Question : समस्थिति की संकल्पना की परिभाषा कीजिए तथा एयरी और प्रैट के अभिगृहीतों पर चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : समस्थिति भूपृष्ठ के विभिन्न तैरते हुए ब्लाकों के मध्य संतुलन की दशा है।* समस्थिति या आइसस्टेसी शब्द ग्रीक भाषा के आइसस्टेसिओस (ISOSTASIOS) से बना है] जिसका अर्थ है समान स्थिति। जिसकी जानकारी 1855 ई- में प्रैट ने अपने विचारों में प्रस्तुत की थी] पर इसका नामकरण डटन नामक अमरीकी भूविज्ञानी ने सन् 1889 ई- में किया और इसे समस्थिति अथवा आइसस्टेसी का नाम दिया। इसका आशय यह है कि पृथ्वी की सतह पर उपस्थित असमान ऊंचाई वाले भू-भाग जैसे पर्वत] पठार] मैदान तथा महासागरीय गर्तों आदि के नीचे भूगर्भ में एक ऐसा तल है जहां सभी ब्लॉकों का भार समान है] अर्थात् भूतल के ये असमान ऊंचाई वाले भूभाग] जिसका घनत्व कम है] अपने नीचे स्थित अधिक घनत्व वाले भाग में घुसे हुए हैं।
जैसे किसी प्लावी हिमखंड का 1@10 भाग समुद्र जल के ऊपर रहता है और 9@10 भाग समुद्र जल के नीचे रहता है] उसी प्रकार पर्वत] पठार तथा मैदान का जो भाग धरातल पर दिखाई देता है] उससे कई गुना भाग अपने नीचे की घनी शैलों में घुसा हुआ है। तभी पर्वतों जैसे विशालकाय पिंडों का साहुल झुकाव पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि पड़ना चाहिए था। ऐसा सर्वेक्षण पूर्व में पीयेरे बौगर एडंhज के संदर्भ में और जार्ज एवरेस्ट और प्रैट ने क्रमशः गंगा-सिंधु मैदान एवं हिमालय के संदर्भ में किये थे। यदि ये पर्वत पृथ्वी की सतह पर ऊपर से रखे गए विशाल ढेर के रूप में होते] तो इनके द्वारा साहुल का झुकाव इतना ही होता] जितना कि गणित भी सहायता से निकाला जाता है। लेकिन ऐसा न होकर गणितीय और साहुल के झुकाव में पर्याप्त अंतर पाया गया। इसी प्रश्न का उत्तर समस्थिति की संकल्पना में देने का प्रयास किया गया है।
प्रैट की समस्थिति की परिकल्पनाः सन् 1855 ई- में गंगा-सिंधु के मैदान का सर्वेक्षण का कार्य किये थे। उन्होंने हिमालय द्वारा होने वाले साहुल झुकाव का गणित की सहायता से हिसाब लगाया था] जो 15-885 सेकेंड आया। अतः प्रैट इस समस्या के समाधान की खोज में लग गये और पर्याप्त सोच विचार के पश्चात् अपनी कल्पना को मूत्त रूप देने में सफल हुए। प्रैट का कहना है कि भूपृष्ठ के विभिन्न ब्लॉक जैसे- पर्वत] पठार]मैदान तथा महासागरीय धरातल] जो अलग-अलग स्तम्भ के रूप में है] विभिन्न घनत्व वाली शैलों से निर्मित है। इनके अनुसार पर्वत जो काफी हल्की शैलों से बने हुए हैं] काफी ऊपर को उठे हुए हैं] पठार जिसकी शैलें पर्वत से भारी हैं] कुछ नीचे को दबे हुए हैं और पठार भी रचना करते हैं। मैदान की शैलें और भी भारी हैं] जिससे इनकी ऊंचाई पठार से भी कम है। महासागरीय गर्त स्तंभ सबसे भारी शैलों से निर्मित होने के कारण अत्यधिक दबे हुए हैं और गर्त के रूप में भूपृष्ठ के अंग हैं। इस प्रकार विभिन्न ब्लाकों की शैलों के घनत्व के अंतर के आधार पर प्रैट ने अपनी बात समझाने का प्रयास किया है।
जार्ज एयरी की समस्थितिकी परिकल्पनाः जार्ज एयरी ने प्रैट के विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् इस विचार से अपनी असहमति प्रकट की] क्योंकि एयरी ने अनुभव किया कि पर्वत] पठार तथा मैदान के नीचे विभिन्न घनत्व की शैलों की परिकल्पना उचित नही है। सच तो यह है कि पर्वत] पठार और मैदान समान घनत्व के शैलों से निर्मित हैं। एयरी यह तो स्वीकार करता है कि पर्वत] पठार आदि ब्लॉक के रूप में भूपृष्ठ का भाग है और अपने नीचे की शैलों के ऊपर तैर भी रहे हैं। एयरी ने पर्वत, पठार] मैदान की ऊंचाई की भिन्नता को समझाने के लिए एक अन्य क्रियाविधि का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि यदि उपर्युक्त विभिन्न ब्लॉकों की शैलों का घनत्व तो समान हो] पर उनके आकार में अंतर हो] तो भी ब्लॉक विभिन्न ऊंचाइयों को प्राप्त करेंगे। जिस ब्लॉक का आकार बड़ा होगा] वह अपने नीचे की शैलों में अधिक गहराई पर प्रवेश करेगा और धरातल के ऊपर अधिक ऊंचाई को भी प्राप्त करेगा] जबकि छोटे आकार वाला ब्लॉक अपने नीचे की शैलों में कम गहराई तक प्रवेश करेगा और धरातल के ऊपर भी कम ऊंचाई को प्राप्त करेगा।
जार्ज एयरी के मतानुसार समस्थितिः साथ ही एयरी ने पर्वत के जड़ सिद्धांत को भी प्रतिपादित किया और कहा कि पर्वत] पठार] मैदान तथा गर्त] जो भूपृष्ठ के ही अंग हैं] विभिन्न मोटाई के हैं और अपनी-अपनी मोटाई के अनुसार ये अपने-अपने नीचे जड़ों को लिए हुए हैं।
यदि प्रैट तथा एयरी के मतों का आधुनिक भूगर्भीय जानकारी के प्रकाश में अध्ययन किया जाए, तो विदित होगा कि प्रैट एवं एयरी दोनों के मत सत्य भी हैं और असत्य भी। कहीं एयरी का मत सत्य है, तो प्रैट का असत्य और जहां प्रैट का मत सत्य है, वहां एयरी का मत असत्य।
भूगर्भ की आधुनिकतम जानकारी के अनुसार भूपृष्ठ के दोनों भागों- महासागरीय तथा महाद्वीपीय भूपृष्ठ दोनों के घनत्व में अंतर है। महाद्वीप ग्रेनाइट शैल से बने हैं। जिसका घनत्व 2-7 है, जबकि महासागरीय भूपृष्ठ बेसाल्ट शैल से बना है, जिसका घनत्व 3-0 है। अब यदि प्रैट के मत को समस्त भूपृष्ठ के दोनों भागों पर लागू करें, तो विदित होगा कि यहां प्रैट के मत में पूर्ण सच्चाई है। महाद्वीप इसलिए उठे हुए हैं क्योंकि ये हल्के शैल से निर्मित हैं, जबकि महासागरीय भूपृष्ठ भारी शैल से निर्मित होने के कारण दबी हुई है। इस परिस्थिति में एयरी का यह कहना है कि महाद्वीप और महासागरीय गर्तों की शैलों के घनत्व में अंतर नहीं है, प्रत्युत इनके आकार अर्थात् मोटाई में अंतर है, पूर्णतया गलत है। लेकिन हम जब प्रैट के मत को महाद्वीपों के विभिन्न ब्लॉकों पर लागू करते हैं, तो प्रैट का मत असत्य प्रतीत होता है। यहां एयरी के मत को रखने पर सत्य प्रतीत होता है। एयरी के अनुसार पर्वत, पठार और मैदान विभिन्न आकार और ऊंचाई के हैं। इसलिए अपनी-अपनी ऊंचाई के अनुसार भूगर्भ में डूबे हुए हैं और धरातल के ऊपर उठे हुए भी हैं। स्पष्ट है कि एयरी के मत को केवल महाद्वीपों के तीन ब्लॉकों पर लागू किया जाए, तो एयरी का मत पूर्णतः सत्य प्रतीत होता है और यहां प्रैट का मत असत्य लगता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रैट तथा एयरी के विचारों में आंशिक रूप से सत्यता की झलक दिखाई देती है।
Question : ए. वेगनर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना का समालोचनात्मक मूल्यांकन करें।
(2006)
Answer : महाद्वीपों के प्रवाहित होने की संभावना का संकेत सर्वप्रथम एन्टोनियो एनाइडर ने 1858 ई. में दिया था। टेलर ने 1910 ई. में महाद्वीपीय प्रवाह की परिकल्पना के आधार पर मोड़दार पर्वतों के वितरण को स्पष्ट करने का प्रयास किया। परंतु सर्वप्रथम वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन को एक सिद्धांत के रूप में रखा तथा इसके समर्थन में कई महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत किया। वेगनर ने विश्व के विभिन्न भागों में हुए जलवायु परिवर्तन को महाद्वीपीय विस्थापन द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया। उनके अनुसार, कार्बोनिफेरस युग में विश्व के सभी महाद्वीप आपस में जुड़े हुए थे तथा एक महान स्थल खंड पेंजिया के रूप में विद्यमान थे। पेंजिया चारों ओर से एक विशाल सागर से घिरा हुआ था, जिसे उन्होंने पैंथालासा कहा।
आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, प्रायद्वीपीय भारत तथा अंटार्कटिका इस स्थलखंड के दक्षिणी भाग थे, जिसे गोंडवानालैंड के नाम से जाना जाता है। उत्तरी अमेरिका, यूरोप तथा एशिया अंगारालैंड के रूप में पेंजिया के उत्तरी भाग का निर्माण करते थे। अंगारालैंड एवं गोडवानालैंड के बीच टेथिस सागर मौजूद था। वेगनर का यह भी मानना है कि उस समय दक्षिणी ध्रुव दक्षिणी अफ्रीका में डरबन के निकट तथा उत्तरी ध्रुव प्रशांत महासागर में स्थित था। वेगनर का मत है कि पेंजिया महाद्वीप सियाल से तथा पैंथालासा महासागर सीमा से निर्मित था एवं सियाल, सीमा के ऊपर तैर रहा था।
