Question : धारणीय विकास की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए और कृषि विकास के लिए एक मॉडल को प्रस्तावित कीजिए।
(2007)
Answer : धरातलीय विकास के अंतगर्त उन कार्यक्रमों को सम्मलित किया जाता है, जो पर्यावरण के आधारभूत गुणों को बिना विचलित किए हुए विकास कार्यक्रमों द्वारा अधिवासीय जनसंख्या को अनुकूलतम संतुष्टि प्रदान करे। अनुकूलतम संतुष्टि का तात्पर्य संतुष्टीकरण के उस स्तर से है जिसके आगे अधिकतम संतुष्टीकरण की अवधारणा विकसित होती है और अधिकतम संतुष्टीकरण के एवज में पर्यावरण का अवनयन प्रारंभ होने लगता है। अतः धारणीय विकास वह संदर्भ बिन्दु है जिसके आगे तकनीकी, पूंजी, कुशल श्रमिक और प्रबंधन की सुविधा के बावजूद विकास कार्य नहीं किये जा सकते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मानवीय विकास के संदर्भ में तीन नवीन चरों का आगमन हुआ है:
इन्हीं चरों के संदर्भ में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पर्यावरण के दोहन में भारी वृद्धि हुई है और 1970 के आते-आते यह दोहन चरम सीमा तक पहुंच चुकी थीं। पर्यावरण तथा प्रकृति द्वारा प्रतिक्रियाएं प्रारंभ हो चुकी थी।
इसी संदर्भ में विकास की नवीन नीति की आवश्यकता हुई और धारणीय विकास की संकल्पना ऊपर वर्णित परिस्थितियों का ही परिणाम है।
विकास को अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तक सीमित रखने का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि आर्थिक प्रगति भी सामाजिक लागत पर कोई ध्यान नहीं देती है। किसी आर्थिक कार्य की लागत लाभ गणना में उन तत्वों को शामिल नहीं किया जाता था जो सीधे आर्थिक कार्यकलाप से न जुड़े हो। उदाहरण के लिए किसी आर्थिक कार्य के चलते पर्यावरण कितना प्रदूषित या अवक्रमित होता है, इसका लेखा-जोखा करना उद्योगपति का दायित्व नहीं माना जाता था। विशेष कर नव क्लासिकल चिन्तन में प्रकृति के विभिन्न तत्वों- जल, वायु, वन, अन्य सार्वभौमिक पदार्थों को प्रकृति का मुफ्त उपहार मानते हुए उनके उपयोग पर कोई अंकुश लगाना अथवा उनके लिये किसी प्रकार की लागत वसूलना इस विकास के लिए अवरोधक माना जाता था। यद्यपि इस प्रवृत्ति के चलते पर्यावरण अवक्रमण के सामाजिक दृष्टि से गंभीर परिणामों की ओर जार्ज पर्किन्स मार्श ने 1864 ई. में ही अपनी पुस्तक ‘मैन एण्ड नेचर’ द्वारा ध्यान आकर्षित किया था। जब औद्योगिक क्रांति एवं ब्रिटिश साम्राज्यवाद अपनी पराकाष्ठा पर था। पुर्न-ऑसबॉर्न और कारसन ने साठ के दशक में आर्थिक विकास के भारी पर्यावरणीय लागत की ओर ध्यान आकर्षित करने के निष्फल प्रयत्न किये। इसी के परिप्रेक्ष्य में धारणीय विकास की संकल्पना का जन्म हुआ।
धारणीय विकास शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1970 में कोकोयोक (मैक्सिको) उद्घोषणा के अंतर्गत किया गया था। इसमें स्पष्ट किया गया था कि विकास को प्रकृति के नियमों से जोड़ने की आवश्यकता है। 1972 में ‘क्लब ऑफरोम’ द्वारा जब ‘विकास की सीमा’ की संकल्पना विकसित की गई, तो उसका उद्देश्य भी धारणीय विकास ही था। इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य डासमान द्वारा 1985 में किया गया। उन्होंने धारणीय विकास के संदर्भ में यह स्पष्ट किया है कि पर्यावरण और विकास साधन है, साध्य नहीं। लेकिन विकास कार्यक्रमों को जब हम लक्ष्य की पूर्ति मानते हैं, तो स्वतः नये लक्ष्य उभर कर आते हैं। इस प्रक्रिया से विकास का कोई अंत नहीं है। अपने तर्क को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने दिए गए मॉडल को विकसित किया है, जो इस प्रकार हैः
इस त्रिभुज के को-आर्डिनेट्स वस्तुतः वे संदर्भ बिन्दु हैं, जो विकास की प्रवृत्ति को बनाता है। अगर ये त्रिभुज का आकार लेते हैं, तो धारणीय विकास है अन्यथा असंतुलित विकास है। पुनः 1987 में विश्व पर्यावरण व विकास कमीशन ने अपने घोषणापत्र को ‘आवर कामन फीचर’ नाम दिया और इसमें स्पष्ट किया कि विकास का समान भविष्य है, इसलिए विकास का लक्ष्य भी एक होना चाहिए और वह है धारणीय विकास।
पुनः 1992 के रियो-डि-जेनरो शिखर सम्मेलन में भी धारणीय विकास से संबंधित एक प्रस्ताव पारित किया गया और विविध देशों से आग्रह किया गया कि वे धारणीय विकास की दशा में राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करें। यद्यपि धारणीय विकास शब्द का प्रयोग हाल के वर्षों में प्रारंभ हुआ है, लेकिन भूगोल में इस प्रकार की संकल्पना पूर्व में ही विकसित हो चुकी थी और इस दिशा में पहला कार्य टेलर द्वारा किया गया था, जब उन्होंने ‘रुको और जाओ’ नियतिवाद की संकल्पना प्रस्तुत की थी।
ओएचके स्पेट की लगभग सभंववाद और हार्टशोर्न की वैज्ञानिक नियतिवाद भी धारणीय विकास की तरफ इंगित करता है।
धारणीय विकास के अनिवार्य शर्तः धारणीय विकास के लिए दो अनिवार्य शर्त हैं-
पर्यावरण से संबंधित सूचनाएं चार प्रकार की आवश्यकताएं रखते हैं:
मानव और मानवीय क्रिया-कलापों से संबंधित सूचनाओं को निम्नलिखित 7 वर्गों में रखा गया है-
दोनों प्रकार की सूचनाओं को मुख्यतः चार स्रोतों से एकत्रित किया जाता है।
ऊपर वर्णित प्रक्रियाओं द्वारा धारणीय विकास हेतु अनिवार्य सूचनाएं प्राप्त की जाती हैं और उन सूचनाओं के आधार पर संभावित अनुकूलतम स्तर निर्धारित किया जाता है और किसी स्तर के अनुसार विकास कार्यक्रम निर्धारित किये जाते हैं।
विकास की अंधीदौड़ ने कृषि को भी प्रभावित किया। कृषि क्रांति के लिए विभिन्न उपागम जो प्रयुक्त हुए, उससे जहां एक ओर खाद्यान्नों विशेषकर अनाजों का उत्पादन थोड़े ही समय में तेजी से बढ़ा जो बढ़ती जनसंख्या के भरण-पोषण हेतु अनिवार्य था, वहीं दूसरी ओर इस क्रांति का कुपरिणाम भूमि की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति में ह्रास, भूमि का दलदली व ऊसर होना, भूगर्भ का संतुलन भंग होना, बीज विविधता का समाप्त होना, खाद्य पदार्थों का विषाक्त होना, वातावरण का ह्रास आदि के रूप में प्रकट होने लगा। ऐसी दुष्चिन्ता से प्रेरित होकर कृषि वैज्ञानिक एवं पर्यावरणविद् इनके विकल्पों की खोज के प्रति सचेष्ट हुए हैं ताकि कृषि परिस्थितिकी संतुलन को कायम रखते हुए अन्तर्सर्ंतति समानता स्थापित करना है।
अन्तर्सर्ंगति समानता की अवधारणा यह है कि विद्यमान पीढ़ी को प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त आय के अन्तर्गत एवं इस पर आधारित जीवन-यापन करना चाहिए न कि इसके मूलाधार, मूल सम्पत्ति के शोषण से। इसकी अपेक्षा है कि भावी सन्तति को कम से कम वैसी ही संसाधन गुणवत्ता हस्तांतरित की जाए जैसी विद्यमान पीढ़ी को पूर्वजों से प्राप्त हुई है। एक कार्यदक्ष, विविधतापूर्ण एवं पारिस्थितिकीय दृष्टि से सम्पुष्ट अर्थतंत्र, अन्तर्संतिति समानता की महत्वपूर्ण शर्त है, जो निम्न है-
यह अभीष्टम भूमि उपयोग मॉडल के अनुरूप है जिसके निर्देशक सिद्धान्त हैं-
इस परिप्रेक्ष्य में अक्षय या वैकल्पिक कृषि को धारणीय विकास में जोड़ दिया जाता है। जिसका मुख्य उद्देश्य नव्यकारणीय संसाधन उपयोग पर आधृत बहुआयामी तथा समग्र नीतियां, पर्यावरण को न्यूनतम क्षति एवं पर्यावरण नियमों का अनुसरण जिससे स्थायी उत्पादन क्षमता विकसित करना है।
वर्तमान समय में प्रायः सभी देशों ने धारणीय कृषि विकास मॉडल की महत्ता को स्वीकार किया है तथा इस ओर अपना ध्यान दिया है।
Question : केन्द्रीय स्थान सोपान के प्रकार्यात्मक आधारों का एक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2007)
Answer : केन्द्रीय स्थान वह बस्ती है, जो चारों ओर फैले पृष्ठ प्रदेश के लिए सामाजिक-आर्थिक प्रकार के विभिन्न कार्यों का आवश्यक रूप से एक संग्रह केन्द्र है। केन्द्रीय स्थान केवल जनसंख्या का समूह ही नहीं है, बल्कि यह दुकानों, व्यापारों व सेवाओं का संग्रह। है।
केन्द्रीय स्थान वह बस्ती है जो अपने कार्यों द्वारा यह बस्ती अपने समीपवर्ती क्षेत्र की सेवा करती है। जिन कार्यो द्वारा अपने समीपवर्ती क्षेत्र की सेवा करती है, उन्हें केन्द्रीय कार्य कहा जाता है। प्रत्येक केन्द्रीय स्थान मार्गों के केन्द्र के रूप में होता है। वह मार्गों के मिलन स्थल पर स्थित होता है। इन्हीं मार्गों के द्वारा वह अपने समीपवर्ती क्षेत्र की सेवा कर पाता है तथा संबंध जोड़ पाता है। वह केन्द्रीय स्थान कितनी दूर के क्षेत्र की सेवा कर पाता है, यह केन्द्रीय स्थान में पायी जाने वाली सेवाओं व कार्यों की संख्या व प्रकृति पर निर्भर करता है।
केन्द्रीय स्थानों में कार्यों तथा उनमें संबंधों के अनुसार एक पदानुक्रम पाया जाता है। इन कार्यों, बस्ती के आकार तथा उनकी पारस्परिक दूरियों के बीच पारस्परिक संबंध पाया जाता है।
बस्ती का आकार तथा उनकी पारस्परिक दूरी परस्पर संबंधित रहती है। यह दूरी बस्ती के आकार व कार्य पर निर्भर करती है। उच्च सेवा केन्द्र दूर-दूर स्थापित होते हैं जबकि निम्न सेवा केन्द्र पास-पास स्थापित हो जाते हैं।
एक बड़ी बस्ती छोटी बस्ती की अपेक्षा केन्द्रीय कार्यों के विकास को अधिक आकर्षित करती है, क्योंकि कोई भी कार्य उपभोक्ताओं की संख्या पर निर्भर करता है। अतः स्पष्ट है कि यदि बस्ती का आकार बड़ा है, तो वहां पर अनेक कार्य स्थापित हो जायेंगे। ऐसी बस्तियां तथा केन्द्र दूर-दूर स्थापित हो जायेंगे तथा यदि बस्ती का आकार छोटा है, तो वहां पर कुछ कार्य ही विकसित हो पायेंगे तथा ऐसे केन्द्र पास-पास स्थापित होंगे। इस प्रकार तीन बातें - केंद्रीय बस्ती का आकार, कार्य तथा पारस्परिक दूरी परस्पर संबंधित है। इस आधार पर इन केन्द्रीय स्थानों में एक पदानुक्रम होता है।
