Question : भारत में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की नीतियों एवं कार्यक्रमों पर चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ से ही ग्रामीण विकास पर पर्याप्त बल दिया गया था। महात्मा गांधी ने भारत के संपूर्ण विकास के लिए ग्रामीण विकास को आधारभूत मानने का सुझाव दिया था। नियोजन के प्रारंभिक चरण में ग्रामीण विकास तथा कृषि विकास को एक-दूसरे का पर्यायवाची माना गया था। यद्यपि सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत (1952) के साथ ग्रामीण विकास की संकल्पना में परिवर्तन हुआ है। सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्रामीण स्तर पर विकास और सेवाओं के विस्तार पर बल दिया गया था। ग्रामीण विकास से आशय-आर्थिक विकास और अधिकतम सामाजिक परिवर्तन है।
समन्वित ग्रामीण विकास का विभिन्न सामाजिक वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार से पारिभाषित किया है। यह व्यापक कृषि विकास है, जो ग्रामीण उद्योग, तृतीयक क्षेत्रक, सामुदायिक सेवाओं और विकास संगठनों से सम्बद्ध है। एकीकृत ग्रामीण विकास एक बहुत व्यापक संकल्पना है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में काल्पनिक एकता को संदर्भित करता है। यह विकास की एक समन्वित परिकल्पना है, जो कृषि कार्यक्रमों, लघु और कुटीर उद्योग, शिक्षा कार्यक्रम, वितरण सुविधाओं की स्थापना, ग्रामीण केन्द्रों का विकास आदि को सम्मलित करता है। यह संकल्पना निम्न छह तत्वों पर जोर देती हैः
एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम प्रथम बार 1976-77 के केन्द्रीय बजट में प्रस्तुत किया गया था। इसका लक्ष्य गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को शासन तथा वित्तीय संस्थायें सहायता उपलब्ध करवाती हैं। इसके लक्षित समूह निम्न आय वर्ग के ग्रामीण समाज है। कम से कम 50% परिवार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा 40% महिला लाभभोगी और 3% विकलांग को इस समूह में लक्षित किया जाता है। यह व्यक्तिगत उपागम के बजाय पारिवारिक उपागम का अनुसरण करता है। इसका क्रियान्वयन जिला ग्रामीण विकास अधिकरण और खण्ड स्तरीय अधिकरणों के माध्यम से होता है। एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्न कुछ योजनाओं को प्रस्तुत किया जाता है- स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण (1979), महिला एवं बाल विकास, उन्नत जन कार्य और ग्रामीण तकनीकि परिषद अर्थात् कपार्ट, जिसका उद्देश्य है- ग्रामीण समद्धि के लिए प्रोत्साहन, सहायता और तुरंत कार्यवाही, जवाहर रोजगार योजना, इंदिरा आवास योजना, रोजगार सुरक्षा योजना, दस लाख कुआं योजना, गंगा कल्याण योजना आदि। इसे बाद में एकीकृत कर स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना के रूप में परिवर्तित किया गया। वर्तमान समय में रोजगार गारंटी योजना एकीकृत ग्रामीण विकास परियोजना का महत्वाकांक्षी योजना है।
Question : पंचायती राज्य ढांचे का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2007)
Answer : भारत में पंचायती राज का औपचारिक शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर में 2 अक्टूबर, 1959 को किया। पंचायती राज संबंधी संविधान के 73वें संशोधन 24 अप्रैल, 1993 को संसद ने पास किया। जिसमें शहरी और ग्रामीण स्तर पर सत्ता में जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पंचायतों एवं शहरी निकाय की व्यवस्था की गई है। पंचायती राज में शक्ति सरकार के हाथ से निकलकर इन स्थानीय प्रशासन की संस्थाओं के माध्यम से जनता के हाथ में आ गई। भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राजव्यवस्था स्थापित की गई है। जिसमें ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद् की व्यवस्था है।
ग्राम पंचायत स्थानीय प्रशासन की निम्नतर स्तर की संस्था है। ग्राम सभा संपूर्ण गांव के वयस्क नागरिकों को मिलाकर बनाई जाती है, जो ग्राम पंचायत को चुनती है जिसका कार्य नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराना, समाज कल्याण के कार्य करने व विकास कार्य करना है। पंचायत समिति ग्राम पंचायत तथा जिला परिषद के मध्य में स्थानीय निकाय है। पंचायत समिति ब्लाक स्तर अथवा विकास खण्ड स्तर पर होती है। यह क्षेत्रीय विकास के लिए योजना तथा कार्यक्रम तैयार करती है, जिन्हें राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित करने के पश्चात् लागू करती है। जिला परिषद जिला स्तर की संस्था होती है। यह क्षेत्र समिति और ग्राम पंचायतों तथा राज्य सरकार के मध्य तालमेल बिठाने का कार्य करती है।
वस्तुतः पंचायती राज स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य यह था कि लोगों को विकास में प्रत्यक्ष भागीदारी।
जिससे विकास का कार्य त्वरित गति से हो तथा समाज के नीचे के स्तर तक हो। इससे भ्रष्टाचार में कमी और कार्यकुशलता में वृद्धि की बात मानी गई। पुनः इससे लोगों में राजनीतिक चेतना की बात कही गई थी। लोगों का अपने अधिकार और अपने गांव समाज के विकास में प्रत्यक्ष भागीदारी का अवसर प्रदान किया गया था। लेकिन पंचायती राज जिस उद्देश्य के साथ लागू किया गया वह पूर्ण रूपण सफल नहीं रही। इसके अनेक कारण हैं जिसमें सर्व प्रमुख निम्न है-
Question : भारत में नगर नियोजन के तत्वों एवं उपागमों की विवेचना कीजिए।
(2006)
Answer : भारत में नगरों का विकास काफी अव्यवस्थित तथा अनियोजित रूप में हुआ है, जिसके कारण नगर कई समस्याओं से ग्रसित हो चुके हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए ही नगर नियोजन की नीति अपनाई गई है। नगर नियोजन का उद्देश्य है, नगर के स्वास्थ्य, सौंदर्य एवं उपयोगी सेवाओं एवं सुविधाओं में वृद्धि करना। इसका उद्देश्य है, नगर के लोगों के लिए स्वास्थ्यप्रद परिस्थतियां प्रदान करना, उनके रहने एवं काम करने के लिए उपर्युक्त वातावरण प्रदान करना तथा तार्किकता एवं दूरदर्शिता के साथ नगरीय भूमि का उपयोग करना। भारत में नगरीय नियोजन का इतिहास काफी प्राचीन है। स्वतंत्रता के पश्चात् नगर नियोजन के लिए की स्थापना की गई है तथा अनेक नगरों के लिए महानगरीय प्रदेश नियोजन की नीति अपनाई गई है। भारतीय नगरों के नियोजन हेतु कुछ आदर्श मापदण्ड निर्धारित किए गए हैं, जैसे -
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में कई नियोजित नगरों का विकास किया गया है, जिनमें चंडीगढ़, जमशेदपुर, भुवनेश्वर, गांधीनगर आदि प्रमुख हैं। परंतु ग्रामीण नगरीय स्थानांतरण के कारण वर्तमान समय में थे। नगर भी विभिन्न समस्याओं से ग्रसित हो चुके हैं। विभिन्न समस्याओं के कारण भारत में नगर नियोजन की दिशा में काफी कम कार्य किए गए हैं।
Question : भारत में जनजातियों, जनजातीय क्षेत्रों एवं उनकी समस्याओं का एक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2006)
Answer : जनजाति से तात्पर्य ऐसे नृजातीय समूह है, जिनके विशिष्ट शारीरिक लक्षण एवं विशिष्ट संस्कृति होती है। जनजातियों का विशिष्ट धर्म एवं भाषा होता है। ये सामान्यतः भौगोलिक एवं सामाजिक विलगाव के रूप में रहती हैं। जनजातियों की संख्या की दृष्टि से भारत विश्व में प्रथम स्थान रखता है। यहां कुछ विशेष क्षेत्रों में इनका संकेंद्रण पाया जाता है। भारत के जनजातीय क्षेत्रों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
1. उत्तर एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रः इस क्षेत्र की जनजातियों का संबंध मंगोलायड प्रजाति से है। उत्तर भारत के अंतर्गत जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तरांचल के पर्वतीय क्षेत्र के अलावा उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र की जनजातियां आती हैं। गद्दी, बकरवाल, लेप्चा, मोरिया, राजी, जौनसारी, खासी, थारू, बुक्सा आदि इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियां हैं। इनमें गद्दी एवं बकरवाल पशुचारण, मोरिया व्यापार, तथा थारू मत्स्यन का कार्य करती है। शेष जनजातियां कृषि कार्य करती हैं। उत्तर-पूर्वी भारत में 7 सिस्टर स्टेट जनजातियों को रखा जाता है। नागा, कूकी, खासी, गारो, बोड़ो, डफला, मिटी, अपातानी, लुसाई आदि इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियां हैं। ये जनजातियां सामान्यतः स्थायी या अस्थायी कृषि करती हैं।
2. मध्य भारतीय क्षेत्रः इसका विस्तार पूर्व में बंगाल एवं उड़ीसा से पश्चिम में गुजरात तथा राजस्थान तक है। भारत की अधिकांश जनजातीय जनसंख्या इसी क्षेत्र में निवास करती है। गोंड, भील, संथाल, मुंडा, उरांव, हो, बैगा, भूगिज, लोधा, खोंडा, कमार, कोरकू आदि इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियां हैं। गोंड, भील, संथाल, उरांव, हो जैसी जनजातियां स्थायी कृषि एवं मजदूरी करती हैं। बिहार एवं जुआंग आखेट तथा खाद्य संग्रह, बैगा, पहाडि़या एवं पहाड़ी खडि़या अस्थायी कृषि तथा महाली एवं अगरिया जैसी जनजातियां सरल करीगरी कार्य करती हैं।
3. दक्षिण भारत एवं अंडमान निकोबार द्वीप समूहः भारत की प्रमुख जनजातियों में कदार, टोडा, कोटा, पुलियान, कुरूम्बा, इरूला, बड़ागा, चेंचू आदि का नाम आता है। टोडा पशुपालन तथा चेन्चू आखेटक एवं खाद्य संग्रहक है। ओंगे, जारवा, सेंटेनली, ग्रेट अंडमानी तथा निकोबारी अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह की प्रमुख जनजातियां हैं। इनका संबंध मुख्यतः नीग्रीटो प्रजाति से है। ये जनजातियां आखेटक एवं खाद्य संग्रहक हैं तथा आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से काफी पिछड़ी हुई हैं।
भारत की जनजातियां मुख्यतः एकांकी क्षेत्रों में निवास करती हैं, इनकी अपनी परंपरागत समस्याएं हैं। विगत दशकों में जनजातीय क्षेत्रों में बाहरी लोगों का अतिक्रमण बढ़ा है। इसके फलस्वरूप उन्हें कई नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
इनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
