Question : शहरी उपांत का निरूपण
(2007)
Answer : उपान्त शब्द स्वयं ग्रामीण व नगरीय क्षेत्रों के बीच एक सीमा रेखा का प्रतीक स्वरूप है। यह वास्तव में नगरीय क्षेत्रों की सीमा पर फैला होता है, जो नगर को घेरे होता है और वास्तविक देहाती क्षेत्र से इसे अलग करता है। 1937 में टीएल स्मिथ नामक समाजशास्त्री ने सर्वप्रथम शहरी उपान्त शब्द का प्रयोग किया और नगर की प्रशासकीय सीमा के बाहर निर्मित क्षेत्र को शहरी उपांत कहा।
लेविस कोबले के अनुसार, ‘शहरी उपांत शहर को चारों ओर से घेरने वाली भूमि को कहते हैं, जो कि नगर का अंग नहीं मानी जाती है, लेकिन जिसका प्रयोग नगर द्वारा अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए किया जाता है। इसे ही विस्तृत रूप से आरएस गोलजे ने परिभाषित किया है। इसके अनुसार, ‘उपान्त भूमि उपयोग प्रारूप का सतत बदलता हुआ क्षेत्र है।
यहां पर खेतों का छोटा आकार, नगरीय उपयोग में आने वाली फसलों की गहन खेती, गतिशील जनसंख्या उपयोगी सेवाओं तथा प्रोवीजन सेवाओं का कम विस्तार, भूमि का मनमाने ढंग से रिहायशी प्लॉटों में विभाजन आदि विशेषताएं देखने को मिलती हैं। यह पेटी बराबर गतिशील या परिवर्तित दशा में रहती है।’ शहरी उपांत की निम्न विशेषताएं होती हैं-
शहरी सीमांत की पेटी निश्चित नहीं है, इसकी सीमाएं समय के साथ-साथ बदलती रहती है। जैसे-जैसे नगरीय सुविधाओं का विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे इसकी सीमा नगर से बाहर की ओर सरकती जाती है। इसके दो भाग किये जा सकते हैं।
अंतः जीएस वेहरवीन के अनुसार ‘शहरी उपांत वास्तव में शहर का विस्तार है। यह विस्तार वर्तमान भी है तथा सम्भावित या भावी भी। जिस प्रकार नगर या किसी महानगरीय प्रदेश के नगर और समीपवर्ती क्षेत्र तथा उपनगर आपस में आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से एक ही माने जाते हैं, उसी प्रकार शहर व सीमावर्ती पेटी को एक इकाई मानकर नियोजन संबंधी कार्य किये जाने चाहिए।
Question : नगरीय भूगोल में प्रमुख शहर तथा श्रेणी आकार प्रणाली की संकल्पनाएं क्या है? विस्तार से चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : कोटि आकार नियम एक सैद्धांतिक मॉडल है, जो किसी प्रदेश में नगरीय बस्तियों का उनके आकार के अनुसार वितरण की आदर्श तस्वीर प्रस्तुत करता है। इसके अनुसार नगरों की कोटि एवं उनके आकारमें एक निश्चित संबंध पाया जाता है, जिसके बारे में अनेक विद्वानों ने विचार प्रस्तुत किया है। इस दिशा में प्रथम प्रयास ओयरबैक द्वारा 1913 ई. में किया गया।
किसी भी प्रदेश में, चाहे वह आर्थिक विकास एवं नगरीकरण की दृष्टि से किसी भी स्तर पर हो, अनेक छोटे नगर, कुछ कम मध्यम आकार के नगर तथा काफी कम बड़े आकार के नगर देखने को मिलते हैं। इन नगरों को जनसंख्या के आधार पर विभिन्न कोटि या श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है इस प्रकार सबसे बड़े नगर की श्रेणी-1, दूसरे सबसे बड़े नगर की श्रेणी-2 होगी। इसी प्रकार अन्य नगरों की भी श्रेणियां होंगी।
जी. के. जिफ ने 1949 में कोटि आकार नियम की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की। इसके पश्चात् ही इस नियम को सही अर्थों में मान्यता प्राप्त हुई। उन्होंने नगरों के आकार तथा कोटि में नियमित संबंध बताया तथा अपने विचारों को मानव व्यवहार को सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने अमेरिका के 100 बडे़ महानगरीय क्षेत्रों की 1940 ई. की जनसंख्या के आधार पर एक सूत्र का प्रतिपादन किया। इस सूत्र के अनुसार यदि किसी प्रदेश के नगरीय बस्तियों को जनसंख्या के आधार पर अवरोही क्रम में व्यवस्थित किया जाए तो n वें नगर की जनसंख्या सबसे बड़े नगर की जनसंख्या का 1/n होगी।
अर्थात् Pn = P1/n
Pn = वे श्रेणी की नगर की जनसंख्या
P1 = सबसे बड़े नगर की जनसंख्या
n = ज्ञात किए जाने वाले नगर की कोटि