प्रत्येक पदानुक्रम में इनके कई सोपान होते हैं, जैसे आकार के दृष्टिकोण से बस्तियों के सोपान ऊपर से नीचे क्रम इस प्रकार होता है- वृहत् महानगर, महानगर, नगर, कस्बा, गांव तथा पुरवा। सबसे ऊपरी सोपान पर वृहत् महानगर होता है, जो अपने आश्रित कई महानगरों की सेवा करता है, प्रत्येक महानगर कई नगरों की सेवा करता है, प्रत्येक नगर कई कस्बों की सेवा करता है। इसी प्रकार कस्बा गांवों की और गांवं पुरवों की सेवा करता है।
इन सब का वितरण तथा सेवा क्षेत्र अपनी अलग ही विशिष्टता रखता है। किसी क्षेत्र में बहुत-सी बस्तियों में समान बंटवारा करने के लिए सबसे उपयुक्त ज्यामितीय आकृति षट्कोण होती है। इसकी विशद चर्चा क्रिस्टालर व लॉश ने की है। इसके अलावा डब्ल्यू इजार्ड व स्टान ने भी ज्यामितीय मॉडलों के अनुरूप केन्द्रीय स्थानों के वितरण पर प्रकाश डाला है।
क्रिस्टालर का स्थिर ‘K’ पदानुक्रमः क्रिस्टालर का केन्द्रीय स्थान सोपान तीन प्रकार के नियमों के अनुसार है। ये हैं- बाजार नियम या ‘K’ = 3
परिवहन नियम या K = 4
प्रशासनिक नियम या K = 7
‘K’ = 3, 4, 7 का सामान्य अर्थ है कि निम्न स्तर पर बाजार का कार्य करने वाली केन्द्रीय बस्ती तीन ग्रामीण बस्तियों की सेवा करती है। जबकि परिवहन केन्द्रीय बस्ती चार और प्रशासनिक केन्द्रीय बस्ती सात बस्तियों की सेवा करती है। क्रिस्टालर के अनुसार ‘K’ = 3 के अंतर्गत केन्द्रीय बस्ती के किनारे स्थित 6 भुजाओं के मिलन स्थल पर होती है। जबकि ‘K’ = 4 में भुजाओं के मध्य और K=7 में षड्कोणीय ज्यामितीय आकार के अंतर्गत ग्रामीण बस्ती होती है।
क्रिस्टालर के अनुसार इस ज्यामितीय मॉडल के अनुसार सबसे छोटी केन्द्रीय बस्ती क्रमशः 3, 4, 7 बस्तियों की सेवा करेगी।
लेकिन ज्यों-ज्यों उसके पदानुक्रम में वृद्धि होती है, तो बस्ती की संख्या ज्यामितीय नियम के अनुसार बढ़ती है। यथा ‘K’ 3 = 3, 3 × 3, 3 × 3 × 3, ------- 27 × 34 इसी प्रकार ‘K’ 4 = 4, 4 × 4, 4 × 4 × 4, ------ 64 × 44
क्रिस्टालर के अनुसार ‘K’ सिद्धांतों में ‘K’ 3 सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि आम लोगों की दैनिक आवश्यकताओं का संबंध इसी से है। वस्तुतः बाजार नियम के अंतर्गत आने वाली अनेक बस्तियां परिवहन नियम और प्रशासनिक नियम के पदानुक्रम से भी सम्मिलित हो सकती है। क्रिस्टालर ने तीनों ही नियमों के लिए पदानुक्रमिक केन्द्रीय बस्तियों के एक ही नाम, एक ही सापेक्षिक दूरी तथा एक ही प्रभाव क्षेत्र की संभावना व्यक्त की है। लेकिन बस्तियों की भौगोलिक अवस्थिति षड्कोणीय मॉडल के अतर्गत होगी।
बाजार सिद्धांत का निर्धारण ज्यामितीय नियमों के अनुरूप है। किसी भी ग्रामीण बस्ती की भौगोलिक अवस्थिति तीन केन्द्रीय बाजारों से बराबर दूरी पर होता है। अर्थात् किसी एक बस्ती के लोग तीन बाजारो में जाने की संभावना रखते हैं। अतः उनके बाजार जाने की इच्छा तीन भागों में विभक्त होती है। एक केन्द्रीय बस्ती के किनारे 6 बस्ती है। अगर प्रत्येक की बाजार इच्छा शक्ति को उसे विभाजित किया जाय, तो औसतन दो गांवों के लोग एक केन्द्रीय बाजार में आते हैं। साथ ही केन्द्रीय बाजार के लोग भी उसी बाजार से सामान खरीदते हैं। अर्थात् प्रत्येक केन्द्रीय बाजार में 3 बस्तियों के बाजार की सुविधा है। इसी आधार पर इसे K=3 कहा गया है।
यातायात नियम के अनुसार निम्न वर्ग के केन्द्रीय स्थान दो उच्च वर्ग के केन्द्रीय स्थानों के बाजार क्षेत्र की सीमा के मध्य स्थान पर स्थापित हो जाते हैं तथा इनका क मूल्य पदानुक्रम में 4 होता है। K = 4 में बस्तियों का पदानुक्रम में तीन सोपान होते हैं। पहला- सबस नीचे स्तर पर गांव होते हैं, जो कस्बों पर निर्भर करते हैं। दूसरा- बीच के स्तर पर केन्द्रीय कस्बों का स्थान होता है, जो अपने आश्रित गांवों को सेवा प्रदान करता है। तीसरा- ऊपर के स्तर पर केन्द्रीय नगर होते हैं, जो अपने आश्रित कस्बों की सेवाएं करते हैं। इस ‘K’ 4 के संपूर्ण पदानुक्रम में एक नियमित ज्यामितीय श्रेणी होती है, जिसमें 1, 4, 16, 64 का क्रम होता है। प्रशासकीय नियम में ‘K’ का मूल्य 7 होता है। इस नियम के अनुसार सभी निम्न वर्ग के केन्द्र उच्च वर्ग के बाजार क्षेत्र में स्थापित पाये जाते हैं। यहां पर प्रशासनिक नियंत्रण स्पष्ट रूप से महत्वपूर्ण होता है तथा एक केन्द्रीय स्थान का अपने सबसे अधिक समीपवर्ती 6 आश्रित स्थानों में सभी के साथ संबंध रहता है।
क्रिस्टालर का कहना है कि एक बार ‘K’ का मूल्य जितना भी निश्चित कर लिया जाता है, वह स्थिर रहता है इसलिए उनका मत स्थिर ‘ज्ञ’ पदानुक्रम कहलाता है। उसने केन्द्रीय स्थानों के पदानुक्रमों की एक माला प्रस्तुत करते हुए बताया कि केन्द्रीय स्थान पदानुक्रम के समस्त सोपानों में भिन्न-भिन्न प्रकार की बस्तियों के पारस्परिक संबंधों में ये ‘क’ मूल्य समान प्रकार से लागू होंगे।
लॉश का सिद्धांतः लॉश ने परवर्ती ‘K’ पदानुक्रम सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत के अनुसार ‘K’ का मान निश्चित नहीं होता है, यह घटते बढ़ते रहता है। क्रिस्टालर ने ‘K’ के तीन नियम प्रस्तुत किये, लेकिन लॉश के अनुसार यह परिवर्तनशील होता है। इन्होंने कुल मिलाकर 9 प्रकार के षड्कोणों की संभावना व्यक्त की जिसमें क्रिस्टालर के तीनों षड्कोण भी सम्मिलित हैं। लॉश के अनुसार कार्यों के विविधता के आधार पर अलग-अलग षड्कोण विकसित होते हैं।
इनके अनुसार:
इजार्ड की विचारधाराः इजार्ड ने लॉश के षड्कोणीय प्रतिरूप को स्वीकार तो किया है, लेकिन यह उसी के बताये अनुसार लागू होने की स्थिति में नहीं है। लॉश ने उपभोक्ताओं के समान वितरण की कल्पना की, लेकिन उसका मॉडल इस बात का द्योतक है कि विभिन्न केन्द्रीय स्थानों पर कार्यों की संख्या में काफी भिन्नता पायी जाती है। किसी केन्द्रीय स्थान में यह कार्य अधिक और किसी में कम मिल सकते हैं, जबकि यह बात निश्चित रूप से देखने में आती है कि उच्च वर्ग के केन्द्रीय स्थान के चारों ओर उसके निकट के भाग में जनसंख्या घनत्व अधिक होता है और जैसे-जैसे हम इस केन्द्रीय स्थान से दूर आते। जाते हैं, वैसे-वैसे ही यह धानत्व कम होता जाता है। अतः केन्द्रीय स्थान के निकट बाजार क्षेत्र का आकार छोटा होना चाहिए तथा दूरी बढ़ने के साथ-साथ बाजार क्षेत्र का आकार बड़ा हो जाने से इसके रूप में बिगाड़ आ जायेगा और यह समरेखीय आयत विषमकोण समभुज क्षेत्र के समान रूप ग्रहण कर लेंगे।
Question : भारत जैसे विकासशील देशों में जनांकिकीय संक्रमणों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले प्राचलों पर एक टिप्पणी लिखिए।
(2007)
Answer : वर्तमान समय में जनसंख्या भूगोल की विशिष्ट शाखा है। इसके अंतर्गत जनसंख्या से संबंधित विभिन्न पहलुओं की विशद् चर्चा की गई है। जिसके अंतर्गत जनसंख्या के विभिन्न पहलुओं को दो विशिष्ट भेदों में वर्गीकृत किया गया है। विकसित देशों की जनसंख्या व विकासशील देशों की जनसंख्या। दोनों वर्ग के जनांकिकीय संक्रमणों में पर्याप्त विभेद है। वस्तुतः यह विभेद गत्यात्मक है तथा समय के साथ परिवर्तित होते आ रहे हैं। यह विभेद आधुनिक काल की देन है। जिस पर आर्थिक विकास का पूर्ण प्रभाव है। भारत विकासशील देशों का प्रतिनिधि है।
इस वर्ग में भारत, ब्राजील, अर्जेंटाइना, मैक्सिको, बांग्लादेश, चीन आदि देश आते हैं। इनके जनांकिकीय विशेषताएं हल्के विभेद के बावजूद भी समग्र रूप से साम्यता रखते हैं।
वर्तमान जनांकिकीय प्रवृत्ति के अनुसार विकासशील देशों में औसत वार्षिक जनसंख्या वृद्धि विकसित देशों की तुलना में 20 गुने से भी अधिक है। यद्यपि दोनों ही समूहों में अघोषित मृत्यु दर भिन्न है तथापि औसत अघोषित जन्म दर विकासशील देशों में विकसित देशों की तुलना में तीन गुनी अधिक है। एफएब्लू नोटेस्टीन नामक जनांकिकीविद् ने आर्थिक विकास की प्रक्रिया एवं जनसंख्या वृद्धि के बीच एक निकट संबंध की पहचान की। जब एक कृषि प्रधान ग्रामीण समाज प्रौद्योगिकी आधारित नगरीय समाज में बदलता है, तो जनांकिकीय प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन होता है।
जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था आदिकालीन जनांकिकीय अवधि को दर्शाता है। इस अवधि में उच्च जन्म दर और मृत्युदर थी जिसके फलस्वरूप जनसंख्या वृद्धि धीमी थी। द्वितीय अवस्था प्रौद्योगिकी क्रांति की अवस्था है, जो आर्थिक विकास की प्रारंभिकता की विशेषता है। आर्थिक विकास के कारण चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार होने के साथ खान-पान में बदलाव से मृत्यु दर में तेजी से गिरावट आयी, लेकिन जन्म दर समृद्धि के प्रारंभिक काल में ऊंची बनी रही। आगे चल कर इसमें भी कमी आने लगी, परंतु धीमी गति से, क्योंकि परिवार के आकार संबंध, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाओं की बदलती परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में समय लगता है। इसके परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि तेजी से हुई। इस अवस्था को भी तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
तृतीय अवस्था में मृत्यु दर नीचे स्तर पर लगभग स्थिर हो जाती है। जबकि जन्मदर में कमी होने पर भी उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है। जनसंख्या का शुद्ध वृद्धि दर लगभग शून्य रहता है।
तृतीय अवस्था विकसित देशों से संबंधित है, जबकि प्रथम अवस्था मात्र एकाकी जीवन व्यतीत करने वाले जनजातियों में देखने को मिल सकती है। विकासशील देश द्वितीय अवस्था में सम्मिलित किए जा सकते हैं। भारत जैसे विकासशील देशों को मोटे तौर पर द्वितीय अवस्था के द्वितीय प्रकार में रखा जा सकता है क्योंकि यहां की जनसंख्या वृद्धि दर में ह्रास की प्रवृत्ति प्रारंभ हो चुकी है।
