Question : प्रदेश की संकल्पना क्या है? प्रदेशों के प्रकारों पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : प्रदेश को परिभाषित करना काफी कठिन है। इसका कारण यह है कि इस संकल्पना का प्रयोग विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न अर्थों में किया गया है। भूगोल में प्रदेश की संकल्पना का प्रयोग सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिक हेरोडोटस एवं रोमन चिंतक स्ट्रेबो द्वारा किया गया। स्ट्रेबो ने विश्व का वृहत् भूगोल लिखा था, जो राजनीतिक सीमाओं को आधार मानकर प्रादेशिक भूगोल पर लिखी गई महत्वपूर्ण पुस्तक थी। आधुनिक युग में 19वीं शताब्दी में जर्मनी तथा फ्रांस में प्रदेश की संकल्पना पर महत्वपूर्ण कार्य किए गए। रिटर को प्रादेशिक भूगोल का जनक माना जाता है। फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता ब्लाश ने प्रदेश की संकल्पना में मानवीय तत्वों को समाहित करने पर जोर दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक ज्योग्रफिक यूनिवर्सल में प्रदेश के लिए ‘पेज’ शब्द का प्रयोग किया है।
सामान्य शब्दों में, प्रदेश स्थलखंड की वह इकाई है, जो एक या एक से अधिक पारिभाषित लक्षणों की दृष्टि से आंतरिक समरूपता रखती है तथा इस अर्थ में अन्य क्षेत्रों से भिन्नता प्रदर्शित करती है। ये पारिभाषित लक्षण प्राकृतिक या मानवीय हो सकते हैं। हैगेट के अनुसार ‘धरातल का वह इकाई क्षेत्र जो अपनी विशिष्ट विशेषताओं के कारण समीपवर्ती अन्य इकाई क्षेत्रों से भिन्न समझा जाता है, प्रदेश कहलाता है। हर्बटसन का मानना है कि ‘प्रदेश पृथ्वी तल का वह विशिष्ट क्षेत्र है, जिसके अंतर्गत भौतिक तत्वों (भू- रचना, उच्चावच, जलवायु एवं वनस्पति) तथा जीवधारियों (पशु एवं मानव) में विशिष्ट संबंध होता है। अमेरिकी भूगोलवेत्ता हार्टशोर्न ने प्रदेश को पारिभाषित करते हुए लिखा है कि प्रदेश एक ऐसा क्षेत्र होता है, जिसकी विशिष्ट अवस्थिति होती है, जो किसी प्रकार से दूसरे क्षेत्रों से भिन्नता रखता है तथा जो उतनी ही दूरी तक फैला हुआ होता है, जितनी दूरी तक यह भिन्नता व्याप्त होती है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि एक प्रदेश की निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं-
कुछ भूगोलवेत्ता प्रदेश को सिर्फ विचार के तौर पर प्रयोग करते हैं एवं इसके विभाजन में स्थान की प्रासंगिकता पर ध्यान नहीं देते हैं। परंतु भूगोलवेत्ताओं तथा आम जनता के लिए प्रदेश एक तथ्यात्मक वास्तविकता है, जो स्थान से जुड़ा हुआ है तथा जो स्थान के संदर्भ में ही पारिभाषित होता है।
वास्तव में प्रदेश के विस्तार की संकल्पना काफी लचीली है। कभी-कभी किसी जिले के एक भाग यहां तक कि एक गांव को भी प्रदेश कहा जाता है। तो कभी पूरे राज्य या कई राज्यों को मिलाकर प्रदेश के रूप में जाना जाता है।
रूसी भूगोलवेत्ता गैरासीयोव ने प्रदेश की संकल्पना के प्रति एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने संश्लिष्ट एकीकृति संकल्पना प्रस्तुत की है। यह संकल्पना आर्थिक विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक विकास एवं पारिस्थितिक संतुलन को ध्यान में रख कर दी गई है। उनके अनुसार एक प्रदेश के चर एक दूसरे से अंतः संबंधित तथा समन्वित होते हैं। उनकी यह अवधारणा टिकाऊ विकास की संकल्पना पर आधारित है एवं इसे व्यापक मान्यता प्राप्त है। एक प्रदेश बहुत से संलग्न समरूप भू-सीमाएं सम्मिलित करता है, यद्यपि असंलग्न स्थानिक इकाइयां भी कभी-कभी एक प्रदेश के अंतर्गत रख दी जाती हैं। जैसे-हवाई द्वीप तथा अलास्का के साथ मिलकर अमेरिका एक राजनीतिक प्रदेश का निर्माण करता है।
प्रदेश को लक्षणों, कायोँ वर्गों आदि के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं:
1. औपचारिक प्रदेशः औपचारिक प्रदेश एक विशेष प्रकार का भौगोलिक क्षेत्र होता है, जो चयनित भौगोलिक विशेषताओं, या सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं में समरूप होता है। इस प्रकार औपचारिक प्रदेश निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:
2. कार्यात्मक प्रदेशः एक कार्यात्मक प्रदेश अन्योन्याश्रय अंतः निर्भरता पर बल देता है। यह नगर, कस्बा एवं गांव जैसे असमरूप इकाईयों से निर्मित होता है, जो कार्यात्मक रूप से अंतः संबंधित होतें हैं। यह अंतः निर्भरता सामान्यतः मनुष्यों, सेवाओं वस्तुओं या संचार के प्रवाह के रूप में प्रकट होता है।
3. विशिष्ट प्रदेशः यह ऐसा प्रदेश होता है, जिसका एक निश्चित नाम, आकार, आकृति, संरचना, प्रारूप आदि लक्षण होते हैं, जो उसकी विशिष्ट पहचान होते हैं। सुंदर वन, भाबर प्रदेश या मेसोपोटामिया आदि ऐसे ही प्रदेश हैं।
4. सामान्य प्रदेशः इसे जातीय प्रदेश भी कहा जाता है, किसी विशेष लक्षण के आधार पर इनका विभाजन किया जाता है। ये प्रदेश विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में मिलते हैं। जैसे चाक प्रदेश इंग्लैंड, यूगोस्लाविया एवं विश्व के अन्य क्षेत्रों में पाए जाते हैं।Question : प्रदेश किसे कहते हैं? प्रादेशीकरण की विधियों की विवेचना कीजिए।
(2005)
Answer : प्रदेश शब्द का विकास मूलतः भूगोल विषय के अन्तर्गत आता है। इसका प्रारंभिक प्रयोग यूनानी दार्शनिक हैरोडोटस तथा रोमन चिन्तक स्ट्रैबो द्वारा किया गया था। आधुनिक भूगोल में इसकी प्रथम व्याख्या रिटर महोदय द्वारा अपनी पुस्तक में किया गया। रिटर ने इस शब्द की व्याख्या भूगोल के एक उपागम के रूप में किया है।