कार्बोनिफेरस युग में पेंजिया का विखंडन प्रारंभ हुआ तथा विखंडित भागों के विभिन्न दिशाओं में प्रवाह के फलस्वरूप महाद्वीपों एवं महासागरों को वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ। उनके अनुसार महाद्वीपों का प्रवाह दो दिशाओं में हुआ। प्रथम गति विषुवत रेखा की ओर हुई, जिसका कारण विषुवतीय क्षेत्र में उभार से उत्पन्न उत्प्लावन बल (Force of buoyancy) को माना गया। यूरेशिया के दक्षिण की ओर प्रवाह तथा अफ्रीका, भारत के उत्तर की ओर प्रवाह के फलस्वरूप टेथिस सागर के मलबों में संपीड़न हुआ तथा आल्पस हिमालय पर्वत श्रेणी का निर्माण हुआ। टेथिस सागर का अवशेष भूमध्यसागर के रूप में मौजूद है। इन महाद्वीपों के विस्थापन के फलस्वरूप ही पैंथालासा का कुछ भाग हिंद महासागर में परिवर्तित हो गया। दूसरी गति पश्चिम की ओर हुई जिसके लिए वेगनर ने सूर्य एवं चन्द्रमा की ज्वारीय शक्ति को उत्तरदायी माना। पश्चिम की ओर प्रवाहित होते हुए उत्तरी एवं द. अमेरिका के पश्चिमी किनारों की चट्टानें सीमा के अवरोध के कारण मुड़ गईं, फलस्वरूप रॉकी व एण्डीज पर्वत श्रेणी का निर्माण हुआ। अतः स्पष्ट है कि वेगनर ने अपने इस सिद्धान्त में महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति के साथ-साथ मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या का भी प्रयास किया है। वेगनर एवं उनके समर्थकों ने महाद्वीपीय विस्थापन के संबंध में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किया हैः
(1) साम्य-स्थापन प्रमाणः वेगनर ने यह विचार दिया है कि आंध्र महासागर के दोनों तटों को ठीक उसी प्रकार मिलाया जा सकता है, जिस प्रकार एक वस्तु के दो टुकड़े करके। दोनों तटवर्ती क्षेत्रों के चट्टानों में भू-वैज्ञानिक दृष्टि से काफी समरूपता पाई जाती है। दोनों तटवर्ती क्षेत्रों कैलिडोनियन तथा हर्सीनियन पर्वत-क्रमों की दिशा तथा बनावट में भी समरूपता पाई जाती है।
(2) पुराजलवायवी प्रमाणः परमाकाबोनिफेरस युग के हिमानीकरण के प्रमाण दक्षिण अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, प्रायद्वीपीय भारत तथा आस्ट्रेलिया से प्राप्त होते हैं। वर्तमान जल एवं स्थलखंड के वितरण के आधार पर इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। वेगनर के अनुसार ये सभी स्थलखंड पेंजिया के रूप में एकत्रित थे एवं उस समय दक्षिणी ध्रुव वर्तमान डरबन के पास स्थित था।
(3) पुराचुम्बकीय प्रमाणः प्राचीन शैलों की चुम्बकीयता के अध्ययन से भी महाद्वीपों के विस्थापन की पुष्टि होती है।
उपर्युक्त प्रमाणों से वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त की पुष्टि होती हैं। परंतु उनके इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी कमी यह है कि महाद्वीपों के विस्थापन के लिए जिन बलों को उत्तरदायी माना है, वह सत्य से परे हैं। सूर्य चन्द्रमा की ज्वारीय शक्ति के कारण महाद्वीपों का पश्चिम की ओर प्रवाह तभी संभव है जब यह ज्वारीय शक्ति वर्तमान शक्ति से 100000 लाख गुना अधिक हो। यदि इतनी अधिक ज्वारीय शक्ति होती तो पृथ्वी का धूर्णन एक वर्ष में ही बंद हो गया होता। इसी प्रकार विषुवत रेखा की ओर प्रवाह के लिए उत्तरदायी शक्ति भी अपर्याप्त है। इस सिद्धान्त की दूसरी कमी यह है कि यदि महाद्वीप रूपी सियाल महासागर रूपी सीमा पर तैर रहे थे तो यह कैसे संभव है कि पश्चिमी की ओर प्रवाहित होते हुए उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी किनारों पर सीमा के द्वारा वलन के फलस्वरूप रॉकी एवं एण्डीज पर्वतों का निर्माण हुआ। यद्यपि महाद्वीपों का विस्थापन हुआ है एवं यह वर्तमान में भी जारी है, परंतु विस्थापन उस रूप में तथा उस बल के कारण नहीं हो रहा है, जिसकी कल्पना वेगनर ने की है। वास्तविकता यह है कि महाद्वीपों का नहीं, बल्कि प्लेटों का विस्थापन हो रहा है। चूंकि महाद्वीप एवं महासागर प्लेट के ही अंग हैं, अतः इनका भी विस्थापन हो रहा है। विस्थापन के लिए समान्यतः संवहन तरंगों को उत्तरदायी माना जाता है। इन आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त के द्वारा अनेक भौगोलिक एवं भू-वैज्ञानिक समस्याओं को सुलझाने में सहायता मिली है। यह सिद्धान्त आधुनिक प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त का एक महत्वपूर्ण आधार है।
Question : स्थलाकृतियों के उद्भव में संरचना एक प्रमुख नियंत्रक कारक है। उपयुक्त उदाहरणों के साथ विवेचना कीजिए।
(2005)
Answer : किसी भूदृश्य के विकास में उसकी संरचना का महत्व सर्वोपरि है, किंतु साथ-साथ अपरदन के प्रक्रम तथा विकास की अवस्था का भी स्थलाकृतियों के उद्भव पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर डेविस ने कहा है कि स्थलाकृतियों का उद्भव संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल है। वास्तव में, किसी भी भूदृश्य के विकास में यही तीन प्रमुख नियंत्रण कारक हैं। इन तीनों में भी संरचना स्थलाकृतियों के विकास का प्रमुख नियंत्रक कारक है।
जहां तक संरचना शब्द का प्रश्न है, इसका प्रयोग व्यापक अर्थ में किया जाता है। इसका तात्पर्य न केवल प्रादेशिक भू-वैज्ञानिक संरचना वलन भ्रंश या अन्य स्थूल भू-रचनाओं से है बल्कि इसमें चट्टानों की प्रकृति और विशेषताएं उसके भौतिक या रासायनिक गुण, उसकी पारगम्यता, घुलनशीलता, संभेद का रूप इत्यादि सम्मिलित हैं। प्रायः चट्टानों का प्रभाव स्थलाकृति पर पड़ता है, किंतु इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा कि जहां चट्टानों की संरचना का प्रभाव स्पष्ट नहीं है, वहां इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। कभी-कभी ऐसा इसलिए होता है कि बहुत बड़े क्षेत्र में संरचना एक ही प्रकार की होती है और इसलिए इसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है। चट्टानी संरचना का स्थलाकृतियों के निर्माण पर पड़ने वाले प्रभावों को कई उदाहरणों से समझा जा सकता है।
पहाड़ी तथा पठारी क्षेत्रों में नदियों द्वारा अपरदित स्थलाकृति अलग-अलग प्रकार की होती है। भारत के हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली नदियां अपने उद्गम क्षेत्र में तीव्र तलीय अपरदन के द्वारा गार्ज तथा कैनियन जैसी आकृति बनाती हैं। इसका मूल कारण यह है कि हिमालय की चट्टानें भू-वैज्ञानिक दृष्टि से नवीन तथा मुलायम होने के कारण नदियों द्वारा तेजी से अपरदित हो रही हैं। इसके विपरीत पठारी भू-भाग की चट्टानी संरचना प्राचीन तथा कड़ी होने के कारण धीरे-धीरे अपरदित हो रही हैं। यहां की नदियां गहरे गार्ज तथा कैनियन बनाने के बजाय एक निश्चित चौड़ाई की घाटी निर्मित करती हैं। पुनः दक्षिण भारत के पठारी भू-भाग में कड़ी तथा मुलायम चट्टानों के कई स्तर मिलते हैं, जो जल प्रपात की उत्पत्ति में सहायक होते हैं। इसमें ऊपरी मुलायम चट्टानी परत तो जल्द अपरदित हो जाती है, लेकिन निचली कठोर परत धीरे-धीरे अपरदित हो पाती है। पठारी भू-भाग की स्थलाकृति के अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ होने का भी यह एक प्रमुख कारण है। पुनः हिमालयी तथा पठारी क्षेत्रों की चट्टानी संरचनाओं में असमता होने के कारण इन दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग प्रवाह प्रणाली का विकास हुआ है। सामान्यतः जल प्रवाह विन्यास को दो प्रमुख विभागों में बांटा जाता है।
(1) अनुवर्ती जल-प्रवाह विन्यास
(2) अनानुवर्ती जल-प्रवाह विन्यास
अनुवर्ती जल प्रवाह प्रणाली में भू-संरचना और प्रवाह प्रणाली के विकास में अनुरूपता पायी जाती है, किंतु अनानुवर्ती जल प्रवाह विन्यास में भू-संरचना और प्रवाह प्रणाली में विस्वरता (Discordance) पायी जाती है। अर्थात अनुवर्ती जल-प्रवाह विन्यास में जल-प्रवाह का विकास संरचना और ढ़ाल द्वारा नियंत्रित होता है तथा नदियां संरचना से समायोजित रहती हैं, किंतु अनानुवर्ती जल प्रवाह विन्यास में इन दोनों में कोई स्पष्ट संबंध या तालमेल नजर नहीं आता है।
बहते हुए जल द्वारा सामान्य अपरदन तथा कार्स्ट क्षेत्रों में किया गया अपरदन स्पष्ट रूप से भिन्न होता है। सामान्य अपरदन में मुख्यतः गार्ज, कैनियन, क्षिप्रिकाएं, जल प्रपात, नदी वेदिकाएं, संरचनात्मक सोपान इत्यादि आते हैं, जबकि कार्स्ट क्षेत्रों में जल द्वारा उत्पादन के फलस्वरूप मुख्यतः लैपीज, युवाला, डोलाइन, पोल्जे, कंदरा या गुफा तथा प्राकृतिक पुल जैसे स्थलाकृति निर्मित होते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि कार्स्ट क्षेत्रों की चट्टानें चूने, पत्थरों के गैस से निर्मित होती है, जो जल के साथ घुलन तथा अन्य रासायनिक क्रियाओं के द्वारा एक अलग प्रकार की स्थलाकृति का विकास करते हैं।