जनांकिकीय संक्रमण के प्रयासों पर विकासशील देशों को रखने पर ये देश विकसित देशों के जनांकिकीय संक्रमण से पर्याप्त विभेद रखते हैं। जनसंख्या अध्ययन का आयु संरचना एक महत्वपूर्ण पक्ष है। आयु रचना जनसंख्या वृद्धि दर को प्रभावी ढंग से प्रभावित करती है तथा सामाजिक और आर्थिक दशाओं जिसमें वह जनसंख्या निवास करती है, पर गहरा प्रभाव डालती है। आयु रचना के तीन आधारभूत निर्धारक हैं, इनमें 1. जन्म दर 2. मृत्यु दर 3. गतिशीलता। ये कारक एक दूसरे पर निर्भर है और इनमें से किसी एक में परिवर्तन अन्य दो को प्रभावित करता है। इन परिवर्तनशील कारकों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक दशाएं आयु संरचना को प्रभावित करती है।
प्रजनन दर विभिन्न आयु वर्ग में जनसंख्या के अनुपात को प्रभावित करती है। इसी कारण भारत जैसे अधिकांश विकासशील देशों में ऊंची जन्म दर है, क्योंकि इन देशों में प्रत्याशित आयु की अवधि छोटी है, बड़ी आयु के समूह की जनसंख्या का अनुपात भी अधिक नहीं है। ऐसे देशों में 2000 के जनसंख्या के अनुसार उनकी जनसंख्या का केवल 25 प्रतिशत ही 15 वर्ष की आयु से कम है। इसके विपरीत न्यून जन्मदर और लम्बी प्रत्याशित आयु वाले देशों उनकी जनसंख्या का 25 प्रतिशत से अधिक युवा आयु समूह का होता है।
मृत्यु दर द्वारा भी आयु रचना प्रभावित होती है। सामान्यतः यदि बच्चों की जीवित हरने की दर में सुधार होता है तब बच्चों का अनुपात बढ़ने लगेगा और बड़ी आयु के लोगों का अनुपात कम हो जायेगा और यदि केवल अधिक आयु वाले लोगों के अनुपात में सुधार होगा, किन्तु बच्चों का अनुपात गिरेगा।
इसी प्रकार यदि दोनों ही बच्चों और बड़ी आयु के समूह के लोगों में मृत्युदर नीची रहेगी, तो ऐसी स्थिति में श्रमिक जनसंख्या का भाग अधिक होगा और निर्भर रहने वाले व्यक्ति का अनुपात निम्न रहेगा। यथा डेनमार्क, स्वीडन आदि। इसके विपरीत यदि बड़ी आयु के समूह वाले लोगों की अपेक्षा निम्न आयु समूह में मृत्युदर में गिरावट तीव्र होगी, तब इसका परिणाम छोटी आयु समूह के बच्चों की संख्या अधिक होगी जैसा कि अधिकांश भारत जैसे विकासशील देशों की जनसंख्या की स्थिति है। इसे आयु पिरामिड के द्वारा भी दिखाया जा सकता है। भारत जैसे विकासशील जनसंख्या का पिरामिड का चौड़ा आधार तथा तेजी से पतला होता शीर्ष बढ़ते जन्म दर तथा उच्च मृत्यु दर को दर्शाता है। उदाहरण के लिए मैक्सिको का आयु पिरामिड निम्न है।
जन्मदर और मृत्युदर जनांकिकीय संक्रमण का एक महत्वपूर्ण चर है। विकासशील देशों में वर्तमान समय में घटती हुई जन्मदर की प्रवृत्ति है, जबकि मृत्युदर विकसित देशों के करीब पहुंच गई है। लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में प्रजनन दर विश्व औसत से अधिक है। शिशु मृत्यु दर भी उच्च है, जबकि इसमें पर्याप्त सुधार हुए हैं। पोषण के स्तर में सुधार, महामारियों पर नियंत्रण, चिकित्सकीय सुविधाओं के विस्तार से मृत्युदर में काफी गिरावट आयी है। लेकिन इसकी तुलना में जन्म दर की गिरावट कम हुई है। अतः भारत जैसे विकासशील देशों में धीमी गति से जनसंख्या की वृद्धि हो रही है।
किसी भी जनसंख्या संक्रमण में लिंग अनुपात, पुरुष और स्त्रियों के बीच संतुलन का एक सूचक होता है। यह प्रति हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या के रूप में मापा जाता है। लिंग अनुपात का दूसरे जनांकिकीय लक्षणों यथा जनसंख्या की वृद्धि, विवाह दर, व्यावसायिक संरचना आदि पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। अज्ञात कारणों से लगभग सभी समाजों में पुरुष जन्म, स्त्री जन्म से अधिक होता है। किंतु जन्म से पहले और बाद की दशाएं, कभी-कभी इस स्थिति को अत्यधिक परिवर्तित कर देती हैं। विकासशील देशों में शिशु मृत्युदर बालिकाओं की तुलना में बालकों की अधिक है। अनेक विकासशील देशों में स्त्रियों को समाज में गौण स्थान प्रदान किए जाने के कारण उनमें प्रजनन के समय हुई मृत्युदर काफी ऊंची होती है। इसमें प्रतिकूल लिंग-अनुपात को बढ़ावा मिलता है। इन देशों में समग्र लिंगानुपात अधिकतर महिलाओं के प्रतिकूल ही होता है।
इस प्रकार भारत जैसे विकासशील देशों की जनांकिकीय संक्रमणों के वर्णन के लिए विभिन्न प्रचालों का प्रयोग किया गया है, जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जनांकिकीय लक्षणों को प्रभावित करता है।
Question : वैश्विक पारिस्थितिक असंतुलनों एवं उनके प्रबंधन पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : आदिम मानव पारिस्थितक तंत्र के साथ सामंजस्य स्थापित कर जीवन व्यतीत करता था। सांस्कृतिक विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक तंत्र में मानव का हस्तक्षेप बढ़ता गया, जिसके फलस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन की समस्या उत्पन्न हुई है। पारिस्थितिक असंतुलन के लिए मुख्यतः निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं।
उपर्युक्त कारकों के फलस्वरूप स्थलमंडल, जलमंडल एवं वायुमंडल का प्रदूषण हुआ है। अवैज्ञानिक कृषि के कारण मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न हुई है। कीटनाशक एवं रासायनिक उर्वरक के अधिक प्रयोग के कारण मृदा में उपस्थित लाभदायक जीवाणुओं की मृत्यु हो जाने से बंजर भूमि की समस्या उत्पन्न हुई है। अति सिंचाई के कारण जल जमाव, अम्लीयता एवं क्षारीयता में वृद्धि हो रही है। खानों से खनिजों की खुदाई तथा नगरों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों के ढेर जमा होने से भूमि उत्पादक कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं रहती है। अतिचारण, वनों की कटाई तथा जलवायु परिवर्तन के कारण मरूस्थलों का प्रसार हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अनुमान के अनुसार अफ्रीका महादेश के लगभग 40 प्रतिशत हरित प्रदेश के मरूस्थल हो जाने का खतरा है। एशिया महाद्वीप की 33 प्रतिशत तथा लैटिन अमेरिका की 20 प्रतिशत भूमि मरूस्थलीकरण के खतरे से प्रभावित है। नगरों से निकलने वाला मल-मूत्र तथा कल-कारखानों से निकलने वाले कूड़ा-कचरा को जलाशयों एवं नदियों में प्रवाहित करने से जल प्रदूषित हो जाता है। इन विषैले तत्वों का प्रभाव जलीय जीवों पर पड़ता है एवं जलीय पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है। अनेक नदियों एवं जलाशयों के जल में कॉलीफार्म बैक्टीरिया की मात्र तथा बी. ओ. डी की मात्रा बढ़ रही है।
कृषि में प्रयुक्त रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के कारण भी जल प्रदूषित हो रहा है। खेतों से बहाकर लाए गए पोषक तत्वों के जलाशयों में जमा हो जाने से सुपोषण हो जाता है। इसके कारण जलाशयों में शैवाल की मात्रा काफी अधिक हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है एवं जलीय जीवों का दम घुट जाता है एवं वे मर जाते हैं। नगरीय कूड़े-कचरे में मौजूद विषैले तत्वों का कुछ अंश रिस-रिसकर भूमिगत जल में मिल जाता है एवं उसे भी प्रदूषित कर देता है। तमिलनाडु के अर्काट जिले के अनेक कुओं का जल इसी प्रकार प्रदूषित हो चुका है।
स्थलमंडल के प्रदूषित जल के नदियों में पहुंचने तथा तेल वाहक जहाजों से तेल के रिसने के कारण हेल, शार्क, ओलिव रिडले जैसे महासागरीय परितंत्र के जीवों का विनाश हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण प्रवाली जीवों का विरंजन हो रहा है। नाभिकीय कचरों के महासागरों में फेंके जाने के कारण भी जीवों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार महासागरीय पारिस्थिकी तंत्र भी संकट के दौर से गुजर रहे हैं।
जीवाश्म ईधन के दहन के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साईड, कार्बन मोनो ऑक्साईड जैसी गैसों की मात्रा बढ़ रही है। ऐसा अनुमान है कि पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाई ऑक्साईड की मात्रा में 25% की वृद्धि हुई। कार्बन डाईऑक्साइड, मिथेन नाइट्रस ऑक्साईड, सी एफ सी आदि गैसों के कारण ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या उत्पन्न हुई है। इसके फलस्वरूप विगत शताब्दी में तापमान में 0.7°C की वृद्धि हुई है। इसका प्रतिकूल प्रभाव वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं पर पड़ रहा है। वायुमंडल में सल्फर डाइ ऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड आदि गैसों की मात्रा बढ़ने से अम्ल वर्षा होती है। अम्लीय वर्षा का जलीय एवं स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
स्वीडन, नार्वे, कनाडा तथा अमेरिका जैसे देशों की झीलें अम्लीय वर्षा से बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। इससे वृक्षों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं एवं उनका विकास रूक जाता है। यूरोप में 60 लाख हेक्टेयर वन अम्ल वर्षा के कारण क्षतिग्रस्त हो चुके हैं।
रेफ्रीजेरेटर, ए. सी., अग्निशामक यंत्र से निकलने वाली सी. एफ. सी, हेलोन तथा ब्रोमीन गैसों के कारण ओेजन परत का क्षरण होता है। इससे पराबैंगनी किरणें धरातल पर पहुंचकर जीव-जन्तुओं पर हानिकारक प्रभाव डालती हैं। जैव मंडल के अजैव घटकों के प्रदूषण का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से जैव मंडल पर पड़ता है। पारिस्थितिकी तंत्र, अवशिष्टों का विघटन कर उनका पुनः चक्रण करता रहता है परंतु जब यह उसकी दहन क्षमता से अधिक हो जाती है तो पारिस्थितिकी असंतुलन होने लगता है। पारिस्थितिक पिरामिड के शीर्ष पर स्थित होने के कारण मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से पारिस्थतिकी तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।