साधारण शब्दों में, प्रदेश स्थल खंड की वह इकाई है, जहां पर पाये जाने वाले भौगोलिक अवयवों में समरूपता होती है। इसकी भौगोलिक परिस्थितियां आस-पास के क्षेत्रों की परिस्थितियों से भिन्न होती हैं। हरबर्टसन के अनुसार प्रदेश पृथ्वी का वह क्षेत्र है जहां भूमि, वायु, वनस्पति, जीव-जंतु और मानव के बीच क्षेत्रीय समरूपता और सह-संबंध होते हैं।
ब्रिटिश भूगोलवेत्ता डिकेन्सन के अनुसार यह आर्थिक समरूपता का क्षेत्र है, लेकिन उन्होंने भी स्पष्ट किया है कि आर्थिक समरूपता का आधार भौतिक परिस्थितियां ही होती हैं।
अमेरिकी नियोजन समिति के अनुसार प्रदेश एक ऐसा क्षेत्र है जहां विशेष लक्षणों वाली मानवीय परिस्थितियां दृष्टिगत होती हैं। इसी अवधारणा को हर्टसोन ने अलग ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार प्रदेश एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र होता है, जहां निम्नलिखित विशेषताएं आनिवार्यतः पाई जाती हैंः
हर्टसोन के कार्यों से मिलता-जुलता कार्य कार्ल सावर तथा व्हिट्लसे महोदय द्वारा किया गया। कार्ल सावर ने उसे प्रदेश की मान्यता दी है, जहां क्षेत्रीय संगठन हो। व्हिट्लसे (Whittlesay) ने Compage Surface शब्द का प्रयोग किया। आधुनिक भूगोलवेत्ताओं में गेरासिमोव के कार्य को व्यापक मान्यता मिली है। इस पुस्तक में प्रदेश को संश्लिष्ट एकीकृत प्रदेश के रूप में मान्यता दी गई है। गेरासिमोव की यही मान्यता तत्कालीन सोवियत संघ के आर्थिक प्रादेशीकरण का आधार बना।
ये सभी कार्य कुल मिलाकर स्पष्ट करते हैं कि प्रदेश वह क्षेत्र है, जिसकी विशिष्ट पहचान होती है।
भौगोलिक प्रदेश कई प्रकार के होते हैं। ये प्रदेश के गुणात्मक पहलुओं पर आधारित होते हैं। अधिकतर भूगोलवेत्ताओं ने प्रदेश के तीन वर्ग बताएं हैंः
आधुनिक भूगोल में प्रदेश के नियोजनात्मक महत्व को समझते हुए अधिकतर भूगोलवेत्ताओं ने इसके तीन पदानुक्रम निर्धारित किए हैं-
भारत के नियोजन के संदर्भ में राज्य स्तरीय नियोजन वृहत प्रादेशिक नियोजन है। जिला स्तरीय नियोजन मध्य स्तरीय प्रदेश तथा प्रखंड स्तरीय नियोजन लघु स्तरीय प्रदेश के उदाहरण हैं। नियोजन की प्रक्रिया को अधिक त्वरित करने हेतु ही नियोजन प्रदेशों का पदानुक्रमिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया जाता है।
प्रादेशीकरण की विधियांः भौगोलिक प्रदेश का सीमांकन अर्थात् भौगोलिक दृष्टि से प्रादेशीकरण अत्यन्त ही जटिल कार्य है। प्रारंभ में यह कार्य अनुभवाश्रित विधि के आधार पर होता था, जिसके परिणामस्वरूप कोई भी प्रदेश पूर्णतः सीमांकित नहीं होता था। सामान्यतः उसके वा“्य क्षेत्र में संक्रमण प्रदेश का विकास होता था जो नियोजन और विकास के कार्य में कठिनाइयां उत्पन्न करते थे। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भूगोलवेत्ताओं द्वारा सांख्यिकी तथा सांख्यिकी सह अनुभवाश्रित विधि के प्रयोग किए जाने से प्रादेशीकरण का कार्य तुलनात्मक दृष्टि से सरल हो गया है। वैसे तो कई प्रकार के सांख्यिकी विधि विकसित किए गए हैं, लेकिन हैगेट द्वारा विकसित Thissen Polygon Method तथा Distance Minimisation Method को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। हैगेट महोदय ने ही इन दोनों विधियों का प्रयोग किया है। polygon Method प्रदेश की केन्द्रीयता पर आधारित है। हैगेट की यह अवधारणा है कि एक केन्द्र होता है और केन्द्र की विविध दिशाओं में उसकी गहनता का मूल्यांकन कर सीमांकन का कार्य किया जाता है, लेकिन अधिकतर नियोजन विशेषज्ञों ने गुरूत्वाकर्षण मॉडल को विशेष महत्व दिया है। यह मॉडल दिए गए सांख्यिकी सूत्र पर आधारित है-
जहां, P = Point of Break MA = वृहत पिण्ड
MB = तुलनात्मक दृष्टि से छोटा पिण्ड
d = दो केन्द्रीय स्थलों के बीच की दूरी
इस मॉडल का प्रयोग करते हुए बहुचर आधारित नियोजन प्रदेश निर्धारित किए जाते हैं, लेकिन 60 के दशक के मध्य में नियोजन प्रदेश के सीमांकन हेतु सांख्यिकी सह अनुभवाश्रित मॉडल विकसित किए गए। यह मॉडल अधिक उपयोगी नियोजन प्रदेश को सीमांकित करता है। इसी मॉडल के आधार पर भारत के राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश तथा अन्य महानगरीय नियोजन प्रदेश निर्धारित किए गए। इस विधि के अन्तर्गत प्रथमतः गुरूत्वाकर्षण मॉडल की मदद से बाह्य सीमा का निर्धारण होता है। इसके बाद कुछ निश्चित चरों का प्रादेशिक सर्वेक्षण किया जाता है और उस सर्वेक्षण के आधार पर गुरूत्वाकर्षण मॉडल आधारित प्रदेश में आवश्यक संशोधन किए जाते हैं। इसी संशोधन के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश का फैलाव उत्तर में सहारनपुर और दक्षिण में अलवर और भरतपुर जिले के कई प्रखंडों या तालुकाओं तक है।
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रदेश एक विशिष्ट पहचान की भौगोलिक इकाई है। यह कभी भौगोलिक अध्ययन का उपागम था, लेकिन वर्तमान भूगोल में यह नियोजन और विकास कार्यक्रमों का धूरी स्तंभ बन चुका है। इसकी यही विशिष्टता भूगोल की उपयोगिता में वृद्धि लाता है और भूगोल को अन्तर्विषयक विषय-वस्तु बनाता है।
Question : प्रादेशिक संतुलनों को ठीक करने के लिए विभिन्न रणनीतियों पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : प्रादेशिक असंतुलन से तात्पर्य दो प्रदेशों के बीच पाये जाने वाले आर्थिक-सामाजिक विकास की अवस्था में पाये जाने वाले अंतर से है। विकास संबंधी असमानता का संबंध एक तरफ तो मानव जनित परिस्थितियों का परिणाम है तो दूसरी तरफ यह प्राकृतिक कारकों की क्रियाशीलता का प्रतिफल है।
