Question : "गंदी बस्तियां शहरी खतरा है।" भारत के शहरों का उदाहरण पेश करते हुए इस कथन को सुस्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : गंदी बस्तियों का तात्पर्य उन अधिवासीय बस्तियों से है, जहां अधिवास की परिस्थितियां अस्वास्थ्यकर तथा अपारिस्थैतिक हो चुकी है। गंदी बस्तियां कही जाने वाली अवैध बस्तियों का फैलाव भारतीय नगरों की एक प्रमुख विशेषता है। देश के 26 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने 607 कस्बों और नगरों में गंदी बस्तियां होने की जानकारी दी है। गंदी बस्तियों की कुल जनसंख्या 4 करोड़ 3 लाख है, जो गंदी बस्तियों वाले नगरों की कुल जनसंख्या का 22.58 प्रतिशत है। अर्थात् नगरीय बस्ती में रहने वाले 100 व्यक्तियों में 23 व्यक्ति गंदी बस्तियों में रहता है।
महाराष्ट्र में गंदी बस्तियों की जनसंख्या 1.064 करोड़ है। राज्यों की कुल नगरीय जनसंख्या और गंदी बस्तियों की जनसंख्या के अनुपात में काफी अंतर पाया जाता है। केरल में सबसे कम 1.81 प्रतिशत और मेघालय में सबसे अधिक 41.33 प्रतिशत है और 14.1 प्रतिशत राष्ट्रीय औसत है। दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों में गंदी बस्तियों की जनसंख्या का अनुपात सबसे अधिक बृहत्तर मुम्बई में 48.88 प्रतिशत और सबसे कम पटना में 0.25 प्रतिशत है। अतः स्पष्ट है कि यह भारतीय नगरों की सबसे बड़ी विशेषता है, जो सबसे बड़ी समस्या है। भारत में गंदी बस्तियां मुख्यतः तीन प्रकार की हैं:
गंदी बस्तियों के उत्पत्ति के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-
सरकार द्वारा इन बस्तियों को पुनर्वास की सुविधा उपलब्ध कराने की कोशिश असफल साबित हुई है, क्योंकि पुनर्वास कालोनियां कार्यस्थल से बहुत दूर पर स्थित होती हैं। इन कालोनियों का घिरा हुआ बहुमंजलीय पर्यावरण भी गंदी बस्तियों के लोगों को रास नहीं आता। एक गंदी बस्ती की समाप्ति का प्रयास दूसरी गंदी बस्ती के विकास को जन्म देती है। अब सरकार द्वारा अपना मुख्य ध्यान इन बस्तीवासियों के जीवन स्तर में सुधार लाने पर दिया जा रहा है और इसके लिए अनेक योजनाएं संचालित किए जा रहे हैं जिसमें स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना, मेगासिटी विकास कार्यक्रम आदि प्रमुख हैं।
गंदी बस्ती के निवासी अधिकांशतः गांवों से आते हैं जो परिवहन की उच्च लागत का बोझ उठाने में असमर्थ होने के कारण अपने कार्य स्थल के निकट ही बस जाते हैं। सामान्यतः एक ही समुदाय या कार्यस्थल या मूल स्थान से जुड़े लोग साथ-साथ ही रहते हैं। गंदी बस्तियों के निवासियों में स्वरोजगाररत, छोटे व्यापारी, घरेलू नौकर, रिक्शा चालक, कुली इत्यादि शामिल होते हैं।
गंदी बस्ती के घर सामान्यतः कच्चे होते हैं, जो ईंट, मिट्टी, तिरपाल, टिनशेड, बांस आदि से बने होते हैं। रहने का स्थान 10 वर्गमीटर से अधिक नहीं होता जिसमें घर का अधिकांश सामान भी जमा होता है। नहाना, खाना बनाना, सोना ज्यादातर खुले स्थानों पर ही होता है। पानी के नल एवं जनसुविधाएं सार्वजनिक होती हैं तथा जनसंख्या की दृष्टि से अपर्याप्त होती है। ये बस्तियां आग, बाढ़, जलाक्रांति जैसी आपदाओं का आसान शिकार बन जाती हैं। समुचित अपवाह तंत्र एवं नालियों का अभाव है जो पीलिया, पेचिश और जलजनित बीमारियों को जन्म देता है जो संपूर्ण नगर को आक्रांत कर लेती है।
स्वतंत्रता के बाद इन बस्तियों की नियोजन की दिशा में प्रथम प्रयास द्वितीय पंचवर्षीय योजना में किया गया था, जब मास्टर प्लान के तहत इन बस्तियों के विकास के विशेष कार्यक्रम निर्धारित किये गये थे। इसमें भवनों का जीर्णोद्धार और सार्वजनिक सुविधाओं के विस्तार को प्राथमिकता दी गयी थी। आगे के नियोजन वर्ष में कम लागत के मकान बनाकर महानगरीय परिवारों का आबंटन का प्रावधान था लेकिन गंदी बस्तियों का सुधार कार्यक्रम लगभग असफल रहा। जिसका प्रमुख कारण था, गंदी बस्तियों में भूमाफिया का विरोध और खुद इन बस्तियों में रहने वालों का विरोध। पुनः नगरीय भू-हदबंदी तथा नगर नियोजन के कानून का सख्त न होना भी इस क्षेत्र के विकास में बाधक था। पुनः वोट बैंक की राजनीति ने इन बस्तियों के प्रसार में अत्यधिक मदद की। दूसरी तरफ नगरीय जनसंख्या में लगातार हो रही वृद्धि ने इस समस्यो को और भी जटिल बना दिया। जैसे- 1951 में भारतीय नगरों में अधिवासीय मकानों की कमी मात्र 28 लाख थी, जो 1981 में बढ़कर 50 लाख हो गई और वर्तमान समय में 130 लाख हो गई है। पुनः आवास निर्माण राज्य सूची का विषय है। अतः केन्द्र और राज्य सरकार के हितों के टकराव ने इस स्थिति को और भी भयावह बनाने में अनुकूल योगदान किया।
यद्यपि गंदी बस्तियों के नियोजन में और विकास की दिशा में अनेक कार्य किये जा रहें हैं, लेकिन इसकी सफलता के लिए आवश्यक है किः
Question : प्रचलित आकरिकीय प्रतिमानों की पृष्ठभूमि में भारतीय नगरों की आकरिकी की व्याख्या कीजिए।
(2006)
