Question : हिमालय की उत्पत्ति के संबंध में प्रस्तुत किए गए विभिन्न विचारों को स्पष्ट कीजिए और हिमालय को उर्ध्वाधर विभाजनों में विभक्त कीजिए।
(2007)
Answer : हिमालय विश्व की सबसे बड़ी वलित पर्वतमाला है। यह अपने उत्पत्ति संबंधी मान्यताओं में पर्याप्त विभेद रखता है। हिमालय के उत्पत्ति संबंधित विभिन्न विचार मुख्यतः कोबर, होम्स और प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत पर आधारित है।
कोबर के भूसन्नति सिद्धांत के आधार परः तृतीय कल्प के प्रारंभ होने के पूर्व (7 करोड़ वर्ष) हिमालय के स्थान पर एक लंबा संकरा जलमग्न क्षेत्र था, जो टिथिस सागर के नाम से विख्यात है। इस टिथिस सागर के उत्तर एवं दक्षिण की ओर क्रमशः अंगारालैंड एवं गोंडवानालैंड के दृढ़ भूखण्ड थे। हिमालय की प्रमुख श्रेणियों में पूर्व कैम्ब्रियन की रवेदार नीस, शिष्ट, क्वार्टजाइट आदि आर्कियन युगीन चट्टानों की बहुलता इसका प्रमाण है कि इस टिथिस सागर में दृढ़ भूखंडों से अपरदित होकर जाने वाला अवसाद निक्षेपित होता रहा। इसी प्रकार लघु हिमालय में विन्ध्य श्रेणी में मिलने वाली चट्टानों के समकालीन चूना-पत्थर एवं क्वार्टजाइट की प्रचुरता मिलती है। इनकी अत्यधिक मोटाई इसका प्रमाण है कि इन चट्टानों के निर्माणकारी अवसादों का जमाव क्रमशः धंसती हुई सागर तली पर दीर्घकाल तक होता रहा। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि महान हिमालय अक्ष के दोनों ओर दो समानान्तर भूसन्नतियां थीं। उत्तरी भूसन्नति में पुराजैवकल्प के प्रारंभ में तृतीयक कल्प के प्रारंभ तक के अवसाद निक्षेपित हुए, जिसमें जीवाशेष युक्त चट्टानें कम पायी जाती हैं। ये दोनों भूसन्नतियां कई स्थानों पर परस्पर जुड़ी हुई थीं। हिमालय का उत्थान कई चरणों में हुआ। मध्य-काल के अंत में संपूर्ण विश्व में बड़े पैमाने पर भू-संचलन एवं पटल विरूपण की घटनाएं हुईं। गोंडवानालैंड का विखंडन कार्बोनिफेरस युग में ही प्रारंभ हो गया था। इसके चलते टिथिस सागर में निक्षेपित अवसाद पर तीव्र दबाव पड़ा और वे वलित होकर हिमालय श्रेणी के रूप में उमड़ी।
हिमालय के उत्थान की यह प्रक्रिया एक बार में सम्पन्न नहीं हुई। प्रथम वलन क्रिटेशियस युग के अंत में हुआ।
तत्पश्चात् क्रमशः इयोसीन, मायोसिन, प्लेयोसिन तथा प्लेइस्टोसीन युगों में भी वलन हुए। प्रथम चरण में महान हिमालय और दूसरे चरण में लघु हिमालय का निर्माण हुआ। शिवालिक श्रेणियां तृतीय चरण में उभरीं। चौथे चरण में सभी श्रेणियों का पुनरूत्थान हुआ जिससे शिवालिक श्रेणियां ऊंची हुईं, साथ में एक अग्रगर्त का निर्माण हुआ, जिसमें अवसाद पटने से सिंध-गंगा बेसिन का निर्माण हुआ। प्लेइस्टोसिन के पश्चात् हल्के उत्थान हुए है और बीच-बीच में हिमानियों द्वारा विविध पदार्थों का निक्षेपण एवं नदियों के किनारे वेदिका का निर्माण हुआ। हिमालय तथा कुनलून अल्टाईटाग अंगारालैंड एवं गोंडवानालैंड के संचलन एवं भूसन्नति के सम्पीडन से निर्मित सीमांत श्रेणियों के प्रतीक हैं, जबकि तिब्बत के पठार मध्यवर्ती पिंड का उदाहरण है। कोबर के सिद्धांत के अनुसार तिब्बत के पठार की असामान्य ऊंचाई और दबाव शक्ति की व्याख्या तर्कसंगत व्याख्या करती नहीं है जिसके कारण इस विचार को प्रमाणिक नहीं माना जाता है।
होम्स का संवहन सिद्धांत के आधार परः इस सिद्धांत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पर्वतों की उत्पत्ति का कारण संवहन तरंग को मानता है। यह तरंग गहराई के साथ तापमान में वृद्धि तथा अधिक आंतरिक भाग में रेडियो सक्रिय खनिजों के विखंडन के कारण उत्पन्न होते हैं। यह तरंग होम्स के अनुसार विषुवतरेखीय या महाद्वीपीय क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं क्योंकि यहां भूपटल की मोटाई सर्वाधिक होती है।
क्षैतिज तरंगों के कारण दरार विकसित होती है और वही दरार अंततः भूसन्नति में परिणत हो जाता है। पुनः मलवों के निक्षेपण होता और दबाव के कारण संकुचन होता है और मोड़दार पर्वत की उत्पत्ति होती है। हिमालय के संदर्भ में इस सिद्धांत के अनुसार सबसे प्राचीन महाद्वीप पैंजिया के नीचे संवहन तरंगों की शुरुआत हुई थी। उसी तरंग द्वारा पैंजिया दो भागों में विभक्त हुआ और मध्य में टेथिस सागर नामक भूसन्नति की उत्पत्ति हुई।
चूंकि पैंजिया के विखंडन से दो बड़े महाद्वीप बने थे- गोंडवानालैंड और अंगारालैंड- इसलिए पुनः उनके नीचे भी उधस्तर में संवहन तरंग की शुरुआत हुई। इसी तरंग के कारण गोंडवानालैंड का उत्तरी खण्ड तथा अंगारालैंड का दक्षिणी खंड टेथिस सागर की ओर खिसकने लगे। इस खिसकाव से टेथिस सागर के मलबों पर दबाव पड़ा और उसी दबाव से हिमालय जैसी वृहत् पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के आधार परः प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार भूपटल कई प्लेटों में विभक्त है। प्लेट का निर्माण पृथ्वी के ठंडे होने के प्रारंभिक क्रिया का परिणाम है। संवहन तरंग प्लेट में गति लाते हैं और उस गति से नवीन प्लेट अर्थात् भूपटल का निर्माण होता है या विनाश होता है। पर्वत निर्माण की क्रिया वहां होती है, जहां दो प्लेट आपस में टकराते हैं। हिमालय पर्वत का निर्माण मिलियन वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट एशियन प्लेट की ओर अग्रसर हुआ, जिस कारण टेथिस सागर संकुचित होने लगा। पुनः 60-30 मिलियन वर्ष पहले इण्डियन प्लेट का एशियन प्लेट से टकराव हो गया, जिससे भारतीय प्लेट का एशियन प्लेट के नीचे आने के कारण उत्पन्न उत्क्षेपण के फलस्वरूप हिमालय का निर्माण हुआ। चूंकि एशियन प्लेट से भारतीय प्लेट की गति अधिक थी, अतः प्लेट का क्षेपण हुआ। वर्तमान समय में यही मान्यता सर्वाधिक मान्य है। इससे हिमालय की भूगर्भिक संरचना एवं उत्थान की सत्यता मिलती है।
हिमालय का उर्ध्वाधर विभाजनः हिमालय को उर्ध्वाधर विभाजन की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया जाता हैः
Question : जेट प्रवाह सिद्धांत के विशेष संदर्भ में भारतीय मानसून की उत्पत्ति के आधुनिक सिद्धांतों का एक आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
(2006)
Answer : मानसूनी जलवायु का तात्पर्य उस जलवायु से है, जिसमें मौसम के अनुसार पवनों की दिशा उलट जाती है। भारतीय दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है, यही कारण है कि सैकड़ों वर्षों के गहन प्रेक्षण एवं अनुसंधान के बावजूद इसे पूरी तरह नहीं समझा जा सका है।
भारतीय मानसून के संबंध में सर्वप्रथम हेली ने यह विचार दिया कि इसकी उत्पत्ति का कारण स्थल एवं सागर के गर्म होने की प्रक्रिया में भिन्नता है। इसके कारण वायुदाब में भी भिन्नता आ जाती है एवं ग्रीष्म ऋतु में सागर से स्थल की ओर दक्षिण पश्चिम मानसून के रूप में हवाएं चलने लगती हैं। यह सरल कारक एवं विवरण मानसून की अनिश्चितता, अनियमितता, विभंगता आदि रहस्यों को स्पष्ट नहीं कर सकी। आगे चलकर अनेक विद्वानों ने अपने विचारों एवं अनुसंधानों के द्वारा इसकी जटिलता को समझने का प्रयास किया।
सूर्य के उत्तरायण होने के साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप का तापमान तेजी से बढ़ने लगता है तथा मई के आते-आते तापमान काफी बढ़ जाता है।
इसके फलस्वरूप निम्न वायुदाब का विकास होता है, जिसका केंद्र उत्तर-पश्चिम भारत में स्थित होता है। इसके साथ ही उत्तरी अंतः उष्ण अभिसरण ((N.I.T.C)) 25° उत्तरी अक्षांश तक विस्थापित हो जाता है। इस समय स्थलखंड के दक्षिण स्थित सागर में अपेक्षाकृत उच्च वायुदाब रहता है। इस दाब प्रवणता के कारण भू-मध्यरेखा के पार से दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाएं आकर्षित होकर भारतीय उपमहाद्वीप की ओर बढ़ती हैं। भू-मध्यरेखा को पार करते ही कोरियोलिस बल के प्रभाव से इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। इस प्रकार दक्षिण पश्चिम मानसून हवाएं दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाओं का ही विस्तार हैं। 1979 में ‘मोनेक्स’ के द्वारा किए गए अनुसंधान से यह पता चला कि दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाएं 400 से 600 पूर्वी देशांतर रेखा के बीच भूमध्यरेखा को पार करती हैं।
दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति के संबंध में फ्लोन ने विषुवतीय पछुआ हवा सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। उनका यह मानना है कि उत्तरी अंतः उष्ण अभिसरण के उत्तर की ओर विस्थापन के कारण विषुवतीय पछुआ हवाएं भारतीय उपमहाद्वीप में दक्षिण-पश्चिम मानसून के रूप में प्रवाहित होने लगती हैं। एम टी यीन ने मानसून के विश्लेषण के दौरान यह विचार दिया कि मानसून का संबंध ऊपरी वायुमंडल के परिसंचरण से भी है। शीत ऋतु में हिमालय के दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर उपोष्ण पछुआ जेट प्रवाहित होती रहती है। यह जेट स्ट्रीम संवहन धारा को ऊपर उठने से रोकती है, फलस्वरूप भारत में निम्न दाब का निर्माण नहीं हो पाता है। ग्रीष्म ऋतु के आगमन के साथ ही पछुआ जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर विस्थापित हो जाती है। पश्चिमी जेट स्ट्रीम के निवर्तन के पश्चात् भारत में उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम प्रवाहित होने लगती है। यह एक अस्थायी जेट स्ट्रीम है, जिसकी उत्पत्ति ग्रीष्म ऋतु में हिमालय एवं तिब्बत के पठार के तप्त होने के कारण होता है। वास्तविकता यह है कि इन उच्च भागों के गर्म हो जाने के कारण वायु गर्म हो कर ऊपर उठती है एवं क्षोभमंडल में एक निश्चित ऊंचाई पर प्रतिचक्रवातीय दशाओं का निर्माण होता है। इसके फलस्वरूप बर्हिगामी वायु की दो धाराएं विपरीत दिशा में चल पड़ती हैं, एक भू-मध्य रेखा की ओर एवं दूसरी ध्रुव की ओर। भू-मध्य रेखा की ओर विक्षेपित वायु उष्ण पूर्वी जेट के रूप में प्रवाहित होती है, जबकि ध्रुव की ओर विस्थापित पछुआ जेट स्ट्रीम का अंग बन जाती है। कोटेश्वरम् का यह मानना है कि तापीय प्रभाव से तिब्बत के पठार से ऊपर उठने वाली वायु विषुवतरेखा के निकट नीचे उतरती है एवं दक्षिण-पश्चिम मानसून के रूप में प्रवाहित होती है। इस चक्र को हेडली चक्र के नाम से जाना जाता है। इसकी पुष्टि मोनेक्स द्वारा भी की गई है।
बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न उष्ण कटिबंधीय अवदाबों को भारत में लाने में पूर्वी जेट, स्ट्रीम का योगदान होता है। ये अवदाब भारतीय उपमहाद्वीप में मानसूनी वर्षा के वितरण को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति पर अल-निनो जलधारा का भी प्रभाव पड़ता है। पेरू की तट पर प्रवाहित होने वाली इस अस्थायी गर्म जलधारा के कारण दक्षिणी प्रशांत महासागर के सतह के जल के तापमान में 10°C तक की वृद्धि हो जाती है। अल निनो की अनुपस्थिति की स्थिति में प्रशांत महासागर में उच्च दाब एवं हिंद महासागरीय क्षेत्र में निम्न दाब पाया जाता है। फलस्वरूप दक्षिणी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र से पवन हिंद महासागर, भारतीय उपमहाद्वीप एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया की ओर प्रवाहित होती है। लंबी दूरी तक महासागरीय क्षेत्र से होकर प्रवाहित होने के कारण ये पवनें वर्षा लाती हैं। अल निनो की उपस्थिति में दक्षिणी प्रशांत में हिंद महासागर की तुलना में वायुदाब कम हो जाता है। फलस्वरूप भारतीय मानसून कमजोर हो जाता है। अल निनो की उपस्थिति में बंगाल की खाड़ी में अवदाबों का निर्माण भी नहीं हो पाता है। इस प्रकार अल निनो सिद्धांत के द्वारा भारतीय मानसून की विफलता को कुछ हद तक स्पष्ट किया जा सकता है।
सूखा एवं बाढ़ मानसूनी जलवायु की विशेषताएं हैं। अनिश्चिता, अनियमिता, विभंगता, वर्षा के वितरण में अत्यधिक विषमता एवं वर्षा की परिवर्तिता के कारण सूखे की समस्या उत्पन्न होती है। अंतः उष्ण अभिसरण की स्थिति, उष्ण कटिबंधीय अवदाबों की दिशा एवं बारंबारता अलनिनो की उपस्थिति, सोमाली जलधारा के पूर्व की ओर प्रसार होने के फलस्वरूप अरब सागर के तापमान में कमी आदि कारकों के कारण अनावृष्टि की समस्या होती है।
पश्चिमी भारत में शुष्क दौर उस समय आता है जब वाष्प भरी हवाएं पश्चिमी घाट के समानांतर प्रवाहित होने लगती हैं। उष्ण कटिबंधीय अवदाबों की आवृत्ति में कमी आने पर वर्षा की मात्र कम हो जाती है। वास्तविकता यह है कि अंतः उष्ण अभिसरण का अक्ष दोलायमान होता है, जिससे अवदाबों के मार्ग में भी भिन्नता आ जाती है, फलस्वरूप विभिन्न वर्षों में वर्षा की गहनता एवं वितरण में काफी उतार चढ़ाव आता है।
जब मानसूनी द्रोणी (N.I.T.C) का अक्ष उत्तर की ओर विस्थापित होकर हिमालय के पर्वत पाद तक चला जाता है तो इस क्षेत्र में वर्षा की गहनता काफी अधिक हो जाती है एवं भयंकर बाढ़ की समस्या उत्पन्न होती है। बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न अवदाब समान्यतः उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ते हैं। कभी-कभी ये अवदाब जब पश्चिम की बढ़कर गुजरात एवं राजस्थान पहुंचते हैं तो इन क्षेत्रों में फ्लैश फ्लड की समस्या उत्पन्न होती है। यद्यपि बाढ़ एवं सूखा मूलतः उत्पन्न होती है। अनावृष्टि के कारण उत्पन्न होते हैं, परंतु हाल के वर्षों में मानवीय क्रियाकलापों के कारण इनकी गहनता एवं बारंबारता में वृद्धि हुई है।
भारत में जैसे-जैसे मानसूनी पवनें उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ती हैं उनमें आर्द्रता की मात्रा कम होती जाती है, फलस्वरूप वर्षां की मात्रा भी कम होती जाती है। राजस्थान, निकटवर्ती हरियाणा एवं गुजरात में न केवल वर्षा अत्यल्प होती है, बल्कि वर्षा की परिवर्तिता भी काफी अधिक होती है। फलस्वरूप इन क्षेत्रों में बार-बार सूखे की समस्या उत्पन्न होती है। वृष्टि छाया प्रदेश में स्थित होने के कारण प्रायद्वीपीय भारत का आंतरिक क्षेत्र भी सूखाग्रस्त है। इस सिद्धांत के अनुसार, मानसून की उत्पत्ति अत्यंत सरल है। सूर्य का उत्तरायण एवं दक्षिणायन एक नियमित प्रक्रिया है। अतः मानसून को भी नियमित एवं निश्चित होना चाहिए, जो कि नहीं है।
इस सिद्धांत की भी वहीं कमियां हैं, जो प्रथम सिद्धांत में हैं। सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायन की नियमित प्रक्रिया के बावजूद तापीय विषुवतरेखा के स्थानांतरण में अनियमितता क्यों है? कभी यह विस्थापित होकर शिवालिक के निकट तक चली जाती है, तो कभी 12° से 17° उत्तरी अक्षांश के मध्य रह जाती है। तापीय विषुवतरेखा की इस अनिश्चितता की कोई व्याख्या नहीं होने के कारण इस सिद्धांत को अधिक विश्वसनीयता प्राप्त नहीं है।
यह सिद्धांत उपग्रह से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। परंतु यह उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम की अनिश्चितता को स्पष्ट नहीं करता है। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि यह सूर्यातप की विविधता के कारण होता है। इस संबंध में और अधिक जानकारी आवश्यक है। इसके बावजूद यह देखा गया है कि अलनो के बावजूद भारत में कई वर्ष अधिक वर्षा हुई। इसके विपरीत अल निनो प्रभाव न होने के बावजूद भी मानसून असफल रहा है। 1875 से 1985 के बीच 43 वर्षा मानसून असफल रहा, जिसमें मात्र 19 वर्ष अलनिनो का प्रभाव था। पुनः अलनिनो के गहन प्रभाव के बावजूद 6 वर्ष मानसून अच्छा रहा। 1998 ई. में पिछले 100 वर्षों में अलनिनो सबसे ज्यादा प्रभावी था, इसके बावजूद भारतीय मानसून सामान्य रहा। वास्तविकता यह है कि उपर्युक्त सिद्धांतों में से कोई भी सिद्धांत मानसून की उत्पत्ति को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने में सक्षम नहीं है। सभी सिद्धांत सम्मिलित रूप से मानसून की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हैं। मानसून की उत्पत्ति की प्रक्रिया अत्यंत जटिल है। यह भी संभव है कि इसकी उत्पत्ति का संबंध कुछ ऐसे कारकों से भी है, जिसके बारे में हमें जानकारी नहीं है। इस दिशा में और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।
Question : भारत के बाढ़ प्रवण क्षेत्रों के वितरण और देश में बाढ़ों के प्रभाव का नियंत्रण करने के कार्यक्रमों एवं नीति का एक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2005)
Answer : भारत की विशालता और भौतिक विभिन्नता के कारण यहां बाढ़ आती है। विश्व का शायद ही कोई और देश बाढ़ से इतना प्रभावित रहता हो जितना कि भारत। देश के किसी न किसी भाग में विभिन्न भीषणता वाली बाढ़ का आना एक प्राकृतिक संयोग है। देश के उपजाऊ विशाल मैदान तथा तटीय क्षेत्रों में अक्सर बाढ़ आती रहती है। असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा में बाढ़ आना एक वार्षिक क्रिया है, जिसके परिणाम मानव एवं पशु सभी को भुगतने पड़ते हैं। पूर्वी तट के डेल्टाई क्षेत्रों तथा समुद्रतटीय भागों में बाढ़ अभिशाप का रूप ले लेती है। देश में वर्षा का 80 प्रतिशत से अधिक भाग मानसून वर्षा द्वारा प्राप्त होता है। मानसून वर्षा की अधिकता बाढ़ को जन्म देती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों मानसून से पहले तथा बाद की वर्षा भी बाढ़ लाने में सहायक होती है।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग द्वारा बाढ़ को वह प्राकृतिक आपदा बताया गया है जब नदी का जल स्तर उसके सामान्य जल स्तर से ऊपर हो जाता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा भी लगभग ऐसी ही स्थिति को बाढ़ की संज्ञा दी गई है।
बाढ़ प्रवण क्षेत्रों का वितरणः बाढ़ ग्रसित क्षेत्रों की दृष्टि से भारत को पांच क्षेत्रों में बांटा जा सकता है-
(1) पूर्वी खण्ड (Eastern Zone): यह पश्चिम में घाघरा नदी से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक फैला हुआ है। यहां घाघरा, गंडक, सोन, गंगा, कोसी, तिस्ता व ब्रह्मपुत्र नदियों में भयंकर बाढ़ आती है। कोसी व ब्रह्मपुत्र की बाढ़ भारी नुकसान पहुंचाती है। इन नदियों से पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल का उत्तरी भाग, असम और अरूणाचल प्रदेश में भयंकर बाढ़ आती हैं। यहां नदियां बड़ी मात्र में जल एवं भारी चिकनी मिट्टी बहाकर लाती हैं, जो समतल धरातल तथा निचले भू-भागों को जलमग्न कर देती है।
(2) उत्तरी खण्ड (Northern Zone): इसके अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भू-भाग सम्मिलित हैं। यहां पर व्यास, रावी, सतलज, यमुना गंगा, व उसकी सहायक नदियों में वर्षां ट्टतु में जब बाढ़ आती है, तो विनाश का दृश्य उपस्थित हो जाता है।
(3) मध्यवर्ती खण्ड (Central Zone): इसका विस्तार गुजरात मध्य प्रदेश व राजस्थान में बिखरे रूप में मिलता है। यहां चम्बल, बनास, साबरमती नर्मदा आदि प्रमुख नदियां हैं, जो बाढ़ से प्रभावित रहती हैं। गुजरात में कच्छ का प्रदेश समुद्री जल के प्रभाव से ग्रसित रहता है।
(4) दक्षिणी खण्ड (South Zone): यह महाराष्ट्र, कर्नाटक आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु राज्यों पर विस्तृत है। यहां वर्षा की मात्र कम होने से नदियों में जल अधिक नहीं होता तथा मिट्टी की मात्र भी कम होती है। इनके मार्गों में कोई परिवर्तन भी नहीं पाया जाता है। अतः बाढ़ सामान्यतः प्रतिवर्ष न आकर लंबे अंतराल पर आती है, लेकिन जब आती है तो फसलों तथा जन-धन की भारी हानि होती है।
(5) मध्य-पूर्वी खण्ड (Central-East Zone): यहां पर छत्तीसगढ़, उड़ीसा राज्य में महानदी, वैतरणी एवं ब्राह्मणी नदियां अधिक जल बहाकर लाती है जिनके तेजी से न बहने के कारण मुहानों पर तेज बाढ़ आ जाती है।
बाढ़ नियंत्रण संबंधी कार्यः 1954 की अति भीषण बाढ़ के बाद भारत सरकार ने यह आवश्यक समझा कि बाढ़ नियंत्रण के प्रयासों को सुनियोजित कार्यक्रम के आधार पर आरंभ किया जाय। 1954 में राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया गया। कार्यक्रम को तीन भागों में बांटा गया। तात्कालिक, लघुअवधि व दीर्घअवधि। तात्कालिक कार्यक्रम के अन्तर्गत बाढ़ नियंत्रण के तत्काल उपाय करना तथा लघु अवधि के कार्यक्रम में तटबंधों का निर्माण, गांवों व कस्बों की बाढ़ से सुरक्षा हेतु नदी के किनारों के भाग ऊंचा उठाना आदि शामिल किए गए। दीर्घअवधि के अन्तर्गत जलाशयों का निर्माण, नदी तटबंध निर्माण तथा नदी जल निकासी की समुचित योजनाएं बनाना था। देश में बाढ़ की समस्या की भीषणता को देखते हुए सरकार ने 1976 ई. में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की स्थापना की। यह आयोग बाढ़ नियंत्रण के वर्तमान कार्यक्रम तथा नीति का गहन अध्ययन करके बाढ़ नियंत्रण की समन्वित समेकित व वैज्ञानिक नीति तैयार करना है।
अब तक इस कार्यक्रम पर 976 करोड़ रुपया व्यय किया जा चुका है। इसके अंतर्गत तटबंधों का निर्माण जल निकासी के लिए नालियों का निर्माण नगरों की बचाव योजनाएं तथा गांवों के तल उठाने संबंधी कार्य किए गए हैं। इसके द्वारा लगभग 110 लाख हैक्टेअर भूमि की बाढ़ से रक्षा की गई है। 11400 कि.मी. लंबे तटबंध बनाए गए हैं तथा 21000 कि.मी. लंबी जल निकासी के लिए नालियां बनाई गई हैं। स्वतंत्रता के बाद बहुउद्देशीय नदी घाटी का विकास दीर्घकालीन बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए अपनाया गया। भारत में ऐसी लगभग एक दर्जन परियोजनाएं लागू की गईं। पंजाब-हरियाणा एवं झारखंड में क्रमशः मयुराक्षी एवं दामोदर घाटी योजना, उड़ीसा में हीराकुंड, आध्र प्रदेश में नागार्जुन, आध्र-कर्नाटक में तुंगभद्रा योजना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन योजनाओं के कमांड क्षेत्र कभी बाढ़ ग्रसित हुआ करते थे, आज वे हरित क्रांति के अंग बन गए हैं।
बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए 1954 में गठित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग दीर्घकालीन कार्यक्रमों की योजनाएं बनाती है। बाढ़ की भविष्यवाणी के लिए 7 बड़े और 147 छोटे केन्द्र भी बनाए गए हैं। ये बड़े केन्द्र भुवनेश्वर, लखनऊ, पटना, गुवाहाटी, जलपाइगुड़ी, सूरत और दिल्ली में स्थित हैं। बाढ़ की समस्या के समाधान हेतु सैटेलाइट से प्राप्त सूचनाओं को परिष्कृत कर मौसम भविष्यवाणी केन्द्रों द्वारा देश के विभिन्न भागों में पहुंचाने का कार्य किया जा रहा है। इसी आयोग द्वारा समस्या के समाधान हेतु अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को भी आगे बढ़ाया जा रहा है। भारत में बाढ़ नियंत्रण का कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकते जबकि चीन, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश से दीर्घकालीन समझौते न हों।
अतः जल प्रबंध में महाद्वीप के सभी देशों के सहयोग की आवश्यकता है। आयोग द्वारा इस दिशा में कार्य किए जा रहे हैं। भारत में बाढ़ न सिर्फ एक विपदा है, वरन यह एक पारिस्थितिकी संकट है। अतः बाढ़ नियंत्रण का कोई भी उपाय तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि इसका पारिस्थितिकी नियंत्रण नहीं किया जाएगा।
Question : भारत के जलवायु प्रदेशों के परिसीमन में वर्षा एवं ताप के स्थानिक प्रतिरूप की भूमिका पर, विशेषकर स्टैम्प के जलवायवी प्रादेशीकरण का हवाला देते हुए चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : भारत की विशालता तथा इसकी भूआकृतिक विभिन्नता यहां की जलवायविक दशाओं में पर्याप्त विविधता को जन्म देती है। तापमान व वर्षा के असमान वितरण की मात्र भारत को जलवायु प्रदेशों में बांटने का आधार प्रदान करती है।
देश में जलवायु तत्वों को स्थानीय विभिन्नताओं व विशेषताओं की स्पष्ट रूप में अंकित किया जा सकता है, जो कि प्रादेशिक विभिन्नताओं के रूप में परिलक्षित होते हैं। इनमें वर्षा की मात्र की भिन्नता प्रमुख रूप से विभाजन का आधार प्रस्तुत करती है। उदाहरण के तौर पर भारत के विशाल मैदान में पूर्व से पश्चिम की ओर जलवायु आर्द्र से शुष्क होती जाती है।
वर्षा व ताप के इन विभिन्नताओं के स्थानिक प्रतिरूप को आधार बनाते हुए डा. एल.डी. स्टाम्प ने डब्ल्यू.जी.केन्ड्रयू के साथ मिलकर भारत का जलवायवी प्रादेशीकरण प्रस्तुत किया है। इन विद्वानों ने जनवरी माह का 18ºC की समताप रेखा, जो लगभग कर्क रेखा का अनुगमन करती है, के आधार पर भारत को दो प्रमुख भागों में बांटा- (क) शीतोष्ण कटिबन्धीय भारत (कर्क रेखा के उत्तर) तथा उष्ण कटिबंधीय भारत (कर्क रेखा के दक्षिण)। इन दोनों प्रमुख भागों को उपभागों में वर्षा की मात्र व जनवरी माह के तापमान के आधार पर वर्गीकृत किया गया है।
(क) शीतोष्ण भारत
इस भाग में जनवरी माह का औसत तापमान 18ºC से उपर नहीं जाता। वर्षा की मात्र व धरातलीय दशा के आधार पर इसे निम्न पांच उपविभागों में विभाजित किया गया हैः
(i) हिमालय प्रदेशः इसमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश शामिल हैं। जनवरी माह का तापमान 4ºC से 7º तक तथा जून माह का तापमान 13ºC से 18ºC के बीच रहता है। पश्चिमी भाग में जाड़ों में तापमान कुछ क्षेत्रों में हिमांक से नीचे चला जाता है। वर्षा लगभग 200 सेमी. होती है।
(ii) साधारण वर्षा का प्रदेशः यह देश का उत्तर-पश्चिमी पठारी भाग है तो सतलज व व्यास नदियों के प्रदेश पर फैला है। वार्षिक वर्षा का औसत 38 सेमी. है। वर्षा गर्मी के साथ-साथ जाड़ों में भी होती है। जनवरी का औसत तापमान 16°C तथा जून माह का औसत तापमान 24ºC रहता है। अमृतसर इस प्रदेश का प्रतिनिधित्व करता है।
(iii) शुष्क मरूस्थलीय प्रदेशः इसमें राजस्थान का अधिकांश भाग तथा दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा शामिल हैं। वर्षा का औसत 25 सेमी. से कम रहता है, कहीं-कहीं पश्चिमी भागों में 13 सेमी. से भी कम मिलता है। जनवरी का तापमान 13ºC से 24ºC के बीच रहता है। जुलाई का औसत तापमान 43ºC के लगभग रहता है। जयपुर इस प्रदेश की जलवायु का प्रतिनिधित्व करता है।
(iv) मध्यम वर्षा का प्रदेशः इसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश का उत्तरी पठारी भाग तथा राजस्थान के कुछ पूर्वी भाग शामिल हैं। जनवरी का तापमान 15ºC से 18ºC के बीच तथा जुलाई का तापमान 33ºC से 35ºC के बीच रहता है। वार्षिक वर्षा 38 से 76 सेमी. के बीच रहती है जो अधिकांशतः ग्रीष्म में प्राप्त होती है।
(v) मध्यवर्ती प्रदेश (Transitional Region): इसमें उत्तर प्रदेश का कुछ पूर्वी भाग तथा बिहार का उत्तरी भाग शामिल है। जुलाई का तापमान 32ºC से 35ºC के बीच रहता है। वर्षा का औसत 100 से 150 सेमी. के आसपास मिलता है जो मुख्यतः मानसूनी हवाओं द्वारा होती है।
(ख) उष्ण कटिबन्धीय भारत
कर्क रेखा रेखा के दक्षिण में स्थित इस भाग में जनवरी माह का तापमान सदैव 18ºC से ऊपर रहता है। वर्षा की मात्र के आधार पर इसको निम्न उपविभागों में बांटा गया हैः
(vi) अत्यधिक वर्षा का प्रदेशः इसमें मेघालय, असम, त्रिपुरा, मिजोरम व नागालैंड शामिल हैं। वर्षा 200 सेमी. से अधिक होती है जो मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा से प्राप्त होती है। जनवरी का औसत तापमान 32ºC से 35ºC के बीच रहता है। विश्व में सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाला स्थान मासिनराम इसी प्रदेश में स्थित है।
(vii) अधिक वर्षा का प्रदेशः इस प्रदेश में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश आते हैं। जनवरी का औसत तापमान 18ºC से 24ºC तथा जुलाई का तापमान 29ºC से 35ºC के बीच रहता है। वर्षा का औसत 100 से 200 सेमी के बीच रहता है। वर्षा बंगाल की खाड़ी के मानसून से प्राप्त होने के साथ-साथ उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों से भी प्राप्त होती है। ये चक्रवात कभी-कभी काफी विनाशकारी होते हैं।
(viii) साधारण वर्षा का प्रदेशः कर्नाटक का पूर्वी भाग, आन्ध्र प्रदेश का पश्चिमी भाग, महाराष्ट्र (पश्चिमी घाट को छोड़कर), दक्षिण-पश्चिम मध्यप्रदेश तथा गुजरात इस जलवायवी प्रदेश में शामिल हैं। यह मानसून की वृष्टि छाया प्रदेश के अन्तर्गत आता है। वर्षा का औसत लगभग 76 सेमी रहता है। जनवरी में तापमान 18ºC से 24ºC तथा मई का तापमान 32ºC के लगभग रहता है। इस प्रदेश में तापमान की कम विषमता पायी जाती है।
(ix) पश्चिमी तटीय प्रदेश (कोंकण तट): नर्मदा नदी के मुहाने से लेकर केरल की उत्तरी सीमा तक का तटीय प्रदेश इसके अन्तर्गत आता है। वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहता है। शुष्क ऋतु वर्ष के सात माह तक रहती है। वर्ष का औसत तापमान 24ºC से नीचे कभी नहीं होता।
(x) पश्चिमी तटीय प्रदेश (मालाबार तट): सम्पूर्ण केरल तथा तमिलनाडु का कन्याकुमारी जिला इस जलवायु प्रदेश के अन्तर्गत आते हैं। शुष्क ऋतु वर्ष के केवल तीन माह रहती है। वर्षा 500 सेमी तक हो जाती है।
(xi) तमिलनाडु का तटीय प्रदेशः इस जलवायवी प्रदेश की विशेषता है- अपनी वर्षा का अधिकांश भाग उत्तरी-पूर्वी मानसून से नवम्बर-दिसम्बर माह में प्राप्त करना। यह वर्षा 100 से 150 सेमी. के आसपास रहती है। इस प्रकार यह मध्यम वर्षा का प्रदेश है। वर्ष भर तापमान 24ºC से 27ºC सेमी. के बीच रहता है।
स्टाम्प व केन्ड्रयू का यह जलवायवी प्रादेशीकरण सरल है तथा इसमें वर्षा व तापमान की विविधता के स्थानिक प्रतिरूप को आधार बनाया गया है, जो तर्कसंगत है।
Question : मध्य एवं निम्नतर गंगा मैदान में बाढ़ खतरों के कारणों, परिणामों और उपचारी उपायों को स्पष्ट कीजिए।
(2004)
Answer : भारत विश्व में बांग्लादेश के बाद सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित देश माना जाता है जबकि भारत में मध्य एवं निम्न गंगा मैदान बाढ़ की विभीषिका के लिए कुख्यात रहे हैं। प्रत्येक वर्ष गंगा एवं उसकी सहायक नदियां तबाही लाती हैं जिनसे जान-माल का काफी नुकसान होता है।
बाढ़ पृथ्वी के प्राकृतिक जल चक्र का ही एक अंग है परन्तु विकास एवं बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप जैसे-जैसे प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ बढ़ी है, बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ता गया है। मध्य एवं निम्न गंगा मैदान में भी प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों ने बाढ़-खतरों को काफी गंभीर बना दिया है।
जैसा कि यहां दिये गये चित्र में दिखाया गया है, मध्य एवं निम्न गंगा मैदान का अधिकांश भाग समतल मैदान है। इस प्रदेश में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों का एक विस्तृत जाल बिछा हुआ है। मध्य गंगा मैदान में सोन, गोमती, घाघरा, गण्डक, कोसी इत्यादि गंगा की प्रमुख सहायक नदियां हैं, जिनमें अधिकांश काफी दूर तक एक-दूसरे के समानान्तर बहकर गंगा में मिल जाती हैं। निम्न गंगा मैदान में पद्मा, भागीरथी, महानन्दा, करातोया, तिस्ता, संकोश, मयूराक्षी, दामोदर, द्वारकेश्वर व सुवर्ण रेखा आदि नदियां गंगा एवं ब्रह्मपुत्र के अलावा महत्वपूर्ण नदियां हैं।
इन नदियों का जलसंग्रह क्षेत्र काफी बड़ा है। अतः इन नदियों में जल की काफी मात्र का संग्रह हो जाता है, जो बाढ़ लाने में सहायक होता है। इसके अलावा इन नदियों का जलसंग्रह क्षेत्र उच्च वर्षा वाले क्षेत्र में पड़ता है।
इनमें से अधिकांश नदियों के (गंगा एवं ब्रह्मपुत्र की उत्तरी सहायक नदियां) जलसंग्रह क्षेत्र का एक भाग हिमालय पर्वतीय प्रदेश में पड़ता है जहां भारी वर्षा होती है। इसके अलावा वर्षा का 80 प्रतिशत भाग सिर्फ जून से सितम्बर के मध्य हो जाता है, जिसके कारण वार्षिक धरातलीय प्रवाह एवं अवसाद भार का अधिकांश भाग (80 प्रतिशत तक) जून-सितम्बर के मध्य होता है। ये सभी नदियां जलराशि के साथ-साथ भारी मात्र में अवसाद लाती हैं।
ये नदियां हिमालय पर्वतीय प्रदेश में काफी तीव्र ढाल के साथ बहती हैं जिससे तीव्र अपरदन होता है एवं नदियों में अवसाद भार अधिक होता जाता है। परन्तु मैदान में नीचे उतरते ही ढाल प्रवणता एकाएक कम हो जाने से उनकी जलवहन शक्ति कम हो जाती है जिससे पानी उफनकर दूर-दूर तक फैल जाता है। उदाहरणस्वरूप कोसी की ढाल प्रवणता ऊपरी भाग में 47मी./किमी हो जाती है। परन्तु चतरा के मैदान में यह सिर्फ एक मीटर प्रति किमी. हो जाती है। इस ढाल में कमी के कारण नदी अपने अवसाद को मैदान में जमा करने लगती है जिससे इन नदियों की तली उथली हो गयी है, फलतः इनका बाढ़ प्रभाव क्षेत्र भी व्यापक हो गया है।