मानव जनित परिस्थितियों के अंतर्गत पूंजी तकनीक के वितरण की असमानता राजनीति परिस्थितियां, जनसंख्या, संस्थागत एवं संरचनात्मक कारकों को शामिल किया जाता है जबकि प्राकृतिक कारकों में जलवायु, मृदा, प्राकृतिक संसाधन तथा आपदाओं की बारंबारता एवं तीव्रता को शामिल किया जाता है।
प्रादेशिक असंतुलन को दूर करने के लिए बनायी जाने वाली रणनीतियों में प्रथमतः प्रदेश विशेष में तुलनात्मक रूप से कम विकास के कारकों की पहचान की जानी चाहिए और क्षेत्र में पिछड़ेपन की मात्र को भी निर्धारित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस क्रम में यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट एवं विश्व बैंक द्वारा विकसित आय संबंधी पैमाने का उपयोग कर आर्थिक एवं सामाजिक असंतुलन को निर्धारित किया जा सकता है।
प्रादेशिक असंतुलन का एक महत्वपूर्ण कारण पूंजी एवं तकनीकों का असमान प्रसार है। इस कमी को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं समन्वय का कार्य किया जा रहा है। इस क्रम में जी-आठ के देशों एवं विश्व बैंक के द्वारा पिछड़े क्षेत्रों में रियायती दरों पर ट्टण एवं आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। इसी प्रकार विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से विश्व स्तर पर व्यापार, निवेश एवं तकनीकी हस्तांतरण के लिए आवश्यक नियमों एवं विनियमों का क्रियान्वयन किया जा रहा है।
प्रादेशिक असंतुलन राजनीतिक अस्थिरता का भी परिणाम है यह अस्थिरता गृह युद्ध या फिर दो देशों के बीच युद्ध के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। इस समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस प्रकार की समस्या से ग्रसित क्षेत्र में शांतिपूर्ण तरीकों से समस्या का समाधान कर तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर विकास के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि का निर्माण किया जा रहा है।
प्रादेशिक असंतुलन संसाधनों के असमान वितरण से भी जुड़ा है। इस क्रम में क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना एवं विकास संपूर्ण पिछड़े क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस संगठन के माध्यम से पिछड़े क्षेत्र संसाधन के वितरण संबंधी असमानता की समस्या का समाधान कर सकते हैं।
प्रादेशिक असंतुलन को दूर करने में संवृद्धि ध्रुव मॉडल का क्रियान्वयन पिछड़े क्षेत्रों में किया जा सकता है। इसके माध्यम से पदानुक्रमिक केंद्रीय स्थल का निर्धारण कर विकास की रणनीति का क्रियान्वयन कार्य कुशलता के साथ किया जा सकता है और संपूर्ण नियोजित प्रदेश का संतुलित विकास किया जा सकता है।
टिकाऊ विकास की नीति भी इस समस्या के समाधान में सहायक हो सकती है। इस नीति के अंतर्गत प्रथमतः क्षेत्र विशेष के संदर्भ में सूचना का संग्रह किया जाता है तथा भविष्य की आवश्यकता को अनुमानित कर प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग के द्वारा विकास कार्य का क्रियान्वयन किया जाता है। विकास की यह नीति निश्चय ही क्षेत्र के संपूर्ण आर्थिक परिदृश्य को बदलने में सहायक हो सकती है।
प्रादेशिक असंतुलन जनसंख्या के तीव्र विकास से भी जुड़ा है। हालांकि जनसंख्या को संसाधन माना जाता है जो विकास के लिए एक आवश्यक घटक है, परंतु इन क्षेत्रों में चूंकि मानव संसाधन का समुचित विकास नहीं किया जा सका है। फलतः यह पिछड़े प्रदेश के देशों के लिए एक समस्या का रूप ले चुकी है। इन क्षेत्रों के विकास के लिए प्रथमतः जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित किया जाना चाहिए एवं शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं को उपलब्ध करा कर मानव संसाधन को विकसित कर, यह क्षेत्र स्वयं ही विकास की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
विकास के क्रम में पिछड़े प्रदेश सामान्यतः आपदा प्रभावित क्षेत्र या प्रतिकूल जलवायु के क्षेत्र हैं। हालांकि इन समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता है परंतु इससे होने वाले नुकसान को सही नियोजन द्वारा कम किया जा सकता है।
प्रादेशिक असंतुलन की समस्या के परिणामस्वरूप विकासशील देशों में बेरोजगारी, गरीबी रेखा के नीचे बढ़ती संख्या, क्रय क्षमता का कम होना, घरेलू बचत कम होना, अंतर्राष्ट्रीय ऋण का बढ़ता दबाव, अभूतपूर्व ग्रामीण नगरीय जनसंख्या स्थानांतरण, प्रदूषण तथा पर्यावरण निम्नीकरण की समस्या का विकास या फैलाव इस स्तर तक हो चुका है कि इसका प्रभाव विकसित देशों पर पड़ने लगा है।
घरेलू बचत में वृद्धि अति आवश्यक है। विश्व में विकासशील देशों में 89% जनसंख्या है जबकि इन देशों में घरेलू बचत 1% से कम है। अतः लघु बचत योजनाओं को कार्यान्वित करना आवश्यक है। पुनः यह भी आवश्यक है कि बचत की गयी राशि का उपयोग औद्योगिक विकास कार्य में हो।
उदारीकरण आर्थिक नीतियों का अपनाया जाना आवश्यक है, जिससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश की गति तीव्र हो सकती है। ताइवान, मलेशिया, थाईलैंड ने इसे अपनाकर अभूतपूर्व वृद्धि प्राप्त की है।
विकासशील देशों के लिए यह भी आवश्यक है कि वे आम लोगों की सहभागिता को प्राप्त करें।
Question : संसार में आर्थिक विकास तथा मानवीय विकास के प्रादेशिक प्ररूप किस सीमा तक एक दूसरे के साथ संगत हैं? विशेषकर अंतर की स्थितियों को अवलोकित कीजिए।
(2002)