संरचनात्मक विविधता के ही कारण शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में वायु द्वारा अपरदन के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियां निर्मित होती हैं। तीव्र पवन के साथ उड़कर चलने वाले पत्थर के कण अधिक नुकीले तथा प्रखर धार वाले एवं कठोर होते हैं। यदि चट्टान की बनावट विभिन्न संरचना वाली चट्टानों की है तो ये नुकीले पत्थर के टुकड़े कोमल तथा कम प्रतिरोधी शैलों का अधिक अपरदन करके उन्हें चट्टानों से अलग कर लेते हैं, परंतु प्रतिरोधी शैलें अप्रभावित रहती हैं। इसी कारण जालीदार शैल की रचना हो जाती है। यदि चट्टानों के स्वर लंबवत् रूप में धरातल पर खड़े होते हैं, तो अपरदन अधिक होते हैं।
मरुस्थली भागों में कठोर तथा कोमल चट्टानों के स्तरों में क्रमिक समरूपता होने पर छत्रक शिला, भू-स्तंभ, ज्यूगेन, यारदांग तथा जालीदार शिला जैसी स्थलाकृतियों का विकास होता है। इन सबके के विकास में एक बात समान है कि कोमल चट्टानें शीघ्रता से नष्ट हो जाती हैं व कठोर शैलें लगभग ज्यों की त्यों खड़ी रह जाती हैं।
हिमनदों तथा सागरीय तरंगों द्वारा भी अपरदन के फलस्वरूप कई स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इन दोनों क्षेत्रों में चट्टानी संरचना के स्वरूप स्थलाकृति के विकास को निर्धारित करते हैं। ऊंचे पर्वतीय प्रदेशों में वलन, भ्रंश तथा अन्य संरचनात्मक विशेषताएं स्थलाकृतियों के विकास को निर्धारित करते हैं। हिमनदों द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों जैसे सर्क, हार्न, नुनाटक, श्रृंग पुच्छ, तथा रॉश मुटोने एवं सागरीय तरंगों द्वारा विकसित स्थलाकृतियों जैसे तटीय क्लिफ, तटीय कंदरा, तरंग घर्षित बेदी में चट्टानी संरचना का प्रभाव स्पष्टतः नजर आता है।
यारडांग
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि एक स्थलखंड की संरचना का निर्माण पहले होता है और बाद में विभिन्न अपरदन की प्रक्रियाओं के प्रभाव से विभिन्न स्थलाकृतियां उस पर विकसित होती हैं। अर्थात संरचना भू-आकृति से पुरानी है और एक प्रकार से आधार का काम करती है। इस पर विभिन्न अपरदन की क्रियाएं काम करती हैं, जिसके फलस्वरूप विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
Question : पृथ्वी की आंतरिक दशा के अध्ययन में भूकंपीय तरंगों की भूमिका।
(2005)
Answer : भूकंप-विज्ञान वह विज्ञान है, जिसमें भूकंपीय लहरों का सीस्मोग्राफ यंत्र द्वारा अंकन किया जाता है। यही एक ऐसा प्रत्यक्ष साधन है, जिससे पृथ्वी के आंतरिक भाग की बनावट के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है।
जिस जगह से भूकंप का कंपन प्रारंभ होता है उसे भूकंप मूल (focus) कहा जाता है तथा जहां पर भूकंपीय लहरों का अनुभव सबसे पहले किया जाता है, उसे भूकंप केंद्र कहते हैं। भूकंप के दौरान पृथ्वी में कई प्रकार की लहरें उत्पन्न होती हैं। इन लहरों को भूकंपीय लहर कहते हैं। मुख्य रूप से भूकंपीय लहरों को तीन श्रेणियों में रखा जाता हैः
इन तरंगों की गति और भ्रमण पथ के आधार पर पृथ्वी के आंतरिक भाग की जानकारी प्राप्त की जाती है। भूकंपीय लहरें प्रायः ठोस भाग से होकर गुजरती हैं तथा एक ही स्वभाव वाले ठोस भाग (homogeneous solid) में ये लहरें एक सीधी रेखा में चलती हैं। इस आधार पर अगर पृथ्वी एक ही प्रकार की घनत्व की चट्टानों से निर्मित एक ठोस भाग होती तो भूकंपीय लहरें समान गति से पृथ्वी के कोर तक एक सीधी रेखा में पहुंच जाती। परंतु भूकंप केंद्रों पर इन लहरों के अंकन से ज्ञात होता है कि ये लहरें एक सीधी रेखा में न चलकर वक्राकार मार्ग का अवलंबन करती है। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के भीतर घनत्व में विभिन्नता है। S लहरों का यह स्वभाव होता है कि वे तरल पदार्थों से होकर नहीं गुजरती हैं। पृथ्वी के कोर में S लहरों का पूर्णतया अभाव यह प्रमाणित करता है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में तरल अवस्था में एक कोर (core) है, जो कि 2900 किमी. से अधिक गहराई में केंद्र के चारों ओर विस्तृत है।
इतना ही नहीं, यदि भूकंपीय लहरों की गति तथा स्वभाव का अध्ययन किया जाय, तो पृथ्वी के अंदर कई घनत्व क्षेत्रों का आभास मिलता है। वैज्ञानिक खोजों के आधार पर कुछ और लहरों तथा P और S लहरों की श्रेणियों का अध्ययन किया जाता है। यह प्रमाणित तथ्य है कि जब चट्टानों के घनत्व में अंतर आता है, तभी भूकंपीय लहरों की गति में अंतर आता है। इस प्रकार भूकंपीय लहरों की गति के आधार पर प्रमाणित होता है कि उसकी गति में तीन जगहों पर अंतर आता है। अतः पृथ्वी के अंदर भी तीन जगहों पर अंतर आता है। इस आधार पर यह प्रमाणित किया जाता है कि पृथ्वी के अंदर ऊपरी परतदार चट्टानों की पतली परत के नीचे विभिन्न परतें पाई जाती हैं, जिसके घनत्व में अंतर पाया जाता है।
इस प्रकार पृथ्वी की आंतरिक दशा के अध्ययन में भूकंपीय तरंगे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
Question : अंतर्जात बलों के फलस्वरूप बनी भू-आकृतियों का वर्णन कीजिए।
(2004)
Answer : ऐसी बहुत सी भूगर्भिक प्रक्रियाएं, शक्तियां एवं इनके द्वारा जनित संचलन हैं जो पृथ्वी पर भूगर्भिक पदार्थ तथा विभिन्न प्रकार के उच्चावच लक्षणों के निर्माण, विनाश, पुनर्निर्माण तथा संवर्धन में लगे रहते हैं। इन बलों को दो विस्तृत विभागों में बांटा जाता है - अंतर्जात बल तथा बहिर्जात बल। पृथ्वी के आंतरिक भाग से उत्पन्न होने वाले बल को अंतर्जात बल कहा जाता है। पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले बल बहिर्जात बल कहे जाते हैं।
तीव्रता के आधार पर अंतर्जात बलों को दो भागों में विभाजित किया जाता है।
(1) पटल विरुपणी संचलन के अंतर्गत पृथ्वी के आंतरिक भाग से उत्पन्न होने वाली लंबवत् तथा क्षैतिज बलों को सम्मिलित किया जाता है। पटल विरुपणी बल मंद गति से कार्य करते हैं तथा इनका प्रभाव हजारों वर्ष बाद परिलक्षित होता है। इन बलों द्वारा वृहताकार स्थल रूपों का निर्माण होता है। इन पटल विरुपणी बलों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
(अ) महादेशीय संचलन (Epeirogenetic movement): ‘Epeirogenetic’ शब्द (Epeiro - महाद्वीप, भूमि) का अर्थ है महाद्वीप या भूमि की उत्पति। इस संचलन से महाद्वीपों में उत्थान तथा अवतलन की क्रियाएं होती हैं। लंबवत बलों द्वारा उत्पन्न ये संचलन इतनी मंद गति व इतने विस्तृत क्षेत्र पर कार्य करती है कि चट्टानों में कोई खास भ्रंशन या वलन नहीं हो पाता।
प्रत्येक महाद्वीप, यहां तक कि अंटार्कटिका पर भी उपरिमुखी संचलन तथा अधोमुखी संचलन के प्रमाण मिलते हैं। मैक्सिको की खाड़ी के उत्तरी तट के एक बड़े भाग का काफी मंद गति से अवतलन हो रहा है। ब्रिटिश कोलंबिया के तट के निकट बहुत से द्वीपों का निर्माण महादेशीय संचलन के फलस्वरूप हुआ है। एक अनुमान के अनुसार स्कैंडिनेविया का 900 फीट तक उत्थान हुआ है। भारत में ही बहुत से स्थान पहले समुद्र तट पर हुआ करते थे, अब वे कई मील भूमि के अंदर मिलते हैं। जैसे कोरिंगा, कावेरीपट्टनम इत्यादि।
(ब) पर्वतीय संचलन (Orogenetic movements/Forces): ओरोजेनेटिक बल (oros पर्वत, genetic निर्माण) का मतलब है पर्वत निर्माणकारी बल। इन पर्वतन बलों के अंतर्गत अंतर्जात बल प्रायः क्षैतिज रूप से कार्य करते हैं। ये संचलन प्लेट किनारों के व्यवहार से संबंधित हैं तथा इनके द्वारा चट्टानों में वलन, भ्रंशन तथा क्षेपण होता है। पर्वतन बलों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः (i) संपीडनात्मक बल तथा (ii) तनावमूलक बल।
(i) संपीडनात्मक बलः जब बल आमने-सामने कार्य करता है तो इसके फलस्वरूप संपीडन होता है। ये बल कई प्रकार के वलन का निर्माण करते हैं।
