Question : संवृद्धि ध्रुव
(2004)
Answer : यह सिद्धांत सर्वप्रथम फ्रांसिक पेराक्स द्वारा प्रस्तुत किया गया। उसके विचार से वृद्धि सर्वव्यापक नहीं है, वरन यह अस्थिर प्रेरकों के साथ बिंदु या ध्रुवों के रूप में प्राप्त होती है।
वृद्धि या नाभिक पदानुक्रम में सर्वोच्च स्तर रखते हैं। ये केंद्र सामान्यतः 500000 से 2500000 जनसंख्या रखते हैं। तृतीयक सेवाओं का भाग द्वितीयक और प्राथमिक सेवाओं से अधिक होता है।
संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए परिवर्तित अंतिम प्रभाव के साथ वृद्धि असंख्य चैनलों से प्रसारित होती है। पेरॉक्स की विचारधारा के अनुसार संस्थिर वृद्धि की भूमिका संपूर्ण उदाहरण के लिए उस प्रक्रिया पर संकेंद्रित होनी चाहिए जिसके द्वारा कार्य प्रस्तुत होते हैं। वृद्धि दर एक खंड से दूसरे में पृथक होती है। उद्यमशील आविष्कार एक प्रमुख कारक होता है। वृद्धि ध्रुव का विचार पेरॉक्स द्वारा विकसित किया गया था। इसका स्थानिक शब्दों में विस्तार बाउडविले द्वारा 1966 में किया गया। बाउडविले को वृद्धि ध्रुव विचार उद्योगों के विन्यास जो एक नगर क्षेत्र से संबंधित है, बाह्य अर्थव्यवस्थाओं और एकत्र की अर्थव्यवस्था पर आधारित है। यहां वृद्धि ध्रुव के सिद्धांत से संबंधित कुछ कठिनाईयां हैंः
वृद्धि ध्रुवों की सफलता अथवा असफलता का परीक्षण हेतु कम-से-कम या तीन दशकों की आवश्यकता होती है। एक गणतांत्रिक रूप से चयनित सरकार द्वारा अनुमति प्रदान किये गये एक छोटी अवधि के शासक में इसकी अनुमति नहीं की जा सकती। वृद्धि ध्रुव को उस प्रदेश जिसमें वे अवस्थित हैं, दृश्य भूमि में निरंतर परिवर्तन का अनुमोदन करना होता है।
Question : कृषि वानिकी
(2001)
Answer : कृषि वानिकी एक टिकाऊ विकास की अवधारणा है, जिसके माध्यम से पारिस्थितिक संतुलन को बनाये रखने में सहायता मिलती है। इसके अंतर्गत फसलों की कृषि के साथ-साथ वृक्षारोपण का भी कार्य किया जाता है। कृषि वानिकी वास्तव में भू-उपयोग की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें वृक्षों को कृषित भूमि में विचारपूर्वक एवं निश्चित उद्देश्य की पूर्ति हेतु उगाया जाता है। कृषि वानिकी के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन, ईंधन, चारा, रेशा, खाद आदि की आपूर्ति की जा सकती है। इसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि वाले मौसम में रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है। कृषि वानिकी के द्वारा न केवल मृदा में आवश्यक नमी को बनाये रखा जा सकता है बल्कि मृदा अपरदन की समस्या पर भी काबू पाया जा सकता है। कृषि वानिकी के माध्यम से रेशम कीट पालन, मधुमक्खी पालन, हस्तशिल्प जैसे कुटीर उद्योगों का भी विकास किया जा सकता है।
कृषि वानिकी के अंतर्गत वृक्षों एवं फसलों के संयोजन का चुनाव सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वृक्षों की छाया उन फसलों पर न पड़े जिनके लिए ये हानिकारक हैं। उदाहरण के लिए आलू की फसल के साथ पोपलर के वृक्ष लगाये जा सकते हैं, क्योंकि शीत ऋतु में पोपलर के वृक्षों में पतझड़ हो जाता है। तब तक आलू की फसल बढ़ जाती है एवं उस पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। आंवला, खेजड़ी, सुबबूल, बेर आदि वृक्ष कृषि वानिकी में उपयोगी साबित हो सकते हैं। कहवा की फसल के साथ छायादार पौधों को लगाया जा सकता है, क्योंकि कहवा के लिए तेज धूप हानिकारक होती है। अति आर्द्र भूमि में यूकेलिप्टस जैसे वृक्ष लगाये जा सकते हैं। मृदा में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले पौधों को लगाकर मृदा में नाइट्रोजन की कमी को पूरा किया जा सकता है।
भारत में कृषि वानिकी अभी प्रारंभिक अवस्था में है एवं इसके विकास की गति काफी धीमी है। ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता एवं जागरूकता का अभाव इसके विकास में प्रमुख बाधा है। पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि वानिकी हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण एवं उपयोगी पौधों की आपूर्ति की जा सकती है। इस दिशा में शोध एवं अनुसंधान की भी आवश्यकता है। राष्ट्रीय जल विभाजक कार्यक्रम के अंतर्गत कृषि वानिकी को भी सम्मिलित किया गया है। भविष्य में कृषि नियोजन में कृषि वानिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