Answer : मनुष्य ने आदिम काल से ही अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने एवं प्रत्येक सुख-सुविधा को उपलब्ध करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की है। वह अपने प्रौद्योगिक एवं वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र द्वारा यह विजय प्राप्त करने में सफल भी रहा है। पर दुर्भाग्य से इस विजय से मानव समाज का एक खण्ड अक्षुण्ण भी रहा है। मानव समाज में छाई इन अंतर की स्थितियों ने इस समाज को ही अवंचित और वंचित दो भागों में विभक्त कर दिया है।
आर्थिक विषमताओं को हम तीन श्रेणियों में रख सकते हैं: (i) अर्न्तराष्ट्रीय, (ii) अन्तर्देशीय तथा (iii) अन्तर्वैयक्तिक
अर्न्तराष्ट्रीय विषमताएं बड़े पैमाने पर दिखती हैं। एक तरफ वैज्ञानिक, प्रौद्यौगिक एवं उद्योगों से विकसित उत्तरी राष्ट्र एवं दूसरी ओर गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा से पीडि़त दक्षिणी राष्ट्र। यह मूलभूत अंतर उत्तरी राष्ट्रों की उपनिवेशक नीतियों के परिणाम हैं। यूरोपीय देशों ने इन विकासशील/अविकसित देशों को अपना उपनिवेश बनाया और इनका तथा इनके संसाधनों का भरपूर दोहन किया। अन्यथा, दक्षिणी राष्ट्र संसाधनों (आर्थिक एवं मानव) में कहीं अधिक पूर्ण हैं।
अन्तर्देशीय विषमताएं मुख्य रूप से भौगोलिक अवस्था, संसाधन प्राप्ति, जनसंख्या, सरकारी नीतियों आदि पर निर्भर करती हैं।
मानवीय विकास आर्थिक विकास का ही परिणाम होता है और हमारे भूमंडल पर भी लागू होता है। मानवीय विकास के सूचकांक शिक्षा, स्वास्थ्य, उम्र सीमा, जन्मदर, मृत्युदर, पोषण आदि तथ्य होते हैं। एक आकलन करने पर ये सामान्य रूप से उन प्रदेशों में अच्छे हैं, जहां सकल घरेलू उत्पाद, प्रति व्यक्ति आमदनी पर व्यक्ति खर्च आदि का औसत ऊंचा है।
सम्पूर्ण विश्व को आर्थिक एवं मानवीय विकास के आधार पर निम्नांकित क्षेत्रों में बांटा जा सकता हैः
(i) अति विकसित देश/क्षेत्र
आंग्ल अमेरिका-कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, अंग्लो ओसियनिक - आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, स्कैन्डीनेविया-नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, दक्षिणी अफ्रीका तथा सुदुर पूर्व-जापान
(ii) विकासशील देश/क्षेत्रः
(क) CIS, पूर्वी यूरोप
(ख) चीन, भारत, अराबिया (मध्य पश्चिम) दक्षिणी-पूर्वी देश, श्रीलंका, लैटिन अमेरिका।
(iii) अविकसित देश/क्षेत्रः
उप-सहारा/अफ्रीका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यानमार, लाओस, कम्बोडिया।
उपरोक्त विभाजन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक एवं मानवीय विकास एक-दूसरे के पूरक हैं।
एक और दिशा यह दिखती है कि जहां जनसंख्या कम है या प्रदेश छोटे हैं। वे मानवीय विकास में सर्वाधिक श्रेष्ठ हैं, जैसे: नार्वे, कनाडा, स्विटरजरलैण्ड, आस्ट्रेलिया। वहीं आर्थिक रूप से सर्वाधिक सभ्य की राष्ट्र संयुक्त राज्य अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन उनसे मानवीय विकास के नीचे आते हैं।
परन्तु कई अवसरों में ऐसा भी देखा जा सकता है कि मानवीय विकास, आर्थिक विकास के बावजूद संभव नहीं हो सका है। उदाहरण स्वरूप मध्य पूर्व एशिया/अरबिया का क्षेत्र, जहां सरल घरेलू उत्पाद, प्रतिव्यक्ति आय आदि काफी ऊपर है, लेकिन वहां मानवीय विकास बदतर है। इसका प्रमुख कारण धार्मिक एवं सामाजिक है। इसी तरह चीन का भी सकल घरेलू उत्पाद काफी है, लेकिन वह मानवीय विकास के उस स्तर को नहीं पा सका है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में केरल मानवीय विकास में सबसे ऊपर है, पर आर्थिक विकास में नीचे। वहीं पंजाब एवं हरियाणा आर्थिक रूप से तो सफल हैं, लेकिन मानवीय मूल्यों एवं मानवीय विकास सूचकांक पर निर्बल।
Question : विश्व में व्याप्त विकास विषमता के क्षेत्रीय प्रतिरूपों का परीक्षण कीजिए।
(2001)
Answer : विश्व में संसाधन, पूंजी, तकनीक आदि के वितरण की दृष्टि से अत्यधिक विषमता पायी जाती है। इसके कारण विश्व में आर्थिक विकास का प्रतिरूप भी काफी असंतुलित है। एक ओर कुछ विकसित देश हैं जिन्होंने अभूतपूर्व सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति की है, तो दूसरी ओर अनेक विकासशील एवं अल्प विकसित देश हैं जो सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से काफी पिछड़े हुए हैं। विकसित देशों में विश्व की मात्र 20 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, जबकि विश्व की कुल वाणिज्यिक ऊर्जा के 80 प्रतिशत भाग का उपभोग इनके द्वारा किया जाता है। विश्व के कुल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में इनका योगदान 80 प्रतिशत से भी अधिक है। उद्योग, पूंजी, तकनीक, प्रबंध आदि की दृष्टि से इन विकसित देशों का विश्व में एकाधिकार है। एक ओर स्विट्जरलैंड, लक्जेमबर्ग, जापान जैसे देशों में प्रति व्यक्ति आय 30,000 डॉलर से भी अधिक है, तो दूसरी ओर अनेक अफ्रीकी देशों में यह 100 डॉलर से भी कम है। वर्तमान समय में विश्व के लगभग 50 देश गरीबी एवं भुखमरी की समस्या से बुरी तरह ग्रसित हैं। इन देशों में लगभग 100 करोड़ लोग निवास करते हैं। इनकी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय 1 डॉलर से भी कम है। यह वैसी ही स्थिति है जैसी आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व पश्चिमी यूरोप में थी। ये देश मुख्यतः अफ्रीका महाद्वीप में स्थित हैं।
विश्व में व्याप्त विषमता के मापन हेतु विश्व बैंक द्वारा 32 चरों का निर्धारण किया गया है, जिनमें 14 मौलिक चर हैंः
इन चरों के आंकड़ों को मिलाकर संश्लिष्ट मापक तैयार किया गया है एवं विकास की दृष्टि से विश्व के देशों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया हैः
