Question : महासागरीय निक्षेपों के वर्गीकरण के लिए विभिन्न आधारों पर चर्चा कीजिए और महासागरों के अंबुधी निक्षेपों का एक विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2007)
Answer : महासागरीय तल पर अवसादों के जमाव को ‘महासागरीय निक्षेप’ कहते हैं। ये अवसाद मुख्यतः असंगठित होते हैं, ये अवसाद कई प्रकार के होते हैं तथा ये कई स्रोतों से प्राप्त होते हैं। महासागरीय निक्षेपों का वर्गीकरण निम्न आधारों पर किया गया हैः
(अ) अवसाद के स्रोतों के आधार पर वर्गीकरणः महासागर में पाये जाने वाले अवसादों के आधार पर महासागरीय निक्षेपों को मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित किया गया हैः
1. स्थलीय निक्षेपः सागर तल में निक्षेपित अधिकांशतः स्थल के अपरदन से प्राप्त पदार्थों का योग रहता है। अपक्षय और अपरदन के विभिन्न साधन स्थल का अपरदन करके अपरदित पदार्थों को सागरों में निक्षेपित करते हैं। इस कार्य में नदियां, हिमनद, पवन एवं समुद्री लहरें मुख्यतः सक्रिय रहती हैं। प्रवाल शैलों में विभिन्न आकार एवं प्रकार के असंगठित पदार्थ मिश्रित रहते हैं। इन पदार्थों का निक्षेप क्रम से होता है। बड़े आकार के शिलाखंड तट के नजदीक व महीन अवसाद तट के दूर होता है।
इन पदार्थों का वितरण प्रायः 100 फैदम तक की गहराई पर मिलता है। संरचना, आकार-प्रकार एवं रंग के अनुसार स्थलीय निक्षेप का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः
(क) बजरीः इसके कण बड़े आकार के होते हैं। ये लहरों के अपरदन से निर्मित होते हैं तथा मग्नतटों व उथली खाडि़यों में निक्षेपित होते हैं।
(ख) रेतः इसके कण बजरी की अपेक्षा सूक्ष्म आकार के होते हैं। ये सभी तटों पर पाये जाते हैं।
(ग) सिल्ट, मृत्तिका व पंकः ये अत्यंत सूक्ष्म आकार के कण होते हैं। इन पदार्थों में पंक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह मुख्यतः तीन प्रकार की होती है-
2. ज्वालामुखीय निक्षेपः सागरों में निक्षेपित ज्वालामुखीय परत दो प्रकार के होते हैं- प्रथम, धरातल पर निक्षेपित ज्वालामुखीय पदार्थ जो वायुमण्डलीय शक्तियों जल, हिम, पवन, लहर आदि द्वारा अपक्षयित व अपरदित करके समुद्र में पहुंचाये जाते हैं और दूसरा वे पदार्थ जो सागरीय तल में ज्वालामुखी उदगारों से निष्कासित होते हैं, दोनों प्रकार के पदार्थों के गुणों में अंतर होता है। प्रथम प्रकार के अवसाद मुख्यतः तट के नजदीक और दूसरे प्रकार का अवासद गहन सागरीय निक्षेप का कारक है।
3. जैविक निक्षेपः समुद्रों में सागरीय जीव-जंतु एवं वनस्पतियां पायी जाती हैं। इसके अवशेष सागरतल में जमा होते रहते हैं। गुणों के आधार पर जैविक निक्षेप दो प्रकार के होते हैं:
(क) निरेटिक निक्षेपः इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की अस्थियों, मछलियों के अवशेषों, सीप, स्पन्ज आदि के निक्षेप आते हैं। ये निक्षेप उथले व गर्म समुद्रों में पाये जाते हैं। तथा स्थानीय तापक्रम, लवणता, समुद्री धाराओं आदि अवस्थाओं के अनुसार परिवर्तित होते हैं। प्रायः इनके ऊपर स्थलीय पदार्थ निक्षेपित हो जाते हैं।
(ख) गहन सागरीय या अंबुधी निक्षेपः ये निक्षेप गहरे समुद्रों में पायी जाती है। ये मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित किये गये हैं- चूना प्रधान ऊज और सिलिकायुक्त ऊज।
4. अजैविक निक्षेपः भूपटल पर वायुमंडलीय परिवर्तनों एवं वर्षा के कारण अजैव अवक्षेपों की प्राप्ति होती है। ये अवक्षेप स्थल व जल पर पाये जाते हैं। कुछ समय जल में तैरने के बाद ये सूक्ष्म कण तली में बैठने लगते हैं। अजैविक निक्षेप दो प्रकार के होते हैं: लालचीका और उल्का कण।
(ब): कण के आकार के अनुसार महासागरीय निक्षेप का वर्गीकरणः कण के आकार के आकार के आधार पर भी महासागरीय निक्षेपों का वर्गीकरण किया गया है। बड़े कण तट के नजदीक व सूक्ष्म कण तट के दूर गहन सागरीय तलों में निक्षेपित होते हैं।