वनों की कटाई, जीव-जंतुओं के विनाश तथा मोनो कल्चर के कारण जैविक विविधता का ह्रास होता है एवं पारिस्थितिकी तंत्र का सरलीकरण हो जाता है। इसका प्रभाव ऊर्जा प्रवाह पर पड़ता है, जो पारिस्थितिकी तंत्र का आधार है। जनसंख्या वृद्धि तथा मानवीय क्रिया-कलाप के कारण कुछ पशुओं एवं पक्षियों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो गए हैं या सिकुड़ गए हैं। जीवों की लगभग 50 प्रजातियां, प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं। अमेरिकी बाइसन, प्रेयरी कुत्ते, प्रेयरी तोता आदि विलुप्त होने के कगार पर हैं। पारिस्थितिकी असंतुलन न केवल आर्थिक विकास में रूकावट बन सकता है, बल्कि यह संपूर्ण जैव मंडल के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकता है। अतः विश्व स्तर पर पारिस्थितिकी प्रबंध की दिशा में कई कार्य किए गए हैं।
पारिस्थितिकी प्रबंध का तात्पर्य है, पारिस्थितिकी को असंतुलित किए बिना पारिस्थितिकी संसाधनों का आदर्श उपयोग से है। पारिस्थितिकी प्रबंध की दिशा में प्रथम प्रयास 1972 ई. में स्टॉकहोम सम्मेलन के माध्यम से किया गया।
इस सम्मेलन के बाद जन जागरूकता लाने हेतु प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। 1987 ई. में मांट्रियल में ओजोन परत को रोकने के लिए समझौता किया गया। विश्व को पारिस्थितिकी असंतुलन से बचाने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयास रियो सम्मेलन के माध्यम से 1992 ई. में किया गया।
इस सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग को रोकने, वन संरक्षण, जैव विविधता, कार्यक्रम-21 तथा रियो घोषणा पत्र पर समझोते किए गए। इस सम्मेलन के पश्चात् 1998 में न्यूयार्क सम्मेलन, 2000 में क्योटो सम्मेलन एवं 2002 में जोहांसबर्ग सम्मेलन आयोजित किए गए।
यद्यपि परिस्थितिकी तंत्र के प्रबंधन हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास प्रारंभ किए गए हैं, परंतु विकसित तथा अल्पविकसित देशों के बीच कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विवाद के कारण इस दिशा में विकास की गति काफी धीमी है। पारिस्थितिकी प्रबंधन हेतु निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए।
Question : संधृत विकास
(2006)
Answer : विगत शताब्दी में जनसंख्या विस्फोट तथा उपभोक्ता वादी संस्कृति के कारण संसाधनों पर दबाव में काफी वृद्धि हुई है। इसके परिणामस्वरूप एक ओर संसाधनों के विलोपन की आशंका उत्पन्न हुई है तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है। उदाहरण के लिए ऐसी आशंका है कि खनिज तेल का भंडार 40-50 वर्षों में तथा कोयला 150-200 वर्षों में समाप्त हो जाएगा। उद्योगों तथा वाहनों से निकालने वाले धुओं के कारण वायु प्रदूषण हो रहा है। ओजोन परत का क्षरण हो रहा है तथा ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न हो रही है। कीटनाशक, रासायनिक उर्वरक तथा नगरों से निकलने वाले कचरे के कारण न केवल सतह का जल बल्कि भूमिगत जल का भी प्रदूषण हो रहा है।
कृषि भूमि के अवैज्ञानिक प्रयोग के कारण मृदा अवनयन की समस्या उत्पन्न हो रही है। वनों की कटाई एवं वन्य जीवों के शिकार के कारण जैविक विविधता का ह्रास हो रहा है। इनका सम्मिलित परिणाम यह है कि पारिस्थितिक तंत्र ही असंतुलित होता जा रहा है। संसाधनों की कमी तथा पर्यावरण प्रदूषण का प्रभाव गरीब जनसंख्या पर अधिक पड़ रहा है।
उपर्युक्त समस्या पर विचार करने तथा इसका समाधान ढूढने के लिए(World Commission on Environ-ment and Development) की स्थापना की गई।
इसके तत्वावधान में ब्रटलैंड कमीशन ने 1987 में अपना प्रतिवेदन ‘अवर कॉमन फ्रयूचर’ प्रकाशित किया। इसमें स्वीकार किया गया कि पर्यावरण की अवहेलना कर संधृत विकास नहीं किया जा सकता है।
संधृत विकास का तात्पर्य है-‘भावी पीढ़ी को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अवसर से बिना वंचित किए, वर्तमान पीढ़ी की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में इस अवधारणा को मूर्त करने का प्रयास किया गया।
इस सम्मेलन में एजेंडा-21 पारित कर मानव विकास को धारणीय विकास का केंद्रीय उदेश्य मान कर, मानव के प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए स्वस्थ एवं उत्पादक जीवन के अधिकार को मान्यता दी गई।
धारणीय विकास संसाधनों के विदोहन का विरोधी नही हैं। इसकी मान्यता यह है कि संसाधनों का विदोहन पृथ्वी की वहन क्षमता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए तथा संसाधनों पर गरीब एवं धनी जनसंख्या का समान रूप से अधिकार होना चाहिए। हाल के वर्षों में धारणीय विकास की अवधारणा ने एक पैराडाइम का रूप धारण कर लिया है। किसी भी विकास नीति की क्षमता को मापने का यह एक मापक बन चुका है।
Question : विश्व स्तरीय पर्यावरणीय प्रदूषण की प्रमुख समस्याओं का निरुपण कीजिए तथा उन पर नियंत्रण के उपाय भी सुझाइए।
(2005)
Answer : पर्यावरण प्रदूषण की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, फिर भी अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (1966) के अनुसार ‘प्रदूषण जलवायु या भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन है, जिससे मानव, अन्य जीवों, औद्योगिक प्रक्रियाओं या सांस्कृतिक तत्व तथा प्राकृतिक संसाधनों को कोई हानि हो या हानि होने की संभावना हो।’
संयुक्त राष्ट्र के मानव पर्यावरण सम्मेलन में प्रदूषण की परिभाषा निम्नवत दी गई है- ‘प्रदूषक वे सभी पदार्थ और ऊर्जा हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मानव के स्वास्थ्य और उसके संसाधनों को हानि पहुंचाते हैं।’
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रदूषण से सामान्य अभिप्राय स्थानीय रूप से पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास से है जो मानवीय क्रियाओं से जनित होता है। पर्यावरणीय प्रदूषणों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है।
(1) वायु प्रदूषणः विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण ऐसी स्थिति है जिसमें वायु पर्यावरण में मानव और उसके पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले तत्व सघन रूप से एकत्रित हो जाते हैं। वायु प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत हैं- (i) प्राकृतिक- ज्वालामुखी उद्गार, धूल व रेत कणों का अपवाहन, वनाग्नि आदि तथा (ii) मानवकृत- (उद्योग, नगरीय केन्द्र, स्वचालित वाहन, वायुयान, कृषि, ऊर्जा संयंत्र आदि)। इसमें मानवकृत प्रदूषण अधिक व्यापक तथा घातक होता है। वायु प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या है। औद्योगिक क्षेत्रों व नगरों तथा उत्खनन क्षेत्रों में इसका विकराल रूप देखने को मिलता है।
वायु प्रदूषण के घातक प्रभावों में ओजोन क्षय सर्वप्रमुख है। यह एक क्षीण किंतु अत्यंत प्रभावी परत है, जो सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी तक पहुंचने से रोकती है। यदि ये किरणें भूतल तक पहुंच जाएं तो त्वचा कैंसर बढ़ने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। यही नहीं, अन्य रोगों के प्रति प्रतिरोधकता भी विनष्ट होती है। पौधों व फसलों पर भी इसके दुष्प्रभाव होते हैं। ये किरणें समुद्र के भीतर प्रविष्ट होकर मत्स्य आदि सागरीय जीवों को भी हानि पहुंचाती हैं।
वायु प्रदूषण की दूसरी प्रमुख समस्या ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आयी है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के परिणामस्वरूप 1880-1990 की अवधि में औसत तापमान में 0.5º सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही तो 2030 तक औसत तापमान 0.5º से 1.5ºC तक बढ़ जाएगा। कार्बन डाइऑक्साइड के अतिरिक्त पशुओं के गोबर धान के खेत तथा सूखी लकडि़यों से मीथेन गैस वायुमंडल में पहुंचकर तापमानों की वृद्धि में योगदान दे रही हैं। साथ ही रेफ्रीजरेटरों, एयरकंडीशनरों, ड्रायरों तथा वायुयानों के धूएं से निकलने वाला क्लोरो-फ्रलोरो कार्बन भी इसमें सहयोगी हैं। इसके अन्य दुष्परिणाम इस प्रकार हैं-
वायु प्रदूषण के परिणामस्वरूप अम्ल वर्षा एवं धूम कोहरे की समस्या भी उत्पन्न हुई है। अम्ल वर्षा के दुष्परिणामों में (i) पौधों व मिट्टियों से पोषक तत्वों का अत्यधिक निक्षालन (ii) जलीय परितंत्रों में भक्षकों तथा शिकार का असंतुलन (iii) झीलों व सरिताओं का अम्लीकरण तथा (iv) संरचनाओं का संक्षारण प्रमुख हैं। धूम कोहरे से श्वास लेने में कठिनाई तथा आंखों में जलन पैदा होती है। दमा, खांसी आदि रोग अन्य प्रभाव हैं।
(2) जल प्रदूषण (Water Pollution): जल का प्रदूषण अनेक कारकों द्वारा होता है जो प्रकृति में स्वतंत्र नहीं अपितु एक-दूसरे से अंतर्क्रिया करते हैं। इन कारकों को दो वर्गों मं बांटा जाता है-
(i) प्राकृतिक एवं (ii) मानवकृत
प्राकृतिक कारकों में गैसें मिट्टी, खनिज, जीवांश, प्राणियों द्वारा उत्पन्न विनष्ट पदार्थ आदि प्रमुख हैं। वर्षा काल में नदियों तालाबों एवं अन्य जलाशयों में मिट्टी का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है। इन जलराशियों का जल मिट्टी के कारण मटमैला हो जाता है। सोडियम, पौटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम लोहा आदि खनिज भी जल में मौजूद होते हैं। यदि जल में इन खनिज तत्वों की मात्र अनुज्ञेय सीमा (Permissible limit) से अधिक होती है तो ये हानिकारक होते हैं।