प्रथम वर्ग में उन देशों को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी व्यक्ति आय 500 डॉलर से कम है। इस वर्ग के देशों में विश्व की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। अफ्रीका के अधिकांश देश, द.पू. एशिया, मध्य अमेरिका, दक्षिणी प्रशांत महासागर के द्वीपीय देश, दक्षिण एशिया के देश इस वर्ग में आते हैं। ये देश औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहे हैं। ये पूंजी, तकनीक एवं प्रबंध की दृष्टि से पिछड़े हैं, फलस्वरूप ये देश परंपरगत रूप से विनिर्मित माल के आयातक एवं कच्चे माल के निर्यातक रहे हैं। इनके पिछड़ेपन के अन्य कारणों में तीव्र जनसंख्या वृद्धि, उच्च निर्भरता अनुपात, निरक्षता, राजनीतिक अस्थिरता आदि प्रमुख हैं। इस वर्ग के देशों की अर्थव्यवस्था जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था है। इन देशों में बाल मृत्यु दर अधिक एवं नगरीकरण का स्तर निम्न है। अपनी कुल आय का अधिकांश भाग भोजन पर खर्च करने के बावजूद यहां के लोग कुपोषण की समस्या से ग्रसित हैं।
द्वितीय वर्ग के देशों में प्रति व्यक्ति आय 500 से 6000 डॉलर के बीच है। इसे पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
निम्न-मध्य आय वर्ग के देशों में प्रति व्यक्ति आय 500-2000 डॉलर के बीच है। इस वर्ग में पूर्वी यूरोप, मध्य एशियाई गणतंत्र, भूमध्यसागरीय प्रदेश एवं ब्राजील, मिड्ड, मलेशिया जैसे देश आते हैं। पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशियाई गणतंत्र वर्तमान समय में सामाजिक-आर्थिक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं एवं विगत कुछ वर्षों में इन देशों में प्रति व्यक्ति आय में कमी आयी है। ग्रीस, पुर्तगाल, यूगोस्लाविया, अल्बानिया जैसे-भूमध्यसागरीय देशों में संसाधनों की कमी के कारण पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है। ब्राजील, मिड्ड एवं मलेशिया जैसे विकासशील देश विगत कुछ वर्षों में तीव्र आर्थिक प्रगति के फलस्वरूप इस वर्ग में सम्मिलित हुए हैं।
उच्च मध्य आय वर्ग के देशों में प्रति व्यक्ति आय 2000-6000 डॉलर है। इसके अंतर्गत तीन प्रकार के देश आते हैं। बाल्टिक गणतंत्र और रूस जैसे देश संक्रमण के बावजूद पर्याप्त संसाधन, तकनीक एवं पूंजी के कारण इस वर्ग में सम्मिलित हैं। ईरान, इराक, लीबिया, बेनेज्वेला जैसे खनिज तेल निर्यातक देश यद्यपि सामाजिक दृष्टि से विकसित नहीं है, परंतु पेट्रोलियम के निर्यात के कारण इनकी आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है। इसके अलावा इस वर्ग में दक्षिण कोरिया, इजरायल, ताइवान जैसे देश भी आते हैं, जिन्होंने हाल के वर्षों में तीव्र आर्थिक विकास किया है। इन देशों की भौगोलिक स्थिति महत्वपूर्ण है तथा इनके विकास में विकसित देशों का भी योगदान है।
तीसरे वर्ग में लगभग 25 देश आते हैं, जिन्हें औद्योगिक एवं तेल निर्यातक देशों में विभाजित किया जा सकता है। औद्योगिक देशों में पश्चिमी यूरोप के देश, जापान, कनाडा, यूएसए आदि देश आते हैं। ये देश सामाजिक दृष्टि से भी काफी विकसित हैं, परंतु वर्तमान समय में ये देश कुछ नवीन समस्याओं से जूझ रहे हैं। पश्चिमी यूरोपीय देशों के प्राकृतिक संसाधन में समापन की प्रवृत्ति है, अतः इनका औद्योगिक विकास आयातित कच्चे माल पर आधारित है। जनसंख्या वृद्धि दर में कमी के कारण न केवल कार्यशील जनसंख्या में कमी आ रही है, बल्कि इनके आतंरिक बाजार भी सीमित हो रहे हैं। अधिकांश विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर आधारित हैं परंतु हाल के वर्षों के विकासशील देशों द्वारा औद्योगिक विकास की नीति अपनाये जाने के पश्चात इनके बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। सस्ते श्रम के कारण ये विकासशील देश सस्ती वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं। इस नवीन संकट को देखते हुए विकसित देशों द्वारा आर्थिक समूहों का गठन किया जा रहा है एवं सामूहिक बाजार का विकास किया जा रहा है। तेल निर्यातक विकसत देशों में कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब आदि को सम्मिलित किया जाता है। यद्यपि इन देशों की प्रति व्यक्ति आय औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों के समकक्ष है, परंतु ये देश सामाजिक दृष्टि से अभी भी विकसित नहीं हो सके हैं। इन देशों की अधिकांश जनसंख्या प्राथमिक कार्यों में संलग्न है। ये देश औद्योगिक दृष्टि से काफी पिछड़े हुए हैं।
विगत कुछ वर्षों में विश्व अर्थव्यवस्था में ‘ग्लोबलाइजेशन’ की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्था द्वारा बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके बावजूद पिछड़े देशों के विकास की संभावना निकट भविष्य में क्षींण प्रतीत होती है। इन देशों में आधारभूत सरंचना का अभाव है एवं विकसित देशों द्वारा इनके व्यापार को बाधित करने के लिए पर्यावरण एवं श्रम जैसे मुद्दों को अनावश्यक रूप से उठाया जाता है। विकास के लिए इन देशों में राजनीतिक, प्रशासनिक स्थिरता के अलावा जनसंख्या वृद्धि पर काबू पाना एवं साक्षरता का विकास अति आवश्यक हैं।
Question : प्रादेशिक विकास प्रक्रिया में विकास केन्द्रों एवं विकास ध्रुवों की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2001)