Answer : प्रत्येक नगर अपने आप में विशिष्ट होता है। परंतु नगरों की आंतरिक संरचना की कुछ निश्चित प्रवृत्तियां होती हैं। अनेक विद्वानों ने नगरों की आंतरिक संरचना को सैद्धांतिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। इसके लिए विद्वानों द्वारा विभिन्न मॉडलों का विकास किया गया है। इन मॉडलों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:
प्रथम तीन मॉडलों भारतीय नगरों पर लागू नहीं होते हैं। गैरीसन का मॉडल भारतीय नगरों के संदर्भ में उपयोगिता रखता है। भारत के अनेक बड़े नगरों पर उनका सिद्धांत लागू होता है। भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना पर ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों का प्रभाव पड़ा है। इन कारकों के प्रभाव के कारण भारतीय नगरों का प्रतिरूप बहुनाभिक है। भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना पर निम्नलिखित कारकों का प्रभाव पड़ा है।
1. भारतीय नगरों में जनसंख्या के पृथक्करण पर आय के अलावा धर्म, जाति, क्षेत्रीयता आदि का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिए, मुस्लिम, पारसी, बंगाली आदि समुदायों का अधिकतम क्षेत्र विशेष में देखने को मिलता है।
2. भारतीय नगरों का भू-उपयोग अधिकतम लगान के सिद्धांत पर आधारित नहीं है। नगरीय भू-उपयोग के निर्धारण में दूरदर्शिता का अभाव है एवं इनका निर्धारण तत्कालीन लाभ को ध्यान में रखकर किया गया है।
3. भारतीय नगरों में सामान्यतः सी.बी.डी का आभाव है। नगर के केंद्र में वाणिज्य एवं व्यापार के साथ-साथ अधिवास का भी कार्य होता है। निचले तल पर वाणिज्य एवं व्यापार का कार्य तथा ऊपरी तल पर अधिवास होता है। केंद्रीय भाग में एक मंजिले एवं दो मंजिले मकान भी देखने को मिलते हैं। साथ ही सी.बी.डी के बाहर यंत्र बहुमंजिले मकान पाए जाते हैं।
4. नगरों के केन्द्र से बाहर निकलने वाले मार्ग के साथ-साथ उद्योगों एवं अधिवासीय बस्तियां का निर्माण हुआ है।
5. ब्रिटिश काल के दौरान निर्मित बंगलों को सरकारी कार्यालयों में परिवर्तित किया गया है।
6. नगरों में यत्र-तत्र गंदी बस्तियों का विकास देखने को मिलता है। ग्रामीण, नगरीय स्थानांतरण के कारण इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है।
7. प्राचीन काल में भारत में मंदिरों के चारों ओर धार्मिक नगरों का विकास हुआ। उदाहरण के लिए, बनारस का विकास विश्वनाथ मंदिर तथा मदुरई का विकास मीनाक्षी मंदिर के चारों ओर हुआ। ऐसे नगरों की गलियां काफी तंग हैं।
8. मध्यकाल में भारत में किला के चारों ओर नगरों का विकास हुआ। शाहजहांनाबाद इसका उदाहरण है, जिसका विकास लाल किला के चारों ओर किया गया था। यह नगर दीवारों से घिरा हुआ था एवं इसमें कई गेट थे।
9. औपनिवेशक काल के पूर्व के भारतीय नगरों की आकरिकी सामान्यतः अनियोजित है।
10. औपनिवेशिक काल में प्राचीन नगरों के निकट ही नियोजित नगरीय अकारिकी का विकास किया गया। सिविल लाइन क्षेत्र एवं छावनी क्षेत्र का विकास आयाताकार प्रतिरूप में किया गया।
यहां मुख्य सड़कें एक दूसरे के सामान्तर है तथा सहायक सड़के इन्हें समकोण पर काटती हैं। ऐसे क्षेत्रों में गोल्फ कोर्स एवं पैरेड ग्राऊंड के रूप में विस्तृत खुले क्षेत्र पाए जाते हैं।
11. रेलवे के विकास के पश्चात् नियोजित रेलवे कालोनी का विकास हुआ है।
12. स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में कई बड़े नगरों के लिए मास्टर प्लान बनाए गए एवं नगरों में नियोजित आकरिकी के विकास का प्रयास किया गया। कई नगरों पर जनसंख्या के दबाव को कम करने के लिए अनुषंगी नगरों का विकास किया गया।
13. भारत में कुछ नियोजित नगरों का भी विकास हुआ है। इनमें चंडीगढ़, गांधीनगर, जमशेदपुर, भुवनेश्वर आदि का नाम आता है। नगर नियोजन के आधार पर विकसित चंडीगढ़ भारत का सुनियोजित नगर है। जिसके मध्य में स्थित सेक्टर 17 में
वाणिज्य एवं व्यापार का कार्य होता है। यह नगर अनेक खंडों में विभाजित है। अधिवासीय बस्तियों का विलगाव आय के आधार पर किया गया है। औद्योगिक प्रतिष्ठान नगर के बाहरी खंड में स्थित हैं।
14. भारत के अधिकतर कस्बे एवं नगर बड़े गांव के विस्तृत रूप है। इनकी गलियों में गांव का स्वरूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है। अपनी आदतों एवं व्यवहार में लोग अधिक ग्रामीण हैं जो उनके सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण, मकानों की बनावट एवं अन्य पक्षा में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
15. भारतीय नगरों में प्रकार्यात्मक पृथक्करण स्पष्ट तथा प्रारंभिक है। इस संदर्भ में पश्चिमी देशों के नगरों से इनकी कोई तुलना नहीं की जा सकती है।
भारत के छोटे नगरों की आकरिकी अनियमित है, परंतु अनेक बड़े नगर गैरीसन के बहुनाभिक सिद्धांत से समरूपता रखते हैं। इन नगरों का विकास सर्वप्रथम संकेन्द्रीय रूप में एवं इसके पश्चात् खण्डीय तथा बहुनाभिक रूप में हुआ है। जैसा कि नीचे दिए गए चित्र से स्पष्ट है।
Question : भारत के ग्रामीण बस्तियों के प्रकारों का उल्लेख करें।
(2005)
