Question : जीवन का बदलता ढांचा।
(2007)
Answer : जीवन का बदलता ढांचा एक प्रक्रिया है, जिसमें एक निश्चित समयावधि में घटनाओं की एक श्रृंखला होती है। इसमें निरंतरता की भावना विद्यमान होती है। घटनाओं के विशिष्ट क्रम के कारण सामाजिक संस्थाओं की भूमिका में परिवर्तन होता है, जो परिवर्तित परिस्थितियों में अधिक प्रभावशाली होता है। जीवन के बदलते ढांचे के संदर्भ में औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण मुख्य तत्व हैं। औद्योगीकरण से लोगों की जीवन शैली में परिवर्तन हुआ है। महिलाओं की आर्थिक भूमिका बढ़ी है। महिलाएं खेतों, कारखानों एवं व्यवसायिक संस्थानों में विभिन्न प्रकार के कार्य करने लगीं। जाति-व्यवस्था में परिवर्तन हुआ है। किसी हद तक जातियों ने अपने व्यवसाय को छोड़ा है तथा पारंपरिक दायित्व से अपने को मुक्त किया है। नगरीकरण के कारण बड़ी संख्या में लोग गांवों को छोड़कर शहरों में आ रहे हैं। इससे संयुक्त परिवार के ढांचे में भी परिवर्तन हो रहा है। एकाकी परिवारों की मात्रा बढ़ रही है। पारंपरिक पारिवारिक नियमों में ढील आयी है। परिणामस्वरूप मनुष्यों के आपसी संबंध अधिक औपचारिक एवं अवैयक्तिक होते जा रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अलावा फैशन टेक्नोलॉजी ने पूरे भारत को पश्चिमी रंग में रंग दिया है। आधुनिकीकरण को संभव बनाने के लिए कुछ राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां निम्न हैं
सूचना प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ने विश्व नागरिकों के बहुत और वरिष्ठ समुदाय का विकास किया है। व्यक्तियों के मध्य संचार तात्कालिक हो गया है। पर्याप्त सुविधा और विश्राम के लिए साधनों का निर्माण किया जा रहा है, ताकि लोग सृजनात्मक कार्यों की ओर अधिकाधिक ध्यान दे सकें और कला तथा समृद्धि को पुष्ट कर सकें।
Question : पूर्व औद्योगिक व्यवस्था के लक्षण।
(2007)
Answer : पूर्व औद्योगिक आर्थिक प्रणाली मुख्यतः कृषक समाज की विशेषताओं को अभिव्यक्त करती है। राबर्ट रेडफील्ड ने कृषक समाज की अवधारणा के माध्यम से ग्रामीण समाज अथवा औद्योगिक पूर्व समाज की आंतरिक एवं बाह्य संरचना को समझाने का प्रयत्न किया है। रॉबर्ट रेडफील्ड ने कृषक समाज की पांच विशेषताओं का उल्लेख किया हैः
इतना निश्चित है कि पूर्व औद्योगिक समाज भारतीय ग्रामीण समुदायों की विशेषताओं को प्रकट करते हैं, जिनमें कृषि की प्रधानता थी। लोग कृषि के माध्यम से अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। करीब 70-75 प्रतिशत लोगों की आजीविका का यही साधन था। कृषि के क्षेत्र में भी स्तरीकरण के कई रूप देखने केा मिलते हैं। एक ओर सामन्त, जागीरदार व जमींदार थे तो दूसरी ओर सामान्य जनता, किसान, भूमिहीन श्रमिक। इतना अवश्य है कि उस समय अधिकांश उत्पादन का कार्य हाथ से होता था, शक्ति का प्रयोग नहीं के बराबर था। कृषि की प्रधानता के कारण संयुक्त परिवार विशेष रूप में देखने को मिलता है। जाति के आधार पर गांवों में सामाजिक संस्तरण पाया जाता रहा है। जाति प्रथा की एक विशेषता के रूप में यहां जजमानी प्रथा पाई जाती रही है। कृषक समाज में सामाजिक गतिशीलता का अभाव रहा है। वहां विशेषीकरण नहीं पाया जाता, वरन् प्रत्येक व्यक्ति छोटा-मोटा सभी प्रकार का कार्य कर लेता है। वहां सीमित आय के कारण गरीबी एवं निम्न स्तर पाया जाता है।
