Question : स्थानीय पवनों के विकास पर और स्थानीय मौसम पर उनके प्रभाव पर चर्चा कीजिए और संसार के प्रसिद्ध स्थानीय पवनों के तीन उदाहरण दीजिए?
(2007)
Answer : धरातल पर स्थायी पवनों के अलावा ऐसे भी पवन प्रवाह पाये जाते हैं, जिनकी उत्पत्ति केवल स्थानीय कारणों से होती है तथा जिनके प्रभाव क्षेत्र सीमित होते हैं। ऐसे पवनों को स्थानीय पवन प्रवाह कहा जाता है। कुछ मौसम वैज्ञानिक इन्हें वायुमंडल के तृतीयक परिसंचरण के अंतर्गत मानते हैं। इनकी उत्पत्ति के विभिन्न कारणों में स्थानीय तापान्तर ही सर्वप्रमुख है। इन पवनों की ऊंचाई अधिक नहीं होती है। ऐसे प्रत्येक स्थानीय पवन की निजी विशेषताएं होती हैं तथा इनके नाम भी अलग-अलग होते हैं। अधिकांश स्थानीय पवनों के साथ बड़े ही कष्टदायक उत्पत्ति होती है, जिसके लिए ये बड़े कुख्यात होते हैं। किन्तु कुछ ऐेसे भी स्थानीय पवन पाये जाते हैं, जिनका मौसम पर वांछित प्रभाव पड़ता है। यद्यपि इन स्थानीय पवनों का मौसम विज्ञान की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है, तथापि स्थानीय मौसम तथा जलवायु के वर्णन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कुछ स्थानीय पवन अत्यंत शुष्क व गर्म होते हैं तथा कुछ अत्यन्त ठंडी। अतः ये पवन जिस ओर प्रवाहित होती है, वहां के मौसम पर अपना प्रभाव डालते हैं। इसका प्रभाव अत्यंत तीव्र होता है।
समुद्रीय समीर एवं स्थल समीरः इन मंदगति वाले स्थानीय पवनों की उत्पत्ति का एकमात्र कारण जल और स्थल का असमान गर्म और ठंडा होना है। स्थल और सागर समीर की उत्पत्ति वायुदाब के दैनिक परिवर्तन से होती है। दिन के समय मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में जब समुद्र तथा उससे संलग्न तटवर्ती क्षेत्रों पर सूर्य चमकता है, तब स्थल खण्ड जल की अपेक्षा शीघ्र और अधिक गर्म हो जाता है। धरातल के गर्म हो जाने के फलस्वरूप उसके ऊपर की वायु गर्म होकर फैल जाती है तथा हल्की होकर ऊपर की ओर उठने लगती है। इस क्रिया के फलस्वरूप समवायुदाब पृष्ठ ऊपर उठ जाते हैं और धरातल से कुछ ऊंचाई पर पवन का प्रवाह बाहर की ओर होने लगता है। इस क्रिया के फलस्वरूप धरातल के निकट वायुदाब में कमी हो जाती है। अतः दिन में गर्म स्थल के ऊपर वायुदाब न्यून हो जाता है। ठड़े समुद्र तल पर वायुदाब अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है।
दिन में वायुदाब प्रवणता जल से स्थल की ओर स्थापित हो जाने के फलस्वरूप समुद्र से तटवर्ती क्षेत्रों की ओर ठंडे पवन अर्थात् समुद्री समीर का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है।
धरातल के कुछ ऊपर पवन का प्रवाह स्थल से जल की ओर होता है। इस प्रकार संवहन प्रणाली उत्पन्न हो जाती है। समुद्री समीर पूर्ण विकसित अवस्था में अधिकतम वेग से चलता है। इसके पश्चात् संध्या समय तापान्तर कम होने के साथ ही समुद्री समीर क्षीण होने लगता है। सागर तटवर्ती क्षेत्रों में कई किलोमीटर भीतर तक इस शीतल समीर का प्रभाव पड़ता है। स्थल समीर ऐसा रात्रिकालीन अपतट पवन है, जो स्थल से जल की ओर चलती है। सूर्यास्त के बाद ताप विकिरण के द्वारा स्थल जल की अपेक्षा शीघ्रता से शीतल होने लगता है और कुछ रात बीतने पर वह जल की अपेक्षा अधिक ठंडा हो जाता है। रात्रिकालीन ताप विकिरण के कारण स्थल पर अधिक वायुदाब तथा जल पर न्यून वायुदाब हो जाता है। इस प्रकार वायुदाब प्रवणता स्थल से जल की ओर हो जाती है, जिससे तट के निकट स्थल की एक संकरी पट्टी से सागर की ओर पवन प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। स्थल समीर, समुद्री समीर की अपेक्षा क्षेतिज तथा उर्ध्वाधर दोनों ही दृष्टियों से कम विस्तृत होता है। सूर्योदय से कुछ पहले स्थल समीर का अधिकतम विकास होता है। इन आरोही पवनों के द्वारा मेघों का निर्माण भी होता है।
पर्वत समीर व घाटी समीरः पर्वतीय क्षेत्रों में पर्वत घाटी समीर के रूप में स्थानीय पवन की उत्पत्ति होती है। जब रात्रिकाल में आकाश स्वच्छ रहता है, पर्वतों के ढाल उष्मा के विकिरण द्वारा ठंडे हो जाते हैं, जिससे उनके सम्पर्क में आने वाली वायु की परत भी ठंडी और भारी हो जाती है। इसी ऊंचाई पर ढाल से दूर वायुमंडल की समान परत अपेक्षाकृत गर्म रहती है। नीचे घाटी की वायु भी ढाल से लगती हुई वायु की अपेक्षा गर्म होती है। शीतल और भारी वायु अधिक घनत्व के कारण ढालों से खिसककर नीचे की ओर प्रवाहित होने लगती है तथा घाटियों और निचले भागों में एकत्रित हो जाती है। घाटियों में पर्वतीय ढालों से आने वाली शीतल हवाओं के भर जाने से वहां का तापमान रात्रि के अंतिम भाग तक वायु की ऊपरी परतों की अपेक्षा कम हो जाता है। इस प्रकार तापमान व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है। कभी-कभी तापमान 0°
सेल्सियस से नीचे गिर जाता है जिससे घाटियों में पाला पड़ जाता है। पर्वतीय ढालों पर से शीतल और भारी हवायें नीचे की ओर उतरती हैं, तो उस स्थान की पूर्ति के लिए आस-पास के वायुमंडल से उष्णवायु की प्रतिवर्ती धारायें चल पड़ती हैं। ये गर्म हवायें ढाल पर पहुंच कर पुनः ताप विकिरण के कारण ठंडी हो जाती हैं और ढाल के नीचे खिसक जाती हैं। पर्वत समीर को अवरोही पवन या गुरुत्व पवन भी कहते हैं।
संसार के प्रसिद्ध तीन स्थानीय पवनः शेष स्थानीय पवनों को प्रकृति के आधार पर उष्ण और शीतल स्थानीय पवन में विभाजित किया गया है। इनका संबंध स्थान विशेष की धरातलीय बनावट से अधिक होता है तथा इनमें ऐसे गुण होते हैं कि उनको प्रचलित पवन से शीघ्र अलग कर लिया जाता है। ये हवाएं गर्म, ठंडी, बर्फ से भरी, धूल रेत युक्त आदि कई प्रकार की हो सकती हैं। इनसे प्रभावित क्षेत्रों में लाभकारी तथा हानिकारी कोई भी प्रभाव पड़ सकता है। मुख्य स्थानीय हवाएं हैं- फॉन, चिनूक, सिराको, हरमट्टन,, खमसिन, मिस्ट्रल, बोरा, बिलजर्ड, बिक्र फिल्डर आदि। इनमें से तीन का वर्णन निम्न हैः
1. फॉर्नः उन पर्वतीय क्षेत्रों में जहां चक्रवातीय तूफान चला करते हैं, फॉन नामक गर्म और शुष्क स्थानीय हवायें पायी जाती हैं।
इनकी उत्पत्ति पर्वतों के वायु विमुख ढाल की ओर वायु के अवतलन के कारण होती है। इस स्थानीय हवा को ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी में फॉन कहते हैं। जब कोई चक्रवात आल्पस के उत्तर से गुजरता है, तो इसकी ओर दक्षिण से आने वाली हवाओं को इस ऊंचे पर्वत को पार करना पड़ता है। ये दक्षिणी हवायें जब इस पर्वत के वायु अभिमुख ढाल पर ऊपर उठती हैं, तो संघनन की क्रिया प्रारंभ हो जाती है तथा इनसे प्रायः वृष्टि भी होती है।