1. पर्यावरण समस्याएं: जनजातियां मुख्यतः पर्वतीय क्षेत्र, आंतरिक पठारी क्षेत्र, सीमांत क्षेत्र जैसी प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियों में निवास करती हैं। भौगोलिक बिलगाव के कारण बाहरी लोगों द्वारा इनका आसानी से शोषण किया जाता है। प्रतिकूल क्षेत्र में निवास करने के कारण विकास का खर्च बढ़ जाता है एवं विकास की गति काफी धीमी हो जाती है।
2. आर्थिक समस्याएं: जनजातियां मुख्यतः आखेट एवं खाद्य संग्रह, स्थानांतरणशील कृषि, स्थायी कृषि एवं पशुचारण काकार्य करती हैं। लगभग 50 प्रतिशत जनजातियां खेतिहार मजदूर हैं। उत्पादन कम होने के कारण इनकी अर्थव्यवस्था जीवन निर्वाह की है। दो-तिहाई से भी अधिक जनजातियां गरीबी रेखा के नीच निवास करती हैं। कठोर वन नीति तथा वनों के ह्रास के कारण वनों से प्राप्त होने वाले काम में कमी आई है। अधिकांश जनजातियां ऋणग्रस्तता, भूमि हस्तांतरण, बेरोजगारी, बेगारी, बंधुआ मजदूरी जैसी आर्थिक समस्याओं से ग्रसित हैं।
3. सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याः गैर-जनजातीय लोगों से सांस्कृतिक संपर्क के कारण जनजातियों में कई सामाजिक सांस्कृतिक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। इन लोगों ने गैर जनजातियों के सांस्कृतिक तत्वों, जैसे-भाषा, पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, प्रथाओ को अपनाया है। इनमें छुआ-छूत, पवित्रता-अपवित्रता, ऊंच-नीच के भेदभाव की भावना उत्पन्न हुई है। इसके फलस्वरूप सामाजिक विघटन की समस्या उत्पन्न हुई है। परिवार में बड़े एवं बुजुर्गों के प्रभाव में कमी आई है। बाजारू शराब, वेश्यावृत्ति, अपराध जैसी समस्याएं जनजातीय जनजीवन को प्रभावित कर रही हैं। कई जनजातियों के सांस्कृतिक तत्व विलुप्त होते जा रहे हैं।
4. धार्मिक समस्याएं: जनजातियों पर हिंदु एवं ईसाई धर्म का व्यापक प्रभाव पड़ा है। सदियों से हिंदु धर्म के संपर्क में रहने के कारण इन्होंने हिंदुओं के अनेक धार्मिक तत्वों को अपना लिया है। खासी, भील, उरांव जैसी जनजातियां होली, दीपावली, दशहरा जैसे पर्व मनाती हैं। मध्य भारत की जनजातियां इससे काफी प्रभावित हैं। मिशनरियों के प्रभाव के कारण, उत्तर-पूर्वी भारत तथा मध्य भारत की कुछ जनजातियों ने इसाई धर्म को अपना लिया है। ये जनजातियां चर्च जाती हैं तथा ईस्टर जैसे पर्व मनाती हैं। इसका परिणाम यह है कि जनजातियां हिंदु, ईसाई जनजाति आदि में विभाजित हो गई हैं। इससे इनकी धार्मिक एकता खतरे में पड़ गई है।
5. अशिक्षाः जनजातियों में साक्षरता की दर मात्रा 29 प्रतिशत है। स्त्री साक्षरता की स्थिति और भी अधिक दयनीय है, यह मात्रा 18 प्रतिशत है। गरीबी, शिक्षा के प्रति उदासीनता, समुचित शिक्षा नीति का आभाव, शिक्षकों की उदासीनता, अव्यावहारिक पाठ्यक्रम, संरचनात्मक सुविधाओं का अभाव, अनेक जनजातियों की यायावरी प्रकृति आदि शिक्षा के विकास में प्रमुख बाधाएं हैं।
अशिक्षित होने की स्थिति में बाहरी लोगों द्वारा इनका शोषण आसान हो जाता है। अशिक्षा तथा गरीबी का चक्र चलता रहता है।
6. स्वास्थ्य एवं सफाई की समस्याः स्वास्थ्य एवं सफाई के प्रति जागरूकता के अभाव के कारण जनजातियां विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाती हैं। स्वच्छ जल के आभाव के कारण अक्सर वे चर्म रोग, हैजा, टाइफाइड से संक्रमित हो जाते हैं। पोषक आहार की कमी के कारण जनजातीय जनसंख्या का एक बड़ा भाग कुपोषण की समस्या से ग्रसित है। बाजारू शराब के सेवन के कारण यकृत, हृदय से संबंधित रोग हो जाते हैं। गैर जनजातियों से संपर्क एवं पर्यावरण प्रदूषण के कारण वे नए-नए प्रकार के रोगों का शिकार हो जाते हैं। इलाज के लिए झाड़-फूंक, जड़ी- बूटी आदि पर निर्भर रहने के कारण ये रोग उनके लिए जानलेवा साबित होते हैं। वेश्यावृति के कारण वे एड्स जैसी जानलेवा रोग के भी शिकार हो रहे हैं। समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव तथा आधुनिक दवाओं के प्रति उदासीनता जनजातियों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी हैं।
7. परिवहन एवं संचार की समस्याः जनजातियां विषम भौगोलिक क्षेत्रों में निवास करती हैं, जहां परिवहन एवं संचार की सुविधा काफी कम विकसित है। इसके कारण वे अपने उत्पादों को काफी कम मूल्य पर बिचौलियों को बेचने के लिए मजबूर होती हैं।
8. राजनीतिक समस्याएं: वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था की जनजातियों को पूर्णतः जानकारी नहीं है। उन्हें अपने मत का महत्व ज्ञात नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि उनके क्षेत्र में भी उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है। चालाक तत्व उन्हें बहला फुसलाकर अलगाववादी राजनीतिक आंदोलन में धकेल देते हैं। आधुनिक प्रशासनिक एवं न्याय व्यवस्था की जानकारी जनजातियों को नहीं है। फलस्वरूप उन्हें न्याय प्राप्त नहीं हो पाता है।
9. विस्थापन एवं पुनर्वास की समस्याः जनजातियां जिन क्षेत्रों में निवास करती हैं, वे क्षेत्र खनिज संसाधन, जल संसाधन एवं वन संसाधन की दृष्टि से धनी हैं। अतः खनिजों की खुदाई, उद्योगों की स्थापना, बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना निर्माण आदि विकास कार्यों के लिए जनजातियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन किया गया है। मध्य भारत की जनजातियां इस समस्या से विशेष रूप से प्रभावित रही हैं। जमशेदपुर, बोकारो, भिलाई, राऊरकेला, हटिया आदि औद्योगिक नगरों के कारण जनजातियों का काफी संख्या में विस्थापन हुआ है। समुचित प्रवास नीति के आभाव में इनकी समस्याएं और अधिक गंभीर हो जाती हैं। विस्थापन के फलस्वरूप इन्हें अनेक-अनेक आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक तथा धार्मिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
10. उपर्युक्त समस्याओं के अलावा जनजातियां कुछ अन्य समस्याओं से भी ग्रसित हैं। इनकी परंपरागत शैक्षिक संस्थान युवागृह पतनशील अवस्था में है। टोडा, ग्रेड अंडमानी, निकोबारी जैसी जनजातियों की जनसंख्या तेजी से घट रही है एवं इनका अस्तित्व खतरे में है।
जनजातीय समस्याओं को दूर करने के लिए सरकारी गैर सरकारी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं, परंतु विकास की गति काफी मंद है।
Question : भारत में प्रादेशिक विषमताओं के प्रक्रमों तथा प्रतिरूपों की व्याख्या कीजिए तथा प्रादेशिक संतुलन स्थापित करने के लिए उपर्युक्त उपायों को सुझाइए।
(2006)
Answer : आर्थिक दृष्टि से कुछ राज्यों का विकसित तथा कुछ राज्यों का पिछड़ा होना या एक ही राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के विकास में अंतर, प्रादेशिक विषमता कहलाती है। इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों ही कारक उत्तरदायी हो सकते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रादेशिक विषमता के लिए ब्रिटिश सरकार की नीतियां उत्तरदायी हैं। ब्रिटिश सरकार द्वारा उन क्षेत्रों के विकास पर बल दिया गया, जहां उद्योग एवं व्यापार के लिए आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध थीं। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु जैसे राज्यों को प्राथमिकता दी गई, जबकि अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा की गई ब्रिटिश काल में अधिकांश उद्योग एवं व्यापार कोलकाता, मुंबई एवं चेन्नई जैसे नगरों तक सीमित रहे। इस काल में ब्रिटिश सरकार की नीतियों के कारण कुटीर एवं घरेलू उद्योगों का भी विनाश हुआ। ब्रिटिश सरकार की भू-प्रणाली के कारण कृषि भी पिछड़ी रही। कुछ विशेष क्षेत्रों में सिंचाई में विनियोग के कारण इन क्षेत्रों का विकास हुआ।
स्वतंत्रता के पश्चात् आर्थिक विकास के लिए पूंजी की कमी थी। सरकार द्वारा उन क्षेत्रों के विकास पर ध्यान दिया गया, जहां कम निवेश में अधिक विकास की संभावनाएं थीं। यह माना गया कि ऐसे क्षेत्रों के विकास का लाभ धीरे-धीरे पिछडे़ क्षेत्रों तक पहुंच जाएगा। परंतु इसके विपरीत पिछड़े क्षेत्रों से कुशल श्रम एवं पूंजी का पलायन इन क्षेत्रों की ओर होने लगा, परिणामस्वरूप 1950-51 के पश्चात् आयोजित आर्थिक विकास के युग में भी क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता गया। संतुलित प्रादेशिक विकास 1956 की औद्योगिक नीति में भी बात की गई, परंतु आयोजकों एवं लाइसेंस प्रदान करने वाले प्रधिकारों ने इसकी पूर्णतः अवहेलना की। आयोजना काल में भी विकसित राज्यों को अधिक केन्द्रीय सहायता उपलब्ध कराई गई एवं पिछड़े राज्यों की उपेक्षा की गई। पांच विकसित राज्यों पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक एवं हरियाणा को सभी योजनाओें में अधिक प्रति व्यक्ति योजना परिव्यय उपलब्ध कराया गया, जबकि बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान जैसे गरीब राज्यों को प्रति व्यक्ति बहुत ही कम योजना परिव्यय प्राप्त हुआ।
1951 के पश्चात् कुशलतम की कसौटी के आधार पर भारी मात्रा में निवेश मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद, बंगलौर, दिल्ली, हैदराबाद, कानपुर आदि नगरों में संकेंद्रित हो गया। इन केन्द्रों ने चूषण पम्प का कार्य किया तथा पड़ोसी क्षेत्रों से मानव एवं आर्थिक संसाधन को आकर्षित किया।
1960 के दशक के पश्चात् हरित क्रांति के फलस्वरूप भी प्रादेशिक विषमता में वृद्धि हुई। दुर्लभ संसाधनों को सबसे अधिक उत्पादक क्षेत्रों में प्रयुक्त करने की मान्यता के आधार पर तथा खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिए खाद्यान उत्पादन को अधिकाधिक बढ़ाने हेतु सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में निवेश पर ध्यान दिया गया, जहां सिंचाई की सुविधाएं अधिक विकसित थीं। फलस्वरूप पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों का विकास हुआ, जबकि अन्य पिछड़ गए।