इस प्रकार के वलन तथा ग्रीवा खंड वलित पर्वत क्षेत्रों में विस्तृत रूप से पाये जाते हैं। इस प्रकार प्रवर्तन बल के कारण बलित पर्वतों का निर्माण होता है जो पृथ्वी पर एक वृहत स्थल रूप हैं।
(ii) तनावमूलक बलः जो बल एक-दूसरे के विपरीत दिशा में कार्य करते हैं, वे तनावमूलक बल कहलाते हैं। इन बलों के कारण निम्न प्रकार के भ्रंशों का निर्माण होता हैः
(2) आकस्मिक बल: उन बलों द्वारा उत्पन्न घटनायें आकस्मिक होती हैं तथा अचानक ही इसके द्वारा भूतल पर विनाशकारी परिवर्तन हो जाते हैं। इन आकस्मिक संचलनों यथा भूकंप तथा ज्वालामुखी द्वारा विभिन्न स्थलाकृतियों का जन्म होता है। भूकंप द्वारा भ्रंश, विभंग इत्यादि का निर्माण होता है
ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतिः ज्वालामुखी वह क्रिया है जिसके अंतर्गत पृथ्वी के भीतर गैस एवं लावा की उत्पति से लेकर उनके पृथ्वी के भीतर तथा बाहर प्रकट होने की सभी क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं। इनसे निर्मित स्थलाकृतियों को निम्न भागों एवं उपविभागों में बांटा जा सकता है-
(i) बाह्य स्थलाकृति (Entrusive Topography)
(1) केंद्रीय विस्फोट द्वारा निर्मित स्थलाकृति
(अ) ऊंचे उठे भाग (Elevated Forms):
(ब) निचले भाग (Depressed forms):
(2) दरारी उद्गार द्वारा निर्मित स्थलरूपः
(II) आभ्यान्तरिक स्थलाकृति (Intrusive Topography)
इसके अंतर्गत बैथोलिथ, लैकोलिथ, सिल डाइक इत्यादि स्थलरूपों का निर्माण भू-पटल के सतह के नीचे होता है जो अपरदन द्वारा दृश्य हो पाते हैं।
Question : तटीय क्षेत्रों से संबंधित स्थलाकृतियों के क्रमिक विकास की व्याख्या कीजिए।
(2003)
Answer : तटीय प्रदेशों में स्थलाकृतियों के विकास के दूत के रूप में मुख्यतः समुद्री तरंग कार्य करते हैं। इसका आधार भी बहते हुए जल की तरह समुद्र तल ही होता है। तटीय प्रदेश के ऊपरी भाग में मुख्यतः अपरदनात्मक स्थलाकृति का विकास होता है, जबकि निम्न भाग में निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतियों का विकास होता है। कई भूगोलवेत्ताओं द्वारा तटीय अपरदन चक्र का सिद्धांत भी दिया गया है। इसमें सबसे पहला सिद्धांत गिलवर्ट-लोबेक द्वारा दिया गया है। बाद में जोहांसन महोदय ने भी इस पर अपना विचार प्रस्तुत किया है। इन विद्वानों के अनुसार युवावस्था में मुख्यतः अपरदन का कार्य होता है। समुद्री तरंगों द्वारा समुद्री कगार जैसी स्थलाकृतियां विकसित होती हैं। प्रौढ़ावस्था में अपरदन तथा निक्षेप के बीच सामंजस्य स्थापित होता है। ज्वारीय तरंगें रोधिकाओं को तोड़कर जल निकासी का मार्ग बनाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि बालू तथा नदी के निक्षेप से धीरे-धीरे लैगून भर जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप तट का किनारा सीधा हो जाता है तथा बालू रोधिका स्पिट तथा तटीय हुक की पहचान कठिन हो जाती है। वृद्धावस्था एक ऐसी स्थिति है, जब तटीय स्थल पर समुद्री तरंगों की अपरदनात्मक क्षमता समाप्त हो जाती है, क्योंकि ढाल अत्यंत ही मंद हो जाती है तथा तटीय भूमि आधार तल को प्राप्त कर लेती है।
अपरदन से निर्मित प्रमुख स्थलाकृतियां: अपरदन से विकसित स्थलाकृतियों में निम्नलिखित स्थलाकृतियां महत्वपूर्ण हैं:
(i) समुद्री कगारः समुद्री कगार का विकास जलमग्न तथा ऊष्णमग्न दोनों ही प्रकार के तट के किनारे होता है। लेकिन इसका सर्वाधिक विकास का ढाल स्वतः तीव्र होता है और तीव्र ढाल पर समुद्री तरंगों का अपरदनात्मक प्रभाव और भी अधिक तीव्र होते हैं। अतः निचली भूमि के अपरदन से ऊपरी भूमि असंतुलित होकर नीचे गिर पड़ती है, तो समुद्री कगार न सिर्फ तीव्र होते हैं, वरन् पीछे भी हटते हैं। इस प्रकार के कगार भारत के पश्चिमी तट पर बहुलता से मिलते हैं।
(ii) तट घर्षित प्लेटफार्मः समुद्री कगार के पीछे हटने से समुद्री जल का फैलाव स्थल की ओर होता है, क्योंकि कगार निर्माण की प्रक्रिया में अपरदित स्थल मुख्यतः समुद्र का ही अंग बन जाता है। इसकी ढाल समुद्र की ओर होती है तथा उच्च ज्वार के समय ये जलमग्न हो जाते हैं और निम्न ज्वार के समय दृष्टिगत होते हैं। इसी अपरदित स्थल खंड को समुद्र घर्षित प्लेटफार्म कहा जाता है। इस प्रकार के प्लेटफार्म का विकास भारत के पूर्वी तथा पश्चिमी तट पर हुआ है।
(iii) कोव (cove): कोव एक विशिष्ट स्थलाकृति है, जिसकी उत्पत्ति का संबंध अपरदन के साथ-साथ संरचना से भी है। इस स्थलाकृति का विकास वैसे तटीय प्रदेशों में होता है, जहां कठोर तथा मुलायम चट्टानें लंबवत तथा वैकल्पिक अवस्था में होती हैं। इसी के साथ कठोर चट्टानें तट के समीप हों तथा समुद्री तरंगें उस पर प्रहार करती हों। ऐसी परिस्थिति में कठोर चट्टानों में दरार उत्पन्न हो जाती है और मुलायम चट्टानों का तेजी से अपरदन होने लगता है। इस प्रक्रिया से अनियमित तटीय स्थलाकृति का विकास होता है। मुख्य तट के अग्र भाग में कई जगह पर अर्द्धवृत्ताकार या दावात के आकार की स्थलाकृति विकसित होती है। ऐसी स्थलाकृति को कोव कहा जाता है। ऐसी स्थलाकृति क्यूबा के तट पर देखने को मिलती है।
(iv) तटीय कंदरा तथा उसके रूप: तटीय गुफा, तटीय मेहराब और स्टैक जैसी स्थलाकृतियां एक ही वातावरण में अपरदन कार्य का क्रमिक परिणाम हैं। स्थलाकृतिक वैज्ञानिकों के अनुसार इन तीनों ही स्थ्लाकृतियों का विकास तभी संभव होता है जब किसी स्थल खंड की शीर्ष भूमि हो और शीर्ष स्थल पर समुद्री तरंगों का दो तरफ प्रहार हो। इस प्रभाव अर्थात् अपरदन के परिणामस्वरूप शीर्ष स्तंभ खंड का पार्श्व भाग तेजी से अपरदित होता है। पुनः पार्श्व स्थल खंड का निम्न भाग भी अपरदित होकर उसके दोनों तरफ गुफा जैसी स्थलाकृति का विकास करता है। इसे ही तटीय गुफा कहा गया है। कुछ समय के बाद दो दिशाओं से विकसित हो रही गुफाएं एक दूसरे से मिल जाती हैं और समुद्री जल का प्रवाह आर-पार होने लगता है। इसके परिणामस्वरूप मिश्रित गुफा की आकृति मेहराब जैसी हो जाती है। इसे ही तटीय मेहराब कहा गया है। उच्च ज्वार के समय तटीय मेहराब में जल भरा होता है, लेकिन निम्न ज्वार के समय उसमें वायु प्रवाह भी होता है। अतः मेहराब के छत का अपरदन जल और वायु दोनों के द्वारा होता है। कुछ समय के बाद छत कमजोर होकर समुद्र की तली पर गिर जाते हैं। छत के नीचे गिरने से शीर्ष का अग्र भाग मुख्य भूमि से अलग हो जाता है। मुख्य भूमि और स्टैक के बीच उच्च ज्वार के समय कोई संपर्क नहीं रहता है, लेकिन निम्न ज्वार के समय संपर्क की संभावना होती है। इन स्थलाकृतियों को दिये गये मानचित्रें की मदद से समझा जा सकता है।
(v) निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतिः जैसा कि पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है निक्षेप से स्थलाकृतियों का विकास निम्न तटीय क्षेत्रों में होता है। ये वो स्थलाकृतियां होती हैं जो उच्च ज्वार के समय के समय जलमग्न हो जाती हैं, किंतु निम्न ज्वार के समय दृष्टिगत होती हैं। इन स्थलाकृतियों को मुख्यतः चार वर्गों में रखते हैंः
(i) समुद्री पुलिन, (ii) वायु रोधिका, (iii) स्पिट, (iv) हुक
(i) समुद्री पुलिनः समुद्री पुलिन तट के किनारे वृहद् क्षेत्र में निक्षेपित स्थलाकृति है। बालू की प्रधानता के कारण ये बालू के मैदान जैसा प्रतीत होता है, लेकिन इसके ऊपरी भाग में विभिन्न आकार की ‘चट्टानें निक्षेपित होती हैं। वस्तुतः शीतोष्ण और ध्रुवीय प्रदेशों में बालू पुलिन नहीं के बराबर पाये जाते हैं। हिमानी प्रभाव के कारण उसके तटीय क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के बोल्डर क्ले की बहुलता होती है और इसकी बहुलता के कारण तटीय मैदान रूखड़े होते हैं। वस्तुतः बालू निर्मित स्थलाकृति ऊष्ण और उपोष्ण जलवायु प्रदेश की विशेषता होती है। पश्चिमी भारत के तट पर यह बहुलता से पायी जाती है।
(ii) बालू रोधिकाः बालू रोधिका तटबंध के आकृति की स्थलाकृति है। ये समुद्री तट के समान्तर पाये जाते हैं। समुद्री तट और बालू रोधिका के बीच लैगून का विकास होता है। बालू रोधिका के विकास का मूल कारण है वे लौटती तरंगे जो जल स्तर के नीचे लाये गये कणों को निक्षेपित कर देती हैं। कुछ अंतराल के बाद वहां तटबंधीय आकृति का विकास होता है।