Question : संसाधन प्रबंधन शब्द को स्पष्ट कीजिए। संसाधनों की विश्वव्यापी कमी और मानवता के भविष्य के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा कीजिए।
(1998)
Answer : पृथ्वी के उन सभी तत्त्वों को ‘संसाधन’ की संज्ञा प्रदान की जाती है जो मनुष्य के लिए लाभकारी व जरूरी हैं। इस प्रकार ‘संसाधन’ को मनुष्य परिभाषित करता है, न कि प्रकृति। हाल के वर्षों में संसाधनों के संदर्भ में कई समस्याएं सामने आयी हैं, जिनके कारण संसाधन प्रबंधन अनिवार्य हो गया हैः
इस प्रकार ‘संसाधन प्रबंधन’ द्वारा संसाधनों का सही व उत्तम उपयोग तथा पर्यावरण पर हानिकारक मानवीय हस्तक्षेप पर रोक लगाने का प्रयास किया जाता है। ‘विकास की सीमा’ अवधारणा के अनुसार, यदि संसाधनों का दोहन द्रुत गति से होता रहा तथा जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती रही तो एक दिन सारे संसाधन समाप्त हो जायेंगे।
यह दृष्टि कुछ हद तक भ्रांतिपूर्ण है। कृत्रिम संसाधन उत्पन्न करने की मानवीय क्षमता को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि संसाधनों का खात्मा हो जायेगा। लेकिन दूसरी तरफ कुछ संसाधनों की पूर्ति सीमित है और कुछ संसाधनों की उपलब्धता सीमित है। इस प्रकार, मांग व पूर्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है। चूंकि मांग को नियंत्रित करना मुश्किल है, इसलिए पूर्ति को बढ़ाना होगा। यह कई तरीकों से किया जा सकता है। सर्वप्रथम पृथ्वी के संसाधनों की पूर्ति के संदर्भ में एक सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है, ताकि संसाधनों के कुल भंडार व उनके जीवनकाल का आकलन किया जा सके। सुदूर-संवेदन तकनीक द्वारा इस क्रियाविधि को अंजाम दिया जा रहा है। दूसरा, भंडारों के आकलन से जिन संसाधनों के भंडार सीमित पाये जायें, वहां वैकल्पिक संसाधनों का प्रौद्योगिकी द्वारा विकास किया जाना चाहिए। तीसरा, संसाधनों का अपव्यय रोका जाना चाहिए, ताकि उनका संरक्षण किया जा सके। इसके लिए संसाधनों का पुनःचक्रीकरण (Recycling) किया जाना चाहिए।
इसके अलावा मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न पर्यावरण असंतुलन की समस्या पर विचार करना होगा। प्रदूषण पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है, इसलिए इसे नियंत्रित करने का प्रयास करना चाहिए। विभिन्न पर्यावरण सम्मेलनों द्वारा एक सार्थक कदम उठाया गया है। पिछले दिनों सम्पन्न क्योटो सम्मेलन इसका उदाहरण है। इन सब उपायों के अलावा जनसंख्या वृद्धि तथा लोगों के जीवन स्तर में सुधार से संसाधनों की मांग में बढ़ोत्तरी हुई है।
चूंकि संसाधन सीमित हैं तथा उनका वितरण असमान है इसलिए इनका बंटवारा अनेक दिक्कतें पेश करता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के अलावा राष्ट्रीय स्तर में भी संसाधनों के उपयोग को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं। मसलन, भूमि का उपयोग कृषि के लिए हो या गृह निर्माण के लिए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक व राजनैतिक विभाजन से विश्व स्तर पर संसाधन प्रबंधन करना मुश्किल जान पड़ता है।
इस प्रकार, संसाधनों का उत्पादन, एकत्रण, प्रसंस्करण, वितरण, उपभोग व निस्तारण हमारे जनसंख्या, अधिवास, परिवहन, कृषि व उद्योग की प्रकृति को प्रभावित करता है। संसाधन प्रबंधन द्वारा उपरोक्त क्रियाओं को नियंत्रित किया जा सकता है। संसाधन की विश्वव्यापी कमी व मानवता के भविष्य के लिए यह अपरिहार्य है।
Question : पर्यावरण पर उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी के प्रभाव का परीक्षण कीजिए। अपने उत्तर के समर्थन में उदाहरण भी दीजिए।
(1998)