Answer : सीमित संसाधनों के प्रयोग द्वारा तीव्र एवं संतुलित आर्थिक विकास हेतु अनेक मॉडल एवं सिद्धांत विकसित किये गये हैं। उन सिद्धातों में विकास केन्द्र एवं विकास ध्रुव सिद्धांत का महत्वपूर्ण स्थान है। हाल के वर्षों में प्रादेशिक विकास हेतु इस सिद्धांत के उपयोग में तेजी से वृद्धि हुई है। यह सिद्धांत पदानुक्रमिक समन्वित प्रादेशिक विकास की अवधारणा पर आधारित है। इस सिद्धांत के प्रतिपादन में अनेक विद्धानों का योगदान है, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान पेरॉक्स का है। इस सिद्धांत को भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में संशोधित करने का श्रेय बोडोभिले को दिया जाता है।
विकास ध्रुव का प्रभाव न केवल उस प्रदेश पर पड़ता है जिसमें वे स्थित होते हैं, बल्कि इसका प्रभाव अंतर-प्रादेशिक एवं संपूर्ण देश पर भी पड़ता है। इस प्रकार विकास ध्रुव का राष्ट्रीय स्तर पर महत्व होता है। विकास केन्द्र सामान्यतः अंतःप्रादेशिक लक्षण वाले होते हैं। इस प्रकार इन दोनों में अंतर इनके प्रभाव में अंतर पर आधारित है। विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति का निर्धारण विकास ध्रुव द्वारा होता है, जहां बड़े पैमाने पर पूंजी का निवेश होता है जबकि विकास केन्द्र द्वितीयक स्तर के केन्द्र होते हैं एवं वे स्थानीय लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं। वे विकास ध्रुव के सहायक के रूप में कार्य करते हैं। इसके बावजूद विकास केन्द्रों का विकास विकास ध्रुव के विकास से संबंधित होता है। बोडोभिले के अनुसार किसी प्रदेश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र में विकास ध्रुव का विकास होता है। यह ध्रुव संपूर्ण प्रदेश के लिए आकर्षण केन्द्र के रूप में कार्य करता है। विकास ध्रुव पर कुछ ऐसे विशिष्ट कार्यों का संकेंद्रण होता है, जो उस प्रदेश के किसी अन्य केन्द्र पर नहीं पाये जाते हैं। यह नवोत्पाद का केन्द्र होता है एवं विकास की प्रक्रिया इस केन्द्र से प्रसारित होकर संपूर्ण प्रदेश में पहुंचती है। विकास ध्रुव की सहायता हेतु कई विकास केन्द्र होते हैं। इन विकास केन्द्रों का उद्देश्य विकास ध्रुव पर कार्यों, सेवाओं एवं जनसंख्या के अतिकेन्द्रीयकरण को कम करना है। पदानुक्रम के निम्न स्तर पर क्रमशः ‘विकास बिंदु’ एवं ‘सेवा केन्द्र’ का विकास होता है। कई सेवा केन्द्रों के मध्य एक ‘विकास बिंदु’ होता है।
विकास ध्रुव एक ऐसा केन्द्र होता है, जहां से आर्थिक विकास के प्रसार की संभावना सबसे अधिक होती है। ऐसे केन्द्रों पर आधारभूत उद्योगों का सकेन्द्रण होता है। इस केन्द्र विशेष में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन होता है। इस केन्द्र से वस्तुओं एवं सेवाओं का प्रसार तीव्रता से विभिन्न दिशाओं में होता है। इस केन्द्र पर पूंजी, तकनीक, प्रबंधन की सुविधा होती है। केन्द्र में स्थित होने के कारण इसकी भौगोलिक स्थिति सर्वोत्तम होती है। वृद्धि ध्रुव के विकास का प्रभाव संपूर्ण प्रदेश पर पड़ता है, जिसे ‘ट्रिकल डाऊन प्रभाव’ या प्रसार प्रभाव के नाम से जाना जाता है। इसके फलस्वरूप वृद्धि ध्रुव से पूंजी, तकनीक, वस्तुओं एवं सेवाओं का प्रसार निम्न पदानुक्रम के केन्द्रों पर होता है, फलस्वरूप विकास ध्रुव के पृष्ठ प्रदेश की उत्पादकता में गुणात्मक एवं मात्रत्मक रूप से वृद्धि होती है। निम्न पदानुक्रम के केन्द्रों पर रोजगार में वृद्धि के फलस्वरूप जनसंख्या के स्थानांतरण में कमी आती है। इससे एक ओर जहां विकास ध्रुव पर जनसंख्या दबाव में कमी आती है, वहीं संपूर्ण प्रदेश का एकीकृत रूप से विकास होता है। इससे प्रादेशिक विषमता में कमी आती है।
विकास ध्रुव का इसके पृष्ठ प्रदेश पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है, जिसे ‘पश्चगामी प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है। विकास ध्रुव के आकर्षण के कारण पृष्ठ प्रदेश से पूंजी एवं जनसंख्या का प्रवाह इसकी ओर होने लगता है। पूंजी, तकनीक एवं बेहतर रोजगार की संभावना के कारण पृष्ठ प्रदेश से कुशल श्रमिकों का स्थानांतरण विकास ध्रुव पर होने लगता है। फलस्वरूप छोटे-छोटे केन्द्रों पर पूंजी एवं कुशल श्रमिकों का अभाव हो जाता है। वृद्धि ध्रुव पर परिष्कृत तकनीक, पर्याप्त पूंजी, प्रबंधन, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार की पहुंच के साथ-साथ विज्ञापन का संगठित तंत्र उपलब्ध होता है। छोटे-छोटे केन्द्रों पर इन सुविधाओं का अभाव पाया जाता है। इसके फलस्वरूप विकास ध्रुव में उत्पादित वस्तुओं का एकाधिकार हो जाता है एवं छोटे-छोटे केन्द्रों पर स्थापित उद्योग बंद होने लगते हैं एवं बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होती है। बेरोजगार व्यक्तियों का विकास ध्रुव की ओर स्थानांतरण के फलस्वरूप विकास ध्रुव पर जनसंख्या दबाव में तेजी से वृद्धि होती है। इस प्रकार यदि ‘प्रसार प्रभाव’ एवं ‘ट्रिकल डाऊन प्रभाव’ की तुलना में पश्चगामी प्रभाव अधिक हो जाता है, तो प्रदेश के विकास की प्रक्रिया असंतुलित हो जाती है।
विकास ध्र्रुव का सिद्धांत वास्तविक अर्थों में विकसित देशों के अनुभव पर आधारित है। विकसित देशों की अधिकांश जनसंख्या नगरों में निवास करती है। नगरीय जनसंख्या के वितरण में भी संतुलन पाया जाता है। इन देशों की अर्थव्यवस्था उद्योग एवं सेवा पर आधारित होती है तथा संपूर्ण प्रदेश में परिवहन एवं संचार की सुविधा होती है। अतः ऐसे प्रदेशों में विकास ध्रुव का ‘प्रसार प्रभाव’ एवं ‘ट्रिकल डाऊन प्रभाव’ संपूर्ण प्रदेश में देखने को मिलता है। छोटे-छोटे केन्द्र भी परिष्कृत तकनीक द्वारा उच्च गुणवत्ता की वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, अतः ऐसे प्रदेशों का विकास संतुलित रूप से होता है।