2. सिरक्कोः भूमध्य सागरीय क्षेत्र में उत्तरी अफ्रीका से चलने वाले गर्म और शुष्क पवनों को सिरक्को कहा जाता है। भूमध्यसागर से होकर चलने वाले चक्रवात सहारा मरूस्थल की अत्यधिक उष्ण एवं शुष्क वायु को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। ये धूल भरी आंधियां चक्रवातों के अग्र भाग में आती हैं। भूमध्य सागर के दक्षिणी किनारे- ये हवायें अत्यंत शुष्क, गर्म तथा धूल भरी आंधी के रूप में लगातार कई दिनों तक चलती हैं।
3. हरर्मट्टनः सहारा मरूस्थल से ही हरर्मट्टन नामक अन्य स्थानीय पवन चलती है, जो गर्म और शुष्क हाती है। इस पवन की उत्पत्ति शीतकाल में सहारा मरूप्रदेश में होती है। वहां से ये शुष्क धूलभरी हवायें गिनी तट की ओर चलती हैं, जहां की वायु उष्णार्द्र होती है। वहां इसका प्रभाव शीतकारी होता है। उस क्षेत्र में इसे ‘डॉक्टर विंड’ की संज्ञा प्रदान की जाती है, क्योंकि उत्तर-पूर्व से गिनी तट की ओर चलने वाली ये स्थानीय हवायें वाष्पीकरण के कारण कभी-कभी शीतल हो जाती हैं। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया में मरूस्थलीय प्रदेशों से चलने वाले गर्म एवं शुष्क उत्तरी पवन को ब्रिक फील्डर कहा जाता है।
Question : उष्णकटिबंधीय चक्रवात की संरचना एवं संबंधित मौसमी दशाओं का शीतोष्ण चक्रवात की संरचना एवं मौसमी दशाओं के साथ तुलना कीजिए।
(2006)
Answer : चक्रवात चलते-फिरते निम्न वायुदाब के केन्द्र होते हैं जो क्रमशः उच्च दाब की समदाब रेखाओं द्वारा घिरे होते हैं। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात दोनों गोलार्द्धो में 30° से 65° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के बीच स्थित भू-भाग में उत्पन्न होते हैं। इन क्षेत्रों में अयनवर्ती क्षेत्र की उष्ण एवं आर्द्र वायु राशियां तथा उच्च अक्षांशों की शीत एवं शुष्क वायु राशियां एक-दूसरे के संपर्क में आती हैं। इसके फलस्वरूप वाताग्र का निर्माण होता है एवं इन पर उत्पन्न तरंगों से शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति होती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात समान्यतः 5° से 30° अक्षांशों के मध्य अंतः उष्ण अभिसरण के सहारे उत्पन्न होते हैं। अंत उष्ण अभिसरण क्षेत्र में जब निम्न दाब केन्द्र का निमार्ण होता है तो आस–पास की वायु तेजी से निम्न दाब केन्द्र की ओर झपटती है एवं कोल्यिोलिस बल के कारण चक्रीय रूप ले लेती है।
अंत उष्ण अभिसरण क्षेत्र उत्पन्न लघु आकार के वायुमंडलीय भ्रमिल चक्रवात की उत्पत्ति के लिए प्रेरक का कार्य करते हैं।
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात का व्यास सामान्यतः 300 से 1500 किमी. तक होता है। इन चक्रवातों से घिरे हुए क्षेत्र का क्षेत्रफल 16 लाख वर्ग किमी. तक अनुमानित किया गया है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात का व्यास 500 से 800 किमी. तक होता है। इस प्रकार उष्ण कटिबंधीय चक्रवात का आकार शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की तुलना में कम होता है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात में समदाब रेखाएं चक्राकर या अण्डाकार होती हैं। कुछ चक्रवातों में समदाब रेखाओं का आकार अंग्रेजी वर्णमाला के 'V' आकार के समान होता है। इन्हें 'V' आकृति गर्तचक्र कहा जाता है। 'V' आकृति गर्तचक्र स्थूल रूप से अण्डकार होते हैं, जिनका संकरा शिरा विषुवतरेखा की ओर होता है। एक पूर्ण विकसित चक्रवात की बड़ी अक्ष 1900 किमी. तथा छोटी अक्ष 1000 किमी. लंबी होती है। बड़ी अक्ष की दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तथा छोटे अक्ष की दिशा उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर होती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में समदाब रेखाएं गोलाकार होती हैं। शीतोष्ण चक्रवात में वायुदाब प्रवणता अधिक तीव्र नहीं होती है, फलस्वरूप वायु का वेग भी अधिक तीव्र नहीं होता है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में केन्द्र के निकट वायुदाब प्रवणता काफी तीव्र होती है, फलस्वरूप वायु का वेग अत्यधिक (120 से 200 किमी. प्रति घंटा) होता है। उष्ण वाताग्र एवं शीत वाताग्र शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की संरचना की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं:
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में वाताग्रों का अभाव होता है। ये चक्रवात वास्तव में वायु के ऐसे प्रचण्ड एवं गहन चक्रवातीय भ्रमिल होते हैं, जिससे धरातल के निकट वायु का चक्रीय केन्द्रोमुखी प्रवाह, मध्यवर्ती स्तरों में तीव्र गति से ऊपर की ओर प्रवाह तथा शीर्ष भाग में वायु का वेगपूर्ण बर्हिप्रवाह होता है।
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात में चक्षु का आभाव होता है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके केन्द्र में शांत क्षेत्र पाया जाता है। जिसे चक्रवात का चक्षु कहा जाता है। इस चक्षु का व्यास 24 किमी. तक होता है। वायु के अवतलन के कारण चक्षु क्षेत्र में वर्षा का आभाव होता है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात के आगमन से पूर्व पूर्वी पवनें चलने लगती हैं। इनके आगमन की पूर्व सूचना पश्चिम दिशा में आकाश में दिखाई पड़ने वाले पक्षाभ एवं पक्षाभी स्तरी मेघों द्वारा मिलती है, जिसके कारण सूर्य एवं चंद्रमा के चारों ओर प्रभामंडल का निर्माण हो जाता है। चक्रवात के आगमन के साथ ही तापमान में वृद्धि अंकित की जाती है तथा वायु की दिशा दक्षिण-पूर्व हो जाती है। उष्ण वाताग्र के गुजरने के पश्चात् आकाश साफ हो जाता है एवं तापमान में थोड़ी वृद्धि अंकित की जाती है। वायु के सापेक्ष आर्द्रता में वृद्धि होती है एवं पवन की दिशा दक्षिण में हो जाती है। शीत वाताग्र के निकट आने पर तापमान में आकस्मिक गिरावट होती है तथा सापेक्ष आर्द्रता में वृद्धि होती है। वायुदाब में भी वृद्धि होती है। वायु की दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। शीत