Question : आर्थिक विकास के सामाजिक नियामक दर्शाइये। विकासशील समाजों के पिछड़ेपन एवं गरीबी का विश्लेषण करते हुए किसी एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की चर्चा भी कीजिए।
(2007)
Answer : आर्थिक विकास के बिना सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन सम्भव नहीं है, जब कि दूसरा दृष्टिकोण यह है कि समाज के भीतर संस्थाओं में होने वाले परिवर्तन आर्थिक विकास को सम्भव बनाते हैं। फ्रैन्किल के अनुसार, आर्थिक विकास एवं सामाजिक परिवर्तन एक दूसरे पर निर्भर हैं, अर्थात् प्रत्येक एक का कारण है तो दूसरा उसका परिणाम। उदाहरण के लिए जब कृषि से उद्योग में परिवर्तन होता है (सीमेन्ट उद्योग, चीनी उद्योग, कागज उद्योग या स्टील उद्योग) तो इससे नये रूझानों एवं कार्य की नई आदतों का भी विकास होता है। किसी समाज की आर्थिक प्रगति में योगदान देने वाले कारक जो आमतौर पर माने जाते हैं, वे हैं- प्राकृतिक संसाधन, पूंजी संग्रह, प्रौद्योगिकी, ऊर्जा के साधन, मानव शक्ति, श्रम शक्ति, जनसंख्या की विशेषताएं और इसके आर्थिक संगठन और सामाजिक वातावरण। पूर्वापेक्षाओं की बात करते हुए राबर्ट फैरिस ने कहा है कि आर्थिक विकास की महत्वपूर्ण पूर्वापेक्षाएं इस प्रकार हैं:
गुन्नार मिरडल एशियन ड्रामा पुस्तक के तीन भागों में, जिसमें उन्होंने दक्षिण एशिया के देशों की गरीबी और विकार का विश्लेषण किया है, विकास व आय, उत्पादन की दशाएं जीवन के स्तर, कार्य के प्रति दृष्टिकोण, संस्थाएं व राजनीति इनमें प्रमुख हैं। नोवाक मानते हैं कि कम विकास के प्रमुख कारक हैं- पूंजी की कमी, निम्न औद्योगिक जनसंख्या, और प्राकृतिक संसाधनों की कमी। दूसरी ओर, आर्थिक विकास की पूर्वपेक्षाओं में पूंजी तकनीकी गुणवत्ता और प्राकृतिक संसाधन, आदि प्रमुख हैं:
जैकब बाइनर ने आर्थिक विकास की छः रूकावटों को सन्दर्भित किया है। ये हैं- प्रतिकूल भौतिक वातावरण, कार्यरत जनसंख्या की निम्न गुणवत्ता, तकनीकी ज्ञान की कमी, पूंजी की कमी, जनसंख्या में तीव्र वृद्धि तथा कृषि भूमि संरचना में दोष। आर्थिक विकास में आने वाली सामाजिक बाधा निम्नलिखित हैः
जाति, भूमि पट्टेदारी का तरीका, जनसंख्या वृद्धि और सम्पत्ति कानून, जिससे भूमि के अधिक टुकड़े होते हैं।, अतीत से हस्तान्तरित सामाजिक ढांचा और संस्थात्मक संरचना व मूल्य (अर्थात् जाति प्रथा) और निष्ठाओं का अनुलम्बन यद्यपि विकासशील देश, जैसे भारत में जाति प्रथा सिद्धांन्त रूप में तथा संवैधानिक रूप से समाप्त कर दी गई है, लेकिन वास्तविक जीवन में इसका महत्व, आर्थिक विकास पर इसका प्रभाव, सम्पत्ति सम्बन्धों के आदर्शों और उपभोग के तरीकों पर इसका प्रभाव, तथा सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों के शक्ति के ढाचें की संस्थिति पर प्रभाव आज भी अच्छी तरह नहीं समझा गया है। इसलिए इसको गम्भीर रूप से नजर अन्दाज किया गया है। गतिशील आर्थिक विकास के लिए अति आवश्यक लोगों की गतिशीलता को जाति रोकती है। यह कुछ समूहों को कुछ पेशे अपनाने से रोकती है, तथा आर्थिक व्यवहार के कुछ आदर्शों और उपभोग के कुछ स्वरूपों को भी अपनाने से रोकती है। यह देखा गया है कि अर्थतंत्र, प्रशासन और सांस्कृतिक कार्यों में अधिकतर नियंत्रण करने वाले पदों पर सम्पूर्ण