(स) गहराई के आधार पर निक्षेपों का वर्गीकरणः जेनकिन्स और मर्रे ने समुद्री निक्षेपों को गहराई के अनुसार विभाजित किया है। जेनकिन्स ने सागरीय निक्षेप को इसके आधार पर तीन प्रकार बताया हैः
अंबुधी निक्षेपः ये निक्षेप गहरे समुद्रों में पायी जाने वाली शैवाल से उत्पन्न होते हैं। इसमें प्रोटोजोआ, डायटम, एम्पोड्स का मुख्य योग होता है। ये पदार्थ कीचड़ के रूप में होते हैं तथा सिंधुचंक कहलाते हैं। इसकी उत्पत्ति दो भिन्न प्रकार के जीवों से होती है। अतः इसे निम्न उपविभाजन किया जा सकता है:
(A) चूना प्रधान पंकः ये अधिक गहराई पर निक्षेपित नहीं होते हैं। यह मुख्यतः उष्ण समुद्रों में चूना प्रधान मोलस्क, सी अर्चिम, स्टारफिश आदि जीवों द्वारा निक्षेपित होते हैं। इसमें टेरोपॉड और ग्लोबिजेरिना प्रमुख हैं।
(i) टेरोपॉडः यह मोलस्क जैसे कैल्शियमी जीव के खोल से निर्मित होती है। इसमें कैल्शियम कार्बोनेट 80 प्रतिशत पाया जाता है। इसकी स्थिति मुख्य रूप से प्रवाल वाले क्षेत्रों में अधिक पायी जाती है। अयनवर्ती सागरों के गर्म जल में 300 से 1000 फैदम के बीच पायी जाती है। अधिक गहराई पर यह नहीं पाया जाता है, 2000 फैदम के नीचे यह पूर्णतया अदृश्य रहता है।
इसका जमाव मुख्यतः प्रशान्त महासागर के पश्चिमी व पूर्वी भागों में, कनारी द्वीप, अजोर्स द्वीप, भूमध्यसागर के मध्यवर्ती कटक और हिन्द महासागर में है।
(ii) ग्लोबिजेरिनाः इसका निर्माण मुख्य रूप से चूना प्रधान ग्लोबिजेरिना जीव के खोल से होता है। इसका रंग प्रायः सफेद होता है, तट के दूर इसका रंग मटमैला एवं तट के निकट नीला व स्लेटी होता है। इसकी रासायनिक संरचना में कैल्शियम लगभग 64-47 प्रतिशत होती है। इसके अलावा इसमें सिलिका, खनिज का योग होता है। यह पंक 1500-2000 फैदम गहराई पर सर्वाधिक निक्षेपित हैं। यह उष्ण और शीतोष्ण समुद्रों में पाया जाता है। यथा - पूर्वी प्रशांत अटलांटिक के उष्ण व शीतोष्ण भाग, हिंद महासागर के पूर्वी व पश्चिमी मग्न तट।
(B) सिलिका युक्त पंकः ये चूने के बजाय सिलिका प्रधान जीवों के अवशेष से निर्मित होती है। इनके निक्षेप गर्म व ठण्डे समुद्रों में अधिक गहराई पर पाये जाते हैं। पदार्थ के अनुसार ये मुख्यतः दो प्रकार की होती है।
(i) रेडियोलेरियन पंकः ये पंक रेडियोलेरिया, रामिनिफेरा आदि जीवों के अवशेषों के द्वारा होता है। इसमें सिलिका का अंश अधिक व चूने का अंश कम 5 से 20 प्रतिशततक होता है। इसका रंग स्लेटी होता है। इसका फैलाव उष्ण कटिबंधीय सागरों में अधिक है। इस क्षेत्र में यह 2000 से 5000 फैदम की गहराई तक मिलती है। प्रशांत महासागर में इसका निक्षेप सर्वाधिक है। अटलांटिक महासागर में यह छिटपुट मिलता है।
(ii) डायटम पंकः यह पंक डायटम तथा स्पंज जैसी सूक्ष्म वनस्पति के अवशेषों से निर्मित होती है। इसमें सिलिका का अंश अधिक होता है। इसका रंग हल्का पीला या मटमैला होता है। तटों के निकट इसका रंग कुछ नीला होता है। इसमें चूना का अंश काफी कम होता है। डायटम पंक उच्च अक्षांशों में गहरे सागरीय भागों में पायी जाती है। अण्टार्कटिका महाद्वीप के चारों ओर, अलास्का से जापान तट तक ये 600 से 2000 फैदम की गहराई पर अधिक मात्र में पायी जाती है।
(C) लाल मृत्तिकाः अकार्बनिक पदार्थों में लाल मृत्तिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि अगाध-सागरीय निक्षेपों में यह सर्वाधिक विस्तार लिये हुए है। इसके निर्माण में अल्युमीनियम के सिलिकेट तथा लोहे के ऑक्साइड की मात्रा सर्वाधिक होती है। इसमें ज्वालामुखी के विघटित पदार्थों का अंश भी होता है। लाल मृत्तिका कोमल, लचीली व चिकनी होती है। सूखने पर लाल-भूरे रंग के पाउडर में बदल जाती है। यह 2700 फैदम से अधिक गहरे भागों में पायी जाती है। प्रायः सभी सागरों में गहनतम भागों में यह पंक पायी जाती है। अटलाण्टिक महासागर में 40° उत्तर से 40° दक्षिण अक्षांशों के मध्य, पूर्वी हिन्द महासागर तथा उत्तरी प्रशान्त महासागर में लाल मृत्तिका के विस्तृत क्षेत्र हैं।
