के भुगतान के बावजूद बहुराष्ट्रीय निगमों का योगदान अपेक्षा अनुकूल नहीं हुआ, क्योंकि इन्हें स्थानीय सरकारों द्वारा उदार कर रियायतें, भारी निवेश भत्ता, प्रच्छन्न सरकारी आर्थिक सहायता तथा प्रशुल्क संरक्षण उपलब्ध कराया जाता है।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया तो 80 के दशक में ही शुरू हो गयी थी, जब विदेशी निवेशकों को अनेक छूटें दी जाने लगी थीं। बहुराष्ट्रीय निगमों को प्रतिरक्षा सहित ऐसे क्षेत्रों में निवेश की स्वीकृति दी जाने लगी, जो पहले विदेशियों के लिए प्रतिबंधित थे। लेकिन वैश्वीकरण की प्रक्रिया को वास्तविक प्रोत्साहन 1991 के नई आर्थिक नीति लागू करने से मिली। तब से लेकर आज तक वैश्वीकरण की दिशा में कुछ निश्चित कदम लगातार उठाये जा रहे हैं।
विश्व बैंक के प्रस्तावों के अनुसार, भारत की आयात नीति नकारात्मक सूची को छोड़कर, सभी वस्तुओं के शुल्क मुक्त आयात की अनुमति प्रदान करती है। विदेशी निवेशकों को और अनिवासी भारतीयों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अनेक प्रोत्साहन और सुविधाएं दी जा रही हैं। विदेशी सहयोग के अनुमोदनों पर अलग-अलग करके विचार करने पर पता चलता है कि निवेश का मुख्य भाग मुख्य और प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में ही लगाया गया है तथा संरचनात्मक क्षेत्र का छुआ तक नहीं गया है। यही नहीं विकसित तथा विकासशील राज्यों के बीच अंतर बहुत बढ़ता जा रहा है। घरेलू निवेश तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दोनों का मुख्य हिस्सा पहले विकसित राज्यों को मिला है।
भारत में बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा लाभांश व रॉयल्टी अदायगी संबंधित समस्याएं बढ़ी हैं। निर्मल चन्द्रा के अनुसार, 9वें दशक में कुल निजी निगम लाभांशों का लगभग 60% या फैक्ट्री क्षेत्र का लाभांश 40% विदेशी फर्म द्वारा अपने देशों में प्रेषित किया गया। इससे भारत की पूंजी विदेशों में प्रेषित हुई। जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को जितना अधिक लाभ होना चाहिए, उतना अधिक प्राप्त नहीं हुआ। पुनः बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा लघु उद्योगों पर कुप्रभाव नजर आया। वस्तुतः यह नवसाम्राज्यवाद ही है, क्योंकि ये छोटे उद्योगों व उद्यमियों को बाजार में टिकने नहीं दिया है। यथा ठंडी पेय कंपनी पेप्सी और कोला ने भारतीय ठंडे पेय बाजार पर एकाधिकार जमा लिया है। पुनः रोजगार सृष्टि की दृष्टि से भी बहुराष्ट्रीय निगम उतनी कारगर नहीं हुई।
श्रमिकों के श्रम मूल्यों में भी अवमूल्यन हुआ। श्रमिकों की छटनी हुई। जिससे बेरोजगारी में वृद्धि हुई। पुनः उदारीकरण के फलस्वरूप जो सार्वजनिक क्षेत्रों में विनिवेश की नीति अपनायी गई है, वह विद्वेष पूर्ण है। सर्वप्रथम इस नीति को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों और आम जनता में असंतोष है। जिसका खामियाजा उत्पादन पर पड़ा है। श्रमिकों की छटनी भी इसके लिए एक प्रमुख समस्या उत्पन्न करती है। पुनः घाटे में चलती इकाइयों के प्रति विदेशी कंपनी की बेरुखी है और लाभ में चल रही कंपनी में अपना योगदान देने के लिए तत्परता शोचनीय है। कुछ मनमाफिक क्षेत्रों में ही यथा इलेक्ट्रॅानिक्स, बिजली, दूरसंचार आदि क्षेत्रों में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी रुचि सीमित कर रखी है। आम जनता के सरोकार से संबंधित उद्योगों के प्रति उदासीनता इस बात को इंगित करती है कि इनका प्राथमिक उद्देश्य पैसा कमाना है न कि देश के समग्र आर्थिक विकास से। अतः उदारीकरण व बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रति अपनायी गई नीतियों की समीक्षा आवश्यक है क्योंकि विदेशी पूंजी को अत्यधिक स्वतंत्रता देने से हमारी आर्थिक स्वायत्तता के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है और इससे देश ट्टण जाल में और अधिक ग्रस्त हो सकता है। यह निराशावादी भविष्यवाणी है, परन्तु यह कठोर सत्य है।