(iii) स्पिटः जब सागरीय मलवा का निक्षेप इस प्रकार होता है कि वह रोधिका के रूप में जल की ओर निकला होता है, तो उसे स्पिट कहते हैं। स्पिट का एक भाग तट के शीर्ष स्थल से संलग्न होता है तथा दूसरा सिरा सागर की ओर निकला हुआ तथा खुला होता है।
(iv) हुकः तूफानी तरंगे स्पिट के आकार में परिवर्तन लाती रहती हैं। एक ओर स्पिट के निर्माण में भाग लेने वाली तरंगे उसके सिरे या अग्र भाग पर पदार्थों को जमा करके उसे (स्पिट) सागर की ओर बढ़ाने का प्रयास करती हैं, तो दूसरी ओर अन्य धाराएं तथा तरंगे स्पिट को अपने बल द्वारा मोड़कर उसकी दिशा में परिवर्तन लाने का प्रयास करती हैं। जब मोड़ने वाली तरंग या धारा अधिक प्रबल हो जाती है तो स्पिट का अग्र भाग तट की ओर मुड़ जाता है। धीरे-धीरे यह मोड़ बढ़ता जाता है तथा कुछ समय बाद अंकुश के आकार का हो जाता है। इस तरह तट की ओर मुड़ी हुई स्पिट को हुक कहते हैं। एक हुक के निर्माण के बाद पुनः स्पिट लंबाई में बढ़ने लगती है तथा उपर्युक्त क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण द्वितीय हुक का निर्माण हो जाता है। जब एक स्पिट में कई हुक का निर्माण हो जाता है तो उसे मिश्रित हुक कहा जाता है। जब निक्षेप करने वाली तथा उसे नष्ट करने वाली तरंगों में संतुलन हो जाता है, तो हुक की स्थिति स्थायी हो जाती है।
अतः ऊपर के विश्लेषणों एवं मानचित्रें से स्पष्ट है कि अपरदन के अन्य दूतों के समान समुद्री तरंग भी तटीय प्रदेशों में अनेक विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण करती हैं।
Question : डेविस द्वारा प्रतिपादित भौगोलिक चक्र मॉडल की समालोचना कीजिए।
(2002)
Answer : डेविस महोदय ने सर्वप्रथम 1899 ई. में भौगोलिक-चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन किया। तथा इसके अनुसार भौगोलिक चक्र समय की वह अवधि है, जिसके अन्तर्गत कोई उत्थित-भूखण्ड अपरदन के प्रक्रम द्वारा प्रभावित होकर एक आकृति-विहीन समतल मैदान में बदल जाता है। इस तरह डेविस ने स्थल रूपों के विकास में चक्रीय पद्धति का अवलोकन ऐतिहासिक परिवेश में किया। उन्होंने बताया कि स्थल स्वरूपों के निर्माण एवं विकास पर संरचना, प्रक्रम तथा समय का प्रभाव होता है। इसी आधार पर डेविस ने यह प्रतिपादित किया कि स्थलरूप संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल होता है- "A landscape is a function of structure, process and time." इन तीन कारणों को डेविस के त्रिकट (Trio of Davis) के नाम से जाना जाता है।
उत्थान तथा अपरदन-डेविस का अपरदन-चक्र स्थलखंड में उत्थान के साथ प्रारम्भ होता है। उत्थान की अवधि छोटी होती है तथा जब तक उत्थान चलता रहता है, अपरदन प्रारम्भ नहीं होता। परन्तु जैसे ही उत्थान पूर्ण हो जाता है, अपरदन प्रारम्भ हो जाता है तथा वह चक्र के अंत तक चलता रहता है। इस तरह उत्थान तथा अपरदन कभी साथ-साथ नहीं चलते हैं। लेकिन डेविस का यह मत भ्रामक है क्योंकि प्रकृति में अपरदन उत्थान की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं कर सकती।
भौगोलिक चक्रक का ग्राफ द्वारा प्रदर्शन
उत्थान (लंबी अवधि) चक्र का अंत
(छोटी अवधि)
ऊपरी वक्र-स्थल खंड का उच्चभाग
निचला वक्र- घाटी तल
क ख- ऊंचाई
क ग- समय
अ ब- प्रारम्भिक औसत उच्चावच
स द- अन्तिम अधिकतम उच्चावच
क ग- अपरदन का आधारतल
चक्र को तीन अवस्थाओं में विभक्त किया गया हैः
प्रथम अवस्था- इस अवस्था में स्थलखंड का उत्थान प्रारम्भ होता है। अपरदन के अभाव में ऊंचाई तथा उच्चावच दोनों में वृद्धि होती है।
द्वितीय अवस्था- उत्थान समाप्त हो जाता है तथा अपरदन प्रारम्भ हो जाता है। ऊपरी वक्र पर अपरदन नहीं होता, परंतु निचले वक्र पर अपरदन सर्वाधिक होता है जिससे नदियों की घाटियां अधिक गहरी होती जाती हैं। जबकि, कटक के ऊपरी भाग अपरदन से अप्रभावित रहते हैं। यह चक्र भी तरुणावस्था का लक्षण है।
तृतीय अवस्था- इस अवस्था का समय सबसे अधिक लम्बा होता है तथा इसीके अन्तर्गत अपरदन चक्र की प्रौढ़ावस्था का समय होता है। इस समय नदियां क्रमबद्ध हो जाती हैं तथा संतुलित परिच्छेदिका का निर्माण होता है।
इस अवस्था के बाद उच्चावच तेजी से विलीन होने लगता है और अन्ततः स्थलखंड एक आकृतिविहीन मैदान में बदल जाता है, जिसे डेविस ने पेनीप्लेन नाम दिया है। पेनीप्लेन की सामान्य सतह पर कठोर चट्टानों के भाग अपरदन के अवशेष के रूप में दृष्टिगत होते हैं। इन्हें डेविस ने मोनेडनाक नाम दिया है। यह जीर्णावस्था होती है। चक्र की आलोचना के कई पक्ष दिखायी पड़ते हैं। उन्हें हम निम्नांकित रूप से व्यक्त कर सकते हैं:
(I) जर्मन विद्वानों ने चक्र नामावली को भ्रामक बताया है।
(II) ओ माल महोदय ने बताया है कि डेविस ने अपरदन चक्र की संकल्पना की आवश्यकता से अधिक साधारणीकरण कर दिया है।
(III) डेविस के उत्थान तथा अपरदन के बीच सम्बन्धों की संकल्पना भ्रामक है। अपरदन उत्थान की प्रतीक्षा नहीं कर सकता और जैसे ही उत्थान आरंभ हो जाता है, अपरदन प्रारंभ हो जाता है।
(IV) डेविस ने उत्थान की प्रक्रिया को त्वरित तथा अनायास बताया है। यह मत भ्रामक है। उत्थान का समय लम्बा होता है, जिसके दौरान उत्थान विभिन्न गति से सम्पादित होता है।
(V) डेविस का यह मत कि स्थलखंड उत्थान के पूर्ण हो जाने पर लम्बे समय तक स्थिर अवस्था में रहता है, मान्य नहीं है।
(VI) हैक, चोर्ले, स्ट्रालर आदि ने स्थलरूपों की ऐतिहासिक विकास संकल्पना का खण्डन करते हुए अपरदन-चक्र के पूर्ण अस्वीकरण का नारा लगाया है तथा उसके स्थान पर गतिक सन्तुलन सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।
निश्चय ही अब तक विद्वान डेविस की चक्रीय संकल्पना के पूर्ण अस्वीकण के लिए विश्वसनीय प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। अतः स्थलरूपों के अधययन तथा वर्गीकरण में चक्रीय संकल्पना अब भी सहायक है तथा डेविस की यह संकल्पना भू-आकृति विज्ञान में अमूल्य योगदान है।
Question : भू-अभिनति
(2002)
Answer : साधारण अर्थ में भू-अभिनति का तात्पर्य जल-पूर्ण गर्त से लिया जाता है जिसमें तलछट का जमाव होता रहता है, जिस कारण उनकी तली निरन्तर नीचे धंसती जाती है। परिणामस्वरूप अधिक गहराई तक अवसादों का जमाव हो जाता है। भू-अभिनति लम्बा, संकरा तथा उथला जलीय भाग होती है, जिनमें तलछटीय निक्षेप के साथ-साथ तली में धंसाव होता है।
भू-अभिनति की संकल्पना का विकास वलित पर्वतों की व्याख्या के समय किया गया है। इस क्षेत्र में प्रथम सराहनीय प्रयास का श्रेय हाल तथा डाना नामक दो विद्वानों को जाता है। डाना ने पता लगाया कि वलित पर्वतों की चट्टानों का निक्षेप उथले सागर में हुआ है। निक्षेप के कारण भू-अभिनति की तली में धंसाव होता रहता है, परन्तु जल की गहराई में परिवर्तन नहीं होता। भू-अभिनति लम्बाई की अपेक्षा कम चौड़ी होती है। भू-अभिनति की उन्नति के विषय में मतभेद है। कुछ विद्वानों का कथन है कि धरातल पर तनाव के कारण धरातलीय चट्टानों का प्रसार होता है और सियाल परत पतली होने लगती है तथा लम्बाई में बढ़ती जाती है। इस प्रकार पतली परत नीचे झुक जाती है तथा भू-अभिनति का निर्माण होता है। होम्स के अनुसार संवहनीय धाराओं के मिलन स्थान पर दबाव के कारण तथा उस स्थान पर जहां दो धाराएं विपरीत दिशाओं में धरातल के अधःस्तर में प्रवाहित होती है। तनाव के कारण स्थलीय भाग के अलगाव से भू-अभिनति का निर्माण होता है। कुछ लोग क्षैतिज शक्तियों द्वारा धरातलीय भाग के धंस जाने से भू-अभिनति का निर्माण बताते हैं। डेली ने हिमानी नियंत्रण सिद्धान्त के आधार पर भू-अभिनति का निर्माण नये ढंग से बताया है।
पर्वत श्रेणियों की रचना के आधार पर भू-अभिनति को तीन भागों में विभाजित किया हैµ
1. अन्तर्महाद्वीपीय भू-अभिनति - दो महाद्वीपों या स्थलखंडों के बीच
2. परिमहाद्वीपीय भू-अभिनति - महाद्वीपों के किनारे वाले भागों में
3. परिसागरीय भू-अभिनति - महासागरीय भागों के किनारे वाले भागों में जहां पर स्थलीय भाग का भी किनारा होता है।
शुशर्ट के अनुसार भू-अभिनति को तीन भागों में बांटा गया है -
1. एकल भू-अभिनति 2. बहुल भूअभिनति 3. मध्यस्थ भू-अभिनति
भू-अभिनतियों का पवर्त निर्माण से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। हर वलय एवं मोड़दार पर्वत के स्थान पर पहले भू-अभिनतियां ही विराजमान थीं। उदाहरणस्वरूप- टेथिस भू-अभिनति ही हिमालय पर्वत के निर्माण का कारण बनी है।