इसका परिणाम यह हुआ कि विकसित एवं पिछड़े राज्यों के बीच की खाई चौड़ी होती चली गई। उदाहरण के लिए, 1971-72 में बिहार एवं पंजाब की प्रति व्यक्ति आय का अनुपात 1:27 था, जो 1991-92 में बढ़कर 1:3.5 हो गया। 2000-01 में यह 1:4.6 हो गया। स्पष्ट है कि उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण के कारण प्रादेशिक विषमता में और भी अधिक तेजी से वृद्धि हो रही है। विकसित राज्यों में 1980-81 एवं 1990-91 के बीच सकल घरेलु उत्पाद की वृद्धि दर 5.2 प्रतिशत से बढ़कर 6.3 प्रतिशत हो गया, जबकि इसी अवधि में पिछड़े राज्यों में यह 4.9 प्रतिशत से घटकर 3.0 प्रतिशत हो गया। स्पष्ट है कि अनुकूल सामाजिक-आर्थिक अधिसंरचना के कारण विकसित राज्यों एवं क्षेत्रों ने पिछड़े राज्यों एवं क्षेत्रों को प्रतिस्पर्धा में पीछे छोड़ दिया है। क्षेत्रीय विषमता के अध्ययन के लिए भारत के बड़े राज्यों को दो वर्गा में विभाजित किया गया है। पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश अग्रगामी राज्यों में तथा बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, असम एवं उत्तर प्रदेश पिछड़े राज्यों में शामिल किए जाते हैं। इन दोनों वर्गों के राज्यों में भारत की क्रमशः 50% एवं 46% जनसंख्या निवास करती है। वर्ष 1999-2000 में बिहार में प्रति व्यक्ति आय 6328 रुपया तथा दिल्ली में 35705 रुपया थी, इस प्रकार यह अनुपात 1:56 था। पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे विकसित राज्यों तथा बीमारू राज्यों के प्रति व्यक्ति आय में काफी अंतर था। इन राज्यों में गरीब जनसंख्या का अनुपात राष्ट्रीय औसत से अधिक था। जबकि पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों में यह 10 प्रतिशत से भी कम था।
अग्रणी राज्यों में नगरीकरण का स्तर भी राष्ट्रीय औसत से अधिक था। जबकि बिहार में यह मात्र 10.47 प्रतिशत था। कुल औद्योगिक उत्पाद मूल्य में महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल का योगदान लगभग 60 प्रतिशत था, जबकि शेष राज्यों का योगदान मात्र 40 प्रतिशत था। बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में प्रति व्यक्ति विद्युत खपत 200 किलोवाट घंटा से भी कम है, जबकि राष्ट्रीय औसत 338 है। मानव विकास सूचकांक बिहार में मात्र 0.367 है, जबकि केरल में यह 0.638 है।
भारत में प्रादेशिक विषमता को क्षेत्रीय आधार पर निम्नलिखित रूप से वर्णित किया जा सकता है।
प्रादेशिक असंतुलन एक वास्तविकता है। मानवीय एवं भौतिक संसाधन में विभिन्नता के कारण इसे पूरी तरह दूर नहीं किया जा सकता है, परंतु निम्नलिखित उपायों के द्वारा इसे काफी कम किया जा सकता हैः
Question : भारत में विकेन्द्रीकृत योजना के अंतर्गत पंचायती राज की विवेचना कीजिए।
(2005)
Answer : भारत जैसे वृहद आकार के सभी देशों में बहुस्तरीय नियोजन मॉडल अपनाए गए हैं। संवैधानिक संशोधन 73 के अनुसार भारत के नियोजन और विकास की लघुस्तरीय संस्था ग्राम पंचायतऔर उसकी इकाई ग्राम सभा है। इस संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान में 11वीं अनुसूची सम्मिलित की गई, जिसमें ग्राम पंचायत के 20 प्रमुख कार्य निर्धारित किए गए हैं इनमें प्रमुख हैं- कृषि विकास, लघु सिंचाई, लघु उद्योग, ग्रामीण आवास, ईंधन और चारा, तथा प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम।
ग्राम पंचायत के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक वित्तीय वर्ष में इन कार्यक्रमों की प्राथमिकता निर्धारित करे और संबंधित ग्राम सभा से उसकी स्वीकृति ले। नयी व्यवस्था के अंतर्गत पंचायतों को आर्थिक स्वायत्तता भी दी गई है। पंचायत अपने नागरिकों पर विविध प्रकार का कर तथा टोल टैक्स लगा सकता है। प्रत्येक पंचायत को विकास हेतु राज्य की संचित निधि से धन उपलब्ध कराने की व्यवस्था है। पुनः राज्य सरकार के लिए आवश्यक है कि वह प्रत्येक 5 वर्ष के बाद केन्द्र के ही समान वित्त आयोग का गठन करे जो पंचायतों को लिए दिए जाने वाले राशि का पुनर्निर्धारण करे।
वर्तमान समय में ग्रामीण विकास से संबंधित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों में स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना, जवाहर रोजगार योजना, इंदिरा आवास योजना आदि प्रमुख हैं। इन कार्यक्रमों की सफलता मूलतः पंचायतों के सहयोग पर ही निर्भर करती है।
यद्यपि पंचायत विकास की एक महत्वपूर्ण इकाई है। विकास कार्यक्रमों से लाभान्वित होने वाले लोग प्रत्यक्षतः पंचायत से जुड़े हुए हैं, लेकिन पंचायत की सफलता बहुत हद तक इसके ठीक समय पर चुनाव और राजनीतिक प्रशासनिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है। विकेन्द्रीकृत नियोजन व्यवस्था के तहत पंचायती राज भारत जैसे विविधता और जटिलता के देश में इसकी आनिवार्यता को प्रतिबिम्बित करता है।
Question : भूगोल और प्रादेशिक आयोजना के बीच के संबंध का परीक्षण कीजिए।
(2005)
Answer : भूगोल एक ऐसा विषय वस्तु है, जो मूलतः क्षेत्रीय वितरण और क्षेत्रीय संगठन का विश्लेषण प्रस्तुत करता है। क्षेत्र का तात्पर्य प्रदेश से है। दूसरे शब्दों में, भूगोल प्रादेशिक तथ्यों के वितरण संगठन और विश्लेषण का विज्ञान है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि प्रादेशिक नियोजन के अंतर्गत स्थलखंड के किसी इकाई (प्रदेश) के विकास हेतु नियोजन का कार्य किया जाता है। अतः नियोजन के लिए प्रदेश अनिवार्य है और प्रदेश के लिए भौगोलिक ज्ञान अनिवार्य है। दूसरे शब्दों, में प्रादेशिक नियोजन का कोई भी कार्य भौगोलिक ज्ञान के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है। प्रादेशिक नियोजन में भूगोल के इस महत्व को समझने के कारण विश्व के अनेक देशों में प्रादेशिक नियोजन प्रक्रिया के अतंर्गत भूगोलवेत्ताओं को सम्मिलित किया गया है। जैसे इजरायल के योजना आयोग में अनिवार्य रूप से भूगोल वेत्ताओं को रखा जाता है। भूगोलवेत्ताओं का लगभग यही स्थान अधिक पूर्वी यूरोपीय देशों में (मुख्यतः हंगरी, रूस) यू.एस.ए., नीदरलैण्ड, यू.के. और कनाडा जैसे देशों में प्राप्त है। भारत में भी प्रादेशिक नियोजन प्रक्रिया के अंतर्गत अनेक भूगोलवेत्ताओं को सम्मिलित किया गया है। इस संदर्भ में प्रो. देशपांडे, प्रो. एल.के. सेन, एल.एस. भट्ट, वी.के. सुन्दरम, आर.पी. मिश्रा, प्रो. मुनीस राजा जैसे भूगोलवेत्ताओं का योगदान है।
R.P. MishraBaundo ville
Growth Pole (विकास ध्रुव) = Growth Pole (विकास ध्रुव)
Growth Center (विकास केन्द्र) = Growth Centre (विकास केन्द्र)
Growth Point (विकास केन्द्र) = Growth Point (विकास केन्द्र)
Service Centre (सेवा केन्द्र) = Service Centre (सेवा केन्द्र)
Rural Service Centre (ग्रामीण सेवा केन्द्र)
प्रादेशिक नियोजन और भौगोलिक अवयवः प्रादेशिक नियोजन प्रक्रिया को देखने से स्पष्ट होता है कि नियोजन की नीति को कार्यन्वित करने के लिए भौगोलिक ज्ञान आवश्यक है। नियोजन के तीन प्रमुख आधार हैं- जनसंख्या, संसाधन एवं पर्यावरण और इन तीनों आधार स्तंभों का आधार है-भूगोल।
प्रादेशिक नियोजन प्रक्रिया को प्रारंभ करने के लिए चार आधारभूत कार्य होते हैं-
प्रदेश के सीमांकन का कार्य भौगोलिक ज्ञान के बिना असंभव है। वस्तुतः प्रादेशिक सीमांकन का कार्य भूगोलवेत्ता ही अधिक दक्षता से कर सकते हैं।
आवश्यकताओं, अनिवार्यताओं और प्राथमिकताओं के निर्धारण हेतु जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, तकनीकी संसाधन पूंजी उपलब्धता इत्यादि का ज्ञान आवश्यक है। इस संदर्भ में मानवीय जनसंख्या तथा विविध प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित सूचनाएं भूगोलवेत्ताओं द्वारा अधिक प्राथमिकता से निर्धारित किए जा सकते हैं।
वर्तमान भूगोल का विकास आंकड़ों के बैंक के रूप में हुआ है। इससे भूगोल के उपयोगिता में वृद्धि हुई है। डाटा बैंक के रूप विकसित भूगोल GIS (भौगोलिक सूचना तंत्र) का काम करता है। GIS एक ऐसा कंप्यूटरीकृत सूचना तंत्र है जो नियोजकों को एक ही समय सभी आवश्यक सूचनाएं प्रदान करता है।
वर्तमान समय में कृत्रिम उपग्रह से प्राप्त सूचनाओं का भी विश्लेषण भूगोलवेत्ताओं द्वारा किया जाता है। यह विश्लेषण प्राकृतिक संसाधनों का अधिक सूक्ष्म विश्लेषण प्रदान करता है। इस प्रकार की सूचनाओं को भी GIS में सम्मिलित कर दिया गया है। GIS के बढ़ते महत्व को ध्यान में रखकर विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में इससे संबंधित डिप्लोमा कोर्स कराए जाते हैं।
भौगोलिक ज्ञान का प्रादेशिक नियोजन में अनुप्रयोगः भारत में प्रो. एल.एस. भट्ट और प्रो. देशपांडे ने इसे नियोजन प्रदेश में बांटने का कार्य किया है। एल.के. सेन ने कर्नाटक के रायचूर जिला के संदर्भ में लघु प्रादेशिक नियोजन तथा समन्वित जिला स्तरीय नियोजन प्रदेश के मॉडल प्रस्तुत किए जिसे योजना आयोग तथा संबंधित राज्यों के प्लानिंग बोर्ड्स ने अपने नीति निर्धारण में जगह दिया है। प्रो. आर.पी. मिश्रा ने बोंडोमिले के विकास ध्रुव सिद्धांत को भारतीय संदर्भ में संशोधित करते हुए योजना आयोग के समक्ष प्रस्तुत किया जिसे योजना आयोग से मान्यता प्राप्त है।
आर.पी. मिश्रा के मॉडल को मान्यता देते हुए योजना आयोग ने छठी पंचवर्षीय योजना में यह निश्चय किया कि भारत के सभी महानगरों को विकास ध्रुव की मान्यता दी जाए तथा महानगरों पर जनसंख्या के बढ़ते दबाब को कम करने तथा रोजगार सुविधाओं के विकास के लिए विकास केन्द्र और विकास बिन्दु विकसित किए जाएं। छोटे बाजारों में सेवा केन्द्र अर्थात् सार्वजनिक सुविधा केन्द्रों को विकसित करने पर जोर दिया गया। प्रो. आर.पी. मिश्रा ने इस बात पर जोर दिया कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के देश होने के कारण भारत के केन्द्रीय गावों में भी सार्वजनिक सेवा की सुविधाएं विकसित किए जायं। छठी पंचवर्षीय योजना में भारत के 2400 प्रखंडों में विकास का यह मॉडल कार्यान्वित किया गया।
भारत विश्व के उन देशों में है जहां प्रादेशिक नियोजन से संबंधित कई प्रकार के उपागमों का प्रयोग किया गया है और प्रायः सभी उपागमों में भूगोलवेत्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। कुछ प्रमुख प्रादेशिक नियोजनों के उपागम निम्नलिखित हैं-
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रादेशिक नियोजन का न सिर्फ आधार वरन् उसके सभी उपागमों का निर्धारण भी भौगोलिक अवधारणाओं के द्वारा होता है।
Question : भारत में प्रादेशिक योजना के अनुभव को राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश के नियोजन के संदर्भ में दिखाइए।
