Question : समाजशास्त्र के उद्गम के बौद्धिक स्रोत्र।
(2006)
Answer : जिन परिस्थितियों के चलते समाजशास्त्र का उदय हुआ, वे बौद्धिक और सामाजिक दोनों थीं। समाजशास्त्र के उद्गम के चार बौद्धिक स्रोत हैं:
शुरुआत में इनमें से दो, इतिहास दर्शन और सामाजिक-राजनीतिक सुधार आंदोलन, जिसके लिए सामाजिक सर्वेक्षण आवश्यक हुआ, विशेष रुप से महत्वपूर्ण थे। इतिहास दर्शन 18 वीं शताब्दी में सामने आया। इसके संस्थापकों में अबे-द-से पियरे और जिआमबतिस्ता विको थे। प्रगति के जिस आम विचार को सूत्रबद्ध करने में इन्होंने मदद की, लोगों की इतिहास संबंधी धारणा को उसने गहराई से प्रभावित किया। हीगल और सेंट साइमन के लेखन के कारण इतिहास दर्शन एक प्रमुख बौद्धिक प्रभाव बन गया। हीगल और साइमन का प्रभाव कार्ल मार्क्स और अगस्ट काम्ट पर पड़ा। बहुत हद तक दार्शनिक इतिहासकार ही समाज की नई धारणा के लिए जिम्मेदार हैं, जिसके मुताबिक समाज को ‘राजनीतिक समाज’ या राज्य के अलावा भी समझा जाता है। एडम फर्ग्यूसन की पुस्तक ‘एसे आन दि हिस्ट्री आफ सिविल सोसाइटी (1767) इस दृष्टिकोण का सर्वोत्तम उदाहरण है।
इसी प्रकार सामाजिक सर्वेक्षण का भी समाजशास्त्र के उद्गम में अमूल्य योगदान है। सामाजिक सर्वेक्षण के दो स्रोत हैं:
यह माना गया है कि गरीबी कोई प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि अज्ञान अथवा शोषण का परिणाम है। इन दोनों कारणों से सामाजिक सर्वेक्षण को बढ़ावा मिला। जान सिंक्लेयर की पुस्तक ‘स्टैटिस्टीकल एकाउंट ऑफ स्काटलैण्ड’ और सर एफ. एम. इडेन लिखित ‘द स्टेट आफ दि पुअर’ इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
समाजशास्त्र के उद्गम के अन्य दो तत्व-राजनीतिदर्शन तथा जीव विज्ञान का विकास सिद्धांत का भी समाजशास्त्र के विकास में प्रमुख योगदान है। राजनीति दर्शन ने आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थाओं जैसे प्रजातंत्र के सामाजिक अध्यायों की वृहत चर्चा की। पुराने राजनीतिक मूल्यों एवं परम्पराओं को उखाड़ फेंकने का सुझाव दिया क्योंकि पुराने मूल्यों के आधार पर नये समाज का निर्माण नहीं हो सकता। इसी प्रकार लैमार्क और डार्विन जैसे विचारकों ने मानव के उद्विकास का एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसका प्रभाव स्पेंसर और मार्गन के विचारों में देखा जा सकता है। इस चिंतन ने परम्परागत मान्यताओं के स्थान पर वैज्ञानिक मान्यताओं को स्थापित किया।
उपरोक्त चारों तत्वों के परिणास्वरूप समाजशास्त्र का एक नये विज्ञान के रूप में जन्म हुआ। यह नया विज्ञान आज भी अपने विकास के क्रम में है। वर्तमान में चल रही भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण जैसी प्रक्रियाओं ने समाजशास्त्र को भी अधिक जटिल बनाया है। इस जटिलता के कारण समाजशास्त्र को नयी-नयी पद्धतियों का विकास करना पड़ रहा है। अतः समाजशास्त्र के उद्गम के नये-नये बौद्धिक स्रोत भी जन्म ले रहे हैं।Question : समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान के साथ उसके संबंध।
(2005)
Answer : समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। वास्तव में आर्थिक और सामाजिक संबंध आपस में जुड़े हुए हैं और समय-समय पर एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। प्रायः तमाम सामाजिक संबंधों की जड़ों में आर्थिक संबंध होते हैं। परिवार, जाति, वर्ग आदि में आर्थिक हितों के आधार पर सहयोग एवं संघर्ष पाया जाता है।
समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के बीच कितना घनिष्ठ संबंध है यह मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ एवं वेबर के ‘द प्रोटेस्टेंट एथिक एण्ड द स्प्रिट ऑफ कैपिटिल्जम’ से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। मार्क्स ने यदि यह प्रमाणित किया कि आर्थिक संरचना सामाजिक संरचना का आधार है, तो वेबर ने यह प्रमाणित किया कि धर्म आर्थिक संगठनों को प्रभावित करता है। उनके अनुसार आधुनिक पूंजीवाद के विकास में प्रोटेस्टेन्ट धर्म की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। पारसंस एवं स्मेल्सर ने तो आर्थिक सिद्धान्त को समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का ही अंग माना है। मिरडॉल का ‘एशियन ड्रामा’ और हॉजलिट्स की ‘सोशियालॉजिकल आस्पेक्ट्स ऑफ इकॉनोमिक ग्रोथ’ कुछ ऐसी कृतियां हैं जो समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के बीच घनिष्ठ संबंधों को और भी ज्यादा स्पष्ट करती हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे सामान्य विषय हैं जिनका दोनों में ही अध्ययन होता है, जैसे- नगरीकरण, आर्थिक प्रगति, श्रम विभाजन, बेरोजगारी, औद्योगिकीकरण, सामाजिक कल्याण, जनसंख्या आदि।
समाजशास्त्र के अंतर्गत मनुष्य की सामाजिक जीवन के लगभग तमाम पक्षों का अध्ययन होता है, जबकि अर्थशास्त्र सामाजिक जीवन के केवल आर्थिक पहलू का अध्ययन करता है। अर्थशास्त्र के अंतर्गत किसी घटना की व्याख्या के लिए मुख्य रूप से आर्थिक कारणों की खोज की जाती है, जबकि समाजशास्त्र में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों के योगदानों की भी चर्चा की जाती है। समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, जबकि अर्थशास्त्र एक विशिष्ट सामाजिक विज्ञान।
समाजशास्त्र एवं राजनीति विज्ञानः राजनीतिशास्त्र में कानून, राज्य, सम्प्रभुता, प्रशासन आदि का अध्ययन होता है। किसी भी देश की राजनीतिक प्रक्रिया वहां की सामाजिक परिस्थितियों एवं संस्कृति से जुड़ी होती है, अतः समाजशास्त्र का राजनीतिशास्त्र से गहरा संबंध है। मैक्स वेबर एवं पैरेटो ने कुछ राजनीतिक प्रक्रियाओं का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन किया है, जिससे इनके बीच गहरे संबंध होने का आभास मिलता है। राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीतिशास्त्र एवं समाजशास्त्र के बीच एक कड़ी का काम करता है। धीरे-धीरे राजनीतिशास्त्र में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण काफी महत्वपूर्ण होता जा रहा है। बहुत प्रकार की राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए राजनीतिशास्त्र के विद्वान समाजशास्त्रीय, अध्ययन पद्धति एवं सिद्वान्तों का प्रयोग कर रहे हैं। इस क्षेत्र में लिपसेट, डॉहल, ऑमण्ड और रूडॉल्फ एवं रूडॉल्फ ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