भारत में कुछ जातियों द्वारा ही एकाधिकार कर लिया गया है। जिससे जाति संघर्ष, क्षेत्रीय तनाव व सामाजिक अशान्ति उत्पन्न होती है। यह अशान्ति विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के मध्य तथा विशेषाधिकार से वंचित लोगों और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के मध्य संघर्ष का कारण होती है और कटु प्रतियोगितात्मक संघर्ष को बनाए रखती है। स्वस्थ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
संयुक्त परिवार व्यवस्था, जाति (जो सामाजिक तथा पेशेवर गतिशीलता को रोकती है), साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद और भाषावाद भारत में आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न करने वाले कारकों के रूप में पहचाने गए हैं। यह भी माना जाने लगा है कि जाति प्रथा में परिवर्तनों से ही विकास सम्भव हुआ है। एक अन्य समाजशास्त्रीय अर्थ पिछड़े किस्म की निष्ठाओं के दुराग्रह से है, जिससे भारतीय लोग छोटे-छोटे अतं के साथ समूहों और टुकड़ों में बंट गए हैं और जिसके कारण अति उच्च विकसित राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधा पड़ी है। कुछ निष्ठाएं जो भारत में (जाति निष्ठा के अलावा) अति दुराग्रही हैं, वे हैं- नातेदारी निष्ठा, क्षेत्रीय पहचान, और धार्मिक लगाव।
इस प्रकार के विभाजन समाज में एकता की भावना और इसके सदस्यों के बीच पहचान की भावना के विकास में बाधक है। ऐसे वातावरण में जो नियामक दबाव रहता है, वह बाह्य परिरस्थितियों में और सम्बन्धों में व्यक्ति में व्यवहार को बहुत प्रभावित करता है। ए. आर. देसाई का यह भी मानना है कि पुरानी संस्थाओं के साथ-साथ यह संकुचित मानसिकता निम्न कई प्रकार से उपयुक्त आर्थिक विकास को बाधित करती हैः
विकासशील देशों की स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सरकार का दोहरा कार्य हो गया- उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था को खत्म करना और इसके स्थान पर आधुनिक, स्वाधीन और आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था का आधार खड़ा करना।
ऐसे विद्वान भी हैं, जो यह विश्वास नहीं करते कि नव-उदारवादी आर्थिक-नीति वास्तव में विकासशील अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवन प्रदान करेगी। उनकी मान्यता है कि अर्थव्यवस्था को आयात नियंत्रित करके, निर्यात को प्रोत्साहन देकर, कर तन्त्र को विस्तृत कर के, सार्वजनिक क्षेत्र को नौकरशाही से मुक्त करा कर, काले धन को उजागर करके, रक्षाखर्चों में कटौती करके, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की ओर अधिक ध्यान देकर, वस्तुओं के लिए वृहद् बाजार सृजित करके, भूमि सुधारों में क्रांतिकारी सुधार करके, पुनर्जीवित किया जा सकता है। ये विद्वान यह भी मानते हैं कि देश केा बाह्य की बजाय आन्तरिक उपयों पर निर्भर रहना चाहिए।
Question : आर्थिक विकास के सामाजिक निर्धारक।
(2005)
Answer : आर्थिक विकास में सामाजिक कारकों का अभूतपूर्व योगदान होता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक साधन, मानवीय साधन, पूंजी, तकनीक ज्ञान, संगठन, राज्य की नीति, विकास की इच्छा, सामाजिक संस्थाएं, परम्पराएं एवं व्यवहार, अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां आदि सभी आर्थिक व्यवहार को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक निर्धारक निम्नांकित हैं-