इस उच्च अवसादी करण का एक और प्रभाव यह होता है कि नदियों का प्राकृतिक अपवाह बाधित होता है एवं नदियों के मार्ग स्थानांतरित होने लगते हैं। कई नदियों के ऐसे पुराने छोड़े हुए मार्ग बाढ़ के दौरान अपवाह चैनल का काम करते हैं जो बाढ़ के प्रभाव को बढ़ाता है। इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण नदी में विसर्पीकरण अधिक होता है, जिसके फलस्वरूप नदियों का वेग कम हो जाता है एवं नदी जल प्रवाहित होकर शीघ्र बह नहीं पाता।
मध्य व निम्न गंगा मैदान में बाढ़ की गंभीरता का एक अन्य कारण है मैदान में भू-जल स्तर का ऊंचा होना, जिसके कारण बाढ़ का जल रिस कर भीतर नहीं जा पाता एवं जल जमाव काफी दिनों तक बना रहता है।
हाल के समय में बाढ़ की तीव्रता एवं बारम्बारता में वृद्धि के लिए मानवीय कारक जिम्मेदार रहे हैं। नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों खासकर हिमालय में वनों की कटाई तथा विकास कार्यों के फलस्वरूप अपरदन तीव्र हुआ है एवं नदियों में अवसाद की मात्र बढ़ रही है, जिसके प्रभाव की चर्चा पहले की जा चुकी है। इसके अलावा पर्वतीय ढालों पर अवैज्ञानिक कृषि तथा नगरीकरण के फलस्वरूप धरातलीय प्रवाह में वृद्धि हुई है जिसके कारण बाढ़ के प्रभाव में भी वृद्धि हुई है।
मध्य व निम्न गंगा मैदान में बाढ़ की विभीषिका बढ़ाने में एक प्रमुख मानवीय कारण है, इस क्षेत्र की अधिकांश उत्तर-दक्षिण बहती नदियों के आर-पार पुल, सड़क व रेलमार्ग का निर्माण, जिससे इन नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बाधिक होता है। अन्य अनुषंगी मानवीय कारण जैसे निम्न भूमि में अधिवासों का फैलाव, बाढ़ की आशंका वाले इलाकों का मनुष्य द्वारा अतिक्रमण एवं कृषि हेतु ताल-तलैया एवं झीलों को पाटना जिसके कारण इन क्षेत्रों की जलधारण क्षमता कम हो गयी है, भी बाढ़ की विभीषिका गहन करने में योगदान करते हैं। इसके अलावा नदियों पर अनेक लम्बायत तटबंध बनाये गये हैं, जिससे स्थानीय वर्षा जल की निकासी अवरूद्ध हो गयी है।
बाढ़ के परिणामों में दीर्घकालीन आंकड़ों के अनुसार हर साल बाढ़ से फसलों, मकानों तथा सार्वजनिक संपत्ति को औसतन 10 अरब रुपये की क्षति होती है (मूल्यवृद्धि के कारण इसमें लगातार बढ़ोत्तरी ही होगी)। नुकसान का एक बड़ा भाग मध्य व निम्न गंगा मैदान में होता है। मनुष्यों व मवेशियों की जो जानें जाती हैं वे तो अमूल्य हैं। मध्य व निम्न गंगा मैदान आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है। बहुसंख्यक गरीब जनता तथा सघन जनघनत्व के कारण बाढ़ एक सामाजिक विपदा भी बन जाती है। एक बाढ़ से फिर दूसरे बाढ़ तक आपदा का एक चक्र शुरू हो जाता है।
उपचारी उपाय
पूर्व में बाढ़-नियंत्रण के लिए भौतिक उपायों पर ज्यादा बल दिया जाता था परन्तु अब नवीनतम सोच यह है कि इसके लिए गैर-संरचनात्मक उपाय अपनाये जाने चाहिए। बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्र का निर्धारण, बाढ़ के पूर्वानुमान और बाढ़ सुरक्षा के उपायों पर अधिक ध्यान देकर नुकसान को कम करने और लोगों को राहत पहुंचाने में मदद मिल सकती है। मध्य व निम्न गंगा मैदान में बाढ़ की रोकथाम के लिए उपचारी उपाय निम्न हैं-
Question : हिमालयी एवं प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्रों के बीच के प्रमुख अंतरों पर प्रकाश डालिए।
(2003)
Answer : भारत विविध स्थलाकृतियों का विशाल देश है। अतः भारत के विविध क्षेत्रों में अलग-अलग तरह के अपवाह तंत्र विकसित हुए हैं। भौगोलिक विशेषताओं व स्रोतों की विशेषताओं के आधार पर भारत के अपवाह तंत्र को दो भागों में बांटा जा सकता हैः
(i) हिमालय पर्वत से निकलने वाली नदियों का अपवाह तंत्र तथा
(ii) प्रायद्वीपीय पठारों से निकलने वाली नदियों का अपवाह तंत्र।
इन दो अपवाह तंत्रों के विकास पर भूगर्भिक संरचना, धरातलीय उच्चावच, वर्षण तथा अन्य जलवायविक विशेषताओं का प्रभाव पड़ा है। यही कारण है कि इन दो स्रोतों से निकलने वाली नदियों के अपवाह तंत्रों में कुछ मूलभूत विषमताएं हैं। इन दो अपवाह तंत्रों के अन्तर को नीचे तुलनात्मक अध्ययन में स्पष्ट किया गया है।
(1) हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली नदियां पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। अर्थात हिमालय पर्वत के उत्थान से पहली ही सिंधु, झेलम, सतलज, ब्रह्मपुत्र, कोसी तथा गंडक जैसी नदियां इस क्षेत्र से प्रवाहित होती रही हैं। लेकिन दक्षिणी पठार की नदियां अनुवर्ती अपवाह तंत्र का निर्माण करती हैं, क्योंकि इन नदियों का उद्गम पठारों के निर्माण के बाद हुआ है। यही वजह है कि सिंधु, ब्रह्मपुत्र तथा झेलम जैसी नदियां निरंतर गहरे गार्ज का निर्माण कर रही हैं, जबकि प्रायद्वीपीय नदियां केवल छोटे गार्ज (200 मी. तक) का ही निर्माण कर सकी हैं।
(2) इन दो क्षेत्रों के उपर से बहने वाली नदियों के आधारभूत चट्टानों के संरचनात्मक स्वरूप में विषमता के कारण कई प्रकार के नदीय भूदृश्य भी विकसित होते हैं। हिमालय क्षेत्र की नदियां तीव्र तलीय अपरदन के कारण पर्वतीय प्रदेशों में वृक्षाकार अपवाह तंत्र को विकसित करती हैं। लेकिन ज्योंही वो ऊपरी मैदान में आती है, तो सामानान्तर अपवाह प्रणाली, मध्य भाग में विसर्पाकार तथा निम्न मैदान में वितरिकाओं से युक्त डेल्टाई अपवाह तंत्र को विकसित करती हैं।
(3) हिमालय प्रदेश की नदियां अपने स्रोत क्षेत्र में अति तीव्र गति से तलीय अपरदन करती हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्र में इनका तलीय अपरदन कम होता है। इसका मूल कारण निक्षेप से निर्मित ढाल का कम होना है।
प्रायद्वीपीय भारत की स्थिति तुलनात्मक दृष्टिकोण से भिन्न है। यह अति प्राचीन पठारी भाग है, जहां अधिकतर नदियों द्वारा अपरदन का कार्य धीमा किया जा चुका है तथा लगभग अपने आधार तल को प्राप्त कर चुकी हैं।
(4) हिमालयी स्रोत से निकलने वाली नदियों में साल भर जल प्रवाह होता है। ये सदाबहार नदियां हैं। इसके विपरीत प्रायद्वीपीय स्रोतों से निकलने वाली नदियां मौसमी होती हैं। अतः ये वर्ष के अधिकांश समय में जलाभाव से ग्रसित होती हैं।
हिमालय क्षेत्र की नदियां मानसून के समय अत्यधिक जल को अपने साथ लाती हैं तथा मध्य मैदानों में ढाल की कमी के कारण विस्तृत क्षेत्रों में बाढ़ के मैदान जैसा भूदृश्य उत्पन्न करती हैं। बाढ़ की अवधि लम्बी होने के कारण काफी विस्तृत क्षेत्रों पर गाद का निक्षेपण होता है।
इसके विपरीत प्रायद्वीपीय नदियों में बाढ़ की अवधि छोटी होती है तथा कुछ समय के बाद नदियां अपने घाटी क्षेत्र में लौट जाती हैं। कठोर चट्टानों की संरचना के कारण ये नदियां बहुत कम गाद को निक्षेपित कर पाती हैं।
(5) हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली नदियां मैदानी भागों में विस्तृत विसर्पीकरण को प्रदर्शित करती हैं, जिससे उसके मार्गों में परिवर्तन होते रहते हैं। जैसे कोसी नदी। जबकि प्रायद्वीपीय नदी तंत्र इस प्रकार की गतिविधियों से लगभग मुक्त है।
(6) उच्च पर्वतीय क्षेत्रों की नदियां तुलनात्मक दृष्टि से अधिक लंबी हैं, क्योंकि इनका स्रोत समुद्री क्षेत्र से दूर है। पुनः इनका मार्ग सीधा नहीं है, अतः समुद्र तक पहुंचने के लिए इन्हें स्वतः अधिक दूरी तय करनी पड़ती है।
विपरीत प्रायद्वीपीय भारत की नदियां तुलनात्मक रूप से छोटी होती हैं। इस क्षेत्र की सबसे लंबी नदी गोदावरी है, जिसकी लंबाई 1465 किमी. है। पुनः इनके मार्ग कम टेढ़े-मेढ़े हैं, अतः स्वभाविक रूप से इन्हें समुद्र तक पहुंचने के लिए कम दूरी तय करनी पड़ती है।
(7) हिमालयी क्षेत्र की कोई भी नदी पठारी क्षेत्र की नदी की सहायक नदी है, लेकिन पठारी क्षेत्र की कई नदियां हिमालय क्षेत्र की नदी की सहायिका हैं।
पुनः हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली नदियां पर्वतीय क्षेत्रों में ही जलप्रपात, अच्छलिका व जलगर्तिका का निर्माण करती हैं, लेकिन प्रायद्वीपीय क्षेत्र की प्रायः सभी नदियां अपने सम्पूर्ण मार्ग में जलप्रपात एवं जलगर्तिका का निर्माण करती हैं। अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि हिमालय स्रोत एवं प्रायद्वीपीय स्रोत से निकलने वाली नदियों में कई आधारभूत विषमताएं हैं।
Question : भारत के सूखा प्रवण क्षेत्रों की पहचान कीजिए तथा उनके विकास के उपायों पर चर्चा कीजिए
(2003)
Answer : भारत में 75 सेमी. से कम वार्षिक वर्षा का क्षेत्र सूखा प्रवण क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। इन क्षेत्रों में पं- राजस्थान, कच्छ का रण, दक्षिण भारत का वृष्टि छाया प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, लद्दाख का पठार, हिमाचल का उत्तर-पूर्व भाग तथा आंध्र प्रदेश का पठारी भाग प्रमुख है।
इन क्षेत्रों में विकास हेतु दो तरह के कार्यक्रम अपनाये गये हैं: अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन कार्यक्रम। प्रथम प्रकार के कार्यक्रम के तहत पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था, पेयजल की आपूर्ति एवं काम के बदले अनाज कार्यक्रम प्रमुख हैं।
दीर्घकालीन विकास के तहत निम्नलिखित प्रकार के विकास कार्यक्रमों को अपनाया गया हैः
(i) वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के रूप में पशुपालन कृषि को बढ़ावा दिया गया है।
(ii) सूख प्रवण क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं का विकास किया गया है। जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान का गंगानगर जिला।
(iii) जल की मितव्ययिता के लिए ड्रिप एवं स्प्रिंकल सिंचाई को बढ़ावा दिया गया है। यह मुख्य रूप से कर्नाटक एवं राजस्थान में अपनाया गया है।
(iv) सूखा ग्रसित क्षेत्रों में वानिकी विकास कार्यक्रम को प्राथमिकता दी गयी है, जिससे मृदा नमी की सुरक्षा एवं फसलों के वाष्पीकरण को कम करने में मदद मिली है।
(v) सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए विशेष प्रकार के संकर बीज उपलब्ध कराये गये हैं। जैसेः
कपास - PRS-72
अरहर - AC-5
मूंग - पूसा, बैशाखी इत्यादि
(vi) भूमि की गहरी जुताई के लिए कृषकों को लोहे के इल उपलब्ध कराये गये हैं।
(vii) 7वीं पंचवर्षीय योजना में कृषि जलवायु प्रादेशिकरण के अन्तर्गत सूखा प्रवण क्षेत्रों के लिए फसल प्रारूप एवं फसल चक्र को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
(viii) 8वीं पंचवर्षीय योजना से वाटर शेड प्रबंध कार्यक्रम को भी सूख ग्रसित क्षेत्रों में प्रधानता से लागू की जा रही है।
