Question : मृदा क्षरण एवं संरक्षण
(2005)
Answer : मृदा की उत्पत्ति मुख्यतः ऋतुक्षरण प्रक्रिया से होती है, लेकिन जब स्तरित ऋतृक्षरित चट्टानी कणों का अपरदन प्रारंभ हो जाता है, तो उसे मृदा अपरदन या मृदाक्षरण कहते हैं। मृदा एक संसाधन है, अतः जब अपरदन प्रक्रिया से उसके साधनात्मक गुणों का क्षय होने लगता है, तो उसे मृदाक्षरण की प्रारंभिक स्थिति कहते हैं। विश्व खाद्य संगठन के अनुसार विश्व की करीब एक तिहाई मृदा क्षेत्र अपरदन की समस्या से ग्रसित है और यह समस्या मूलतः विकासशील देशों की है।
मृदाक्षरण के कारणों को हम दो प्रमुख वर्गों में रख सकते हैं.
(i) प्राकृतिक कारक (ii) मानवीय कारक
प्राकृतिक कारकों के अंतर्गत 4 प्रमुख प्रक्रियाएं हैं .
(i) जलोढ़ अपरदन (ii) वायु अपरदन (iii) हिमानी अपरदन और
(iv) समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन
मानवीय कारकों को दो भागों में रखा जा सकता है.
(i) प्रत्यक्ष कारक एवं
(ii) अप्रत्यक्ष कारक
प्रत्यक्ष कारकों में वनों का विनाश, अत्यधिक पशुचारण, अवैज्ञानिक कृषि तथा आकस्मिक बाढ़ प्रमुख हैं।
अप्रत्यक्ष कारकों में नहर सिंचाई तथा बांध के कारण मृदाक्षरण और ” ह्रास, जलाशय का प्रभाव तथा अनियोजित क्षेत्रों में निर्माण तथा विकास के कार्य महत्वपूर्ण हैं।
मृदाक्षरण का प्रभाव विश्व के प्रायः सभी देशों में है लेकिन सर्वाधिक प्रभाव उष्णकटिबंधीय देशों में देखने को मिलता है। यू.एन.ई.जी. के अनुसार विश्व की करीब एक तिहाई मृदा अपरदन की समस्या से ग्रसित है। आइवरी कोस्ट, बुरकिनाफासो लेसोथो और हैती जैसे देशों में 80% से भी अधिक क्षेत्र मृदाक्षरण की समस्या से प्रभावित हैं। मृदाक्षरण से बंजर भूमि में वृद्धि, सूक्ष्म जीवों का नाश, भूमिगत जलस्तर में कमी, जैविक विविधता में ” ह्रास, मरूस्थलीय वातावरण का विस्तार तथा भूमि की उत्पादकता में क्रमिक कमी आदि समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
मृदा संरक्षणः मृदा संरक्षण की दिशा में सर्वप्रथम वानिकी कार्यक्रम को अपनाया गया है। 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन में वानिकी विकास एवं संरक्षण पर एक विशेष समझौता हुआ है जिसके तहत सभी हस्ताक्षरकर्त्ता देश (111 देश) अपने भूमि के 33% क्षेत्र पर वनों का विस्तार करने के लिए सहमत हुए हैं। मृदाक्षरण पर नियंत्रण हेतु रिल एवं अवनलिका अपरदन क्षेत्र में Bunding का कार्यक्रम प्रायः सभी आर्द्र उष्ण कटिबंधीय देशों में चलाया जाता है। ऋतुप्रधान देशों में मुख्यतः मौनसूनी देशों में वायु अपरदन के प्रभाव को कम करने के लिए कृषकों को फसल चक्र नीति अपनाने की सलाह दी जा रही है। समुद्री तरंगों के बढ़ते अपरदनात्मक प्रभाव तथा मरूस्थलीकरण के विस्तार को रोकने के लिए लोहे की चादरों के अवरोधक बनाने को प्राथमिकता दी गयी है। इस प्रकार कई प्रक्रियाओं के द्वारा मृदाक्षरण की समस्या पर नियंत्रण के प्रयास किये जा रहे हैं।