महासागरों में पैलेजिक या अंबुधी निक्षेप का वितरणः अंबुधी निक्षेपों में विभिन्न प्रकार की पंक का वितरण सर्वाधिक मात्र में पाया जाता है। समस्त सागरीय निक्षेपों में 4% टेरोपाड पंक, 6.4% डायटम, 3.4% भाग में रेडियोलेरियन पंक एवं 30.1% भाग में लाल मृत्तिका पायी जाती है।
Question : समुद्र तल के यूस्टैटिक परिवर्तन
(2007)
Answer : समुद्र तल में परिवर्तन से तात्पर्य औसत सागर तल के उच्चावच में परिवर्तन से है। सागर सतह का औसत तल तथा आंकड़े, जो एक लम्बी समय अवधि में ज्वारीय दोलन के निरंतर रिकार्ड श्रृंखला के द्वारा सागर में परिवर्तन मापा जाता है। वस्तुतः समुद्रतल में परिवर्तन सागर तल में सापेक्षिक परिवर्तन के रूप में जाना जाता है। समुद्र तल में सापेक्षिक उठाव के दौरान या तो भूमि या सागर सतह उठाव या निमज्जन के अंतर्गत आते हैं या दोनों एक ही समान समय पर उठ और गिर सकते हैं। यूस्टैटिक कारकों के द्वारा समुद्र तल में परिवर्तन होते हैं। समस्थितिक परिवर्तन के अंतर्गत विश्व उष्णता, हिमचादरों के पिघलने से समुद्र तल में उठाव होता है या हिम युग जिससे समुद्र तल में गिरावट आती है, प्रमुख है। यूस्टैटिक परिवर्तन के निम्न कारक हैं:
सर्वप्रथम भूसंतुलनीय परिवर्तन भार के जोड़ने या हटाने के कारण होते हैं। हिम युगों के दौरान हिमनदीय-हिम द्वारा बहुत अधिक भार निकाले जाने से भूमि राशि अवतलित होती है। इसके परिणामस्वरूप समुद्र तल में एक तीव्र उठाव आता है। दूसरी ओर, अभी भी जैसे-जैसे हिमनदीय हिम हटता है, स्केंडनेविया की भूराशि उठ रही है। द्वितीय, महाद्वीपीय निर्माणकारी गति विशाल पैमाने पर महाद्वीपों के झुकाव जो औसत सागर तल के संबंध में महाद्वीपों के एक भाग के उठने, यहां तक कि अन्य भाग सागर तल में एक तीव्र उठाव के कारण अवतलित हुआ हो। तृतीय, पर्वत निर्माणकारी हलचल, वलन और तनावमूलक दबाव के कारणों लिथोस्फीयर के झुकाव, भूपृष्ठ के एक भाग के खीचने से जो ऊंचे पर्वतों के निर्माण और समुद्र तल में तीव्र गिरावट के परिणामतः निर्मित होते हैं, से संबंधित होते हैं।
सागर तल में परिवर्तन का अध्ययन महत्वपूर्ण है। ये जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रमाण देता है और पूर्व भूगर्भिक अवधि में विर्वतनिक उठावों की दर के अनुमान के लिए एक महत्वपूर्ण कारण के निर्माण के योग्य बनाता है। अंततः कहा जा सकता हैः
(क) सागर तल में उठाव भूमि सतह के अवतलन से प्राप्त किया जा सकता है। सागर में उठाव तब होता है, जब भूमि स्थिर हो या भूमि सागर तल से धीमी दर से उठ रही हो।
(ख) सागरतल स्थिर हो, किंतु भूमि अवतलित हो। सागर तल में गिरावट निम्न कारणों से हो सकती है-
ये सभी कारण भूस्टैटिक परिवर्तन के कारण होते है।
Question : उत्तरी अटलांटिक महासागर की जलधाराएं
(2006)
Answer : उत्तरी अटलांटिक महासागर की जलधाराओं को निम्न रूपों में विभाजित किया जा सकता है।
उत्तरी अटलांटिक महासागर की जलधाराएं
प्रचलित व्यापरिक पवन के प्रभाव से विषुवत रेखा के उत्तर एवं दक्षिण का जल पश्चिम की ओर प्रवाहित होता है, जिसके फलस्वरूप क्रमशः उत्तरी विषुवतीय तथा दक्षिणी विषुवतीय जलधारा की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार से असंतुलित जलस्तर का संतुलन वापस लाने हेतु इन दोनों जलधाराओं के मध्य इनके विपरीत दिशा में प्रति विषुवतीय जलधारा की उत्पत्ति होती है। उत्तरी विषुवतीय जलधारा तथा मिसीसीपी नदी के द्वारा मेक्सिको की खाड़ी में जल जमा कर दिया जाता है। यह जल फ्लोरीडा जलधारा के रूप में यूकाटन चैनल से केप हैटरस तक प्रवाहित होता है। केप हैटरस से ग्रैंड बैंक तक इस धारा को गल्फ स्ट्रीम के नाम से जाना जाता है। पछुआ पवन के प्रभाव से ग्रैंड बैंक के निकट से गल्फ स्ट्रीम पूर्व की ओर मुड़ जाती है तथा अटलांटिक के आर-पार उत्तरी अटलांटिक धारा के नाम से यह पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। महासागर के पूर्वी भाग में पहुंचकर यह धारा कई शाखाओं में विभाजित हो जाती है।