Question : नव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अधिकारी तंत्र।
(2004)
Answer : नव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अधिकारी तंत्र का महत्व निश्चित रूप से है। यह अर्थव्यवस्था मूल रूप से विभिन्न नियमों एवं कानूनों के तहत संचालित होती है। आज के अधिकांश देश, चाहे वह विकसित देश हो, अविकसित हो व विकासशील, अधिकारी तंत्र की महत्ता को स्वीकार करते है। दूसरे शब्दों में, ‘वेबर ने अधिकारी तंत्र की उपयोगिता एवं महत्ता को आधुनिक समाज की प्रमुख विशेषता के रूप में वर्णन किया है। वेबर ने अधिकारी तंत्र को तार्किकता के आधार पर आदर्श प्रारूप का स्वरूप तैयार किया है।’
वास्तव में नव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में राज्य के कार्यों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। राज्यों के इन बढ़ते हुए कार्यों को संचालित करने का उत्तरदायित्वप्रशासन के इसी तंत्र का होता है। जब राज्य के कार्यों में ‘हस्तक्षेप’ की नीति का अनुसरण किया जाता था, तो उस समय राज्य के कार्य अत्यंत ही कम थे, किंतु आधुनिक युग में राज्य के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। इस आधुनिकता के वृद्धि के नव पूंजीवादी युग का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक है। इससे समाज पहले की अपेक्षा अत्यंत जटिल हो गया है। इसके कारण समाज में अनेक पेचीदगियों और समस्याओं का विकास होता गया है। इन समस्याओं के संचालन के लिए विभिन्न स्तरों पर अधिकारी तंत्र की उपयोगिता का बढ़ना स्वाभाविक है। रोबसन ने अधिकारी तंत्र की सहभागिता को इन शब्दों में स्पष्ट किया है-
‘एकीकरण, संचार तथा प्रशासन में सहभागिताएं शब्द उन लोगों को सदा दृष्टि में रखना चाहिए जो यह चाहते हैं कि प्रजातंत्रीय सरकार की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के साथ लोक प्रशासन के संगठनात्मक संबंध कायम हों। इससे सुधार की ऐसी प्रवृतियां जाग्रत होती हैं, जिनका यदि अनुसरण किया जाय तो ये सिविल सेवा को सर्वाधिक योग्य, समर्थ, जिम्मेदार तथा उत्तरदायी बना देंगी।’
Question : आर्थिक विकास के सामाजिक निर्धारक।
(2003)
Answer : किसी भी देश में आर्थिक विकास को निर्धारित करने में अनेक कारकों की भूमिका निहित होती है जिसमें प्राकृतिक साधन, मानवीय साधन, पूंजी, तकनीकी ज्ञान, संगठन, राज्य की नीति, विकास की इच्छा, सामाजिक संस्थाएं परम्पराएं एवं व्यवहार, अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां इत्यादि। आर्थिक विकास के सामाजिक निर्धारक निम्नलिखित है:
Question : औद्योगीकरण और सामाजिक परिवर्तन
(2002)
Answer : आधुनिक समाज में औद्योगीकरण के फलस्वरूप सामाजिक प्रक्रिया में काफी परिवर्तन हुआ है। वर्तमान समय में औद्योगीकरण और सामाजिक परिवर्तन एक दूसरे से काफी अंतःसंबंधित हैं। मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त औद्योगीकरण के फलस्वरूप दिया था। वास्तव में, मार्क्स के पूंजीवादी समाज की अवधारणा औद्योगीकरण की आस-पास घूमती है। परंतु मार्क्स ने पूंजीवादी समाज को अतार्किक माना है। डाइरेन्डार्फ ने भी सामाजिक परिवर्तन का मुख्य आधार औद्योगीकरण माना है। यहां