Question : मृदाओं की उत्पत्ति।
(2003)
Answer : स्थलीय भूपटल की सबसे ऊपरी सतह को मृदा कहा जाता है। इसमें ट्टतुक्षरित चट्टानों के अतिरिक्त जैव पदार्थ जल और वायु का मिश्रण होता है। इसकी उत्पत्ति कई कारकों के अंतक्रिया का परिणाम होता है। संगठनात्मक विशेषता के दृष्टिकोण से उसके चार प्रमुख घटकों का अनुपात इस प्रकार होता हैः
क्र. मृदा का प्रमुख घटक - अनुपात (% में)
1. जीवित प्राणी (सूक्ष्म जीव एवं जैविक पदार्थ) - 5-12
2. खनिज पदार्थ - 38-47
3. मृदा घोल (Soil solution) - 15-35
4. मृदा वायु एवं गैस(soil atmosphere) - 15-35
इन चारों प्रमुख घटकों का विकास मुख्यतः तीन प्रमुख भौगोलिक कारकों पर निर्भर करता है। ये हैं आधारभूत चट्टानें, जलवायु एवं वनस्पति। जलवायु को गत्यात्मक कारक माना गया है। जलवायु प्रभाव से चट्टाने, कृतुक्षरित एवं अपरदित होती हैं, जो अंततः चट्टानी कण और मृदा खनिज का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार जलवायु के प्रभाव से वनस्पति का विकास होता है और वनस्पति ही ह्यूमस का निर्धारक होती है। दिये गये मॉउल की मदद से मृदा उत्पत्ति में जलवायु के महत्व को समझा जा सकता हैः
मृदा का आधार चट्टानी कण होता है। ये कई आकार में पाये जाते हैं। सामान्यत इसके तीन आकार मृदा के प्रमुख निर्धारक हैं, जो बालू, क्ले तथा सिल्ट के रूप में जाने जाते हैं। बालू की प्रधानता वाले मृदा को बलुही मृदा, क्ले प्रधान मृदा को क्लेही मृदा अर्थात् खादर कहा जाता है। सामान्यतः सिल्ट मिश्रण की स्थिति में होता है। इसका मिश्रण बालू अथवा क्ले से हो सकता है। ऐसे मिश्रित मृदा को दोमट या लोमी मृदा कहा जाता है।
मृदा उत्पत्ति पर ट्टतुक्षरण एवं अपरदन के दूतों के प्रभाव का निर्धारण जलवायु द्वारा होता है। लेकिन जलवायु का निर्धारण जलवायु द्वारा अक्षांशीय स्थिति के अलावा उच्चावच, वास्तविक ऊंचाई और स्थलाकृतिक ढाल जैसे कारकों पर भी निर्भर करता है। अतः एक ही चट्टान तथा एक ही अक्षांश होने के बावजूद अलग-अलग ऊंचाई के क्षेत्र में अलग प्रकार के मृदा की संभावना होती है।
उत्पत्ति की विशेषताओं के आधार पर मृदा को तीन वर्गों में रखा जाता हैः
(i) क्षेत्रीय मृदा (Zonal soil)
(ii) अक्षेत्रीय मृदा (Azonal soil)
(iii) अंतः क्षेत्रीय मृदा (Intrazonal soil)
क्षेत्रीय मृदा के कण उस प्रदेश के आधारभूत चट्टानों से मेल खाते हैं। इस मृदा का विकास आर्द्र जलवायु प्रदेश की विशेषता है। क्षेत्रीय मृदा की दो प्रमुख विशेषता होती हैः प्रथमतः आधरभूत चट्टानें ही कृतुक्षरित अवस्था में होती हैं तथा दूसरी मृदा परिच्छेदिका का निर्माण होता है। यह एक लंबवत पार्श्वचित्र होता है, जो चार स्तरों में पाये जाते हैंः