मानवीय क्रियाएं जल प्रदूषण के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं। जनसंख्या, नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की तीव्र वृद्धि तथा रसायनों के बढ़ते हुए प्रयोग के कारण जल प्रदूषण की समस्या दिनोंदिन उग्र होती जा रही है। जल प्रदूषण की समस्या औद्योगिक विकसित देशों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी अनियंत्रित हो गई है। यह केवल मानव स्वास्थ्य के लिए ही नहीं अपितु सभी जीवों तथा नाजुक पारितंत्रों के लिए के लिए भी हानिकारक है। प्रदूषित जल के सेवन के कारण विकासशील देशों में शिशु मर्त्यता (infant mortality) की दर बहुत ऊंची पायी जाती है। वाहित जल के कारण जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। जिससे जलाशयों में मछलियों तथा अन्य जीवों की मृत्यु हो जाती है।
3. ध्वनि प्रदूषणः ध्वनि हमारे जीवन का सामान्य लक्षण है, जिसके माध्यम से संवाद संभव होता है। ध्वनि खुशनुमा तथा शोरनुमा दोनों ही प्रकार की हो सकती है। मैक्स बेल (Maxwell K.E. 1973) के अनुसार शोर एक अवांछनीय ध्वनि है। यह पर्यावरणीय प्रदूषण का एक सामान्य रूप है। नगरीय क्षेत्रों में स्वचालित वाहन, पर्यावरणीय शोर में वृद्धि करते हैं।
ध्वनि प्रदूषण के दुष्परिणामों में श्रवण श्रांति, बधिरता न्यूरोसिस, व्यग्रता, अनिद्रा अति तनाव, यकृत रोग आदि प्रमुख हैं। श्वसन रक्त परिसंचरण तथा जठरांत्र क्रिया में भी परिवर्तन प्रकट होते हैं। निरंतर शोर से कोलेस्ट्राल में वृद्धि होती है जो हृदयाघात का कारण बनती है। सुपरसोनिक विमानों से प्रभावी तरंगे पैदा होती हैं, जो धरातल पर मकानों की खिड़कियों व इमारती संरचनाओं को क्षति पहुंचाती है।
4. रेडियोधर्मी प्रदूषणः रेडियोधर्मी तत्व सर्वाधिक विषाणु पदार्थों में से हैं। इनके विनाशकारी प्रभावों का परिमाण अत्यंत व्यापक है, जिसे मात्रत्मक रूप में व्यक्त करना असंभव सा है।
प्राकृतिक रूप से रेडियोधर्मी पदार्थ गैसों, जल, वायु, तथा सभी जीवित प्राणियों में पाए जाते हैं। प्राकृतिक रूप से होने वाले विकिरण को पृष्ठभूमि विकिरण कहा जाता है, जो लाखों वर्षों से स्थिर रहा है। मानवकृत विकिरण एक्सरे मशीनों रेडियोधर्मी अवपात नाभिकीय रियेक्टरों शोध प्रयोगशालाओं तथा रेडियोधर्मी पदार्थों का औद्योगिक तथा चिकित्सीय उपयोग करने वाले संस्थानों के अपशिष्ट पदार्थों द्वारा होता है।
विकिरण के विभिन्न रूपों के भिन्न प्रभाव होते हैं। अवरक्त किरणें तथा कुछ अन्य विकिरण लाभकारी होते हैं। एक्सरे से उत्पन्न होने वाले विकिरण जैविकीय रूप से हानिकारक होते हैं। रियेक्टरों के विखंडन क्रिया से अनेक पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो जाते हैं। इनसे निकले रेडियोधर्मी पदार्थ द्वारा मिट्टी तथा जल का प्रदूषण होता है, जो पौधों तथा अन्य प्राणियों के लिए घातक होता है। वायु में व्याप्त रेडियोधर्मी विकिरण मानव के श्वसन तंत्र को प्रभावित करते हैं। विकिरण से कैंसर, असामान्य जन्म, त्वचा रोग, ल्यूकेमिया आदि दुष्प्रभाव होते हैं।
5. भूमि प्रदूषणः पृथ्वी का केवल 29 प्रतिशत भाग स्थलीय है किंतु यह समस्त भाग मानव निवास एवं उसके उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं है।
भूमि प्रदूषण मानवीय क्रिया-कलापों से उतना नहीं होता जितना कि ठोस अपशिष्ट पदार्थों के निःसारण से होता है। यह समस्या विकसित देशों में अधिक उग्र है किंतु अब सभी देश चाहे वे विकासशील हो या विकसित, इस समस्या से ग्रस्त हैं। भूमि प्रदूषण जल अथवा वायु प्रदूषण से भिन्न होता है, क्योंकि इसमें लंबी अवधि तक प्रदूषक तत्व उसी स्थान पर ठहरे रहते हैं। कृषि में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक प्रदूषण पैदा करते हैं। भूमि तथा मिट्टी का प्रदूषण दिनों दिन बढ़ रहा है, जिससे खतरनाक पदार्थ एवं सूक्ष्म जीवाणु भोजन श्रृंखला या जल के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच रहे हैं।
प्रदूषण पर नियंत्रण के उपायः पर्यावरण एक जटिल विश्व व्यापी पारिस्थितिकी है जिसके संरक्षण एवं विकास के लिए बहुआयामी कार्यक्रम आवश्यक है। उपर्युक्त पांचों घटक तीव्र गति से प्रदूषित हो रहे हैं। इन्हें प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए प्रथमतः सभी देशों को सख्त कानून बनाने तथा उन्हें कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। जैसे-भारत में जल और वायु प्रदूषण के नियंत्रण का कानून 70 के दशक में ही बनाया गया था लेकिन कार्यान्वयन के प्रति राजनैतिक प्रशासनिक प्रतिबद्धता का अभाव पर्यावरणीय प्रदूषण को बढ़ा रहा है। वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्र अम्ल वर्षा और ओजोन हाउस ऐसी गंभीर समस्याएं हैं, जो संपूर्ण पृथ्वी तंत्र के जैविक समुदाय को विनाश के कगार पर पहुंच सकता है। इस संबंध में मांट्रियल प्रोटोकॉल और क्योटो प्रोटोकॉल को कार्यान्वित करना अतिआवश्यक है। मांट्रियल प्रोटोकॉल के लिए एक विशेष कोष की स्थापना की गई है।
क्योटो प्रोटोकॉल का मुद्दा मुख्यत नवीन अमरीकी प्रशासन के अनुसार चीन और भारत जैसे देशों पर कोई दबाव नहीं दिया गया है, जबकि ये दोनों देश जीवाश्म ऊर्जा का सर्वाधिक उपयोग करते हैं, इसलिए अमेरिका इस संधि को नहीं मानता है। जल प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए कुछ नियंत्रणकारी उपाय अपनाए जा सकते हैं, जो इस प्रकार हैंµ
इसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए भी कुछ नियंत्रणकारी उपाय अपनाए जा सकते हैं, जो इस प्रकार हैं-
रेडियोधर्मी प्रदूषण से पर्यावरण को मॉनिटर करते रहना चाहिए। इसके लिए नाभिकीय संयंत्रें को सुरक्षित बनाना, अपशिष्ट पदार्थों के विसर्जन की उपयुक्त व्यवस्था करना, ‘रिसावों’का नियंत्रण करना, यूरेनियम खादानों में उपयुक्त प्राविधिकी का प्रयोग आदि उपाय आवश्यक हैं। सबसे महत्वपूर्ण कार्य परमाणु हथियारों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना है, जिससे विश्व भविष्य में परमाणु विस्फोट की आशंका से मुक्त रह सके।
भूमि प्रदूषण को भी उचित उपायों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। निस्तारण से पूर्व अपशिष्टों को एकत्रित करके खुले स्थानों, गढ्ढों आदि में फेंका जा सकता है। घरेलू कूड़े-कचरे तथा मल-मूत्र से खाद बनाकर उसका पुनर्चक्रण करना उपयोगी होता है।
उपयुक्त उपायों को अपनाकर पर्यावरण प्रदूषण को रोकने तथा उसे दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। इनके अलावा पर्यावरण संरक्षण की दिशा में टिकाऊ विकास की अवधारणा को भी अपनाने की आवश्यकता है, तभी पर्यावरण तथा पारिस्थितक तंत्र के असंतुलन को दूर किया जा सकता है।
Question : भूमंडलीय तापन के प्रभाव पृथ्वी के एक भाग से दूसरे भाग के बीच किस प्रकार से भिन्न होंगे? एक तर्कयुक्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2004)
Answer : वायुमंडल में मानव-जनित कार्बन डाइऑक्साइड के आवरण प्रभाव (blanketting effect) के कारण पृथ्वी की सतह के प्रगामी तापन को भूमंडलीय तापन कहते हैं। जिस प्रक्रिया द्वारा भूमंडलीय तापन होता है उसे हरितगृह प्रभाव (Greenhouse Effect) कहा जाता है।
पृथ्वी के संदर्भ में जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड तथा कुछ अन्य गैसें हरितगृह की तरह व्यवहार करती हैं क्योंकि ये सौर्यिक विकिरण को धरातल तक पहुंचने में कोई बाधा उपस्थित नहीं करती हैं परंतु पृथ्वी से होने वाले बर्हिगामी दीर्घ तरंगें विकिरण को सोख लेती हैं तथा उन्हें भूतल की ओर पुनः प्रत्यावर्तित कर देती हैं जिस कारण धरातलीय सतह निरंतर गर्म होती रहती है। कार्बन डाइआक्साइड के अलावा मिथेन, नाइट्रस आक्साइड, ओजोन तथा हैलोजनित गैसें हरितगृह गैसों के अंतर्गत आती हैं।
मनुष्य द्वारा विभिन्न उद्देश्यों के लिए जीवाश्म ईंधनों के जलाये जाने के कारण वातावरण में हरितगृह गैसें खासकर कार्बन डाइआक्साइड की मात्र लगातार बढ़ रही है जिससे भूमंडलीय तापन का खतरा पैदा हो गया है। इसका प्रभाव अब परिलक्षित होने लगा है- पिछली शताब्दी में 0.5ºC का तापन हुआ है। ध्यान देने वाली बात ये है कि 3ºC के शीतलन द्वारा पिछले हिमयुग का अविर्भाव हुआ था।
भूमंडलीय तापन के प्रभाव के कई प्रमाण मिलने लगे हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में स्थित पर्वतीय हिम टोपियां तेजी से पिघल रही हैं, उसी प्रकार उत्तरी जलवायु के हिमनद भी। कुछ असामान्य घटनाएं भी घट रही हैं- मध्य यूरोप में बाढ़, दक्षिण एशिया में चक्रवात का अविच्छिन्न प्रकोप, अमेरिकन मैदान में बसंतकालीन हिम-तूफान। पृथ्वी के एक भाग से दूसरे भाग तक ये विचित्र मौसमी पैटर्न या बदलाव के संकेत दे रहे हैं।
भूमंडलीय तापन द्वारा जल का अधिक वाष्पीकरण होने की उम्मीद है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि वायु में जलवाष्प की मात्र पिछले 20 वर्षों में 10% तक बढ़ गयी है। यह अतिरिक्त जलवाष्प मौसमी प्रतिमान को व्याधित कर सकता है तथा उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विनाशकारी तूफानों की बारंबरता व तीव्रता दोनों बढ़ सकती है एवं दूसरे क्ष्ोत्रें में सूखा पड़ सकता है।
विभिन्न शोधों ने यह संभावना व्यक्त की है कि मानव जनित इस भूमंडलीय तापन से दिन के उच्च तापमान तथा रात्रि के निम्न तापमान के बीच का अंतर कम हो सकता है। क्षेत्रीय तौर पर देखें तो तापन उत्तरी गोलार्द्ध में ज्यादा होनी चाहिये क्योंकि अधिकांश ग्रीन हाउस गैसें उत्तरी गोलार्द्ध में भी उत्सर्जित हो रही हैं।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) द्वारा हाल ही में भूमंडलीकरण स्तर पर कई महत्वपूर्ण प्रेक्षण किये गये हैं। इस अध्ययन के अनुसार-
भूमंडलीय तापन का प्रभाव कई क्षेत्रों पर पड़ने की संभावना है। जैसे- कृषि, मत्स्यन, वानिकी इत्यादि। IPCC द्वारा वर्तमान कृषि उत्पादन का प्रतिमान उत्तरी अक्षांशों की तरफ जाने की भविष्यवाणी की गयी है।