Answer : हाल के वर्षों में उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी के दुष्परिणामों के फलस्वरूप ‘धारणीय कृषि’ की अवधारणा ने हम सबका ध्यान आकर्षित किया है। चूंकि कृषि लोगों की मूल जरूरतों को पूरा करती है, इसलिए कृषि उत्पादन का व्यावसायीकरण किया गया। यह कार्य उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरक, कीट-नाशकों, सिंचाई व्यवस्था व यंत्रीकरण द्वारा पूर्ण किया गया। इनके हानिकारक प्रभाव की अवहेलना की गयी। कृषि नियोजकों का ध्येय मात्र फसल उत्पादन बढ़ाना रहा। उन्होंने पर्यावरण पर इनके दुष्प्रभाव को नजरअंदाज किया। उनका मानना था कि पारंपरिक कृषि पद्धति पर्यावरण के अनुकूल तो है पर इससे उत्पादन को लक्षित दर के अनुरूप नहीं बढ़ाया जा सकता। जब भूमि व जल का क्षरण हुआ तथा नयी तकनीक से उत्पन्न विषाणुओं का पता चला तो उनकी आंखें खुलीं। अब वे ‘धारणीय कृषि’ के महत्त्व को समझने लगे हैं।
उन्नत कृषि के दुष्प्रभाव को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
1. उन्नत बीज: इन बीजों का मुख्य लाभ अधिक उपज तथा इनकी रोग व सूखा प्रतिरोधक क्षमता है। परन्तु, इन बीजों के प्रयोग तथा नये किस्मों के अविष्कार से हम अपनी जैविक विविधता में एकरूपता ला रहे हैं। फसलों की पुरानी प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। इसके अलावा नकदी फसल को बढ़ावा देने से गरीब लोगों में खाद्यान्न की कमी हो रही है। इन बीजों की कड़ी देखभाल तथा इनके विषय में समुचित जानकारी नहीं होने से किसानों को इसका वांछित लाभ नहीं मिल रहा है।
2. रासायनिक उर्वरक: रासायनिक उर्वरक भूमि की उर्वरता को बढ़ाते हैं, परंतु इनके गलत या सही मात्र में न प्रयोग करने से फसलों को हानि पहुंचाते हैं। उदाहरण के तौर पर-अमोनिया सल्फेट यूरिया की अपेक्षा भूमि में तिगुनी अम्लता उत्पन्न करता है। जब भूमि पानी से भरा हो तो अमोनियम सल्फेट का सल्फेट हाइड्रोजन सल्फाइड में बदल कर पौधों के लिए घातक सिद्ध होता है। उर्वरकों का सही अनुपात में न प्रयोग करने से भी लाभ की बजाये हानि हो जाती है।
3. कीट नाशक: कृषि में कवकनाशी व कीटनाशी दवाओं के प्रयोग से कीटों पर नियंत्रण किया जा रहा है। ये कीट नाशक जैसे डी.डी.टी., बी.एच.सी., मेलाथियान आदि जहरीले होते हैं। कीटों को नष्ट करने के अलावा ये पौधों को भी आंशिक मात्र में प्रभावित करते हैं। कीटनाशक युक्त खाद्यान्नों के दीर्घकालीन सेवन से कई बीमारियां उत्पन्न होती हैं। ये बीमारियां मनुष्य के पाचन तंत्र व मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। इनसे कैंसर, चर्म रोग, दमा आदि होने का खतरा रहता है।
4. सिंचाई: सिंचाई को सुलभ बनाने के लिए कई बांधों व नहरों का निर्माण किया गया है। ये बांध कभी-कभी व्यापक नुकसान पहुंचाते हैं। महाराष्ट्र का कोयना बांध, वहां आने वाले भूकंप का प्रमुख कारण था। इसके अलावा इन बांधों के निर्माण से कई स्थानीय लोग विस्थापित हो जाते हैं, जैसे नर्मदा सागर बांध के मामले में। इसके अलावा नहर सिंचाई के विभिन्न दोष हैं। इससे पानी का जमाव, क्षारीयता तथा रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को प्रश्रय, लवणीयता जैसी समस्याओं का आगमन होता है। राजस्थान के इंदिरा गांधी नहर में क्षारीयता व मलेरिया की बीमारी इसका ज्वलंत उदाहरण है।
5. यंत्रीकरण: यंत्रीकरण द्वारा उपज को बढ़ाया जा रहा है, परंतु इससे भी कई नुकसान होते हैं। यंत्रीकरण से कई मजदूर बेकार हो जाते हैं। नये यंत्र, यथा-ट्रैक्टर आदि से जमीन अधिक गहराई तक जोती जाती है, जिससे मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न होती है। इसके अलावा यंत्रें को चलाने के लिए तेल व बिजली की आवश्यकता होती है, जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है।
6. कृषि क्षेत्र का विस्तार: उन्नत कृषि पद्धतियों के उपयोग से जंगलों का विनाश कर उसे खेती योग्य भूमि में तब्दील किया जा रहा है। इससे हमारे देश में जंगलों का प्रतिशत घटता जा रहा है।
यहां यह बात स्पष्ट करना उचित होगा कि परंपरागत कृषि पद्धति, जैसे-स्थानांतरण कृषि से भी पर्यावरण को कम नुकसान नहीं हो रहा है। अतः बढ़ती खाद्यान्न की मांग को देखते हुए हमें ‘धारणीय कृषि’ का सहारा लेना होगा। इसके अंतर्गत उचित जल प्रबंधन, कीट प्रबंधन, जैविक खाद का प्रयोग, मृदा संरक्षण, मिश्रित फसल प्रणाली, एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन, विस्तार कार्यक्रमों आदि द्वारा कृषि व पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करना होगा।