(2005)
Answer : भारत जैसे वृहद् आकार (32.8 लाख वर्ग कि.मी.) और विशाल जनसंख्या (102 करोड़) तथा आर्थिक-सामाजिक विविधता के देश में प्रादेशिक नियोजन की नीति ही सर्वाधिक अनुकूल विकास की नीति हो सकती है। पुनः भारत की संवैधानिक संघीय व्यवस्था भी प्रादेशिक विकास नीति का समर्थन करता है।
भारत में प्रादेशिक नियोजन हेतु अनेक उपागमों को अपनाया गया है। इसमें महानगरीय प्रदेश नियोजन एक प्रमुख उपागम के रूप में 1960 के दशक में सामने आया। इस नियोजन को अपनाने का प्रमुख कारण भारत के नगरीय क्षेत्रों में बढ़ते जनसंख्या दबाब तथा उससे उत्पन्न अनेकानेक समस्यों के समाधान के रूप में प्रस्तुत करना था।
महानगरीय प्रदेश का तात्पर्य उस भौगोलिक क्षेत्र से है, जिसके अंतर्गत निम्नलिखित चार प्रकार की बस्तियां होती है-
महानगरीय प्रदेश का धुरी स्तंभ मातृ नगर होता है। जब यहां अधिवासित मकानों की कमी हो जाती है तथा भूमि और मकान किराये में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है तथा जनसंख्या वृद्धि तीव्र गति से होने लगती है, तो मातृनगर के वाह्य क्षेत्र में निर्मित नगरीय क्षेत्र का विस्तार होता है। ये नवीन निर्मित नगरीय क्षेत्र आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से मातृनगर से अंतर्संबंधित होते हैं। अतः महानगर के बाहर अवस्थित इन सभी निर्मित क्षेत्र (ग्रामीण बस्ती भी) को मिलाकर जिस भौगोलिक प्रदेश की अवधारणा विकसित होती है, उसे महानगरीय प्रदेश कहा गया है।
महानगरीय प्रदेश के निर्धारण का मूल उद्देश्य एकीकृत विकास योजनाओं को कार्यान्वित करना है। कोई भी स्वतंत्र विकास योजना इन निर्मित क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता है। अतः महानगरीय प्रदेश नियोजन के लिए निम्नलिखित सूचनाएं आवश्यक हैं-
इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर 1968 ई. में दिल्ली महानगरीय प्रदेश नियोजन की आवश्यकता महसूस की गई। इस संदर्भ में सर्वप्रथम दिल्ली महानगरीय प्रदेश को सीमांकित किया गया। इसके लिए सर्वप्रथम गुरूत्वाकर्षण मॉडल की सहायता से इस प्रदेश की सीमा निर्धारित की गई। इसके बाद कई चरों की मदद से उसमें आवश्यक संशोधन किए गए। वस्तुतः इस कार्य के लिए 8 चरों का प्रयोग किया गया। ये इस प्रकार थेः
इन चरों की मदद से गुरूत्वाकर्षण विधि द्वारा अपनाए गए सीमाओं में संशोधन किए गए। इस प्रकार सीमांकित दिल्ली महानगरीय प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 3200 वर्ग कि.मी. हुआ। इसका औसत भौगोलिक फैलाव दिल्ली महानगर से 20-30 कि.मी. तक था। इसके अंतर्गत दिल्ली महानगर के अतिरिक्त गाजियाबाद, दादरी, बागपत, सोनीपत, रोहतक, फरीदाबाद, गुड़गांव, बहादुरगढ़ और बल्लभगढ़ जैसी नगरीय बस्तियां आती हैं। दिए गए मानचित्र की मदद से दिल्ली महानगरीय प्रदेश का भौगोलिक फैलाव समझा जा सकता है।
दिल्ली महानगरीय प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश) के प्रमुख नियोजन कार्यः राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश के नियोजन का मुख्य उद्देश्य दिल्ली महानगर के अधिवासीय और कार्यिक वातावरण को संतुलित तथा गत्यात्मक बनाना है। इस कार्य हेतु CBD क्षेत्र को छोड़कर संपूर्ण महानगर को 8 पड़ोसी प्रदेशों में बांटा गया है। पड़ोसी सिद्धांत के अनुसार नगर के अधिवासीय क्षेत्र को अनुकूल प्रदेशों में बांटकर प्रत्येक क्षेत्र के अंतर्गत स्थानीय बाजार सहित सभी सार्वजनिक सुविधाओं का विकास करना है। दिल्ली महानगर के कई क्षेत्रों में सुपर बाजार का विकास इसी सिद्धांत के अंतर्गत हुआ है।
उपनगरीय बस्तियों के लिए भी मास्टर प्लान तैयार किए गए हैं। उसमें नियोजन के दो प्रमुख आधार हैं। प्रथम आधार राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश नियोजन का ही अंग है, जिसके अंतर्गत दिल्ली और उसके आस-पास के 7 नगरीय बस्तियों में 37 लाख जनसंख्या को अधिवासीय सुविधा प्रदान करना है। यदि विकास की यह नीति नहीं अपनाई जाती तो ये जनसंख्या भी अंततः दिल्ली के ही ऊपर दबाब उत्पन्न करते।
इस वृहद जनसंख्या को अधिवासीय सुविधा तभी संभव है जब उनके लिए उपनगरों में ही रोजगार की विशेष सुविधाएं विकसित किए जायें। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर उपनगरीय नियोजन का दूसरा आधार कार्यिक विशेषीकरण रखा गया है। इस नीति के अंतर्गत फरीदाबाद, गाजियाबाद तथा बल्लभगढ़ का विकास औद्योगिक संकुल के रूप में किया गया है।
गुड़गांव का विकास मूलतः लघु उद्योगों के लिए किया जा रहा है। लोनी का विकास अधिवासीय नगरीय बस्ती के रूप में किया गया है, जबकि नरेला का विस्तार थोक व्यापार केन्द्र के रूप में हुआ है। दादरी, सिकंदराबाद, बागपत, सोनीपत, रोहतक और बहादुरगढ़ का विकास उद्योग तथा व्यापारिक केन्द्र के रूप में किया गया है। नोएडा का विकास अधिवासीय सह औद्योगिक प्रदेश के रूप में किया जा रहा है।
एकीकृत सार्वजनिक सेवा सुविधाओं के नियोजन के अंतर्गत एकीकृत परिवहन, संचार, शिक्षा और स्वास्थ्य, सुविधाओं का विकास किया गया है। इसी नीति के अन्तर्गत दिल्ली मेट्रो रेल का विस्तार एन.सी.आर. (N.C.R.) क्षेत्रों में किया जा रहा है।
ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रादेशिक नियोजन के अन्तर्गत महानगरीय प्रदेश नियोजन तथा राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश के नियोजन के सही ढंग से कार्यान्वित करने से अनेक समस्याओं का समाधान हुआ है।Question : विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में भारत की प्रादेशिक विकास नीति का परीक्षण कीजिए।
(2004)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही एक ऐसे विकास प्रारूप का लक्ष्य रहा है जिसमें मात्र प्रगति नहीं संरचनात्मक समायोजन सहित परिवर्तन भी हो तथा जिसमें सिर्फ संख्यात्मक वृद्धि ही नहीं समानता का भी समावेश हो। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रदेशों के मध्य विकास की असमानता को न्यूनतम करना आवश्यक है। प्रादेशिक विकास का उद्देश्य नियोजिम अर्थतंत्र के दौर में एक प्रमुख उद्देश्य रहा है।
योजनाकाल के प्रारम्भ से केन्द्र व राज्य सरकारें इस तथ्य के प्रति विशेष सचेत थीं कि अथतंत्र में प्रादेशिक विषमता में वृद्धि न हो। हालांकि पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान प्रादेशिक नियोजन की तुलना में औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्र के विकास पर मुख्य जोर दिया गया, पर द्वितीय योजनावधि में अपेक्षाकृत पिछड़े दक्षिणी-पूर्वी पठारी प्रदेश (झारंखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा) में अनेक इस्पात एवं भारी उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किये गये। सार्वजनिक क्षेत्र में लगने वाले कारखानों की अवस्थिति निर्धारण में प्रादेशिक संतुलन एक महत्वपूर्ण आधार माना जाता था।
प्रथम दोनों पंचवर्षीय योजनाओं के बाद औद्योगिक एवं कृषि विकास को कुछ गति मिल गई थी। इसी दौरान प्रादेशिक असंतुलन की समस्या को चिह्नित किया जाने लगा। अस्तु संतुलित प्रादेशिक विकास को पहली बार एक उद्देश्य के रूप में तीसरी पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया गया। बंदरगाहों, वृद्धिशील, औद्योगिक केन्द्रों, महानगरों, तीर्थस्थलों एवं पर्यटन केन्द्रों के लिए विकास योजनाएं तैयार करने के उद्देश्य से विशेष कोष स्थापित किये गये। प्रादेशिक विकास को बढ़ावा देने हेतु बहुउद्देशीय सिंचाई परियोजनाओं की व्यापक रूपरेखा तैयार की गई। कई महत्वपूर्ण प्रदेश जैसे दामोदर घाटी प्रदेश दण्डकारण्य प्रदेश, रिहन्द क्षेत्र, भाखड़ा-नांगल प्रदेश एवं इंदिरा नहर कमांड क्षेत्र को इस योजना के दौरान विकसित करने के लिए कार्यक्रम बनाये गये। कई क्षेत्रों को मास्टर प्लान के तहत विकसित करने का प्रयास किया गया।
केन्द्र से राज्यों को मिलने वाली सहायता राशि का विस्तार एवं राज्यों की जरूरतों के आधार पर नीतियों का निर्माण चौथी योजना की प्रादेशिक नीति की प्रमुख बातें थीं। प्रादेशिक उपागम को अनियंत्रित शहरी विकास को नियमित करने के उद्देश्य से एक विधि के तौर पर इस्तेमाल किया गया एवं विभिन्न शहरी विकास परियोजनाओं को हाथ में लिया गया।
चौथी योजना के बाद के समय से ही यह स्वीकार किया जाने लगा था कि समुचित प्रादेशिक विकास नीतियों पर अवलम्बित होकर तथा उन्हें अमल में लाकर ही प्रादेशिक असंतुलन की समस्या का समाधान किया सकता है। प्रदेशों के लिए विभिन्न संसाधन स्थितियों के सर्वेक्षण कराये गये ताकि इन प्रदेशों की जरूरतों एवं सुविधाओं के अनुकूल विशिष्ट नीतियां बनायी जा सकें। विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों में औद्योगिक पिछड़ेपन को दूर करने, कृषि को उन्नत करने तथा जल संसाधनों का संवर्धन करने के उद्देश्य से विशेष क्षेत्र विकास योजनाएं बनायी गयीं। शहरी विकास परियोजनाएं चलायी गयीं जिनका उद्देश्य मलिन बस्तियों की दशाओं में सुधार करना भी था।
प्रादेशिक नियोजन नीति का यही क्रम छठी पंचवर्षीय योजना में भी लागू रहा पर अधिक तीव्रता के साथ। बहुस्तरीय नियोजन उपागम के महत्व को स्वीकार किया गया तथा उसके अनुसार प्रादेशिक नीतियां बनायी गयीं। इस योजना के दौरान स्थानीय संसाधनों के समुचित दोहन अधिक महत्व प्रदान किया गया। लक्षित समूह उपागम की पहल भी इसी योजना के दौरान की गई। प्रादेशिक संतुलन के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण कार्यक्रम-एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP) का सुभारंभ इस योजना के दौरान किया गया।
जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सातवीं योजना में स्थानीय व प्रादेशिक मुद्दों को महत्व दिया गया। प्रदेश की आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित केन्द्रीय सहायता के विस्तार तथा स्थानीय संसाधनों के उपयोग- इन दोनों के समन्वय द्वारा लोगों की जरूरतों को पूरा करने का प्रयास किया गया।