Question : भारत के द्रुत आर्थिक विकास और जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में, भारत की पर्यावरणीय समस्याओं पर चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : मानव सभ्यता के विकास की कहानी वास्तव में उसके प्रकृति अथवा पर्यावरण उपयोग की कहानी है, क्योंकि आदिम अवस्था से आज तक हम पर्यावरण का उपयोग कर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं और भविष्य की प्रगति भी इसी पर निर्भर है। विकास के प्रारंभिक दौर में मानव का पर्यावरण से सामंजस्य था, अतः वह निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता रहा। यद्यपि इसके कारण सीमित जनसंख्या,सीमित आवश्यकताएं एवं तकनीकी ज्ञान की कमी भी रहे हैं। किन्तु जैसे-जैसे औद्योगिक और तकनीकी प्रगति अधिकाधिक होती गई, एक और प्रकृति के शोषण में वृद्धि होने लगी, तो दूसरी ओर उसका कुप्रभाव भी प्रारंभ हो गया। इसका प्रारंभ यद्यपि औद्योगिक एवं परिवहन क्रांति से ही हो गया था, भारत में औद्योगिक एवं तकनीकी विकास, तीव्र जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण आदि के कारण पर्यावरण पर दबाव में निरंतर वृद्धि होने लगी और वर्तमान समय में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर्यावरण को विकृत होने से बचाना तथा उसे संतुलित बनाये रखना है। विकास आवश्यक है, परन्तु पर्यावरण के मूल्य पर नहीं। आज भारत की महती आवश्यकता है- ‘विनाश रहित विकास’। इस संदर्भ में पर्यावरण की उन प्रमुख समस्याओं पर विचार किया जा रहा है, जो द्रुत आर्थिक विकास और जनसंख्या वृद्धि के कारण हुआ है।
वनोन्मूलनः पर्यावरणीय दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि किसी प्रदेश के 33 प्रतिशत भाग पर वन होना चाहिए। लेकिन भारत में वनों के विनाश का क्रम ब्रिटिश शासन के समय से ही प्रारंभ हो गया था, जो स्वतंत्रता के पश्चात् न केवल जारी रहा, अपितु उसमें और अधिक वृद्धि हुई है।
हमारे देश में जनसंख्या की वृद्धि के दबाव के कारण वनों का सर्वाधिक विनाश हो रहा है, क्योंकि कृषि, आवास, उद्योग, खनन्, परिवहन आदि के लिए क्षेत्र के वनों को साफ कर प्राप्त किया जा रहा है। अनेक विशाल बांधों के निर्माण से हजारों लाखों वर्ग किमी. का क्षेत्र जिसमें वन क्षेत्र भी सम्मालित है, जलमग्न हो जाता है।
अनियमित कटाई आदि के फलस्वरूप आज देश में वनोन्मूलन के कारण पारिस्थितिक संकट तीव्र होता जा रहा है। पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित रखने के लिए वन आवरण 33% होनी चाहिए, जबकि भारत में मात्र 20.4 प्रतिशत क्षेत्र पर ही वनावरण है। इसमें भी वास्तविक वन क्षेत्र मात्र 13 प्रतिशत है। हरियाणा, पंजाब, गुजरात, बिहार, जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश में तो वनावरण 15% से भी कम है।
वनोन्मूलन मात्र वृक्षों को समाप्त होना ही नहीं, वरन् इसका बहुआयामी प्रभाव होता है, जो निम्न हैः