कोटि आकार नियम को ग्राफ के द्वारा भी प्रदर्शित किया जा सकता है। यदि किसी प्रदेश के नगरों को रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित किया जाय तथा रेखाचित्र बनाने में अंकगणितीय अक्ष का प्रयोग किया जाय तो नगरों के कोटि आकार संबंधों की रेखा ऊपर की ओर नत्तोदर रूप ग्रहण कर लेती है। यदि दोनों अक्षों पर लघुगणन (सवह) का प्रयोग किया जाय तो यह रेखा सीधी होती है। नीचे दिए गए ग्राफ में सीधी रेखा कोटि आकार नियम के सैद्धान्तिक परिणामों की ओर संकेत करती है, जबकि वक्र रेखा इंग्लैंड तथा वेल्स के नगरों की वास्तविक कोटि आकार संबंध को बतलाती है।
लंदन की जनसंख्या कोटि आकार नियम के सैद्धान्तिक परिणामों से अधिक है, जबकि निम्न श्रेणी के नगर मोटे तौर पर कोटि-आकार नियम का अनुसरण करते हैं। यही बात वेल्स के नगरों में भी लागू होती है। अतः स्पष्ट बात है कि लंदन जैसे प्रमुख नगर ने निम्न श्रेणी के नगरों की कुछ क्रियाओं का अधिग्रहण कर अधिक बड़ा आकार ग्रहण किया है। प्रादेशिक विकास की एक प्रभावी नीति के द्वारा इस अनियमितता को दूर किया जा सकता है। इस प्रकार प्रादेशिक नियोजन में कोटि आकार नियम महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 1939 ई. में मार्क जेफरसन ने ‘प्रमुख नगर के नियम’ का प्रतिपादन किया। प्रमुख नगर का तात्पर्य किसी प्रदेश के सबसे बड़े नगर से है।
जेफरसन ने देशों में प्राथमिक नगर तथा दूसरे सबसे बड़े नगर थे बीच के आकार के संबंधों का अध्ययन किया। उन्होनें यह पाया कि 28 देशों में प्राथमिक नगर की जनसंख्या द्वितीय कोटि के नगर की जनसंख्या के दुगने से अधिक थी। 18 अन्य मामलों में यह तीन गुनी से भी अधिक थी। उन्होंने यह बताया कि कई कारणों के फलस्वरूप एक नगर प्रारंभिक अवस्था में पड़ोस की अन्य नगरों की तुलना में अधिक विकसित हो जाता है, परंतु जैसे ही इसका आकार अधिक बड़ा होे जाता है, इसका बड़ा आकार अधिक जनसंख्या तथा कार्यों को आकर्षित करने लगता है।
प्राथमिक नगर तथा द्वितीय सबसे बड़े नगर के बीच संबंधों का अध्ययन विभिन्न भूगोलवेत्ताओं द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किया गया है। नियमतः यह अनुपात 2:1 होना चाहिए। परंतु यह कनाडा में अनुपात 1:1 है, जबकि उरुग्वे में यह अनुपात 17:1 पाया गया है। लिंस्की ने उन कारकों पर प्रकाश डाला है जो किसी प्रदेश में नगर की अधिक प्रमुखता के लिए उत्तरदायी होते हैं। उनके अनुसार जिन देशों में प्राथमिक नगर की अधिक प्रमुखता होती है, वहा निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं:
वस्तुतः इनमें से अधिकांश विशेषताएं विकासशील देशों में पायी जाती हैं। अर्थात् विकासशील देशों नगरों में कोटि-आकार- नियम अधिक अनियमित हैं। दूसरी ओर निम्नलिखित विशेषताओं वाले देशों में प्राथमिक नगर की प्रमुखता कम है।
ये विशेषताएं विकसित देशों में पायी जाती हैं, जहां कोटि आकार नियम अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट हैं। आधुनिकीकरण एवं नगरीकरण निम्न श्रेणी के नगरों के बीच विकास में सहायक होता है, जिसके फलस्वरूप नगरों के बीच का संबंध कोटि आकार नियम के अनुरूप होने लगता है।
Question : प्राथमिक नगर की संकल्पना
(2005)
Answer : प्राथमिक नगर किसी भी राज्य अथवा प्रदेश की सबसे बड़ी बस्ती होती है। यह सर्वाधिक केन्द्रीय स्थान वाला नगर होता है तथा सामान्य से लेकर अति विशिष्ट कार्यों को संपन्न करता है। सभी केन्द्रीय बस्तियां अति विशिष्ट कार्य नहीं कर सकतीं, इसलिए उनमें से कोई एक बस्ती ही प्राथमिक नगर होगा।
कोटि-आकार नियम तथा प्राथमिक नगरों के अध्ययन का प्रथम कार्य जेफरसन महोदय द्वारा 1939 ई. में किया गया था। इनके अनुसार नगर अपने आप विकसित नहीं होते। नगरों के विकास के लिए केन्द्रीय कार्यों का केन्द्रीय स्थल में होना आवश्यक है।
कोटि-आकार नियम तथा प्राथमिक नगर की संकल्पना का दूसरा महत्वपूर्ण अध्ययन जिफ महोदय द्वारा 1949 ई. में किया गया था। उन्होंने मात्रत्मक विधि का प्रयोग करते हुए अमेरिकी नगरों के लिए कोटि आकार नियम का विकास किया, जो दिए गए सांख्यिकी विधि पर आधारित है-
जहां Pn = किसी निश्चित कोटि के नगर की जनसंख्या
P1 = प्राथमिक नगर की जनसंख्या
n = चुने गए नगर की कोटि