सातवीं योजना में पहले के विशेष कार्यक्रमों को जारी रखा गया। कुछ नये कार्यक्रम जैसे जवाहर रोजगार योजना को इसमें शुरू किया गया। वैसे असंतुलन पर भी ध्यान दिया गया जिसमें एक प्रदेश की कीमत पर दूसरे प्रदेश का संसाधन-उपयोग एवं विकास होता हो।
सातवीं योजना के पश्चात राजनीतिक एवं आर्थिक तंत्र में दूरगामी परिवर्तन हुए जिसका प्रभाव आगे की योजनाओं में प्रादेशिक विकास नीतियों पर पड़ा। आठवीं योजना के मौलिक उपागम को निरूपित करते हुए यह स्वीकार किया गया कि रोजगार निर्माण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य में सुधार विकास के साथ घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं तथा विकास को इस प्रकार प्राप्त किया जाना चाहिए, जिससे क्षेत्रीय असमानता घट सके और विकास के लाभों का विस्तार हो सके। पिछड़े प्रदेशों एवं समाज के पिछड़े वर्गों के लिए कई सुरक्षा उपाय अपनाये गये। इस हेतु पर्याप्त खाद्य-आपूर्ति प्रणाली, मुद्रा-स्फीति नियंत्रण, रोजगार निर्माण योजनाओं तथा सबसे महत्वपूर्ण आधारभूत संरचना के निर्माण को प्रमुखता प्रदान की गई। इसी योजना के दौरान एक संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली को आरंभ किया गया ताकि पिछड़े एवं सुदूर क्षेत्रों को खाद्य उपलब्ध हो सके।
नौवीं योजना के दस्तावेज में संतुलित प्रादेशिक विकास के महत्व को पुनर्निरूपित किया गया। यह स्वीकार किया गया कि देश के सभी भागों द्वारा विकास अवसरों का समान लाभ न उठा पाने तथा ऐतिहासिक असमानताओं के पूर्णतः खत्म न हो पाने के कारण नियोजित हस्तक्षेप की आवश्यकता अभी तक बनी हुई है। इस कारण से पिछड़े राज्यों की आधारभूत संरचना में अधिक सार्वजनिक निवेश करना जरूरी हो जाता है। निवेश का लाभ लेने वाले राज्य अपने संसाधनों का दुरूपयोग न करें, यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है।
1991 में उदारीकरण-निजीकरण की नीति अपनाने के पश्चात अब उद्योगों की स्थापना एवं संचालन का ज्यादा दारोमदार निजी क्षेत्र पर है जो अधिकतम लाभ हेतु उन्हीं क्षेत्र में स्थापित हो रहे हैं तथा होना चाह रहे हैं, जहां अवस्थापना तंत्र विकसित है। इस कारण प्रादेशिक विषमता और बढ़ने की संभावना है। अस्तु असंतुलन दूर करने हेतु समुचित नीति का निर्माण व क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है।
Question : भारत में बहुद्देशीय परियोजनाओं के संबंध में कमांड एरिया विकास की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
(2003)
Answer : मृदा एवं जल संसाधन के संभावित उपयोग की दिशा में कमांड क्षेत्र का विकास कार्यक्रम अत्यन्त ही कारगर साबित हुआ है। इस योजना की शुरुआत 5वीं पंचवर्षीय योजना में ही की गई थी। पांचवी योजना के पहले बहुद्देश्यीय नदी घाटी योजना तथा कैचमेंट एरिया विकास कार्यक्रम के द्वारा कृषि विकास का कार्यक्रम अपनाया गया था।
लेकिन पांचवी योजना में जब क्षेत्र विकास की नीति अपनायी गयी, तो कृषि विकास के अति अनुकूल क्षेत्रों में कमांड क्षेत्र विकास की नीति अपनायी गयी। कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत बहुउद्देश्यी परियोजनाओं के क्षेत्र में भूमि एवं जल प्रबंधन की एकीकृत एवं समन्वित पद्धति अपनायी गयी।
इस नीति के अन्तर्गत कानूनतः कमांड क्षेत्र प्राधिकरण का गठन किया जाता है। इसके एक प्रबंधक होते हैं, जो परिभाषित क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य करते हैं-
कमांड क्षेत्र का विकास सामान्यतः नदी बेसिन के निम्न क्षेत्र में हुआ है क्योंकि नदी बेसिन के निम्न क्षेत्र सामान्यतः समतल एवं कृषि कार्य के लिए अनुकूल होते हैं। पुनः वे अधिकतर परिस्थितियों से ग्रसित भी होते हैं।
अतः कमांड क्षेत्र परियोजना के विकसित होने से उपजाऊ क्षेत्र की मृदा सुरक्षित रहती है, कृषि कार्य सुनिश्चित होता है, बाढ़ की बारंबारता भी कम होती है।
वर्तमान में इस परियोजना कुल 205 क्षेत्रों में विकसित किया गया है, जिसके अन्तर्गत भारत के कुल सिंचित क्षेत्र में से 215 लाख हेक्टेयर भूमि आती है। नीचे के मानचित्र में कुल प्रमुख कमांड क्षेत्र को दिखाया गया हैःQuestion : दामोदर घाटी के संदर्भ, भारत में प्रादेशिक आयोजना के अनुभव का एक पूर्ण विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2003)
Answer : भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के आर्थिक विकास के लिए नियोजित विकास की रणनीति बनायी। इसी के तहत विभिन्न नहीं बेसिनों के ऊपर बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं को आरंभ किया। सन् 1948 ई. में बिहार एवं पश्चिम बंगाल के बीच बहने वाली खतरनाक एवं बदनाम ‘दामोदर नदी’ के ऊपर बांध बनाने का निर्णय लिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य दामोदर नदी घाटी क्षेत्र में बाढ़ की विभीषिका को कम करना तथा जल विद्युत सिंचाइं सुविधाओं एवं पर्यटन को बढ़ावा देकर इस क्षेत्र का समन्वित विकास करना था।
पूर्वी भारत के छोटा नागपुर क्षेत्र में दामोदर नदी आज से 20-25 वर्ष पहले तक एक भयंकर दुखदायी नदी थी। 541 किमी. लम्बी यह छोटी सी नदी बराकर कोनार और दूसरी छोटी से सहायक नदियों सहित अपने 22000 वर्ग किमी क्षेत्र में प्रलयकारी बाढ़ से अपार क्षति पहुंचाती थी। 600 मीटर की ऊंचाई से निकलकर यह नदी उन्मत पहाड़ी धारा के रूप में बहती थी। इसकी घाटी के नंगे पहाड़ों पर घनघोर वृष्टि होने के कारण जब सारा पानी बेरोकटोक इसमें पहुंचता था, तब इसका दानवी रूप बंगाल के लिए काल बन जाता है।
दामादेर नदी में बाढ़ की बारंबारता से उत्पन्न कठिनाइंयों को दूर करने के लिए बिहार, बंगाल एवं केन्द्रीय सरकारों ने दामोदर घाटी परियोजना बनायी। इस परियोजना की तह में बाढों को नियंत्रित करने की बात प्रमुख है। जल को बांधकर उसमें सिंचाई, बिजली, उत्पादन, और जल, यातायात का काम लेना भी लक्ष्य रखा गया। दामोदर परियोजना के कुछ अन्य उद्देश्यों में भू-संरक्षण, मत्स्य पालन और स्वास्थ्य संवर्द्धन भी हैं। सात सामान्य बांध, एक नीची सतह पर पानी ले जाने वाला बांध और एक बराज के निर्माण की इस योजना में प्रत्येक बांध पर जल विद्युत का उत्पादन इस प्रकार होगा।
नदी | बांध | जल विद्युत शक्ति किलो वाट |
---|---|---|
दामोदर | ऐयर बेरमोर पंचते पहाड़ी |
45,000 28,000 40,000 |
बराकर | तिलैया बाल पहाड़ी मैथन |
8,000 20,000 40,000 |
कोनार | बोकारो -1 बोकारो-2 बाकारो-3 |
20,000 11,000 11,000 |
बोकारो | बोकारो -4 | 3,200 |
कुल | 2,26000 |
योजना का प्रथम चरण समाप्त हो चुका है और 4 बांध तैयार हो चुके हैं। इसमें बाढ़ नियंत्रण के लिए 34,800 लाख घनमीटर जल संग्रह की क्षमता है। बाढ़ नियंत्रण के अतिरिक्त ये बांध सिंचाई एवं जल शक्ति के काम आयेंगे। इसमें 2500 किमी. लम्बी नहरों एवं नालों का जाल बिछाया जा चुका है। और 4 लाख हेक्टेआर भूमि में सिंचाई का काम लिया जा रहा है। सिंचाई प्रणाली के अन्तर्गत दुर्गापुर का बराज तैयार हो चुका है। जहां से कोलकता को जाने वाली 137 किमी. लंबी नहर द्वारा द्वारा रानीगंज का कोयला कोलकता तक ढोया जाता है। तिलैया, मैथन एवं पचेत पहाड़ी में जल विद्युत गृह बनाये जा चुके हैं। योजना के द्वितीय चरण में ऐयर बेलपहाड़ी और बोकारों के बांध तैयार हो रहे हैं।
इस घाटी का आर्थिक विकास उत्तरोत्तर होता जा रहा है। भूमि संरक्षण के अन्तर्गत नये वन लगाये गये है जिससे भूमि का कटाव तो रुका ही साथ ही पशुओं को चारे, रेशम के कीड़ों के लिए शहतूत के पेड़, लाह तथा बांस भी प्राप्त हो रहे हैं। खनिजों के विकास एवं उपयोग की योजनाएं भी कार्यान्वित की गयी हैं, उद्योगों का विकास किया जा रहा है और लोगों को आजीविका के अच्छे साधन भी प्राप्त हो रहे हैं। योजनान्तर्गत इस क्षेत्र में बोकारो, दुर्गापुर और चन्द्रपुरा में तापीय विद्युत गृह बनाये जा चुके हैं। इन तीनों की उत्पादन शक्ति क्रमशः लाख, लाख और लाख किलोवाट है। इस विद्युत का उपयोग मुख्यतः लौह-इस्पात उद्योगों में खानों में यातायात और नगरों तथा गांवों में रोशनी देने में किया जा रहा है। इस योजना के अन्तर्गत बांधों में मत्स्य उत्पादन शुरू हो गया है। और बाढ़ पर नियंत्रण हो जाने के कारण मलेरिया पर भी नियंत्रण पा लिया गया है। निःसंदेह यह परियोजना वरदान सिद्ध हुई है। इससे बिहार एवं बंगाल दोनों ही लाभान्वित हो रहे हैं।
Question : भारत के आर्थिक विकास में प्रादेशिक असमानताओं के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
(2003)
Answer : आर्थिक विषमता भारत की एक गंभीर समस्या है। स्वतंत्रता के पश्चात यह समस्या और भी गंभीर होकर अंतःप्रादेशिक एवं अन्तप्रार्देशिक स्तर पर उभर कर सामने आयी है। इस विषमता के कारण जहां एक ओर पंजाब जैसे राज्यों की प्रति व्यक्ति आय 16000/- रु. से अधिक है, वहीं उड़ीसा जैसे राज्य की 46 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करती है। पुनः एक तरफ महाराष्ट्र जैसे राज्य हैं, जहां पूरे विदेशी निवेश का 20 प्रतिशत अन्तप्रर्वाह हुआ हे, वहीं नागालैण्ड जैसे राज्य भी हैं, जहां 2001 तक 1 रुपये का भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं हुआ है। इस अभूतपूर्व प्रादेशिक विषमता के कई कारण हैं इनमें निम्न पांच प्रमुख हैं-
(i) प्राकृतिक कारक: प्राकृतिक कारकों में बाढ़, सूखा, उच्चावच की जटिलता, वर्षा की विषमता और महामारियों का प्रभाव प्रमुख हैं। वस्तुतः भारत प्राकृतिक विपदाओं का देश है। देश की 83 प्रतिशत भूमि प्राकृतिक विपदाओं के अन्तर्गत आती है। ऊपर वर्णित प्रमुख कारकों के अन्तर्गत भूस्खलन, हिमस्खलन, भूकंप, और चक्रवाती प्रभाव प्रतिवर्ष अपनी विनाशकारी छाप छोड़ते हैं।
वास्तविकता यह है कि प्राकृतिक विपदाओं का क्षेत्र ही सर्वाधिक पिछड़ा क्षेत्र है। इसका मूल कारण है कि ऐसे प्रदेशों में एक ही विकास कार्य पर कई बार निवेश करना पड़ता है। अतः विकास की प्रक्रिया शिथिल और धीमी हो जाती है।
(ii) सामाजिक कारक: सामाजिक कारकों में साक्षरता की कमी सबसे बड़ी समस्या है और विशेष रूप में महिलाओं में साक्षरता की कमी पिछड़ेपन का कारण है। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत के 48 जिलों में जनजातीय महिलाओं की साक्षरता 2 प्रतिशत या उससे भी कम है। पुनः SC और ST में एकाकी जीवन शैली भी विकास कार्यों में बाधाएं उत्पन्न करती है। पूर्वांेतर भारत में पिछड़ेपन का यह एक प्रमुख कारण है।