अतः भूअभिनतियां भूगोल में अधययन का एक प्रमुख विषय हैं।
Question : भू-संतुलन सिद्धांत का एक आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए।
(2001)
Answer : भू-संतुलन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम डटन द्वारा किया गया। भू-पटल के विस्तृत खंड जैसे महाद्वीप, सागरीय नितल, पर्वत, पठार, मैदान आदि अलग-अलग ऊंचाई रखते हुए भी तीव्र गति से परिक्रमण एवं घूर्णन करती हुई पृथ्वी पर संतुलित रूप से स्थित हैं। भू-पटल अपेक्षाकृत अधिक घनत्व से निर्मित प्लास्टिक दुर्बलमंडल पर तैर रहा है। तैरते हुए भू-पटल के विभिन्न खंडों के मध्य स्थित संतुलन की आदर्श दशा को ही भू-संतुलन कहा जाता है। 1855 ई. में गंगा-सिंधु मैदान में अक्षांश निर्धारण के दौरान हिमालय के गुरुत्वाकर्षण में विसंगित दिखायी दी। गुरुत्वाकर्षण की इस विसंगति की व्याख्या के फलस्वरूप भू-संतुलन के सिद्धांत का जन्म एवं विकास हुआ।
एयरी का यह मानना है कि महाद्वीपीय भाग हल्के सियाल से निर्मित हैं एवं दुर्बलमंडल पर तैर रहे हैं। उनके अनुसार भू-पटल के ऊंचे उठे हुए भाग अधःस्तर अधिक गहराई तक प्रविष्ट हैं। इस प्रकार में ऊंचे उठे हुए भाग काफी गहराई तक अपनी लंबी जड़ से अधःस्तर के अधिक घनत्व वाले भाग को विस्थापित कर देते हैं, फलस्वरूप ऊंचे उठे भागों के नीचे काफी गहराई तक हल्के पदार्थों का विस्तार होता है। ऐसी स्थिति पर्वतों के साथ पायी जाती है एवं पर्वत अधिक ऊंचाई के बावजूद संतुलित होकर भू-पटल पर स्थित रहते हैं। इसके विपरीत कम ऊंचे भाग या निचले भाग अधःस्तर में कम गहराई तक प्रविष्ट होते हैं, अतः वे अधिक घनत्व वाले पदार्थों को कम मात्र में विस्थापित कर पाते हैं एवं उनके नीचे अधः स्तर का अधिक घनत्व वाला पदार्थ अधिक मात्र में मौजूद रहता है। इस प्रकार ऊंचे उठे हुए भाग एवं निचले भाग एक साथ संतुलित होकर खड़े रहते हैं। एयरी के मत की पुष्टि करते हुए होम्स ने स्वीकार किया है कि ऊंचे उठे हुए भागों की रचना हल्के पदार्थों से हुई है एवं उन्हें संतुलित रखने के लिए उनका अधिकांश भाग गहराई तक नीचे की भारी चट्टानों में डूबा रहता है। इस प्रकार उन्होंने एयरी की ‘जड़ संकल्पना’ का समर्थन किया है। जॉली ने भी एयरी के मत का समर्थन किया है।
यदि एयरी के मत को केवल महाद्वीप के संदर्भ में देखा जाये तो उनका मत सत्य प्रतीत होता है। पर्वत, पठार एवं मैदान तीनों ही ग्रेनाइट चट्टानों से निर्मित हैं एवं उनका घनत्व समान है। घनत्व में समानता के बावजूद इनकी ऊंचाई में असमानता है, अतः स्पष्ट है कि ये सभी ब्लॉक अपनी-अपनी ऊंचाई के अनुसार भू-गर्भ में डूबे हुए हैं। परंतु यदि एयरी के मत को संपूर्ण भू-पटल पर लागू किया जाये, तो पता चलता है कि महाद्वीप एवं महासागर दोनों अलग-अलग घनत्व की चट्टानों से निर्मित हैं। महाद्वीप हल्की चट्टान से निर्मित होने के कारण ऊपर उठे हुए हैं एवं महासागर भारी चट्टानों से निर्मित होने के कारण नीचे दबे हुए हैं। अतः स्पष्ट है कि इन दोनों ब्लॉकों की ऊंचाई में अंतर घनत्व के अंतर के कारण है, न कि इनके आकार में अंतर के कारण। एयरी की दूसरी आलोचना यह है कि यदि यह माना जाए कि पर्वतों की जड़ें होती हैं तो हिमालय जैसे पर्वत की जड़ काफी लंबी होगी, जो अधःस्तर में अत्यधिक गर्मी के कारण पिघल जायेगी।
प्राट ने हिमालय के गुरुत्वाकर्षण की विसंगति की व्याख्या करते हुए यह बताया कि हिमालय का वास्तविक आकर्षण अनुमानित आकर्षण से इसलिए कम है, क्योंकि पर्वत कम घनत्व वाले चट्टानों से निर्मित हैं। उनके अनुसार पर्वतों का घनत्व पठारों से कम, पठारों का मैदानों से कम तथा मैदानों का घनत्व समुद्र तल की चट्टानों से कम है। अर्थात् ऊंचाई एवं घनत्व में विपरीत संबंध पाया जाता है। जो स्तंभ जितना ऊंचा है, उसका घनत्व उतना ही कम होगा एवं जो स्तंभ जितना ही नीचा है, उसका घनत्व उतना ही अधिक होगा। प्राट की धारणा थी कि नीचे एक ऐसा तल है जिसके ऊपर घनत्व में अंतर पाया जाता है एवं जिसके नीचे घनत्व समान होता है। इस प्रकार एयरी एवं प्राट के मतों में मूलभूत अंतर यह है कि जहां एयरी के अनुसार विभिन्न स्तंभों का घनत्व एक समान होता है एवं उनकी गहराई में अंतर होता है, वहीं प्राट के अनुसार गहराई समान रहती है, लेकिन घनत्व में अंतर होता है। हैफर्ड तथा बोवी ने भी भू-संतुलन के संबंध में प्राट से मिलते-जुलते विचार प्रस्तुत किये हैं।
यदि प्राट के मत को समस्त भू-पृष्ठ पर लागू किया जाये तो उनका मत सत्य प्रतीत होता है। महाद्वीपों के ऊपर उठे होने का कारण यह है कि वे ग्रेनाइट जैसी हल्की चट्टानों से निर्मित हैं। परंतु यदि प्राट के मत को महाद्वीपों के विभिन्न ब्लॉकों अर्थात पर्वत, पठार एवं मैदान पर लागू किया जाये तो उनका मत असत्य प्रतीत होता है। ये तीनों ही ही ब्लॉक ग्रेनाइट से निर्मित हैं। इनके घनत्व समान होने के बावजूद ऊंचाई में अंतर का कारण क्या है, इसकी व्याख्या प्राट के सिद्धांत के द्वारा नहीं की जा सकती है।
वर्तमान समय में भू-संतुलन के सिद्धांत को एक सिद्धांत न मानकर एक तथ्य के रूप में माना जाने लगा है। इस सिद्धांत के द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना, पर्वतों की संरचना, पृथ्वी का धरातलीय रूप, महाद्वीपीय उठाव एवं गिराव आदि तथ्यों को समझने में काफी सहायता मिलती है।
Question : प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धांत के हवाले से, संसार के तरुण वलित पर्वत तंत्रों की उत्पत्ति और वृद्धि को स्पष्ट कीजिए।
(2000)
Answer : पर्वत तंत्रों की उत्पत्ति एक बहुत ही व्यापक व संश्लिष्ट सिद्धांत है जो पृथ्वी पर महासागरों और महाद्वीपों, पर्वतों और गर्तों तथा पर्वत निर्माण के क्षेत्रों के वितरण एवं उनकी विभिन्न प्रक्रियाओं की सर्वाधिक तर्कसंगत एवं सुस्पष्ट व्याख्या करता है। इस सिद्धांत के अनुसार स्थलमंडल अनेक दृढ़ खंडों में बंटा हुआ है, जिसे प्लेट कहते हैं। इन प्लेटों की औसत गहराई 100 से 150 किमी. होती है। ये प्लेट दुर्बलमंडल के प्लास्टिक सतह पर सतत गतिशील रहते हैं। इन प्लेटों के अंतर्गत भूपर्पटी तथा ऊपरी मेंटल के ऊपरी भाग सम्मिलित होते हैं।
इन प्लेटों के आकार में काफी विभिन्नता पायी जाती है। कुछ तो गोलार्द्ध के आकार के होते हैं तो कुछ काफी छोटे हैं। इनकी संख्या के विषय में भी विद्वान एकमत नहीं हैं परंतु सामान्य तौर पर 6 प्रमुख प्लेट तथा कई अन्य गौण प्लेट पृथ्वी के स्थलमंडल का निर्माण करते हैं।
प्लेटों की गतिशीलता के कारण बहुत सी विवर्तनिक घटनाएं पृथ्वी पर घटित होती हैं। ये सारी विर्वतनिक घटनाएं प्लेट के किनारे पर घटित होती हैं। अतः प्लेट के किनारे इस दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं। प्लेट के किनारों/सीमाओं को तीन प्रकारों में विभक्त किया जाता हैः
i. रचनात्मक किनारा: इसमें दो प्लेट एक-दूसरे से विपरीत दिशा में गतिशील होते हैं। इस सीमा के सहारे पृथ्वी पृथ्वी अगाध से तप्त एवं तरल मैग्मा ऊपर आता है जिससे ठोस नयी क्रस्ट का निर्माण होता है। इस तरह की घटनाएं मध्य महासागरीय कटक के सहारे घटित होती हैं।
ii. विनाशात्मक किनारा/सीमा: जहां पर दो प्लेट आपस में टकराते हैं तो उनके किनारों को विनाशात्मक किनारा कहते हैं। जिस प्लेट की रचना भारी पदार्थ से हुई रहती है उसका किनारा मुड़कर दूसरे प्लेट के नीचे गहराई में जाकर वहां की अत्यधिक गर्मी में नष्ट हो जाता है।
iii. संरक्षी किनारा/सीमाः जहां पर दो प्लेट एक-दूसरे के अगल-बगल सरक जाते हैं और उनमें आपसी अंतर्क्रिया नहीं हो पाती है, उसे संरक्षी किनारा कहते हैं।
पर्वत तंत्रों की उत्पत्ति एवं वृद्धि के लिए पर्वत निर्माणकारी बल संपीडनात्मक बल से प्राप्त होता है और यह संपीडनात्मक बल विनाशात्मक प्लेट सीमा पर अभिसारित दो प्लेटों के टकराव के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। प्लेटों के टकराव के कारण उत्पन्न संपीडनात्मक बल के कारण महाद्वीप के किनारों के वृहत अवसादी जमाव वलित, भ्रंशित व उत्थित होकर पर्वत तंत्रों का निर्माण करते हैं। हालांकि प्लेटों की गतिशीलता के लिए जिम्मेदार बल/कारण के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं, फिर भी अधिकांश विद्वान मैंटल में उत्पन्न संवहनीय तरंगों को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं।