वाताग्र के गुजर जाने के पश्चात् आकाश साफ हो जाता है तथा तापमान में भारी गिरावट अंकित की जाती है। वायु की विशिष्ट आर्द्रता में कमी आ जाती है। पवन की दिशा उत्तर-पश्चिम हो जाती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के आगमन के पूर्व वायु शांत हो जाती है। निकट आते ही वायुदाब घटने लगता है एवं वायु का वेग बढ़ने लगता है। पवनें तूफान का रूप ले लेती हैं। आकाश में काले कपासी-वर्णी मेघ छा जाते हैं। ‘दृश्यता न्यून हो जाती है। भींषण मूसलाधार वर्षा होने लगती है। यह स्थिति कुछ घंटे तक रहती है। इसके पश्चात् अचानक वायु शांत हो जाती है एवं आकाश मेघ रहित हो जाता है। वर्षा रूक जाती है। वायुदाब न्यूनतम हो जाता है। यह चक्रवात के चक्षु के कारण होता है। चक्षु के गुजरते ही पवनें तीव्र वेग से चलने लगती हैं एवं पुनः मूसलाधार वर्षा होने लगती है। जैसे-जैसे चक्रवात आगे बढ़ता है, वायु का वेग कम होने लगता है एवं वायुदाब बढ़ने लगता है। अंततः बादल छंट जाते हैं। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात में उष्ण वाताग्र के सहारे गर्म वायु ठंडी वायु के ऊपर धीरे-धीरे चढ़ने लगती है, फलस्वरूप पक्षाभ स्तरी, स्तरी मध्य स्तरी कपासी आदि बादलों का निर्माण होता है। इस स्थिति में लंबी अवधि तक फुहारों के रूप मे वर्षा होती है। शीत वाताग्र पर ठंडी वायु उष्ण वायु को तेजी से ऊपर उठाती है, फलस्वरूप कपासी एवं कपासी वर्षा मेघों का निर्माण होता है। बिजली की कड़क एवं बादलों की गरज के साथ वर्षा होती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में वायु के तेजी से ऊपर उठने के कारण, कपासी वर्षा मेघ का निर्माण होता है, फलस्वरूप बादलों की गरज तथा बिजली की कड़क के साथ अल्पकालीन एवं मूसलाधार वर्षा होती है। वर्षा की गहनता शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की तुलना में अधिक होती है।
Question : कोपेन द्वारा विकसित जलवायु वर्गीकरण प्रणाली के प्रमुख घटकों की विवेचना कीजिए। इसकी विसंगतियों को भी इंगित कीजिए।
(2005)
Answer : ब्लादीमीर कोपेन एक जर्मन जीव वैज्ञानिक था, लेकिन उसने अपने जीवन का अधिकांश भाग जलवायु के अध्ययन में बिताया तथा जलवायु और वनस्पति के अंतर्संबंधों के आधार पर जलवायु वर्गीकरण की योजना प्रस्तुत की। उसकी यह योजना डी. कंडोल (De Condolle) के विश्व वनस्पति मानचित्र पर आधारित थी। यह विभाजन पूर्णतः वनस्पति प्रदेशों के अनुसार ही था, क्योंकि कोपेन का विचार था कि वनस्पति की सीमाएं जलवायु की सीमाओं का निर्धारण करती हैं।
यह जलवायु वर्गीकरण कोपेन ने 1902 ई. में प्रस्तुत किया था, जिसमें जलवायु तथा वनस्पति के जटिल अंतर्संबंधों को वर्गीकरण का आधार माना गया था, पर कोपेन इस वर्गीकरण से संतुष्ट नहीं था। अतः उसने 1918 ई. में पहले जलवायु वर्गीकरण की योजना को संशोधित एवं उन्नत करके जलवायु वर्गीकरण की एक नयी योजना प्रस्तुत की। इसमें कोपेन ने तापमान तथा वर्षा पर अधिक बल दिया। इसके पश्चात् 1931 ई. में कोपेन तथा उसके सहयोगियों ने जलवायु वर्गीकरण की परिवर्धित एवं विस्तृत योजना प्रस्तुत की।
कोपेन ने अपनी योजना में मासिक औसत तापमान एवं मासिक औसत वर्षा को वर्गीकरण का आधार माना है। यह वर्गीकरण स्वीकार करता है कि प्राकृतिक वनस्पति एक जलवायु विशेष की समग्रता का परिचय देती है, क्योंकि वनस्पति के प्रकार तथा जलवायु प्रकार में गहरा संबंध है। इनमें से किसी एक के स्वरूप को समझकर अन्य के स्वरूप को समझा जा सकता है।
कोपेन की वर्गीकरण योजना मूलतः अनुभवाश्रित है। इन्होंने किसी भी सांख्यिकी विधि का उपयोग नहीं किया है। इसके वर्गीकरण का मुख्य आधार तापमान तथा वर्षा है, जिन्हें कोपेन ने संख्यात्मक मूल्यों तथा सांकेतिक शब्दावलियों द्वारा प्रस्तुत किया है। ये सांकेतिक शब्दावली कोपेन के जलवायु वर्गीकरण की अपनी विशेषता है। इन सांकेतिक शब्दावलियों के आधार पर कोपेन ने पदानुक्रमिक जलवायु वर्गीकरण की योजना प्रस्तुत की है। कोपेन के जलवायु वर्गीकरण योजना में प्रथम स्तर पर 5 जलवायु प्रदेश, द्वितीय एवं तृतीय स्तर पर क्रमशः 11 एवं 24 जलवायु प्रदेशों को बांटा गया है।
कोपेन ने सर्वप्रथम मासिक औसत तापमान के आधार पर संपूर्ण विश्व को 5 तापमान वर्गों में बांटा है।
उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु 'A': यह लगातार संपूर्ण वर्ष उच्च तापमान रखने वाली जलवायु है। इसके किसी भी भाग में सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 18°C से नीचे नहीं गिरता है।
शुष्क जलवायु 'B': यहां वर्षण की अपेक्षा वाष्पीकरण अधिक होता है।
मध्यतापीय जलवायु 'C': सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 18°C से कम लेकिन - 3°C से ज्यादा होता है। सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10°C से ज्यादा होता है।
अल्पतापीय जलवायु 'D' सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान -3°C से कम तथा सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10°C से ज्यादा।
ध्रुवीय जलवायु 'E' इस जलवायु प्रदेश में ग्रीष्म ट्टतु नहीं होती है। सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10°C से कम होती है। इस जलवायु प्रदेश के दो उपविभाग टुण्ड्रा (T) तथा हिमाच्छादित (F) जलवायु प्रदेशों में किया गया है।
उपर्युक्त 5 जलवायु समूहों में चार (A, C, D तथा E) का आधार वार्षिक तापमान तथा B अर्थात शुष्क जलवायु प्रदेश के वर्गीकरण का आधार वृष्टि तथा वाष्पीकरण का अनुपात है। जलवायु के उपर्युक्त 5 समूहों को वर्षा के मौसमी विवरण के आधार पर पुनः उपसमूहों में बांटा गया है। इस समूह के लिए बड़े अक्षरों के साथ दूसरे अक्षरों का प्रयोग किया गया है, जो निम्नलिखित है।
f - आर्द्र जलवायुः वृष्टि रहित महीने का अभाव। शुष्कतम मास में अल्पतम वृष्टि 6 सेमी. (A, C, D के साथ प्रयुक्त)
m - मानसूनी वर्षा वाली जलवायुः शुष्क ट्टतु छोटी। शुष्कतम मास में वृष्टि 6 सेमी. से कम। (केवल A समूह के साथ)।
w - शीत ट्टतु शुष्क: शुष्कतम मास में वृष्टि 6 से.मी. से कम (A, C, D समूह के साथ)
s - ग्रीष्म ट्टतु शुष्कः यह वह क्षेत्र है जहां वर्षा केवल सर्दियों में होती है तथा ग्रीष्म ट्टतु शुष्क रहती है। (केवल C समूह के लिए)।