व्यापारिक पवन के प्रभाव से जब केनारी द्वीप के निकट सतह का जल विस्थापित हो जाता है तो नीचे का ठंडा जल ऊपर आता है एवं केनारी जलधारा की उत्पत्ति होती है। अंत में यह उत्तरी विषुवतीय धारा में विलीन हो कर उत्तरी अटलांटिक में धाराओं के चक्र को पूरा करती है। ग्रीनलैंड धारा तथा लैब्राडोर धारा बर्फ के पिघलने के कारण उत्पन्न होती है तथा आर्कटिक महासागर से उत्पन्न होकर अटलांटिक महासागर में प्रवाहित होती है। पछुआ पवन के प्रभाव से ग्रैंड बैंक के निकट से गल्फ स्ट्रीम पूर्व की ओर मुड़ जाती है तथा अटलांटिक के आर-पार उत्तरी अटलांटिक धारा के नाम से यह पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। महासागर के पूर्वी भाग में पहुंचकर यह धारा कई शाखाओं में विभाजित हो जाती है। व्यापारिक पवन के प्रभाव से जब केनारी द्वीप के निकट सतह का जल विस्थापित हो जाता है तो नीचे का ठंडा जल ऊपर आता है एवं केनारी जलधारा की उत्पत्ति होती है। अंत में यह उत्तरी वषुवतीय धारा में विलीन हो कर उत्तरी अटलांटिक में धाराओं के चक्र को पूरा करती है। ग्रीनलैंड धारा तथा लैब्राडोर धारा बर्फ के पिघलने के कारण उत्पन्न होती है तथा आर्कटिक महासागर से उत्पन्न होकर अटलांटिक महासागर में प्रवाहित होती है।
Question : मध्य-अटलांटिक कटक पर उसकी उत्पति, विस्तार और उच्चावच की दृष्टि से चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : अटलांटिक महासागर जो पश्चिम में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका तथा पूर्व में यूरोप और अफ्रीका के मध्य स्थित है, पर सभी महासागरों की अपेक्षा सबसे ज्यादा अध्ययन हुआ है, जिसका श्रेय अटलांटिक महासागर में स्थित मध्य महासागरीय कटक तंत्र पर जाता है। मध्य अटलांटिक कटक की खोज सबसे पहले की गयी थी तथा यह सभी कटकों में सबसे ज्यादा विस्तृत एवं महत्वपूर्ण है। मध्य अटलांटिक कटक की उत्पति एवं उच्चावच के अध्ययन ने प्लेट टेक्टानिकस जैसी आधुनिक एवं क्रांतिकारी सिद्धांत के विकास में काफी योगदान दिया है।
मध्य-अटलांटिक कटक की उत्पति के संबंध में बहुत से विद्वानों ने अपने मत दिये हैं। इनके मत दो विभिन्न सिद्धांतों यथा संपीडनात्मक सिद्धांत तथा तनावमूलक बल सिद्धांत के अंतर्गत रखे जाते हैं तथा एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। ग्रेगरी, बेकर तथा स्टिल द्वारा प्रतिपादित संपीडनात्मक विचार जो स्थलाकृति की नवीनता पर आधारित हैं, वह टेलर, डेली एवं कोबर द्वारा दिये गये तनावमूलक संकल्पना के विपक्ष में हैं।
संपीडनात्मक विचार अटलांटिक बेसिन में मिले तनाव के प्रमाण के कारण सही नहीं प्रतीत होता है। इसके अलावा संपीडनात्मक संकल्पना के अनुसार वलन किनारों पर होना चाहिए जबकि मध्य अटलांटिक कटक का मध्य में अवस्थित होना इस विचार के विपरीत जाता है। फिर, महाद्वीपों का कटक की ओर विस्थापन, अफ्रीका तट के पश्चिमी किनारे पर वलित पर्वतों की अनुपस्थिति के कारण असत्य सिद्ध हो जाती है। यहां तक कि कटक की विभिन्न शाखाओं का महाद्वीपों की तरफ फैलाव भी पूर्व-पश्चिम खिंचाव की ओर संकेत करता है।