Answer : भारत ग्रामीण अधिवास का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। ग्रामीण बस्तियां वातावरण और मानव द्वारा अधिकृत दृश्यों के पारस्परिक संबंधों को दर्शाती हैं। बस्तियों के प्रकार, बस्ती में मकानों की संख्या और मकानों के बीच में पारस्परिक दूरी के आधार पर निश्चित होते हैं। इस आधार पर भारत की ग्रामीण बस्तियों को चार भागों में बाटा जा सकता है-
(1)सघन बस्तियां (Compact Settlements): सघन बस्तियां घरातल की एकरूपता मिट्टी की अधिक उत्पादकता, वर्षा की पर्याप्त मात्र तथा विकसित कृषि व्यवस्था का परिणाम है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता मकानों का एक ही स्थान पर सटकर बसा होना है। भारत में सतलज-गंगा का मैदान इस प्रकार की बस्तियों से सुसज्जित है। पंजाब, हरियाणा, गंगा-यमुना दोआब, गंगा के मैदानों में इलाहाबाद से वाराणसी तक उत्तरी मध्य बिहार तथा निम्न गंगा मैदान में बड़ी-बड़ी नदियों के ऊंचे किनारों पर सघन बस्तियां मिलती है। ये बस्तियां कहीं-कहीं आकार में इतनी बड़ी हैं, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के पश्चिमी मैदानी भागों में, कि ये बड़े कस्बे के रूप में दिखाई देती हैं।
(2) संयुक्त बस्तियां (composite Settlements): वे सघन बस्तियां, जो प्रमुख बस्ती के साथ-साथ एक या एक से अधिक पुरवे रखती है, संयुक्त बस्तियां कहलाती हैं।
यह वास्तव में मध्यवर्ती प्रकार की बस्तियां हैं, जो अपखण्डित और सघन बस्तियों के क्षेत्र के बीच के भू-भाग पर पाई जाती है। हमारे देश के मैदानी भाग में ये बस्तियां इन स्थानों पर मिलती है-
इन बस्तियों में जनसंख्या न तो अनेक अलग-अलग पुरवों में फैली होती है और न ही एक पुंज में संघटित होती है।
उपखण्डित बस्तियां (Fragmented Settlements): इन बस्तियों को पुरवा बस्तियों (Hamleted Settlements) का नाम भी दिया गया है। इस प्रकार की बस्तियों में मकान एक दूसरे से अलग-अलग एक ही बस्ती में बसे होते हैं। बस्ती को अपखंडित करने में जाति संरचना का सबसे बड़ा हाथ होता है। इन पुरवों या असंबद्ध बस्तियों के नाम भी जाति के नाम पर रखे जाते हैं। इसकी उत्पति में जाति-संरचना के साथ-साथ अन्य बातों का भी प्रभाव पड़ा है, जिनमें कुछ इस प्रकार है-
इस प्रकार की बस्तियां उत्तर भारत के मैदानों में पाई जाती है। इसके निम्न पांच प्रमुख क्षेत्र हैं-
(4) बिखरी बस्तियां (Scattered Settlements): ये बस्तियां प्रकीर्ण या एकाकी बस्तियां भी कहलाती हैं। प्रकीर्ण बस्तियां उस स्थान में होती है, जहां धरातलीय दशाएं मिट्टी और जलप्रवाह के विरदन (dissection) के कारण कृषि भूमि विभाजित हो जाती है। ये बस्तियां भारत में कुछ निश्चित भू-भागों में पायी जाती है, जो निम्नलिखित हैं-
Question : गंदी बस्तियां किस प्रकार बन जाया करती हैं? उनके सुधार के लिए ठोस सुझाव दीजिए।
(2004)
Answer : गंदी बस्तियां या स्लम (slums) नगर के निम्न स्तरीय अधिवास के क्षेत्र हैं जहां नागरिक सुविधाओं की घोर कमी होती है, जनाधिक्य एवं अस्वास्थ्यकर वातावरण व्याप्त रहता है तथा सामाजिक-आर्थिक समस्याएं घर किये रहती हैं। भारतीय शहरों में गंदी बस्तियों की समस्या विकट रूप धारण करती जा रहीं हैं, खासकर बड़े नगरों में। उदाहरणार्थ- कोलकाता नगर की 60 प्रतिशत जनसंख्या गंदी बस्तियों में निवास करती है, जबकि मुम्बई 50 प्रतिशत।
भारतीय नगरों में गंदी बस्तियों का प्रादुर्भाव कई कारणों एवं प्रक्रियाओं का परिणाम है। सर्वप्रथम भारतीय जनसंख्या की वृद्धि दर वैसे ही उच्च है, उस पर नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर और भी तीव्र है।
भारत में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि में नगरीय जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि का विशेष योगदान नहीं है बल्कि इसमें ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय केन्द्रों की ओर जनसंख्या प्रवास का ज्यादा योगदान है। हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त निर्धनता, बेरोजगारी तथा अन्य अभावों के कारण असंख्य लोग गांव छोड़कर रोजगार, शिक्षा आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से निकटवर्ती नगरों में चले आते हैं।
परंतु नगर की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में गृहों की संख्या एवं नागरिक सुविधाएं नहीं बढ़ पाती है, जिसका परिणाम होता है गृहों का अभाव तथा आवासीय समस्या। गांव से आये लोग रोजगार के अभाव या अल्पाय वाले रोजगार के कारण किसी प्रकार जीवनयापन करते हैं। उन्हें इतनी आय नहीं होती कि महंगे मकान का भाड़ा चुका सकें। अतएव उन्हें जहां कहीं खाली जमीन या सिर छुपाने लायक जगह मिलती है, वहीं झोंपड़ी डालकर रहने लगते हैं। कालान्तर में यही जगह गंदी बस्ती में बदल जाती है।
भारत की तीव्र गति से बढ़ती नगरीय जनसंख्या में महानगरीकरण की प्रवृत्ति अधिक तीव्र है जिसके कारण वृहत-नगरों में जनसंख्या वृद्धि अधिक तीव्र है। प्रथम श्रेणी के वृहत-नगरों में भारत की 65 प्रतिशत से ज्यादा नगरीय जनसंख्या निवास करती है। इस महानगरीकरण की प्रवृत्ति ने गंदी बस्तियों की समस्या को और गंभीर बना दिया है।