विकासशील देशों में विकास ध्रुव प्रदेश के विकास की प्रक्रिया में समुचित योगदान नहीं दे पाते हैं। अनेक परिस्थितियों में ये विकास ध्रुव प्रादेशिक विषमता में वृद्धि करते हुए प्रतीत होते हैं। इन देशों में ‘प्रसार प्रभाव’ एवं ‘ट्रिकल डाऊन प्रभाव’ की तुलना में ‘पश्चगामी प्रभाव’ अधिक तीव्र होता है। इसका कारण यह है कि विकासशील देश व्यापक निरक्षरता, गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या से ग्रसित हैं। परिवहन एवं संचार की सुविधा का समुचित विकास नहीं हुआ है। अधिकांश जनसंख्या कृषि पर आश्रित है तथा नगरीकरण की प्रक्रिया असंतुलित है। भारत के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता के पश्चात छोटानागपुर के पठार पर कई लोहा एवं इस्पात, एल्युमिनियम, सीमेंट आदि के कारखानों की स्थापना की गयी। परंतु ये औद्योगिक नगर विकास ध्रुव एवं विकास केन्द्र के रूप में प्रादेशिक विकास में योगदान देने में असफल रहे। ये औद्योगिक नगर गरीबी के महासागर में विकास के द्वीप बनकर रह गये। इसका कारण यह है कि इस प्रदेश में विकास ध्रुव की संकल्पना को समुचित रूप से लागू नहीं किया गया। बड़े-बड़े उद्योगों के सहायक के रूप में लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास नहीं किया गया। छोटे-छोटे केन्द्र विकास के लाभ से वंचित रह गये। इसके फलस्वरूप छोटे-छोटे नगरों से बड़े नगरों में पूंजी एवं श्रम का प्रवाह हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर ध्यान न देने के कारण गांवों से नगरों की ओर जनसंख्या का पलायन हुआ। इससे अंतःप्रादेशिक विषमता का विकास हुआ। इनका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ कि आज छोटानागपुर प्रदेश संसाधन की दृष्टि से सर्वाधिक धनी होते हुए भी विकास की प्रक्रिया में सर्वाधिक पिछडे़ प्रदेशों में से एक है।
वास्तविक अर्थों में उपरोक्त अनुभव विकास ध्रुव की संकल्पना के समुचित अनुप्रयोग के अभाव में हुआ। उद्योगों की स्थापना के पूर्व इस प्रदेश के संसाधन एवं समाज का समुचित अध्ययन नहीं किया गया। यदि वृहत उद्योगों के साथ-साथ स्थानीय संसाधनों पर आधारित कुटीर एवं लघु उद्योगों तथा कृषि के विकास पर समुचित ध्यान दिया जाता, तो विकास ध्रुव का प्रसार प्रभाव अवश्य देखने को मिलता। इसके लिए परिवहन, संचार एवं शिक्षण-प्रशिक्षण सुविधाओं का समुचित विकास भी अनिवार्य है। इसके बावजूद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, पंजाब, हरियाणा एवं गोवा जैसे राज्यों में विकास ध्रुव एवं विकास केन्द्रों का प्रादेशिक विकास प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान है। इन प्रदेशों में विकास केन्द्र के रूप में उपनगरों (Satellite Town) का विकास किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप न केवल दिल्ली जैसे विकास ध्रुव पर जनसंख्या के दबाव में कमी आयी है, बल्कि संपूर्ण प्रदेश का भी तेजी से विकास हो रहा है। अतः यह कहा जा सकता है कि यदि किसी प्रदेश में विकास केन्द्र एवं विकास ध्रुव की संकल्पना समुचित रूप से लागू की जाये, तो उस प्रदेश का विकास संतुलित रूप से हो सकता है।
Question : प्रदेश किसको कहते हैं? प्रदेशों के प्रकारों और प्रादेशीकरण की विधियों पर चर्चा कीजिए।
(2000)
Answer : एक प्रदेश अन्य क्षेत्रों में एक या एक से अधिक परिभाषित लक्षणों के आधार पर भिन्नता रखते हैं। ये परिभाषित लक्षण प्राकृतिक या आर्थिक हो सकते हैं। कुछ विद्वान प्रदेश को सिर्फ एक विचार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं तथा इसके विभाजन में स्थान की प्रासंगिकता पर ध्यान नहीं देते। परंतु भूगोलवेत्ताओं तथा आम जनता के लिए प्रदेश एक तथ्यात्मक वास्तविकता है जो स्थान (space) से जुड़ा हुआ है तथा जो स्थान के संदर्भ में ही पारिभाषित होता है।
एक स्थान विशेष पर भौगोलिक परिदृश्य की सापेक्षिक समरुपता या समानता किसी प्रदेश को सीमांकित करने के लिए आधारभूत मापदंड बन सकती है। एक प्रदेश, इसलिए बहुत सी संलग्न समरुप भूसीमाएं सम्मिलित करता है। यद्यपि असंलग्न स्थानिक इकाइयां भी कभी-कभी एक प्रदेश के अंतर्गत रख दी जाती हैं। उदाहरणस्वरुप लक्षद्वीप और अंडमान-निकोबार जैसी असंग्लन इकाइयों के साथ भारत एक राजनैतिक प्रदेश के रूप में गिना जाता है। इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका भी अलास्का और हवाई द्वीप जैसी असंलग्न इकाइयों से युक्त है।
प्रदेश के प्रकार
प्रदेश दो तरह से वर्गीकृत किये जा सकते हैं- प्राकृतिक तथा संस्थागत। अवध, मेवाड़ आदि प्राकृतिक रूप से पहचाने गये प्रदेश हैं जो साझी संस्कृति या इतिहास के आधार पर सीमांकित किये गए हैं, जैसे- खंड, जिला, राज्य। संस्थागत प्रदेशों की औपचारिक तथा कार्यात्मक प्रदेश के तौर पर वर्गीकृत किया जाता हैः
औपचारिक प्रदेश: औपचारिक प्रदेश एक भौगोलिक क्षेत्र है जो चयनित भौगोलिक विशेषताओं (यथा समान स्थलाकृति या जलवायु) या चयनित आर्थिक आधारों या सामाजिक-आर्थिक आधारों के संदर्भ में समरुप होता है। जब भौगोलिक समरुपता पर बल दिया जाता है तो हमें प्राकृतिक प्रदेश प्राप्त होता है। जब आर्थिक समरुपता पर बल दिया जाता है तो आर्थिक प्रदेश की संकल्पना उभरती है। इसी प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदेश हो सकते हैं।