सम्प्रति प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत द्वारा महासागरीय कटक, जिसमें मध्य अटलांटिक कटक भी शामिल है, के निर्माण की सबसे तर्कपूर्ण व्याख्या की जाती है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत महासागरीय कटकों के सहारे तनाव मूलक बल की उपस्थिति को प्लेट के संचलन द्वारा सिद्ध करता है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार महासागरीय कटक प्लेट के रचनात्मक किनारों पर अवस्थित है। ये प्लेट किनारे क्षेत्र, रिफ्रट क्षेत्र या प्रसरण क्षेत्र हैं। ये तनाव मूलक क्षेत्र हैं जहां स्थल मंडल का विभंजन होता है, भूखंड अलग होते हैं तथा विपरीत दिशाओं में गतिशील होते हैं। प्लेट का प्रसरण होता है जब स्थलमंडल तनाव के कारण रिफ्रट के सहारे विभंजित होता है तथा विभंजित भूखंड विपरीत दिशाओं में संचलित होते हैं जिसमें नीचे से गरम मैग्मा, चटकनों व विभंगों के सहारे ऊपर आता है तथा ठोस रूप लेता है जिस कारण नयी क्रस्ट का निर्माण होता है। बड़े-बड़े महाद्वीपीय भूखंड इस प्रकार विभंजित होते हैं तथा अलग दिशाओं में गमन करते हैं जिसके कारण महासागरीय कटक तथा बेसिन का निर्माण होता है।
जब कभी महाद्वीपीय भाग मैंटल के संवहन तरंगों के ऊपर उठते हुए भाग के ऊपर आता है तो महाद्वीप के विभंजन की प्रक्रिया शुरू होती है। मैग्मा के ऊपर की भूपर्पटी गर्म होती है तथा उसमें उत्संवलन होता है। इस खिंचाव के कारण तनाव मूलक विभंग उत्पन्न होते हैं तथा रिफ्रट का विकास शुरू हो जाता है। गर्म मैग्मा का ऊपर उठना जारी रहता है जो स्थल मंडल को पतला करता जाता है। स्थलमंडल के पतला होने की प्रक्रिया जारी रहती है, धरातल धंसता है तथा भ्रंश गहरा होता जाता है जो रिफ्रट का निर्माण करता है। मैग्मा इस रिफ्रट के सहारे ऊपर उठता है तथा महाद्वीप दो भागों में बंटकर अलग होता जाता है। मैग्मा विभंग के सहारे ऊपर आती रहती है तथा जमती है जिस कारण दोनों किनारों पर कटक का निर्माण होता है।
मध्य अटलांटिक कटक का निर्माण वस्तुतः उस समय हुआ जब अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका तथा यूरोप और उत्तरी अमेरिका पैंजिया के विभंजन के पश्चात एक-दूसरे से अलग हुए। पैंजिया का विभंजन जुरासिक कल्प में शुरू हुआ तथा मध्य क्रिटैशियस कल्प तक चलता रहा।
मध्य-अटलांटिक कटक उत्तर में आइसलैंड से शुरू होकर दक्षिण में बोवेट द्वीप तक S अक्षर के आकार में 19400 कि.मी. की लंबाई में फैला है। यह कटक कहीं भी 4000 मी. से नीचे नहीं जाता है। यद्यपि यह कटक कभी पश्चिम तो कभी पूर्व की ओर झुक जाता है परंतु इसकी मध्यवर्ती स्थिति बनी रहती है।
भूमध्य रेखा के उत्तर में इस कटक को डालफिन उभार तथा दक्षिण में चैलेंजर उभार कहते हैं। आइसलैंड और स्काटलैंड के बीच इस कटक को विविल टामसन कटक कहते हैं। ग्र्रीनलैंड के दक्षिण में कटक चौड़ा हो जाता है जिसे टेलिग्राफिक पठार कहते हैं।
50° 30' अक्षांश के पास कटक की शाखा न्यूफाउंडलैंड उभार के नाम से न्यूफाउंडलैंड तट तक चली जाती है। भूमध्य रेखा पर सियरा लिओन उभार उत्तर-पूर्व की ओर तथा पारा उभार उत्तर-पश्चिम की ओर दो शाखा के रूप में चले जाते हैं। 40º द. अक्षांश के पास इस कटक की एक शाखा वालविस कटक अफ्रीका के मग्नतट की ओर तथा दूसरी शाखा रायोग्रैंडी उभार के नाम से द. अमेरिका की ओर उन्मुख हो जाती है।
हालांकि मध्यवर्ती कटक का अधिकांश भाग जलमज्जित है, कुछ भाग द्वीपों के रूप में जल के ऊपर भी उठ आये हैं। अजोसे का पीको द्वीप सर्वोच्च है जो सागर तल से 7000 से 8000 फीट ऊपर है।
Question : अंबुधी निक्षेप
(2004)
Answer : इसके अंतर्गत उन पदार्थों को रखा गया है जो जैविक तो है किंतु तरल और कीचड़ की अवस्था में हैं। इसे ऊज (Ooze) भी कहा गया है। यह सूखने पर पाउडर जैसा होता है, इसे भी दो वर्गों में बांटा जाता हैः
(अ) चूना प्रधान ऊजः जानवरों के अवशेषों के निक्षेप से जो कीचड़ बनता है, उसे चूना प्रधान ऊज कहते हैं।
(ब) सिलिका प्रधान ऊजः वनस्पतियों के अवशेषों के निक्षेप से बनने वाले कीचड़ को सिलिका प्रधान ऊज भी कहते हैं।
चुना प्रधान ऊज को पुनः दो भागों में बांटते हैं-
(i) टेरोपॉड (ii) ग्लोबीजेरिना
सिलिका प्रधान ऊज के भी दो भाग हैं-
(i) रेडियोलेरियन (ii) डायटम