कुछ स्थानों पर नगर के प्राचीन इलाके अपने जीर्ण-शीर्ण मकान, अनियंत्रित वृद्धि, जनाधिक्य एवं स्थानाभाव के कारण गंदी बस्ती में परिणत हो जाते हैं। उदाहरणस्वरूप दिल्ली में चांदनी चौक एवं जामा मस्जिद के आस-पास के इलाके।
कभी-कभी नगरों की खाली पड़ी हुई सरकारी जमीन पर असामाजिक या निर्धन वर्ग के लोग अवैध कब्जा कर लेते हैं और उस पर झुग्गी-झोंपड़ी बना लेते हैं। अवैध होने के कारण तथा अनियंत्रित एवं अनियमित वृद्धि के कारण यहां नागरिक सुविधाएं नहीं मुहैया हो पाती, फलतः गंदी बस्ती का विकास हो जाता है।
सुधार के उपायः (1) इन गंदी बस्तियों के सुधार के लिए सबसे महत्वपूर्ण है इनके स्रोत-स्थान को संभालना यानि ग्रामीण विकास ताकि ग्रामीण-नगरीय प्रवास कम हो सके।
(2) छोटे नगरों में भी रोजगार के अवसर सृजित किये जाने चाहिए जिससे ग्रामीण-नगरीय प्रवास का सुवितरण हो सके एवं महानगरों पर ज्यादा बोझ न पड़े।
(3) नगर-नियोजन की नीति को केवल नगर-केन्द्रित नहीं होना चाहिए बल्कि पूरे नगर-क्षेत्र एवं आन्तरिक भूमि को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। नगर-नियोजन को प्रादेशिक नियोजन सामंजस्य एवं समन्वय बैठाना चाहिए।
(4) पूर्व में गंदी बस्तियों को अन्यत्र कहीं बसा देने की नीति उपयोग में लायी गयी, पर इसके परिणाम अच्छे नहीं रहे। अब इन गंदी बस्तियों के पुनर्विकास की नीति उपयोग में लायी जा रही है जो ज्यादा उपयुक्त है।
(5) एक दीर्घकालिक नीति जिसके अन्तर्गत नियोजित एवं नियंत्रित ढंग से नगरीय वृद्धि हो, की महत्ती आवश्यकता है।Question : भारत के पर्वत-नगरों की भौगोलिक पृष्ठभूमि एवं उनके वितरण के लक्षणों को प्रस्तुत कीजिए।
(2001)
Answer : भारत में अनेक पर्वतीय नगर स्थित हैं। ये पर्वतीय नगर किसी एक क्षेत्र में सीमित न होकर संपूर्ण भारत में बिखरे हुए हैं। भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत पर अनेक पर्वतीय नगर स्थित हैं। इन नगरों की ऊंचाई सामान्यतः समुद्र तल से 1500 से 2000 मीटर है। इन नगरों में शिमला, डलहौजी, कुल्लू-मनाली, चम्बा आदि पर्वतीय नगर हिमाचल प्रदेश में स्थित हैं। सोनमार्ग, गुलमर्ग, पहलगाम, शेषनाग, अमरनाथ आदि नगर जम्मू-कश्मीर में स्थित हैं। मसूरी, नैनीताल, अल्मोड़ा आदि पर्वतीय नगर उत्तराचंल के हिमालय प्रदेश में स्थित हैं। पं. बंगाल में दार्जिलिंग एवं सिक्किम में गंगटोक प्रमुख पर्वतीय नगर हैं। इनके अलावा उत्तर-पूर्वी भारत में भी अनेक नगर पूर्वांचल की पहाडि़यों पर स्थित हैं। मध्य भारत में अरावली की पहाडि़यों पर माउंट आबू प्रसिद्ध पर्वतीय नगर है। मध्य भारत में सतपुड़ा महादेव-मैकाल श्रेणी पर पंचमढ़ी स्थित है। पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र में महाबलेश्वर एक पर्वतीय नगर है। उपरोक्त क्षेत्रों के अलावा दक्षिण भारत में भी अनेक पर्वतीय नगर हैं। ऊटी, नीलगिरि की पहाड़ी पर स्थित एक महत्वपूर्ण पर्वतीय नगर एवं पर्यटक स्थल है। कोडाइकैनाल नामक पर्वतीय नगर पालनी की पहाड़ी पर स्थित है। ग्रीष्म काल में इन पर्वतीय नगरों का मौसम काफी सुहावना होता है, अतः इन दिनों पर्यटक इन स्थानों में ग्रीष्मावकाश व्यतीत करने आते हैं।
Question : भारतीय शहरों में गंदी बस्तियों की वृद्धि के पर्यावरणीय प्रभावों की विवेचना कीजिए।
(2000)
Answer : गंदी बस्ती या स्लम एक ऐसा निवास क्षेत्र होता है, जहां निवास गृह अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था ढांचे के दोषपूर्ण विन्यास संवातन, प्रकाश और सफाई के अभाव तथा इन सब कारकों के सम्मिलन के कारण स्वास्थ्य, सुरक्षा व नैतिकता के लिए एक खतरा होते हैं। यह गरीबी एवं वंचना की चरम दशा को व्यक्त करता है जो समुदाय के स्वास्थ्य एवं नैतिक विकास के लिए गंभीर संकट है।
स्लम नगरीय क्षेत्रों में ही पाये जाते हैं तथा झुग्गी-झोपड़ी, गंदी बस्ती, स्क्वाटर बस्ती आदि नामों द्वारा जाने जाते हैं। भारत में भी स्लम की समस्या एक गंभीर समस्या बनी हुई है, खासकर महानगरीय क्षेत्रों में स्लम के क्षेत्र में लगातार वृद्धि हो रही है। ग्रामीण-नगरीय प्रवसन के कारण इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। भारतीय शहरों में इन गंदी बस्तियों की वृद्धि के निम्न पर्यावरणीय प्रभाव हैं-
स्थान की कमीः मुंबई की लगभग 77.6 प्रतिशत आबादी एक कमरे के मकान में निवास करती हैं, कई लाख की नगरीय आबादी खुले आकाश के नीचे फुटपाथ पर सोती है। मुंबई में माहिम के निकट तथा दिल्ली में यमुना पुश्ता नगरीय सभ्यता का डरावना दृश्य प्रस्तुत करते हैं जहां मानव पशुओं के समान ठूंसे हुए दिखते हैं, वे इसी प्रकार जीवन-यापन करते हैं। महानगरों की लगभग 62 प्रतिशत आवास गृह इन गंदी बस्तियों के क्षेत्र में हैं जहां, सघनता 2000 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर तक भी पहुंच जाती है।