ध्रुवीय हिम के पिघलने के कारण समुद्री जल स्तर बढ़ने की आशंका है जो तटीय क्षेत्रों और द्वीपीय क्षेत्रों को जलमग्न कर सकता है। खासकर जो घनी आबादी वाले हैं, जैसे- बांग्लादेश, श्रीलंका, मारीशस, फिजी इत्यादि। जलवायु संबंधी बीमारियों के अब तक प्रभावित रहे क्षेत्रों तक प्रसार होने की संभावना है। (मध्य व उच्च अक्षांशों तक) जैसे फ्रांस में 2004 में आया हीट वेव।
वनीय आग की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है, खासकर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में (हाल के वर्षों में इंडोनेशिया में जंगलों में लगी आग)। अल नीनो जैसी जलवायविक परिघटनाओं की बारंबारता बढ़ रही है जिसका मानसून तथा वैश्विक मौसम पर प्रभाव बताया जाता है। इसके अलावा भूमंडलीय तापन के आर्थिक प्रभाव काफी गहरे हो सकते हैं। खासकर विकास देशों के लिए जो कृषि व प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित हैं।
Question : पर्यावरण प्रदूषण।
(2003)
Answer : पर्यावरण दो शब्दों ‘परि’ तथा ‘आवरण’ के संयोग से बना है, जिसका अर्थ है चारों ओर का आवरण। यह पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवधारियों के परितः वह आवरण है जिसका जीवधारियों पर सीधा प्रभाव पड़ता है तथा साथ ही स्वयं जीवधारियों की गतिविधियों के कारण प्रभावित होता रहता है।
सामान्यतः पर्यावरण के विभिन्न घटक एक निश्चित मात्र तथा अनुपात में होते हैं तथा विभिन्न घटकों के मध्य साम्य बना रहता है। विशिष्ट परिस्थितियों में पर्यावरण में अवांछित तथा हानिकारक घटकों का प्रभुत्व बढ़ जाता है, परिणामस्वरूप पर्यावरण दूषित हो जाता है और जीवधारियों को इसका दुष्परिणाम झेलना पड़ता है।
पर्यावरण प्रदूषण का वर्गीकरण पर्यावरण के घटकों जैसे वायु, जल, मृदा आदि के आधार पर हो सकता है जो निम्न हैंः
(i) वायु प्रदूषणः वायुमंडल की संरचना विभिन्न प्रकार के गैसों से हुई है। वायुमंडल में पायी जाने वाली ये विभिन्न प्रकार की गैसें जीवधारियों तथा पर्यावरण में विशेष स्थितियों के कारण संतुलन की स्थिति में रहती है। परंतु बढ़ती मानवीय आवश्यकताओं के कारण औद्योगीकरण, परिवहन, खनन, वनों का विनाश आदि बढ़ा है। परिणामस्वरूप वायुमंडल में कुछ गैसें अधिक मात्र में पहुंचने लगी हैं, जिसका प्रतिफल वायु प्रदूषण के रूप में दिखाई पड़ रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण अम्ल वर्षा, हरित गृह प्रभाव व वैश्विक तापमान में वृद्धि तथा ओजोन परत के क्षरण की घटनाएं अब व्यापक चिंता का विषय बनती जा रही हैं।
(ii) जल प्रदूषणः जल प्रदूषण कृषि में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशकों उर्वरकों, नगर मल-मूत्र तथा कचरा निष्कर्षण, घरेलू अपमार्जकों व डिटर्जेंटों तथा कल कारखानों से निकले व्यर्थ पदार्थों आदि के कारण प्रदूषित होता रहता है। खनिज तेल भी जल प्रदूषण का बड़ा कारक है, जिससे अनेक समुद्री जीव-जंतु खतरे का सामना कर रहे हैं। प्रदूषित जल के उपयोग से अनेक रोगों जैसे टायफाइड, पेचिस, हैजा, अतिसार हेपेटाइटिस व पीलिया के संक्रमण का खतरा बना रहता है।
(iii) ध्वनि प्रदूषणः लगातार बढ़ते औद्योगीकरण एवं वाहनों की संख्या के चलते ध्वनि प्रदूषण का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। 80 डेसिबल से अधिक का लगातार शोर व्यक्ति को बेचैन असंतुलित एवं अंततः पागल बना सकता है।
(iv) रेडियोधर्मी प्रदूषणः रेडियोधर्मी पदार्थों जैसे यूरेनियम, थोरियम, प्लूटोनियम आदि के विकिरण से होने वाला प्रदूषण रेडियोधर्मी प्रदूषण कहलाता है। रेडियोधर्मी प्रदूषण दो प्रकार के होते हैंः प्राकृतिक एवं मानवजन्य। इनमें से मानवजन्य रेडियोधर्मी प्रदूषण ज्यादा हानिकारक होते हैं। मानवजन्य विकिरण परमाणु विस्फोट, परमाणु भट्ठियों में रिसाव होने तथा रेडियोधर्मी व्यर्थ पदार्थों के निस्तारण से होता है। रेडियोधर्मी विकिरण के कार्यिक एवं आनुवंशिक प्रभाव काफी घातक होते हैं। नाभिकीय विकिरण जीवित ऊतकों के जटिल अणुओं को विघटित कर कोशिकाओं को नष्ट कर देते हैं। इन मृत कोशिकाओं के कारण चर्म रोग, कैंसर जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए कई प्रकार की राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय एवं स्वयंसेवी संस्थाएं कार्यरत हैं। कई प्रकार के अंतर्राट्रीय करारों एवं संधियों के द्वारा इस प्रदूषण को रोकने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन अभी पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है।
Question : एक पारिस्थितिक तंत्र के रूप में जीवमंडल की संकल्पना पर विस्तार से लिखिए।
(2002)
Answer : वस्तुओं के सम्मुच्चय को तंत्र कहा जाता है, जिसके अन्तर्गत एक वस्तु का दूसरे वस्तु से सम्बन्ध तथा उनके वैयक्तिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। तंत्र वस्तुओं या विचारों का एक गठित समुच्चय होता है। ये (तंत्र) ऐसे संघटकों अथवा विचारों से मिलकर बनते हैं जिनमें आपस में दृश्य संबंध होते हैं तथा ये एक साथ निश्चित प्रणाली के तहत कार्यशील होते हैं। पारिस्थितिक तंत्र नामावली का सर्वप्रथम प्रयोग ए.जी. टान्सली द्वारा 1935 में किया गया था। टान्सली के अनुसार पारिस्थितिक तंत्र भौतिक तंत्रों का एक विशेष प्रकार होता है। इसकी रचना जीवों तथा अजैविक संघटकों से होती है, यह अपेक्षाकृत स्थिर समस्थिति में होता है। यह विवृत तंत्र होता है तथा विभिन्न आकारों एवं प्रकारों का होता है। टान्सली ने पुनः बताया कि पारिस्थितिक तंत्र दो प्रमुख भागों से बना होता हैः (i) जीवोम या बायोम (ii) निवास्य क्षेत्र (भौतिक पर्यावरण)। अतः इस तरह के पारिस्थितिक तंत्र के सभी भागों-जैविक एवं अजैविक, बायोम तथा निवास्य क्षेत्र को परस्पर क्रियाशील कारक समझना चाहिए, जो एक प्रौढ़ पारिस्थितिक तंत्र में लगभग संतुलित दशा में होते हैं। इन कारकों की पारस्परिक क्रियाओं द्वारा ही समस्त तंत्र कायम रहता है।
चूंकि पारिस्थितिक तंत्र एक आधारभूत कार्यशील क्षेत्रीय इकाई होता है जिसके अन्तर्गत जैविक समुदाय, अजैविक संघटन तथा उर्जा संघटक के सकल रूप को सम्मिलित करते हैं तथा निर्धारित समय के परिवेश में इन संघटकों के आपसी अन्तर्सम्बन्धों एवं अन्तर्क्रियाओं का अध्ययन करते हैं, अतः जीवमंडल (जिसमें पारिस्थितिक तंत्र की समस्त विशेषताएं निहित होती हैं) वृहत्तम पारिस्थितिक तंत्र का उदाहरण है, क्योंकि जीवमंडलीय पारिस्थितिक तंत्र की रचना जैविक संघटक (पादप, मानव सहित जन्तु तथा सूक्ष्म जीव), अजैविक संघटक (स्थल, जल तथा वायु) तथा ऊर्जा संघटक (सौर्यिक ऊर्जा) से होती है तथा ये संघटक वृहदस्तरीय भूजैव रसायन चक्रों के माध्यम से अन्तरंग ढंग से आपस में अंतर्संबंधित होते हैं।
जीवमंडल की रचना दो प्रमुख तंत्रों से हुई है। स्थलीय बायोम तंत्र तथा जलीय बायोम तंत्र। स्थलीय बायोम तंत्र के अन्तर्गत तीन उपतंत्र होते हैं-(i) पादप तंत्र (ii) जन्तु तंत्र (iii) मृदा तंत्र। ये उपतंत्र आपस में ऊर्जा तथा पदार्थों के संचरण एवं स्थानान्तरण के विभिन्न चक्रीय मार्गों द्वारा अन्तरण रूप में अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। जलीय बायोम तंत्र के अन्तर्गत भी तीन उपतंत्र होते हैं। -(i) पादप तंत्र (ii) जन्तु तंत्र (iii) पोषक तंत्र। जलीय बायोम तंत्र के ये तीन उपतंत्र भी पार्थिव बायोम तंत्र के उपतंत्रों की भांति ऊर्जा तथा पदार्थों के संचरण के चक्रीय भागों द्वारा आपस में अन्तर्संबंधित होते हैं।
जीवन मंडल के उपतंत्र, संघटक तथा उनके अंतर्संबंध
जीवमंडल एक खुला या विवृत तंत्र का भी उदाहरण है क्योंकि इसमें ऊर्जा का सतत निवेश या आगमन तथा पदार्थों का सतत बर्हिगमन होता रहता है। जब तक इस जीवमण्डल में ऊर्जा या पदार्थों के निवेश तथा पदार्थों के तंत्र से बाहर गमन में संतुलन बना रहता है तब तक जीवमंडलीय तंत्र संतुलित बना रहता है। परंतु जब यह नाजुक संतुलन विक्षुब्ध हो जाता है, तो जीवमंडलीय तंत्र की संतुलन की दशा भी बिगड़ जाती है तथा इस असंतुलन के कारण कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं का सूत्रपात हो जाता है। जीवमंडलीय तंत्र के साम्यावस्था सामान्य रूप में आत्मनिर्भर या स्वयंघाती होती है तथा पारिस्थितिक दृष्टिकोण से अति दक्ष होती है। जीवमंडलीय तंत्र की यह साम्यावस्था तथा पारिस्थितिक दक्षता जीवमण्डल के विभिन्न संघटकों के मध्य अति घनिष्ठ सम्बन्धों तथा विभिन्न वृहद्स्तरीय चक्रीय क्रियाविधियों पर निर्भर करती है।
यदि समस्त जीवमंडल को एक पारिस्थितिक तंत्र मानें, तो जीवमंडल एवं जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र के संघटक एक समान ही होते हैं। इसी तरह विश्वस्तरीय प्राकृतिक पर्यावरण के संघटक भी वही हैं, जो जीवमण्डल तथा जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र के हैं। कुछ लोग वनस्पति तथा प्राणिजगत को ही जीवमण्डल के प्रमुख घटक मानते हैं। निश्चय ही यह अवधारणा संकुचित है। ज्ञातव्य है कि भूतंत्र के दो प्रमुख संघटक होते हैं- जीवित और अजीवित पर्यावरण। कुछ लोगों ने पारिस्थितिक मण्डल शब्द का प्रयोग उस पर्यावरण के लिए किया है, जिसमें जीव रहते हैं तथा उसके साथ पारिस्थितिकीय क्रिया करते हैं। जबकि कुछ लोग जीवों के परिवार या समूह के लिए जीवमण्डल का प्रयोग करते हैं। पारिस्थितिक मण्डल तथा जीवमण्डल को अलग-अलग रूपों में मानना अविभाज्य को विभाजित करना है, अर्थात् भौतिक पर्यावरण तथा उसमें रहने वाले जीव एक-दूसरे से इतने घनिष्ट रूप से संबंधित हैं कि उनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
Question : पास्थितिकी तंत्र की संकल्पना, घटकों तथा कार्य प्रणाली की विवेचना कीजिए।
(2001)