इसके अलावा 1976-77 से सूखा प्रभावित क्षेत्र विकास कार्यक्रम की विशेष कार्यक्रम के रूप में आरंभ किया गया है, जो केन्द एवं राज्य की समान साझेदारी से चलायी जा रही है। यह एक प्रखंड स्तरीय कार्यक्रम है। इस प्रकार सूखा प्रभावित क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया गया है।
Question : भारत में ग्रीष्मकालीन मानसून की उत्पत्ति, क्रियाविधि एवं विशेषताओं की व्याख्या करें।
(2002)
Answer : मानसून शब्द मूल रूप से अरबी भाषा के मौसिम शब्द से बना है, जिसका तात्पर्य मौसम से होता है। जिन हवाओं की दिशा ऋतु के अनुसार बदल जाती है, उनको मानसून या मौसमी वायु कहते हैं। मानसून हवाओं की उत्पत्ति केवल उन्हीं क्षेत्रों में संभव है, जहां अयन रेखाओं के पास एक ओर स्थल का विस्तृत भाग हो और दूसरी ओर समुद्र का विस्तृत भाग हो। अयन रेखाओं के पास ही इन हवाओं की उत्पत्ति का विशेष कारण यह है कि यहां जल और स्थल तापक्रम की मात्र और वायुभार में काफी अंतर होता है।
1950 के बाद भारतीय मानसून की उत्पत्ति से संबंधित किए गये शोध कार्यों के फलस्वरूप यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि भारतीय मानसून की उत्पत्ति तथा कार्यविधि का संबंध निम्न तथ्यों से हैः
भारतीय मानसून की ग्रीष्मकालीन स्थिति
भारतीय मानसून की शरदकालीन स्थिति
अप्रैल से सूर्य की उत्तरायण स्थिति प्रारंभ (21 मार्च के बाद से) हो जाती है जिससे ध्र्रुवीय धरातलीय उच्च वायुदाब कमजोर होने लगता है। इसके कारण शरद काल में इसका 20°-35° उत्तरी अक्षांश तक बढ़ा हुआ भाग उत्तर की ओर खिसकने लगता है। उच्चतलीय ध्रुवीय भंवर के उत्तर की ओर खिसकाव के कारण उच्च तापीय पछुआ जेट स्ट्रीम भी उत्तर की ओर खिसकने लगता है। इस तरह शीतकालीन जेट स्ट्रीम (ध्रुवीय भंवर) की गतिक शक्ति में शिथिलता आने लगती है, जिसके कारण वह पछुआ जेट स्ट्रीम की दक्षिणी शाखा (हिमालय के दक्षिण में) को कायम नहीं रख पाती है। अतः पछुआ जेट स्ट्रीम और उत्तर की ओर (हिमालय तथा तिब्बत पठार के उत्तर) खिसक जाती है। भारत से जेट स्ट्रीम का पूर्ण लोप, मध्य जून या उसके बाद संभव हो पाता है। मार्च तथा मध्य जून तक का मौसम जेट स्ट्रीम के उत्तर की ओर खिसकाव तथा धरातलीय तापीय दशा द्वारा प्रभावित होता है।
अन्तरा अयनवर्तीय समवाय
अप्रैल-मई में दक्षिण-पूर्व पाकिस्तान तथा उत्तर-पश्चिम भारत पर सूर्यातप से धरातल के गर्म होने के कारण धरातल पर तापीय निम्न दाब बन जाता है। परंतु जब तक इस धरातलीय निम्न दाब के ऊपर जेट स्ट्रीम की स्थिति बनी रहती है, तब तक वह अफगानिस्तान, उ-प- भारत पर गतिक चक्रवात को कायम रखती है। इस उच्च तापीय उच्चदाब से नीचे बैठने वाली हवा धरातलीय तापीय निम्नदाब से वायु को ऊपर उठने से रोकती है, जिस कारण मौसम गर्म तथा शुष्क बना रहता है। यही कारण है कि अप्रैल-मई में उच्च तापमान तथा वाष्पीकरण के बावजूद वर्षा नहीं हो पाती है। जून के प्रथम सप्ताह तक भारत के ऊपर से धरातलीय उच्च वायुदाब पछुआ जेट स्ट्रीम के उत्तर खिसक जाने से समाप्त हो जाती है। जब जेट स्ट्रीम की स्थिति तिब्बत पठार के और उत्तर हो जाती है तथा इसके प्रवाह मार्ग का वक्र शरद कालीन मार्ग के विपरीत हो जाता है। ईरान के उत्तरी भाग एवं अफगानिस्तान के ऊपर उच्च तापीय जेट स्ट्रीम का प्रवाह मार्ग चक्रवातीय वक्र के रूप में होता है, जिस कारण वायु के ऊपरी भाग में गतिक निम्न दाब तथा चक्रवातीय दशा बन जाती है। इस उच्चतलीय निम्न दाब की स्थिति भारत-पाकिस्तान (उ.प. भाग) तक हो जाती है, जिसके निचले धरातल पर पहले ही तापीय निम्न दाब बन चुका होता है। इस स्थिति के कारण नीचे से हवा ऊपर तो उठती ही है। धरातलीय निम्न दाब के ऊपर स्थित उच्च तापीय निम्न दाब नीचे से ऊपर उठने वाली हवा को और अधिक ऊपर खींचता है, जिस कारण द-पू- मानसून का अचानक प्रस्फोट हो जाता है।
द.पू. मानसून का आगमन
द.पू. मानसून का प्रत्यावर्तन
उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्मकालीन स्थिति की तुलना में दक्षिण गोलार्द्ध में विपरीत स्थिति होती है। दक्षिण ध्रुवीय भंवर अधिक विस्तृत हो जाता है, जिसका विस्तार भूमध्य रेखा के करीब तक हो जाता है, परिणामस्वरूप अन्तर उष्ण कटिबंधीय समवाय भूमध्य रेखा के उत्तर धकेल दिया जाता है। दक्षिण ध्रुवीय भंवर के इस प्रत्याकर्षण कारक के कारण दक्षिण-पूर्व व्यापारिक वायु भूमध्यरेखा को पार करने पर विशेष बल यानि कोरिआलिस बल के कारण दक्षिण-पूर्व दिशा होकर तेजी से भारत के ऊपर झपटती है। अंतर ऊष्ण कटिबंधीय समवाय की तीव्र गति से उत्तर की ओर बढ़ना दक्षिण से परिध्रुवीय भंवर के द्वारा धकेलने के कारण ही संभव होता है, न कि उत्तर-पश्चिम भारत के धरातलीय तापजन्य निम्नदाब के द्वारा खींचने के कारण होता है। इतना अवश्य है कि इस निम्नदाब के कारण अंतर ऊष्ण कटिबंधीय समवाय के उत्तर की ओर बढ़ने की गति कुछ और तेज हो जाती है। अंतर ऊष्ण कटिबंधीय समवाय में वाताग्री चक्रवात न होकर गतिजन्य लहरें होती हैं, जो भारत के ऊपर आने पर चक्रवातीय भंवर के रूप में विस्थापित हो जाती हैं। भारत की ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा इन्हीं चक्रवातीय भंवरों के विकास चक्र के कारण होती है। अर्थात जब ये विकसित होते हैं, तो तीव्र वर्षा होती है और जब इनका अवसान हो, तो शुष्क मौसम हो जाता है और तब तक जारी रहता है जब तक नया चक्रवातीय भंवर विकसित न हो जाए।
भारत में मानसूनी वर्षा की मात्र में अत्याधिक स्थानिक तथा कालिक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के कारणों में उच्चावच का प्रभाव सर्वाधिक होता है। दक्षिण पूर्वी मानसून की अरब सागर की शाखा पश्चिमी घाट के अवरोध के कारण अचानक ऊपर उठती है तथा पश्चिमी घाट के शिखर के सहारे घनघोर वृष्टि करती है। पश्चिमी घाट के पूर्व में हवा नीचे उतरती है, जिस कारण हवा गर्म होती है और कम वर्षा होती है तथा यह भाग वृष्टि छाया प्रदेश में आता है। बंगाल की खाड़ी की शाखा को हिमालय दो रूपों में प्रभावित करता है। (i) पर्वतीय अवरोध के कारण वायु ऊपर उठती है तथा पर्याप्त वृष्टि प्रदान करती है। (ii) पर्वतीय अवरोध के कारण वायु उसके सहारे पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होने लगती है, जिस कारण मानसून गंगा घाटी में पश्चिम तक पहुंच पाती है तथा उत्तर-पश्चिम भाग तक वृष्टि प्रदान करती है। भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग (थार रेगिस्तान) में धरातल पर सकल तापीय निम्न दाब के बावजूद न्यूनतम वर्षा होती है। सामान्य रूप से इसका कारण अरावली पहाडि़यों की अरब सागरीय शाखा की मानसून हवाओं के समानांतर स्थिति को बताया जाता रहा है, परंतु इसका प्रमुख कारण यह है कि मानसून प्रवाह की मोटाई यहां पर धरातलीय तापीय निम्नदाब के ऊपर उच्च तलीय गतिजन्य प्रति चक्रवातीय दशा पर आधारित होती है, जिस कारण हवा का तेजी से ऊपर उठना संभव नहीं हो पाता है। जब कभी यह उच्च तापीय दाब पश्चिम की ओर खिसक जाता है, तो मानसून तेजी से ऊपर उठता है और घनघोर वर्षा हो जाती है।
Question : भारतीय उत्तरी मैदानों के उच्चावच लक्षणों का विवेचन कीजिये।
(2001)
Answer : भारत का उत्तर का मैदान उत्तर में हिमाचल एवं दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार के मध्य विस्तृत है। इस मैदान का निर्माण सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा लाये गये अवसादों से हुआ है, अतः इस मैदान को सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान भी कहा जाता है। यह मैदान पश्चिम में पंजाब की सीमा से लेकर पूर्व में नागालैंड तक लगभग 2500 किमी की लंबाई में फैला हुआ है। इस मैदान की चौड़ाई 100 से 500 किलोमीटर के बीच है। पूर्व से पश्चिम की ओर मैदान की चौड़ाई बढ़ती जाती है। हिमालय के निर्माण के पश्चात इसके दक्षिण में एक गर्त्त का निर्माण हुआ। नदियों द्वारा लाये गये अवसादों के निक्षेपण के फलस्वरूप गर्त्त के भर जाने से उत्तरी मैदान का निर्माण हुआ। इस मैदान में निक्षेपित जलोढ़ की गहराई 200 मीटर तक पायी जाती है। हिमालय के निकट जलोढ़ की गहराई अधिक है, जबकि प्रायद्वीपीय पठार के निकट जलोढ़ की गहराई कम होती जाती है।
हिमालय के ठीक दक्षिण इस मैदान को ‘भाबर का मैदान’ कहा जाता है। इसकी ऊंचाई 300 मीटर तक है। यह शिवालिक का पर्वतपाद क्षेत्र है एवं इसे शिवालिक का ‘जलोढ़ पंख’ भी कहा जाता है। हिमालय से निकलने वाली नदियां जब पर्वत से समतल क्षेत्र में उतरती हैं तो वे अपने साथ लाये गये कंकड़ों एवं पत्थरों को निक्षेपित कर देती हैं। इसी निक्षेपण के फलस्वरूप भाबर के मैदान का निर्माण हुआ है। यहां कंकड़ एवं पत्थर की पारगम्यता अधिक होने के कारण नदियां विलुप्त हो जाती हैं। भाबर के ठीक दक्षिण में तराई का मैदान स्थित है। इस प्रदेश में भाबर प्रदेश की विलुप्त नदियां पुनः सतह पर प्रकट हो जाती हैं। भाबर की तुलना में तराई का मैदान अधिक समतल है, अतः इस प्रदेश में नदियों के जल के फैलाव के कारण दलदल का निर्माण हुआ है। उत्तर के विशाल मैदान का वह भाग जहां सामान्यतः बाढ़ का पानी नहीं पहुंच पाता है, बांगर के मैदान के नाम से जाना जाता है। सतलज के मैदान एवं गंगा के मैदान के ऊपरी भाग में बांगर की ही अधिकता है। खादर प्रदेश में नदियों का जल सामान्यतः प्रतिवर्ष पहुंचता रहता है एवं इसका नवीनीकरण होता रहता है। खादर की तुलना में बांगर प्रदेश की ऊंचाई अपेक्षाकृत अधिक है, परंतु ऊंचाई के उतार-चढ़ाव इस प्रकार हैं कि सरसरी दृष्टि से देखने पर बांगर एवं खादर में बहुत ही कम अंतर दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि इस मैदान में धरातल के उतार-चढ़ाव समुद्र की लहरों की भांति लहराते हुए प्रतीत होते हैं। खादर प्रदेश का विस्तार मध्य एवं निम्न डेल्टाई भाग में पाया जाता है।
उच्चावच के आधार पर उत्तरी विशाल मैदान का वर्गीकरण करना अत्यंत कठिन कार्य है। इसकी सतह समतल एवं एकसार है तथा समुद्र तल से इसकी अधिकतम ऊंचाई 300 मीटर तक है। यह ऊंचा भाग सहारनपुर, अंबाला एवं लुधियाना के बीच फैला हुआ है। यह उच्च भू-भाग ही गंगा एवं सिंधु तंत्र के बीच जल-विभाजक का कार्य करता है। गंगा-सिंधु मैदान की औसत ढाल मात्र 20 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर है। जैसे-जैसे गंगा नदी के मध्य व निम्न घाटी की ओर बढ़ते हैं, यह ढाल और भी अधिक मंद होती जाती है। वाराणसी से गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा तक ढाल का औसत और भी कम होकर 15 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर रह जाता है। उच्चावच के आधार पर इस मैदान को 4 मुख्य विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः
पंजाब-हरियाणा के मैदान को सतलज-यमुना विभाजक के नाम से भी जाना जाता है। इस मैदान की ढाल उत्तर एवं उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर है। इस मैदान की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 250 मीटर है। उत्तरी भाग में यह ऊंचाई 300 मीटर तक है जबकि दक्षिण- पूर्वी भाग में यह 210 मीटर है। नदियों के मध्यवर्ती भाग में मैदान की ऊंचाई अपेक्षाकृत अधिक पायी जाती है, जिसे दोआब के नाम से जाना जाता है। जैसे-रावी एवं व्यास नदियों के बीच अपर बारी दोआब तथा व्यास एवं सतलज के बीच बिस्त दोआब आदि। पंजाब के मौदान की ढाल अधिक होने के कारण इस भाग में नदियां समानांतर प्रवाह प्रतिरूप का निर्माण करती हैं। इस मैदान के दक्षिणी भाग में रेतीले टीले पाये जाते हैं।
राजस्थान का मैदान एक समतल शुष्क मैदानी प्रदेश है, जिसकी ढाल पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण की ओर है। उत्तर-पूर्व में इसकी ऊंचाई लगभग 300 मीटर है जो दक्षिणी भाग में घटकर मात्र 150 मीटर रह जाती है। इस मैदान के चारों ओर रेतीले टीले बिखरे हुए मिलते हैं। पश्चिमी भाग के इन टीलों की संख्या अधिक है। इन टीलों की ऊंचाई 25 मीटर तक होती है एवं लंबाई 3 किमी. तक पायी जाती है। जैसलमेर-बाड़मेर तथा बीकानेर क्षेत्र में बालूका स्तूप के साथ-साथ चट्टानी मैदान भी देखने को मिलते हैं।
गंगा का मैदान उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में फैला हुआ है। इस मैदान की ढाल सामान्यतः उत्तर एवं उत्तर-पश्चिम से दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व की ओर है। मैदान के दक्षिणी भाग की ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। इस मैदान को पुनः तीन उप-विभागों में विभाजित किया जाता है। ऊपरी मैदान की ऊंचाई 300 से 100 मीटर के बीच है। इस मैदान के उत्तरी भाग की ढाल दक्षिण एवं पूर्वी भाग की तुलना में अधिक है। ऊपरी गंगा का मैदान पूर्ण रूप से समतल है। भाबर एवं तराई पेटियों के निकट धरातल में मामूली विविधता पायी जाती है। कहीं-कहीं नदियों ने भी स्थानीय विभिन्नताएं उत्पन्न की हैं। धरातलीय सूक्ष्म विविधताओं को ध्यान में रखते हुए इस मैदान को भाबर पेटी, गंगा-घाघरा दोआब प्रदेश, गंगा-यमुना दोआब प्रदेश तथा यमुनापार स्थित बीहड़ प्रदेश में विभाजित किया जा सकता है। मध्य गंगा मैदान का विस्तार बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में पाया जाता है। इस मैदान की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 100 मीटर से भी कम है। पश्चिमी भाग में ऊंचाई 130 मीटर तक पायी जाती है, जबकि पूर्वी भाग में यह ऊंचाई मात्र 30 मीटर तक रह जाती है। इस मैदान में खादर का विस्तार पाया जाता है। अधिक वर्षा एवं ढाल कम होने के कारण यह एक बाढ़ग्रस्त क्षेत्र है। निम्न गंगा का मैदान अत्यंत ही समतल है, जिसका विस्तार पश्चिम बंगाल में पाया जाता है। इस मैदान की समुद्र तल से अधिकतम ऊंचाई मात्र 50 मीटर है। दक्षिण भाग में मैदान की ऊंचाई मात्र 15 मीटर है। डेल्टाई क्षेत्र में इस मैदान की ढाल मात्र 2 सेमी. प्रति किलोमीटर है। इस भाग में गंगा नदी अनेक वितरिकाओं में विभाजित हो गयी है। इस मैदान का अधिकांश डेल्टाई भाग दलदली है। इस डेल्टा के ऊपरी भाग में कहीं-कहीं कुछ टीले या नदियों के पुराने चर पाये जाते हैं। ये उभरे भाग गांवों के बसाव स्थान के रूप में प्रयोग किये जाते हैं।
ब्रह्मपुत्र का मैदान मेघालय पठार एवं हिमालय पर्वत के बीच एक लंबा एक संकरा मैदान है। इस मैदान की ढाल दक्षिण-पश्चिम की ओर है। पूर्वी भाग में मैदान की ऊंचाई 130 मीटर तथा पश्चिम भाग में मात्र 30 मीटर है। हालांकि इस मैदान की ढाल मंद है। परंतु उत्तरी सीमा पर ढाल तीव्र है। इस मैदान में अनेक नदी द्वीप पाये जाते हैं। यह मैदान भी बाढ़ग्रस्त है।
Question : भारत के प्रायद्वीपीय पठार के द्वितीय कोटि के क्षेत्रों का संक्षिप्त विवरण दीजिये।
(2001)
Answer : भारत का प्रायद्वीपीय पठार विश्व का प्राचीनतम पठार है। यह पठार अनेक धरातलीय विविधताओं से परिपूर्ण है। विभिन्न पर्वतों एवं नदियों की उपस्थिति के कारण यह पठार अनेक छोटे-छोटे पठारों में विभक्त हो चुका है। पठार के पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम पार्श्व पर अरावली की अवशिष्ट पर्वत श्रेणियां स्थित हैं, जो अत्यधिक अनाच्छादित एवं विच्छिन्न श्रृंखला ओं के रूप में पायी जाती हैं। पठार के उत्तर में विंध्यन की पहाड़ी है जो प्राचीन मोड़दार पर्वत है। पठार के उत्तर-पूर्वी भाग में राजमहल की पहाड़ी है, जिसका निर्माण ज्वालामुखी लावा द्वारा हुआ है। पठार के पूर्वी भाग में स्थित पूर्वी घाट पर्वत में नदियों के अपरदन के कारण यहां कई अलग-अलग पहाडि़यां देखने को मिलती हैं, जैसे जावदी पहाड़ी, जिंग्जी पहाड़ी, कोलामलाई पहाड़ी, शेवराय पहाड़ी बिलगिरि पहाड़ी आदि। पूर्वी घाट पर्वत के पूर्वी भाग में चार्कोनाइट एवं खंडोलाइट चट्टानें पायी जाती हैं, जबकि मध्य भाग क्वार्टजाइट एवं स्लेट जैसी चट्टानों से निर्मित है। प्रायद्वीपीय पठार के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी घाट पर्वत है, जिसकी औसत ऊंचाई 1200 मीटर है। पश्चिमी घाट पर्वत वास्तविक पर्वत नहीं बल्कि प्रायद्वीपीय पठार का अपरदित खड़ा कगार है। इसकी सर्वोच्च चोटी कुद्रेमुख (1892 मी.) है। पश्चिमी घाट पर्वत में थाल घाट, भोर धार, पाल घाट आदि महत्वपूर्ण दर्रे हैं। पश्चिमी घाट एवं पूर्वी घाट के मिलन स्थल पर नीलगिरि की पहाड़ी है जिसकी सर्वोच्च चोटी दोदाबेटा (2637 मी.) है। नीलगिरि की पहाड़ी के निकट ही अन्नामलाई, कार्डामम एवं पालनी की पहाड़ी स्थित है। दक्षिण भारत की सर्वोच्च चोटी अनाइमुड़ी अन्नामलाई की पहाड़ी पर स्थित है। गारो, खासी एवं जयंतिया की पहाडि़यां भी सरंचना की दृष्टि से प्रायद्वीपीय भारत के अंग हैं। विंध्यन एवं सतपुड़ा के मध्य अन्तरास्थापित नर्मदा एवं ताप्ती की भ्रंश घाटियां स्थित हैं।
दक्कन लावा का पठार सामान्यतः एक समरूप उच्चावच का क्षेत्र है। इस लावा पठार का पश्चिमी विस्तार काठियावाड़ प्रायद्वीप तक पाया जाता है। दक्षिण की ओार दक्कन लावा संरचना का स्थान कर्नाटक पठार पर ग्रेनाइट तथा नीस की संरचना ले लेती है। बाबा बूदन की पहाड़ी इसी पठार पर स्थित है। आंध्र प्रदेश में तेलंगाना का पठार स्थित है। छोटानागपुर का पठार ग्रेनाइट एवं नीस चट्टðानों से निर्मित है। इसकी औसत ऊंचाई 700 मीटर है। इस पठार पर उत्थित सम्प्राय मैदान एवं मोनेडनॉक देखने को मिलते हैं। मालवा का पठार एक लावा निर्मित पठार है एवं इस पठार पर उर्मिल मैदान देखने को मिलते हैं। बुंदेलखंड का कटा-फटा पठार पूर्व की ओकर स्थित है। इस पठार पर टेकरीनुमा पहाडि़यां एवं डाइक देखने को मिलते हैं। बघेलखंड का पठार बलुआ पत्थर, चूना-पत्थर एवं ग्रेनाइट से निर्मित है। इसके उत्तर में सोनपुर एवं दक्षिण में रायगढ़ की पहाडि़यां स्थित हैं। छत्तीसगढ़ में स्थित दंडकारण्य का पठार अत्यंत ही ऊबड़-खाबड़ पठार है।
Question : भारत में भूकंपों के क्षेत्रीय वितरण के भौगोलिक लक्षणों को स्पष्ट कीजिये।
(2001)
Answer : भारत के प्राकृतिक विभागों एवं भूकंप क्षेत्रों में काफी गहरा संबंध पाया जाता है। प्राकृतिक विभागों के अनुरूप ही भूकंप के क्षेत्रीय वितरण की दृष्टि से भारत को प्राकृतिक विभागों के अनुरूप ही तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता हैः
1. हिमालय क्षेत्र: यह उत्तरी भूकंप क्षेत्र है, जिसमें हिमालय पर्वत एवं उसका समीपवर्ती क्षेत्र सम्मिलित है। यह क्षेत्र भूकंप से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। टर्शियरी काल में भारतीय प्लेट एवं यूरेशियाई प्लेट के अभिसरण के फलस्वरूप टेथिस सागर के मलबों में मोड़ पड़ने के कारण हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ है। भारतीय प्लेट का स्थानांतरण अभी भी धीमी गति से उत्तर-पूर्व दिशा की ओर हो रहा है। इसके फलस्वरूप हिमालय का उत्थान वर्तमान समय में भी जारी है। इस प्रकार पर्वत निर्माण की क्रिया अपूर्ण होने के कारण इस क्षेत्र में संतुलन की स्थापना नहीं हो पायी है। इस प्रकार की अस्थिरता एवं स्थल की अव्यवस्था के कारण विनाशकारी भूकंप आते रहते हैं। भारत का यह सबसे बड़ा भूकंप क्षेत्र है जहां न केवल भूकंप की बारंबारता अधिक होती है, बल्कि भूकंप की तीव्रता भी काफी अधिक होती है। हिमालय प्रदेश में भारतीय प्लेट का प्रत्यावर्तन यूरेशियाई प्लेट के नीचे हो रहा है। इस प्रत्यावर्तन के फलस्वरूप घर्षण की क्रिया होती है। घर्षण के कारण उत्पन्न ऊर्जा भूकंपीय तरंगों के रूप में बाहर निकलती है। विद्वानों का यह भी मानना है कि प्लेटों के टकराव के फलस्वरूप भारतीय प्लेट में अनेक दरारें पड़ चुकी हैं, जिन्हें ‘फाल्ट’ कहते हैं। ‘मेन बाउंड्री फाल्ट’ एवं ‘मेन सेंट्रल थ्रस्ट’ हिमालय क्षेत्र में स्थित दो मुख्य फाल्ट हैं। इन फाल्टों के कारण भी इस क्षेत्र में भूकंप आते हैं। इस भूकंप पेटी का विस्तार पश्चिम में जम्मू-कश्मीर से लेकर हिमालय के सहारे पूर्व में उत्तर-पूर्वी भारत तक विस्तृत है।
2. गंगा-सिंधु का मैदान: इस भूकंप पेटी के अंतर्गत उत्तर में हिमालय पर्वत एवं दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार के मध्य स्थित विशाल मैदान को सम्मिलित किया जाता है। हिमालय के निर्माण के पश्चात उसके दक्षिण में एक गर्त्त का निर्माण हुआ। इसी गर्त्त में नदियों द्वारा निरंतर अवसादों के निक्षेपण के फलस्वरूप विशाल मैदान की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार यह मैदान असंगठित जलोढ़ मिट्टी से निर्मित है एवं इसकी सरंचना मुलायम है। इस क्षेत्र में धरातल के नीचे कई भ्रंश स्थित हैं। इन भ्रंशों के कारण भू-गर्भ की चट्टानें अभी भी असंतुलित अवस्था में हैं। इसी असंतुलन के कारण इस प्रदेश में भूकंप आते हैं। साथ ही इस प्रदेश में हिमालय क्षेत्र में आने वाले भूकंपों का भी प्रभाव पड़ता है। इस क्षेत्र में भूकंप की बारंबारता एवं तीव्रता प्रथम क्षेत्र की तुलना में कम होती है, अतः इस क्षेत्र को ‘सामान्य प्रभावित क्षेत्र’ कहा जाता है।
(3) प्रायद्वीपीय क्षेत्र: इसके अंतर्गत संपूर्ण प्रायद्वीपीय भारत को सम्मिलित किया जाता है। भारत का प्रायद्वीपीय पठार एक स्थिर एवं दृढ़ भू-खंड है। यह प्राचीनतम स्थलखंड पेंजिया का ही एक अंग है, अतः यहां भूकंप का प्रभाव सबसे कम होता है। इसी कारण इसे ‘न्यूनतम प्रभावित क्षेत्र’ कहा जाता है। इसके बावजूद यह क्षेत्र भूकंप से यदा-कदा प्रभावित होता रहता है। कोयना, लातूर एवं जबलपुर में हाल के वर्षों में आये भूकंपों से इस तथ्य की पुष्टि होती है। विद्वानों का यह मानना है कि प्रायद्वीपीय पठारी क्षेत्र में भी भू-गर्भ में कई भ्रंश स्थित हैं, जो ज्वालामुखी लावा के निक्षेप के कारण ढक गये हैं। इन क्षेत्रों में भूकंप आने का यही मुख्य कारण है। प्रायद्वीपीय पठार में स्थित कच्छ का प्रदेश भूकंप से प्रायः प्रभावित रहता है। हाल ही में 26 जनवरी, 2001 को आये भूकंप के कारण इस क्षेत्र में भयानक तबाही हुई। विद्वानों के अनुसार कच्छ एवं सौराष्ट्र क्षेत्र में कई भ्रंश पाए जाते हैं। इनमें से कैम्बे भ्रंश, नर्मदा भ्रंश, सौराष्ट्र भ्रंश आदि प्रमुख हैं। इन भ्रंशों के कारण ही इस प्रदेश में अधिक तीव्रता के भूकंप आते हैं।