इस प्रकार वहां पर दो प्लेटों का अभिसरण होता है। वहां पर क्रस्ट के संपीड़न के कारण पर्वत का निर्माण होता है। इस संदर्भ में स्थलमंडलीय प्लेट की प्रकृति के आधार पर उनका अभिसरण तीन स्थितियों मेंं हो सकता है-
जब दो प्लेट महासागरीय नितल क्रस्ट वाले होते हैं तो उनके अभिसरण एवं टकराव होने से एक ज्यादा भारी वाले प्लेट की सागरीय क्रस्ट दूसरे प्लेट के नीचे सागरीय खड्ड में क्षेपित हो जाती है। इससे उत्पन्न संपीडन द्वारा द्वीप तोरण और द्वीपीय चाप के पर्वतों का निर्माण होता है। जापान के द्वीपीय चाप से इस तरह की स्थिति का सर्वोत्तम उदाहरण प्राप्त होता है। जापान द्वीप चाप में 3000 से 4000 मीटर ऊंचे पर्वत मिलते हैं।
प्लेट-संचलन के दौरान प्रशांत महासागरीय प्लेट के नितल का जापान द्वीप के पूर्वी भाग की ओर यूरेशियन प्लेट के महासागरीय क्रस्ट के नीचे क्षेपण हो गया, जिस कारण खड्ड का निर्माण हुआ। इस क्षेपण के परिणामस्वरूप प्रशांत महासागरीय प्लेट सागरीय नितल के नीचे मेंटल में पहुंचकर वहां की अत्यधिक ताप के कारण पिघल गया, जिससे मैग्मा का निर्माण हुआ, जो बाद में प्लवन के सिद्धांत के अनुसार ऊपर आ गया। खड्ड से लगभग 200 किमी. की क्षैतिज दूरी पर वह मैग्मा ज्वालामुखी उद्भेदन की क्रिया द्वारा सतह पर आने लगा। इन ज्वालामुखी पर्वतों का फिर अपरदन हुआ, जिनके अवसाद भी कालांतर में प्लेट संचलन के कारण उत्पन्न संपीड़न बल के कारण वलित और रूपांतरित होकर इन ज्वालामुखीय उच्चभूमि में जुड़ गये और एक जटिल द्वीप चाप का निर्माण हुआ। फिलीपाइन्स चाप और मरियाना चाप इन द्वीपों के अन्य उदाहरण है। यह क्रिया वर्तमान समय में भी जारी है।
एक महाद्वीपीय व एक महासागरीय प्लेट का अभिसरणः इस प्रकार की वलित पर्वत निर्माण प्रक्रिया में मुख्य घटनाओं की निम्न प्रकार से विवेचना की जा सकती हैः
(क) दो प्लेट जिनके किनारे पर क्रमशः महासागरीय एवं महाद्वीपीय क्रस्ट हो आपस में टकराते हैं।
(ख) महासागरीय क्रस्ट वाला प्लेट अधिक घना एवं भारी होने के कारण हल्के महाद्वीपीय प्लेट के नीचे क्षेपित हो जाता है।
(ग) जैसे-जैसे अभिसरण की प्रक्रिया होती जाती है, महासागरीय क्रस्ट के ऊपर के अवसाद और स्थलाकृति क्षेपण के कारण छिछले जाते हैं एवं महाद्वीपीय किनारे पर जमा होते जाते हैं। इस प्रकार से अवसादों के क्रम का दीर्घीकरण होता जाता है।
(घ) उसके पश्चात महाद्वीप के किनारे के ये अवसादों के वृहत्त क्रम संपीडित एवं वलित होकर कॉर्डिलेरा प्रकार के वलित पर्वत का निर्माण करते हैं।
(च) क्षेपित प्लेट का खंड नीचे मैंटल में जाकर पिघल जाता है तथा वलित पर्वतों के बीच ज्वालामुखी उद्गार के रूप में प्रकट हो जाता है।
(छ) इस प्रकार से एक उच्च स्थलाकृति का निर्माण होता है जिसमें ग्रेनाइटिक उद्भेदन, रूपांतरण तथा ज्वालामुखी क्रिया सामान्य होती है।
इस प्रकार के वलित पर्वत का अच्छा उदाहरण एण्डीज के कम घनत्व के होने के कारण प्लवन बल उनमें से किसी भी प्लेट को मैंटल में क्षेपित नहीं होने देता है।
(घ) तदनन्तर उनमें से एक प्लेट का महाद्वीपीय क्रस्ट दूसरे अभिभावी प्लेट के अंदर क्षेपित हो जाता है।
(च) इस प्रकार से महाद्वीपीय क्रस्ट का दोहरीकरण हो जाता है, जिसके कारण असामान्य रूप से उच्च स्थलाकृति का विकास होता है।
(छ) चूंकि क्षेपण की क्रिया जब नहीं होती है, इसलिए ज्वालामुखी क्रिया और गहराई वाले भूकंप अब नहीं घटित हो पाते हैं। इन घटनाओं को यहां दिये गये चित्र में दर्शाया गया है।
अल्पाइन हिमालय पर्वत श्रृंखला इस प्रकार के अभिसरण से उत्पन्न नवीन वलित पर्वत का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। लगभग-70 मिलियन वर्ष पूर्व हिमालय के स्थान पर टेथीज सागर था। इसके उत्तर में एशियाटिक प्लेट तथा दक्षिण में भारतीय प्लेट थे। भारतीय प्लेट के एशियाटिक प्लेट की ओर गतिशील होने के कारण टेथीज सागर में संकुचन होने लगा। लगभग 60 से 30 मिलियन वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट एशियाटिक प्लेट के करीब आ गया, जिस कारण टेथीज की सागरीय क्रस्ट वलित हो गयी। इसके पश्चात भारतीय प्लेट का एशियाटिक प्लेट के अंदर क्षेपण हुआ एवं महाद्वीपीय प्लेट का दोहरीकरण हुआ। तिब्बत पठार की अत्यधिक ऊंचाई इस दोहरीकरण का परिणाम है। इन जटिल प्रक्रियाओं की क्रिया के कारण भारतीय एशियाटिक प्लेट के बीच लगभग 500 किमी. तक भूपटलीय संकुचन हुआ है। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। भारतीय प्लेट के उत्तर की ओर गतिशील होने के कारण हिमालय में उत्थान आज भी जारी है।
इसी तरह अल्पाइन श्रृंखला का निर्माण अफ्रीका तथा यूरोप के प्लेट के टकराव तथा तज्जति क्षेपण के कारण हुआ। यहां पर प्लेट का संचलन एवं टकराव जटिल रूप में हुआ जिस कारण पर्वतों में संरचनात्मक जटिलताएं आ गयी हैं। वर्तमान समय में भी अफ्रीका का प्लेट उत्तर की ओर सरक रहा है तथा इसका एशियन चाप के दक्षिण में यूरोपीयन प्लेट के नीचे क्षेपण हो रहा है, परिणामस्वरूप भूमध्यसागर में संकुचन हो रहा है।
अब तक पर्वत निर्माण के चार युगों का पता लगाया जा चुका है, जिनमें कैंब्रियन युग से पूर्व, कैलेडोनियन, हर्सीनियन तथा टर्शियरी युग के पर्वत आते हैं। टर्शियरी युग सबसे बाद का काल है, जिसके पर्वत तरुण वलित पर्वतों की श्रेणी में आते हैं। रॉकीज, एण्डीज, अल्पाइन, एटलस, हिमालय, जापानी वलित पर्वत इत्यादि टर्शियरी युग के पर्वत हैं। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत इन सभी तरुण वलित पर्वतों की उत्पत्ति, विकास एवं वितरण की तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत करता है। इन सभी पर्वत तंत्रों का विकास विनाशात्मक प्लेट सीमा के सहारे हुआ है, जिसकी विवेचना ऊपर की गयी है। चूंकि प्लेटों का संचलन एवं टकराव आज भी जारी है। अतएव इन तरुण वलित पर्वतों का विकास आज भी जारी है।
Question : ‘महाद्वीपीय विस्थापन’ सिद्धांत और ‘प्लेट विवर्तनिक’ सिद्धांत के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए
(1999)
Answer : महाद्वीपों एवं महासागरों के स्थायित्व से संबंधित परिकल्पनाओं के विरोध में ही ‘महाद्वीपीय विस्थापन’एवं ‘प्लेट विवर्तनिक’सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। कहना न होगा कि प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत ने महाद्वीपीय प्रवाह के सिद्धांत को संपुष्टि प्रदान की है। हालांकि दोनों सिद्धांत प्रवाह पर एकमत हैं, फिर भी दोनों में कई मतभेद भी पाये जाते हैं। इन अंतरों को समझने के लिए इन्हें निम्न वर्गों में बांटा जा सकता हैः
1. प्रवाहित खण्डः महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत के अनुसार केवल महाद्वीपीय भाग ही प्रवाहित होता है, जो सियाल से निर्मित है और सीमा के ऊपर तैर रहा है। इसके विपरीत प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के अनुसार प्लेट, महाद्वीपीय एवं सागरीय स्थल खण्डों से निर्मित है और दोनों खण्डों से युक्त प्लेट ही प्रवाहित होता है।
2. स्थानांतरण: महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत के अनुसार हजारों मील का प्रवाह घटित हुआ। इतने बड़े पैमाने पर प्रवाह असंभव-सा प्रतीत होता है। प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत में प्रवाह का पैमाना छोटा है।
3. दिशा: महाद्वीपीय सिद्धांत में स्थानांतरण की दिशा विषुवत रेखा की तरफ और पश्चिम की तरफ बतायी गयी है। इसके विपरीत प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत में विभिन्न प्लेटों की दिशा भिन्न-भिन्न बतायी गयी है। इनकी गति भी भिन्न-भिन्न होती है।