तापमान की अन्य विशेषताओं के आधार पर उपयुक्त जलवायु खंडों के उपविभाग किए गए हैं, जिसके लिए अक्षर समूहों में तीसरा अक्षर जोड़ दिया गया है। इसका विवरण इस प्रकार है-
a - अत्यधिक गर्म ग्रीष्म ऋतुः सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 22°C या अधिक। ( C तथा D समूह के साथ)
b - ग्रीष्म ट्टतु साधारण गर्मः सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 22°C या कम लेकिन कम से कम 4 महीने का औसत तापमान 10°c या अधिक हो। (C तथा D के साथ)
c - शीतल एवं छोटी ग्रीष्म ऋतुः 10°C का औसत तापमान 4 माह से कम। सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 22°C से कम ( C एवं D के साथ)
d - शीत ट्टतु अत्यधिक सर्दः सबसे ठंडे माह का औसत तापमान -38°C ( केवल D के साथ)
l - गर्म और शुष्क जलवायुः औसत वार्षिक तापमान 18°C (B समूह के साथ)
k - शुष्क तथा शीत प्रधान जलवायुः औसत वार्षिक तापमान 18°C से कम (B समूह के साथ)।
n - वर्ष भर कोहरा: इस प्रकार कोपेन के विभिन्न घटकों की सहायता से विश्व की जलवायु को 5 प्रमुख समूहों तथा 11 उपसमूहों में विभाजित किया। इन उपसमूहों को पुनः गौण भागों में विभाजित किया गया। इससे जलवायु के 24 प्रकार प्राप्त हुए।
यद्यपि यह सिद्धांत अपनी सरलता तथा अध्ययन-अध्यापन की सुविधा के कारण विश्वव्यापी मान्यता रखता है, फिर भी कई बिंदुओं पर इसकी आलोचना भी की गई है।
सर्वप्रथम कोपेन का वर्गीकरण अनुभवाश्रित है, न कि जननिक, क्योंकि इस वर्गीकरण में जलवायु प्रकारों की सीमाएं अनुभव किए गए तापमान एवं वर्षा के मूल्यों पर आधारित हैं। इसमें जननिक प्रारूप को जो सामान्य वायुमंडलीय संचरण अथवा अन्य जलवायु नियंत्रकों को व्यक्त करता है, कोई स्थान नहीं दिया गया है। अपने वर्गीकरण को अत्यधिक सरल बनाने के प्रयास में मौसम के अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों, जैसे दैनिक उच्चतम एवं न्यूनतम तापमान, वृष्टि की तीव्रता, मेघाच्छादन तथा वन आदि की पूर्ण उपेक्षा कर डाली, जबकि किसी प्रदेश विशेष के मौसम अथवा जलवायु का वास्तविक स्वरूप इन्हीं तत्वों द्वारा निर्धारित होता है।
कोपेन ने दो जलवायु वर्गों अथवा उपवर्गों के मध्य यथार्थ सीमा-रेखा का निर्धारण किया है, जबकि वास्तव में जलवायु परिवर्तन एकदम न होकर धीरे-धीरे होता है तथा दो जलवायु वर्गों के बीच एक संक्रमण क्षेत्र होता है, जहां दोनों जलवायु वर्गों की धुंधली विशेषताएं मिलती हैं। इसके अलावा कोपेन जलवायु वर्गीकरण में निम्न भूमि तलों के लिए जो सीमाएं निर्धारित हैं, वही पर्वतीय क्षेत्रों के लिए भी लागू हैं, जो कि अवैज्ञानिक है।
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि कोपेन की वर्गीकरण योजना एक आधारभूत कार्य है, जिसमें कुछ खामियां अवश्य हैं लेकिन बाद के वर्षों में प्रायः सभी वैकल्पिक वर्गीकरण योजना में कोपेन के वर्गीकरण को ही आधार माना गया है।
Question : संभाव्य वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन।
(2004)
Answer : संभाव्य वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन दो प्रक्रियाओं वाष्पीकरण और उत्सर्जन का समागम है। संभाव्य वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन का मतलब है वैसी आदर्श स्थिति जिसमें पर्याप्त वर्षा हो ताकि किसी क्षेत्र में संभावित वाष्पीकरण और उत्सर्जन के लिए पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध हो सके।
किसी स्थान या क्षेत्र की संभाव्य वाष्पोत्सर्जन के निर्धारण करने के लिए तापमान, अक्षांश, वनस्पति तथा मृदा की जल ग्रहण क्षमता को ध्यान में रखा जाता है। अगर तापमान ज्यादा हो तो संभाव्य-वाष्पोत्सर्जन भी ज्यादा होगा। तापमान तथा वायु की स्थितियां अक्षांश द्वारा निर्धारित होती है। इसके अलावा वनस्पति की प्रकृति व प्रकार भी उत्सर्जन के परिमाण को प्रभावित करते हैं तथा वनस्पतिक लक्षण एवं वाष्पोत्सर्जन मृदा की जलग्रहण क्षमता से प्रभावित होते हैं, इस प्रकार ये सभी कारक अंतर संबंधित हैं।
अमेरिकी जलवायु वैज्ञानिक सी.डब्ल्यू थार्नथ्वेट ने संभाव्य वाष्पोत्सर्जन की संकल्पना के आधार पर विश्व जलवायु का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार जल की जरूरत या संभाव्य वाष्पन ग्रीष्म ट्टतु में शीत ट्टतु की अपेक्षा तथा गरम जलवायु में शीत जलवायु के अपेक्षा ज्यादा होता है। वर्षा द्वारा उपलब्ध जल की मात्र की तुलना संभाव्य वाष्पन से करके मौसमी आधिक्य अथवा कमी तथा आर्द्र अथवा शुष्क जलवायु की पहचान की जा सकती है। संभाव्य वाष्पन संकल्पना को जल संतुलन के अध्ययन में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से यह संकल्पना सिंचाई अभियन्ताओं तथा किसानों दोनों के लिए जल की जरूरतें निर्धारित करने के लिए सामान्य रूप से उपयोगी है।
Question : वायुमंडल के त्रिकोशिकीय देशांतरीय परिसंचरण की क्रिया विधि तथा महत्व की विवेचना कीजिए
(2003)
Answer : आवर्तनशील पृथ्वी के तल पर विशुद्ध तापीय कारण से उत्पन्न एक कोशीय पवन संचरण व्यवस्था का लोप हो जाता है। इसके स्थान पर प्रत्येक गोलार्द्ध में त्रिकोशीय रेखांशिक परिसंचरण की स्थापना हो जाती है। वायुमंडल की गैसीय संरचना द्वारा वायु दाब की क्षेत्रीय विषमता वायु प्रवाह को विकसित करता है। यह वायु प्रवाह न सिर्फ सतह पर होता है वरन् क्षोभमंडल के ऊपरी वायु परिस्थितियों से भी जुड़ा होता है। अतः जब ऊपरी और निचली वायुमंडल की वायु एक दूसरे के साथ संबंध स्थापित करते हैं, तो एक प्रकार के शेल या चक्रीय परिसंचलन का विकास होता है।
प्रत्येक गोलार्द्ध में वायुमंडलीय परिसंचरण के निम्नलिखित तीन कोश पाये जाते हैंः
(i) सन्मार्गी पवन पेटी स्थित रेखांशिक परिसंचरण कोश
(ii) पछुआ पवन पेटी स्थित मध्यवर्त्ती परिसंचरण कोश
(iii) ध्रुवीय परिसंचरण कोश