1956 ई. में भारत में भूकंप के तीन क्षेत्रों की पहचान की गयी थी। वर्तमान समय में भूकंप के पांच क्षेत्रों की पहचान की गयी है, जिन्हें नीचे दिये गये मानचित्र में प्रदर्शित किया गया है। इनमें से पांचवां क्षेत्र सर्वाधिक आशंका वाला है। इस क्षेत्र में अधिक तीव्रता के भूकंप आते हैं। इसके अंतर्गत अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, संपूर्ण उत्तर-पूर्वी भारत, उत्तर-पश्चिम बिहार, उत्तरांचल का पूर्वी भाग, हिमाचल प्रदेश में मंडी एवं कांगड़ा, जम्मू-कश्मीर में श्रीनगर के आस-पास के क्षेत्र तथा गुजरात के कच्छ क्षेत्र आते हैं।
Question : प्रायद्वीपीय भारत की संरचना एवं उच्चावच के लक्षणों का वर्णन कीजिए।
(2000)
Answer : स्थलाकृति संरचना प्रक्रम तथा अवस्था (समय) का फलन होती है। जो उच्चावच और स्थलाकृति आज हम देखते हैं वह अपक्षयण, अपरदन, अवसादीकरण, जमाव, दबाव, रुपांतरण, मैग्मा-उदभेदन, उत्थान-पतन और अन्य कई प्रक्रियाओं के संयोजन के लंबे प्रक्रम का प्रतिफल है। भारत का सबसे विस्तृत भौतिक विभाग प्रायद्वीपीय पठार है, जिसके उच्चावच लक्षण उसके भूगर्भिक इतिहास एवं संरचना की अभिव्यक्ति हैं।
आरंभ में भारत गोंडवानालैंड, जो एक वृहत दक्षिणी महाद्वीप था, का ही एक भाग था। गोंडवानालैंड के विभक्त भाग ही एक दूसरे से अलग खिसककर वर्तमान महाद्वीपों में परिवर्तित हो गये। प्रायद्वीपीय भारत के भूगर्भिक इतिहास की प्रमुख घटनाओं से उत्पन्न शैल संरचनाओं का वर्णन निम्न समूहों के अंतर्गत किया जा सकता हैः
1. आर्कियन शैल समूह (पूर्व कैम्ब्रियन): ये भारत में पाये जाने वाली प्राचीनतम चट्टानें हैं। अर्थात ये मूलभूत चट्टानें हैं तथा इस आधारतल का निर्माण करती हैं, जिसके उपर परवर्ती प्रणाली निर्मित है। इन चट्टानों का निर्माण तप्त पृथ्वी के ठंडा होने से हुआ है। अत्यधिक रुपांतरण के कारण इनका मौलिक रूप नष्ट हो गया है एवं इनमें जीवाश्म का अभाव है। ये नीस तथा शिष्ट प्रकार की चट्टानें है। ये चट्टानें निम्न स्थानों पर पायी जाती हैंः
प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु, पूर्वी घाट, झारखंड के छोटनागपुर पठार, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उड़ीसा।
2. धारवाड़ क्रम की चट्टानें: आर्कियन क्रम की चट्टानों के अपरदन एवं निक्षेपण के फलस्वरूप इनका निर्माण हुआ है। ये प्राचीनतम परतदार चट्टानें हैं जो अत्यंत ही रुपांतरित एवं विरुपित हो चुकी हैं। इनमें जीवाश्म का अभाव पाया जाता है। अरावली पर्वत का निर्माण इसी क्रम की चट्टानों से हुआ है। यह संसार का प्राचीनतम मोड़दार पर्वत है। इस समूह में खनिज युक्त तथा औद्योगिक चट्टानें तथा सोना, तांबा, लौह-अयस्क, क्रोमाइट, जस्ता, रत्न इत्यादि शामिल हैं। इनमें मुख्यतः कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, झारखंड के छोटानागपुर, उड़ीसा, पूर्वी घाट, कृष्णा नदी की घाटी, अरावली, सतपुड़ा बेसिन तथा मध्य प्रदेश के कुछ भाग शामिल हैं।
3. कुडप्पा क्रम की चट्टानें: धारवाड़ क्रम की चट्टानों के अपरदन एवं निक्षेपण के फलस्वरूप कुडप्पा क्रम की चट्टानों का निर्माण हुआ है। इस प्रकार ये भी परतदार चट्टानें हैं। इनका रूपांतरण धारवाड़ चट्टानों की तुलना में कम हुआ है। इन चट्टानों में भी जीवाश्म का अभाव है।
इन चट्टानों का नामकरण आंध्र प्रदेश के कुडप्पा जिले के नाम पर हुआ है, जहां अर्द्ध-चंद्राकार रूप में इनका विस्तार है। ये बलुआ पत्थर, चूना-पत्थर, संगमरमर, एस्बेस्टस आदि के लिए प्रसिद्ध हैं। पूर्वी घाट पर्वत में अधिकांश चट्टानें इसी क्रम की हैं। ये चट्टानें मुख्यतः आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु एवं कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती हैं। पूर्वी राजस्थान तथा उत्तरी मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इनका विस्तार है।
4. विंध्यन क्रम की चट्टानें: इनका निर्माण कुडप्पा चट्टानों के बाद हुआ है। छिछले सागर एवं नदी घाटियों में तलछट के निक्षेपण से इनका निर्माण हुआ है। ये भी परतदार चट्टानें हैं जिनमें सूक्ष्म जीवों के जीवाश्मों के प्रमाण मिलते हैं। विंध्य क्रम की चट्टानों के पांच प्रमुख क्षेत्र हैं- सोन नदी की घाटी, आंध्र प्रदेश का दक्षिण-पश्चिमी भाग, भीमा नदी की घाटी, राजस्थान में जोधपुर तथा चित्तौड़गढ़ ऊपरी गोदावरी घाटी तथा नर्मदा घाटी के उत्तर मालवा व बुंदेलखंड। यह संरचना पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से लेकर पूर्व में बिहार के सासाराम तक फैली हुई है। यह संरचना भवन निर्माण के पत्थरों के लिए प्रसिद्ध है, खासकर लाल बहुआ पत्थर। इसके अलावा इस संरचना में चूना पत्थर, चीनी मिट्टी, डोलोमाइट आदि भी पाये जाते हैं।
5. गोंडवाना क्रम की चट्टानें: गोंडवाना नाम की उत्पत्ति मध्य प्रदेश के गोंड राज्य से हुई है, जहां सर्वप्रथम इस क्रम की चट्टानों का पता लगा। इनका निर्माण ऊपरी कार्बोनिफेरस से लेकर जुरैसिक युग के बीच हुआ है। कार्बोनिफेरस युग में प्रायद्वीपीय भारत में कई दरारों का निर्माण हुआ। इन दरारों के बीच की भूमि के धंसने से बेसिन के आकार की गर्तों का निर्माण हुआ। इनमें तत्कालीन वनस्पतियों के दबने से कोयले का निर्माण हुआ है। भारत का 98 प्रतिशत कोयला इसी संरचना में पाया जाता है। ये चट्टानें मुख्य रूप से झारखंड, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा तथा महाराष्ट्र में पायी जाती हैं। दामोदर, महानदी, गोदावरी तथा सोन घाटियों में यह शैल पाया जाता है।
6. दक्कन ट्रैप: मोनोजोइक युग के अंतिम काल में प्रायद्वीपीय भारत में ज्वालामुखी क्रिया प्रारंभ हुई। इस प्रकार के माध्यम से लावा के उद्गार के फलस्वरूप इन चट्टानों का निर्माण हुआ है। इनके निर्माण का काल क्रिटेशस से लेकर इयोसीन काल तक माना जाता है। इसे ट्रैप कहने का कारण यह है कि लावा के प्रवाह के फलस्वरूप यहां सीढ़ीनुमा आकृति की स्थलाकृति का विकास हुआ है। यह संरचना बेसाल्ट व डोलोमाइट चट्टानों से निर्मित है। यह संरचना महाराष्ट्र के अधिकांश भाग गुजरात, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश के कुछ भागों में पायी जाती है। ये चट्टानें काफी कठोर हैं। इन चट्टानों के विखंडन से ही काली मिट्टी का निर्माण हुआ है।
प्रायद्वीपीय भारत में इसके बाद की भूगर्भिक काल की संरचनाएं नहीं पायी जाती हैं। टर्शियरी तथा नवजीवकल्प की संरचनाएं हिमालय तथा उत्तरी भारत के मैदान में पायी जाती हैं। इस प्रकार संरचनात्मक दृष्टिकोण से प्रायद्वीपीय पठार काफी पुराने चट्टानों से बना हुआ है।
xप्रायद्वीपीय भारत के पर्वत
16 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले प्रायद्वीपीय पठार की चट्टानें अत्यंत सुदृढ़ हैं। अरावली, कैमूर, राजमहल तथा शिलांग की पहाडि़यां इसकी उत्तरी सीमा बनाती हैं। यह पठार काफी घिसा हुआ है तथा विभिन्न पर्वतों की उपस्थिति के कारण छोटे-छोटे पठारों में विभक्त हो गया है।
प्रायद्वीपीय भारत के पर्वत
1. अरावली पर्वत: यह एक अवशिष्ट पर्वत है एवं विश्व का प्राचीनतम मोड़दार पर्वत है। यह दिल्ली से अहमदाबाद तक लगभग 800 किमी. की लंबाई में फैला हुआ है। गुरु शिखर इसकी सर्वोच्च चोटी है, जो आबू पहाड़ी पर स्थित है (1722 मी.)। इसे उदयपुर के निकट जरगा पहाडि़यां, अलवर के निकट हर्षनाथ पहाडि़यां तथा दिल्ली के निकट दिल्ली की पहाडि़यों के नाम से जाना जाता है। यह कठोर क्वाटर््ज चट्टानों से निर्मित है। बार, पिपलीघाट, देवारी एवं देसुरी इसके महत्वपूर्ण दर्रे हैं।
2. विंध्याचल पर्वत माला: यह प्राचीन युग की परतदार चट्टðानों से निर्मित है, जिसमें लाल बलुआ पत्थर बहुतायत से मिलते हैं। इसकी औसत ऊंचाई 700 से 1200 मीटर है। यह पर्वतमाला उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है। यह पश्चिम से पूर्व की ओर भटनेर, कैमूर एवं पारसनाथ की पहाडि़यों के रूप में गुजरात से लेकर बिहार तक विस्तृत हैं।
3. सतपुड़ा पर्वत श्रेणी: यह श्रेणी पश्चिम में राजपिपला पहाडि़यों से लेकर महादेव एवं मैकाल पहाडि़यों तक विस्तृत है। इस पर्वत श्रेणी की सबसे ऊंची चोटी धूपगढ़ है (1350 मी.) है, जो महादेव पर्वत पर स्थित है। मैकाल पर ही अमरकंटक का पठार स्थित है, जहां से सोन एवं नर्मदा नदियां निकलती हैं। सतपुड़ा पर्वत एक ब्लॉक पर्वत है, जो मुख्यतः ग्रेनाइट व बेसाल्ट चट्टðानों से निर्मित है।
4. पश्चिमी घाट पर्वत (सह्याद्री): यह वास्तविक पर्वत श्रेणी नहीं बल्कि प्रायद्वीपीय पठार का अपरदित खड़ा कगार है। यह ताप्ती नदी के मुहाने से लेकर कुमारी अंतरीप तक लगभग 1600 किमी. की लंबाई में विस्तृत है। कलसुबाई (1646 मी) एवं महाबालेश्वर (1438 मी.) उत्तरी स“याद्री की महत्वपूर्ण चोटियां हैं। पूर्वी घाट एवं पश्चिमी घाट के मिलन स्थल पर नीलगिरि की पहाड़ी स्थित है, जिसकी सबसे ऊंची चोटी दोदाबेटा है (2637 मी.)। नीलगिरि के दक्षिण में अनाईमुदी (2695 मी.) अन्नामलाई की पहाड़ी पर ही स्थित है। अन्नामलाई के निकट पालनी की पहाड़ी है। जिस पर कोड़ाइकेनाल नामक पर्यटक स्थल स्थित है। अन्नामलाई के दक्षिण में कार्डोमाज (इलामल्लाई) की पहाडि़यां हैं। पश्चिमी घाट पर्वत के चार महत्वपूर्ण दर्रे हैंः
(i) थाल घाट: नासिक एवं मुंबई के बीच
(ii) भोर घाट: मुंबई एवं पुणे के बीच
(iii) पाल घाट: कोयंबटूर एवं कोचीन के बीच
(iv) सेनकोटा: त्रिवेंद्रम एवं मदुरई के बीच
5. पूर्वी घाट पर्वत: इसकी औसत ऊंचाई 615 मीटर है। इसका उत्तरी भाग चार्नोकाइट एवं खंडोलाइट चट्टानों से निर्मित है। जबकि मध्य भाग क्वार्टजाइट एवं स्लेट जैसी चट्टानों से निर्मित है। इसकी सबसे ऊंची चोटी विशाखापत्तनम चोटी है। विभिन्न नदियों ने पूर्वी घाट पर्वत को कई स्थानों पर काट दिया है। फलस्वरूप यहां कई अलग-अलग पहाडि़यां देखने को मिलती हैं, जैसे- जावदी, जिंजी, कोलाइमलाई, शेवराय, निलगिरि पहाडि़यां इत्यादि।
6. कुछ अन्य पर्वत
(i) राजमहल की पहाड़ी छोटानागपुर पठार के उत्तर-पूर्व में स्थित है। इसका निर्माण बेसाल्ट चट्टðानों से हुआ है।
(ii) गिर की पहाड़ी गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप पर स्थित है।