कार्यात्मक प्रदेश: एक कार्यात्मक प्रदेश अन्योन्याश्रय या अंतर्संबंधों पर बल देता है। यह संगठन द्वारा, आंतरिक-प्रवाह (व्यक्तियों, वस्तुओं, सेवाओं, संचार) और एक केंद्र की उपस्थिति द्वारा पहचाने जाते हैं। एक कार्यात्मक प्रदेश असमरुप इकाइयों द्वारा गठित होता है। ये असमरुप इकाइयां जो नगर, कस्बा या ग्राम हो सकती हैं, कार्यात्मक रुप से अंतर्संबंधित होते हैं। ये कार्यात्मक अंतर्निभरता सामान्यतः मनुष्यों, सेवाओं, वस्तुओं या संचार के प्रवाह के रूप में प्रकट होती है।
समस्या आती है प्रदेश की पहचान व सीमांकन के लिए एक उपयुक्त मानक चुनने में। मानक के चुनाव में निम्न अड़चने हैं-
उपर्युक्त विवेचना यह इंगित करती है कि प्रदेश साध्य के लिए एक साधन है न कि अपने आय में एक साध्य। अतएव एक प्रदेश किसी भी आकार का हो सकता है तथा जो विशेष मानकों के संदर्भ समरुप हो एवं आस-पास के क्षेत्र से विशेष लक्षणों द्वारा अंतर रखता हो।
प्रादेशीकरण की विधियांः प्रादेशीकरण की विधियों समरुपता को विचारित कर भौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गुणों का एक संयोजन हो सकती हैं।
(i) ये विधियां समरुपता को विचारित कर भौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गुणों का एक संयोजन हो सकती हैं।
(ii) ये ध्रुवीयता अथवा केंद्रीयता को आधार बना सकती हैं। उदाहरण के लिए एक केंद्रीय नगर के चारों ओर का प्रदेश प्रादेशीकरण की प्रक्रिया के प्रदेशीकरण के उद्देश्यों, चयनित मानकों तथा आंकड़ों की उपलब्धता के आधार पर कई रुप हो सकते हैं। प्रदेशीकरण अध्ययन विशिष्ट संरचना तथा संबंधों का अध्ययन है। इसके अंतर्गत औपचारिक प्रदेशों का सीमांकन तथा कार्यात्मक प्रदेशों का सीमांकन सम्मिलित होते हैं।
औपचारिक प्रदेशों का सीमांकनः औपचारिक प्रदेशों के सीमांकन में कुछ मानकों के आधार पर समानता या समरुपता पर विचार किया जा सकता है। उदाहरण- स्वरुप आर्थिक मानक/यदि यह मान लिया जाये कि a और b दो प्रदेश हैं, जिनकी प्रति व्यक्ति आय Xa और X6 है a और b को समान क्षेत्र में वर्गीकृत करने का सबसे सरल तरीका है- यदि Xa = X6 का मान कम हो। अतएव यहां पर कुछ निश्चित सीमाओं पर विचार किया जा सकता है, जिसके अनुसार यदि Xa - X6 उस सीमा से कम हो तो a और b समान प्रदेश के अंतर्गत रखे जायेंगे। इसके विपरीत यदि Xa = X6 निश्चित सीमा से ज्यादा हो तो a और b भिन्न प्रदेशों के अंतर्गत रखे जायेंगे। परिणाम की विश्वसनीयता हेतु Xa और X6 के अंतर को जांचा जा सकता है।
लक्षण यदि एक से अधिक हों तो निम्न विधि का इस्तेमाल किया जा सकता है-
(i) निश्चित सूची विधि- इसके अंतर्गत एक सामान्य विशेषता के लक्षण को चुना जाता है, उदाहरण के लिए-प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता आदि।
(ii) चर सूची विधि- इस विधि के अंतर्गत विभिन्न स्तरों की गतिविधियों को विभिन्न प्रदेशों में रेखांकित करने के लिए अलग-अलग यानि परिवर्ती (variable) वजन जोड़े जाते हैं। उदाहरण के लिए अगर A और B क्रमशः गेहूं और कोयला प्रदेश हैं तो गेहूं सूचकांक का वजन पहले वाले प्रदेश में ज्यादा होगा तथा कोयला सूची का वजन दूसरे वाले प्रदेश में ज्यादा होगा।
(iii) एकत्रण विधि: इस विधि का प्रयोग समरुप प्रदेशों के सीमांकन के लिए किया जाता है। मानचित्रीय तकनीकों द्वारा एकत्रण मानचित्रित किये जाते हैं तथा अध्यारोपित तकनीकों की मदद से अंतर्संबंधित चर मानचित्रित किये जाते हैं।
जब चर बहुत अधिक होते हैं तथा उनका आपसी संबंध कमजोर रहता है तब क्षेत्रों का मिश्रित वर्गीकरण प्रयोग किया जाता है। अशोक मित्र, श्वाट्जबर्ग, एम. जे. हागूड और एम. एन. पाल जैसे भूगोलर्वत्ताओं और अर्थशास्त्रियों ने सीमांकन के विभिन्न विधियों का इस्तेमाल किया है।
कार्यात्मक प्रदेशों का सीमांकन
कार्यात्मक प्रदेशों के सीमांकन के अंतर्गत वैसे स्थानीय इकाइयों का समूहन किया जाता हैजो एक निश्चित स्तर तक अंतर्संबंध दर्शाते हैं। दो मूल विधियां इसमें आता है- (i) प्रवाह विश्लेषण तथा गुरुत्वाकर्षण विश्लेषण।
(i) प्रवाह विश्लेषण: प्रवाह विश्लेषण प्रधान केंद्र तथा उसके चारों ओर के अनुषंगियों के बीच प्रवाह की तीव्रता तथा दिशा के आधार पर कार्यात्मक प्रदेश का निर्माण करता है। टेलीफोन कॉल की संख्या एक सामान्य प्रवाह मापदंड है तथा सामाजिक एव आर्थिक संबंधों के विस्तृत परिसर के लिए एक उपयोगी सूचकांक प्रदान करता है। प्रवसन प्रवाह, व्यापार क्षेत्र, समाचार पत्र वितरण क्षेत्र इत्यादि अन्य प्रवाह मापदंड हो सकते हैं। ये प्रवाह मैट्रिक्स (Matrix) रूप में अंकित किये जाते हैं जिससे केंद्र की तरफ तथा विपरीत दिशा में जाने वाले प्राथमिक एवं द्वितीयक प्रवाहों की पहचान होती है।
(ii) गुरुत्वाकर्षण विश्लेषण: गुरुत्वाकर्षण विश्लेषण वास्तविक प्रवाह के बजाय केंद्रों के बीच आकर्षण की सैद्धांतिक शक्तियों का विश्लेषण करता है। सामान्य गुरुत्व मॉडल ये मानता है कि दो केंद्रों के बीच की अंतर्क्रिया उन दो केंद्रों के द्रव्यमान (जनसंख्या, आदि) के गुणनफल के समानुपाती तथा उनके बीच की दूरियों की व्युत्क्रमानुपाती होती है। इसे गणितीय रुप में इस प्रकार व्यक्ति किया जा सकता है-
जहां Gij = i और j केंद्रो के बीच गुरुत्वाकर्षण शक्ति
Mi और Mj = i और j केंद्रों का द्रव्यमान
dij = i और j केंद्रों के बीच की दूरी
K = स्थिरांक
रेली (Railly) ने अपने गुरुत्वाकर्षण के फुटकर नियम में निम्न सूत्र दिया दिया था-
गुरुत्वाकर्षण मॉडल की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि M की माप सटीक नहीं है एवं इसकी सरलता पर भी संदेह है। दूरी के व्युत्क्रमानुपाती संबंध को कई चीजें प्रभावित करती हैं तथा कुछ कारक इसके विपरीत भी काम करते हैं।