प्राकृतिक आपदा से ग्रस्तः ये गंदी बस्तियों अक्सर बाढ़, जल जमाव, आग जैसी आपदाओं से ग्रस्त एवं त्रस्त रहती हैं। दिल्ली के स्लम क्षेत्र खासकर यमुना पुश्ता का इलाका यमुना के बाढ़ के पानी से प्रत्येक वर्ष बुरी तरह प्रभावित होता है। इन बस्तियों के कच्चे घर गर्मी के मौसम में प्रायः आग पकड़ लेते हैं जिनके कारण जान-माल का काफी नुकसान होता है।
गंदगी में वृद्धिः भारतीय शहरों में स्लम की वृद्धि के कारण गंदगी में काफी वृद्धि हुई है। गांव से काफी संख्या में लोग शहर नौकरी की तलाश में आते हैं। शहर या नगर बढ़ती संख्या के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता, फलतः पहले से ही चरमराई नागरिक व्यवस्था और भी खराब हो जाती है। अपवाह एवं मल-निर्यास के तंत्र की इन क्षेत्रों में घोर कमी होती है। परिणामस्वरूप पूरी बस्ती में गंदगी का विस्तार हो जाता है। स्लम के क्षेत्र में वृद्धि के साथ ये पर्यावरणीय समस्या और भी गंभीर रूप लेती जा रही है।
प्रदूषण में वृद्धिः गंदगी में वृद्धि के साथ भूमि, जल एवं वायु का भी प्रदूषण होता है। खुले नालों में गंदा जल बहता रहता है या अधिकतर स्थितियों में निकास की व्यवस्था न होने से यह गंदा जल जगह-जगह पर जमा पड़ा रहता है। इस कारण भूमि की गुणवत्ता तो खराब होती ही है, यह गंदा पानी रिसकर नीचे भूमिगत जल में जा मिलता है। अगर हैंडपंप के आस-पास ऐसा हो तो हैंडपंप में प्रदूषित जल आयेगा। इन बस्तियों के घरों में हवा की निकासी की उचित व्यवस्था भी नहीं रहती है जिसके कारण घर वायु प्रदूषण (In door air pollution) होता है। इसके अलावे इन बस्तियों में अत्यधिक भीड़ के कारण शोर-शराब काफी रहता है जिससे ध्वनि प्रदूषण की समस्या भी होती है। स्लम में वृद्धि के साथ ये सभी प्रदूषण बढ़ते जाते हैं।
स्वास्थ्य पर संकटः प्रदूषण तथा स्वच्छ पीने के पानी की कमी के कारण इन बस्तियों में अक्सर बीमारियां फैलती रहती हैं। ये ज्यादातर प्रदूषित जल से होने वाली बीमारियां होती हैं, जैसे- हैजा, पीलिया, गैस्ट्रो-इंट्रोटिस, इत्यादि। ये बीमारियां भी एक पर्यावरणीय समस्या हैं।
संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहनः इन गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग अपनी जीविका चलाने के लिए संसाधनों का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल करने लगते हैं। बिना सुरक्षा के उपाय किये वस्त्र-रंगाई, छपाई आदि जैसे रासायनिक चीजों को इस्तेमाल करने वाले कार्य आस-पास के वातावरण को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावे इन बस्तियों में प्लास्टिक को गला कर उनसे प्लास्टिक के सामान बनाने का काम भी होता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है।Question : भारतीय शहरों की आकारिकी की प्रमुख विशिष्टताओं का वर्णन कीजिए।
(2000)
Answer : भारत के पास सिंधु घाटी सभ्यता के समय से ही नगरीय संस्कृति का एक लंबा इतिहास रहा है। भारतीय शहर नगरीकरण के एक लंबे काल में विकसित हुए हैं। इस लंबे इतिहास में भारत सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के विभिन्न चरणों से गुजरा है। विकास के इन चरणों की छाप वर्तमान शताब्दी में भी परिलक्षित होती है।
इस प्रकार भारतीय शहरों की आकारिकी इन विभिन्न प्रभावों का सम्मिश्रण प्रस्तुत करती है जो नियोजन की प्रक्रिया द्वारा और भी संशोधित हुई है। अतएव भारतीय शहर जटिल आकारिकी के लक्षण धारण करते हैं, जिसमें पारंपरिक तथा शहर दोनों के लक्षण हैं।
नगरीय आकारिकी नगरीय क्षेत्र के भौतिक विन्यास तथा आंतरिक कार्यात्मक संरचना का वर्णन करती है। यहां भौतिक विन्यास का मतलब नगरीय संरचना से है, जिसे नगर की आंतरिक भूगोल भी कहा जा सकता है।
भौतिक विन्यास के आधार पर भारतीय शहरों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(i) पारंपरिक शहर
इन शहरों को पुन तीन प्रकारों के अंतर्गत रखा जा सकता है-
आर्य-हिंदू प्रभाव को दर्शाने वाले नगर
ये शहर प्राचीन हिंदू राजाओं की राजधानी-नगर के प्रतिनिधित्व होते हैं। ये दिवाल द्वारा घिरे होते हैं तथा शहर के केंद्र में शाही राजप्रसाद हुआ करता था। शहर के स्थानिक प्रतिरुप में हिंदू परंपरा प्रतिलक्षित होती है। मंन्दिर के पास ऊंची जाति एवं अभिजात्य वर्ग के निवास हुआ करते थे तथा उससे दूर विभिन्न जातियों, व्यापारियों एवं किसानों के आवास थे।
पाटलिपुत्र इस प्रकार के पारंपरिक नगर का सबसे अच्छा उदाहरण है।
द्रविद मंदिर-शहर
मंदिरों ने दक्षिण भारत के इन नगरों के लिए केंद्रत की तरह काम किया। जिसके चारों ओर वाणिज्यिक बाजार एवं ब्राह्मणों तथा विद्वानों की बस्तियों का विकास हुआ। इसने अरीय प्रतिरुप प्रस्तुत किया, जिसमें सड़कें मंदिर से चारों तरफ निकलती थीं। मदुरई तथा कांचीपुरम इन नगरों का सबसे अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
मुस्लिम प्रभाव वाले नगरः मुस्लिमों ने शहरों में किलेबंदी, मस्जिद के रूप में एक नाभिकीय केंद्र, बाजार एवं चौक तथा आवासीय पृथक्करण को पेश किया। स्थापत्य कला हिंदू एवं मुस्लिम प्रभावों के संयोजन का प्रतिनिधित्व करती है।