टेरापॉड और ग्लोबीजेरिना निक्षेप का आधार समुद्र में पाये जाने वाले ये दो प्रमुख समुद्री जीव हैं जो करोड़ों की संख्या में उपनिवेश बना कर रहते हैं। इन जीवों के विनिष्ट होने से इससे निक्षेपित स्थलाकृति पायी जाती है। ये दोनों सूक्ष्म जीव ऊष्ण और उपोष्ण समुद्री वातावरण में बहुलता से पनपते हैं जिसके कारण इन्हीं दो क्षेत्रों में बहुलता से पाये जाते हैं।
रेडियोलेरियन और डायटम निक्षेप का आधार वनस्पति के सूक्ष्म सेल हैं। ये कोशिका ही सिलिका का निर्माण करते हैं। लेकिन रेडियोलेरियन एक सूक्ष्म जीव भी है जिससे कोशिका से सिलिका का निर्माण होता है। डायटम का विकास मुख्यतः प्लांट सेल से होता है जो उच्च और मध्य अक्षांशों में पाये जाते हैं।
लाल चीका के अंतर्गत समुद्री सतह का करीब 36.4 प्रतिशत क्षेत्रफल आता है। अतः इसी के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल है। यह गहन सागरीय निक्षेप की सबसे बड़ी विशेषता है। बेसाल्ट की सतह पर ये हजारों किमी. में फैले हुए हैं। ये भी ऊज (Ooze) प्रकार के होते हैं और इसे भी पेलाजिक निक्षेप का महत्वपूर्ण भाग माना जाता है जो जैविक पेलाजिक निक्षेप में पायी जाती है। यह महासागर का करीब 50 प्रतिशत पर पाया जाता है। यह प्रशांत महासागर के 70.3 मिलियन वर्ग किमी., हिंद में 26% तथा अटलांटिक में 24% क्षेत्रफल में है। इसके Hydrabed silicate of Aluminium तथा Oxide of iron बहुलता से पाये जाते हैं। लोहे की बहुलता के कारण इसका रंग लाल होता है।
इस प्रकार ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि महासागरीय सतहों पर विविध प्रकार के पदार्थ निक्षेपित है जो अलग-अलग स्रोतों से आते हैं।
Question : हिंद महासागर के तलीय उच्चावच का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2003)
Answer : हिंद महासागर क्षेत्रफल में प्रशांत महासागर तथा आंध्र महासागर से छोटा है। परंतु यह चारों ओर से महाद्वीपीय भाग से घिरा हुआ है। द. में अंटार्कटिका के पास इसका संबंध प्रशांत महासागर तथा आंध्र महासागर से हो जाता है। महासागर की औसत गहराई 4000 मीटर के आस-पास है। हिंद महासागर के तट का अधिकांश भाग गोंडवाना लैंड के ब्लॉक पर्वतों से निर्मित होने के कारण ठोस तथा सघन हो गया है। पूर्वी द्वीप समूह के तट के सहारे वलित पर्वतों की श्रृंखलाएं भी पायी जाती हैं। सीमांत सागर अन्य दो महासागरों की अपेक्षा कम पाये जाते हैं। उत्तर में प्रायद्वीपीय भारत हिंद महासागर को दो भागों बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में विभक्त करता है। दक्षिण में हिंद महासागर अत्यधिक चौड़ा हो गया है।
मग्नतटः हिंद महासागर के मग्न तटों में चौड़ाई की दृष्टि से पर्याप्त विविधता मिलती है। बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर के सहारे चौड़े मग्न तट पाये जाते हैं। अफ्रीका के पूर्वी भाग में भी चौड़े मग्न तट पाये जाते हैं तथा इसका अधिकतम विस्तार मालागासी के पास है। वास्तव में मालागासी मग्न तट पर ही है। इस तरह पश्चिम में मग्नतटों की औसत चौड़ाई 640 किमी. तक पायी जाती है। पूर्व में मग्नतट संकरे हो जाते हैं और जावा तथा सुमात्र तट के पास इनकी चौड़ाई 60 किलोमीटर ही रह जाती है। अंटार्कटिका महाद्वीप के सहारे मग्न तट और अधिक संकरे हो जाते हैं।
मध्यवर्ती कटकः हिंद महासागर में प्रायद्वीप भारत के दक्षिण से प्रारंभ होकर मध्यवर्ती कटक दक्षिण में अंटार्कटिका तक क्रमबद्ध श्रृंखला के रूप में उत्तर से दक्षिण दिशा में फैला है। कई स्थानों पर इस कटक से शाखाएं निकलकर महाद्वीपों की ओर चली जाती हैं। जहां कहीं भी यह कटक या उसकी शाखएं सागर तल के ऊपर प्रकट होती हैं वहां पर अनेक द्वीप पाये जाते हैं।