परिसंचरण के प्रथम कोश में भूमध्य रेखा के निकट सूर्याभिताप की अधिक मात्र उपलब्ध होने के कारण धरातल गर्म हो उठता है जिससे उसके निकट की वायु गर्म होकर फैल जाती है। आयतन में वृद्धि होने के कारण वायु हल्की होकर ऊपर की ओर उठती है। विषुवत रेखीय प्रदेश में इस प्रकार ऊपर उठी हुई वायु-राशियां क्षोभमंडल की वाह्य, सीमा पर पहुंचकर ऊपरी वायुमंडल में उत्पन्न वायु भार प्रवणता के कारण ध्रुवों की ओर चल पड़ती हैं। इन पवन धाराओं का तापमान 30º अक्षांश के निकट विकिरण के कारण इतना नीचे हो जाता है कि इसका घनत्व बढ़ जाता है तथा इसका कुछ भाग धरातल के नीचे उतरने लगता है। कोरियोलिस बल के प्रभाव के कारण इस अक्षांश के निकट ऊपरी पवन धाराओं की दिशा ध्रुवों की ओर न होकर अक्षांश रेखाओं के सामानान्तर हो जाती है। इसके फलस्वरूप 25º-30º अक्षांशों के निकट ऊपरी वायुमंडल में वायु राशियां एकत्रित हो जाती हैं। ऊपरी वायुधाराओं का कुछ भाग सीधे की ओर प्रवाहित होता चला जाता है अश्व अक्षांश पर अवरोही वायु का कुछ भाग विषुवत रेखा की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार धरातल के निकट सन्मार्गी पवनें, उनके ऊपर चलने वाली प्रति सन्मार्गी पवनें, विषुवत रेखीय क्षेत्र में आरोही पवन तरंगें तथा अश्व अक्षांशीय अवरोही पवन तरंगें मिलकर संमार्गी पवन पेटी स्थित प्रथम परिसंचरण कोष का निर्माण करती हैं। इस कोश को हैडली शेल भी कहा जाता है।
परिसंचरण का द्वितीय कोश अश्व अक्षांश तथा 60º अक्षांश (उपध्रुवीय न्यून वायु दाब क्षेत्र) के मध्य पछुआ पवन की पेटी में स्थित है। अश्व अक्षांशीय उच्च दाब क्षेत्र से प्रवाहित होने वाली पवन धाराएं विक्षेपक बल के कारण उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपने पथ से क्रमशः दाएं और बाएं मुड़ जाती हैं। ये ऊष्ण पवन धाराएं जब ध्रुवों की ओर से आने वाली शीतल तथा भारी पवनों में मिलती हैं तब वहां वाताग्रों का निर्माण हेाता है। उष्ण पछुंआ हवाएं शीतल एवं भारी ध्रुवीय पवनों के क्रमशः ऊपर उठती हैं। इन पवनों के मिलन स्थल पर वायुमंडल में संघनन की प्रक्रिया पायी जाती है, जिससे मेघों की उत्पत्ति तथा वर्षा होती है। इस पेटी में संघनन से मुक्त ऊष्मा पवन के उत्थान में सहायक होता है। ऊपर उठी वायु का कुछ भाग तो ध्रुवों की ओर प्रवाहित होता है तथा शेष भाग विषुवत रेखा की ओर मुड़ जाता है।
रेखांशिक परिसंचरण का तृतीय कोश 60º उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों तथा ध्रुवों के मध्य पाया जाता है। इस कोश के ऊपर पवन धाराएं ध्रुवों की ओर तथा धरातल के निकट विषुवत रेखा की ओर चला करती हैं। प्रथम कोश के ऊपर प्रवाहित होने वाली पवन धाराएं मध्यवर्ती कोश के ऊपर के पवनों से मिलकर प्रबल हो जाती हैं, तथा तृतीय कोश के ऊपर प्रवाहित होती हुई ध्रुवों तक पहुंचती हैं। ध्रुवों के निकट पहुंचकर अत्यधिक शीतल और भारी होकर ये हवाएं नीचे धरातल की ओर उतरती हैं। इस कोश को भी प्रत्यक्ष कोश कहा जाता है। वायु मंडल के त्रिकोशीय परिसंचरण के नीचे चित्र में दिखाया गया हैः
(1) प्रथम शेलः
(2) द्वितीय शेलः
(3) तृतीय शेलः
रेखांशिक पवन संचार प्रणाली का महत्वः पृथ्वी के अक्षांतरीय ताप संतुलन में वायु के त्रिकोशीय अवयव का विशेष महत्व है। केन्ड्रयू के अनुसार त्रिकोशीय रेखांशिक विनिमय के सर्वाधिक प्रभावकारी मार्ग वायु-दाब की अनियमितताओं तथा उच्च एवं निम्न दाब केंद्रों आदि के द्वारा उपलब्ध होते हैं। भूतल पर पाये जाने वाले अनेक अभिसरण तथा अपसरण के क्षेत्र रेखांशिक पवन प्रवाह के संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भूतल पर अभिसरण की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पेटी अंतरोष्ण अभिसरण क्षेत्र के रूप में पायी जाती है। उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायु दाब के क्षेत्रों में रंखांशिक पवनों के प्रवाह में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले अपसरण के अनेक क्षेत्र पाये जाते हैं। अभिसरण तथा अपसरण के इन क्षेत्रों द्वारा विश्व की जलवायु में अनेक जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं।
ध्रुवीय वाताग्रों से उत्पन्न शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के पृष्ठ भाग में चलने वाली पवन धाराएं ध्रुवीय वायु-राशियों को उपोष्ण कटिबंधीय कटकों के बीच से होती हुई सन्मार्गी पवनों से मिला देती हैं। उपोष्ण कटिबंधीय कटकों के अंतराल से विषुवतरेखीय तथा ध्रुवीय वायु-राशियों का आदान-प्रदान होता रहता है। विभिन्न प्रतिचक्रवातों के मध्य निम्न दाब द्रोणिकाएं स्थित होती हैं, जिनमें होकर उत्तरी गोलार्द्ध में प्रत्येक प्रतिचक्रवात के अग्र भाग अथवा पूर्व की ओर पवन का प्रवाह विषुवत रेखा की ओर तथा पृष्ठ भाग अथवा पश्चिम की ओर से ध्रुवों की ओर होता है। इसी प्रकार निम्न अक्षांशों में क्षोभमंडल के मध्य अथवा ऊपरी भाग के बहुसंख्यक रेखांशिक उपद्रव उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार पवन धाराओं के अक्षांश रेखीय प्रवाह के बावजूद वायु राशियों का उत्तर से दक्षिण अथवा दक्षिण से उत्तर रेखांशिक प्रवाह होता है। उष्मा के स्थानांतरण में धरातलीय पवन प्रवाह के साथ ही उच्च स्तरीय पवन प्रवाह का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।
Question : उन कसौटियों पर चर्चा कीजिए जिनको थार्न्थवेट ने संसार की जलवायुओं के अपने 1948 के वर्गीकरण में अपनाया था।
(2002)
Answer : थार्न्थवेट ने जलवायु पर अपना वर्गीकरण सर्वप्रथम 1931 में प्रस्तुत किया, तत्पश्चात् उसमें कुछ और संशोधन करके 1933 में प्रस्तुत किया। कोपेन की भांति थार्न्थवेट ने भी यह स्वीकार किया कि वनस्पति, जलवायु का सूचक होती है तथा वनस्पति पर वर्षा की मात्र व तापक्रम का पर्याप्त प्रभाव होता है, परन्तु वाष्पीकरण को भी ध्यान में रखना होगा। इसी आधार पर उन्होंने वर्षण प्रभाविता (percipitation effectiveness) तथा तापक्रम प्रभाविता को जलवायु प्रदेशों के सीमा-निर्धारण में महत्व प्रदान किया है।
थार्न्थवेट ने 1948 में अपने वर्गीकरण में पुनः संशोधन किया। यद्यपि इस बार भी वर्गीकरण में तीन सूचियों (वर्षण प्रभाविता, वर्षा का मौसमी वितरण तथा तापीय दक्षता) का प्रयोग किया, तथापि उनका प्रयोग दूसरे ढंग से किया गया। इस नये वर्गीकरण में जलवायु-प्रदेशों का सीमा-निर्धारण वनस्पति के आधार पर न होकर वर्षा तथा वाष्पोर्त्सन के आधार पर किया गया है। इस प्रकार जलवायु प्रदेशों की सीमाएं मात्र जलवायु प्रदेशों से संबंधित आंकड़ों पर ही आधारित हैं, उनका संबंध वनस्पति, मिट्टी या भूमि-उपयोग आदि भौगोलिक कारकों से नहीं होता है।