मुस्लिम प्रभाव का सबसे अच्छा उदाहरण शाहजहांनाबाद का पुराना शहर है, जिसके अवशेष आज के पुरानी दिल्ली का निर्माण करते हैं। पुरानी दिल्ली का यह भाग दिल्ली शहर का पुराना कोर था, जो अभिलक्षित था निम्न गुणों से-
(क)सड़कों व गलियों का एक जटिल जाल,
(ख)वास्तुशिल्प की विशिष्ट शैलियों को दर्शाने वाली पुरानी इमारतें,
(ग)छज्जे, अटारी आदि युक्त इमारतें,
(घ)विशेषीकरण का अभाव एवं मिश्रित भूमि-उपयोग
(घ)भीड़-भाड़
(च)आगमन के नियमन के लिए दरवाजों की उपस्थिति
(ii) ब्रिटिश शासन के समय विकसित शहर
ब्रिटिश शासन ने भारतीय शहरों पर सबसे गहरी छाप छोड़ी है। व्यापार के बढ़ते वाणिज्यिकरण एवं रेलवे के विकास ने नगर आकारिकी में नये केंद्रीय कारक जोड़े। भारतीय शहरों के दृश्य-पटल पर ब्रिटिश का योगदान निम्न रहा है-
इस प्रकार भारतीय शहरों की आकारिकी प्राचीन, मध्यकालीन एवं ब्रिटिश प्रभावों का सम्मिलित परिणाम है। ये शहर अंशतः पारंपरिक एवं अंशतः आधुनिक हैं। इनकी जटिल आकारिकी का वर्णन निम्न मॉडलों की सहायता से किया जा सकता है-
(क) बाजार आधारित नगर मॉडलः यह मॉडल वैसे शहरों की संरचना का वर्णन करता है जिनका आविर्भाव व्यापारिक क्रियाकलापों के कारण हुआ है। इनमें चौक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक गतिविधियों का केंद्र होता है, जिसके चारों और शहर के रिहायशी मकान पाये जाते हैं। बाजार के समीप पुराने धर्मशालाओं की जगह अब बड़े होटलों ने ले ली है। आंतरिक क्रोड के सीमान्त पर मिश्रित आवासीय उपयोग का खंड होता है। तीसरा खंड/क्षेत्र निम्न वर्ग आवास का होता है।
(ख) औपनिवेशी आधार वाले नगर का मॉडलः इन शहरों के निम्न अभिलक्षण हैं-
उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में भारत आये दिन द्विपक्षीय व्यापार समझौतों के साथ-साथ क्षेत्रीय संगठनों यथा ASEAN, E.U. के साथ व्यापार समझौते कर रहा है, जिसके फलस्वरूप भविष्य में हमारे विदेशी व्यापार में काफी वृद्धि की संभावना है।
(II) नियोजित नगर
ये पूर्णतः नियोजित नगर हैं, जैसे- चंडीगढ़ (सबसे उपयुक्त उदाहरण) भुवनेश्वर, गांधी नगर, बोकारो, नवी मुंबई, नया बंगलौर तथा नोएडा इनमें से अधिकांश ग्रिड पद्धति पर विन्यासित हैं। चंडीगढ़ एक विशिष्ट उदाहरण है। यह ली कारबुजियर के वास्तुशिल्प पर आधारित है। चंडीगढ़ नगर का संगठन (Plan) आयताकार प्रतिरुप में है। नगर का संगठन स्वरुप भौगोलिक तथ्यों को ध्यान में रखकर किया गया है। नगर नियोजन चंडीगढ़ को 30 खंडों में बांटता है जो रिहायशी, वाणिज्यिक एवं प्रशासकीय उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। औद्योगिक खंड नगर के पूर्वी भाग में है तथा प्रशासकीय कार्यों के लिए खंड संख्या नियत की है। इस प्रकार यहां प्रत्येक खंड भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए नियत है। भावी संभावनाओं के आधार पर दक्षिण का भाग खाली छोड़ दिया गया है।
जनसांख्यिकीय संरचना
नगर के केंद्रीय क्षेत्रों में लोगों का उच्च घनत्व मिलता है। इस केंद्र के भीतर भी एक कि.मी. की त्रिज्या में सर्वाधिक घनत्व नहीं पाया जाता बल्कि इसके बाद मिलता है जिसके पश्चात यह तेजी से कम होता है। दूरी के साथ इस कमी को निम्नलिखित चार प्रकार की नगरों के लिए ग्राफ से दिखाया जा सकता हैः
प्रकार 1 - विशिष्ट भारतीय नगर
प्रकार 2 - CBD की तरह की संरचना युक्त नगर
प्रकार 3 - द्वि केंद्रित नगर
प्रकार 4 - नियोजित नगर
कार्यात्मक संरचना
दो मुख्य लक्षण हैं शहरों की कार्यात्मक संरचना के-
(i)केंद्रीकरण का अभाव
(ii)उपान्त क्षेत्रों का कम विकास
भारतीय संदर्भ में CBD की संकल्पना को अस्पष्ट/शिथिल ढंग से इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय शहर मुख्यतः बहु-नाभिक स्वभाव के होते हैं। इस बहु-नाभिक प्रकृति के होने में भी इतिहास का प्रभाव परिलक्षित होता है क्योंकि भिन्न-भिन्न समय में शहर के विकास के अलग-अलग केंद्र रहे हैं, जिसके कारण भारतीय शहरों की प्रकृति बहु-नाभिक हो गयी है। उदाहरण के लिए चांदनी चौक पुरानी दिल्ली के लिए उस समय केंद्रक के रूप में कार्य करता था। अब इसके साथ-साथ कनॉट प्लेस ज्यादा बड़ा केंद्र बन गया है।
Question : भारत में ग्रामीण अधिवासों के विभिन्न प्रतिरूपों के वितरण की व्याख्या उपयुक्त उदाहरण एवं रेखाचित्रों की सहायता से कीजिए।
(1999)
Answer : ग्रामीण बस्तियों का प्रतिरूप उन बस्तियों के बसाव के अनुसार होते हैं। इनको मकानों एवं मार्गोर्ं की स्थिति के क्रम और व्यवस्था के आधार पर निश्चित किया जाता है। यह प्रतिरूप भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक प्रवृत्तियों से प्रभावित होते हैं। भारत में ग्रामीण बस्तियों के निम्न प्रतिरूप दिखाई पड़ते हैंः
1. रेखीय प्रतिरूप: किसी सड़क या नदी अथवा नहर के किनारे-किनारे बसे हुए मकानों की बस्तियां रेखीय प्रतिरूप की होती हैं। मकान दोनों किनारों पर होते हैं तथा मकानों के द्वार सड़क या नदी की ओर होते हैं। यह प्रतिरूप दून घाटी तथा गंगा के मैदान के बाढ़ क्षेत्रों के हुई हुए भूमि पर देखा जा सकता है।