मुख्य कटकः उत्तर में प्रायद्वीपीय भारत के मग्न तट से प्रारंभ होता है, जहां पर इसकी चौड़ाई 320 किमी. हो जाती है। इस भाग को लकादीव चैगोस के नाम से जाना जाता है। इस कटक का पुनः दक्षिण की ओर विस्तार होता है तथा भूमध्य रेखा एवं 30º द. अक्षांश के मध्य इसका नाम चैगोस संट पॉल कटक हो जाता है, जिसकी चौड़ाई भी 320 किमी. पायी जाती है। और दक्षिण जाने पर 30º से 50º द. अक्षांशों के मध्य इस कटक की चौड़ाई 1600 किमी. हो जाती है तथा इसे एम्सटर्डम सेंट पॉल पठार नाम से संबोधित किया जाता है। 50º दक्षिण अक्षांश के दक्षिण में इस कटक की दो शाखाएं हो जाती हैं। पश्चिम में करगुलेन गासबर्ग कटक 48º - 63º दक्षिण अक्षांशों के मध्य विस्तृत है। पूर्वी शाखा इंडियन अंटार्कटिक कटक के नाम से विख्यात हैं।
मुख्य कटक की शाखाएं: स्थान-स्थान पर मुख्य कटक से शाखाएं निकलकर महाद्वीपीय तटों की ओर चली गयी हैं। इनमें से निम्नलिखित महत्वपूर्ण शाखाएं हैं। (i) 5º द. अक्षांश के पास सेकोत्र चैगोस कटक अलग होकर उ.प. दिशा में पूर्वी अफ्रीका के गुर्दाफुई अंतरीप तक चला गया है।
(ii) 18º द. अक्षांश के पास से चलीस कटक मध्यवर्त्ती कटक से अलग होकर सेकोत्र चैगोस कटक के समानान्तर पूर्वी अफ्रीका की ओर अग्रसर हो जाता है।
(iii) मालागासी मग्न तट से प्ररंभ होकर मालागासी कटक द- दिशा की ओर फैला है तथा 48º द. अक्षांश के पास यह ‘प्रिंस एडवर्ड काजेड’ कटक के नाम से प्रसिद्ध है। बंगाल की खाड़ी में इरावदी के मुहाने से प्रारंभ होकर निकोबार द्वीप तक अंडमान निकोबार कटक का विस्तार पाया जाता है।
कटक पर स्थित द्वीपः जहां कहीं भी ये कटक सागर से ऊपर आ गये हैं वहां पर कई प्रकार के द्वीप पाये जाते हैं। मध्यवर्ती कटक के ऊपर क्रम से लकादीव, मालदीव, चैगोस, न्यू एम्सटर्डम सेंट पॉल, करगुलेन आदि द्वीप पाये जाते हैं। अन्य बिखरे कटकों पर स्थित द्वीपों में सेचलीस, प्रिंस एडवर्ड, क्रोजेड आदि प्रमुख हैं।
महासागरीय बेसिनः मध्यवर्ती कटक हिंद महासागर को पूर्वी तथा पश्चिमी दो प्रमुख द्रोणियों में विभाजित करती है। मध्यवर्ती कटक की शाखाएं इन दो द्राणियों को पुनः कई छोटी-छोटी द्रोणियों में विभक्त करती हैं।
इनमें से निम्न द्रोणियां उल्लेखनीय हैंः
(i) ओमान द्रोणीः ओमान की खाड़ी के सामने विस्तृत मग्नतट पर 3658 मीटर गहराई तक फैली है।
(ii) अरेबियन द्रोणीः चैगोस कटक तथा सेकोत्र चैगोस कटक के मध्य वृत्ताकार रूप से अफ्रीका तथा प्रायद्वीप भारत के तटों के बीच 3600-5486 मीटर की गहराई तक विस्तृत है। कार्ल्सबर्ग कटक द्वारा इसके दो भाग हो जाते हैं।
(iii) सोमाली द्रोणीः सेकोत्र, चैगोस, सेंट पॉल तथा सेचलीस कटकों के मध्य स्थित है। इसकी गहराई 3600 मीटर है।
(iv) मॉरीशस द्रोणीः जो कि एक लंबी तथा चौड़ी द्रोणी है। यह मालागासी कटक तथा सेंट पॉल कटक के मध्य 10º द. अक्षांश से 20º द. अक्षांश के मध्य स्थित है। इसकी गहराई 3600-5486 मीटर के बीच है।
(v) नेटाल श्रेणीः मालागासी कटक तथा दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट के मध्य 3600 मीटर की गहराई तक पायी जाती है।
(vi) अटलांटिक भारतीय अंटार्कटिका द्रोणीः वास्तव में यह आंध्र महासागर की अटलांटिक-अंटार्कटिका द्रोणी का ही विस्तृत भाग है जो कि प्रिंस एडवर्ड क्रोजेड कटक तथा अंटार्कटिका महाद्वीप के मध्य 5486 मीटर की गहराई तक फैली है।
(vii) अंडमान द्रोणीः बंगाल की खाड़ी में अंडमान कटक के पूर्व में 1800 से 3600 मीटर की गहराई तक फैली है।
(viii) भारत-आस्ट्रेलिया द्रोणीः यह द्रोणी कोकोस कीलिंग द्रोणी के नाम से प्रसिद्ध है। मध्यवर्ती कटक के पूर्व में स्थित यह सर्वाधिक विस्तृत द्रोणी है, जो कि 10º उत्तरी से 50º द. अक्षांश तक विस्तृत है। इसकी गहराई 3600 से 5486 मीटर के बीच है।
(ix) पूर्वी भारत अंटार्कटिका द्रोणीः यह द्रोणी तीन ओर से मध्यवर्ती कटक एवं दक्षिण में अंटार्कटिका द्वारा घिरी है।
महासागरीय गर्तः हिंद महासागर के क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत भाग अगाध सागरीय मैदान के रूप में ही पाया जाता है। परिणामस्वरूप गर्तों की संख्या कम ही पायी जाती है। जावा द्वीप के सहारे सुण्डा गर्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