वर्षण प्रभाविता- वर्षण प्रभाविता का तात्पर्य, सम्पूर्ण वार्षिक वर्षा के केवल उस भाग से है, जो वनस्पति की उत्पति तथा विकास को प्रभावित करती हैं। इसके लिए इन्होंने वर्षण प्रभाविता अनुपात (Percipitation Effectiveness ratio=P/E अनुपात) का परिकलन किया है। इसका परिकलन कुल मासिक वर्षा को कुल मासिक वाष्पीकरण से भाग देकर किया जाता है और 12 महीने के P/E अनुपात का योग करके वर्षण प्रभाविता तैयार कर ली जाती है। चूंकि प्रत्येक केन्द्र के वाष्पीकरण का आंकड़ा प्राप्त होना कठिन होता है, अतः थार्न्थवेट ने P/E अनुपात तथा P/E सूची ज्ञात करने के लिए निम्न सूत्र बताया है-
(i) P/E अनुपात
(ii) P/E सूची
P/E सूची के आधार पर थार्न्थवेट ने भूपटल को 5 आर्द्रता प्रदेशों में विभक्त किया हैं, जिनमें प्रत्येक प्रदेश में विशिष्ट प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इनमें से प्रत्येक प्रदेश का नामकरण अंग्रेजी के वर्ण द्वारा किया जाता है।
आर्द्रता प्रदेश - वनस्पति - P/E सूची
तर - A - वर्षा के वन - 128 से ऊपर
आर्द्र - B - वन - 64-127
उपार्द्र - C - घास के मैदान - 32-63
अर्द्ध शुष्क - D - स्टैपी - 16-31
शुष्क - E - मरुस्थल - 16 से कम
मौसमी वर्षा के वितरण के आधार पर उपर्युक्त आर्द्रता प्रदेशों में से प्रत्येक को चार उप-भागों में विभक्त किया गया हैः
1Ar 5Br 9Cr 13Dr 17Er
2As 6Bs 10Cs 14Ds 18Es
3Aw 7Bw 11Cw 15DW 19Ew
4Ad 8Bd 12Cd 16Dd 20Ed
r = वर्ष भर पर्याप्त वर्षा
s = ग्रीष्म काल में न्यून वर्षा
w = शीत काल में न्यून वर्षा
d = सभी मौसम में न्यून वर्षा
तापीय दक्षता: वनस्पति की उपजाति तथा विकास में तापक्रम का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इस तरह थार्न्थवेट ने तापीय दक्षता अनुपात (T/E अनुपात) का परिकलन निम्न सूत्र के आधार पर किया है-
T/E अनुपात = (T-32)/4
T = औसत मासिक तापक्रम
T/E सूची =
T/E सूची के आधर पर थार्न्थवेट ने भूपटल को तापक्रम प्रदेशों में विभक्त किया है तथा उनका नामकरण वर्षा के आधार पर किया है।
तापक्रम-प्रदेश - T/E सूची
A1 उष्ण कटिबन्धीय - 128 से ऊपर
B1 मध्य तापीय - 64-127
C1 सूक्ष्म तापीय - 32-63
D1 टैगा - 16-31
E1 टुन्ड्रा - 1-15
F1 हिमाच्छादित - 0
इस तरह यदि वर्षण प्रभाविता, वर्षा के मौसमी वितरण तथा तापीय दक्षता को देखा जाये, तो कुल 120 उप वर्ग बन सकते हैं। परंतु भूपटल पर थार्न्थवेट ने इनमें से केवल 32 जलवायु प्रकार ही स्वीकार किए हैं।
Question : वायुराशियों की संकल्पना की विवेचना कीजिए तथा उनका वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
(2001)
Answer : जलवायु विज्ञान के क्षेत्र में वायुराशि की संकल्पना का पर्याप्त महत्व है। इसके द्वारा मौसम में होने वाले व्यापक परिवर्तनों को समझने एवं मौसम पूर्वानुमान के क्षेत्र में काफी सहायता मिलती है। विश्व के विभिन्न भागों में मौसम परिवर्तन मुख्यतः विभिन्न वायुराशियों की क्रिया- प्रतिक्रिया एवं स्वयं उनके भीतर पायी जाने वाली प्रक्रियाओं के कारण होते हैं। वायुराशियों के द्वारा ही महासागरों से आर्द्रता भारी मात्र में महाद्वीपों के ऊपर लायी जाती है, जिसके फलस्वरूप वहां वृष्टि होती है। गतिशील वायुराशियों द्वारा ही एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक उष्मा का स्थानांतरण होता है।
वायुराशि की संकल्पना एक नवीन संकल्पना है, जिसका विकास बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में हुआ। इस संकल्पना के विकास में बर्गरान, बर्कनीज एवं सोलबर्ग का महत्वपूर्ण योगदान है। वायुराशि वास्तव में वायुमंडल का वह विस्तृत भाग है, जिसमें क्षैतिज तल में तापमान एवं आर्द्रता जैसे मौसमी लक्षणों में समानता पायी जाती है। वायुराशियों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि तापमान, आर्द्रता आदि की दृष्टि से इनका स्वतंत्र अस्तित्व होता है तथा विभिन्न प्रकार की वायुराशियां एक-दूसरे के संपर्क में आने के बावजूद परस्पर विलीन नहीं होती हैं, बल्कि एक-दूसरे से पृथक बनी रहती हैं। जब वायु की विशाल राशि किसी विस्तृत समांगी तल (स्थलखंड या महासागर) पर लंबी अवधि पर स्थिर रहती है, तो उसके तापमान एवं आर्द्रता आदि विशेषताओं में धरातल के साथ संतुलन स्थापित हो जाता है। वायु की ऐसी विशाल राशि को ‘वायुराशि’ एवं धरातल के उस विस्तृत भाग को उसका ‘उत्पत्ति क्षेत्र’ कहा जाता है। वायुराशि की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि उत्पत्ति क्षेत्र का तल विस्तृत तथा समान स्वभाव वाला हो एवं धरातल के निकट पवन का प्रवाह मंद एवं प्रति-चक्रवातीय हो अर्थात् वायु का अभिसरण नहीं बल्कि अपसरण हो। इसके साथ ही उस प्रदेश में वायुमंडल से संबंधित दशाएं लंबे समय तक स्थिर होनी चाहिए, ताकि वायु धरातल की मौसमी विशेषताओं को आत्मसात कर सके।
वायुराशियां अपने उत्पत्ति क्षेत्र से अन्य प्रदेशों की ओर गतिशील होती हैं। आगे बढ़ने पर वे संपर्क में आने वाले क्षेत्र के तापमान, आर्द्रता आदि दशाओं को परिवर्तित करती हैं तथा स्वयं वायुराशियों में भी अत्यंत मंद गति से परिवर्तन होता है। इसके बावजूद वायुराशियों के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके शीर्ष भाग में मौसमी विशेषताएं लंबी अवधि तक संरक्षित रहती हैं।
प्रत्येक वायुराशि तापमान एवं आर्द्रता आदि से संबंधित विशेषता अपने उत्पत्ति क्षेत्र से प्राप्त करती है। इसके अलावा आगे बढ़ती हुई वायुराशि के मार्ग में पड़ने वाले तल की मौलिक विशेषताएं अर्थात् तापमान, आर्द्रता एवं धरातल की प्रकृति आदि उसमें अनेक प्रकार के परिवर्तन ला देती हैं। अतः वायुराशियों के वर्गीकरण हेतु उत्पत्ति क्षेत्र की विशेषताओं एवं मार्ग में हुए संशोधनों को ध्यान में रखना आवश्यक है। उत्पत्ति क्षेत्र के आधार पर वायुराशियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता हैः
उपरोक्त दोनों वायुराशियां तल की प्रकृति के आधार पर पुनः दो उपवर्गों में विभाजित की जाती हैंः
महासागरीय वायु राशियां आर्द्र होती हैं अतः उनमें संघनन की प्रक्रिया पायी जाती है, जबकि महाद्वीपीय वायुराशियां शुष्क होती हैं। महाद्वीपीय वायुराशियां जब स्थलखंड से महासागरों के ऊपर पहुंचती हैं तो आर्द्रता को प्राप्त करती हैं एवं इनमें महासागरीय वायुराशि की विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं, परंतु, जब महासागरीय वायुुराशियां महाद्वीपों के ऊपर से गुजरती है तो उनकी विशेषताएं अपेक्षाकृत मंद गति से संशोधित होती हैं तथा उनमें उपस्थित आर्द्रता की मात्र क्रमशः क्षीण होती होती हैं।