नगरों के प्राथमिक विशेषताओं तथा पदानुक्रम के अध्ययन में कई भारतीय विद्वानों का भी योगदान है। इनमें एन.बी.के. रेड्डी (1969) का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने गोदावरी-कृष्णा नदी के डेल्टाई क्षेत्र में नगरों के कोटि-आकार संबंधों एवं प्राथमिक नगरों का अध्ययन किया है। वो प्रथम भूगोलवेत्ता थे, जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि न सिर्फ सबसे बड़े आकार को प्राथमिक नगर दर्जा दिया जाय, वरन प्रादेशिक नगरीकरण के संदर्भ में इस तत्व का अनुमानीकरण भी आवश्यक है कि प्राथमिक नगर के अनुकूल जनसंख्या कितनी होनी चाहिए। रेड्डी महोदय ने इसके लिए एक सांकेतिक सूत्र का विकास किया जो इस प्रकार है-
जहां P1 = प्राथमिक नगर की अनुकूल जनसंख्या
= प्रदेश विशेष की कुल जनसंख्या
= व्युत्क्रमणीय मान का जोड़ा
इस प्रक्रिया से सबसे बड़े नगर अर्थात् प्राथमिक नगर की संभावित जनसंख्या का पता लगता हैं।
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि प्राथमिक नगर तथा कोटि-आकार नियम की संकल्पना स्वस्थ नगरीकरण के लिए आवश्यक है।
Question : नगरीय प्रभाव के क्षेत्र की संकल्पना का परीक्षण कीजिए तथा उसके सीमांकन में इस्तेमाल की जाने वाली गुणात्मक एवं मात्रत्मक विधियों की विवेचना कीजिए।
(2003)
Answer : नगर प्रभाव क्षेत्र का समान्य तात्पर्य उस भौगोलिक प्रदेश से है, जो किसी नगर की सीमा के बाहर अवस्थित है, किंतु आर्थिक तथा सामाजिक कार्यों के लिए वह नगर पर निर्भर करता है। नगर भी कई प्रकार के कार्यों के लिए अपने आस-पास के क्षेत्रों पर निर्भर करता है। जेफरसन के अनुसार नगर का विकास अपने आप नहीं होता है उनके विकास का आधार आस-पास का ग्रामीण क्षेत्र निर्धारित करता है। गेड्स तथा स्मेल जैसे ब्रिटिश भूगोलवेत्ताओं की अवधारणा है कि नगर के बसाव स्थान (site) का विकास उसके बसाव स्थिति (situatim) पर निर्भर करता है। बसाव स्थिति ही नगर का प्रभाव क्षेत्र है।
नगर प्रभाव क्षेत्र शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग नार्थेन महोदय ने पिछली शताब्दी के 5 वें दशक के मध्य में किया था। लेकिन उसके पूर्व भी नगर प्रभाव क्षेत्र का अध्ययन होता रहा था। लेकिन नगर प्रभाव क्षेत्र की जगह अमलैंड शब्द का अधिक प्रयोग होता है। यह जर्मन शब्द है, जहां अम का मतलब चारों तरफ और लैंड का मतलब भूमि है। अर्थात् नगर के चारों तरफ की भूमि उसका प्रभाव क्षेत्र या अमलैंड है। अमलैंड शब्द का विकास सर्वप्रथम आंद्रे एलक्स द्वारा 1932 ई. में किया गया। इसके बाद इस शब्द का प्रयोग स्टेनले डॉज, हिटलसे और हैरिस जैसे विद्वानों ने किया। ब्रिटिश भूगोलवेत्ता ग्रीन ने नगरीय पृष्ठ प्रदेश (urban Hinterland) शब्द का प्रारंभ में प्रयोग किया, लेकिन बाद में उन्होंने नगर प्रभाव क्षेत्र का प्रयोग किया। ब्रिटिश भूगोलवेत्ता गिल्बर्ट ने नगर क्षेत्र शब्द का प्रयोग किया। लेकिन नगरीय भूगोल में द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व अमलैंड एवं द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नगर प्रभाव क्षेत्र को सर्वाधिक मान्यता मिली। 1970 के बाद नगरीय भूगोलवेत्ताओं द्वारा और मुख्यतः विकासशील देशों के भूगोलवेत्ताओं द्वारा नगर प्रदेश शब्द का प्रमुखता से प्रयोग किया गया।
यद्यपि ये तीनों शब्द एक ही संदर्भ में उपयोग किये जाते हैं, लेकिन कार्यिक दृष्टि से तथा विधि तंत्र की दृष्टि से उनमें अंतर है। अमलैंड शब्द का विकास नगर के कार्यों के प्रभाव पर आधारित है, जबकि नगर प्रदेश नियोजन को ध्यान में रखकर प्रभाव क्षेत्र का उपयोग किया जाता है। नगर प्रदेश के अंतर्गत न सिर्फ नगर प्रभाव क्षेत्र आते हैं, वरन् नगर को भी सम्मिलित किया जाता है।
सीमांकन की विधिः नगर प्रभाव क्षेत्र के सीमांकन की तीन प्रमुख विधि हैः
(i) अनुभवाश्रित विधि (ii) सांख्यिकी विधि (iii) सांख्यिकी सह अनुभवाश्रित विधि।
द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व अनुभवाश्रित विधि की प्रधानता थी। इसके अंतर्गत नगर के कार्यों को आधार मानकर प्रभाव क्षेत्र सीमांकित किया जाता था। इस संदर्भ में अमेरिकी भूगोलवेत्ता हैरिस का कार्य महत्वपूर्ण है। उन्होंने अमेरिकी नगर साल्ट लेक सिटी के अमलैंड का सीमांकन 12 कार्यिक चरों की मदद से किया थाः