(iii) गारो, खासी एवं जयंतियां पहाडि़यों का निर्माण नवोन्मेष क्रिया का परिणाम है।
(iv) दालमा की पहाड़ी छोटानागपुर पठार पर स्थित है। यह अत्यंत प्राचीन लावा निर्मित पहाड़ी है।
(v) ताप्ती के दक्षिण में अजंता की पहाडि़यों स्थित हैं।
प्रायद्वीपीय भारत के पठार
दक्कन का पठारः यह बेसाल्ट निर्मित पठार लगभग 5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला हुआ है। इसका निर्माण क्रिटेशस से लेकर इओसीन काल तक होने वाले दरारी लावा उद्भेदन से हुआ है। यह पठार पूर्व में अमरकंटक व सरगुजा तक, पश्चिम में कच्छ तक, दक्षिण में बेलगांव तथा दक्षिण-पूर्व में राजमहेंद्री तक फैला हुआ है। ताप्ती नदी इसकी उत्तरी सीमा बनाती है। दक्षिणी दक्कन के पठार के दो भाग हैं-
(i) तेलंगाना का पठारः इसका उत्तरी भाग पहाड़ी तथा वनाच्छादित है, जबकि दक्षिणी भाग पर मैदान पाये जाते हैं।
(ii) कर्नाटक का पठारः इसके उत्तरी भाग पर कृष्णा व तुंगभद्रा नदियां प्रवाहित होती हैं। दक्षिणी भाग को मैसूर का पठार कहते हैं। इसे मालनाड भी कहते हैं, जिस पर लौह अयस्क के लिए प्रसिद्ध बाबाबूदन की पहाड़ी स्थित है।
मेघालय का पठारः यह मुख्य पठार से राजमहल-गारो गैप द्वारा पृथक है। यहां की चट्टानें छोटानागपुर के पठार की चट्टानों से समानता रखती हैं।
कच्छ प्रायद्वीप का पठारः यह लावा (बेसाल्टिक) एवं टर्शियरी चट्टानों से निर्मित है। जलोढ़ निक्षेप के कारण यह मुख्य पठार से अलग हो गया।
छोटानागपुर का पठारः इसकी औसत ऊंचाई 700 मीटर है तथा यह ग्रेनाइट व नीस चट्टानों से निर्मित है। इस पठार पर ऊपर उठे हुए समप्राय मैदान देखने को मिलते हैं। यह अत्यन्त पुरानी चट्टानों द्वारा निर्मित है, जिनका काफी रुपांतरण हो चुका है। खनिज संसाधन की दृष्टि से यह पठार काफी धनी है। इस पठार पर दामोदर नदी एक भ्रंश घाटी से होकर प्रवाहित होती है, जो कोयले के भंडार के लिए प्रसिद्ध है।
मालवा का पठारः लावा निर्मित मालवा का पठार काली मिट्टी का समप्राय मैदान है। इसकी ढाल गंगा घाटी की ओर है। इस पर बेतवा, चंबल व माही नदियां प्रवाहित होती है। इस पठार पर उर्मिल मैदान मिलते हैं जिनमें कहीं-कहीं चपटी पहाडि़यां स्थित हैं।
बुंदेलखंड का पठारः यह पठार प्राचीनतम बुंदेलखंड नीस से निर्मित है। इस पठार पर चंबल तथा यमुना नदियों द्वारा बड़े-बड़े खड्डों का निर्माण किया गया है। इस पर सोपानी वेदिकाएं मिलती है।
बघेलखंड का पठारः यह पठार बलुआ पत्थर, चूना पत्थर एवं ग्रेनाइट से निर्मित है। इसके उत्तर में सोनपुर पहाडि़यों एवं दक्षिण में रामगढ़ की पहाडि़यां स्थित हैं।
दंडकारण्य का पठारः यह पठार अत्यंत ही उबड़-खाबड़ है तथा वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित है। धरातलीय विषमता के कारण यहां जनसंख्या का घनत्व अत्यंत ही विरल है।
Question : भारत में घटित होने वाले बाढ़ प्रकोप अथवा सूखा प्रकोप का तर्कसंगत विवरण दीजिए तथा उनके नियंत्रण के उपाय भी सुझाइए।
(2000)
Answer : देश के किसी न किसी भाग में वर्षा काल में विभिन्न भींषणता वाली बाढ़ों का आना एक प्राकृतिक संयोग है। उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम तथा गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के मैदानों में बाढ़ों का आना एक वार्षिक क्रिया है, जिसके परिणाम मानव एवं पशु सभी को भुगतने पड़ते हैं। दक्षिण भारत के डेल्टाई क्षेत्रों तथा समुद्रतरीय भागों में भी बाढ़ें अभिशाप का रूप लेते हैं। 1990 से 2000 के मध्य आए बंगाल के खाड़ी के तूफानी चक्रवातों से उत्तरी आंध्र पर एवम् उड़ीसा तट पर प्रतिवर्ष हजारों करोड़ों रुपयों की हानि होती रही है। इसमें भवन एवम् उद्योग नष्ट होना, फसल नष्ट होना, जानमाल एवम् पशुओं की हानि मुख्य है। साथ ही सबसे अधिक हानि उत्तरी बिहार, असम में ब्रह्मपुत्र का क्षेत्र, गुजरात व मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के अपवाह क्षेत्र, कर्नाटक में दक्षिण कनारा जिले, आंध्र व उड़ीसा के तट पर भी होती है। कुल हानि का 80 प्रतिशत फसलों व पशुधन और 20 प्रतिशत मकानों तथा सार्वजनिक सम्पत्ति का होता है। देश का 3-20 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ों की आशंका के प्रभावित रहता है। चम्बल, यमुना, गंगा एवम् ब्रह्मपुत्र की घाटी के क्षेत्रों में भी उग्र रूप से से उफनती नदियों के कारण भयंकर बाढ़ें आती है, जल प्लावन की स्थिति पैदा हो जाती है।
बाढ़ों के कारण
भारत सरकार की सिंचाई विभाग द्वारा अनुमान लगाया है कि बाढ़ द्वारा होने वाला 60 प्रतिशत हानि नदियों में आने वाली बाढ़ों से और 40 प्रतिशत अधिक वर्षा और चक्रवातों के द्वारा होती है। देश में होने वाली हानि का 60 प्रतिशत हिमालय की नदियों के द्वारा होता है। प्रायद्वीपीय नदियों के बेसिनों में अधिकांश हानि तूफानों द्वारा होती है, जबकि हिमालय की नदियों में 66 प्रतिशत हानि बाढ़ द्वारा और 34 प्रतिशत तूफानों द्वारा होती है।
भारत को बाढ़ों की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जाता है।
1. पूर्वी खंडः घाघरा नदी के पूर्व से डिब्रूगढ़ तथा उससे भी आगे तक यह क्षेत्र फैला है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार एवम् पश्चिमी बंगाल, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम इसमें सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में हिमालय से निकलने वाली नदियां बड़ी मात्र में जल और भारी चिकनी मिट्टी बहाकर लाती हैं, जो समतल धरातल तथा निचले भागों को जलमग्न कर देती हैं। यमुना, गंगा, दामोदर, ब्रह्मपुत्र, दिहांग और लोहित नदियों में अत्यधिक बाढ़ें आती हैं।
2. उत्तरी खंडः इसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र आते हैं। इस खंड की नदियां छोटी हैं, उनके मार्गों में भी अधिक परिवर्तन नहीं होता और न ही जल की मात्र अधिक होती है। फिर भी झेलम, व्यास,रावी, चेनाब, सतलज, यमुना और सिंध में वर्षा ट्टतु में बाढ़ें आती हैं, तो विनाश का दृश्य उपस्थित हो जाता है।
3. दक्षिणी खंडः यह क्षेत्र प्रायद्वीपीय भारत में फैला हुआ है, जहां वर्षा की मात्र कम होने से नदियों में जल अधिक नहीं होता तथा मिट्टी की मात्र भी कम होती है और इनके मार्गों में भी कोई परिवर्तन नहीं पाया जाता है। अतः बाढ़ें सामान्यतः प्रतिवर्ष न आकर लंबे अंतराल पर आती हैं। लेकिन जब आती हैं तो डेल्टाई क्षेत्रों में बहुत हानि पहुंचाती हैं। गोदावरी, कृष्णा, कावेरी और पेन्नार नदियां अपनी बाढ़ के लिए प्रसिद्ध हैं।
4. उड़ीसा खंडः महानदी, ब्रह्माणी आदि नदियां अधिक जल बहाकर लाती हैं, जिसको निकलने का मार्ग न मिलने से मुहाने पर तेज बाढ़ें आती हैं।
बाढ़ नियंत्रण
1954 में राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम चालू किया गया। कार्यक्रम को तीन भागों में बांटा गया- तात्कालिक, लघु अवधि व दीर्घ अवधि। देश में बाढ़ की भींषण समस्या को देखते हुए सरकार ने 1975 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की स्थापना की। यह आयोग बाढ़ नियंत्रण के वर्तमान कार्यक्रम तथा नीति का गहन अध्ययन करके बाढ़ नियंत्रण की समन्वित, समेकित व वैज्ञानिक नीति तैयार करता है।
इतने सब प्रयासों के बावजूद देश में बाढ़ें आज भी बारंबार आती हैं। इसका कारण यह है कि यह प्रयास मानव द्वारा भूमि उपयोग की वर्तमान व्यवस्था पर आधारित है, न कि समस्या की गंभीरता को दूर करने के लिए अपर्याप्त अथवा अनुचित कदमों के कारण। प्रमुख रूप से इस समय ध्यान संरचनात्मक अथवा इंजीनियरिंग नियंत्रण पर है जब कि इस पर नियंत्रण के लिए मात्र संरचनात्मक अर्थात मानव नियंत्रण में परिवर्तन आवश्यक है। बाढ़ नियंत्रण नीति में अधियोग सामंजस्य पर ज्यादा ध्यान दिये जाने की जरुरत है। बाढ़ पूर्व चेतावनी देने के लिए गठित बाढ़ पूर्व सूचना संगठन के कार्यों में दक्षता लाने की जरुरत है ताकि बाढ़ की तीव्रता व समय की सटीक चेतावनी दी जा सके तथा बचाव कार्य करने वाले अभिकरणों को सचेत किया जा सके।
बाढ़ सामंजस्य के उपायों को भी ठीक से अमल किया जाना चाहिए। बाढ़ के उतार के बाद जो नुकसान होता है उस पर भी ध्यान दिये जाने की जरुरत है।
Question : हिमालय की श्रेणियों के उत्थान की व्याख्या कीजिए।
(1999)
Answer : हिमालय पर्वत के निर्माण की व्याख्या प्लेट-विवर्तनिकी सिद्धांत के आधार पर की जाती है, जिसने पहले की ‘भू-अभिनति’ के सिद्धांत को विस्थापित कर दिया है। प्लेटों के आपसी टकराव के कारण उनमें तथा ऊपर की महाद्वीपीय चट्टानों में प्रतिबलों का एकत्रण होता है, जिनके फलस्वरूप वलन, भ्रंशन तथा आग्नेय क्रियाएं होती हैं। भारतीय एवं यूरेशियन प्लेट के टकराने से टेथिस सागर सिकुड़ कर क्षेपकोरों में विभंगित होने लगा और हिमालय की उत्पत्ति हुई। ये पर्वत निर्माणकारी परिघटनाएं तीन मुख्य अवस्थाओं में घटी हैं। पहली अवस्था में केन्द्रीय हिमालयी पक्ष का उत्थान हुआ, जिसकी रचना ओलिगोसीन युग की पुरानी रवेदार एवं अवसादी चट्टानों से हुई। दूसरा उत्थान मियोसीन युग में हुआ, जिसके अन्तर्गत पश्चिमी पाकिस्तान के पोटवार क्षेत्र में एक बेसिन में निक्षेपित अवसादों का आवलन हुआ। उत्तर पिल्योसीन युग में शिवालिक का वलन हुआ।
हिमालय के वर्तमान उच्चावच के बहुत से लक्षणों का विकास अपक्षरण के कारकों द्वारा हुआ है। हिमालय के अक्षसंघीय मोड़ों का निर्माण प्रायद्वीपीय खण्ड के दो छोरों पर निकली हुई शैल जिह्नाओं के साथ चट्टानी स्तर के दबने के कारण हुआ है। हिमालय के आंतरिक एवं मध्य खण्डों की अनेक श्रेणियां अपनी संरचना में लंबनतिक हैं। हिमालयी क्षेत्रों में आने वाले भूकम्प इस बात के द्योतक हैं कि हिमालय का उत्थान अब भी जारी है।
Question : भारतीय मानसून की क्रियाविधि को स्पष्ट कीजिए।
(1999)
Answer : सम्प्रति मानसून की उत्पत्ति की व्याख्या तापीय संकल्पना की बजाय गतिक संकल्पना के आधार पर की जा रही है। इसकी उत्पत्ति में हिमालय, तिब्बत के पठार, जेट स्ट्रीम एवं जल एवं स्थल में तापीय अंतर की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। गर्मियों के मौसम में तीन गतिविधियां घटित होती हैंः
जब तक जेट स्ट्रीम का दबाव बना रहता है, भारत में निम्नदाब के केन्द्र प्रभावी नहीं हो पाते हैं, परन्तु इनके हटने से हवाओं का प्रवाह उच्च दाब के केन्द्र से निम्न दाब के केन्द्र की ओर होने लगता है। इसी आकस्मिक क्रिया से ही ‘मानसून का विस्फोट’होता है। सर्दियों में जेट स्ट्रीम द्वारा भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में तूफान का आविर्भाव होता है, जो पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होते हुए भारत पहुंचता है और भारत के उत्तर-पश्चिमी मैदानों में इस ‘पश्चिमी विक्षोभ’से वर्षा हो जाती है।