मृदा अपरदन अथवा भू-क्षरण की समस्याः भारत में भूमि के कटाव या मृदा अपरदन की समस्या एक गंभीर समस्या है। इसका प्रभाव पर्यावरण अवकर्षण पर अनेक प्रकार से होता है, जैसे- भूमि का समाप्त होना, उपजाउपन में कमी आना, बंजर भूमि में वृद्धि, वनों का समाप्त होना, बाढ़ के प्रकोप में वृद्धि तथा अप्रत्यक्ष रूप में जलवायु परिवर्तन। भारतीय जलवायु में वर्षा काल में कतिपय क्षेत्रों में मूलसाधार वर्षा के अतिरिक्त, वनों का तीव्र गति से समाप्त होते जाना, अनियंत्रित पशुचारण, उचित भूमि प्रबंधन न होने के कारण मृदा अपरदन में क्रमशः वृद्धि होती है। पुनः जनसंख्या के अत्यधिक दबाव के कारण वनीय भूमि को साफ कर कृषि भूमि में परिवर्तन करने से भी मृदा क्षरण में काफी वृद्धि हुई है।
प्रदूषणः मानवीय क्रिया-कलापों से उत्पन्न उपशिष्ट उत्पादों से कुछ पदार्थ और ऊर्जा मुक्त होती है। जिससे प्राकृतिक पर्यावरण में कुछ परिवर्तन होता है। ये परिवर्तन प्रायः हानिकारक होता है। प्रदूषण की पहचान के लिए प्रायः तीन कसौटियों का उपयोग किया जाता है। ये हैं:
प्रदूषण कई प्रकार का होता है। प्रदूषण के प्रकारों का कारण प्रदूषक तथा वे अनेक और विविध माध्यम हैं जिनके द्वारा वे परिवाहित तथा विकीर्ण होते हैं। ये गैस, तरल या ठोस रूप में भी हो सकते हैं। प्रदूषकों के परिवहन के माध्यम के आधार पर प्रदूषण को तीन वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और भूमि प्रदूषण।
वायु प्रदूषणः वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं - प्राकृतिक स्रोत, जैसे - ज्वालामुखी, विस्फोट, धूल, तूफान, अग्नि आदि तथा मानव कृत स्रोत जैसे - कारखाने, नगर केन्द्र, मोटरवाहन, वायुयान, उर्वरक, पीड़क जीवनाशी, ताप बिजली घर आदि। उद्योगों से अनेक प्रकार की विषैली गैस, राख और धूल, ताप बिजली घरों से गंधक, नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन ऑक्साइड और मोटर वाहनों से मोनोक्साइड और सीसा वायुमंडल में छोड़े जाते हैं। यही नहीं, ओजोन की परत को पतला करने वाला क्लोरो फ्लूरो कार्बन भी वायुमंडल में छोड़ा जाता है। इनके अलावा अनेक औद्योगिक प्रक्रियाओं द्वारा हानिकारक गंध भी वायु में फैल जाती है। इनके लिए विशेष रूप से दोषी लुगदी और कागज़, चमड़ा और रासायनिक उद्योग है। संपूर्ण भारत के नगरों की वायु की गुणवत्ता घट गई है। इसके कारण हैं - प्रदूषण नियंत्रण का अभाव और सीसा युक्त ईंधन का उपयोग करने वाले मोटर वाहनों की संख्या में निरंतर वृद्धि।
वायु प्रदूषण मौसम और जलवायु में मामूली परिवर्तन करता है और मानव स्वास्थ्य और जीव-वनस्पतियों पर प्रभाव डालता है। क्लोरो फ्रलूरो कार्बन ओजोन की परत को समाप्त कर देता है। इसके परिणामस्वरूप सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंच जाती हैं और इससे वायुमंडल में तापमान में वृद्धि हो जाती है।
वायुमंडल में कार्बन डायआक्साइड और अन्य गैसों के संकेन्द्रण बढ़ जाने से हरित ग्रह प्रभाव पैदा होता है। इससे भी तापमान में वृद्धि होती है। इन गैसों से नगरों में धूम कुहरा छा जाता है। यह मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। वायू प्रदुषण से ‘अम्ल वृष्टि’ भी हो सकती है। नगरीय पर्यावरण के वर्षा जल के विश्लेषण से पता चलता है कि ग्रीष्म ऋतु के बाद पहली वर्षा में पी. एच. मान बाद की वर्षा की तुलना में कम होता है। वायु प्रदूषण से फेफड़ों, हृदय, स्नायु तंत्र और परिसंचरण तंत्रों के रोग होते हैं।
जल प्रदूषणः जनसंख्या वृद्धि और औद्योगिक विस्तार के परिणामस्वरूप पानी की मांग भी बढ़ी है, जिसके कारण जल की गुणवत्ता काफी घट गई है। जब मनुष्य द्वारा जल में उसकी स्वयं शोधन क्षमता से अधिक मात्र में विजातीय अवांछनीय तत्व डाल दिए जाते हैं, तब जल प्रदूषित हो जाता है। यद्यपि जल के प्रदूषक प्राकृतिक स्रोतों से भी प्रदूषक उत्पन्न होते हैं, लेकिन मानव जन्य स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषण गंभीर चिंता के कारण हैं।