2. चौकपट्टी प्रतिरूप: मैदानों में दो मार्गों के मिलने के क्रास पर जो गांव बसने आरम्भ होते हैं, उन गांवों की गलियां, मार्गों के साथ मेल खाती आयताकार प्रतिरूप में बनने लगती हैं, जो परस्पर लम्बवत् व समानान्तर होती हैं। सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं। ऐसी बस्तियां गंगा-यमुना दोआब के ऊपरी भाग, कर्नाटक व दक्षिणी आंध्र प्रदेश में देखी जा सकती हैं।
3. आरीय त्रिज्या प्रतिरूप: इस प्रतिरूप के गांवों में कई ओर से मार्ग आकर मिलते हैं या उस गांव से बाहर अन्य गांवों के लिए कई दिशाओं को मार्ग जाते हैं। गांव की गलियां गांव के भीतरी भाग में आकर मिलती हैं, अतः वे समानान्तर नहीं होती हैं। गांव के चौराहे से त्रिज्याकार मार्गों पर घर बसे हुए होते हैं। उत्तर प्रदेश का मेरठ क्षेत्र, तमिलनाडु, बिहार, हरियाणा, राजस्थान आदि में इस तरह के गांव मिलते हैं।
4. त्रिभुजाकार प्रतिरूप: इस प्रकार के गांव उन स्थानों पर होते हैं, जहां कोई सड़क या नहर, दूसरी सड़क या नहर से मिले, परन्तु क्रास न करे। पंजाब तथा हरियाणा में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
5. वृत्ताकार प्रतिरूप: किसी झील, वट वृक्ष, तालाब, जमींदार का घर आदि के चारों तरफ वृत्ताकार बस्तियों का निर्माण होता है। भीमताल, सारन ऊपरी दोआब, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र आदि में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
6. तीर प्रतिरूप: ये गांव अन्तरीप के सिरे पर या नदी के नुकीले मोड़ों पर बस जाते हैं। कन्याकुमारी, मुन्न मतुरा (केरल), सानानौसी (चिलका झील) आदि स्थानों में इस प्रकार का प्रतिरूप देखने को मिलता है।
7. तारा प्रतिरूप: ये गांव आरम्भ में आरीय प्रतिरूप में विकसित होकर बाद में बढ़ते-बढ़ते बाहर की ओर जाने वाले मार्गों में फैलते जाते हैं। गांव के निकट मकान अधिक व दूर जाने पर कम होते जाते हैं। पूर्वी चम्पारण और मुजफ्रफरपुर के तराई प्रदेश में इस तरह की बस्तियां पायी जाती हैं।
ग्रामीण अधिवास प्रतिरूप
8. अनियमित या अनाकार प्रतिरूप: इस तरह की बस्तियों का निर्माण साधारणतः मार्गों के निर्माण के पूर्व सुविधानुसार अव्यवस्थित ढंग से होता है। भारत के अधिकांश गांव इसी प्रकार के हैं। उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग, बिहार के सारण, चम्पारण एवं छोटानागपुर के पठार, मध्य प्रदेश के जगदलपुर आदि में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
9. शू-सि्ंट्रग प्रतिरूप: जो गांव नदी के प्राकृतिक कूल के बांध पर या समुद्री तटीय कटक पर बसे होते हैं, उनमें कटक शिखर पर बनी हुई सड़क के किसी ओर मकान बने होते हैं। बिहार के सहरसा और पूर्णिया के बाढ़ प्रभावित तटों, दक्षिण-पश्चिम बंगाल, केरल आदि में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
10. पंखा प्रतिरूप: महानदी, गोदावरी और कृष्णा के डेल्टाओं में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
11. सीढ़ी प्रतिरूप: पर्वतीय ढालों पर ढाल के अनुसार सीढ़ीनुमा पंक्ति में बस्तियों का निर्माण होता है। हिमालय एवं पश्चिमी घाटों में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
12. चौकोर प्रतिरूप: इस प्रकार के गांव मरुस्थलीय या अर्द्ध मरुस्थलीय प्रदेशों में पाये जाते हैं। रेत और डाकुओं से सुरक्षा के लिए मकानों को ऊंचा बनाया जाता है। हरियाणा एवं गुजरात में इस प्रकार की बस्तियां पायी जाती हैं।
13. मधु-छत्ता प्रतिरूप: भारत में टोडा जनजाति एवं आंध्र प्रदेश के मछुआरे इस प्रकार की गुम्बदनुमा झोपडि़यों के गांव बनाते हैं।
14. अर्द्ध- वृत्ताकार प्रतिरूप: उत्तर भारत में गंगा, यमुना, गोमती, घाघरा, कोसी आदि नदियों के तटों पर ऐसे गांव पाये जाते हैं।
15. तिरछी रीवन प्रतिरूप: एक प्रमुख सड़क पर मिलने वाली कई उप-सड़कों के विकट मोड़ पर मिल जाने से यह प्रतिरूप बनता है। मुंगेर का जलालाबाद गांव ऐसा ही है।
16. आयताकार प्रतिरूप: आयताकार खेतों के चारों तरफ आयताकार गांव का निर्माण होता है। बिहार के शाहाबाद, सारण, घघोली आदि स्थानों में ऐसे गांव पाये जाते हैं।
17. खोखला आयताकार प्रतिरूप: पुराने किले या किसी प्रमुख व्यक्ति के निवास से आयताकार गांव का मध्य भाग बिना बना रह जाता है, तो इस प्रतिरूप का निर्माण होता है। ऐसे गांव बिहार में पाये जाते हैं।
इनके अलावा विशेष परिस्थितियों के अनुसार वर्गाकार, खोखला वर्गाकार, एल-आकार, दोहरा व्यष्टिक, खोखला वृत्तीय, बहुभुजीय आदि प्रतिरूप भी भारत में पाये जाते हैं।Question : नगर प्रदेश की संकल्पना पर चर्चा कीजिये और भारत के नगरों का हवाला देते हुए नगर प्रदेश के परिसीमन के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले प्रकार्यात्मक सूचकों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये?