(i) थोक व्यापार (ii) खुदरा व्यापार (iii) रेडियो ब्राडकास्टिंग (iv) बस सर्विस (v) टेलीफोन एरिया (vi) मेडिकल सर्विस (vii) धार्मिक सेवा (viii) प्रशासनिक सेवा (ix) न्यूज पेपर (x) शैक्षिक सेवा (xi) अनाज (xii) फल एवं सब्जी।
इन चरों को आधार मानकर नगर के प्रभव क्षेत्र की सीमा निर्धारित की गयी।
यद्यपि इस विधि को व्यापक मान्यता प्राप्त है, लेकिन इस विधि के साथ दो प्रमुख समस्याएं भी हैं। प्रथमतः एक ही नगर के लिए अलग-अलग भूगोलवेत्ताओं द्वारा अलग-अलग प्रभाव क्षेत्र निर्धारित किया जा रहा था जिसमें अध्ययन की विश्वसनीयता में कमी आयी। दूसरी समस्य यह थी कि कई नगर कुछ कार्यों को व्यापक स्तर पर करता था, जबकि सही अर्थों में उसका प्रभाव क्षेत्र उतना वृहद और व्यापक नहीं हो सकता था। वस्तुतः R. L. Singh ने इसी आलोचना को ध्यान में रखकर बनारस के धार्मिक कार्यों को आधार नहीं माना था।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मात्रत्मक क्रांति के प्रभाव से नगरीय भूगोवेत्ताओं ने गुरुत्वाकर्षण मॉडल का प्रयोग करते हुए नगर के प्रभाव क्षेत्र को सीमांकित करने का प्रयास किया। इस विधि के अंतर्गत यह माना गया कि नगर की जनसंख्या द्रव्यमान अथवा पिंड के समान है। जो भी पिंड जितना अधिक होगा। उसका गुरुत्वाकर्षण उतना ही बड़ा होगा। नार्थम ने इस अवधारणा को विकसित किया कि नगर की जनसंख्या गुरुत्वाकर्षण का कार्य करती है और दूसरे नगरों के संदर्भ में बड़े नगरों का प्रभाव क्षेत्र सीमांकित किया जा सकता है। रैली महादेव ने संशोधित गुरुत्वाकर्षण का सूत्र विकसित किया, जिसे भूगोलवेत्ताओं ने व्यापक मांयता दी। यह मॉडल इस प्रकार हैः
P = जहां P = सीमा point of break)
MA = बड़े नगर की जनसंख्या
MB = छोटे नगर की जनसंख्या
d = दो पिंडों के बीच की दूरी।
इस विधि के अपनाने से सीमांकित नगर प्रभाव क्षेत्र की उपयोगिता में वृद्धि हो गयी। नगर और प्रादेशिक नियोजकों द्वारा इसका प्रयोग किया जाने लगा।
विकासशील देशों में डिकिन्सन, हैरिस तथा हैगेट द्वारा परिभाषित नगर प्रदेश शब्द को 1970 के बाद व्यापक मान्यता मिली है। नगर प्रदेश का सीमांकन मात्रत्मक सह अनुभवाश्रित विधि पर आधारित है। दूसरे शब्दों में यह विधि प्रदेश के लोगों के व्यवहार तथा परिवहन साधनों के विकास को ध्यान में रखते हुए सांख्यिकी विधि द्वारा विकसित सीमाओं में आवश्यक संशोधन करता है। भारत में राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश का सीमांकन इसी विधि पर आधारित है। प्रथमतः गुरुत्वाकर्षण मॉडल पर सीमा निर्धारण के बाद कई चरों की मदद से उसमें आवश्यक संशोधन किये गये। वस्तुतः इस कार्य के लिए 8 चरों का प्रयोग किया गयाः
इन चरों की मदद से गुरुत्वाकषर्ण विधि द्वारा अपनायी गयी सीमाओं में संशोधन किये गये। कुल मिलाकर इसके प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत 30242 वर्ग किमी. के क्षेत्र आये। दिल्ली नगर से औसत दूरी 115 किमी. हुई, और इस प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत 1981 की जनगणना के अनुसार दिल्ली के अतिरिक्त 98 अन्य नगरीय बस्तियां और 2000 ग्रामीण बस्तियां हैं। फरीदाबाद, गुडगांव रोहतक, महेंद्र नगर, सोनीपत, बल्लभगढ़ और बहादुरगढ़ जैसे हरियाणा की नगरीय बस्तियां इसके प्रभाव में आयी। राजस्थान का अलवर उ.प्र. की गाजियाबाद बुलंदशहर, मेरठ, हापुड़, मोदीनगर जैसी बस्तियां इसके प्रभाव में आयीं।
दिल्ली नगर प्रदेश के सीमांकन से यह एक नियोजन प्रदेश के रूप में मान्यता पा चुका है। विकासशील देशों के अधिकतर महानगरों के लिए भी यह प्रक्रिया अपनायी गयी है। वस्तुतः वर्तमान समय में विकसित देशों में नगर प्रदेश क्षेत्र को अधिक मान्यता प्राप्त है।
Question : श्रेणी आकार प्रणाली
(2000)