प्रथम दो को मिलाकर सोलम भी कहा जाता है। सोलम मृदा परिच्छेदिका का वह ऊपरी भाग है, जहां तक वनस्पति की जड़ें तथा सूक्ष्म जीवाणु अधिवासित होते हैं।
अक्षेत्रीय मृदा अपरदन दूतों के निक्षेप का परिणाम है। इसमें परिच्छेदिका का विकास नहीं होता है। इसका मूल कारण आधारभूत चट्टानों एवं निक्षेपित कणों के नीचे समरूपता का अभाव होता है। अतः चट्टानों के बीच विषम विन्यास विकसित होता है।
अंतः क्षेत्रीय मृदा की उत्पत्ति क्षेत्रीय मृदा के ही समान उसी क्षेत्र में होती है जहां उसका कृतुक्षरण के अन्तर्गत रासायनिक ट्टतुक्षरण की प्रधानता होती है। अतः चट्टानों के प्राथमिक खनिज द्वितीय खनिज में बदल जाते हैं। अतः क्ले खनिज की विशेषताओं में परिवर्तन हो जाता है और इस परिवर्तन के कारण वे आधारभूत चट्टानों से मेल नहीं खाते हैं।
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि मृदा की उत्पत्ति और उसकी परिच्छेदिका का विकास कई भौगोलिक कारकों का अन्तक्रिया का परिणाम होता है।
Question : मृदा प्रोफाइल।
(2000)
Answer : मृदा प्रोफाइल भूतल से लेकर नीचे तलीय चट्टान या मूल चट्टानी पदार्थ तल मृदा के ऊर्ध्वाधर भाग को प्रदर्शित करती है। यह मृदा के विभिन्न घटकों के लम्बवत वितरण का निदर्शन करती है। एक सुविकसित मृदा में विभिन्न संस्तर होते हैं। ये संस्तर मुख्य रूप से विभिन्न मृदा निर्माण प्रक्रियाओं के कारण विकसित होते हैं तथा अपनी अलग-अलग भौतिक व रासायनिक गुणों के कारण पृथक पहचान रखते हैं। मृदा प्रोफाइल में ये मृदा संस्तर एक सुपरिभाषित परत होती है जो दृश्य रूप से ही विशिष्ट होते हैं।
विद्वानों के अनुसार मृदा में मुख्य रूप से तीन संस्तर पाये जाते हैं-
A और B संस्तर मिलकर असली मृदा या सॉलम का निर्माण करते हैं। C संस्तर में अंशतः अपक्षयित शैल होते हैं, जिसके नीचे मूल चट्टान होती है, जो मृदा निर्माण प्रक्रियाओं द्वारा प्रभावित नहीं होती है। A संस्तर सामान्यतः अपवहन (Eluviation) या अपक्षालन का संस्तर है, जहां से घुलित पदार्थ नीचे B संस्तर में चले जाते हैं। इस प्रकार B संस्तर विनिक्षेपन का संस्तर है। अपक्षालन की तीव्रता मृदा में आर्द्रता की मात्र तथा इसके नीचे जाने की क्षमता पर निर्भर करती है। आर्द्र प्रदेशों में अपक्षालन की क्रिया अधिकतम होती है जबकि शुष्क प्रदेशों में यह न्यूनतम होती है। A संस्तर के ऊपर एक Aº संस्तर होता है, जिसमें अंशतः अपघटित या ताजे जैविक पदार्थ होते हैं। प्रत्येक संस्तर की मोटाई और उसके भौतिक तथा रासायनिक गुण अपक्षालन की मात्र और तीव्रता पर निर्भर करते हैं।
एक मृदा परिच्छेदिका की चारित्रिक विशेषताओं को निम्नांकित ढंग से विवेचित किया जा सकता है-