Answer : पारिस्थितिकी वह विज्ञान है, जो किसी क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न जीवों के परस्पर संबंधों एवं भौतिक पर्यावरण से उनके संबंधों का अध्ययन करता है। पौधे, जंतु एवं अन्य जीव तथा भौतिक पर्यावरण एक साथ मिलकर पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि पारिस्थितिक तंत्र का तात्पर्य उस भौगोलिक परिस्थिति से है जिसमें जैविक घटक एवं अजैविक घटक अंतर-आकर्षित होकर एक नवीन परिस्थिति का निर्माण करते हैं। ओडम का यह मानना है कि अजैविक एवं जैविक घटकों के अंतर-आकर्षण के फलस्वरूप छह प्रकार के तंत्रों का निर्माण होता है, जिनमें पारिस्थितिकी तंत्र सर्वाधिक संवेदनशील है। किसी क्षेत्र में रहने वाले जीव एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, क्योंकि उनमें आपस में तथा भौतिक पर्यावरण के साथ पदार्थ एवं ऊर्जा का आदान-प्रदान होता रहता है। पारिस्थितिकी तंत्र की संकल्पना वास्तव में काफी विस्तृत एवं लचीली है। एक झील, खेत, वन एवं संपूर्ण विश्व को परिस्थितिकी तंत्र के रूप में रखा जा सकता है। पृथ्वी तंत्र के जैविक समुदाय पदार्थ एवं ऊर्जा से अंतर-आकर्षित होकर जीव मंडल का निर्माण करते हैं। संपूर्ण जीवमंडल स्वयं एक वृहत एवं जटिल पारिस्थितिकी तंत्र है। पारिस्थितिकी तंत्र को सामान्यतः दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता हैः
जलीय पारिस्थितिक तंत्र को मीठे पानी, ज्वार नद्मुख तथा समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में विभाजित किया जाता है। जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्र तथा सूर्य का प्रकाश, पोषक तत्वों की उपलब्धता जलीय जीवों को सीमित करने वाले प्रमुख कारक हैं। जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में सर्वाधिक उत्पादकता ज्वार नद्मुख में होती है।
स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को जलवायु एवं वनस्पति के आधार पर विभिन्न उपवर्गों में विभाजित किया जाता है।
प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र में प्रतिस्थापन की प्रवृत्ति होती है एवं प्रतिस्थापन का कार्य स्वतः धीमी गति से होता रहता है। परंतु हाल के वर्षों में पारिस्थितिकी तंत्र में मानवीय हस्तक्षेप में तेजी से वृद्धि हुई है, जिसका प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले ऊर्जा के प्रवाह पर पड़ा है। इसके फलस्वरूप पारिस्थितिकी असंतुलन की गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है।
सामान्यतः पारिस्थितिकी तंत्रों की संरचना दो घटकों से होती हैः
(i) अजैव घटक या भौतिक घटक एवं
(ii) जैव घटक
अजैव घटक के अंतर्गत मृदा, जल एवं वायुमंडल में विद्यमान रासायनिक पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है। इन रासायनिक पदार्थों में कार्बन डाईऑक्साइड, ऑक्सीजन, जल तथा खनिज (फारस्फोरस, पोटाशियम, लोहा, मैगनीशियम, कोबाल्ट आदि) जैसे अजैव पदार्थ एवं कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन आदि जैव पदार्थ हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के अन्य अजैव तत्वों में तापमान, वर्षा, सूर्य का प्रकाश जैसे जलवायु के तत्वों एवं स्थल खंड की ढाल तथा किसी प्रदेश के जलाशयों की बनावट आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।
जैव घटकों को उत्पादक एवं उपभोक्ता नामक दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। उत्पादक के जीव हैं, जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। हरे पौधे प्राथमिक उत्पादक हैं, क्योंकि वे प्रकाश संश्लेषण द्वारा ऊर्जा की सहायता से अजैव पदार्थों को जैव पदार्थों में रूपांतरित करते हैं। महासागरों में पाये जाने वाले पादप प्लवक भी ‘प्राथमिक उत्पादक’ हैं।
मानव सहित अन्य सभी जीव उपभोक्ता कहलाते हैं, क्योंकि वे अपने भोजन के लिए दूसरे जीवों पर आश्रित रहते हैं। केवल हरे पौधों से भोजन प्राप्त करने वाले जीव शाकाहारी या ‘प्राथमिक उपभोक्ता’ कहलाते हैं। हिरण, खरगोश आदि प्राथमिक उपभोक्ता के उदाहरण हैं। जो उपभोक्ता अपने भोजन के लिए दूसरे जंतुओं पर आश्रित रहते हैं, उन्हें मांसाहरी या ‘द्वितीयक उपभोक्ता’ कहा जाता है। शेर, बाज आदि मांसाहारी उपभोक्ता के उदाहरण हैं। उपभोक्ताओं के तीसरे वर्ग के अंतर्गत मानव एवं उन जंतुओं को सम्मिलित किया जाता है, जो हरे पौधों एवं उपभोक्ताओं के दोनों वर्गों से अपना आहार प्राप्त करते हैं। इन्हें ‘सर्वाहारी’ कहा जाता है। इसके अलावा उपभोक्ताओं का एक चौथा वर्ग भी है, जो पौधों एवं जंतुओं के मृत ऊतकों को अपना भोजन बनाते हैं। इन्हें अपघटक या ‘वियोजक’ कहा जाता है। जीवाणु, फफूंदी, दीमक आदि जीव अपघटक हैं। ये जीव पौधे एवं जंतुओं के सड़े-गले हिस्से से ऊर्जा एवं पोषक तत्व प्राप्त करते हैं। इस प्रक्रिया में ये जीव जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं, जिन्हें हरे पौधे ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पारिस्थितिकी तंत्र में पोषक तत्वों के प्रवाह का एक चक्र पूरा हो जाता है।
पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यशीलता ऊर्जा के प्रवाह पर निर्भर करती है, क्योंकि किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र के जीवित संघटकों के सभी पक्ष ऊर्जा के प्रवाह पर ही आश्रित होते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह उष्मागतिकी के प्रथम एवं द्वितीय नियम के अनुसार होता है। उष्मागतिकी के प्रथम नियम के अनुसार ऊर्जा का न तो सृजन होता है न ही विनाश, बल्कि इसका रूप परिवर्तित होता रहता है। इस नियम के अनुरूप ही पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का रूपांतरण होता है। उष्मागतिकी के द्वितीय निमय के अनुसार जब ऊर्जा का एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरण या एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरण होता है तो ऊर्जा के कुछ भाग का क्षय हो जाता है। इस नियम के अनुरूप ही जब पारिस्थितिकी तंत्र में आहार ऊर्जा का स्थानांरण एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर तक होता है, तो प्रत्येक अवस्था में ऊर्जा के कुछ भाग का क्षय हो जाता है।
हरे पौधे सौर ऊर्जा के एक भाग को आहार ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार यह आहार ऊर्जा प्रथम पोषण स्तर के स्वपोषित पौधों में संचित हो जाती है। प्रथम पोषण स्तर में संचित आहार ऊर्जा द्वितीय पोषण स्तर के जीवों के लिए ऊर्जा का स्रोत बन जाती है।
द्वितीय पोषण स्तर के जंतुओं द्वारा ग्रहण की गयी रासायनिक ऊर्जा इस स्तर के जंतुओं के ऊतकों एवं अंगों के निर्माण एवं संवर्द्धन में सहायता करती है। इस रासायनिक ऊर्जा का कुछ भाग इन जंतुओं द्वारा श्वसन के माध्यम से वायु मंडल में उत्सर्जित हो जाता है तथा कुछ भाग उनमें संचित हो जाता है। यह संचित ऊर्जा तृतीय पोषण स्तर के मांसाहारी जीवों के ऊर्जा का स्रोत बन जाती है। जब तृतीय पोषण स्तर के जीव शाकाहारी जीवों को अपना आहार बनाते हैं, तो द्वितीय पोषण स्तर की संचित ऊर्जा का कुछ भाग तृतीय पोषण स्तर के जीवों में स्थानांतरित हो जाता है। तृतीय पोषण स्तर में संचित ऊर्जा का कुछ भाग चतुर्थ पोषण स्तर के सर्वाहारी जीवों में स्थानांतरित हो जाता है।
अंततः पौधों एवं जंतुओं की मृत्यु के पश्चात् उनमें संचित ऊर्जा का कुछ भाग वियोजकों में स्थानांतरित हो जाता है। वियोजक भी श्वसन द्वारा अपनी ऊर्जा के बड़े भाग को वायुमंडल में निर्मुक्त कर देते हैं।
एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में स्थानांतरित ऊर्जा को ‘पारिस्थितिक क्षमता’ कहा जाता है। जीवों की जाति एवं पर्यावरणीय दशाओं के अनुसार यह क्षमता 5 प्रतिशत से 20 प्रतिशत के बीच हो सकती है। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में औसतन 10 प्रतिशत ऊर्जा का ही स्थानांतरण एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में होता है। पोषण स्तरों को एक पिरामिड के रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है, जिसे ‘पारिस्थितिक पिरामिड’ कहा जाता है।
इस प्रकार पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा एक वर्ग के जीवों से दूसरे वर्ग के जीवों में श्रृंखलाबद्ध रूप में स्थानांतरित होती है। इस श्रृंखलाएं को ‘आहार श्रृंखला’ कहा जाता है।
कुछ जीवों द्वारा अनेक जीवों के भक्षण के कारण आहार श्रृंखलाएं जटिल बन जाती हैं। प्रकृति में आहार श्रृंखलाओं के ऐसे जाल को ‘आहार जाल’ कहा जाता है।
Question : पर्यावरणीय निम्नीकरण के कारणों और परिणामों पर चर्चा कीजिए और संबंधित संरक्षण उपायों पर प्रकाश डालिए।
(2000)
Answer : पर्यावरण पृथ्वी पर स्थित जीवनदायिनी तंत्र के अजैविक या भौतिक (भूमि, जल, वायु) तथा जैविक (पादप व जन्तु जिसमें मानव भी शामिल है) घटकों को सम्मिलित करता है। पर्यावरण निम्नीकरण से तात्पर्य है, भौतिक घटकों के स्तर में जैविक प्रक्रियाओं, मुख्यतः मानवीय क्रियाकलापों द्वारा गिरावट इस स्तर तक लाया जाना कि वो पर्यावरण के स्वतः नियामक तंत्र द्वारा ठीक न हो सके। दूसरे शब्दों में, पर्यावरणीय निम्नीकरण का मतलब है- मानवीय हस्तक्षेप द्वारा पर्यावरण मूलभूत संरचना में लाये गये प्रतिकूल परिवर्तनों के कारण पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास होना।
वर्तमान समय में पर्यावरणीय निम्नीकरण मानव अस्तित्व ही नहीं बल्कि सभी जीव जंतुओं के अस्तित्व के लिए एक मुख्य भूमंडलीय समस्या के तौर पर उभरा है। पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग के अनुसार मानवों को पर्यावरणीय क्षति, गरीबी तथा दिक्कतों का सामना करना है जो तीसरी दुनिया के देशों में और भी ज्यादा है।