Answer : श्रेणी-आकार प्रणाली जगहों के आकार व उनकी श्रेणी या कोटि (तंदा) के बारे में एक नियमित संबंध की परिकल्पना करता है। यह एक सैद्धांतिक माडल है तथा नगरों के आकार में गुणात्मक समांताओं के संबंधों को बताने वाला आदर्श है। श्रेणी-आकार नियम के अनुसार नगरों का आपस में आकार के अनुसार संबंध होता है। ये आपस में इस प्रकार संबंधित होते हैं कि उनमें एक क्रम पाया जाता है।
एक प्रदेश (चाहे सम्पूर्ण विश्व हो, देश हो या राज्य हो) में कुछ बड़े नगर, कुछ मध्यम नगर व अनेक छोट-छोटे नगर देखने को मिलते हैं। यदि किसी प्रदेश के नगरों को जनसंख्या के अनुसार व्यवस्थित किया जाय अर्थात नगरों को जनसंख्या के अनुसार अवरोही क्रम दिया जाय तो श्रेणी-आकार प्रणाली के अनुसार दूसरी श्रेणी के नगर की जनसंख्या प्रथम श्रेणी के जनसंख्या की आधी होगी तथा तीसरी श्रेणी के नगर की जनसंख्या प्रथम श्रेणी के नगर की जनसंख्या का एक-तिहाई होगी। इसी प्रकार के अन्य कोटि के नगरों की जनसंख्या का अनुपात होगा।
श्रेणी-आकार नियम की दिशा में सर्वप्रथम एफ- ओयरबैक ने प्रकाश डाला। उन्होंने 1913 ई. में यह बतलाया कि नगरों के आकार व उनकी श्रेणी के बीच एक नियमित संबंध होता है। जी.के. जिफ (G.K. Gipf) ने 1949 ई. में श्रेणी-आकार प्रणाली की विस्तृत व्याख्या की। उन्होंने श्रेणी और आकार के बीच के संबंध को बतलाने के लिए एक सूत्र का प्रतिपादन किया-
1 = प्रथम श्रेणी के नगर की जनसंख्या
r = ज्ञात किये जाने वाले नगर की श्रेणी (r = 1, 2, 3, ...........)
श्रेणी-आकार प्रणाली को रेखाचित्र द्वारा निम्न प्रकार से दिखलाया जा सकता है-
इस रेखाचित्र को देखने को स्पष्ट होता है कि नगरों के श्रेणी- आकार संबंध की रेखा ऊपर की ओर नतोदर रूप ले लेती है।
किसी भी प्रदेश या देश में नगरों के आकार के बीच का संबंध उस प्रदेश में कार्यरत एकीकरण बल तथा विविधीकरण के बल के बीच अंतर्क्रिया पर निर्भर करता है। जहां अभिकेंद्रीय बल प्रधान होता है वहां प्राधनिक प्रारूप (Primate pattern) देखने को मिलता है। इसके विपरीत जहां अपकेंद्रीय बल प्रधान होता है वहां प्राथमिक प्रारूप का अभाव पाया जाता है। इन दोनों बलों के बीच संतुलन की स्थिति में श्रेणी-आकार प्रणाली जैसी आदर्श स्थिति हो सकती है, जिसके लिए नगरीय नियोजनकर्ता लक्ष्य कर सकते हैं।
विद्वानों के अनुसार श्रेणी-आकार प्रणाली निम्न देशों में लागू होता हुआ दिखाई देता है-
प्राथमिक प्रारूप-श्रेणी आकार प्रणाली के विपरीत परिस्थितियों में मिलता है, जो निम्न हैंः
इनमें से अधिकांश विशेषताएं विकासशील देशों में मिलती हैं। अतएव श्रेणी-आकार प्रणाली यहां अच्छे से लागू होता नहीं मिलता।
भारत के संदर्भ में देखें तो भारत के महानगरों में यह नियम बिल्कुल लागू नहीं होता। भारत के दो सबसे बड़े नगरों- मुंबई एवं कोलकाता की जनसंख्या में ज्यादा अंतर नहीं है। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर श्रेणी आकार प्रणाली लागू नहीं होता है। राज्य के स्तर पर भी यह नियम लागू होता नहीं दिखता। अपवादस्वरूप केवल कुछ राज्यों जैसे राजस्थान, हरियाणा इत्यादि में ही यह कुछ हद तक लागू होता दिखता है। राजस्थान में श्रेणी प्रणाली कुछ अच्छे ढंग से लागू होती दिखती है।
Question : संसार में जनसंख्या प्रवसन के कारणों और परिणामों पर चर्चा कीजिए।
(2000)
Answer : प्रवसन का वास्तविक अर्थ आवास का स्थायी या अर्द्धस्थायी विस्थापन है। यह मौसमी के साथ-साथ अस्थायी भी हो सकती है। आवास का यह परिवर्तन जब अंतर्राष्ट्रीय सीमा के आर-पार होता है, तब उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रवसन के नाम से जाना जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय प्रवसन मानव भूगोल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिघटनाओं में से है। प्रवसन के कारकों को अभिकर्षण एवं प्रतिकर्षण कारकों के अंतर्गत रखा जा सकता है-
(i) अभिकर्षण कारक- ये कारण गंतव्य या मेजबान देश से कार्य करते हैं। बेहतर रोजगार अवसर, बेहतर जीवन दशाएं तथा अनुकूल आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियां इन कारकों में शामिल हैं।
(ii) प्रतिकर्षण कारक- ये कारक स्रोत क्षेत्र यानि जहां से प्रवसन होता है, वहां कार्य करते हैं। इन कारकों में जनसंख्या आकार में वृद्धि, अस्थिर भूमि संबंध, गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक व धार्मिक उत्पीड़न, असुरक्षा, प्राकृतिक आपदायें तथा राजनैतिक तनाव शामिल हैं।
किसी क्षेत्र में अभिकर्षण तथा अपकर्षण कारक एक साथ कार्य करते हैं। समग्र रूप से प्रवसन अभिकर्षण एवं अपकर्षण दोनों कारकों का प्रतिफल होता है। कभी-कभी दोनों कारकों में अंतर करना मुश्किल हो जाता है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय प्रवसन औद्योगीकरण, तकनीकी विकास तथा सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में होने वाले दूसरे परिवर्तनों की वृद्धिमान प्रक्रिया का परिणाम है। प्रवसन के कारणों को निम्न वर्गों के अंतर्गत रखकर चर्चा की जा सकती है-
1. आर्थिक कारणः प्रवसन का मुख्य उद्देश्य आर्थिक हो सकता है। 19वीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय प्रवास का एक मुख्य उद्देश्य था-बाहरी प्रदेशों में कृषि भूमि की प्राप्ति। उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में कृषि योग्य नई भूमि मिलने के कारण इन भू-भागों में यूरोपीय लोगों को प्रवास हुआ क्योंकि यूरोप में अत्यधिक सघनता एवं निर्वाह क्षेत्र में निर्वाह योग्य साधनों की कमी थी। 17वीं शताब्दी का यूरोप के लोगों का प्रवास संभवतः मानव प्रवास का सबसे बड़ा उदाहरण है। यूरोपीय जनसंख्या का यह प्रवास दो दिशाओं में हुआ। प्रथम प्रवास उष्ण एवं उपोष्ण प्रदेशों के विरल जनसंख्या वाले तटीय भागों में हुआ। जैसे- दक्षिण अमेरिका का पूर्वी तट। इन क्षेत्रों में गन्ना, कपास, तम्बाकू कॉफी, चाय, मसाले आदि की खेती बड़े पैमाने पर प्रारंभ की गई। दूसरा प्रवास शीतोष्ण कटिबंधीय घास के मैदानों-दक्षिण अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में हुआ। कुछ अन्य उदाहरणों के अंतर्गत अलास्का पश्चिमी आस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रों में सोने की खानों के कारण जनसंख्या का प्रवास हुआ। अल डोराडो (EL Dorado) अर्थात सोने की भूमि की खोज के उद्देश्य से ही स्पेन व पुर्तगाल के लोगों ने 16वीं और 17वीं शताब्दी में मध्य और दक्षिण अमेरिका की ओर प्रवास किया।
2. तकनीकी विकासः ज्यादा उन्नत तकनीक से युक्त लोग नये क्षेत्रों पर आक्रमण कर उन्हें विजित कर सकते हैं। जैसे- प्राचीन रोमनों ने यूरोप के काफी बड़े प्रदेश को विजित किया। यूरोपियन के पास बेहतर पानी के जहाज थे, जिससे उन्होंने अमेरिका, आस्टेªलिया तथा कई द्वीपों पर अधिकार कर लिया। इसके कारण आने वाले समय के औपनिवेशीकरण, जिसमें वृहत् स्तर पर व्यक्तियों का स्थानांतरण हुआ, का आधार तैयार हुआ।
3. सामाजिक कारणः भारत में स्त्रियों के प्रवास की मात्र काफी ऊंची है क्योंकि विवाह के बाद स्त्रियां अपने माता-पिता के घर से पति के घर प्रवास करती हैं।
धार्मिक स्वतंत्रता की भावना भी प्रवास को बढ़ावा देती है। बड़ी संख्या में ‘पिलग्रिम फादर्स’ का अटलांटिक महासागर के दूसरे छोर पर प्रवास इसका उदाहरण है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व जर्मनी से यहूदियों का पलायन एवं युद्ध के बाद यहूदियों का इस्राइल में आगमन इसी श्रेणी में आता है। अमेरिका में मॉरामान्स संप्रदाय के लोगों का ऊटा प्रांत की ओर प्रवास का कारण धार्मिक ही है।
4. राजनैतिक कारण: द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात यह प्रवास का एक प्रमुख कारण रहा है। यहूदी, फिलीस्तीनी, भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, तमिल, सर्बियन, बोस्नियाई, कुर्द आदि शरणार्थियों द्वारा बड़े पैमाने पर प्रवास किया गया। रवांडा, बुरुंडी, सोमालिया एवं अन्य कई अफ्रीकी देशों में गृहयुद्ध के कारण इन देशों से पड़ोसी देशों में शरणार्थियों का स्थानांतरण बड़े पैमाने पर जारी है। भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय बड़े पैमाने पर लोगों का प्रवसन हुआ। 1970-71 में बांग्लादेश से भारत में लोगों का आव्रजन राजनैतिक अस्थिरता के कारण हुआ।
5. बलपूर्वक स्थानांतरणः इस प्रकार का प्रवास समाज या सत्ता द्वारा स्वीकार की गई दबावमूलक नीतियों के कारण होता है। इसके उदाहरण निम्न हैंः
6. श्रम प्रवासः उपनिवेशवादी युग की यह एक मुख्य विशेषता थी। इस प्रकार का प्रवास उपनिवेशों के नये खोजे गये उष्णकटिबंधीय प्रदेशों की ओर हुआ था। विशेष रूप से केंद्रीय अमेरिका के द्वीप और कैरेबियन, हिन्द महासागर और दक्षिण प्रशांत महासागर लक्ष्य थे। कुछ देश जैसे-फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, गुयाना श्रम प्रवास के द्वीप हैं।
7. जनसांख्यिकीय कारणः आयु एक महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय कारक हैं। युवा लोग ज्यादा गतिशील होते हैं।
8. सामाजिक-आर्थिक स्थितिः निचले सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोगों के पास सामान्यतः स्थायी भूमि नहीं होती जो उनको जन्म स्थान से बांध सके। इसके मुकाबले मध्यम वर्ग के लोग कम गतिशील होते हैं। अधिक शिक्षित, ज्यादा कुशल तथा आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति लंबी दूरी तक प्रवसन करने की प्रवृत्ति रखते हैं।
9. सूचना का प्रसरणः शिक्षा, सांस्कृतिक संबंध तथा स्थानिक अंतर्क्रिया द्वारा सूचना का प्रसरण भी जनसंख्या प्रवसन की संभावना को बढ़ाते हैं। वर्तमान में भारत से उच्च स्तर के आई.टी- पेशेवरों/तकनीकी विशेषज्ञों का प्रवसन हो रहा है।
10. आकांक्षा के स्तर में सामान्य वृद्धिः विज्ञान और तकनीक तथा सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में विकास के साथ लोगों की आकांक्षा/महत्वाकांक्षा में भी वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए भारत से इंजीनियरों तथा डाक्टरों का विकसित देशों में प्रवजन।
प्रवसन के परिणाम
प्रवसन के परिणामों को निम्न वर्गों के अंतर्गत विश्लेषित किया जा सकता हैः
1. जनसांख्यिकीय परिणामः आंतरिक प्रवासन के फलस्वरूप जनसंख्या का वितरण प्रभावित होता है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन के कारण कुल संख्या के साथ-साथ जनसंख्या संघटन में भी बदलाव आता है। स्रोत क्षेत्रों में युवा जनसंख्या कम हो जाती है जबकि प्राप्तिकर्ता क्षेत्र में युवा वर्ग का अनुपात अत्यधिक बढ़ जाता है। विकासशील देशों के प्रमुख शहरों में यह प्रवृति देखी जा सकती है, जैसे- दिल्ली, कराची, कुआलालम्पुर, आदि। कैलिफोर्निया जैसे विकसित क्षेत्रों में भी युवा वर्ग के प्रवासियों का विशाल अनुपात पाया जाता है क्योंकि यहां सिलिकॉन वैली द्वारा सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जाते हैं। कुछ स्थितियों में यह प्रवसन लिंग विशेष का भी हो सकता है। उत्तरांचल एवं केरल जैसे राज्यों में उच्च लिंग अनुपात पाया जाता है क्योंकि यहां के बहुत से पुरुष रोजगार की तलाश में बाहर प्रवास कर जाते हैं।
2. आर्थिक परिणाम: प्रवसन के आर्थिक परिणामों के मापन में मूल्यांकन की समस्या आड़े आती है। जिस क्षेत्र से प्रवसन होता है उस क्षेत्र में भले ही जनसंख्या का दबाव कम हो जाता हो, लेकिन कार्यशील युवा शक्ति की कमी हो जाती है जिसके कारण संसाधन विकास की गति धीमी हो सकती है।
प्रवसन के आर्थिक परिणामों के निर्धारण में प्रवासकों की आयु, स्वास्थ्य, पेशागत कुशलता तथा शिक्षा के स्तर के साथ-साथ गंतव्य देश की आर्थिक जरुरतों तथा बढ़ती प्रवासकों की संख्या को आत्मसात करने की क्षमता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। अगर आव्रजकों की संख्या काफी ज्यादा है तो वे बोझ बन जाते हैं तथा नागरिक सुविधाओं एवं अर्थव्यवस्था की संरचना पर दबाव डालते हैं। अगर गंतव्य देश की ओर कुशल श्रमिकों का प्रवसन हो रहा हो तथा जरुरत के अनुसार हो तो इस क्षेत्र में संसाधनों के विकास की गति तीव्र हो जाती है तथा पूरे क्षेत्र का आर्थिक विकास हो सकता है। पिछड़े आपूर्तिकर्ता क्षेत्र में विकसित क्षेत्रों की ओर से पूंजी का अदृश्य प्रवाह भी होने लगता है। मध्य अमेरिकी देशों में इस प्रकार के अदृश्य आय प्रवाह से सकल घरेलू उत्पाद के एक बड़े भाग का निर्माण होता है। प्रवसन के कारण विकासशील देशों में देश के भीतर अंतर-क्षेत्रिय पूंजी प्रवाह भी होता है जैसा कि बिहार के प्रवासी श्रमिकों द्वारा पंजाब तथा महाराष्ट्र से अपने गृह-राज्य में पूंजी भेजने में देखने को मिलता है।