पुनः समाज के परंपरागत मान्यताओं एवं धार्मिक मान्यताओं के पकड़ के कारण ही विकास प्रक्रिया शिथिल होती है। देश की लगभग आधी कार्यकारी जनसंख्या महिला श्रमिक है। लेकिन कार्यों में उसकी भागीदारी 30 प्रतिशत से भी कम है। अतः सीमित कार्यिक जनसंख्या पर सामाजिक कारणों से अकार्यकारी जनसंख्या का दबाव बढ़ता है, जिससे प्रति व्यक्ति आय में कमी होती है।
(iii) जनांकिकी कारक: जनांकिकी कारकों के कारण भी भारत के वृहत क्षेत्र पिछड़ेपन की स्थिति में है। इसके अन्तर्गत दो प्रमुख कारण हैं-
अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि के कारण ही विकास प्रक्रियाओं का पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता है। 100 करोड़ की जनसख्ंया की आवश्यक आवश्यकताओं पर ही अधिकांश राशि खर्च हो जाती है। फलस्वरूप विकास की अन्य प्रक्रिया अधूरी रह जाती है। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण अनेक कार्यिक दिनों की बर्बादी होती है, जिनका प्रतिकूल प्रभाव विकास कार्यों पर पड़ता है।
(iv) आर्थिक कारक: आर्थिक कारकों में जीवन निर्वाह कृषि और भूमिहीन कृषक मजदूरों की बहुलता भारत के ग्रामीण अर्थव्यवसथा के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण है। पुनः गरीबी एवं ट्टणग्रस्तता ग्रामीण सामाजिक विकास के लिए गंभीर चुनौती है।
परिवहन एवं संचार साधनों का अभाव भी पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण कारण है। पूर्वोतर भारत में 2000 किमी. से भी कम रेल लाइन का विस्तार है। वहां के अधिकतर गांव सड़क एवं संचार सुविधा से वंचित हैं। ये सुविधाएं संसाधनों के विकास में सहायक होते हैं।
इन सुविधाओं का अभाव संसाधनों के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण है। पूर्वोंतर भारत में देश के कुल विद्युत का 30 प्रतिशत संचित भंडार है ,लेकिन यह अपने कुल भंडार का 1 प्रतिशत भी विकसित नहीं कर पाया है।
(v) राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारक: प्रथम पंचवर्षीय योजना से 8 वीं पंचवर्षीय योजना तक योजना आयोग द्वारा विकास को दी गयी राशि में राज्यवार विषमता पायी जाती है। पिछड़े राज्यों में विकास के लिए राजनीतिक प्रशासनिक वातावरण नहीं बनाया गया है।
इन राज्यों की कानून व्यवस्था विदेशी निवेशकों के लिए बहुत विश्वसनीय नहीं है। पूर्वोंतर भारत में उग्रवाद एवं विभाजक शक्तियों ने विदेशी एवं देशी निवेशकों को निवेश करने से रोक रखा है। इन क्षेत्रों में पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण है।
(vi) योजनागत कारण: स्वतंत्रता के बाद नियोजित विकास की रणनीति से भी प्रादेशिक विषमता में वृद्धि हुई है। द्वितीय योजना में भारी औद्योगिक विकास एवं 1966-67 में हरित क्रांति के आगमन ने भारी अन्तःप्रादेशिक एवं अन्तर्प्रादेशिक विषमता को जन्म दिया पुनः उद्योगों को कृषि क्षेत्र से संबंधित न करने कारण कृषि एवं उद्योगों का समन्वित विकास नहीं हो सका, जिससे पांजाब एवं हरियाणा जैसा विकास का एकीकृत भूदृश्य देश के अन्य भागों में उपस्थित नहीं हो सका।
उपर्युक्त वर्णित कारणों से ही भारत के आर्थिक विकास में प्रादेशिक विषमता उत्पन्न हुई है। यद्यपि इस प्रादेशिक विषमता को दूर करने के लिए विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में अनेक प्रयास किये गये हैं, इस दिशा में अभी और गंभीर प्रयास करने की संरचनात्मक जरूरत है। संरचनात्मक सुधार के माध्यम से प्रादेशिक विषमता दूर करना संभव है।
Question : कावेरी जल अधिनिर्णय की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
(2002)
Answer : कावेरी दक्षिणी भारत की सर्वाधिक महत्व वाली नदी है। इसे वहां के कृषि की जीवन धारा माना जाता है। यह केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा पांडिचेरी नामक प्रदेशों से होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इसमें पश्चिमी घाट पर होने वाले वर्षा का पानी लगभग वर्ष भर बहता रहता है।
इस नदी का अपवाह तंत्र अनूठा है। ऊपरी भाग ब्रह्मगिरी (कर्नाटक) में स्थित है, जो जल का स्रोत क्षेत्र है, जबकि मध्य और निचला भाग तमिलनाडु में स्थित है। पानी के आपसी बंटवारे को लेकर दोनों राज्यों में काफी तनाव रहा है। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को ताक पर रखने की कोशिश की गयी।
इसी संदर्भ में कावेरी जल अधिनिर्णय महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके अनुसार अपवाह क्षेत्र के आधार पर दोनों राज्यों को पानी बांटा जायेगा। कर्नाटक में अपवाह क्षेत्र कम है। अतः कर्नाटक को कम पानी का लाभ मिलना चाहिए।
पूर्व के इस निर्णय, कि कर्नाटक 1.3 बिलियन क्यूसेक मीटर पानी छोड़ेगा, को थोड़ा कम कर दिया गया है। यह मात्र अब .80 बिलियन क्यूसेक मीटर ही रहेगी। मानसून कम आने से नदी के प्रवाह में भारी अंतर आ जाता है। अतः यह निर्णय इसी बात के मद्देनजर दिया गया है।
ज्यादा पानी की जरूरत भी फसल को छोड़कर कम पानी वाले फसल के प्रकार को बोने की बात कही गई है, ताकि कम पानी की स्थिति में फसल को कोई नुकसान न हो। नदी के पूरे अपवाह क्षेत्र के पारिस्थितिकी की सुरक्षा पर भी ध्यान देने की बात की गयी है।
Question : भारत के आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असमानताओं का तर्कयुक्त कारण बताइए तथा इस समस्या के समाधान में विकेन्द्रित आयोजना के योगदान को उजागर कीजिए।
(2002)
Answer : भारत में आर्थिक विषमताएं उस भयावह सच की तरह बढ़ती जा रही हैं, जो भारत के संपूर्ण विकास, संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न होने की परिकल्पना को धूमिल करती प्रतीत होती हैं। इन आर्थिक विषमताओं के प्रमुख कारणों को दो भागों में रखा जा सकता हैः
(क) भौतिक कारण: जैसे अच्छी जलवायु, उपजाऊ मृदा, जल की सुविधा, समान उच्चावच्च आदि।
(ख) अभौतिक कारण: धर्म, संस्कृति, इतिहास, जनसंख्या, सरकारी नीतियां, शिक्षा आदि। भारत के अंदर भी इन कारणों की उपस्थिति रही है, जिससे क्षेत्रीय असमानताओं का जन्म हो गया है।
भारत को विकास के आधार पर कुछ क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता हैः
(i) आर्थिक रूप से विकसित एवं समृद्ध प्रदेश।
(a) हरित क्रांति के क्षेत्र : जैसे- हरियाणा, पंजाब, पूर्वी उत्तर प्रदेश, कृष्णा- गोदावरी डेल्टा।
(b) महानगरीय क्षेत्र : देश के सभी महानगर उन्नति के द्वीप की तरह हैं। जैसे- कोलकाता, मद्रास, मुंबई, दिल्ली।
(c) औद्योगिक क्षेत्र: औद्योगिक विकास के कारण ये क्षेत्र विकास के केन्द्र बने हुए हैं। कलकत्ता, हुगली क्षेत्र, मुम्बई उप-क्षेत्र आदि।
(d) राजधानियों एव छोटे औद्योगिक प्रदेश: राजनीतिक केन्द्र होने के कारण आर्थिक गतिविधियां भी तेज हो जाती हैं। अतः राज्यों की राजधानियां भी विकास केन्द्र बनी हैं।
भारत में सिर्फ अंतर्राज्यीय विषमता ही नहीं, वरन् राज्य सरकार एवं अंतर्व्यैक्तिक विषमता भी पायी जाती है। अंतर्राज्यीय विषमता के उदाहरण में एक तरफ हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, तमिलनाडु आदि उन्नत राज्य हैं, वहीं बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश आदि पिछड़े। पुनः राज्य के अंदर भी देखें तो महाराष्ट्र में पश्चिम महाराष्ट्र उन्नत हैं, लेकिन विदर्भ एवं खानदेश बेहद पिछड़े हैं।
योजना का प्रमुख उद्देश्य देश का समुचित विकास ही होता है तथा इन सभी विषमताओं को उत्पन्न नहीं होने दिया जाय, इसका पूरा ध्यान रखा जाता है। पर दुर्भाग्य से स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि योजना (केन्द्रीय योजना) को असफल माना जा रहा है और विकेन्द्रित योजना की बात जयादा महत्व रखने लगी। प्रथम बार 1972 में योजना आयोग का गठन राज्य स्तर पर किया गया तथा जिले की योजना के लिए निर्देश 1969 में ही भेजे गये। 1978-83 के बीच में ब्लॉक/ तहसील के स्तर पर योजना की अवधारणा पेश की गयी। पुनः पंचायतों को अधिकार देने की अनुशंसा दांतवाला एवं अशोक मेहता आयोग ने की। इस तरह से योजना का प्रारूप निम्नांकित हो गया।
केन्द्र ® राजधानी ® जिले ® तहसील ® पंचायत ® गांव
इस विकेन्द्रीकरण का प्रमुख कारण आर्थिक विषमताओं को दूर करना ही है। क्योंकि यह स्थापित तथ्य है कि हर क्षेत्र के व्यक्ति ही यह भलीभांति समझते हैं। कि उनके संसाधन क्या हैं। उनकी क्षमता क्या है? उनकी आवश्यकता क्या है, उपाय क्या है और क्या करने की जरूरत है। इस तरह से योजना का विकेन्द्रीकरण केन्द्र एवं राज्य सरकारों के सर्वे, जांच-पड़ताल आदि में आये अनावश्यक खर्च से भी मुक्त करता है।
Question : जल विभाजक की अवधारणा एवं भूमि प्रबंधन में इसकी उपयोगिता स्पष्ट कीजिये।
(2001)
Answer : जल विभाजक एक क्षेत्रीय भौतिक इकाई है, जिसका सीमांकन जल विभाजक रेखा द्वारा होता है। जल विभाजक एक ऐसी उच्च भूमि है, जो जल प्रवाह की दिशाओं का विभाजन करता है। स्थलाकृति विज्ञान में जल विभाजक प्रदेश को नदी बेसिन अथवा नदी का जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। जल प्रवाह की एक निश्चित दिशा मृदा में जल की स्थिति, भूमिगत जल स्तर एवं जीवमंडल की जैविक विविधताओं का निर्धारण करती है। ये सभी कारक मिलकर भौतिक सह जैविक पर्यावरण का निर्माण करते हैं।
विगत कुछ वर्षों में जल विभाजक क्षेत्र में वनों की अंधाधुंध कटाई, खनन उद्योग का विकास, बहुउद्देशीय परियोजनाओं का विकास आदि के कारण जल विभाजक प्रदेश का प्राकृतिक पर्यावरण प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है। इसके साथ ही साथ जल विभाजक प्रदेश में अवैज्ञानिक कृषि के कारण मृदा अपरदन, अम्लीयता, क्षारीयता एवं लवणीयता की समस्या गंभीर हो गयी है। उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप प्राद्वीपीय भारत के जल विभाजक प्रदेशों में सूखे की तीव्रता एवं बारंबारता में वृद्धि की संभावना उत्पन्न हुई है। सतही जल एवं भूमिगत जल का संभाव्यता में कमी आयी है। जल जमाव की समस्या भी उत्पन्न हुई है। पर्वतीय प्रदेशों में भू-स्खलन की समस्या भी उत्पन्न हुई है। नदियों एवं नहरों में अवसादों के जमाव के कारण बाढ़ की समस्या गंभीर हुई है। अतः भूमि प्रबंधन के क्षेत्र में जल विभाजक की अवधारणा महत्वपूर्ण हो जाती है।