जल प्रदूषण के स्रोत आदि। उद्योग उत्पादों के अवांछनीय उत्पाद हैं - औद्योगिक अपशिष्ट, प्रदूषित जल, विषैली गैसें, रासायनिक अपशिष्ट, अनेक भारी धातुएं, धूल, धुआं आदि। अधिकतर औद्योगिक अपशिष्ट प्रवाहित जल में बहा दिए जाते हैं। परिणामतः विषैले तत्व जल के भंडार, नदियों तथा अन्य जलाशयों में पहुंच कर इसके जैवतंत्र को नष्ट कर देते हैं। जल को प्रदूषित करने वाले मुख्य उद्योग - चमड़ा, रासायनिक उद्योग, लुगदी और कागज और वस्त्र उद्योग हैं। प्रदूषित जल के नगरीय स्रोत हैं: जलमल, घरेलू तथा नगर का कचड़ा, औद्योगिक अपशिष्ट आदि।
अजैव उवर्रक, कीटनाशक आदि में प्रयुक्त अनेक प्रकार के रासायनों से पृष्ठीय जल के लगभग सभी स्रोत प्रदूषित तथा मानव के उपभोग के अयोग्य है। संदूषित जल के कारण सामान्य रूप से उत्पन्न होने वाली बिमारियां ये हैं - अतिसार, रोहा, आंतों के कृमि, पीलिया आदि।
हरित क्रांति एवं उसका पर्यावरण पर प्रभावः हरित क्रांति के अंतर्गत रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवाओं, उन्नत बीज, सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि हुई है। इससे भी अनेक प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, यथा- नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के प्रयोग से जल प्रदूषण में वृद्धि अधिक होती है। इस प्रकार हो रहे जल प्रदूषण से जलीय जीवों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यही नहीं, अपितु इन उर्वरकों से निःसृत होकर लवण भूमिगत जल में मिलकर उसे प्रदूषित कर देता है। पानी में मिश्रित नाइट्रेट जब मानव शरीर में पहुंचता है, तो वे रक्त में ऑक्सीजन के अवशोषण में बाधा डालते हैं तथा इससे मस्तिष्क रोग भी हो जाते हैं, विशेषकर बच्चों को।
पादप रोगों से कृषि को बचाने के लिए विभिन्न कीटनाशकों का आज भारत में नियमित रूप से प्रयोग होने लगा है और निस्संदेह उनसे फसल की रक्षा भी हो रही है। किन्तु इसका मानव शरीर पर तथा पर्यावरण पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यहां तक कि इनके माध्यम से मनुष्य के शरीर में मंद गति से विष पहुंच रहा है, जो अनेक प्रकार की बीमारियों का कारण बनता है। खासकर श्वास संबंधी व कैंसर रोग। अमेरिका में डी. डी. टी. रसायन का प्रयोग वर्जित है, लेकिन भारत में अधिकाधिक समयों तक यह प्रचलित रहा है। अत्यधिक सिंचाई से जल एकत्रीकरण, लवणता एवं अम्लता जैसी समस्याएं उत्पन्न हुईं। इससे उपजाऊ भूमि भी अनुर्वर हो गयी है।
एक अनुमान के अनुसार भारत की लगभग 70 लाख हेक्टेयर भूमि लवणता एवं अम्लता जैसी समस्याएं उत्पन्न हुई। इससे उपजाऊ भूमि भी अनुर्वर हो गयी है।
बड़े बांधों की त्रसदीः इसमें कोई संदेह नहीं है कि नदियों पर बांध बनाकर सिंचाई तथा जल विद्युत उत्पादन किया जाता है। इन बांधों के संबंध में प्रशासन एवं पर्यावरणविदों में मतभेद है, किन्तु इसमें संदेह नहीं कि जहां इनसे लाभ होंगे, वहीं पर्यावरण पर दूरगामी विपरीत प्रभाव भी अवश्य होंगे। भारतीय परिवेश में बड़े बांधों के पर्यावरण पर निम्नलिखित प्रभाव आशंकित हैं-
इस प्रकार द्रुत गति से अर्थिक विकास और जनसंख्या वृद्धि से भारत में अनेक पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। इसका समुचित प्रबंधन करना आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि टिकाऊ विकास नीति अपनानी पड़ेगी। पर्यावरण की हानिकर विकास का भविष्य अंततः प्रतिकूल ही होगा।