पर्यावरणीय निम्नीकरण के कारण और परिणाम
मानव और उसकी गतिविधियों द्वारा वृहद् स्तर पर पर्यावरणीय निम्नीकरण हुआ है। मानव सभ्यता के शुरुआत से ही मानव ने प्रकृति का इस्तेमाल न सिर्फ अपने अस्तित्व व अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए किया है बल्कि उसका दोहन भी किया है, यहां तक कि कुछ हद तक परिस्थितिकीय तंत्र को क्षति भी पहुंचायी है।
इस प्रकार एक तरफ तकनीकी वैज्ञानिक विकास तो दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि, नगरीकरण व औद्योगीकरण ने बहुत सी पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म दिया है। पर्यावरणीय निम्नीकरण के कारणों और परिणामों को निम्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं के अंतर्गत विवेचित किया जा सकता है-
निर्वनीकरणः निर्वनीकरण विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों के परिणामों में से एक है। वनों को न सिर्फ ग्रामीण बस्तियों के लिए बल्कि कृषि व चरागाहों के लिए भी काटा गया है।
भूमंडलीय और प्रादेशिक स्तर पर निर्वनीकरण के लिए निम्नलिखित कारण जिम्मेदार हैं-
निर्वनीकरण के परिणामः निर्वनीकरण के कारण मृदा ढीली हो जाती है तथा जल प्रवाह भी बढ़ जाता है, जिसके कारण वनस्पतिक आवरण के अभाव में तीव्र दर से मृदा अपरदन प्रारंभ हो जाता है। तीव्र मृदा अपरदन के कारण नदियों के अवसाद भार में वृद्धि होती है तथा नदी का तल भी ऊंचा होता जाता है। इन कारणों के फलस्वरूप मैदानी क्षेत्रों में नदियों के बाढ़ के स्तर व बारंबारता दोनों में वृद्धि होती है। भारत के हिमालयी नदियों द्वारा बाढ़ की विभिषिका में वृद्धि का यह एक प्रमुख कारण है।
निर्वनीकरण द्वारा वर्षा में भी कमी आती है, जिसके फलस्वरूप सूखे की तीव्रता में वृद्धि होती है। निर्वनीकरण का एक प्रमुख प्रतिकूल प्रभाव है, भूमि जल के स्तर में कमी आना।
निर्वनीकरण का कारण हरित गृह प्रभाव (Green House Effect) में भी वृद्धि होती है। इसके कारण उत्पन्न भूमंडलीय तापन की समस्या पूरे विश्व के लिए एक गंभीर खतरा है।
निर्वनीकरण के कारण मृदा की ऊपरी उपजाऊ संस्तर अपरदित हो जाती है, जिसके कारण कृषिगत उत्पादन में कमी आती है। उद्योगों के लिए वनों से मिलने वाले बहुत से कच्चे मालों में भी कमी आती है। जन्तुओं के लिए चारा की कमी भी इसका एक परिणाम है।
संरक्षण के उपाय
बड़े बांध के कारण पर्यावरणीय निम्नीकरण
निम्न तरीके से बड़े बांधों द्वारा पर्यावरण को क्षति पहुंची है-
उपाय
खनन के कारण पर्यावरणीय निम्नीकरण एवं उसके परिणाम
खनन में भूमि को खोदने का काम वृहत् स्तर पर होता है जिससे निम्नांकित पर्यावरणीय समस्याएं होती हैं-
इन पर्यावरणीय समस्याओं को रोकने के लिए निम्नलिखित संरक्षणात्मक उपाय किये जा सकते हैं-
कृषि के कारण पर्यावरणीय निम्नीकरण एवं परिणाम
उन्नत कृषि तकनीक जैसे उच्च उत्पादकता वाले उन्नत बीज, उन्नत सिंचाई सुविधा का अधिकतम उपयोग, रासायनिक उर्वरक, रासायनिक कीटनाशक तथा मशीनीकरण के कारण निम्नलिखित पर्यावरणीय समस्याएं जन्म ले रही हैं-
इन पर्यावरणीय समस्याओं को रोकने व पर्यावरण संरक्षण के लिए निम्नांकित उपाय किये जा सकते हैं-
औद्योगिक विकास के कारण पर्यावरणीय निम्नीकरण
तीव्र औद्योगीकरण पर्यावरणीय निम्नीकरण के मुख्य कारणों में से एक है। इसके कारण निम्न तरीके से पर्यावरणीय ह्रास हुआ है-
(i) उद्योगों की स्थापना व विकास के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षों को काटा गया है।
(ii) औद्योगीकरण के कारण वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई। उद्योगों से निकलने वाले कार्बन डाई आक्साइड, सल्फर डाइ आक्साइड इत्यादि गैसों से वायु प्रदूषण हुआ है। यूरोपीय देशों में कारखानों से निकलने वाले सल्फर डाई आक्साइड के कारण अम्ल वर्षा की समस्या गंभीर बनी हुई है, जिसके कारण मध्य यूरोप निर्माण में प्रयुक्त होने वाले क्लोरो फ्रलोरो कार्बन के कारण ओजोन परत को क्षति पहुंची है, जिसके कारण पराबैंगनी किरणों के धरती पर सीधे पहुंचने का खतरा है।
(iii) औद्योगीकरण के कारण जल तथा ध्वनि प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न हुई है। उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक एवं टॉक्सिक अवशेष नदियों में पहुंचकर जल प्रदूषण की समस्या उत्पन्न करते हैं। कारखानों से निकलने वाले शोर के कारण ध्वनि प्रदूषण होता है।
इसके अलावे नगरीकरण तथा परिवहन विकास के कारण भी पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, जिनमें सर्वप्रमुख हैं- भूमंडलीय तापन की समस्या। जीवाश्म ईंधन के दहन से कार्बन डाई आक्साइड की मात्र में वृद्धि हो रही है। इस गैस का एक गुण है कि यह पृथ्वी से विकिरित होने वाली लंबी तरंगदैर्ध्य के विकिरणों को रोक लेता है। इसकी मात्र में वृद्धि के कारण भूमंडलीय जलवायु के और अधिक गर्म होने का खतरा है। इस भूमंडलीय तापन के कारण बहुत-सी अन्य पर्यावरणीय आपदायें आने का गंभीर खतरा है, जैसे- हिमानी के पिघलने के कारण तटीय प्रदेश और द्वीपों के डूबने का खतरा, प्राणियों के अस्तित्व पर संकट, जैव विविधता में कमी तथा पर्यावरणीय असंतुलन।
इस सबको रोकने तथा पर्यावरणीय संरक्षण के लिए जीवाश्म ईंधनों के विकल्प के विकास पर पूरा जोर दिया जाना चाहिए। ऊर्जा के शुद्ध तथा नवीनीकरण स्रोत का पर्याप्त विकास एवं प्रचार किया जाना चाहिए, जैसे-जल विधुत, सौर ऊर्जा, हाइड्रोजन ऊर्जा जैसे नये स्रोत इत्यादि। कारखानों के चिमनियों में प्रदूषण नियंत्रक उपकरण लगाये जाने चाहिए। कारखानों के रासायनिक अवशिष्ट से भूमि तथा जल का रक्षण किये जाने की जरुरत है।
ओजोन क्षरण को रोकने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल जैसे महत्वपूर्ण वैश्विक समझौतों को पूरे तौर पर लागू करने की जरुरत है। जैव विविधता के सरंक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर ठोस उपाय किये जाने चाहिए।
वृहत् स्तर पर वनीकरण पर्यावरणीय संरक्षण का सबसे महत्वपूर्ण उपाय है। इससे वायु प्रदूषण तो कम करने में मदद मिलेगी ही, जैव विविधता का भी संरक्षण होगा। इसके अलावे भूमिगत जल का स्तर भी कई क्षेत्रों में ऊपर आ सकता है।
लेकिन पर्यावरण संरक्षण के ये सारे उपाय तभी सफल हो सकते हैं जब हम जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाये तथा संसाधनों का दोहन अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए करें, लालच के लिए नहीं।
Question : निर्वहनीय विकास के प्रयोजन के लिए एक पारिस्थितिक तंत्र के रूप में ‘जल विभाजक’ की प्रासंगिकता की चर्चा कीजिये।
(1999)
Answer : विगत वर्षों में जहां एक तरफ मानव ने अभूतपूर्व विकास किया है, वहीं दूसरी ओर इस प्रक्रिया द्वारा उसने पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है। आजकल निर्वहनीय विकास की अवधारणा पूरी जोर पकड़ती जा रही है। आर्थिक नियोजक, नियोजन के लिए एक ऐसे पारिस्थितिक तंत्र की तलाश में हैं, जो विकास को वांछित दिशा देने के साथ-साथ पर्यावरण विकास एवं संरक्षण में भी सहायक हो। भारत की नौवीं योजना में ‘जल विभाजक’ को ही नियोजन का आधार बनाया गया है।
जल विभाजक प्राकृतिक तथा सामाजिक तंत्रों को शामिल करता है तथा आयोजकों को एक ऐसा अवसर प्रदान करता है, जिसमें वे भौतिक, जैविक एवं सामाजिक तंत्र का सामन्जस्यपूर्ण प्रबंधन कर सकें। जल विभाजक के विकास की अवधारणा का उद्देश्य क्षेत्रीय आधार पर विकास करना है, जिससे जल विभाजक की सभी उप-इकाइयों को समस्त प्राकृतिक संसाधन आसानी से उपलब्ध हों। इस प्रकार इस प्रबंधन से संसाधनों का समुचित उपयोग होता है तथा सारे क्षेत्र का तीव्र गति से सर्वांगीण विकास भी संभव होता है। हमारे नियोजन का मुख्य उद्देश्य कृषि उपज में वृद्धि तथा देश को अकालों से मुक्ति दिलाना है। जल के नियमित प्रवाह के लिए नदियों के उद्गम प्रदेशों और उनके जलग्रहण क्षेत्रों में वन, दलदलों एवं झीलों का होना आवश्यक है, क्योंकि इससे जल धीरे-धीरे बहकर नदियों में आता है, जिससे बाढ़ एकदम नहीं आती है। जहां वनों का अभाव है वहां बांध बना कर हम इस प्रकोप से छुटकारा पा सकते हैं।
कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है। इसलिए जल की नियमित आपूर्ति, इसकी गुणवत्ता, अवस्थिति तथा वितरण सुनियोजित ढंग से होनी चाहिए। इसी प्रकार सिंचाई, अपवाह, नौसंचलन, उद्योग तथा घरेलू क्षेत्रों के लिए जलापूर्ति, भूमि पुनरुद्धार, जल प्रदूषण पर नियंत्रण, भूमिगत जल स्तर पर नियंत्रण आदि के लिए भी जल विभाजक को एकीकृत योजना का आधार बनाना होगा। जल विभाजक नदियों के उद्गम स्रोत होते हैं अतः यह क्षेत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि अन्य जलग्रहण क्षेत्रों में जल की आपूर्ति यहीं से निर्धारित होती है। एक निर्धारित क्षेत्र के जल संसाधन के नियोजन के लिए जल विभाजक एक आदर्श प्राकृतिक इकाई है। इसकी जल सीमा जल संभरण क्षेत्र के रूप में परिभाषित है। इसके अलावा यहां सांस्कृतिक समरूपता पायी जाती है। जल संभरण क्षेत्र में किसानों को नहर, सीढ़ीनुमा खेती, खेतों का संयोजीकरण, कृषि प्रसार आदि प्रणालियों द्वारा कृषि उपज में बढ़ोत्तरी करने को प्रेरित किया जा सकता है। हाल के वर्षों में जल विभाजक क्षेत्रों में मृदा अपरदन, आर्द्रता की कमी, वनों का नाश आदि समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। इसके लिए जरूरी है कि उपयुक्त मृदा एवं जल प्रबंधन द्वारा इन समस्याओं का निराकरण किया जाये। यदि हम इन प्रभावोत्पादक उपायों को क्रियान्वित करें तो निश्चित ही जल विभाजक पर आधारित परियोजनाएं सफल हो सकेंगी।