मृदा प्रोफाइल को प्रभावित करने वाले कारकों में मृदा में जल का संचलन प्रमुख है। जब वाष्पीकरण वर्षापात के समान नहीं हो पाता, तब अधिशेष जल मृदा में नीचे की ओर जाने लगता है और इस प्रक्रिया में शीर्ष परत से खनिज हटने लगते हैं। यह पदार्थ B संस्तर में निक्षेपित हो जाता है अथवा हाईपैन के निर्माण द्वारा कुअपवाह को जन्म देता है। आर्द्र-उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में जल लौह एवं एल्यूमिनियम हाइड्रॉक्साइडों को घोल नहीं पाता, जबकि अन्य पदार्थ घुलकर B संस्तर में जमा हो जाते हैं। इस स्थिति में लैटेराइट मृदा का निर्माण होता है। उष्ण मरुस्थलों एवं अर्ध शुष्क क्षेत्रों की मिट्टियों में जल का ऊपर की और संचलन होने लगता है, जिसके फलस्वरूप खनिज पदार्थ A संस्तर में जमा हो जाते हैं।
नीचे मृदा प्रोफाइल के विभिन्न संस्तरों का प्रदर्शन किया गया है-
Question : सामाजिक वानिकी और पर्यावरण सरंक्षण।
(2007)
Answer : देश में एक करोड़ हेक्टेयर अवक्रमित भूमि पर प्रतिवर्ष वनरोपण की आवश्यकता है, ताकि पारिस्थितिकी संतुलन का नुपर्स्थापन हो सके। सामाजिक वानिकी के द्वारा इस लक्ष्य की पूर्ति वांछित है, क्योंकि इससे न केवल वनाच्छादित क्षेत्र में वृद्वि होगी, वरन् बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन भी होगा। राष्ट्रीय वन नीति के निर्धारिण के पूर्व ही राष्ट्रीय कृषि आयोग ने वन क्षेत्र में अभिवृद्वि के हेतु सामाजिक वानिकी अपनाने का सुझाव दिया था ताकि वनाच्छादित क्षेत्र में विस्तार के साथ-साथ ग्रामीण सामान्य जन की ईंधन, चारा, हल्की-फुल्की इमारती लकड़ी तथा गौण वनोत्पाद की आवश्यकता पूर्ति हो सके। सरकार ने छठी पंचवर्षीण योजना से ही सामाजिक वानिकी को प्रश्रय देना प्रारंभ किया। द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी सामाजिक वानिकी हेतु खुला समर्थन दिया।
इसके पक्ष में ग्रामीण जनता की सहभागीता तथा वन संसाधनों पर स्वामित्व का उद्देश्य भी था। इसे लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा कार्यक्रम के रूप में मान्यता मिली।
सामाजिक वानिकी के तीन प्रमुख घटक हैं कृषि वानिकी, वन विभाग द्वारा नहरों, सड़कों आदि सार्वजनिक सम्पत्ति के किनारे सामुदायिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वृक्षारोपण तथा स्वयं ग्रामीण समुदाय द्वारा सार्वजनिक भूमि पर वृक्षारोपण।
पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से सामाजिक वानिकी के निम्न उद्देश्य हैं:
सामाजिक वानिकी पूर्णरूपेण सफल नहीं रही। इसके द्वारा पर्यावरण संरक्षण का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था, वह पूरा नहीं हो पाया। इसके प्रमुख कारण निम्न हैं:
परिणामतः सामाजिक वानिकी को पर्यावरणीय संरक्षण हेतु नवीन नीति की आवश्यकता है।
Question : मिट्टियों का वितरण
(2006)
Answer : जलवायु, वनस्पति, मूलभूत चट्टान, स्थलाकृति तथा विकास की अवधि में अंतर के कारण विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की मिट्टयों का विकास हुआ है। ये निम्नलिखित हैं: