Question : भूगोल में द्वैतवाद
(2007)
Answer : द्वैतवाद का तात्पर्य किसी एक विषयवस्तु पर दो उपागम द्वारा विश्लेषण का प्रयास अथवा एक ही आधारभूत विषय के लिए अलग-अलग विषयवस्तु का चयन करना है। इससे दो प्रकार की संकल्पनाएं विकसित होती हैं, लेकिन दोनों ही संकल्पनाओं का अंतिम उद्देश्य एक ही मौलिक विषय होता है। यही कारण है कि इसे द्वैतवाद कहा गया है।
द्वैतवाद का एकमात्र तात्पर्य संकल्पनाओं का विभाजन ही नहीं है, वरन् दावे और प्रतिदावे के द्वारा संकल्पना विशेष को मान्यता प्रदान करना भी है और इसी क्रम में चिन्तकों के विचार अलग-अलग रूप से उभरते हैं। भूगोल में दो प्रकार का द्वैतवाद विकसित हुआ है। प्रथम द्वैतवाद विधितंत्र से संबंधित है, जबकि दूसरे प्रकार का द्वैतवाद विषयवस्तु से संबंधित है।
द्वैतवाद विचारधारा यूरोप में पुनर्जागरण काल के उत्तरार्द्ध से स्पष्ट दिखाई देती है। उस काल से ही भूगोल स्पष्ट रूप से परस्पर शाखाओं में विभाजित दिखाई देता है।
यद्यपि समय के साथ भूगोल में कई नवीन द्वैद्यताएं उभर कर सामने आई हैं, उनमें से प्रमुख द्वैतवाद निम्न हैः
भूगोलवेत्ता वेरेनियस प्रथम भूगोलवेत्ता थे जिन्होंने भूगोल को सामान्य भूगोल और विशिष्ट भूगोल के रूप में विभाजित किया। वेरेनियस के अनुसार सामान्य भूगोल में सामान्य या सार्वभौम नियमों के बारे में अध्ययन किया जाता है। विशिष्ट भूगोल में किसी खास प्रदेश के लिए नियम बनाए जाते हैं।
बाद में भूगोलवेत्ताओं ने सामान्य भूगोल के लिए क्रमबद्ध भूगोल और विशिष्ट भूगोल के लिए प्रादेशिक भूगोल के पद का उपयोग किया। विशिष्ट भूगोल में केवल खास प्रदेश के लिए नियम, सिद्धांत और मॉडल बनाये जाते हैं और इसका मुख्य ध्यान मानव भूगोल पर होता है। हम्बोल्ट ने सामान्य नियम बनाने पर बल दिया, जबकि रिटर ने प्रादेशिक नियम बनाने पर विशेष बल दिया।
भूगोल में नियतिवाद और संभववाद द्वैधता काफी चर्चित रही। प्रकृति व पर्यावरण के समर्थक नियतिवादी है जबकि विडाल-डि-ला-ब्लाश ने संभववाद को समर्थन किया। इनके अनुसार विकास हेतु संभववाद आवश्यक है। इसी प्रकरण में समन्यववादी दृष्टिकोण अपनाते हुए ग्रिफिथ टेलर ने नव निश्चयवाद का पोषण किया और होर्टशोर्न ने वैज्ञानिक निश्चयवाद पर बल दिया।
आगमनिक बनाम निगमनिक उपागम विधितंत्र से संबंधित है। एक में सामान्य से विशेष की ओर, तो दूसरे में विशेष से सामान्य की ओर गमन करने पर बल दिया जाता है। इसी प्रकार सैद्धांतिक और व्यावहारिक भूगोल की द्वैद्यता भी भूगोल में खासी चर्चित रही।
वस्तुतः द्वैद्यवाद सभी सामाजिक विज्ञानों में समय के साथ उत्पन्न हुए। इससे भूगोल की हानि और लाभ दोनों हुआ।
वस्तुतः द्वैतवाद को किसी विषय के साथ पूरक रूप में लेने पर सार्थक होगा।
Question : विश्व के प्रमुख सांस्कृतिक परिमंडल
(2006)
Answer : एक ऐसा भौगोलिक प्रदेश जहां निवास करने वाले लोगों में सांस्कृतिक समरूपता पाई जाती है, सांस्कृतिक प्रदेश या सांस्कृतिक परिमंडल कहलाता है। प्रत्येक सांस्कृतिक परिमंडल अपने आप में विशिष्ट होता है। सांस्कृतिक प्रदेश का निर्धारण धर्म, भाषा, प्रजातीय गुण, वेश-भूषा, रहन-सहन का स्तर, आर्थिक विशेषता आदि के आधार पर किया जाता है। ब्राक वेब ने धर्म को सांस्कृतिक परिमंडल के निर्धारण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार माना है तथा विश्व के विभिन्न सांस्कृतिक प्रदेशों का नामकरण धर्म के आधार पर किया है। इनके द्वारा विश्व को 4 वृहत् एवं 3 लघु सांस्कृतिक परिमंडल में विभाजित किया गया हैः
1. इसाई धर्म प्रधान सांस्कृतिक प्रदेशः इस सांस्कृतिक प्रदेश को पुनः 6 भागों में विभाजित किया जाता हैः
इन सांस्कृतिक परिमंडलों में नगरीकरण का स्तर ऊंचा है। प्रथम चार सांस्कृतिक परिमंडल में औद्योगीकरण का स्तर भी उच्च है। लैटिन अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में कृषि का महत्व अधिक है। लैटिन अमेरिका को छोड़कर सभी सांस्कृतिक परिमंडल में रहन-सहन का स्तर उच्च है।
2. इस्लाम धर्म प्रधान सांस्कृतिक प्रदेशः इसका विस्तार पश्चिमी एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका में है। शुष्क जलवायु के कारण पशुचारण एक प्रमुख आर्थिक उद्यम रहा है। विगत कुछ दशकों में पेट्रो-डॉलर के कारण अर्थव्यवस्था में उछाल आया है, परंतु सामाजिक दृष्टि से ये पिछड़े हुए हैं। जनसंख्या वृद्धि दर उच्च है।
3. हिन्द सांस्कृतिक प्रदेशः यह सांस्कृतिक परिमंडल आध्यात्मिकता, संयुक्त परिवार, जाति व्यवस्था आदि के लिए जाना जाता है। गरीबी, अशिक्षा, निम्न नगरीकरण, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था आदि इस सांस्कृतिक परिमंडल की अन्य विशेषताएं हैं।
4. पूर्वी एशियाई सांस्कृतिक प्रदेशः यह बौद्ध धर्म प्रधान सांस्कृतिक परिमंडल है, जिसमें चीन, जापान एवं कोरिया सम्मिलित हैं। चीन एवं उत्तरी कोरिया में साम्यवादी व्यवस्था पाई जाती है। उच्च औद्योगिक एवं नगरीकरण तथा विकसित अर्थव्यवस्था जापान की विशेषता है।
5. लघु सांस्कृतिक प्रदेशः इसके अंतर्गत निम्नलिखित को रखा जाता हैः
दक्षिणी-पूर्वी एशिया सांस्कृतिक विविधता का प्रदेश है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था निम्न नगरीकरण इसकी विशेषता है। मध्य अफ्रीका एवं दक्षिणी प्रशांत का संबंध जनजातियों से है।
विभिन्न सांस्कृतिक प्रदेशों में सूक्ष्म स्तर पर कई आंतरिक विषमताएं पाई जाती हैं, परंतु मोटे तौर पर इनमें समरूपता एवं एकता पाई जाती है।
Question : क्षेत्रीय विभिन्नता
(2005)
Answer : क्षेत्रीय विभिन्नता (Areal differentiation) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कार्ल सावर द्वारा 1925 ई. में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Geography and its Relation to other Science में किया गया है, लेकिन लगभग इसी प्रकार का विचार जर्मन भूगोलवेत्ता द्वारा 19वीं शताब्दी के अंत में तथा 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में किया गया है। जर्मन भूगोलवेत्ताओं में हेटनर तथा रिचथोपेन का कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इन दोनों ने क्षेत्र विवरण विज्ञान को विकसित किया, जिसका विषय वस्तु या ‘स्थानाकृत और प्रदेश’ का अध्ययन ही क्षेत्र विवरण का आधार है।
क्षेत्रीय विभिन्नता शब्द के तार्किक रूप से पारिभाषित करने का श्रेय कार्ल सावर को ही जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि भौगोलिक तथ्यों में एकता तथा विभिन्नता के गुण पाए जाते हैं। विभिन्नता के गुण ही प्रदेश के क्षेत्रीय पहचान को स्थापित करता है और उसका विश्लेषण भूगोल को गत्यात्मक और प्रगतिशील बनाता है। इस दिशा में कई अन्य भूगोलवेत्ताओं ने भी कार्य किया है। इनमें शार्ली प्रिस्टेन जेम्स, जीन्स तथा हर्टसोन का कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
क्षेत्रीय विभिन्नता की तीन प्रमुख मान्यताएं हैं-
(i) विविधताएं एवं विभिन्नताएं क्षेत्र विवरण के आनिवार्य अंग हैं। विविधताएं आंतरिक गुण हैं, जबकि विभिन्नता आंतरिक विविधता के सामूहिक अभिव्यक्ति से उत्पन्न स्वरूप की अलग पहचान (आस-पास के क्षेत्रों से) कराती है।
(ii) विभिन्नताओं के मध्य आंतरिक समरूपता क्षेत्रीय विभिन्नता के अध्ययन का दूसरा महत्वपूर्ण आधार है। इसी आधार पर कोपेन एवं थार्न्थवेट ने जलवायु वर्गीकरण तथा स्पेट एवं आर-एल- सिंह ने भौगोलिक प्रादेशीकरण का कार्य किया है।
(iii) प्रत्येक क्षेत्र की अंतः क्रियाएं होती हैं लेकिन जब विभिन्नता की पहचान होती है तो विविधता के गुण स्वतः स्पष्ट होने लगते हैं।
उपरोक्त मान्यताओं के आधार पर क्षेत्रीय विभिन्नता की संकल्पना को व्यापक मान्यता मिली है।
इस संकल्पना के दो प्रमुख आलोचक हैं- उलमैन तथा वुलरिज के अनुसार इस संकल्पनात्मक भूगोल का केन्द्रीय वस्तु क्षेत्रीय विभिन्नता है, जबकि भूगोल के आधारभूत विषय-वस्तु उलमैन मानव-वातावरण के अंतर आकर्षण और उससे उत्पन्न भूदृश्य हैं। बुलरिज ने मुख्यतः हैटनर की आलोचना की। हैटनर ने जर्मन शब्द Versechieder का प्रयोग क्षेत्रीय विभिन्नता के लिये किया है। वुलरिज के अनुसार जर्मन शब्दकोष में इसका अर्थ क्षेत्रीय विभिन्नता न होकर क्षेत्रीय विविधता बताया गया है। हर्टसोन ने बुलरिज की आलोचना करते हुए कहा है कि शाब्दिक अर्थ नहीं आर्थिक अर्थ महत्वपूर्ण है। शाब्दिक अर्थ अलग होने के बावजूद हैटनर का कार्य क्षेत्रीय विभिन्नता से ही संबंधित या। उलमैन की आलोचना करते हुए हर्टसोन ने स्पष्ट किया कि भूगोल क्षेत्रीय विभिन्नता का ही विषय है। यह विशिष्टता भूगोल की अलग पहचान कायम रखता है। उन्होंने भूगोल की परिभाषा देते हुए बताया कि पृथ्वी की सतह के चरित्रें की क्षेत्रीय विभिन्नता का सही क्रमबद्ध और विवेकपूर्ण वर्णन और विश्लेषण ही भूगोल का कार्य है।
Question : हृदय स्थल सिद्धांत का परीक्षण कीजिए तथा इसके गुण-दोषो का आकलन कीजिए।
(2005)
Answer : 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में मेकिन्डर ने अनुभव किया कि सामुद्रिक शक्ति पर आधारित भू-सामरिक प्रभाव के युग का अंत हो चुका है। बदलती हुई तकनीकी एवं अंतमहाद्वीपीय रेलमार्गों के विकास के साथ स्थलीय सामरिक प्रभाव में वृद्धि की संभावना है। अतः 20वीं शताब्दी में भू-सामरिक दृष्टि से वह देश अधिक महत्वपूर्ण होगा, जो स्थलीय सैन्य शक्ति और रेलमार्गों का विकास कर महत्वपूर्ण स्थलखंडों पर अपना प्रभाव स्थापित करेगा। मेकिन्डर ने अपना ये विचार 1904 ई. में ‘रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी ऑफ लंदन’ के सामने प्रस्तुत किया। इस सोसाइटी के प्रांगण में उन्होंने एक अनुसंधान प्रपत्र प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘इतिहास की भौगोलिक धूरी'। इस व्याख्यान के अनुसार उन्होंने आर्कटिक प्रवाह प्रदेश को शक्ति का प्राकृतिक आधार अर्थात सामरिक धूरी का क्षेत्र बताया। इस सिद्धांत में भू-सांमरिक दृष्टि से विश्व के देशों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया हैµ
(i) सामरिक धूरी का क्षेत्रः इसके अंतर्गत यूरेशिया के आर्कटिक बेसिन क्षेत्र को रखा गया है।
(ii) आंतरिक अर्द्धचन्द्राकार क्षेत्रः यह यूरेशिया का वह क्षेत्र है जो सामरिक धूरी क्षेत्र को अर्द्धचन्द्रकार रूप से घेरे हुए है। इसके अंतर्गत यूरोप तथा अफ्रीका के भू-मध्यसागरीय तटवर्ती क्षेत्र को रखा गया है।
(iii) बाह्य अर्द्धचन्द्राकार क्षेत्रः इसके अंतर्गत उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के तटवर्ती क्षेत्र न्यूजीलैंड तथा प्रशांत महासागर के मध्यवर्ती एवं दक्षिणी द्वीप।
मैकेण्डर द्वारा वर्णित आधार क्षेत्र
मेकिन्डर के अनुसार भू-सामरिक दृष्टि से सामरिक धूरी क्षेत्र सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र है। इसके उत्तर में लगभग सालों भर हिमाच्छादन है। दक्षिण में पर्वत पठार तथा जटिल स्थलाकृतिक दशाएं हैं। पूर्व में महासागर अलास्का तथा कनाडा के वीरान बर्फीले क्षेत्र हैं। यह एक मात्र पश्चिम की तरफ खुला हुआ है जो इसे भूसामरिक किले का रूप देता है। पश्चिम मार्ग से रूसी साम्राज्य के संभावित फैलाव को ध्यान में रखते हुए मेकिन्डर ने स्पष्ट किया कि आंतरिक अर्द्धचन्द्राकार क्षेत्र और मुख्यतः पूर्वी यूरोप भू-सामरिक दृष्टि से विश्व का सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणामों से मेकिन्डर की अभूतपूर्व भू-सामरिक दूरदर्शिता सामने आई। इस युद्ध के परिणामों को आधार बनाकर मेकिन्डर ने उत्साहित होकर अपने भू-सामरिक धूरी सिद्धांत को एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था Democratic idles and reality। इस पुस्तक में उन्होंने भू-सामरिक धूरी के बदले भू-सामरिक हृदय स्थल शब्द का प्रयोग किया।
मेकिन्डर ने अपनी पुस्तक के माध्यम से एक भू-सामरिक सूत्र का प्रतिपादन किया जो इस प्रकार है-
जो पूर्वी यूरोप पर शासन करता है, वह हृदय स्थल पर नियंत्रण रखता है। जो हृदय स्थल पर शासन करता है, वह विश्व द्वीप पर नियंत्रण रखता है, जो विश्व द्वीप पर शासन करता है, वह विश्व पर नियंत्रण रखता है। इस भू-सामरिक सूत्र के अनुसार पूर्वी यूरोप सर्वाधिक संवेदनशील भू-सामरिक क्षेत्र है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो देश पूर्वी यूरोप पर शासन करेगा वह विश्व पर नियंत्रण रख सकता है। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध की रूपरेखा मेकिन्डर के अनुरूप नहीं थी। मेकिन्डर ने अमेरिका को भू-सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं माना था, लेकिन जब संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध में सम्मिलित हो गया तो युद्ध का प्रभाव हवाई द्वीप तक पहुंच गया। इसी प्रकार मेकिन्डर की अवधारणा के विपरीत निर्णायक युद्ध पूर्वी यूरोप के बजाय जापान के महानगरों में आण्विक बम विस्फोट के साथ समाप्त हुई। इस युद्ध ने मेकिन्डर के सिद्धांतों की कमियां उजागर कर दीं। मेकिन्डर ने भी अनुभव किया कि युद्ध तकनीकी में बदलाव के कारण भू-सामरिक क्षेत्रों में परिवर्तन हुआ है। अतः उन्होंने 1943 ई. में संशोधित भू-सामरिक नीति प्रस्तुत की। इस संशोधित हृदय स्थल सिद्धांत के अनुसार वर्तमान विश्व में दो भू-सामरिक हृदय स्थल हैं। प्रथम का नाम उन्होंने मिडलैंड बेसिन तथा दूसरे का नाम यूरेशियाई हृदय स्थल रखा। मिडलैंड बेसिन हृदय स्थल के अंतर्गत उत्तरी अटलांटिक के तटवर्ती देशों को रखा गया। उन्होंने स्पष्ट किया कि पश्चिमी यूरोप और आंग्ल अमेरिका राजनैतिक प्रशासनिक आर्थिक और भू-सामरिक दृष्टि से एक प्रकार की नीति रखते हैं। इसलिए भौगोलिक दूरी के बावजूद वे एक भू-सामरिक समूह के रूप में कार्य करते हैं।
यूरेशियाई हृदय स्थल के अंतर्गत आर्कटिक बेसिन का संशोधित रूप रखा गया। इस बार हृदय स्थल की पूर्वी सीमा येनेशी नदी को माना गया। अतः यूरेशियाई हृदय स्थल का भौगोलिक प्रभाव येनेशी नदी से लेकर वाल्टिक सागर तक तथा उत्तर में आर्कटिक तट से लेकर दक्षिण में काला सागर तथा कैस्पियन सागर तक माना गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में नवीन भू-सामरिक परिस्थितियों का उदय हुआ। अमेरिका तथा तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा अलग-अलग भू-सामरिक गुटों का निर्माण किया गया।
इसी के साथ महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध प्रारंभ हो गए तथा इसकी रूप रेखा मेकिन्डर के संशोधित हृदय स्थल सिद्धांत के अनुरूप थी। यूरेशियाई हृदय स्थल का नेतृत्व सोवियत संघ तथा मिडलैंड बेसिन का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था। शीतयुद्ध का तनाव तब तक कायम रहा जब तक कि सोवियत संघ का विघटन नहीं हो गया। सोवियत संघ के विखंडित होते ही यूरेशियाई हृदय स्थल का भू-सामरिक महत्व समाप्त हो गया और वर्तमान समय में मेकिन्डर का हृदय स्थल सिद्धांत अपनी उपयोगिता लगभग समाप्त कर चुका है।
यद्यपि वर्तमान में मेकिन्डर का सिद्धांत बहुत उपयोगी नहीं माना जा रहा है, लेकिन यह कहना कि मेकिन्डर पूर्णतः अव्यवहारिक हो चुका है, गलत होगा। आज भी रूस विश्व का सबसे बड़ा देश है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इसे भू-सामरिक शक्ति की मान्यता है। अपने आंतरिक समस्याओं के कारण वह अपनी निर्णायक भूमिका निभाने में असमर्थ है, लेकिन ज्योंही अपनी समस्याओं का समाधान वह करता है, वह पुनः हृदय स्थल के रूप में कार्य करने लगेगा।
संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अमेरिका द्वारा रूस की नाटो संगठन को भंग नहीं किया गया है। वस्तुतः अमेरिका इसका फैलाव पूर्वी यूरोप तक चाहता है तथा इस दिशा में प्रयास भी प्रारंभ हो चुका है।
इस सिद्धांत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसने तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक सटीक भू-सामरिक नीति को प्रवर्तित किया। कई देशों ने इसी सिद्धांत के आधार पर अपनी-अपनी भू-सामरिक नीतियों को निर्धारित किया इस सिद्धांत ने पूर्वी यूरोप को वाटरशेड जोन के रूप में चिह्न कर दोनों महत्वपूर्ण शक्ति समूहों (मिडलैंड बेसिन तथा यूरेशियाई बेसिन) के बीच एक स्पष्ट सीमा रेखा निर्धारित कर दी।
इस सिद्धांत की कई खामियां भी हैं। इसी सिद्धांत को आधार मानकर जर्मनी जो पूर्वी यूरोप के अंतर्गत रखा गया था, ने विस्तारवादी नीति का अवलम्बन किया, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया। इसके पहले रूस ने पश्चिमी दिशा से अपनी विस्तारवादी नीति को अंजाम दिया था। अतः इस सिद्धांत ने कई देशों को आक्रामक विदेश नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया। मेकिन्डर ने आंतरिक अर्द्धचन्द्राकार क्षेत्र को भू-सामरिक दृष्टि से उतना महत्वपूर्ण नहीं माना था लेकिन इसी क्षेत्र में विश्व की अधिकतर जनसंख्या एवं संसाधन हैं। अतः इसे भू-सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण न मानना मेकिन्डर के सिद्धांत की महत्वपूर्ण खामी है। पुनः मेकिन्डर का हृदय स्थल वीरान और विपदाओं का क्षेत्र है। वह कभी भी कार्यिक हृदय स्थल नहीं हो सकता। अतः ऐसे क्षेत्र को भू-सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानना इस सिद्धांत की एक खामी ही कही जायेगी। हृदय स्थल सिद्धांत के संबंध में यह बताया गया था कि यह तीन दिशाओं से अभेद्य है तथा इसमें सिर्फ पश्चिमी दिशा से (पूर्वी यूरोप होकर ही) प्रवेश किया जा सकता है, लेकिन 1904 ई. में जापान ने साइबेरिया के मार्ग से रूसी साम्राज्य में प्रवेश कर इस सिद्धांत की एक और स्वामी को उजागर किया।
मैकिन्डर के सिद्धांत की उपर्युक्त उपयोगिता एवं खामियों को देखने से यह प्रतीत होता है कि हृदय स्थल सिद्धान्त तत्कालीन परिस्थितियों की भू-सामरिक स्थिति को बहुत अच्छे तरीके से स्पष्ट करता था। लेकिन बदली हुई युद्ध की परिस्थितियों एवं तकनीकी विकास ने इस सिद्धान्त की कमियों को भी उजागर किया, जिसके चलते आज इस सिद्धान्त की उपयोगिता काफी कम हो गई है।
Question : औद्योगिक स्थानीयकरण के वेबर के सिद्धांत की विवेचना कीजिए तथा वर्तमान के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता का आकलन कीजिए।
(2005)
Answer : उद्योगों के स्थानीयकरण पर कई कारकों का प्रभाव पड़ता है। इसमें कच्चा माल, बाजार परिवहन, श्रमिक तकनीकी उपलब्धता ऊर्जा और अन्य संरचनात्मक सुविधाएं प्रमुख हैं। सभी उद्योगों पर सभी कारकों का समान प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः कारकों के प्रभाव की विविधता को ध्यान में रखकर अनेक अर्थशास्त्रियों और भूगोलवेत्ताओं ने उद्योगों के स्थानीयकरण की प्रवृत्तियों के सामान्यीकरण का प्रयास किया है। इन सबों में अल्फ्रेड वेबर का कार्य सबसे पुराना (1907) है। यह अधिकतर उद्योगों के स्थानीयकरण के संबंध में व्यापक मान्यता रखता है।
वेबर का औद्योगिक स्थानीयकरण सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित हैं
यह सिद्धांत इस परिकल्पना पर आधारित है कि न्यूनतम परिवहन लागत का स्थान ही न्यूनतम उत्पादन लागत की जगह होता है। दूसरी महत्वपूर्ण परिकल्पना यह है कि सस्ते श्रम और संरचनात्मक सुविधाओं का केन्द्रीयकरण उद्योगों के स्थानीयकरण को न्यूनतम परिवहन लागत केंद्र से विचलित कर न्यूनतम श्रम लागत अथवा संरचनात्मक सुविधाओं के केन्द्रीयकरण के केंद्र पर ले जाता है।
ऊपर वर्णित मान्यताओं और परिकल्पनाओं के संदर्भ में वेबर ने उद्योगों के स्थायीकरण की दो परिस्थितियां बताई हैं।
प्रथम परिस्थिति वह है जिसमें एक ही कच्चे माल पर उद्योग आधारित होता है। दूसरी परिस्थिति वह है, जिसमें एक से अधिक कच्चे माल पर उद्योग आधारित होता है।
एक कच्चे माल पर आधारित उद्योगों के स्थानीयकरण की तीन परिस्थितयां हैंः
प्रथमतः कच्चा माल सर्वत्र उपलब्ध है। ऐसी स्थिति में उद्योगों की स्थापना बाजार केंद्र के निकट होगी जैसे मिट्टी के बर्तन का उद्योग।
दूसरी परिस्थिति में कच्चा माल अशुद्ध है तथा स्थानीय है। ऐसी स्थिति में उद्योगों की स्थापना कच्चे माल केंद्र में होगी, क्योंकि परिष्कृत सामान की ढुलाई लागत कच्चे माल की तुलना में कम होगी, जैसे-चीनी उद्योग।
तीसरी परिस्थिति के अंतर्गत वे उद्योग आते हैं, जहां कच्चे माल शुद्ध हैं और स्थानीय हैं। ऐसी परिस्थिति में उद्योग की स्थापना बाजार अथवा कच्चे माल के क्षेत्र में कहीं भी हो सकती है।
एक से अधिक कच्चे माल पर आधारित उद्योगों में मात्र दो कच्चे माल ही आधारभूत कच्चे माल होते हैं, जैसे लोहा-इस्पात उद्योग में लौह-अयस्क तथा कोयला अल्युमिनियम उद्योग में बॉक्साइट तथा विद्युत आदि। एक से अधिक कच्चे माल पर आधारित स्थानीयकरण की अभिव्यक्ति त्रिभुजाकार सिद्धांत के द्वारा की गई है। इस प्रकार के उद्योगों के स्थानीयकरण को दो वर्गों में बांटा जा सकता है
(i) वजन ह्रास उद्योग - सीमेंट, लोहा इस्पात, आदि
(ii) वजन वृद्धि उद्योग - बिस्कुट, आइसक्रीम आदि।
दोनों उद्योगों के लिए निम्नलिखित त्रिभुजाकार मॉडल दिए गए हैं-
वजन ह्रास उद्योग के अंतर्गत सर्वाधिक अनुकूल जगह दो कच्चे माल के बीच त्रिभुज के अंतर्गत होती है। दूसरे शब्दों में, अधिकतम दूरी तक तैयार माल ढ़ोया जाता है, क्योंकि उसका वजन कम हो जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व अधिकतर लोहा-इस्पात उद्योग का विकास इसी अवधारणा पर आधारित था। भारत में जमशेदपुर का लोहा-इस्पात उद्योग इसका बहुत ही सुन्दर उदाहरण है।
ऊपर के प्रमाणों से स्पष्ट है कि बेवर का त्रिभुजाकार स्थानीयकरण सिद्धान्त वजन ह्रास भारी उद्योगों के स्थानीयकरण प्रवृत्तियों की विश्वसनीय व्याख्या करता है।
वजन वृद्धि त्रिभुजाकार मॉडल के अंतर्गत यह बताया गया है कि उद्योगों की स्थापना तो त्रिभुज के अंतर्गत होती है, किंतु यह नगर के ज्यादा करीब होता है। इसके अंतर्गत मुख्यतः खाद्य पदार्थ के उद्योग आते हैं। यदि किसी स्थान पर श्रमिक अत्यधिक सस्ते हैं तो वह उद्योग को न्यूनतम परिवहन लागत केंद्र से न्यूनतम श्रम लागत केन्द्र पर ले जा सकता है। ऐसे केन्द्र के निर्धारण के लिए उन्होंने आइसोडापेन रेखाओं को खींचा है। ये वे काल्पनिक रेखाएं हैं, जो उन सभी बिन्दुओं को मिलाती हैं, जहां न्यूनतम परिवहन लागत केंद्र से परिवहन लागत में समान वृद्धि होती है।
वह आइसोडापेन लाइन जिस पर न्यूनतम श्रमिक लागत अवस्थित है, वह औद्योगिकरण के स्थानीयकरण का सर्वाधिक अनुकूल है और उद्योग न्यूनतम परिवहन लागत के बदले न्यूनतम श्रमिक लागत जगह पर स्थापित होगा। न्यूनतम श्रमिक लागत के आइसोडापेन को क्रिटिकल आइसोडापेन कहा गया है।
इसका सर्वोत्तम उदाहरण है यू.एस.ए. के दक्षिणी भाग (अलाबामा राज्य) में सूती वस्त्र उद्योग का विकास। भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग, आई.टी. से संबंधित उद्योग तैयार वस्त्र से पोशाक उद्योग, चमड़ा उद्योग आदि न्यूनतम श्रमिक लागत पर आधारित हैं। संरचनात्मक सुविधाओं के केन्द्रीयकरण से भी स्थानीयकरण का विचलन होता है।
वर्तमान के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकताः वेबर के चिर-सम्मतकालीन सिद्धांत एवं इसकी मान्यताएं आज के परिप्रेक्ष्य में खरी नहीं उतरती हैं। आज परिवहन के साधन तथा अन्य तकनीकी सुविधाओं में इतनी वृद्धि हो गई है कि यह सिद्धांत अपनी उपयोगिता नहीं रखता है, लेकिन चीनी उद्योग, सूती वस्त्र उद्योग और खाद्य सामग्री के उद्योगों के स्थानीयकरण प्रवृत्ति की सर्वाधिक संतोषजनक व्याख्या इसी सिद्धांत के द्वारा होती है। अनेक विद्वानों के अनुसार वर्तमान समय में लोहा एवं इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण की तटीय प्रवृत्ति विकसित हुई है, जो इस सिद्धांत के अनुकूल नहीं है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह सिद्धांत तटीय स्थानीयकरण की संतोषजनक व्याख्या करता है। सिद्धांत की मूल अवधारणा यह है कि न्यूनतम परिवहन लागत केन्द्रों पर ही उद्योगों का विकास होता है। बंदरगाहों पर अवस्थित लोहा-इस्पात उद्योग न्यूनतम परिवहन लागत के केन्द्र हैं। यद्यपि यह बाजार के संदर्भ में त्रिभुजाकार प्रारूप नहीं बनाते हैं लेकिन अधिकतर कारखाने दो कच्चे माल के बीच अवस्थित हैं और बाजार किसी तीसरे ही केन्द्र में पाया जाता है। इसका अच्छा उदाहरण है भारत, जापान, यू-एस-ए- के तटीय प्रदेश के लोहा इस्पात उद्योग का विकास। भारत में विशाखापत्तनम, जापान में कोबे तथा यू-एस-ए- में बाल्टीमोर इसके उपयुक्त उदाहरण हैं।
भारत का विशाखापत्तनम कारखाना आंतरिक भाग से लौह अयस्क, चूना पत्थर तथा डोलोमाइट प्राप्त करता है, जबकि कोयला आयात करता है। आयातित कोयले को अगर अन्दर ले जाया जाता तो परिवहन मूल्य में भारी वृद्धि हो जाती है।
कोबे का लोहा-इस्पात उद्योग दोनों ही कच्चे माल के आयात पर आधारित है। यहां पर कोयले का आयात अलास्का से तथा लौह अयस्क आस्ट्रेलिया एवं भारत से आयात किया जाता है। दो अलग-अलग दिशाओं में अवस्थित कच्चे माल स्रोत के बीच कोबे अनुकूल केन्द्र है।
वाल्टीमोर का कारखाना आंतरीक भाग में अवस्थित कोयला (आप्लेशियन) और आयातित लौह अयस्क (ब्राजील और पश्चिम अफ्रीकी देश सियरा लियोन, मौरीयेनियां, लाइबेरिया आदि पर आधारित है। इसकी अवस्थिति भारत के विशाखापत्तनम जैसी ही है।
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि कुछ खामियों के बावूजूद वेबर का न्यूनतम परिवहन लागत सिद्धांत एक चिरसम्मतकालीन सिद्धांत है और सूती वस्त्र, चीनी उद्योग और लोहा-इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण की सर्वोत्तम व्याख्या आज भी इसी सिद्धांत से होती है।
Question : संसार को आज की राजनीतिक स्थिति को समझने में केंद्र स्थल और परिधि स्थल थियोरियां किस सीमा तक सहायक है? अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त कीजिए।
(2004)
Answer : मैकिंडर ने यूरोपीय राजनीतिक इतिहास को मूलतया स्थल और सामुद्रिक शक्तियों के बीच सतत् संघर्ष के घटनाक्रम के रूप में देखते हुए 1904 में हृदयस्थल सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत के अनुसार, महाद्वीपीय शक्ति का प्रतिनिधित्व विश्वद्वीप समूह द्वारा होता था, जो यूरेशिया और अफ्रीका के संयुक्त स्थलखंड से बना था। ये हृदयस्थल पृथ्वी पर महानतम प्राकृतिक दुर्ग माना गया, जो चारों ओर से भौगोलिक अवरोधों से घिरा था। इसके विस्तृत औद्योगिक और कृषि योग्य संसाधनों के साथ हृदयस्थल यूरोप, मध्य-पूर्व भारत और सुदूर-पूर्व को विजित कर सकता है। अन्य भूमि राशियां बाद में अनुसरित होंगी। इन भूमि राशियों के सीमांतीय अर्द्ध-चंद्र (शेष यूरोप, भारत, दक्षिण-पूर्वी एशिया और चीन), बाह्य द्वीप (जापान और इंग्लैंड), द्वितीयक हृदय-स्थल (उप-सहारा अफ्रीका) तथा द्वीपीय अर्द्धचंद्र (अमेरिका तथा आस्टेलिया) सम्म्लिति हैं।
हृदय-स्थल सागर से अगम्य हैं क्योंकि या तो नदियां आंतरिक भूमि से प्रवाहित होती हैं या बर्फीले समूह में। मैकेंडर का विचार है कि जो भी शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में पायेगा विश्वद्वीप पर शासन करेगा। उसने यूरोप को पूर्व और पश्चिम में एड्रियाटिक सागर से बाल्टिक सागर को जोड़ने वाली रेखा द्वारा विभाजित किया जो जर्मनी और रूस के बीच संघर्ष का क्षेत्र थी। उसकी संकल्पना के अनुसार जो पूर्वी यूरोप पर शासन करेगा, हृदय स्थल पर शासन करेगा, जो हृदय स्थल पर शासन करेगा, विश्व द्वीप पर शासन करेगा, जो विश्व द्वीप पर शासन करेगा, विश्व पर शासन करेगा।
परंतु इस सिद्धांत के आलोचनात्मक परीक्षण से यह विदित होता है कि तकनीकी उन्नति के लिए अनुमोदन की अयोग्यता इस सिद्धांत की सबसे बड़ी कमी है। वायुयान युग के आरंभ होने के बाद भी इसकी उपेक्षा की गयी। पुनः उपग्रह प्रक्षेपास्त्र, आण्विक तथा अंतरिक्ष तकनीक में उन्नति ने भौगोलिक कारकों के व्यूह रचना से संबंधित महत्व को छायित कर दिया।
जहां तक इस सिद्धांत की प्रासंगिकता का प्रश्न है, हम पाते हैं कि इसने पृथ्वी की सतह पर महाद्वीपों तथा महासागरों के क्षेत्रीय वितरण प्रारूप तथा यूरोपीय इतिहास के राजनीतिक घटनाक्रम में एक नये प्रकार के कार्यकारण का प्रतिपादन किया। जो दीर्घकाल तक पश्चिमी देशों के राजनीतिक चिंतन का आधार बना। पुनः प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के पराजय, उसकी पुनः औद्योगिक पुनः रचना तत्पश्चात द्वितीय विश्व युद्ध में उसका पुनः पराजित होना एवं रूस का उदय इसकी प्रासंगिकता को दर्शाता है। शीत युद्ध के समय में रूस का भय अमेरिका को हमेशा बना रहा। अमेरिका का मानना था कि रूस की भौगोलिक स्थिति हमेशा उसके लिए लाभदायक है तथा अमेरिका के लिए कठिन।
सोवियत संघ के विघटन के बाद अनेक विचारकों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के एकछत्र अंतर्राष्ट्रीय प्रमुखता पर जोर देते हुए रूसी क्षेत्र के महत्व को घटाकर प्रस्तुत किया। परंतु इससे पूर्णतया सहमत होना कठिन है। कोहेन के अनुसार यूरेशिया के विशाल महाद्वीपीय आंतरिक प्रखंड और समुद्रतटीय तटों के बीच का विभाजन पुराने विश्व के राजनीतिक इतिहास का शाश्वत सत्य है। यह विशाल महाद्वीपीय परिमंडल बाहर की दुनिया से अपेक्षाकृत सर्वथा अलग-अलग अपने आप में लीन तथा साथ ही अपने प्रतिपक्षी परिमंडल से कच्चे माल की दृष्टि से अधिक संसाधन संपन्न है। इसके निवासी अपनी मिट्टी से अपेक्षाकृत अधिक निकट से जुड़े हैं। सोवियत संघ की समाप्ति के बाद भी रूस का विशाल क्षेत्र तथा उसके मित्र देश हृदय स्थल के केंद्रीय सामरिक महत्व को निरंतरता प्रदान करते रहेंगे क्योंकि अपने आकार, अपनी महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति तथा अपनी उन्नत सामरिक और औद्योगिक शक्ति के कारण वे विश्व राजनीति को निरंतर प्रभावित करते रहेंगे। साथ ही वैचारिक और मूल्यबोध संबंधी परस्परता के कारण इस क्षेत्र का प्रभाव किसी न किसी रूप में पूर्वी यूरोप में बना रहेगा। वारसा संधि के दीर्घकालीन अस्तित्व दौर में स्थापित आवागमन, संचार और सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप दोनों क्षेत्रों में व्यावहारिक संबंध यथावत कायम रहेंगे। अतः रूस भविष्य में विश्व राजनीति की एक महत्वपूर्ण इकाई बना रहेगा।
स्पाइकमैन ने 1930 में हृदय और चारों ओर के परिवृत के सापेक्षिक महत्व की बहुत भिन्न व्याख्या दी। आंतरिक या सीमांत अर्द्धचंद्र-अंशतः महाद्वीपीय और अंशतः महासागरीय जिसे उसने रिमलैंड का नाम दिया। इस अवधारणा के अनुसार राष्ट्रीय शक्ति राज्य की सुरक्षा की अंतिम निर्धारक है जबकि स्थायी शक्ति केवल एक सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के द्वारा या राष्ट्रों की सैनिक लीग या शक्ति व्यवस्था के एक अंतर्राष्ट्रीय संतुलन से संभव है। यह अवधारणा समस्या को संयुक्त राज्य अमेरिका के दृष्टिकोण से देखती है।
स्पाइकमैन ने जोर दिया कि वास्तविक संभाव्यता रिमलैंड में है जिसमें अधिकांश यूरोप, कुछ एशिया, अरब, इराक, पर्शिया, अफगानिस्तान, भारतीय उपमहाद्वीप, सुदूर-पूर्व, अधिकांश चीन और साइबेरिया सम्मिलित है। उसने अनुमान किया कि जो रिमलैंड पर शासन करेगा, यूरेशिया पर शासन करेगा। जो यूरेशिया पर शासन करेगा विश्व के भाग्य पर उसका नियंत्रण होगा।
वस्तुतः स्पाइकमैन का उद्देश्य एक शांतिपूर्व विश्व, जो यूरेशिया में शक्ति के संतुलन और ग्रेट-ब्रिटेन, अमेरिका तथा सोवियत संघ की सहकारिता में एक प्रभावपूर्ण सुरक्षातंत्र पर आधारित हो, की स्थापना था।
इस सिद्धांत की प्रासंगिकता के संबंध में हम पाते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात विश्व राजनीति के सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में दो परस्पर प्रतिद्वंद्वी महाशक्तियों में गोलबंद हो जाने के बाद ट्रमेन के नेतृत्व में अमेेरिका की विदेश नीति स्पाइकेमैन की सामरिक संकल्पना के अनुरूप हो गयी थी। परंतु यह कहना कठिन है कि जार्ज केनान द्वारा प्रस्तावित सोवियत संघ की घेराबंदी की नीति वास्तव में स्पाइकमैन के विचारों से प्रेरित थी। इस विदेश नीति के क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप अमेरिका ने रिमलैंड क्षेत्र में अनेक द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय सुरक्षा संधियों के माध्यम से रूस विरोधी एक सशक्त खेमे का निर्माण किया। इस सुरक्षा व्यवस्था में नाटो, सीटो, मोटो तथा एजंस प्रमुख थे। बाद में सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य के बीच सोहाद्रपूर्ण संबंध बढ़ने के बाद नाटो के अतिरिक्त शेष सभी सैन्य समझौते धीरे-धीरे ठंडे पड़ गये और 1990 के बाद वे अनावश्यक हो गये।
Question : भौगोलिक अध्ययनों में आमूल परिवर्तनवादी और कल्याणवादी उपागमों के बीच विभेदन कीजिए।
(2004)
Answer : किसी भी समय में भौगोलिक विचार, प्रचलित दार्शनिक विचार बिदुंओं और प्रमुख क्रिया-पद्धतियों, प्रवधियों के बीच अन्योन्यक्रिया का परिणाम होता है। विचार बिंदुओं की विस्तृत भिन्नताओं के कारण दोनों ही दर्शन और क्रिया-पद्धति के कारण इसमें निरंतर बदलाव आया है। 1970 का दशक आधुनिक भूगोल के लेखन में संक्रांति काल कहा जाता है। इस काल में ही पहले से चल रहे परिमाणात्मक उपागम के खिलाफ दो भिन्न-भिन्न पर महत्वपूर्ण दार्शनिक विचारधारा सामने आये जो कल्याणवादी तथा परिवर्तनवादी उपागम के नाम से जाने जाते हैं।
हाल के पिछले कुछ वर्षों में भूगोलवेत्ता सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में अपना योगदान दे रहे हैं। वे अब अपने आपको समाज की समस्याओं मानव जाति की अवस्थाओं आर्थिक असमानताओं और सामाजिक अन्याय से उत्तरोत्तर जोड़ रहे हैं।
इसी निश्चय के साथ डेविड एम स्मिथ जैसे विद्वानों ने मानव भूगोल की समस्याएं एवं संभावनाओं की व्याख्या करते हुए कल्याणकारी पद्धति को अपनाया। भूगोल के भिन्न-भिन्न विद्वानों ने कल्याणकारी भूगोल (Welfare Geography) की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं। नाथ के अनुसार कल्याणकारी भूगोल, भूगोल का वह भाग है जिसमें हम विभिन्न भौगोलिक नीतियों का समाज के कल्याण पर संभावित प्रभाव का अध्ययन करते हैं। स्थानिक संदर्भ में स्मिथ ने कल्याणकारी भूगोल की परिभाषा दी है- कौन क्या प्राप्त करता है, कहां और कैसे?
कल्याणकारी उपागम का उद्भव व विकास 60 के दशक में परिमाणात्मक एवं मॉडल विधियों पर जोर देने से उत्पन्न प्रतिक्रियास्वरूप हुआ है। स्मिथ एवं नॉक्स द्वारा भूगोल में कल्याणवादी उपागम की शुरुआत की गयी।
भूगोलवेत्ता जो मुख्यतः समाज की समस्याओं से संबंधित हैं, तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर वे अपनी योजनाओं का मूल्यांकन करते हैं और संतुलित विकास के लिए उपयुक्त योजना प्रस्तुत करते हैं। इसमें समाज में आरंभ किये गये विविध क्रिया-कलापों के कारण और परिणाम की कड़ी पहचान का समावेश होता है क्योंकि वे कौन, क्या और कहां पाता है - इसका निर्धारण करने में योगदान देते हैं तथा उस जगह पर आर्थिक, जनसांख्यिकीय तथा सामाजिक ढांचे का तार्किक विश्लेषण किस प्रकार कल्याणकारी संरचना के अनुकूल है। इसको जानने में मदद करते हैं। सभी प्रकार के भौगोलिक प्रतिमानों का उनके अधिकतम लाभ और न्यूनतम मूल्य के मापदंड के संदर्भ में मूल्यांकन किया जा सकता है।
समकालीन विश्व में भूगोलवेत्ताओं की जागृति में वृद्धि हो रही है। किसी भी स्थान और समय में प्रस्तावित किये गये विकास की कुछ लोगों के कुछ स्थानों पर दूसरों से अधिक लाभ पहुंचाने की क्षमता होती है। भौगोलिक दूरी और अभिगम्यता का अर्थ होगा कि कुछ लोग उसके लाभ में होते हैं और कुछ हानि में रहते हैं। इसीलिए संसाधनों के स्थानिक अवस्थिति निर्णय और योजना पूरी सावधानी से बनायी जानी चाहिये। इस प्रकार के नीतिगत निर्णय में भूगोलवेत्ताओं की भूमिका अत्यावश्यक होगी क्योंकि उन्हें तथ्यों के स्थानिक और कालिक विश्लेषण में आधारभूत प्रशिक्षण होता है।
कल्याणकारी भूगोल भौगोलिक स्थान के वितरण एवं असमानता जैसे मूलभूत प्रश्न पर ध्यान देता है। जनता के कल्याण के दृष्टिकोण से स्थानिक विभिन्नताओं तथा स्थानिक संरचना में मानव क्रियाकलापों का अध्ययन ही कल्याणकारी उपागम का सार है।
दूसरी तरफ जहां कल्याणकारी भूगोल सिद्धांत रूप से वर्तमान आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, परिवर्तनवादी भूगोल क्रांतिकारी सिद्धांत तथा क्रांतिकारी उपायों की वकालत करता है।
भूगोल में परिवर्तनवादी उपागम प्रत्यक्षवाद एवं परिमाणात्मक भूगोल की प्रमुख आलोचना के रूप में उभरा। इस उपागम की उत्पति को अमेरिका में 60 के दशक में आरंभ हुए परिवर्तनवादी आंदोलन से जोड़ कर देखा जाता है। इस आंदोलन के तीन मुद्दे थेः
(i) वियतनाम युद्ध में अमेरिका को लगा झटका
(ii) अश्वेतों का नागरिक अधिकार हेतु संघर्ष
(iii) शहरी क्षेत्रों में असमानता के कारण सामाजिक तनाव
परिवर्तनवादी उपागम ने भूगोल के सिद्धांत एवं व्यवहार दोनों में एक क्रांति की आवश्यकता पर जोर दिया। इस प्रकार परिवर्तनवादी उपागम मुख्यतः मूल्य आधारित है (विशेषकर श्रम मूल्य)।
जहां कल्याणकारी भूगोल किसी मत या सिद्धांत से प्रभावित नहीं था, परिवर्तनवादी भूगोल के आधार में मार्क्सवाद का प्रभाव था। परिवर्तनवादी मानते हैं कि उत्पादन पद्धतियों में बदलाव के कारण मानव पर्यावरण संबंधों में भी बदलाव आ जाता है।
कल्याणवादी उपागम की विधि (Method) मुख्य रूप से वर्णनात्मक है जबकि परिवर्तनवादियों की विधि ऐतिहासिक भौतिकवाद है जो संपन्न एवं वंचित वर्गों के संघर्ष में विश्वास रखते हैं। परिवर्तनवादी उपागम अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं राजव्यवस्था के समग्र दृष्टिकोण को अपनाता है।
Question : वृद्धि की सीमाएं।
(2004)
Answer : वृद्धि की सीमा मॉडल का प्रतिपादन क्लब ऑफ रोम द्वारा 1972 ई. में प्रस्तुत किया गया था। इस मॉडल का आधार 1900-1970 के बीच के पांच प्रमुख वृद्धि चरों की समीक्षा है। इस मॉडल का लक्ष्य वर्ष 2100 रखा गया है। दूसरे शब्दों में पिछले 70 वर्षों की प्रवृत्ति को आधार मानकर अगले 130 वर्षों की विकास प्रवृत्ति को इस सिमुलेशन मॉडल के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इसमें निम्नलिखित पांच विकास चरों की समीक्षा की गयी हैः
(i) संसाधन वृद्धि, (ii) औद्योगिक वृद्धि, (iii) खाद्यान्न वृद्धि, (iv) प्रदूषण वृद्धि
समीक्षा के पूर्व मॉडल की निम्नलिखित प्रमुख अवधारणाएं हैंः
(i) पुनः उपयोग न होने वाले संसाधनों के संचित भंडार की सीमा है जिसमें वृद्धि नहीं की जा सकती है। जैसेः
(ii) जनसंख्या उद्योग एवं प्रदूषण ऐसे चर हैं जिसके वृद्धि की सीमा नहीं है व गति भी तीव्र है।
(iii) तकनीक परिवर्तनशील है। अगर पर्याप्त पूंजी लगायी जाय तो तकनीक अनंत है।
ऊपर वर्णित आवधारणाओं के आधार पर पांच चरों का विश्लेषण किया गया है। आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर दो प्रकार के मॉडल विकसित किये गये जिनमें से एक था flow chart model तथा दूसरा था Line graph model दिये गये Flow chart model के अनुसार विश्व की समस्या का मूल कारण जनसंख्या दबाव है। संसाधन व तकनीकों के विकास का मूल कारण भी जनसंख्या दबाव ही है। लेकिन यदि जन एवं संसाधन का लगातार विकास होता रहा तो उसकी अंतिम परिणति प्रदूषण एवं पर्यावरणीय निम्नीकरण के रूप में होगी। यह समाज को विकास से विनाश की ओर ले जायेगा।
वुद्धि की सीमा मॉडल को Line graph Model की सहायता से भी प्रस्तुत किया गया है, जो इस प्रकार हैः
R- संसाधन विकास P- जनसंख्या वृद्धि
F- खाद्यान्न वृद्धि I- औद्योगिक विकास
Poll- प्रदूषण वृद्धि
इस मॉडल के अनुसार संसाधन जनसंख्या की भौगोलिक उपलब्धता में अनंत ह्रास की प्रवृत्ति हो गयी है। लेकिन प्रदूषण एक ऐसा चर है, जिसमें अप्रत्याशित वृद्धि होगी व विविध चरों के विकास पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया तो प्रदूषण का प्रभाव अनंत हो सकता है।
ऊपर वर्णित दो मॉडल की मदद से मानव समुदाय व विकसित देशों को यह चेतावनी दी गयी है कि अगर उन्होंने वृद्धि की सीमा निर्धारित नहीं की तो वह विनाश को आमंत्रित करेगा। वस्तुतः ‘क्लब ऑफ रोम’ द्वारा उन्हीं विचारों को आगे बढ़ाया गया है जिसे ग्रिफिथ टेलर ने नव नियतिवाद कहा है। इसके अतर्गत रुको या जाओ नियतिवाद इसी तथ्य की ओर इंगित करता है कि विकास कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उसके प्रतिकूल प्रभाव की समीक्षा आवश्यक है।
Question : मानव भूगोल में मानवीय तथा कल्याणपरक उपागमों का समालोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए।
(2003)
Answer : भूगोल में आलोचनात्मक क्रांति के अंतर्गत जिन नये उपागमों और विषय-वस्तु का विकास हुआ है उसमें मानववादी भूगोल एक है।
इस भूगोल के विकास का श्रेय TUAN महोदय (1976 में) को जाता है। उन्होंने ‘ह्यूमेनिस्टिक ज्योग्रॉफ्री’ नामक पुस्तक के माध्यम से इसे मानव भूगोल का नवीन विषय-वस्तु बनाया। मानववादी उपागम भूगोल को व्यावहारिक एवं कल्याणकारी भूगोल के रूप में स्थापित करता है। टूआन के चिंतन पर फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता विडाल डीला ब्लोरा के कार्यों का प्रभाव था। ब्लाश की पुस्तक ‘ला ज्योग्रॉफिक ह्यूमन’ में भूगोल के उद्देश्यों में से एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानववादी दृष्टिकोण था। लेकिन ब्लाश के संभववादी विचार को अधिक मान्यता मिलने के कारण यह विषय-वस्तु गौण हो गयी है। टूआन ने अनुभव किया कि मानव भूगोल वर्णननात्मक है। यह तथ्यों की व्याख्या मानववादी दृष्टिकोण से नहीं करता है। इसलिए एक नवीन उपागम की जरूरत है।
मानववादी उपागम के अंतर्गत मानव भूगोल में रखा गया है। और जीवन की घटनाओं का विश्लेषण मनुष्य की जागरूकता, उसके दूत के रूप में कार्य करने की क्षमता, मानवीय चेतना, मनुष्य के रचनात्मक कार्य के परिप्रेक्ष्य में करने पर जोर दिया गया है। वस्तुतः प्रारंभ में इस प्रकार का अध्ययन आचारपरक भूगोल के एक अंग के रूप में उभरा था। कर्क और बोल्डिंग महोदय ने भी इस प्रकार के अध्ययन की आवश्यकता बतायी थी। लेकिन इसे एक नवीन उपागम विषय-वस्तु देने का कार्य टुआन महोदय ने किया है।
मानववादी भूगोल की मौलिक विषय-वस्तु तुआन के अनुसार इस प्रकार हैः
मानववादी भूगोल के आधारभूत विषय-वस्तु में राज्य क्षेत्र तथा धर्म को सम्मिलित कर टुआन ने यह बताने का प्रयास किया है कि आधुनिक मानव की घटनाओं पर जिन कारकों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है, उनमें से राज्य के कार्य तथा धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। राज्य से नागरिकता की पहचान होती है और नागरिकता दूसरे राज्यों के भीड़-भाड़ के मध्य भी निजी और वैयक्तिक पहचान कराती है।
मानववादी भूगोल के अध्ययन हेतु दो अन्य उपागम भी विकसित किये गये हैंः
(i) आदर्शवादी उपागम तथा (ii) हरम्यूनेटिक उपागम।
आदर्शवादी उपागम का विकास लियोनॉर्ड गुल्के (1981) ने किया, जबकि हरम्यूनेस्टिक उपागम का विकास जर्मन भूगोलवेत्ताओं ने किया।
गुल्के के अनुसार मनुष्य के जीवन की घटनाओं के विश्लेषण के लिए उनका अनुभव आवश्यक है। यह समुदाय, समाज, और राज्य पर भी लागू होता है। मनुष्य के अनुभव के कई स्रोत हो सकते हैं। लेकिन गुल्के के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों का स्रोत सर्वाधिक अनुकूल और आदर्श है। अतः गुल्के के उपागम को ऐतिहासकि उपागम भी कहा गया है।
जर्मन भूगोलवेत्ताओं द्वारा विकसित हरम्यूनेस्टिक उपागम के अनुसार जीवन के प्रत्येक घटनाओं का कारण होता है। उस कारणों की व्याख्या तथा स्पष्टीकरण आवश्यक है। व्याख्या और स्पष्टीकरण को प्रस्तुत करने के क्रम में मनुष्य, समूह, समुदाय, राज्य के मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति होती है।
मानववादी भूगोल का अंतिम उद्देश्य मनुष्य की घटनाओं अनुभवों और आचरण के आधार पर उसके विकास और कल्याण की योजनाओं को आर्थिक स्वरूप देना है। क्रांतिकारी भूगोल के समान इस नवीन उपागम को भी अमेरिकी भूगोल में व्यापक मान्यता मिली है। लेकिन इसके अधिकतर आलोचकों की अवधारणा है कि मानववादी भूगोल के ही अंग हैं। इसमें कोई नवीनता नहीं है। लेकिन डेविड हार्वे जैसे विद्वानों ने भी इस प्रकार के अध्ययन की आनिवार्यता बतायी है।
कल्याणकारी भूगोलः भूगोल में आलोचनात्मक क्रांति के अंतर्गत जिन नवीन उपागमों एवं विषय-वस्तु का विकास हुआ, उनमें कल्याणकारी भूगोल एक है।
कल्याणकारी भूगोल की स्थापना का श्रेय स्वीडन के दंडी विश्वविद्यालय के भूगोलवेत्ता स्मिथ को है। स्मिथ ने 1971 ई. में एक पुस्तक की रचना की जिसका शीर्षक था 'An introduction to the Geogrophy social Wellbeing' इस पुस्तक में उन्होंने जीवन स्तर के सूचकों को विकसित किया और दो महत्वपूर्ण तथ्यों पर जोर दिया। प्रथमतः जीवन-स्तर क्षेत्र विशेष के वातावरण और आर्थिक-राजनीतिक निर्णयों का परिणाम है। दूसरा जीवन स्तर का सूचक सभी राज्यों या प्रदेशों में एक समान नहीं हो सकता है। स्मिथ के कार्यों के पूर्व इस प्रकार की विषय वस्तु का अध्ययन मूलतः अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जाता था। अर्थशास्त्रियों के अध्ययन में प्रादेशिक विषमता के कारकों का विश्लेषण गौण होता था। स्मिथ महोदय ने भौगोलिक कारकों के संदर्भ में जीवन-स्तर की विषमताओं को प्रस्तुत किया है।
स्मिथ के पूर्व ही भूगोल में इस तरह का कार्य Bracy द्वारा किया गया था। उन्होंने 1952 ई. में एक पुस्तक की रचना की, जिसका शीर्षक था 'Social provision in rural whilt shine' इस पुस्तक में weightage तकनीक का प्रयोग करते हुए जीवन-स्तर के चरों का गुणात्मक मूल्य निर्धारित किया गया है। इस छोटे से प्रदेश में भी उनहोंने लघु स्तर पर सामाजिक सुविधाओं के अलग-अलग प्रदेश का निर्धारण किया है। 1973 ई. में ब्रिटिश भूगोलवेत्ता S.K. Nath ने कल्याणकारी भूगोल की प्रथम व्याख्या प्रस्तुत की। उनके अनुसार कल्याणकारी भूगोल, भूगोल का वह अंग है जो समाज के कल्याण हेतु किये गये कार्यों पर विभिन्न भौगोलिक नीतियों के संभावित प्रभाव का अध्ययन करता है। भौगोलिक नीतियों के अंतर्गत उन्होंने विकास नीतियों को भौगोलिक तथ्यों के संदर्भ में प्रस्तुत किया है।
1973 ई. में अर्थशास्त्री पेरेटो (Pereto) ने एक ग्राफिक मॉडल के द्वारा कल्याणकारी विकास के लिए विभिन्न समूहों के आय के बीच तुलनात्मक और आनुपातिक सहसंबंध पर जोर दिया। इससे आर्थिक सामाजिक विषमता में कमी की संभावना है और संपूर्ण समूह का एक साथ विकास हो सकता है। यह मॉडल इस प्रकार हैः
Pereto's optimality model
19977 ई. में स्मिथ ने स्वयं एक पुस्तक की रचना की जिसका शीर्षक थाः
'Human Geography — A welfare Approach'
इस पुस्तक में एक मॉडल प्रस्तुत किया गया है, जो कल्याणकारी भूगोल के अध्ययन का चार प्रमुख उद्देश्य बतलाता हैः
इन उद्देश्यों को उन्होंने एक मॉडल के द्वारा प्रस्तुत किया, जो इस प्रकार हैः
Xij– represents welfare (कहां हो, किसे हो, कितना हो)
वर्तमान भूगोल में स्मिथ के इस कार्य को व्यापक मान्यता मिली है। विकसित और विकासशील देश के नियोजकों ने भी स्मिथ के कार्यों का उपयोग कल्याणकारी योजनाओं के निर्धारण के क्रम में किया है। बेरी एवं हॉर्टसोन जैसे भूगोलवेत्ताओं ने भी स्मिथ के कार्यों की प्रशंसा की है।
Question : रोस्तोव द्वारा प्रतिपादित आर्थिक विकास अवस्था मॉउल का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। अपने उत्तर की पुष्टि उपयुक्त उदाहरणों से कीजिए।
(2003)
Answer : विकास की सतत वृद्धि (Groath as an on going process) के सिद्धांतों के विपरीत कई विद्वानों ने संरचनात्मक परिवर्तन को अधिक महत्वपूर्ण माना है। इन विद्वानों द्वारा प्रस्तुत सिद्धांतों को सामूहिक रूप से अवस्थापरक सिद्धांत कहा गया है। अवस्था परक सिद्धांतों में सर्वप्रमुख सिद्धांत प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार W. W. ROSTON का है। रोस्तोव के अनुसार औद्योगीकरण तथा आर्थिक विकास की कई सुस्पष्ट अवस्थाएं होती हैं। कोई भी आधुनिक देश आर्थिक विकास के मार्ग पर इन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरता है। प्रत्येक अवस्था में अर्थव्यवस्था की विशेष संरचना होती है, तकनीक का निश्चित स्तर होता है तथा साथ ही विभिन्न प्रकार की संबंद्ध समस्याएं होती हैं। विकास की इन्हीं अवस्थाओं को ध्यान में रखकर रोस्तोव महोदय ने 5 स्तरीय विकास मॉडल प्रस्तुत किये हैं, जो इस प्रकार हैंः
क्र. विकास की अवस्था | आर्थिक-सामाजिक अवस्था |
---|---|
1. प्रथम चरण |
|
2. द्वितीय चरण | तीव्र विकास के पूर्व की अवस्था |
3. तृतीय चरण | तीव्र विकास की अवस्था |
4. चतुर्थ चरण | विकास की प्रौढ़ावस्था |
5. पांचवां चरण |
|
रोस्तोव के अनुसार परंपरागत समाज अनुत्पादक व्यय की अवस्था है। अर्थात समाज अपने आय का खर्च वैसी चीजों पर करता है, जो सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि नहीं लाता है। इसका परिणाम यह होता है कि अर्थव्यवस्था का सवरूप जीवन-निर्वाह प्रकार का हो जाता है। ऐसी स्थिति में साक्षरता, नियोजन और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में सीमित खर्च होते हैं। राज्य पिछड़ेपन की स्थिति में होते हैं। राज्य अपने G.D.P. का एक तिहाई से अधिक भाग खाद्य पदार्थों पर खर्च करता है। अधिकतर उपसहारा और मध्य अफ्रीकी देश इसी वर्ग में आते हैं।
रोस्तोव के अनुसार विकास के द्वितीय चरण में राज्य के अंतर्गत एक अभिजात वर्ग का उदय होता है, जो नवोत्पदक अर्थव्यवस्था की वकालत करता है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें राज्य विकास के संदर्भ में अधिकतर खर्च परिवहन संचार और संरचनात्मक सुविधाओं पर करता है। भारत की वर्तमान प्रक्रिया को देखें तो भारत इसी चरण में है। अपने संरचनात्मक सुविधाओं के विकास के माध्यम से राज्य अंततः प्रादेशिक तथा अन्तः प्रादेशिक व्यापार में वृद्धि लाता है। लेकिन राज्य उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था न होने के कारण वे वृद्धि सामाजिक-आर्थिक विकास की दिशा में कोई विशेष योगदान नहीं दे पाते हैं। अभी भी संपूर्ण अर्थव्यवस्था में जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था ही महत्वपूर्ण होती है। ब्राजील, द- अफ्रीका मेक्सिको और चीन जैसे देश भी इसी चरण में आते हैं।
रोस्तोव के अनुसार तीसरी अवस्था में अर्थव्यवस्था का विकास खंडीय होता है। उनके अनुसार खंडीय विकास का प्रमुख कारण आर्थिक विकास के आधारभूत क्षेत्रों में विकास की प्रवृत्ति का तीव्र होना है। रोस्तोव ने प- देशों का उदाहरण देते हुए बताया कि आर्थिक विकास के तीसरे चरण में प्रथमतः वस्त्र उद्योग और पुनः रेलवे उद्योग तथा दुग्ध उद्योग का विकास होता है। ये वे क्षेत्र हैं जहां तकनीक एवं निवेश की विशेष जरूरत नहीं होती है। लेकिन इन तीन आर्थिक कारकों के विकसित होने से समाज के विकास की गति त्वरित हो जाती है। विकास का तीसरा चरण जल विभाजक अवस्था होता है। इस अवस्था की आयु सामान्यतः 20-30 वर्ष होती है। इस अवस्था का प्रमुख उदाहरण मलेशिया है।
चौथी अवस्था को प्रौढ़ावस्था कहा गया है। यह वह अवस्था है जब कोई देश अथवा समाज पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है। भूखमरी और बेराजगारी समाप्त हो जाती है। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो जाती है। इसके अंतर्गत द- एवं पूर्वी यूरोप के अधिकतर देश आते हैं। इस अवस्था के देशों की निम्नलिखित विशेषताएं होती हैंः
अंतिम अवस्था उपभोक्ता सामानों के अत्यधिक उपयोग की अवस्था है। इसी अवस्था में समाज के ऊपर तकनीकी ज्ञान का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। प्रति व्यक्ति आय अधिक होने के कारण नवीन औद्योगिक उत्पाद खरीदने की इच्छा होती है। कुल मिलाकर यह समाज के मशीनीकरण एवं वैज्ञानीकरण की अवस्था है। इस अवस्था के देशों में यू.एस.ए., कनाडा तथा प- यूरोपीय देश मुख्य रूप से आते हैं।
आलोचनात्मक स्वरूपः रोस्तोव के मॉडल को प्रारंभिक समय में व्यापक मान्यता मिली। लेकिन बाद के वर्षों में और मुख्यतः 1990 ई. के बाद यह अनुभव किया गया है कि इस मॉडल में कई खामियां हैं। यही कारण है कि जिस तेजी से यह मॉडल लोकप्रिय हुआ, उसी तेजी से उसका हृास भी हुआ।
प्रथमतः अरब देशों में यह मॉडल लागू नहीं होता है, क्योंकि यहां सैन्य एवं धार्मिक खर्चें बहुत अधिक हैं। यहां के अधिकतर देश आर्थिक विकास की दृष्टिकोण से विकास की अंतिम अवस्था में हैं लेकिन यहां सैन्य एवं धार्मिक खर्च अधिक हैं, जो इस मॉडल से मेल नहीं खाता है।
दूसरे गरीब देशों में विकास की प्रक्रिया तीव्र हुई है। अतः गरीब देशों में विकास की प्रक्रिया लंबी अवधि के बाद शुरू होती है तथा उचित प्रतीत नहीं होती है। द. कोरिया एवं इजरायल इसके अच्छे उदाहरण हैं। इजरायल राष्ट्र के रूप में जब बना (1948) तो वह इस मॉडल के प्रथम चरण में था। लेकिन प्रारंभ से वहां तीव्र विकास के कारण मात्र 50 वर्षों के अंदर वह विकसित देशों के समकक्ष हो चुका था। लगभग यही स्थिति द. कोरिया की भी है। इसके विपरीत अनेक ऐसे देश, (थाइलैंड, म्यांमार) जहां विकास की प्रथम अवस्था इजरायल के ही समकालीन थी, लेकिन इनमें से कई देश अभी भी विकास के द्वितीय या तृतीय अवस्था में हैं, जबकि इजरायल एवं द. कोरिया विकास की अंतिम अवस्था में पहुंच गये हैं।
इस मॉडल की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि व्यावहारिक रूप से कोई भी देश पूर्णतः किसी अवस्था विशेष में नहीं होता है। किसी भी देश में विभिन्न इकाइयां विभिन्न आर्थिक अवस्थाओं में हो सकती हैं। जैसे भारत में ही उड़ीसा एवं गुजरात को एक ही अवस्था में नहीं रखा जा सकता है। पुनः इस मॉडल के अनुसार जो देश एक बार उत्प्रस्थान (Take off) कर चुके हैं, वे तो हमेशा विकास क्रम में आगे ही बने रहेंगे, जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसा होता नहीं है।
रोस्तोव ने आर्थिक विकास संबंधी मॉडल में आशावाद का परिचय दिया है। ऐसा उन्होंने दो स्तरों पर किया है। एक तो यह कि जब पूर्वी यूरोप के देश और एशिया में जापान जैसे देश प- मॉडल पर विकास कर सकते हैं तो अन्य विकासशील देशों के लिए भी यह संभव है।
दूसरा यह कि कई एशियाई अफ्रीकी तथा लैटिन अमेरिकी देशों में पर्याप्त कच्चा माल मौजूद है। इसका उपयोग आर्थिक विकास की उत्प्रस्थान अवस्था को प्राप्त करने में किया जा सकता है। इस संदर्भ में मध्य पूर्व में तेल संसाधन का उपयोग उल्लेखनीय है।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि यह मॉडल विश्व के अधिकतर देशों पर लागू होता है। इस मॉडल की कुछ सीमाएं हैं, लेकिन इस मॉडल की ये सीमाएं अपवाद के रूप में ही कुछ देशों में लागू होती हैं अन्यथा इस मॉडल की व्यापक उपयोगिता है।
Question : नव पर्यावरणवाद।
(2002)
Answer : ग्रीकों एवं अरबों के प्राचीन युग से ही पर्यावरण का मानव एवं उसकी आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं का अध्ययन भूगोल का एक प्रमुख विषय-वस्तु रहा है। हालांकि इस विषय से कई विषयांतर भी हुए हैं, पर पर्यावरण का मनुष्य के क्रियाकलाप पर प्रभाव को कभी भी नकारा नहीं जा सका है।
निश्चयवाद (Determinism) का सिद्धान्त हजारों साल तक भूगोल का विषयवस्तु रहा है। पुनः पर्यावरणीय निश्चयवाद ने इसी अवधारणा को और सुदृढ़ किया। संभववाद की विषयवस्तु मनुष्य एवं उसकी क्षमताओं के इर्द-गिर्द केन्द्रित रही। इस अवधारणा ने प्राकृतिक संसाधनों को मनुष्य की भोग्यवस्तु बनाया तथा मनुष्य अपनी तकनीकी एवं वैज्ञानिक खोजों के द्वारा प्रकृति का मालिक बन सकता है, इस अवधारणा की संपुष्टि की।
नव-निश्चयवाद ने इन दो धाराओं के संगम की परिकल्पना की और मनुष्य को एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में आकलन किया। वस्तुतः यह दो अतिवादी विचारों के बीच का सामंजस्य है जिसमें यह कहा गया कि प्रकृति कई सारी संभावनाएं पैदा करती है और मनुष्य प्रकृति के द्वारा निदेर्शित मार्ग पर ही अग्रसर होता है तथा गति की सीमा वह खुद निर्धारित करता है। नव पर्यावरणवाद में पर्यावरण के इस स्वरूप का ही महत्व है। इसमें मनुष्य के ऊपर पर्यावरण द्वारा लाये जाने वाले प्रभावों तथा मनुष्य के द्वारा पर्यावरण में किए जा रहे परिवर्तनों की रूपरेखा है।
Question : वियुक्त अवस्था
(2002)
Answer : वियुक्त अवस्था की अवधारणा वान थ्युनेन ने 1826 में दी थी। उनका प्रमुख लक्ष्य कृषि-आर्थिक क्रियाओं को धरातल पर एक व्यवस्थित मॉडल के रूप में प्रदर्शित करना था। उन्होंने कुछ साधारणीकृत मान्यताओं का सहारा लिया जैसे-
इन अवधारणाओं के आधार पर वान थ्युनेन ने निम्नांकित अर्धवृतीय क्षेत्रों की परिकल्पना की तथा उनमें होने वाले आर्थिक गतिविधियों को अंकित किया।
केन्द्र में स्थित शहर/बाजार
वान थ्युनेन ने यातायात के मार्ग जैसे- (जल परिवहन नदी के द्वारा) तथा एक दूसरा बाजार/शहर को लेकर अलग-अलग प्रारूप तैयार किये, लेकिन उन सब का क्षेत्रीकरण एक जैसा ही रहा।
आधुनिक विश्व में वान थ्युनेन का यह मॉडल (प्रारूप) पूर्णतया लागू नहीं हो सकता है। परन्तु इसकी मूलभूत परिकल्पना एवं अर्थिक क्षेत्रों का संयोजन उचित ही जान पड़ता है।
Question : रिमलैण्ड थ्योरी
(2002)
Answer : रिमलैंड थयोरी का प्रतिपादन स्पाइकमैन ने अपनी बुक रचना- The Geography of the Peace में किया था। वस्तुतः यह मैकाइंडर के हार्टलैंड सिद्धांत के प्रतिक्रियास्वरूप या एवं उसके मूलभूत सिद्धान्तों तथा उसके आधारों का खंडन-मंडन था।
स्पाइकमैन ने भी उन्हीं आधारों के सहारे अपने सिद्धान्त का विमोचन किया जिन पर हार्टलैंड सिद्धांत आश्रित था। वस्तुतः इन दोनों सिद्धान्तों के आधार तो एक थे, पर निष्कर्ष अलग-अलग थे।
स्पाइकमैन का रिमलैंड सागरीय एवं महाद्वीपीय दोनों का ही मिश्रित भूभाग है, जो कि हार्टलैंड के चारों तरफ अवस्थित होता है। इन्होंने जल परिवहन को महत्व देते हुए इसे एक लाभकारी कारण माना एवं समुद्री शक्तियों की बढ़-चढ़ कर महत्ता दी।
उन्होंने हार्टलैंड में अवस्थित लाभों का खण्डन किया एवं यह प्रतिपादित किया कि हार्टलैंड को कोई भी विशेष सामरिक लाभ नहीं प्राप्त है, बल्कि वह अलाभकारी अवस्था में पड़ा है। हार्टलैंड की भौगोलिक उच्चावच उसकी प्राप्ति मार्ग में अवरोध डालेगी एवं वहां की जलवायु भी अलाभकारी है। स्टेपी क्षेत्र की उर्वरता पर भी उन्होंने प्रश्न चिन्ह लगाये।
उन्होंने मैकाइन्डर की इस अवधारणा का भी खण्डन किया कि हमेशा से जलीय एवं स्थलीय शक्तियों के बीच संघर्ष रहा है। उदाहरण देते हुए कहा कि इतिहास गवाह है कि जलशक्ति जैसे ग्रेट ब्रिटेन एवं स्थल शक्ति जैसे सोवियत रूस ने मिल कर शत्रुओं का सामना किया है। उन्होंने कहा कि यदि हमें कोई मंत्र ही चाहिए तो वह यूं होना चाहिए – "Who controls the rimland rules Eurasia, who rules Eurasia controls the destiny of the world"
इस सिद्धान्त पर ही अमेरिका ने सोवियत संघ के किनारे वाले रिमलैण्ड क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया था। हालांकि आज के परिप्रेक्ष्य में यह सिद्धान्त प्राचीन ही माना जाएगा।
Question : क्रिस्टॉलर और लौश के केन्द्रीय स्थान के बीच अंतर की मुख्य बिंदुओं का विवेचन कीजिए
(2002)
Answer : केन्द्रीय स्थान सिद्धांत का प्रतिपादन सर्वप्रथम क्रिस्टॉलर महोदय ने किया था। इनका प्रयास भूक्षेत्र पर फैले अधिवासों का श्रृंखलागत संयोजन एवं जनसंख्या के संघटन एवं वितरण की प्रणाली को एक सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत करना था। इस सिद्धान्त में इन्होंने क्रमागत व्यवस्था की बात की है जो कि कुछ महत्वपूर्ण कारणों पर आधारित होता है। इनका सिद्धांत 1933 में प्रकाश में आया। इसकी परिकल्पना का मूल आधार निम्नांकित हैः
सेवा से वंचित क्षेत्र
सेवा का दोहरीकरण
उन्होंने अधिवासों की ज्यामितीय व्यवस्था तीन सिद्धान्तों पर आधारित की।
(क) बाजार सिद्धान्त- दक्षता और अवसर उपलब्धि की दृष्टि से बाजार क्षेत्र की सेवा एवं वहां पर अधिवासों की संरचना निम्नांकित ढंग से होगी-
अगर तहसील को मानते हैं, तो जिले का पूरक क्षेत्र =
अतः K = 3
क्रमागत व्यवस्था- 1, 3, 9, 27, --- की श्रेणी में होगी।
(ख) यातायात/परिवहन सिद्धान्त - सड़कों की लम्बाई को कम से कम करना एवं परिवहन शुल्क न्यूनतम रखने से अधिक लाभ प्राप्त होंगे।
यहां पर
K = 4x
अतः क्रमागत व्यवस्था-1, 4, 16, 64---
(ग) प्रशासकीय सिद्धान्त- यहां K = 7
अतः क्रमागत व्यवस्था =7, 49, 343--
क्रिस्टॉफर ने इस व्यवस्था को प्रगतिशील माना है तथा सामाजिक मूल्यों एवं आर्थिक उन्नति में आए परिवर्तनों का समानुपाती बतलाया है।
ऑगस्त लॉश ने क्रिस्टॉलर के इस माडल पर अपने सुविधा के अनुसार से कुछ परिवर्तन किए। उन्होंने क्रिस्टॉलर के K के मान को परिवर्तनशील माना एवं कहा कि ऐसे कई मान प्राप्त किए जा सकते हैं, सिर्फ 3, 4 एवं नहीं।
उन्होंने बाजार क्षेत्र को अपनी अपनी सेवा एवं वस्तुओं के लिए विशेष क्षेत्र माना। हर जगह से एक ही वस्तु एवं सेवा उपलब्ध नहीं हो सकती। एक शिक्षा क्षेत्र में व्यापारिक गतिविधियों का महत्व कम होगा और उनका सेवा क्षेत्र क्रमशः अलग-अलग हो जायेंगे। इस तरह लॉश का मॉडल और भी दुरूह हो गया है।
प्रत्येक सेवा एवं वस्तु का बाजार क्षेत्र षट्भुज ही रखा है, पर लॉश ने 150 सेवाओं की परिकल्पना की है। इन सभी षट्भुजों को एक दूसरे के ऊपर अध्यारोपित करके तथा उनका केन्द्र एक रखकर हर षट्भुज को उस केन्द्र पर घुमा देने पर 12 खण्डों का एक वृत्त प्राप्त होता है, जो कि धनी एवं गरीब जैसे छह-छह खण्डों में विभाजित रहेगा।
अतः यह कहा जा सकता है कि लॉश ने क्रिस्टॉलर के ऊपर ही अपने सिद्धान्त का विकास किया तथा एक दुरूह मॉडल प्रस्तुत किया, जिसमें अधिक से अधिक मानदण्डों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया है।
Question : भूगोल के परिप्रेक्ष्य में ‘धारणीय विकास’ पर एक निबंध लिखिए।
(2002)
Answer : धारणीय विकास वह अवधारणा है जिसमें प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण एवं समुचित उपयोग की विशेष परिकल्पना की गयी है, ताकि आने वाली पीढि़यां आर्थिक एवं पर्यावरणीय रूप से विपन्न न हो जाएं।
मनुष्य ने अपने लाभकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक सम्पदाओं का जी-भरकर मंथन किया है। इस प्रक्रिया की शुरुआत मानव जीवन के विकास काल से ही शुरू हो जाती है। परन्तु आधुनिक युग में इसकी हर सीमा पार कर दी गई है। शहरीकरण तथा ओद्यौगिक क्रांति के बाद मनुष्य ने प्राकृतिक सम्पदाओं का सर्वाधिक दोहन किया है, फलस्वरूप कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं का भयावह स्वरूप सामने आये है। अतः मानव समाज एक खतरे के दौर से गुजर रहा है। इन सम्पदाओं का अगर हम अन्त कर देंगे, तो आनेवाली पीढ़ी के लिए क्या शेष रह जाएगा? वह किन चीजों पर आश्रित हो कर अपना विकास करेंगी? इन प्रश्नों ने आधुनिक मानव को तत्क्षण कोई मार्ग निकालने को विवश कर दिया है।
1970 के पूर्वार्द्ध में ‘धारणीय विकास’ शब्द का निर्माण हुआ। Cocoyoe Dularation के द्वारा इसकी व्याख्या एवं स्थापना की गई। 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन में इसकी चर्चा व्यापक रूप से की गई एवं इसे अपनाने का निवेदन किया गया। तब से आज तक रियो, क्योटो आदि अनेक पृथ्वी सम्मेलन हो चुके हैं, जिनमें पर्यावरण के बचाव से सम्बंधित समझौते हुए हैं तथा इसमें धारणीय विकास एक प्रमुख मुद्दा रहा है।
मनुष्य ने प्रक्रति का दोहन दो भ्रामक अवधारणाओं से ग्रसित होकर किया है। प्रथम तो यह कि प्रकृति की सम्पदाएं विपुल हैं तथा द्वितीय कि उनका दोहन मनुष्य का प्राथमिक कर्म है तथा ये प्राकृतिक सम्पदाएं मानव समाज के लाभ के लिए ही बनी हैं। इस मिथ्यावाद से प्रेरित होकर ही मनुष्य ने नयी पीढि़यों के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न कर रखी है।
पर्यावरणीय खतरों के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि इनके दूरगामी प्रभाव अत्यन्त ही द्यातक होंगे। इनका तुरन्त आकलन एवं समाधान खोजने की आवश्यकता है। औद्यौगिक प्रदेशों से निकले विषैले जल नदियों एवं भूतलीय जल को प्रदूषित कर रहे हैं। उद्योग से निकलने वाली धुआं वायु में जहर घोल रहे हैं। इन क्रिया कलापों के दूरगामी परिणाम बड़े ही विकट होंगे। शहरीकरण से भी सामाजिक एवं पर्यावरणीय दोनों प्रकार की समस्याएं जन्म ले रही हैं।
प्रकृति के तंत्रों से खिलवाड़ करने से प्राकृतिक विपदाएं जैसे- बाढ, सूखा, भूकम्प (बड़े जलाशयों से प्रेरित) इत्यादि का भी सामना मानव जाति को करना पड़ रहा है।
मृदा अपरदन से कृषि प्रभावित हो रही है तथा अगली पीढि़यों के लिए अनुर्वर भूमि क्षेत्र रह जाने का खतरा मंडरा रहा है। वातावरण एवं जलवायु में हो रहे परिवर्तनों जैसे- भूमंडलीय तापन, जलवायु परिवर्तन इत्यादि से तटीय क्षेत्रों के डूबने, महामारी फैलने तथा जीवनदायिनी आक्सीजन गैस के खत्म होने का खतरा है।
आर्थिक एवं सामाजिक खतरे भी कम नहीं दिखते हैं। संसाधनों के अधिकाधिक उपयोग से उनकी मात्र में लगातार कमी आती जा रही है। खनिज, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस को प्राप्त करने की एक सीमा है एवं उनका एक निश्चित भण्डार है। वे अनन्त नहीं हैं। अतः हमें और भी नवीनीकृत हो जाने वाले संसाधन जैसे सौर उर्जा, ज्वार उर्जा, वायु उर्जा आदि पर निर्भर होने की दिशा में कार्य करना होगा।
प्रकृति ने अपने संसाधनों की निश्चित मात्र को मानव समाज के हित में ही बनाया है, पर हम उसका अनिश्चित दोहन कर एक निश्चित खतरे को भविष्य की कोख में पाल रहे हैं।
Question : मानव भूगोल में क्रांतिकारी उपागम
(2001)
Answer : मानव भूगोल में क्रांतिकारी उपागम का विकास संयुक्त राज्य अमेरिका में उस परिस्थिति में हुआ, जब वियतनामी युद्ध में पराजय के कारण अमेरिकी समाज में निराशा, सामाजिक विषमता, जातीय तनाव, वर्ग-संघर्ष एवं मार्क्सवाद के प्रति उदासीनता का वातावरण व्याप्त था। पीट के अनुसार क्रांतिकारी उपागम का विकास स्थापित संस्थाओं की प्रति प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, जो आरंभ में तात्कालिक सकारात्मक विश्लेषण का विरोध करता था। इस उपागम के विकास में ‘एंटीपोड’ नामक पत्रिका एवं क्लार्क विश्वविद्यालय का महत्वपूर्ण योगदान है।
क्रांतिकारी उपागम ने भौगोलिक चिंतन के क्षेत्र में एक नये दृष्टिकोण का समावेश किया, जिसके द्वारा मानव वातावरण संबंध, उत्पादन व्यवस्था, आर्थिक विषमता जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों का वैकल्पिक उत्तर ढूंढा जा सकता है। क्रांतिकारी उपागम केवल यही नहीं बताता है कि क्या घटित हो रहा है, बल्कि यह उसे बदलने का प्रयास भी करता है। क्रांतिकारी उपागम मात्रत्मक तकनीक तथा स्थानिक विश्लेषण द्वारा निर्मित वैज्ञानिक नियमों को सर्वकालिक नहीं मानता है, क्योंकि यह नियम एक निश्चित समाज की अवस्था को दर्शाता है, जबकि सामाजिक व्यवस्था निरंतर परिवर्तित होती रहती है। अतः बदलते सामाजिक संदर्भ में सामाजिक नियमों में भी बदलाव आवश्यक है। क्रांतिकारी उपागम तात्कालिक सभी सिद्धातों एवं नियमों को एकांगी मानता है, क्योंकि ये पूंजीवादी समाज के संदर्भ में दिये गये हैं। सामाजिक सिद्धातों के निर्माण में कालिक अध्ययन को समाहित किये बिना सामाजिक नियमों का संपूर्णता से अध्ययन नहीं किया जा सकता है।
क्रांतिकारी उपागम ने सामाजिक नियमों को समझने में एक वैकल्पिक आधार अवश्य प्रदान किया, किंतु इस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना भी की गयी, क्योंकि इसने परंपरागत विश्लेषण एवं निष्कर्षों को उलट दिया है। दूसरी ओर अपनी व्याख्या में यह कालिक विश्लेषण को शामिल करता है, जिसे भूगोलवेताओं ने स्थानिक विश्लेषण की तुलना में कम महत्वपूर्ण माना है। कालिक विश्लेषण पर अधिक जोर देने के कारण यह इतिहास के अधिक निकट पहुंच जाता है, जबकि भूगोल स्थानिक विश्लेषण का विज्ञान है। इसके बावजूद क्रांतिकारी भूगोल अपने सटीक तर्कों द्वारा सत्य के अधिक निकट प्रतीत होता है।
Question : मानव भूगोल में तंत्र विश्लेषण की संकल्पना तथा अनुप्रयोग की विवेचना कीजिए।
(2001)
Answer : तंत्र को विभिन्न रूप से परिभाषित किया गया है। जेम्स के शब्दों में ‘‘एक तंत्र को एक संपूर्ण (एक व्यक्ति, राज्य, संस्कृति आदि) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो एक संपूर्ण के रूप में कार्य करता है, क्योंकि इसके अंग अन्योन्याश्रित होते हैं।’’ A system may be defined as "A hole (a person, a state, a culture, a business) which functions as a whole because of the interdependence of its part," इस परिभाषा के अनुसार भूगोलवेत्ता प्रारंभ से ही भूगोल में तंत्र संकल्पना का उपयोग करते रहे हैं। इसके बावजूद द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व जटिल तंत्रों के विश्लेषण की कोई विधा भूगोल में विकसित नहीं हो सकी।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भूगोल की विषय-वस्तु एवं विधि तंत्र में व्यापक परिवर्तन किए गये हैं। तंत्र विश्लेषण की संकल्पना विधि तंत्र के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण क्रांति है। तंत्र विश्लेषण विधि के प्रयोग द्वारा भौगोलिक सिद्धांतों एवं परिणामों को अधिक वैज्ञानिक एवं उपयोगी बनाया जा सका है। वस्तुतः तंत्र विश्लेषण मूल रूप से भौगोलिक समस्याओं के विश्लेषण में तंत्र संकल्पना के अनुप्रयोग से संबंधित है। तंत्र विश्लेषण विधि जीव वैज्ञानिक वॉरडनफ्रले (Ludwing non Betrainffy) के सामान्य तंत्र सिद्धांत (General system Theory) पर आधारित है। आर.जे. शोर्ले (R.J. Chortey) प्रथम भूगोलवेत्ता थे जिन्होंने भूगोल में सामान्य तंत्र सिद्धांत को उपयोग में लाया। उनका प्रपत्र ‘ज्योमॉरफोलोजी एंड जेनरल सिस्टम थ्योरी’ पूर्ण रूप से तंत्र विश्लेषण की संकल्पना को समर्पित था। इन्होंने भू-आकृति विज्ञान के क्षेत्र में बंद तंत्र एवं खुले तंत्र का प्रयोग किया। राय (Ray) ने एलोमेट्री की संकल्पना का प्रयोग करते हुए यह बताया कि किसी जीव के विभिन्न संघटकों (Components) का विकास जीव के विकास के अनुपात में होता है।
तंत्र विश्लेषण विधि एक तंत्र की संरचना एवं प्रकार्य के संबंध में अन्वेषण करने वाला विधि-तंत्रीय ढांचा है। एक तंत्र अनिवार्य रूप से तत्वों एवं तत्वों के बीच की कडि़यों या संबंधों से मिलकर बना हुआ होता है। इस प्रकार तंत्र की अवधारणा मुख्यतः वस्तुओं के समुच्चय, अवयवों एवं अन्तःआकर्षण से संबंधित है। एक तंत्र के संघटक के रूप में तत्व की अवधारणा ब्लैलोक एवं ब्लैलोक के द्वारा दिये गये चित्र से स्पष्ट है। इस चित्र में यह दिखाया गया है कि तंत्र A एवं तंत्र B किस प्रकार एक इकाई के रूप में आपस में अंतःक्रिया करते हैं एवं पुनः इन दोनों तंत्रों के अंदर छोटे-छोटे तंत्र आपस में अंतःक्रिया करते हैं।
शोर्ले एवं केनेडी ने दो प्रकार के भौगोलिक तंत्र की कल्पना की हैः
कार्यरूपी तंत्र: कार्यरूपी तंत्र में क्रियाशीलता के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाता है। इसे पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
बंद तंत्र की सीमाएं निश्चित एवं पूर्ण रूप से बंद होती हैं, अतः इनकी सीमाओं के आर-पार ऊर्जा का निवेश एवं निकास नहीं हो सकता है। भौगोलिक अध्ययन में इस प्रकार के तंत्र काफी कम हैं।
दूसरी ओर खुला तंत्र में तंत्र को बनाये रखने के लिए ऊर्जा का निवेश एवं निकास होता रहता है।
खुला तंत्र
संरचनात्मक तंत्र: संरचनात्मक तंत्र के अंतर्गत वैसे तत्वों एवं संबंधों को रखा जाता है, जो विशिष्ट दृश्यावली का निर्माण करते हैं। आंतरिक संरचना एवं जटिलता के आधार पर संरचनात्मक तंत्र को पुनः चार भागों में विभाजित किया जाता हैः
किसी तंत्र के तत्व कडि़यों द्वारा जुड़े होते हैं। इससे दूसरे तत्वों के संबंध तथा प्रक्रिया की दिशा को जाना जाता है। ये कडि़यां तीन प्रकार की होती हैंः
बेनेट (Bennet) ने तंत्र विश्लेषण विधि का प्रयोग उत्तर-पश्चिमी यूरोप में अवस्थिति की गतिविधा (Dynamics of location) एवं विकास से संबंधित मानव भूगोल की एक समस्या के संदर्भ में किया है। बेनेट ने तंत्र के प्रभाव पर विभिन्न बाह्य घटनाओं का अनुमान लगाया है। उन्होंने उस प्रदेश का भविष्य में स्थानिक एवं कालिक आकारिकी की भी कल्पना की है। तंत्र विश्लेषण का मानव भूगोल एवं भौतिक भूगोल में व्यापक उपयोगिता है। भौगोलिक अध्ययन में तंत्र विश्लेषण विधि का प्रयोग बेनेट एवं शोर्ले ने अपनी पुस्तक ‘पर्यावरण तंत्र: दर्शन, विश्लेषण एवं नियंत्रण में किया है। एक बार यदि तंत्र का प्रतिरूप तैयार कर लिया जाता है तो नियंत्रण सिद्धांत का उपयोग करते हुए इसका प्रयोग प्रदूषण नियंत्रण, जलग्रहण प्रबंधन, संसाधनों का बंटवारा, नगरीय नियोजन आदि में किया जा सकता है।
कुछ विद्वानों ने तंत्र विश्लेषण की आलोचना इस आधार पर की है कि यह स्वतः प्रत्यक्षवाद से जुड़ा हुआ है तथा यह सौंदर्यात्मक मूल्य, विश्वास, इच्छा, आशा, भय जैसे मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करता हैं। इसके कारण तंत्र विश्लेषण भौगोलिक दृश्य का वास्तविक चित्र प्रस्तुत नहीं कर पाता हैं। इसके अलावा तंत्र विश्लेषण गणितीय नियमों पर आधारित है एवं भूगोलवेत्ता इसे अपनाने में पूर्ण रूप से समक्ष नहीं हैं।
Question : संवृद्धि की सीमाएं
(2000)
Answer : वृद्धि की सीमाएं 1972 में प्रकाशित एक रिपोर्ट का शीर्षक था, जिसे क्लब ऑफ रोम (बुद्धिमान व्यक्तियों का एक समूह) ने तैयार किया था। विस्तृत रूप से इसने इस मान्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाया कि आर्थिक वृद्धि की कोई सीमा नहीं होती। इसने वृद्धि यानि विकास के उद्देश्य एवं अपनायी जा रही पद्धतियों पर नये ढंग से सोचने की आवश्यकता पर बल दिया।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के बाद से तीव्रतम गति से बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण के कारण वृहद् स्तर पर पर्यावरण निम्नीकरण हुआ तथा पृथ्वी के संसाधनों पर बढ़ता हुआ भारी दबाव परिलक्षित हो रहा था। इस प्रकार की स्थिति से चिंतित होकर तथा भविष्य के लिए कोई अच्छे संकेत न देखकर क्लब ऑफ रोम ने ये रिपोर्ट प्रकाशित की।
यह रिपोर्ट विभिन्न कारकों यथा जनसंख्या प्रदूषण, संसाधन इत्यादि को ध्यान में रखकर एक गत्यात्मक विश्व मॉडल को इस्तेमाल करके संपूर्ण विश्व का एक तंत्र विश्लेषण करता है। इसके अनुसार लंबे समय में इस प्रकार की आर्थिक वृद्धि दर जो संसाधनों के अधिक शोषण पर आधारित है, संस्थिर नहीं है और इसके हानिकारक प्रभाव हैं। प्राकृतिक संसाधनों का पुनः ठीक न होने वाले स्तर तक ह्रास, वायु व जल प्रदूषण, मृदा अपरदन, निर्वनीकरण और असामान्य जलवायविक परिवर्तन (भूमंडलीय तापन) इन हानिकारक प्रभावों में आते हैं।
समृद्ध देशों में उच्च वृद्धि दर कच्चे पदार्थों और ऊर्जा के विलासी, अत्यधिक और व्यर्थ उपभोग को परिलक्षित करती है। इस प्रकार का व्यर्थ उपभोगयुक्त जीवन-स्तर विकासशील देशों को प्रभावित करता है क्योंकि विकासशील देश निर्मित वस्तुओं का आयात और कच्चे पदार्थों का निर्यात करते हैं जो इनके संसाधन आधार को अपरदित करता जाता है।
विकसित और विकासशील देश इसी संसार के अभिन्न अंग हैं। पर्यावरणीय निम्नीकरण और पारिस्थतिकीय असंतुलन किसी राजनैतिक सीमा को नहीं देखते। अतएव कोशिश ये होनी चाहिए कि एक दूर जाने वाले समाज (throw-away society) से एक संस्थिर समाज की ओर परिवर्तन हो।
प्रोफेसर जे- फोरेस्टर ने वृद्धि की सीमाओं को दर्शाने के लिए एक मॉडल विकसित किया। मॉडल निम्न मान्यताएं निर्मित करता है-
मूल संकल्पना यह है कि पृथ्वी केवल सीमित व्यक्तियों तथा एक सीमित स्तर का औद्योगिक व आर्थिक विकास ही वहन कर सकती है। पर्यावरण प्रदूषण की भी एक ऊपरी सीमा है। जिसके बाद प्राकृतिक तंत्र को स्थायी तौर पर क्षति पहुंचती है तथा पारिस्थितिकीय चक्र रूक जाता है। अभी तक किये गये निर्वनीकरण तथा ईंधनों के दहन के ही भयावह परिणाम सामने आ रहे हैं। भविष्य में इस प्रकार की विकासात्मक गतिविधियों में वृद्धि की ही संभावना है जिसके कारण समूचे तंत्र के नष्ट होने का खतरा है।
इस मॉडल की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है-
इन सब आलोचनाओं के बावजूद वृद्धि की सीमाओं का मूल विचार सही प्रतीत होता है। कम-से-कम यह मानव जाति को अपनी प्राथमिकताएं पुनः तय करने के लिए जरूर प्रेरित करती है तथा अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से ही सही, आने वाले खतरों के प्रति हमें आगाह करती है। इसका महत्व आने वाले समय के लिए निराशाजनक भविष्यवाणी करने में नहीं बल्कि वर्तमान प्रकृति-विरोधी, व्यर्थ उपभोक्तावादी विकास प्रक्रिया के खिलाफ प्रचार करने वाली युक्ति के तौर पर है।
Question : क्रिस्टालर की केंद्रीय स्थान थियोरी के आधार और अनुप्रयोज्यता को स्पष्ट कीजिए। हाल के संशोधनों के संबंध में बताइए।
(2000)
Answer : केंद्रीय स्थान वह बस्ती है जो चारों ओर फैले पृष्ठ प्रदेश के लिए सामाजिक-आर्थिक प्रकार के विभिन्न कार्यों का आवश्यक रूप से एक संग्रह केंद्र है। केंद्रीय स्थान का मूल तत्व अपने से बड़े व विस्तृत क्षेत्र के लिए सेवाएं व माल प्रदान करना है। वास्तव में केंद्रीय शब्द एक सापेक्षिक शब्द है। प्रत्येक प्रदेश छोटी बस्ती पुरवा से लेकर बड़ी बस्ती कस्बा व नगर से युक्त होता है। ये सभी केंद्रीय स्थान हैं जो महत्व व कार्य की दृष्टि से विभिन्नता रखते हैं। वाल्टर क्रिस्टालर को केंद्रीय स्थान सिद्धांत का पिता माना जाता है यद्यपि इसके पहले वान थ्यूनेन, कोहन, कूले तथा मार्क जेफरसन ने अपने विचार दिए हैं। 1933 में क्रिस्टालर ने दक्षिण जर्मनी के केंद्रीय स्थानों पर एक शोध ग्रंथ प्रस्तुत करके इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
क्रिस्टालर ने यह सिद्धांत दक्षिणी जर्मनी की बस्तियों के आधार पर दिया है। उन्होंने प्रशासन, संस्कृति, स्वास्थ्य, समाज सेवा, आर्थिक एवं सामाजिक सेवा का संगठन, व्यापार, वित्त, सेवा उद्योग, श्रम बाजार का संगठन, ट्रैफिक आदि को केंद्रीय सेवायें माना है। इन सब सेवाओं को तीन वर्गों- निम्न, मध्यम व उच्च में विभाजित किया है।
क्रिस्टालर ने औसत जनसंख्या, बस्तियों की आपस में दूरी और उनका आकार तथा उनके देहात क्षेत्र की जनसंख्या की गणना करके षट्कोणीय सिद्धांत के बारे में बताया है। सेवा केंद्रों की यह प्रवृति होती है कि वे देहात क्षेत्र में एक षट्कोण प्रतिरुप में बिखरे होते हैं। इस प्रकार का प्रतिरूप निम्न दशाओं में ही विकसित हो पाता हैः
(i) उस क्षेत्र की एक समान स्थलाकृति होनी चाहिए ताकि किसी एक स्थान को दूसरे स्थान के मुकाबले में ढाल की दशा में कोई लाभ-हानि न हो और भौतिक दशाओं का परिवहन मार्गों पर कोई प्रभाव न हो।
(ii) उस क्षेत्र में जनसंख्या का समान वितरण, समान विशेषताएं तथा उसकी श्रम-शक्ति समान होनी चाहिए।
(iii) उस क्षेत्र में किसी भी दिशा में जाने पर यातायात व्यय समान होना चाहिए।
(iv) उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसी स्थान को प्राथमिक उत्पादकों जैसे अनाज, लकड़ी, कोयला आदि के उत्पादन में दूसरे स्थान की अपेक्षा विशेष सुविधा न हो।
यह सिद्धांत इन मूलभूत समझ के आधार पर आगे बढ़ता है कि सभी प्राणियों की भांति एक बस्ती प्रणाली को भी जनसंख्या के लिए वस्तुओं व सेवाओं के वितरण में प्रभावित लाने के लिए उद्धत रहना चाहिए।
ऊपर में वर्णित आदर्श दशाओं वाले क्षेत्र में आरंभिक बस्तियां साधारण कृषक समुदायों द्वारा निर्मित होंगी जो यात्र की दूरी को कम करने के उद्देश्य से समपशिर्वक त्रिकोण के उदाग्रों पर स्थापित की जायेंगी। तकनीकी प्रगति एवं बेहतर संचार के साथ इनमें से कुछ पल्ली ग्राम आस-पास के पल्ली ग्रामों को सेवाएं प्रदान करेंगे। इसी का अनुसरण करते हुए अधिक विशेषीकृत ग्रामों, जो आस-पास के पल्ली ग्रामों को सेवाएं देते हैं, का जन्म होगा।
सैद्धांतिक रूप में एक केंद्रीय स्थान को वृताकार व्यापार क्षेत्र के केंद्र में होना चाहिए। एक वृताकार व्यापार क्षेत्र की सीमा एक दूसरे वृताकार व्यापार क्षेत्र की सीमा का अतिक्रमण कर सकती है, जिससे दो केंद्रीय स्थानों के बीच में प्रतियोगिता होने लगती है, जैसा यहां दिये गये चित्र में दिखाया गया है। ऐसा भी हो सकता है कि इन वृताकार व्यापार क्षेत्रों के कुछ भाग आपस में एक दूसरे को ढंक लें और उनके बीच-बीच में कुछ स्थान खाली छूट जायें।
इस समस्या को दूर करने के लिए क्रिस्टालर ने व्यापार क्षेत्र को वृताकार के स्थान पर षट्कोणीय रूप दिया। ज्यामिति की आकृतियों में षट्कोण ही वृतों के सबसे अधिक समीप होते हैं तथा ये न तो एक-दूसरे के किसी भाग को ढंकते हैं और न कोई खाली स्थान छोड़ते हैं।
क्रिस्टालर के अनुसार किसी घने बसे प्रदेश में बस्तियां समान अंतर पर स्थापित होंगी। यदि उस प्रदेश की स्थलाकृति समान है तब इन बस्तियों का क्षेत्र भी समान आकार का होगा। जैसे-जैसे केंद्र में कार्यों सेवाओं की प्रकृति व संख्या में अंतर आता जायेगा, वैसे-वैसे उनकी स्थानिक दूरी तथा व्यापार क्षेत्र के आकार में अंतर आ जायेगा। एक बड़े केंद्र का षट्कोणीय व्यापार क्षेत्र अपने सीमान्त पर 6 केंद्रो से घिरा होगा। ये 6 केंद्र उस बड़े केंद्र से छोटे होंगे तथा समान अंतर पर स्थापित होंगे और बड़े केंद्र, जो उस सबके केंद्र में स्थित हैं, के द्वारा प्रभावित होंगे, जैसा उपर्युक्त चित्र में दिखाया गया है।
केंद्रीय स्थानों का पदानुक्रमः केंद्रीय स्थानों में कार्यों तथा उनमें संबंधों के अनुसार एक पदानुक्रम पाया जाता है। एक बड़ी बस्ती छोटी बस्ती की अपेक्षा केंद्रीय कार्यों के विकास को अधिक आकर्षित करती है क्योंकि उपभोक्ताओं का एक स्थान पर अधिक संख्या में होना कार्यों के विकास को प्रेरित करता है। अतः स्पष्ट है कि यदि बस्ती का आकार बड़ा है तो वहां पर अनेक कार्य स्थापित हो जायेंगे, जिनमें से कई उच्च सेवा कार्य होते हैं। ऐसी बस्तियां तथा केंद्र दूर-दूर स्थापित होंगे और यदि बस्ती का आकार छोटा है तो वहां कुछ कार्य ही विकसित हो पायेंगे तथा ऐसे केंद्र पास-पास स्थापित होंगे। इस प्रकार तीनों बातों-केंद्रीय बस्ती का आकार (क्षेत्र तथा जनसंख्या), कार्य तथा उनकी पारंपरिक दूरी-परस्पर संबंधित हैं, जैसा नीचे ग्राफ में दिखाया गया है-
इस आधार पर इन केंद्रीय स्थानों में एक पदानुक्रम होता है। प्रत्येक पदानुक्रम में इनके कई सोपान होते हैं, जैसे आकार के दृष्टिकोण से बस्तियों के सोपान ऊपर से नीचे क्रम में इस प्रकार हैं-वृहद् महानगर (megalopolis), महानगर (metropolis), नगर (city), कस्बा (town), गांव (village), तथा पुरवा (hamlet)
क्रिस्टालर का स्थिर ‘क’ पदानुक्रम
ज्ञातव्य है कि ऊंचे वर्ग के केंद्रीय स्थान दूर-दूर स्थित होंगे जबकि निम्न वर्ग के केंद्रीय स्थान पास-पास स्थित होंगे। ऊंचे वर्ग के केंद्रीय स्थानों की त्रिभुजीय आकृति समरुप त्रिभुज का वास्तविक केंद्र होती है। यदि यही क्रिया बडे़ व छोटे केंद्रीय स्थानों के बीच घटित होती रहे तो इन केंद्रीय स्थानों में एक पाठ्यक्रम स्थापित हो जायेगा, जिसकी निम्न विशेषताएं होंगी-
(1) प्रत्येक निम्न वर्ग का केंद्रीय स्थान, तीन ऊंचे वर्ग के केंद्रीय स्थानों के मध्य में स्थित होगा।
(2) प्रत्येक ऊंचे वर्ग के केंद्रीय स्थान चारों ओर 6 निम्न वर्ग के केंद्रीय स्थान षट्कोणीय बाजार के प्रत्येक सिरे पर स्थापित होंगे।
(3) प्रत्येक निम्न वर्ग का केंद्रीय स्थान अपने से ऊंचे वर्ग के तीन केंद्रीय स्थानों द्वारा सेवाएं प्राप्त करेगा।
(4) ऊंचे वर्ग को केंद्रीय स्थान के निकट इससे निम्न वर्ग के केंद्रीय स्थानों के बाजार-क्षेत्र आपस में एक-दूसरे से मिले हुए होंगे।
क्रिस्टालर ने तीन प्रकार के भिन्न नियमों के लिए तीन प्रकार के ‘क’ मूल्य बताए हैं। एक केंद्रीय स्थान द्वारा अपने बाजार क्षेत्र में स्थित कुल बस्तियों की की गयी सेवा का मूल्य ‘क’ मूल्य (K=value) कहलाता है। ये तीन नियम निम्न हैं-
(i) बाजार नियम (Marketing Principle): इसमें प्रत्येक ऊंचे वर्ग का केंद्रीय स्थान अपने सेवा क्षेत्र की सेवा करने के साथ-साथ तीन अन्य निम्न वर्ग के केंद्रीय स्थानों के बाजार क्षेत्र की सेवा भी करता है- एक तो ऊंचे वर्ग के केंद्रीय स्थान का संपूर्ण निम्न वर्ग का बाजार क्षेत्र तथा शेष दो क्षेत्र 6 निम्न वर्ग के केंद्रीय स्थानों के सेवा क्षेत्र के एक-तिहाई भाग से बनते हैं। इस प्रकार बाजार नियम का ‘क’ मूल्य = 3 होता है।
(ii) यातायात नियम (Transport Principle) : इस नियम के अनुसार निम्न वर्ग के केंद्रीय स्थान दो उच्च वर्ग के केंद्रीय स्थानों के बाजार क्षेत्र की सीमा के मध्य स्थान पर स्थापित हो जाते हैं तथा इनका ‘क’ मूल्य पदानुक्रम में 4 होता है।
(iii) प्रशासकीय नियम (Administrative Principle) : ‘क’ मूल्य 7 वाले इस नियम के अनुसार सभी निम्न वर्ग के केंद्र उच्च वर्ग के बाजार क्षेत्र में स्थापित हो जाते हैं। यहां पर प्रशासकीय नियम स्पष्ट रुप से महत्वपूर्ण होता है।
केंद्रीय स्थान सिद्धांत की अनुप्रयोज्यता
केंद्रीय स्थान सिद्धांत की अनुप्रयोज्यता में बहुत से कारक अड़चन पैदा करते हैं-
इन सब अड़चनों के बावजूद केंद्रीय स्थान सिद्धांत की प्रासंगिकता तथा अनुप्रयोज्यता है, जो निम्न है-
(1) यह स्थान एवं प्रकार्य के सक्षम वर्गीकरण तथा चयनित स्थापन के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।
(2) यह बस्तियों के अंतरण तथा अंर्तसंबंधों में एक क्रम का पता लगाने के लिए हमें प्रेरित करता है।
(3) इस सिद्धांत का उपयोग पुर्नस्थान नीति के लिए मार्गदर्शन के रुप में किया गया हैं, इसे जर्मनी के प्रादेशिक आयोजना में इस्तेमाल किया गया है।
हाल के संशोधन
बहुत से विद्वानों ने केंद्रीय स्थान पर अपने विचार दिये हैं जो निम्न हैं-
लॉश का परिवर्ती ‘क’ पदानुक्रम (Variable K hierarchies)
लॉश ने 1954 ई. में ‘The Economics of Location’ नामक ग्रंथ में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने क्रिस्टालर के सिद्धांत में निम्न संशोधन किये हैं-
इस प्रकार लॉश ने परिवर्तित मूल्य पदानुक्रम का मॉडल प्रस्तुत किया है। उन्होंने विभिन्न प्रकार के षट्कोणों को केवल एक बिन्दु पर ऊपर-नीचे रखकर समस्त जालों को उस बिंदु के चारों ओर घुमाकर ‘क’ मूल्य ज्ञात किये हैं।
फिलब्रिक का समावेशी पदानुक्रम सिद्धांत (Nested Hierarchy Theory)
ए.के. फिलब्रिक द्वारा 1957 में यू.एस.ए. के संदर्भ में दिया गया अभिमत इस प्रकार है- समावेशी केंद्रों के पदानुक्रम में 6 वर्ग होते हैं। केंद्रीय स्थानों के सभी 6 वर्गों में उनके पद में बढ़ने के साथ-साथ विशेषीकरण बढ़ जाता है।
Question : गुरुत्वीय मॉडल
(1999)
Answer : गुरुत्व मॉडल, न्यूटन के गुरुत्व सिद्धांत पर आधारित है। 19वीं सदी में भूगोलवेत्ताओं ने यह पाया कि स्थानांतरण का प्रवाह, समूह के आकार एवं उनके मध्य दूरी पर ठीक उसी प्रकार निर्भर रहता है, जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में स्थित पदार्थ एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने के लिए निर्भर रहते हैं। दूरी के साथ-साथ आकर्षण भी कम होता जाता है, जिसे भूगोल में ‘डिस्टेंस डिके’ सिद्धांत के नाम से जाना जाता है।
उपयोगः
(i) माल प्रवाह: पूरक क्षेत्र एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं और माल का प्रवाह संसाधन बाहुल्य क्षेत्रों से संसाधन में कमी वाले क्षेत्रों की ओर होता है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, यातायात पर होने वाला व्यय भी बढ़ता जाता है। गुरुत्व मॉडल द्वारा दो क्षेत्रों के बीच अन्तःसंबंध को दोनों क्षेत्रों के आकार को गुणा कर उसे उनकी माध्य दूरी से विभाजित कर पता किया जाता है।
दूरी
(ii) स्थानांतरणः गुरुत्व मॉडल का उपयोग स्थानांतरण के विश्लेषण के लिए भी किया जाता है। दूरी के साथ-साथ स्थानांतरण की प्रक्रिया का ह्रास होता है। इसे निम्न सूत्र द्वारा स्प्ष्ट किया जाता है
यहां Nij = शहर i और j के मध्य प्रवासियों की संख्या
Pi और Pj = शहर i और J की जनसंख्या
DiJ = शहर i और j के बीच दूरी
a = दूरी का एक्सपोनेन्ट
(iii) शहरी क्षेत्रों का परिमार्जन: ब्रेक प्वांइट सिद्धांत, गुरुत्व मॉडल का ही परिवर्तित रूप है। इसके द्वारा शहरी क्षेत्रों का परिमार्जन निम्नवत किया जाता है-
djx = शहर i से ब्रेक प्वाइंट की दूरी
(iv) थोक व्यापार गुरुत्वीय सिद्धांत
इस प्रकार इस सिद्धांत का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जा रहा है, जिससे इसकी उपयोगिता सिद्ध होती है।
Question : बीसवीं शताब्दी के दौरान भौगोलिक चिन्तन के प्रमुख निदर्शन परिवर्तन के अनुक्रम का वर्णन कीजिए।
(1999)
Answer : कून के अनुसार डार्विन से पहले भूगोल पूर्व निदर्शन अवस्था में था। रिटर ने बेकन की आगमनिक विधि को जरूर अपनाया, परन्तु वह भूगोल को निदर्शन की प्रथम अवस्था तक ले जाने में नाकामयाब रहा। भूगोल को निदर्शन की प्रथम अवस्था में पहुंचाने का श्रेय रेटजेल को जाता है, जिसे ‘निश्चयवाद’ का जन्मदाता कहा जाता है।
बीसवीं सदी में आगमनिक विधि का स्थान निगमनात्मक विधि ने ले लिया। इस प्रकार प्रत्यक्षवाद (Positivism) का जन्म हुआ। इस विधि के अनुसार विश्व में एक क्रम है, जिसका पता लगाना आवश्यक है। इस क्रम की भिन्नता का अवलोकन कर एक सिद्धांत का प्रतिपादन करना इस विधि का लक्ष्य है। इस सिद्धांत के खरेपन की जांच वास्तविकता के संदर्भ में करना परमावश्यक है। इस प्रकार भूगोल के विभिन्न क्षेत्रों में मॉडल तैयार करने की विधि की शुरुआत हुई। लेकिन जटिल भौगोलिक पदार्थ का परीक्षण सांख्यिकी की तर्ज पर करना आसान नहीं था और इसके विरोध में प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी थी।
रेटजेल-सेम्पल-हटिंग्टन के निश्चयवादी निदर्शन के विरुद्ध संभववादी-क्षेत्रीय निदर्शन का सूत्रपात विडाल डी. ब्लाश ने किया। इसके अनुसार प्रकृति मानव को एक मार्ग के सहारे नहीं धकेलती है, किन्तु यह अनेक अवसर उपस्थित करती है और उसमें से चुनने के लिए मानव स्वतंत्र है। इसके साथ-साथ क्षेत्रीय भूगोल का विकास हुआ जिसमें एक विशिष्ट एकल क्षेत्र के अध्ययन पर जोर दिया गया। 1960 के दशक में संभववाद और निश्चयवाद के बीच द्वंद्व जोर पकड़ने लगा। इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से ग्रिफिथ टेलर ने ‘रुको और जाओ निश्चयवाद’ का प्रतिपादन किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय क्षेत्रीय निदर्शन सभी पर हावी था। फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका में यह निदर्शन अपनाया गया। हार्टशोन ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। 1950 में आनुभाविक विचारधारा कमजोर पड़ने लगी और इसी के साथ क्षेत्रीय निदर्शन भी कमजोर पड़ने लगा।
निदर्शन परिवर्तन लाने में शेफर ने महत्त्वपूर्ण भूमिक निभायी। उसने क्षेत्रीय निदर्शन की तीव्र आलोचना की। उसने ‘स्थानिक संगठन निदर्शन’ का प्रतिपादन किया। इसी के साथ भूगोल में मात्रत्मक एवं आचारपरक क्रांति का सूत्रपात हुआ। इसके साथ भूगोल के अधिकतर परिणाम वैज्ञानिक होने लगे। 1967 में कोरले एवं हैगेट ने मॉडल पर आधारित निदर्शन को श्रेष्ठतम करार दिया। उनके अनुसार यह निदर्शन परिवर्तन अनिवार्य हो गयी थी। भूगोल का लक्ष्य मॉडल बनाना बताया गया, जिसे मात्रत्मक विधि द्वारा जांचा जा सके। 1977 में बेवर ने एन्ट्रॉपी मैक्सीमाइजिंग निदर्शन का सूत्रपात किया, जिसमें स्थानीयकरण मॉडल, अन्तर्संबंधी मॉडल तथा व्यक्ति के आचार पर बल दिया गया।
इस प्रकार भूगोल में निदर्शन परिवर्तन होते रहे। कोई भी निदर्शन ज्यादा समय तक सफल नहीं हो सका। बेरी ने 1978 में कहा कि निदर्शन परिवर्तन भूगोल को मजबूत करता है परंतु अभी भूगोल निदर्शन संकट से गुजर रहा है, क्योंकि कोई भी निदर्शन हमारी वर्तमान भौगोलिक समस्याओं को हल करने में सक्षम सिद्ध नहीं हो रहा है।
Question : संसार में आर्थिक विकास के और मानवीय विकास के प्रतिमान कहां तक एक दूसरे से मेल खाते हैं? अपने उत्तर को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
(1999)
Answer : संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने वर्ष 1999 की मानव विकास रिपोर्ट में विभिन्न राष्ट्रों की स्थिति का आकलन तीन विभिन्न सूचकांक (देखें तालिका ‘ए’) के आधार पर किया। इनमें से प्रमुख ‘मानव विकास सूचकांक’ है जो जीवन प्रत्याशा, शैक्षणिक उपलब्धि तथा वास्तविक प्रतिव्यक्ति आय पर आधारित है। इसका ब्यौरा निम्नलिखित हैः
देश | एच.डी.आई. रैंक | प्रतिव्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. (डॉलर) |
---|---|---|
कनाडा | 1 | 22480 |
अमेरिका | 3 | 29010 |
जापान | 4 | 24070 |
ब्रिटेन | 10 | 20730 |
रूस | 71 | 4370 |
चीन | 98 | 3130 |
भारत | 132 | 1670 |
पाकिस्तान | 138 | 1560 |
बांग्लादेश | 150 | 1050 |
सिएरा लियोन | 174 | 410 |
इससे यह स्पष्ट है कि आर्थिक विकास एवं मानवीय विकास में प्रत्यक्ष संबंध है। यहां यह तथ्य भी उजागर होता है कि विश्व में आर्थिक विकास की प्रक्रिया कुछ चयनित देशों तक ही सिमट कर रह गयी है। विकासशील तथा अविकसित देशों की संख्या इनसे कई गुना ज्यादा है।
विकसित देशों के आर्थिक विकास ने यहां के रहन-सहन के स्तर को काफी ऊंचा कर दिया है। ऐसी परिस्थिति में मानवीय संसाधनों का समुचित उपयोग होता है तथा लोगों को सभी मूलभूत सुविधाएं मुहैय्या करायी जाती हैं। अमेरिका जैसे देश में बाल कुपोषण नगण्य है, यही स्थिति कनाडा, जापान, जर्मनी, इंग्लैंड आदि विकसित देशों में भी है। दूसरी ओर यदि हम भारत जैसे विकासशील देश की तरफ निगाह डालें तो कुछ और ही स्थिति प्रकट होती है। यहां 53 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यहां असाक्षरता तथा गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले लोगों की संख्या भी काफी अधिक है। यह देश बाह्य ऋण के बोझ तले दबा हुआ है। अगर यह हाल भारत जैसे विकासशील देश का है तो असंख्य अविकसित देशों का हाल बखूबी समझा जा सकता है। गरीबी और मानव विकास में भी प्रत्यक्ष संबंध है। जब जीवन का स्तर ही नीचा है तो स्वाभाविक है कि यहां के लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित होंगे ही।
विकासशील और अविकसित देशों में खाद्य और पोषण आहार की भारी कमी है। चूंकि विश्व की तीन चौथाई जनसंख्या यहीं रहती है, अतः यह समस्या एक विश्वव्यापी समस्या बन गयी है। 1991 के आंकड़े के अनुसार 46 विकासशील देशों ने खाद्य पदार्थ आयात किया। सूडान, सोमालिया, इथियोपिया, अंगोला, चाड, मोजाम्बिक और मौरीतानिया में भुखमरी की भयावह समस्या देखने को मिली। 1993 के विश्व बैंक के रिपोर्ट के अनुसार 110 करोड़ व्यक्ति खाद्यान्न और पोषक आहार की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। इनमें से सबसे ज्यादा दक्षिण एशिया तथा उप-सहारा अफ्रीका के लोग हैं। यह समस्या बीमारी, अकाल आदि का रूप ले कर हजारों लोगों को मौत के चपेट में ले लेती है। विश्व में खद्यान्न का उत्पादन पर्याप्त है, फिर भी दोषयुक्त वितरण प्रणाली तथा क्रय क्षमता के अभाव ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। इस प्रकार इन उदाहरणों को देखने के पश्चात् यह बात स्वतः ही उजागर होती है कि मानव विकास एवं आर्थिक विकास में गहरा संबंध है। मानव विकास के लिए अर्थिक विकास एवं आर्थिक विकास के लिए मानव विकास अत्यन्त आवश्यक है।
Question : भूगोल में प्रमात्रीकरण से क्या समझा जाता है? आधुनिक भौगोलिक अध्ययनों में प्रमात्रीकरण के महत्त्व पर उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
(1998)
Answer : बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भूगोलवेत्ता, भूगोल में वैज्ञानिक पुट की कमी से चिंतित थे। निश्चित सिद्धांत के अभाव में भूगोलवेत्ता नियमों व मॉडलों का प्रतिपादन नहीं कर पा रहे थे। भूगोल में वैज्ञानिक पद्धति अपनाने के लिए पांच अवस्थाएं सामने उभर कर आयींः 1. समस्या की पहचान, 2. अवधारणा का निर्माण, 3. अवधारणा से संबंधित सूचनाओं को एकत्रित तथा वर्गीकृत करना, 4. अवधारणा की वस्तुस्थिति के अनुसार जांच करना और तदोपरांत नियम बनाना, 5. इन नियमों के गठजोड़ से सिद्धांत का प्रतिपादन करना। इस तरह सिद्धांत के प्रतिपादन में सही आकलन की आवश्यकता महसूस की गई। भूगोलवेत्ताओं ने इस समस्या के समाधान के लिए ‘प्रमात्रीकरण’ का सहारा लिया। प्रमात्रीकरण में ‘सांख्यिकीय तकनीक’ को अपनाया गया। प्रमात्रीकरण से संबन्धित गणितीय आंकड़े पहले भी कुछ हद तक इस्तेमाल होते रहे थे, परन्तु कम्प्यूटर आदि जैसी नई तकनीकों द्वारा इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
सामान्यतः प्रमात्रीकरण के अन्तर्गत दो तकनीकें अपनाई गईंः 1. विवरणात्मक तकनीक (Descriptive Technique), तथा 2. अनुमोदनात्मक तकनीक (Inferential Technique)। विवरणात्मक तकनीक द्वारा सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों का सार निकाला जाता है, ताकि इनसे विवरण व तुलना करने में आसानी हो। इसके अंतर्गत औसत, माध्य, माध्यिका, बहुलक, अपसरण, मानक विचलन आदि का सहारा लिया जाता है। अनुमोदनात्मक तकनीक का उपयोग उदाहरण व अवधारणा की जांच करने के लिए किया जाता है। इसके अंतर्गत सिम्पल रिग्रेशन, मल्टिपल रिग्रेशन, संभावना सिद्धांत आदि का प्रयोग किया जाता है। संभावना सिद्धांत द्वारा अनिश्चित घटनाओं की भविष्यवाणी, सैम्पलिंग त्रुटि तथा अनिश्चित मानव गतिविधियों के परिणाम संबंधी भविष्यवाणी करने वाले सिद्धांत व मॉडल तैयार किए जाते हैं। प्रमात्रीकरण के उपयोग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
1. अवस्थिति सिद्धांत: इसमें पे-ऑफ मैट्रीक्स, माध्य, संभावना सिद्धांत, क्यूमूलेटिव पर्सेन्टाइल आदि का प्रयोग किया गया।
2. केंद्रीय स्थल सिद्धांत: यद्यपि यह सिद्धांत मात्रत्मक क्रांति के पहले प्रतिपादित किया गया था, लेकिन इसमें रेंज, थ्रेशहोल्ड आदि तकनीक का सहारा लिया गया था।
3. कृषि भूगोल: वीव्हर ने फसल क्षेत्रों के निर्धारण में स्टैंडर्ड डेवियेशन तकनीक का सहारा लिया था।
इनके अलावा जनसंख्या भूगोल में रैंक साइज नियम, नगरीय भूगोल में केंद्रीय नगर, मानव भूगोल में गुरुत्व मॉडल आदि में प्रमात्रीकरण का सहारा लिया गया है। प्रमात्रीकरण में एक मूल दोष पाया जाता है कि जिस चीज का आकलन संभव नहीं है, उसे कैसे आंका जाये? मानवीय पहलुओं को आंकना संभव नहीं है। एक अन्य दोष इस पद्धति में यह है कि सिर्फ उन्हीं सूचनाओं को शामिल किया जाता है, जो कंप्यूटर में डाली जा सकती हैं। इसके अलावा यदि गलत आंकड़े उपलब्ध हों तो परिणाम भी त्रुटिपूर्ण ही होगा। लेकिन इन सीमितताओं के बावजूद भौगोलिक समस्याओं को समझने के लिए प्रमात्रीकरण एक जरूरी औजार है, क्योंकि इसी के आधार पर विवरण व स्पष्टीकरण निर्भर है।