जल विभाजक नियोजन की एक प्राकृतिक इकाई है। प्रादेशिक नियोजन में एक समरूप प्रदेश के रूप में यह अपनी पहचान स्थापित करती है। जल विभाजक प्रदेश में भौगोलिक दशाओं जैसे- तापमान, वर्षा, आर्द्रता, ढाल, वनस्पति, उच्चावच आदि की दृष्टि से आंतरिक समरूपता पायी जाती है। अतः जल विभाजक प्रदेश की विभिन्न समस्याओं के निदान एवं क्षेत्र विशेष में पारिस्थैतिक संतुलन बनाये रखने के लिए मृदा प्रबंधन आवश्यक है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए आवश्यक है कि वह पारिस्थैतिक मित्र जल एवं भूमि प्रबंधन तथा कृषि विकास के कार्य करे। इजरायल जैसे देश में शुष्क वातावरण के बावजूद जल विभाजक प्रबंधन प्रक्रिया द्वारा जल एवं मृदा प्रबंधन के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। भारत में सातवीं पंचवर्षीय योजना में जल विभाजक प्रबंध की नीति अपनाने का निर्णय लिया गया। इसके पूर्व भी इससे मिलते-जुलते कार्यक्रम चलाये गये थे।
सर्वप्रथम 1956 ई. में प्रायोगिक तौर पर भारत में 42 जल विभाजक प्रदेशों की पहचान की गयी थी। इसके पश्चात 1961-62 ई. में भारत के 18 राज्यों में 29 जलग्रहण क्षेत्र सीमांकित किये गये। इन जल विभाजक क्षेत्रों के विकास का कार्य आठवीं पंचवर्षीय योजना तक चलता रहा, परंतु वास्तविक अर्थों में इस कार्यक्रम की शुरुआत 1991 की वार्षिक योजना में हुई, जब 2497 जल विभाजक प्रबंध एककों के माध्यम से जल एवं मृदा के समुचित विकास का कार्य प्रारंभ किया गया। 1974 से 1989 तक सूखा ग्रसित क्षेत्र में जल विभाजक विकास कार्यक्रम को प्रधानता दी गयी। 1982-83ई. में बाढ़ ग्रसित क्षेत्रों के जल विभाजक क्षेत्रों में जल विभाजक प्रबंध कार्यक्रम चलाये गये। 1995 ई. में वर्षा आधारित (Rainfed Area) क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलविभाजन कार्यक्रम (NWDPRA) प्रारंभ किया गया।
जल विभाजक प्रबंध एक बहुआयामी विकास योजना है। कृषि मंत्रालय द्वारा इसके निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य निर्धारित किये गये हैं-
जल विभाजक प्रदेश का आकार निश्चित नहीं होता है। वस्तुतः किसी भी प्रदेश में जल विभाजकों का एक पदानुक्रम पाया जाता है। भारत में जल विभाजक प्रबंध हेतु विभाजकों के तीन पदानुक्रम निर्धारित किये गये हैं। वृहत आकार वाले जल विभाजक प्रदेश के अंतर्गत बड़े नदी बेसिन को रखा जाता है। मध्य आकार के अंतर्गत बड़ी नदियों की सहायक नदियों के बेसिन आते हैं। लघु-स्तर के अंतर्गत प्रखंड एवं पंचायत स्तर पर छोटे-छोटे जलग्रहण क्षेत्रों को रखा जाता है। पंचायत स्तर पर छोटे-छोटे जलग्रहण क्षेत्रों को रखा जाता है। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा सबसे छोटे जल-विभाजक का आकार 50 हेक्टेयर माना गया है।
जल-विभाजक प्रबंध का कार्य मुख्यतः चार चरणों में किया जाता है। प्रथम चरण में जल-विभाजक प्रदेश का सीमांकन तथा उसके जल एवं मृदा से संबंधित संसाधनों का सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है। दूसरे चरण मेंजल विभाजक प्रदेश की समस्याओं के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है। आम लोगों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं विभिन्न कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता का अनुमान लगाया जाता है। तीसरे चरण में विकास मॉडल का निर्धारण किया जाता है। जल के उपयोग की विधियों का विकास एवं कार्यान्वयन, प्रादेशिक भू-उपयोग नीति के अंतर्गत फसलों का चमन, पशुपालन का विकास आदि कार्य किये जाते हैं। चौथी अवस्था में विकास कार्यों का मूल्यांकन किया जाता है तथा विकास कार्य में आने वाले बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया जाता है।
भारत में जल विभाजक प्रबंध कार्यक्रम अभी भी देश के आधे जिलों में ही चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम की सफलता आम लोगों की सहभागिता, वित्तीय सुविधा, पंचायती राज संस्थाओं की प्रतिबद्धता आदि तथ्यों पर निर्भर करेगी। संबंधित संस्थाओं को कार्यक्रम की तकनीकी जानकारी के अभाव के कारण इसके कार्यान्वयन की गति काफी धीमी है। जल विभाजक क्षेत्र के संसाधनों के मूल्यांकन में भी तकनीकी कठिनाइयां हैं। इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण आवश्यक है। इन जटिलताओं के बावजूद समुचित मृदा एवं जल प्रबंध, भारतीय कृषि को टिकाऊ बनाने एवं पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने के लिए जल विभाजक प्रबंध कार्यक्रमों को राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण समर्पण के साथ क्रियान्वित करना आवश्यक है।
Question : भारत की बहुस्तरीय नियोजन की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
(2000)
Answer : एक नियोजन प्रक्रिया या तो एक स्तरीय हो सकती है या बहुस्तरीय। बहुस्तरीय नियोजन की संकल्पना को विभिन्न प्रकार के प्रदेशों के लिए नियोजन के तौर पर पारिभाषित किया जा सकता है, जो मिलकर एक तंत्र व उपतंत्र का निर्माण करते हों। इस नियोजन में राष्ट्रीय क्षेत्र को छोटे-छोट क्षेत्रीय इकाईयों में विभक्त किया जाता है। इन छोटे इकाईयों की संख्या देश के आकार तथा उसकी प्रशासकीय भौगोलिक एवं क्षेत्रीय संरचना पर निर्भर करती है। यहां नीचे के स्तर का नियोजन उच्चस्तरीय नियोजन के लिए आधार प्रदान करता है। इसी प्रकार उच्चस्तरीय प्रादेशिक योजना नीचे के स्तर के क्षेत्रीय योजना के लिए ढांचा प्रदान करती है।
बहुस्तरीय प्रणाली में सहभागी स्तरों के बीच बारंबार/निंरतर अंतर्क्रिया हो, इसके लिए आवश्यक तंत्र तथा प्रक्रिया विकसित करने के उद्देश्य से निम्न छः परिचालनीय सिद्धांत बताये गये हैं-
(क)कार्य-सहभागिता का सिद्धांत
(ख)वित्तीय विकेंद्रीकरण का सिद्धांत
(ग)प्रशासकीय विकेंद्रीकरण का सिद्धांत
(घ)लोक सहभागिता का सिद्धांत
(घ)पुनरावृति का सिद्धांत
(च)समन्वीकरण का सिद्धांत
बहुस्तरीय नियोजन की संकल्पना के बहुत से अंन्तर्निहित फायदे हैं, जो इस प्रकार हैं-
भारत में बहुस्तरीय नियोजन के पांच स्तरों का चिन्हित किया गया है जो निम्न हैं-
भारत में ज्यादातर समय से केंद्रीकृत नियोजन ही अपनाई जाती रही है। 1950-70 के बीच पंचायत स्तर पर कुछ कार्य किये गये परंतु 70 से 80 के बीच क्षेत्र विशेष विकास कार्यक्रम पर बल दिया गया। 1980 से 93 के बीच जिला स्तर पर आयोजन बना कर कार्यक्रम चलाये गये, लेकिन विकेंद्रीकृत नियोजन का असली चरण 1993 के बाद से शुरू होता है, जब 73वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक अधिकार दिये गये। अब हरेक स्तर पर क्षेत्रीय आयोजना बनाने पर जोर दिया जाने लगा है। भारत जैसे विशाल देश में जहां इतनी भौतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विविधता हो, बहुस्तरीय नियोजन देश के सामाजिक-आर्थिक रुपांतरण में महती भूमिका अदा कर सकता है। इसमें लोक भागीदारी द्वारा राष्ट्रीय स्तर के उद्देश्य की पूर्ति में स्थानीय स्तर की भी भागीदारी होती है तथा स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग स्थानीय समस्याओं को सुलझाने में ये ज्यादा सक्षम भी रहती हैं।
Question : भारत में बहुस्तरीय नियोजन की प्रकृति एवं उपयोगिता।
(1999)
Answer : नियोजन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पहचान करना तथा ऐसी नीतियों का निर्धारण करना है जिनसे इन्हें प्राप्त किया जा सके। साध्य एवं साधनों के समन्वय द्वारा आर्थिक समस्याओं का समाधान करना भी इसका उद्देश्य होता है। जब हम बहुस्तरीय नियोजन की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य यह होता है कि अर्थव्यवस्था के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय खण्डों को उनकी आवश्यकताको ध्यान में रखते हुए संसाधनों का आवंटन किया जाये, ताकि प्रादेशिक विषमताओं को दूर कर संतुलित विकास किया जा सके।
प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं में राष्ट्र ही नियोजन की इकाई रहा। चौथी योजना से राज्यों ने अपनी योजनाएं बनायीं। इनमें जिला और विकास खण्डों को क्रियान्वयन स्तर पर शामिल किया गया। लक्ष्य क्षेत्रों एवं लक्ष्य समूहों के नियोजन की आवश्यकता महसूस होने पर नियोजन को विकेन्द्रित किया गया। अंततः पंचायती राज अधिनियम के लागू होने से विकेन्द्रीकरण को नया सशक्त आधार प्राप्त हुआ। ‘नीचे से विकास’ की अवधारणा को इससे बल मिला। यद्यपि ऐसा करना एक सार्थक कदम था, फिर भी क्रियान्वयन में दोष के कारण यह प्रणाली सही मायने में अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पा रही है।
Question : भारत के आर्थिक विकास में प्रादेशिक असमानताओं के कारणों का विश्लेषण कीजिए तथा उनके निराकरण हेतु सुझाव दीजिए।
(1999)
Answer : भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय, कृषि विकास, औद्योगिक विकास, सड़कों की लम्बाई, नगरीय जनसंख्या आदि में भारी विषमता देखी जा सकती है। आम तौर पर भारत की भौगोलिक विविधताओं को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता था, परन्तु इसमें ऐतिहासिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। निम्न प्रकार से इन कारकों का विश्लेषण करना उचित होगाः
1. भौगोलिक विषमता: भारत एक विशाल देश है और इसे भौगोलिक विषमताओं के कारण बहुत से क्षेत्र या तो संसाधनों की दृष्टि से धनी हैं या फिर संसाधनों से वंचित है। भूमि, जलवायु, मृदा, जल संसाधन, खनिज आदि की दृष्टि से कई क्षेत्र प्रतिकूल अवस्था में हैं। इन सभी कारकों से संसाधनहीन क्षेत्रों में कृषि एवं औद्योगिक विकास बाधित हुआ है और यहां के लोग काफी पिछड़े हैं। इसके विपरीत संसाधनों की दृष्टि से धनी क्षेत्रों का तीव्र गति से विकास हुआ है। इसके बावजूद हम पाते हैं कि छोटानागपुर क्षेत्र खनिज की दृष्टि से धनी होते हुए भी पिछड़ा है और राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्र आज कृषि उपज में अपनी धाक जमा रहे हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मात्र भौगोलिक कारक ही इस असमानता के लिए उत्तरदायी नहीं हैं।