पर इन बातों से यह अस्वीकर नहीं किया जा सकता कि औद्योगीकरण के फलस्वरूप ज्यादा से ज्यादा लोगों को उद्योगों में काम मिला, जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों के सभी स्तर, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक तथा शैक्षिक स्तरों को सुधारने में काफी मदद मिली। औद्योगिक समाज के पहले वस्तुतः सामंतवादी व्यवस्था थी जिसमें गरीब व्यक्तियों का काफी शोषण होता है, परंतु औद्योगीकरण के फलस्वरूप व्यक्ति किसी भी जगह स्वतंत्र होकर कार्य करने लगे। अगर भारतीय समाज को देखें तों यहां झारखंड, उड़ीसा एवं बंगाल के जनजाति क्षेत्रों का विकास इसी औद्योगीकरण के फलस्वरूप हुआ है और हो रहा है। इसके लिए वहां के सामंत (जमींदार/महाजन) लोग आदिवासियों का काफी शोषण करते थे। इसके अतिरिक्त आज गांवों की ऐसी स्थिति हो गयी है कि शायद ही कोई नौजवान नजर आये। वास्तविकता यह है कि अधिक से अधिक जनसंख्या समूह अपनी स्थिति सुधारने के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहा है और यह सभी औद्योगीकरण के ही फलस्वरूप संभव हुआ है। परंतु इसके काफी विपरीत असर भी शहरों पर पड़ा है और काफी समस्याएं उभरकर सामने आयी हैं। जैसे-गंदी बस्तियों की संख्या दिन-प्रतिदिन महानगरों में बढ़ती जा रही है। इसके बावजूद औद्योगीकरण के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्गों एवं विभिन्न पहलुओं में परिवर्तन एवं अन्ततोगत्वा समाजशास्त्र की भाषा में परिवर्तन हुआ है।
Question : विनिमय के प्रकार।
(2001)
Answer : विनिमय मुख्यतः दो प्रकार के अर्थों में लिया जाता है। पहला वस्तु विनिमय एवं दूसरा उत्सवी विनिमय। उपहारों का उद्देश्य उत्पादन के वितरण द्वारा व्यक्तिगत एवं सामूहिक संबंधों को स्थायित्व देना होता है। अण्डमानियों से लेकर विकसित समाजों तक हमें उपहार देने की प्रथा देखने को मिलती है। उपहार आर्थिक व सामाजिक दोनों दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। उपहार में आर्थिक दृष्टि से कीमती एवं उपयोगी वस्तुएं, प्रतिष्ठा की दृष्टि से उपयोगी वस्तुएं लेकिन व्यावहारिक और आर्थिक दृष्टि से मूल्यहीन एवं निरुपयोगी वस्तुएं तक दी जाती हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु एवं बड़े दिन आदि अवसरों पर हमें इसका विशेष प्रचलन देखने को मिलता है।
लघु समाजों के उपहारों में मेल-भाव नहीं होता जो कुछ दिया जाता है उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया जाता है। दुर्खीम के अनुगामी मार्शल मौस ने सरल समाजों में उपहार के महत्व को बताने के लिए ‘कुला’ और ‘पॉटलैच’ का उदाहरण दिया जो कि उत्सवी विनिमय का उदाहरण है। पॉटलैच की प्रथा अमेरिका के उत्तर पश्चिमी तट की जनजातियों में अलास्का और ब्रिटिश कोलम्बिया मे निवास करने वाली चार जनजातियों में पायी जाती है। वे हैं- हैडा, लिंगित शिमशियन और क्वाक्विटल। पॉटलैच एक भोज होता है जिसमें कई लोगों और यहां तक कि दुश्मनों तक को आमंत्रित किया जाता है। भोज में लोगों को खूब खिलाया-पिलाया जाता है, वस्तुएं नष्ट की जाती है और लोगों में बांटी जाती है एवं प्रतिष्ठा की प्राप्ति की जाती है।