इस प्रकार उत्पत्ति क्षेत्र एवं प्रकृति को आधार पर वायु राशियों को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
उपरोक्त वायुराशियां जब अपने उत्पत्ति क्षेत्र से आगे बढ़ती हैं तो उनमें दो प्रकार के रूपांतरण होते हैंः
1. उष्मागतिक रूपांतरण: वायुराशि में उष्मागतिक रूपांतरण तापीय एवं गतिक दोनों कारणों से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन का मुख्य कारण वायुराशि के निचले भाग तथा धरातल के मध्य उष्मा का स्थानांतरण है। ऊष्मागतिक परिवर्तन पर धरातल की प्रकृति, वायु राशि का भ्रमण पथ एवं यात्र में लगे समय आदि का प्रभाव पड़ता है। यदि कोई ठंडी वायुराशि अपेक्षाकृत गर्म धरातल से होकर गुजरती है तो वह नीचे से गर्म होने लगती है एवं उसमें वायु तंरगों का आरोहरण, संघनन, वृष्टि आदि प्रक्रियाएं प्रारंभ हो जाती हैं। इसके विपरीत यदि ऊष्ण वायुराशि अपेक्षाकृत ठंडी धरातल के ऊपर से होकर गुजरती है तो शीतलन के कारण उसमें स्थायित्व का गुण उत्पन्न हो जाता है एवं ऐसी स्थिति में मौसम साफ एवं आकाश मेघरहित रहता है। स्पष्ट है कि ध्रुवीय वायुराशि में पहले प्रकार का परिवर्तन एवं उष्ण कटिबंधीय वायुराशि में दूसरे प्रकार का परिवर्तन होता है। इन परिवर्तनों के आधार पर वायुराशियों को पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
ठंडी वायुराशि धरातल की अपेक्षा ठंडी एवं गर्म वायुराशि धरातल की अपेक्षा गर्म होती है। स्पष्ट है कि एक ही वायुराशि जिसके तापमान में किसी प्रकार का परिवर्तन न हुआ हो, अपने नीचे स्थित धरातल के तापमान के अपेक्षाकृत न्यून या अधिक होने के अनुसार गर्म अथवा ठंडी कहलाती है।
गतिक परिवर्तन: किसी वायुराशि के स्थायित्व पर केवल वायुराशि एवं धरातल के मध्य उष्मा के आदान-प्रदान का ही प्रभाव नहीं पड़ता है, बल्कि अधिक ऊंचाई पर स्थित कारकों का भी प्रभाव पड़ता है। इन्हें उच्च स्तरीय कारक कहा जाता है। इन उच्च स्तरीय कारकों के फलस्वरूप वायुराशियों में स्थायित्व एवं अस्थायित्व का गुण उत्पन्न हो जाता है। इस आधार पर वायुराशियों को पुनः दो उपवर्गों में विभाजित किया जाता हैः
स्थिर वायुराशि के ऊपरी भाग में स्थिरता एवं अस्थिर वायुराशि के ऊपरी भाग में अस्थिरता का गुण पाया जाता है। स्थिर वायुराशियां वैसे प्रदेशों में पायी जाती हैं जहां धरातल पर प्रतिचक्रवातीय दशाएं पायी जाती हैं अथवा जहां वायुमंडल के ऊपरी भाग में उष्ण वायु का अभिवहन होता है। इसके विपरीत अस्थिर वायुराशियां उन प्रदेशों में पायी जाती हैं, जहां चक्रवात अधिक आते हैं तथा वायुमंडल में ऊंचाई पर ठंडी वायु का अभिवहन होता है।
इस प्रकार वायुराशियों को कुल 16 प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है जैसा कि नीचे दिये गये आरेख से स्पष्ट है।
विभिन्न प्रकार के वायुमंडलीय विक्षोभ जो एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश की ओर भ्रमण करते हैं एवं जिनके द्वारा विश्व में संपूर्ण वृष्टि का अधिकांश भाग प्राप्त होता है, विपरीत विशेषताओं वाली वायुराशियों के संपर्क क्षेत्र अर्थात वाताग्रों पर उत्पन्न होते हैं। इन विक्षोभों के द्वारा उत्पन्न होने वाली मौसमी दशाएं काफी हद तक उनसे संबंधित वायुराशियों की विशेषताओं पर निर्भर करती हैं।
अतः स्पष्ट है कि किसी प्रदेश के मौसम में होने वाला परिवर्तन उस प्रदेश की वायुराशियों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। वायुराशि की अवधारणा के द्वारा मौसम के अल्पकालिक पूर्वानुमान में काफी सहायता मिलती है।
Question : पृथ्वी की सतह से वर्षण के प्रकारों और वितरण का ब्यौरा दीजिए।
(2000)
Answer : द्रव या ठोस रूप में पृथ्वी पर गिरने वाले जल को वषर्ण के रूप में पारिभाषित किया जाता है। फोस्टर के अनुसार वायुमंडलीय आर्द्रता का गिरना ही वर्षण है और यह जलीय चक्र की शायद सबसे महत्वपूर्ण अवस्था है।
वषर्ण का पहला चरण संघनन है। संघनन की प्रक्रिया जलवाष्प से द्रवीभूत होने की प्रक्रिया को सम्मिलित करती है जबकि वर्षण के अंतर्गत जल वर्षा, हिमपात, ओला तथा अन्य दूसरे रूप आते हैं।
वर्षण के प्रकार: वर्षा के लिए वायु का संतृप्त होकर संघनित होना आवश्यक है। इसके लिए वायु को ऊपर उठना होगा ताकि वायु रुद्धोष्म ताप-परिवर्तन या एडियाबैटिक ताप परिवर्तन द्वारा ठंडी होकर संतृप्त हो जाय। ओसांक के बाद वायु ठंडी होने पर संघनन प्रारंभ हो जाता है, जिसके बाद वर्षा होती है। इस प्रकार वर्षा होने के लिए वायु का ऊपर उठना आवश्यक है। यह प्रक्रिया तीन प्रकार से होती हैः
इस आधार पर वर्षा को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः
भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सालों भर वर्षा होती है। वर्षा के अल्पकालिक एवं तीव्र होने के कारण मृदा क्षरण अधिक होता है।
समशीतोष्ण भागों में भी संवाहनीय वर्षा होती है परंतु यहां मूसलाधार रूप में न होकर सामान्य रूप में होती है। यहां वर्षा गर्मियों में नहीं होती है। उष्ण रेगिस्तानों में भी संवाहनीय वर्षा होती है पर आर्द्रता की कमी के कारण वायु को अधिक ऊंचाई तक जाना होता है एवं वर्षा आकस्मिक रूप से कभी-कभी ही होती है।
(ii) पर्वतीय वर्षा: ऊष्ण व आर्द्र हवाएं जब पर्वतीय भागों से टकराती हैं तो उनके ढाल के सहारे ऊपर उठने लगती हैं तथा शुष्क रुद्धोष्म ताप पतन दर से ठंडी होने लगती हैं। एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने पर हवा संतृप्त हो जाती है तथा संघनन के बाद वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। पर्वत के जिस ढाल पर हवा टकराती है उसे पवनमुखी ढाल कहते हैं। वर्षा मुख्यतः इसी ढाल पर होती है ((Leeward side)) कहा जाता है। नीचे उतरने के कारण रुद्धोष्म ताप पतन दर से हवा का तापक्रम बढ़ता है, सापेक्षिक आर्द्रता घटती है एवं वर्षा नहीं हो पाती है। इसलिए इस ढाल को वृष्टि छाया प्रदेश (Rain shadow region) कहते हैं। पर्वतीय वर्षा के रूप में ही संसार में अधिकांश वर्षा होती है।
आवश्यक दशाएंः पर्वतीय वर्षा के लिए निम्न दशाओं का होना आवश्यक हैः
विशेषताएंः
वर्षा का वितरण