आजकल विश्व में यह प्रवृति उभर रही है, जिसमें विकसित देश अपने अग्रगामी विकास हेतु विकासशील देशों की कुशल श्रम शक्ति पर निर्भर होते जा रहे हैं। हाल ही में जर्मन सरकार द्वारा भारत के सूचना-प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों को जर्मनी में कार्य करने की अनुमति देने का निर्णय एक प्रकार से यह सिद्ध करता है कि किसी देश की अर्थव्यवस्था के विकास में प्रवासी श्रम लाभदायक आर्थिक भूमिका निभायी जा सकती है। एक अन्य उदाहरण में 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा आमंत्रित यहूदी प्रवासियों का देश के वैज्ञानिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।
3. सामाजिक परिणाम: प्रवसन के कारण प्राप्तिकर्ता क्षेत्र की जनसंख्या की सांस्कृतिक संघटन एवं नृजातीय संरचना में परिवर्तन आ जाता है। विभिन्न नृजातीय एवं सांस्कृतिक समूहों में परस्पर अंतर्क्रिया होती है जो कभी-कभी संघर्ष कारण बनती है। अक्सर कुछ देशों के विभिन्न भागों में विशिष्ट अधिवासों का विकास हो जाता है। उदाहरण के लिए कनाडा ने औंटेरियो में डच तथा क्यूबेक में फ्रांसीसी समुदाय, श्रीलंका के उत्तर में तमिल बस्तियां। ये विशिष्ट बस्तियां नस्लीय संघर्ष या अलगाववादी आंदोलन में शरीक हो जाती हैं।
4. राजनीतिक परिणाम: प्रवासी अपने गंतव्य देश की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये अल्पसंख्यक प्रवासी समूह एक खास वोट बैंक का निर्माण करते हैं। उदाहरण के लिए ग्रेट ब्रिटेन में एशियाई समूह राजनीतिक दलों के लिए एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं जिनके एक मुश्त वोट चुनाव परिणामों में पर्याप्त अंतर ला सकते हैं। इसके अलावे एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिणाम यह होता है कि ऐसे प्रवासियों की उपस्थिति आपूर्तिकर्ता तथा प्राप्तिकर्ता देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
इन विभिन्न नस्लीय एवं सांस्कृतिक समूहों के आर्थिक विकास में संतुलन बनाये रखना भी एक कठिन काम होता है, अगर प्रवासी समूह आर्थिक रूप से संपन्न आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग भी करते हैं।
5. पर्यावरणीय परिणाम: प्रवासियों की बढ़ती संख्या किसी क्षेत्र के मौजूदा पर्यावरण पर भी दबाव डालती है। संसाधनों का तीव्र दोहन प्रारंभ हो जाता हैं जिसके कारण प्रदूषण की समस्या तथा प्राकृतिक संसाधनों की कमी के खतरे का सामना करना पड़ता है। समग्र तौर पर संस्थिर विकास के लिए यह एक चुनौती है, जिसका प्रबंधन कठिन हो जाता है।
6. सांस्कृतिक परिणाम: बहुत सी समस्याओं के बावजूद विभिन्न संस्कृतियों के बीच विचारधाराओं के आदान-प्रदान में तथा आधुनिक सभ्यता के जटिल जाल में सूचना के प्रसरण के लिए प्रवसन एक आवश्यक प्रक्रिया लगती है। प्रत्येक प्रवासी अपने पैतृक वातावरण की तरह का कुछ निर्माण नये देश/क्षेत्र में करना चाहता है, जिससे संस्कृति एवं सभ्यता समृद्ध होती है।
Question : प्रमुख शहर
(1999)
Answer : नगरों के छोटे-बड़े आकारों के आधार पर प्रत्येक देश में जो सबसे बड़ा नगर होता है, उसे ‘प्रमुख नगर’ कहा जाता है। मार्क जैफरसन के ‘प्रमुख नगर सिद्धांत’ के अनुसार किसी देश का प्रमुख नगर उस देश के द्वितीय नगर के दो या तीन गुने से अधिक बड़ा होता है। जैफरसन ने पाया कि संसार के 28 प्रमुख नगरों का आकार द्वितीय नगर से तीन गुना बड़ा था। जैफरसन के अनुसार प्रमुख नगर अपने देश की राष्ट्रीय प्रवृत्ति को किसी अन्य नगर की अपेक्षा अधिक पूर्णता से व्यक्त करता है। उसके अनुसार:
जैफरसन की यह धारणा विकसित देशों के लिए उपयुक्त प्रतीत होती है, परन्तु भारत जैसे विकासशील देशों के लिए दोषपूर्ण प्रतीत होती है। भारत में कलकत्ता, मुंबई एवं दिल्ली की जनसंख्याओं में परिवर्तन होने से भिन्न-भिन्न समय में ये भारत के प्रमुख शहर रहे हैं। इस प्रकार जैफरसन का मत दोषपूर्ण पाया गया है।