(1998)
Answer : नगर के इर्द-गिर्द कई छोटे आवासन पाये जाते हैं, जो नगरों के साथ एक प्रकार्यात्मक क्षेत्र का निर्माण करते हैं। आवासन के इन केन्द्रों का नगर से भौतिक, सामाजिक व आर्थिक संबंध होता है। दोनों ही क्षेत्र इस संबंध से लाभान्वित होते हैं। जैसे-जैसे नगर से इन आवासनों की दूरी बढ़ती जाती है, वैसे- वैसे नगरों का इन पर प्रभाव घटता जाता है। नगर प्रदेश की अवधारणा को समझने के लिए कुछ अन्य अवधारणाओं को समझना आवश्यक है, जो इस प्रकार हैं-
(i) नगर प्रभाव क्षेत्र की संकल्पना: नगर के आसपास के ऐसे क्षेत्र, जहां से सामान या सेवा के लिए लोग नगर आते हैं, नगर के ‘प्रभाव क्षेत्र’ कहलाते हैं।
(ii) नगर प्रभुत्व क्षेत्र की संकल्पना: एक निश्चित क्षेत्र में कई समान या छोटे-बड़े आकार के नगर पाये जाते हैं। सभी का अपना प्रभाव क्षेत्र होता है। इस अवस्था में कई नगरों के प्रभाव क्षेत्र आपस में टकराते हैं। जिस सीमा के अंतर्गत किसी एक नगर के प्रभाव की अपेक्षा, किसी दूसरे नगर का अधिक व्यापक प्रभाण पड़ता है, उसे उस नगर का प्रभुत्व क्षेत्र कहते हैं।
(iii) नगर प्रदेश की संकल्पना: किसी भी क्षेत्र में आकार व महत्त्व की दृष्टि से कई छोटे-बड़े नगर होते हैं। यहां कई नगर प्रभाव क्षेत्र व नगर प्रभुत्व क्षेत्र इकट्ठे पाये जाते हैं।
चूंकि नगरों के विभिन्न स्तर होते हैं, इसलिए नगर प्रदेश का अभिप्राय इस नगर के स्तर के अनुरूप उसके प्रभुत्व क्षेत्र से होता है। विभिन्न प्रभुत्व क्षेत्रों में सबसे बड़ा क्षेत्र ‘नगर प्रदेश’ कहलाता है।
नगर प्रदेश की सीमा
नगर के प्रभाव क्षेत्र के परिसीमन के लिए निम्नलिखित आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। (i) बैंक खाताधारियों का पता (ii) निजी या सरकारी अस्पतालों में आने वाले मरीजों का पता (iii) कपड़ा खरीदने या साइकिल बनवाने के लिए आने वालों का पता (iv) ऐसे गांव, जहां से किसान अपनी ट्रैक्टर की मरम्मत के लिए नगर आते हैं। (v) नगर में पढ़ने वाले बच्चों के गांव आदि। ये मापदंड एक लाख से ऊपर जनसंख्या वाले नगरों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। आर-एल-सिंह ने बनारस नगर के प्रभाव क्षेत्र को परिसीमित करने के लिये सब्जी, दूध व खाद्यान्न आपूर्ति, बस सेवा, समाचार-पत्र वितरण तथा प्रशासनिक सीमा का सहारा लिया है। इनमें से दूध, सब्जी व खाद्यान्न के लिए ही नगर, बाहरी क्षेत्रों , पर आश्रित होता है, जबकि समाचार-पत्र वितरण व प्रशासनिक क्षेत्र नगरों पर आश्रित होते हैं।
नगरों के प्रभुत्व क्षेत्र को परिसीमित करने के लिए विभिन्न स्तरों का सहारा लिया गया है। मन्सूर आलम ने हैदराबाद नगर के प्रभुत्व क्षेत्र दर्शाने के लिए तीन स्तरों का सहारा लिया है- (i) महानगर का प्रभुत्व क्षेत्र (ii) महानगर का अधिकार क्षेत्र (iii) महानगर से संबद्ध क्षेत्र। इनमें से सबसे बड़े क्षेत्र को ही ‘नगर क्षेत्र’बताया गया है। कई बार ‘नगर क्षेत्र’को परिसीमित करने में केवल एक ही मापदंड का सहारा लिया जाता है, जैसे वाराणसी के लिए समाचार-पत्र वितरण। यह एक दोषपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि नगर क्षेत्र एक बहु कारक क्षेत्र है और किसी एक मापदंड को प्राथमिकता देना उचित नहीं है। हाल के वर्षों में इस समस्या को हल करने में थिसेन पॉलिगन तथा प्रशासनिक सीमाओं का सहयोग लिया जा रहा है।
चार महानगरों का नगर प्रदेश परिसीमित करने के लिए हवाई यात्र, रेलवे यात्र, टेलिफोन सेवा, गुरुत्व प्रणाली आदि का सहारा लिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि दिल्ली का नगर प्रभुत्व क्षेत्र कई राज्यों तक फैल गया है।