2. ऐतिहासिक कारक: भारत में ऐतिहासिक कारणों ने मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता एवं मद्रास के विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभायी और इन्हीं केन्द्रों ने विकास के केन्द्रक के रूप में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। संसाधनों की दृष्टि से धनी होने के बावजूद बिहार, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश का समुचित विकास नहीं हो सका है।
3. पूंजी का प्रवाह: प्रायः देखा गया है कि प्राकृतिक या ऐतिहासिक दृष्टि से यदि किसी क्षेत्र का विकास हो जाता है तो पूंजी का पलायन भी उसी क्षेत्र की ओर होता है। श्रमिक, शिक्षित व्यक्ति तथा उद्योगपति उसी क्षेत्र की तरफ आकर्षित होते हैं। इसी चक्र का विपरीत प्रभाव पिछड़ेक्षेत्रों पर होता है और पूंजी, श्रमिक आदि के अभाव में वे पिछड़ते जाते हैं।
4. सरकारी नीतियां: भारत सरकार ने आर्थिक प्रगति के लिए कुछ विशेष क्षेत्रों को चुन कर इस आशा के साथ उन्हें विकसित किया कि उनके विकास से उनके समीपवर्ती क्षेत्र लाभान्वित होंगे। उसने इन क्षेत्रों के चुनाव करने में उन्हीं स्थानों को प्राथमिकता दी, जो पहले से ही विकसित थे। आयोजकों का मानना था कि यदि हम अपने सीमित संसाधनों को चारों तरफ बिखेर देंगे तो इसका लाभ किसी को भी प्राप्त नहीं होगा। हरित क्रांति के लिए सरकार ने पंजाब व हरियाणा को चुना जो पहले से हीे सम्पन्न थे। इसके फलस्वरूप देश के अन्य हिस्सों को इसका लाभ नहीं मिल सका और वे पिछड़े के पिछड़े ही रह गये। भारत सरकार ने अपनी लाइसेंसिंग नीति के तहत औद्योगिक रूप से विकसित प्रदेशों या क्षेत्रों को ही लाभ पहुंचाया। अधिकांश लाइसेंसों में से 51% मुम्बई, पूना और थाना कोमिले। इस प्रकार क्षेत्रीय असमानता को बढ़ावा मिला। महाराष्ट्र जैसे उन्नत राज्य में भी क्षेत्रीय असमानता विकसित हुई।
5. वित्तीय संस्थान: भारत में अनेक वित्तीय संस्थायें स्थापित की गयीं, जिनका उद्देश्य राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान कर क्षेत्रीय असमानता को दूर करना था। इन संस्थानों ने इस उद्देश्य की पूर्ण रूप से अवहेलना की। उदाहरण के तौर पर भारतीय औद्योगिक विकास बैंक ने 1977 में कुल सहायता राशि का 48% महाराष्ट्र, गुजरात एवं तमिलनाडु को आवंटित किया। अन्य वित्तीय संस्थानों का रूप भी ऐसा ही रहा। इस प्रकार वित्तीय संस्थानों ने विकसित और अविकसित क्षेत्रों के बीच असमानता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
क्षेत्रीय असमानता को दूर करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव इस प्रकार हैंः
1. विशेष क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम: इन कार्यक्रमों का मुख्य लक्ष्य पिछड़े क्षेत्रों का विकास होना चाहिए। इन कार्यक्रमों को निम्न भागों में बांटा जाना चाहिएः
2. औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों का विकासः (i) सरकार द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना में पिछड़े क्षेत्रों का चयन करना, (ii) निजी क्षेत्रों को रियायतों द्वारा इन क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने के लिए प्रेरित करना, (iii) लघु एवं कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना।
3. अधःसंरचना का विकास: सरकार को पिछड़े क्षेत्रों में अधःसंरचना का विकास करना चाहिए। इन क्षेत्रों में यातायात, संचार, बैंक, ऊर्जा आदि की स्थिति दयनीय है, जिसके कारण इन क्षेत्रों का विकास संभव नहीं हो सका है। सरकार इन सुविधाओं को मुहैय्या करा कर न सिर्फ यहां सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग स्थापित कर सकती है, बल्कि निजी क्षेत्र को भी यहां उद्योग लगाने के लिए प्रेरित कर सकती है।
4. कृषि का विकास: सरकार सिंचाई परियोजनाओं तथा बहुद्देशीय परियोजनाओं द्वारा बीज, खाद, ऋण आदि रियायती दर पर उपलब्ध करा कर और प्रशिक्षण, शुष्क खेती आदि को बढ़ावा देकर कृषि विकास को बढ़ावा दे सकती है।
5. आर्थिक सहायता: सरकार पिछड़े राज्यों को योजना सहायता, गैर-योजना सहायता, विवेक अनुदान आदि देकर इन राज्यों को अतिरिक्त आर्थिक सहायता प्रदान कर सकती है, जिससे ये राज्य अपने आर्थिक पिछड़ेपन को दूर कर सकें।
इस प्रकार इन प्रभावोत्पादक सुझावों के सफल क्रियान्वयन तथा जनभागीदारी सुनिश्चित कर न सिर्फ अन्तर क्षेत्रीय विषमता, बल्कि अंतःक्षेत्रीय विषमता को भी दूर किया जा सकता है।
Question : प्रस्तावित गंगा-कावेरी अपवाह तंत्र योजक की साध्यता का मूल्यांकन कीजिये।
(1998)
Answer : गंगा-कावेरी अपवाहतंत्र योजक योजना के समर्थक, कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इसका समर्थन कर रहे हैं। सर्वप्रथम, गंगा हिमालय से निकलने वाली सदानीरा नदी है तथा कावेरी प्रायद्वीपीय नदी है। जहां जलाधिक्य के कारण गंगा में बाढ़ का प्रकोप बना रहता है, वहीं जल की कमी के कारण कावेरी के आसपास के क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा का अभाव पाया जाता है। दूसरा, कावेरी जल विवाद का मूल मुद्दा अपर्याप्त जल का बंटवारा है। इस प्रकार, गंगा से अतिरिक्त पानी प्राप्त कर, न सिर्फ इस समस्या का समाधान हो सकता है बल्कि गंगा में भी बाढ़ का प्रकोप कम हो सकता है। तीसरा, समुचित जल की उपलब्धता से नदी बेसिन योजना को क्रियान्वित करने में आसानी हो सकती है।
कागज पर यह योजना सार्थक प्रतीत होती है, परन्तु इसकी व्यावहारिकता संदिग्ध है क्योंकि इस योजना को क्रियान्वित करने में अनेक राज्यों का सहयोग प्राप्त करना होगा। कावेरी जल विवाद तथा अन्य जल विवादों को देखते हुए ऐसा महसूस किया जा रहा है कि कोई भी राज्य अपने स्वार्थ से परे कोई कदम नहीं उठा सकता है। इस प्रकार, अनेक राजनीतिक व प्रशासनिक समस्याओं ने इस परियोजना की साध्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। इसके अलावा इस योजना को पूरा करने में काफी पूंजी की आवश्यकता होगी, जो मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों में असंभव-सा प्रतीत होता है। इस प्रकार, अगर इस योजना को क्रियान्वित करना है, तो हमें राज्यों का सहयोग तथा पर्याप्त पूंजी उपलब्ध कराने के उपायों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।
Question : भारत में प्रादेशिक चेतना और राष्ट्रीय एकता में भाषाओं की भूमिका पर चर्चा कीजिये।
(1998)
Answer : भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 भाषाओं का उल्लेख है, परन्तु क्षेत्रीय स्तर पर असंख्य भाषाएं भारत में बोली जाती हैं। किसी भी क्षेत्र के परिसीमन में आंतरिक एकरूपता व बाह्य भिन्नता को मापदंड माना गया है। भाषा ने भारत में आंतरिक एकरूपता तो प्रदान की है, परन्तु बाह्य भिन्नता के कारण समय-समय पर उग्र क्षेत्रीय चेतना को भी बढ़ाया है, जिससे राष्ट्रीय एकता प्रभावित हुई है।
भाषा के आधार पर हम भारत को 18 क्षेत्रों में बांट सकते हैं। परन्तु इन क्षेत्रों में कई ऐसे क्षेत्र भी शामिल किये जाते हैं, जहां दो या दो से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। भारत में राज्यों के निर्माण में भाषा को प्रमुख आधार बनाया गया था। हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात आदि राज्यों का निर्माण भाषायी आधार पर ही हुआ है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि बहुभाषाई प्रदेश हैं, परन्तु यहां की मुख्य भाषा हिन्दी है। इस प्रकार, हिन्दी उत्तरी राज्यों को एक दूसरे से जोड़ती है। इसके विपरीत, दक्षिणी राज्य हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं मानते हैं। इस प्रकार, हमारा देश हिन्दी व अहिन्दी (मुख्यतः दक्षिणी व उत्तर-पूर्वी राज्य) राज्यों में विभाजित है। दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के विरूद्ध कई आंदोलन हुए हैं। इसका दूरगामी परिणाम क्षेत्रीय चेतना के रूप में उभर कर सामने आया है।
सांस्कृतिक क्षेत्रों को परिसीमित करने में भी भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषायी भिन्नता एक सांस्कृतिक क्षेत्र को दूसरे से अलग करती है। भारत में राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को तो आधार माना गया, परन्तु इस आधार पर ऐसे राज्यों का निर्माण हुआ, जिनमें दो या इससे अधिक भाषाओं का प्रचलन था। इसके कारण विभिन्न आंदोलन किये गये और राज्यों का दुबारा पुनर्गठन किया गया। उदाहरण के तौर पर, पंजाब के हिन्दी भाषी क्षेत्र से हरियाणा राज्य का निर्माण हुआ।
भाषा को लेकर अनेक राज्यों में विस्फोटक स्थिति भी उत्पन्न हुई है। उदाहरण के तौर पर, कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्र में मराठी भाषा को लेकर कई दंगे हुए। इससे देश की एकता को खतरा उत्पन्न होता है। भाषा के आधार पर अनेक क्षेत्रीय दलों का गठन हुआ है, जो भाषाई भिन्नता का राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं। कुछ ऐसे दलों का भी निर्माण हुआ है, जो अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने के लिए आंदोलन का मार्ग अपनाने लगे हैं। इनमें से कुछ को सफलता भी मिली है और शुरू में 15 भाषाओं के स्थान पर आज 18 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है।
इन सब के बावजूद, राज्य स्तर पर भाषाओं ने वहां की जनता को एक सूत्र में पिरोये रखा है। यह भाषाई एकरूपता की अमूल्य देन है। भारत विभिन्नताओं का देश है। भाषायी भिन्नता भी इसका अभिन्न अंग है। क्षेत्रीय स्तर पर भाषायी एकता क्षेत्र विशेष को एक सूत्र में बांध कर रखता है, परन्तु भाषायी एकता के दुरुपयोग से राष्ट्र की एकता को खतरा उत्पन्न हो जाता है। हमें चाहिये कि हम सभी भाषाओं का सम्मान करें और किसी क्षेत्र में कोई अन्य भाषा थोपने का प्रयास न करें। इसी तरह राष्ट्र की एकता व अखण्डता को बनाये रखा जा सकता है।