Question : प्रवाल भित्तियों की रचना।
(2001)
Answer : प्रवाल भित्तियों का निर्माण प्रवालों या पॉलिपों के अस्थि-पंजरों के समेकन एवं संयोजन द्वारा होता है। ये प्रवाल सामान्यतः उष्ण कटिबंधीय सागरों में अधिकतम 200 से 300 फीट की गहराई तक पाये जाते हैं। जब प्रवाल भित्तियों का निर्माण सागर तट से सट कर होता है तो ‘तटीय प्रवाल भित्ति’ का निर्माण होता है। तट से दूर हटकर विकसित प्रवाल भित्ति ‘अवरोधक प्रवाल भित्ति’ कहलाती है। किसी द्वीप या अंतः सागरीय चबूतरों के चारों ओर प्रवाल भत्तियों के विकास के फलस्वरूप ‘एटॉल’ का निर्माण होता है। यद्यपि प्रवाल सामान्यतः अधिकतम 300 फीट की गहराई तक ही जीवित रह सकते हैं, इसके बावजूद अनेक प्रवाल भित्तियों की गहराई इससे काफी अधिक है, जहां प्रवाल किसी भी हालत में जीवित नहीं रह सकते हैं। ऐसी प्रवाल भित्तियों के निर्माण की व्याख्या डार्विन के भू-अवतलन सिद्धांत एवं डेली के हिमानी नियंत्रण सिद्धांत के द्वारा की जा सकती है। डेविस के अनुसार सर्वप्रथम आदर्श चबूतरे पर प्रवाल भित्तियों का उद्भव होता है एवं वे ऊपर की ओर बढ़ते हुए सागर तल तक पहुंच जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ‘तटीय प्रवाल भित्ति’ का निर्माण होता है। चबूतरे में अवतलन होने पर प्रवाल अधिक गहराई में पहुंच जाते हैं तथा अपने आप को जीवित रखने के लिए ऊपर की ओर बढ़ते जाते हैं, जिसके फलस्वरूप तटीय प्रवाल भित्ति अवरोधक प्रवाल भित्ति में परिवर्तित हो जाती है। चबूतरे में पुनः अवतलन जारी रहने पर प्रवालों के ऊपर बढ़ते रहने से एटॉल का निर्माण होता है। इस प्रकार डार्विन के अनुसार प्रवाल भित्तियों का निर्माण क्रमिक रूप से होता है।
डेली ने प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति को समुद्री स्तर में परिवर्तन के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है। प्लिस्टोसीन काल में सागरीय नितल में महाद्वीपीय तटों तथा द्वीपों के सहारे अपरदित चबूतरों एवं सोपानों का निर्माण हुआ। हिमकाल के समापन के पश्चात सागर तल पुनः ऊपर उठने लगा एवं प्रवाल जलमग्न चबूतरों पर अपना घरौंदा बनाने लगे, जिसके फलस्वरूप तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण हुआ। चौड़े चबूतरों पर अवरोधक प्रवाल भित्ति एवं अंतःसागरीय पठारों पर एटॉल का निर्माण हुआ।
डार्विन के अनुसार प्रवाल भित्तियों का निर्माण
Question : अंतःसमुद्री कैनियन
(1999)
Answer : स्थल की ही भांति महाद्वीपीय मग्न तट तथा मग्न ढाल पर भी खड़ी दीवार युक्त गहरी एवं संकरी घाटियाँ पायी जाती हैं, जिन्हें ‘कैनियन’ कहते हैं। ये कैनियन स्थलीय गंभीर खड्डों से अधिक हरी होती हैं। इनके अनुदैर्ध्य परिच्छेदिकाओं में पर्याप्त अन्तर होता है तथा इनका मार्ग विसर्प युक्त टेढ़ा-मेढ़ा होता है। इनकी औसत ढाल 1.7% होती है। नदियों के मुहाने पर स्थित कैनियन अधिक लम्बी परन्तु कम गहरी होती है। इन कैनियनों में रेत, चीका, सिल्ट, बजरी, कंकड़ जैसे महासागरीय निक्षेप पाये जाते हैं। कैनियन के निर्माण से संबंधित अनेक मत प्रकट किये गये हैं:
Question : अटलांटिक महासागर के अंतःसमुद्री उच्चावच को स्पष्ट कीजिए और उदाहरण प्रस्तुत करते हुए समझाइए।
(1998)
Answer : पश्चिम में उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका व पूर्व में यूरोप व अफ्रीका के मध्य ‘S’ अक्षर के आकार वाले अटलांटिक महासागर में महासागरीय तली का रूप महाद्वीपीय किनारे से लेकर अधिक गहराई तक काफी भिन्न है। इसके ‘S’ आकार से प्रमाणित होता है कि इसकी रचना में प्लेट विवर्तन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अटलांटिक महासागर के नितल में निम्न चार प्रमुख रूप देखने को मिलते हैंः
अटलांटिक महासागर की तल रचना (द्रोणी, गर्त, कटक, तथा पठार 7200 मी. गहराई 3600 मी. गहराई की समाच्चे रेखा