4. प्रवाह को लाने वाले बलः पेंजिया के विघटन के लिए वेगनर ने दो शक्तियों का उल्लेख किया हैः (i) गुरुत्वाकर्षण शक्ति, जिसके कारण विघटित हुए भूखण्ड भूमध्यरेखा की ओर प्रवाहित हो गये_ जिससे आस्ट्रेलिया, प्रायद्वीपीय भारत, अण्टार्कटिका, मेडागास्कर आदि स्थलों का निर्माण हुआ, तथा (ii) ज्वारीय शक्ति, जिसके कारण उत्तरी अमेरिका एवं दक्षिण अमेरिका का निर्माण हुआ। यह परिकल्पना भ्रांतिपूर्ण है, क्योंकि ये शक्तियां प्रवाह लाने में सक्षम नहीं हैं। इसके विपरीत प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत में संवाहनीय तरंगों को प्रवाह के लिए जिम्मेदार माना गया है। इन तरंगों की उत्पत्ति रेडियोधर्मी पदार्थों के कारण होती है। जब ये तरंगें विपरीत दिशा में प्रवाहित होती हैं तो प्लेट एक-दूसरे से दूर खिसकने लगते हैं तथा जब ये तरंगे एक-दूसरे की दिशा में प्रवाहित होती हैं तो प्लेट आपस में टकराते हैं।
5. पर्वत निर्माण: महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत द्वारा वेगनर ने वलित पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या की है। उसके अनुसार सीमा द्वारा रुकावट उत्पन्न करने से महाद्वीपों के पश्चिमी किनारे वलित हो गये, जिससे पवतों का निर्माण हुआ। परन्तु वेगनर ने यहां परस्पर विरोधी बात कही है, क्योंकि पहले सियाल बिना रुकावट के सीमा पर तैर रहा था, परन्तु बाद में सीमा द्वारा सियाल के प्रवाह में रुकावट हुई। यह संभव नहीं है। इसके अलावा महाद्वीपीय सिद्धांत द्वारा टर्शियरी युग के पर्वतों की तो व्याख्या हो जाती है परन्तु उससे पहले के पर्वतों के निर्माण की प्रक्रिया पर प्रकाश नहीं पड़ पाता है। प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के अनुसार कैम्ब्रियन युग के पहले भी पेंजिया था तथा इस अवधारणा पर कि ‘जहां पर दो प्लेट मिलते हैं वहां वलित पर्वतों का निर्माण होता है’, टर्शियरी युग से पहले के पर्वतों का आकलन किया जा सकता है। इसके अलावा प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत द्वारा वलित पर्वतों के साथ-साथ ब्लॉक पर्वतों की भी उत्पत्ति समझायी जा सकती है, जो भूपर्पटी विभंग के कारण उत्पन्न भ्रंश से निर्मित होते हैं।
6. संकल्पना के आधार: महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत पूर्व जलवायुशास्त्र, पूर्व वनस्पतिशास्त्र तथा भूगर्भशास्त्र के प्रमाणों पर आधारित हैं, जिनके विषय में जानकारी स्पष्ट नहीं है। इसके विपरीत प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत सागर-तली के प्रसार एवं पैलियों मैग्नोटिज्म जैसे प्रमाणित वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं।
Question : भू-आकृतिक प्रक्रम।
(1999)
Answer : भू-आकृतिक प्रक्रम के अंतर्गत उन सभी भौतिक व रासायनिक परिवर्तनों को शामिल किया जाता है जो पृथ्वी की सतह में परिवर्तन लाते हैं। एक भू-आकृतिक कारक कोई भी ऐसा प्राकृतिक माध्यम हो सकता है, जिसमें पृथ्वी के पदार्थों को स्थानांतरित करने की क्षमता हो, जैसे-बहता हुआ जल, भूमिगत जल, हिमनद, वायु, लहरें, तरंगें, ज्वार, सुनामिस आदि। ज्यादातर भू-आकृतिक कारकों की उत्पत्ति पृथ्वी के वायुमंडल के अंदर होती है तथा ये गुरुत्वबल से प्रभावित व निर्देशित होते हैं।
इन कारकों को अंतर्जात प्रक्रम और बहिर्जात प्रक्रम में बांटा गया है। अंतर्जात बल से भूतल पर अनेक विषमताओं का सूत्रपात होता है। बहिर्जात बल या समतल स्थापक बल इन विषमताओं को दूर करने में सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। बहिर्जात बल के अंतर्गत ‘ग्रेडेशन’ होता है, जिसके द्वारा भूतल समान स्तर ग्रहण करता है। जिन प्रक्रमों से भूतल ऊंचा होता है, उसे ‘एग्रेडेशन’ कहते हैं तथा जिनसे भूतल नीचा होता है, उसे ‘डीग्रेडेशन’ कहते हैं।
भू-आकृतिक प्रक्रम को निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है:
A इपीजीन या बहिर्जात बल
1. ग्रेडेशन
2. हाइपोजीन या अन्तर्जात बल (पटलविरुपण, ज्वालामुखी)
3. अंतरिक्ष प्रक्रम (उल्काश्म आदि)
Question : ज्वालामुखीयता की संकल्पना पर चर्चा कीजिए और दर्शाइए कि प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धांत किस प्रकार ज्वालामुखीयता और ज्वालामुखी उद्गारों की क्रियाविधि को स्पष्ट करता है?
(1998)
Answer : भूगर्भशास्त्र में ज्वालामुखी, ज्वालामुखी के प्रकट होने की क्रिया व ज्वालामुखीयता में पर्याप्त अंतर बताया जाता है। ज्वालामुखी प्रायः एक गोल या कुछ गोल आकार का छिद्र अथवा खुला भाग होता है, जिससे होकर पृथ्वी के अत्यंत तप्त भूगर्भ से गैस, तरल लावा, जल एवं चट्टानों के टुकड़ों से युक्त गरम पदार्थ पृथ्वी के धरातल पर प्रकट होते हैं।
इसके विपरीत, ‘ज्वालामुखीयता वह क्रिया है जिसमें गर्म पदार्थ का धरातल की तरफ या धरातल पर आने की सभी क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं।’ इस प्रकार, ज्वालामुखीयता के दो रूप होते हैं- अभ्यान्तरिक क्रिया व बाह्य क्रिया। अभ्यान्तरिक क्रिया में लावा आदि धरातल के नीचे ही जमकर ठोस रूप धारण कर लेते हैं, जैसे कि बैथोलिथ, फैकोलिथ इत्यादि। बाह्य क्रिया में गर्म पदार्थ के धरातल पर प्रकट होने की क्रियाएं सम्मिलित होती हैं, जैसे- ज्वालामुखी, धरातलीय प्रवाह, गर्म जल के सोते इत्यादि। इस प्रकार ज्वालामुखी, ज्वालामुखीयता का मात्र एक रूप है।
ज्वालामुखीयता में निम्न अवस्थायें पाई जाती हैं: 1. भूगर्भ में ताप का अत्यधिक होना, 2. अत्यधिक ताप के कारण लावा की उत्पत्ति, 3. गैस तथा वाष्प की उत्पत्ति, 4. लावा का ऊपर की तरफ प्रवाहित होना।
यदि हम ज्वालामुखी के वितरण पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि ज्वालामुखी भू-पटल के कमजोर क्षेत्रों में पाये जाते हैं तथा भूकंप से इनका गहरा संबंध होता है। इन कमजोर स्थलों तथा भूकंपों का प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत से गहरा संबंध है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार, हमारा भुखंड प्लेटो में बंटा हुआ है। ये छोटे-बड़े प्लेट ऐसे तरल एस्थेनोस्फेयर में तैर रहे हैं, जिसमें रेडियोधर्मी तत्त्व मौजूद हैं। ये प्लेट गतिशील हैं। इन प्लेटों के किनारों के सहारे ही भूकंपीय व ज्वालामुखीय क्रियाएं घटित होती हैं। प्लेटों के किनारों में दरार पड़ने से चट्टान का दबाव कम हो जाता है, जिससे चट्टान का द्रवणांक-बिन्दु गिर जाता है और वे पिघल कर ज्वालामुखी के रूप में प्रकट हो जाते हैं।
ज्वालामुखी उद्गार के लिए यह आवश्यक है कि वहां भूपटल कमजोर हो तथा गैसों के निर्माण के लिये जल सुलभ हो। इस दृष्टि से प्लेटों के किनारे एक आदर्श स्थिति प्रस्तुत करते हैं। प्लेटों में सम्पीडन व खिंचाव के कारण दरारें पड़ जाती हैं, जिससे भूपटल कमजोर हो जाता है तथा ज्वालामुखी का उद्गार होता है। विसर्पण केंद्र के सहारे भी दरार उत्पन्न होती है, जिससे मैग्मा ऊपर आता है।
जहां दो प्लेटें आपस में टकराती हैं, वहां उनके किनारों को ‘विनाशात्मक किनारा’ कहा जाता है। यहां भारी पदार्थ से बनी प्लेट नीचे चली जाती है। गहराई में अधिक दबाव व तापमान के कारण मैग्मा का निर्माण होता है, जो ऊपर उठने लगता है। टर्शियरी युग के नवीन वलित पर्वतों की श्रृंखलायें ज्वालामुखी तथा भूकंप के सक्रिय क्षेत्र हैं।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत में प्लेटों की गतिशीलता के पीछे ‘संवहन धाराओं’ को जिम्मेदार माना गया है। भूपटल के नीचे रेडियोधर्मी तत्त्व ऊष्मा पैदा करते हैं तथा ऊष्मा में अंतर के कारण ‘संवहन धाराओं’ का निर्माण होता है। ये धाराएं भूपटल से टकरा कर उनमें हलचल पैदा करती हैं। जैसे ही इन्हें दरार मिलती है, मैग्मा ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। इस प्रक्रिया में वाष्प की उत्पत्ति भी दबाव लाने में सहायक होती है। अधिकांश ज्वालामुखियों का सागरीय तट के पास पाया जाना इस बात का द्योतक है कि इन भागों में सागरीय जल रिसकर भूगर्भ में चला जाता है तथा अधिक ताप के कारण वाष्प में परिवर्तित हो जाता है। महासागरीय व महाद्वीपीय प्लेटों के बीच दरारें इस प्रक्रिया में सहयोग देती हैं।
इस प्रकार, हम पाते हैं कि प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत तथा ज्वालामुखीयता का गहरा संबंध है। प्लेटों की सीमा न केवल ज्वालामुखियों के वितरण को प्रभावित करती है, वरन् उन सभी अवस्थाओं को जन्म देती है, जिनसे ज्वालामुखी उद्गार की क्रियाविधि का संचालन होता है।