कूला उपहार विनिमय की विख्यात प्रथा है जिसका सर्वप्रथम विस्तार से वर्णन मैलिनोवस्की ने किया। यह प्रथा न्यूगिनी, ट्रोब्रियांडा द्वीप, एम्फ्रलेंट द्वीप, लौफलें द्वीप तथा डोबू में पायी जाती हैं। इन लोगों की संस्कृतियां भिन्न-भिन्न हैं फिर भी वे कुला के प्रचलन में सहयोग देते हैं। कुला आर्थिक प्रकार्य ही नहीं करता वरन् समारोहात्मक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। कुला के साथ आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, जादुई एवं धार्मिक मूल्य, यात्रएं व मनोरंजन भी जुडे़ हुए है। अतः यह इन सभी का संकुल है। कुला प्रथा में प्रत्येक व्यक्ति शंख के आभूषणों द्वारा दूसरे लोगों से विनिमय का साझा स्थापित करता है। कुला में विनिमय करने वाले दोनों पक्ष एक ही वस्तु का विनिमय नहीं करते अर्थात् यदि एक पक्ष ने हार दिया है तो दूसरा पक्ष हार नहीं देता वरन् बाजुबंद देगा और बाजुबंद देने वाले को हार दिया जायेगा।
Question : आर्थिक विकास के सामाजिक निर्धारक।
(2000)
Answer : किसी समाज की आर्थिक विकास में योगदान देने वाले कारक मुख्यतः प्राकृतिक संसाधन, पूंजी संग्रह, प्रौद्योगिकी ऊर्जा के साधन, मानव शक्ति, श्रम शक्ति, जनसंख्या की विशेषताएं और इसके आर्थिक संगठन, और सामाजिक वातावरण। जहां तक आर्थिक विकास के सामाजिक निर्धारक की बात है तो इसके अंतर्गत (i) मूल्य या विचारधारा, (ii) संस्थाएं अथवा नियामक ग्रंथियां, (iii) संगठन (नीतियां), (iv) धर्म।
मैक्स वेबर ने आधुनिक पूंजीवाद के विकास का कारण धार्मिक संस्थाओं को माना है। इसके अनुसार प्रोटेस्टेंट धर्म की आचार संहिता आर्थिक विकास का मूल कारण है। उसी प्रकार मार्क्स ने भी विचारधारा एवं संस्थाओं को आर्थिक विकास का कारक माना है। गुन्नार मिर्डल ने ‘एशियन ड्रामा’ पुस्तक में आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले छः महत्वपूर्ण कारक बताएं हैं-पैदावार व आय, उत्पादन की दशाएं, जीवन के स्तर, कार्य के प्रति दृष्टिकोण, संस्थाएं व राजनीति। प्रथम तीन आर्थिक कारकों के संदर्भ में हैं, अगले दो गैर-आर्थिक और अंतिम मिश्रित श्रेणी के संदर्भ में है। मिर्डल का मानना है कि आर्थिक कारक निर्णायक व महत्वपूर्ण है।
Question : श्रम विभाजन और सामाजिक संरचना का विभेदन
(1999)
Answer : श्रम-विभाजन से तात्पर्य किसी भी स्थाई संगठन मे मिलजुल कर काम करने वाले व्यक्तियों, या समूहों द्वारा भिन्न, किंतु समन्वयात्मक क्रियाओं के सम्पादन से हैं श्रम-विभाजन के अंतर्गत विभाजित काम के प्रत्येक भाग को किसी पृथक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह द्वारा सम्पादित किया जाता है। अतः समाज में किसी कार्य को सम्पादित करने वाले व्यक्तियों के बीच सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं एवं सेवाओं के वितरण एवं वैभिन्नकरण की प्रक्रिया श्रम-विभाजन कहलाती हैं इस अवधारणा का सामाजिक विज्ञानों में सर्वप्रथम प्रयोग एडम स्मिथ द्वारा अपनी पुस्तक ‘इन्क्वायरी इन टू द नेचर एंड कॉलेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशन्स’ में पुरातन राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अध्ययन में किया गया, जो कि आधुनिक अर्थव्यवस्था की पूर्वज मानी जाती है।