पृथ्वी के उस भाग पर जहां तापक्रम अधिक रहता है एवं वाष्पीकरण के लिए जल भी पर्याप्त मात्र में विद्यमान रहता है, वहां वर्षा अधिक होती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भूमध्यरेखीय प्रदेश है। उपोष्ण कटिबंधीय उच्च दाब वाले भाग भी उपर्युक्त दशाओं को प्राप्त करते हैं, परंतु वर्षा न्यूनतम होती है क्योंकि वहां पर हवा के नीचे उतरने से प्रतिचक्रवातीय दशाओं का आधिक्य रहता है तथा हवा की आपेक्षिक आर्द्रता घट जाती है। मध्य अक्षांओं में अनुकूल दशाओं के कारण पर्याप्त वर्षा हो जाती है, परंतु ध्रुवीय भागों में जलवर्षा के स्थान पर हिमपात ही अधिक होता है।
समस्त पृथ्वी पर वर्षा की औसत मात्र 97 से.मी. है परंतु इसमें काफी स्थैतिक विविधता पाई जाती है। यह मात्र भी वर्ष भर समान नहीं होती है। वर्षा के वितरण को निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
Question : कोपेन के वर्गीकरण के मुताबिक Cs प्रकार की जलवायु
(1999)
Answer : ब्लादीमीर कोपेन ने तापक्रम एवं वर्षा के आधार पर जलवायु का वर्गीकरण किया है। इनका वर्गीकरण परिमाणात्मक है, क्योंकि इन्होंने जलवायु प्रदेशों की सीमाओं के निर्धारण में तापक्रम तथा वर्षा के संख्यात्मक मूल्यों का प्रयोग किया है। कोपेन ने वनस्पति वर्गों के आधार पर विश्व में पांच जलवायु वर्ग बताये तथा उनका नामकरण A, B, C, D तथा E वर्णों द्वारा किया। इनमें से C वर्ण सामान्य शीतयुक्त मध्य अक्षांशीय आर्द्र जलवायु (उष्णार्द्र समशीतोष्ण जलवायु) का द्योतक है। इसके अलावा उन्होंने कुछ अन्य सांकेतिक वर्णों का प्रयोग भी किया, जिसमें से S वर्ण शुष्क ग्रीष्मकाल के लिए प्रयुक्त हुआ।
C वर्ण की जलवायु में एक या एक से अधिक महीनों का मध्यमान ताप 180º से कम रहता है, किन्तु किसी माह का ताप -3ºC से नीचे नहीं होता है। Cs वर्ग में ग्रीष्म काल तो शुष्क रहता है परन्तु शीत काल के सबसे आर्द्र महीने में तीन गुनी अधिक वर्षा होती है। इस प्रकार यह जलवायु भूमध्यसागरीय जलवायु से मेल खाती है। इस प्रकार की जलवायु भू-मध्यसागरीय क्षेत्रों के अलावा दक्षिण अफ्रीका के केप क्षेत्र, उत्तरी अमेरिका के कैलिफोर्निया और ओरेगॉन, दक्षिण अमेरिका के चिली तथा दक्षिण-पश्चिमी आस्ट्रेलिया में पायी जाती है।
Question : उष्णकटिबंधीय और शीतोष्ण चक्रवातों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कीजिये?
(1999)
Answer : चक्रवात निम्न दाब के केन्द्र होते हैं, जिनके चारों तरफ सकेन्द्रीय सम वायुदाब रेखाएं विस्तृत होती हैं तथा केन्द्र से बाहर की ओर वायुदाब बढ़ता जाता है, परिणामस्वरूप परिधि से केन्द्र की ओर हवाएं चलने लगती हैं, जिनकी दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अनुकूल होती है। स्थिति के दृष्टिकोण से चक्रवातों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- (i) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात, तथा (ii) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात। इन दोनों चक्रवातों में पर्याप्त अंतर पाया जाता है, जिन्हें निम्न प्रकार समझा जा सकता हैः
Question : पृथ्वी के वायुमंडल की प्रकृति और संघटन पर चर्चा कीजिए।
(1998)
Answer : पृथ्वी के चारों तरफ कई सौ किलोमीटर की मोटाई में व्याप्त गैसीय आवरण को ‘वायुमंडल’ कहा जाता है। वायुमंडल की विभिन्न गैसें पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी के ऊपर टिकी रहती हैं। वायुमंडल की गैसें सामान्य भौतिक गैस नियमों का पालन करती हैं। यद्यपि समय या स्थान के अनुसार पृथ्वी के वायुमण्डल में तापमान व दाब- परिवर्तित होता है लेकिन उसके संघटन में गैसों का प्रतिशत लगभग स्थिर रहता है। वायुमंडल के संघटन को निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता हैः
गैस - प्रतिशत (आयतन)
नाइट्रोजन - 78.1
आक्सीजन - 20.9
आर्गन - 0-93
कार्बनडाइआक्साइड - 0.03
नियॉन - 0.0018
हीलियम - 0.0005
ओजोन - 0.00006
हाइड्रोजन - 0.00005
क्रिप्टान
मिथेन अंश मात्र
जेनॉन
वायु में जलवाष्प की मात्र अधिकतम 5 प्रतिशत तक होती है। यह मात्र तापक्रम पर आधारित होती है। इसके अलावा कुछ धूलकण भी वायुमंडल में पाये जाते हैं, जो आर्द्रताग्राही नाभिक का कार्य करते हैं। वायुमंडल के निचले स्तर पर अपेक्षाकृत भारी गैसें, जैसे. नाइट्रोजन, आक्सीजन, कार्बनडाइआक्साइड, हाइड्रोजन आदि पायी जाती हैं। अधिक ऊंचाई पर हल्की गैसेंं, जैसे- हीलियम, नियॉन आदि पायी जाती हैं।
कार्बनडाइआक्साइड, ओजोन आदि गैसें ऊष्मा को अवशोषित कर पृथ्वी को गरम रखती हैं। इनसे जलवायु परिवर्तन होता है। अधिक मात्र में पैदा होने से ये भूमंडलीय तापन को अंजाम देती हैं। इनके अलावा वाष्प तथा धूलकण के प्रतिफल से ही वर्षा, कुहरा, बादल आदि का निर्माण होता है।
ताप तथा वायुदाब के आधार पर वायुमंडल का परिवर्तन मंडल, समताप मंडल, ओजोन मंडल, आयन मंडल, आयतन मंडल आदि रूपों में ऊर्ध्वाकार विभाजन किया जाता है। परिवर्तन मंडल में प्रति एक हजार फीट पर 3.6°थ् की दर से तापमान कम होता जाता है। यहां ऋतुवत् परिवर्तन हुआ करता है। समताप मंडल में ताप वितरण में समानता होती है। यह मौसमी हलचल से रहित होता है। आयनमंडल में विद्युतीय तथा चुंबकीय घटनाएं घटित होती हैं। इसी भाग से रेडियो तरंगें परिवर्तित हो जाती हैं। आयतन मंडल वायुमंडल का सबसे ऊपरी भाग है, जिसे ‘अंतरिक्ष मंडल’ भी कहा जाता है। वायुमंडल का दाब समुद्रतल पर 1 कि-मी. प्रति वर्ग से.मी. होता है। ऊंचाई के साथ वायुदाब में क्रमिक ह्रास होता है। वायुमंडलीय ऊर्जा का मुख्य स्रोत सूर्यताप है। सूर्य से प्राप्त इस न्यून ऊर्जा के कारण ही धरातल पर पवन-संचार होता है। सौर विकिरण का 15 प्रतिशत भाग वायुमंडल द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। इस प्रकार, यह ताप के आय-व्यय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि वायुमंडल की प्रकृति व संघटन कुदरत की देन है। इसके प्रत्येक तत्त्व या अवस्था हमारे लिए विशेष महत्त्व रखते हैं। मनुष्य ने इसकी प्रकृति व संघटन से खिलवाड़ करके भूमंडलीय तापन जैसी समस्याओं को जन्म दिया है। हमें चाहिए कि हम इस अनमोल प्राकृतिक देन को यथावत् बनाए रखें वरना पर्यावरण असंतुलन से हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।