इस अवधारणा के बारे में अनेक मत-मतांतर होते हुए भी समाजशास्त्र के संस्थापकों में इस बात पर सहमति है कि सत्ता संबंध, विचारधारा और नैतिक नियमाचारों द्वारा श्रम-विभाजन को बनाये रखा जाता है। उदाहरणार्थ, कार्ल मार्क्स ने कहा है कि बाजार की प्रक्रियाएं वर्ग सत्ता में निहित विभाजन को अभिव्यक्त करती है जो कि सम्पूर्ण सामाजिक/आर्थिक पुंज की सम्पत्ति होती हैं और जो व्यक्तिगत प्रयोजनों और व्यवहारों को भी सम्मिलित करती है। उनके मतानुसार श्रम-विभाजन ने ही सर्वप्रथम उत्पादन के विरोधी संबंधों को जन्म दिया है। इसी कारण से किसी भी विशिष्ट काल में श्रम-विभाजन के बाद के रूप उत्पादन संबंधों के मालिकों और मजदूरों के बीच अतिरिक्त उत्पादन के वितरण से संबंधित संघर्ष को प्रतिबिम्बित करते हैं। दुर्खीम ने इसी बात को थोड़े दूसरे ढंग से कहा है। उनके अनुसार श्रम-विभाजन का प्रमुख कार्य नैतिकता का संचार करना है, अर्थात् समाज में एकजुटता को उत्पन्न करना है ताकि व्यक्तिगत अहं, स्वतंत्रता, निष्ठुरता तथा क्रूरता को नियंत्रित किया जा सके।
इमाइल दुर्खीम ने श्रम-विभाजन संबंधी अपने विचारों का सविस्तार वर्णन-विश्लेषण अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द सोश्यल डिवीजन ऑफ लेबर’ में किया है। यद्यपि इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों ने इस विचार के संबंध में, कि पूर्व आधुनिक समाजों में श्रम-विभाजन का अभाव था, का प्रश्न खड़ा किया है, किंतु दुर्खीम ने अपनी यांत्रिक और सावयवी एकता संबंधी जुडवां अवधारणाओं द्वारा श्रम-विभाजन के प्राचीन और अर्वाचीन स्वरूप पर विस्तृत प्रकाश डाला है। दुर्खीम के अनुसार जैसे-जैसे किसी समाज में श्रम-विभाजन में वृद्धि होती जाती है। वैसे-वैसे यांत्रिक एकता पर आधारित समाज सावयवी एकता का रूप ग्रहण करता रहता हैं। इसी आधार पर उन्होंने सामाजिक उद्विकास के दो स्तरों को प्रतिबिम्बित करने वाले दो प्रकार के समाजों के बीच स्पष्ट अंतर बताया है।
Question : पूर्व औद्योगिक आर्थिक व्यवस्था के अभिलक्षण
(1998)
Answer : पूर्व औद्योगिक आर्थिक प्रणाली मुख्यतः कृषक समाज की विशेषताओं को अभिव्यक्त करती है। राबर्ट रेडफील्ड ने कृषक समाज की अवधारणा के माध्यम से ग्रामीण समाज अथवा औद्योगिक पूर्व समाज की आंतरिक एवं बा“य संरचना को समझाने का प्रयत्न किया है। रॉबर्ट रेडफील्ड ने कृषक समाज की पांच विशेषताओं का उल्लेख किया है-
इतना निश्चित है कि पूर्व औद्योगिक समाज भारतीय ग्रामीण समुदायों की विशेषताओं को प्रकट करते हैं, जिनमें कृषि की प्रधानता थी। लोग कृषि के माध्यम से अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। करीब 70-75 प्रतिशत लोगों की आजीविका का यही साधन था। कृषि के क्षेत्र में भी स्तरीकरण के कई रूप देखने को मिलते हैं। एक ओर सामन्त, जागीरदार व जमींदार थे तो दूसरी ओर सामान्य जनता, किसान, भूमिहीन श्रमिक। इतना अवश्य है कि उस समय अधिकांश उत्पादन के कार्य हाथ से होता था, जड़ शक्ति का प्रयोग नहीं के बराबर था। कृषि की प्रधानता के कारण संयुक्त परिवार विशेष रूप में देखने को मिलता है। जाति के आधार पर गांवों में सामाजिक संस्तरण पाया जाता रहा है। जाति प्रथा की एक विशेषता के रूप में यहां जजमानी प्रथा पाई जाती रही है। कृषक समाज में सामाजिक गतिशीलता का अभाव रहा है। वहां विशेषीकरण नहीं पाया जाता वरन् प्रत्येक व्यक्ति छोटा-मोटा सभी प्रकार का कार्य कर लेता है। वहां सीमित आय के कारण गरीबी एवं निम्न स्तर पाया जाता है।