दोनों में अगर भेद स्पष्ट किया जाय तो पहला भेद यह है कि ‘राजनीतिशास्त्र’ हमारे सामाजिक जीवन के केवल राजनीतिक पक्ष का ही अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र सामाजिक जीवन की सम्पूर्णता का। कुछ विचारकों के अनुसार राजनीतिशास्त्र अपेक्षाकृत अधिक आदर्शात्मक है। समाजशास्त्र यह नहीं करता है कि हमें कैसा और किस तरह का व्यवहार करना चाहिए या कुछ नहीं करना चाहिए। परन्तु राजनीतिशास्त्र में मूल्यांकनात्मक बातें होती हैं। जैसे-सरकार और नागरिकों का संबंध कैसा होना चाहिए, केन्द्र और राज्य का संबंध कैसा होना चाहिए आदि। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र में अध्ययन की इकाई राजनीतिशास्त्र की तुलना में छोटी होती है।
Question : समाजशास्त्र एक निर्वचनात्मक शास्त्र के रूप में।
(2001)
Answer : मैक्स वेबर का उद्देश्य समाजशास्त्र को विज्ञान बनाना था। इस उद्देश्य की प्रप्ति के लिए उसने आदर्श प्रारूप के सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। वास्तव में वेबर, कॉम्टे एवं दुर्खीम के प्रत्यक्षवाद की अवधारणा से सहमत नहीं है। वेबर का कहना है कि समाजशास्त्र का अध्ययन पूर्णरूपेण प्राकृतिक विज्ञान की भांति असंभव है क्योंकि सामाजिक घटना का अध्ययन एक व्यक्ति के द्वारा किया जाता है। अतः यह संभावना है कि अध्ययन कर्त्ता का स्वयं विचार अध्ययन में सम्मिलित हो सकता है। इसलिए वेबर का मानना है कि हम समाजशास्त्र का अध्ययन तभी वैज्ञानिक रूप से कर सकते हैं जब हम सामाजिक विज्ञानों में कार्य-कारण के संबंध को खोजने में सफल होते हैं। इस कार्य-कारण के संबंधों का ज्ञान सामाजिक घटनाओं की व्याख्या के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है अतः वेबर का मानना है कि समाजशास्त्र के अध्ययन में हम पूर्णतया ‘वेल्यू फ्री (Value-free) नहीं हो सकते हैं बल्कि ‘वेल्यू-लाडेन (Value-Laden) होने की संभावना होती है, परंतु हम सामाजिक घटनाओं का अध्ययन ‘वेल्यु न्यूट्रल’ (Value-neutral) होकर कर सकते हैं। इसलिए वेबर (Value-neutral) समाजशास्त्र की बात करता है।
मैक्स वेबर ने समाजशास्त्र की सामाजिक क्रिया को समझने को विज्ञान माना है। उसने अपनी पुस्तक ‘Theory of Social and Economic Organisation’ में समाजशास्त्र की परिभाषा निम्न शब्दों में दी है,- ‘समाजशास्त्र एक विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं के व्याख्यात्मक बोध का प्रयास करता है ताकि इनके घटनाक्रम एवं कार्य-कारण के संबंधों का विश्लेषण किया जा सके।’ वेबर के इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र को निम्नांकित बिंदुओं पर अध्ययन करना चाहिएः
इस प्रकार निर्वचनात्मक समाजशास्त्र के अंतर्गत वेबर ने यह बताने का प्रयास किया है कि समस्त ‘सामाजिक जीवन सामाजिक प्रक्रिया का प्रतिबिम्ब है। सामाजिक जीवन को समझने के लिए इन क्रियाओं की व्याख्या करना अनिवार्य है। निर्वचनात्मक समाजशास्त्र में सामाजिक क्रियाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। समाजशास्त्र को निर्वचनात्मक शास्त्र के रूप में वेबर के आगे अल्फ्रेड शुत्ज एवं हेरॉल्ड गारफिंकल ने किया है। अल्फ्रेड शुत्ज एवं हेरॉल्ड गारफिंकल ने क्रमशः ‘फिनोमेनोलॉजी एवं इथनोमेथोडोलॉजी’के अंतर्गत किया है जो मुख्यतः कर्त्ता के दृष्टिकोण से सामाजिक क्रिया को करने पर जोर दिया जाता है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि निर्वचनात्मक समाजशास्त्र किसी घटना के व्यक्तिगत समझ पर आधारित एक सैद्धांतिक एवं पद्धतिशास्त्रीय अध्ययन है।
Question : समाजशास्त्र एवं सामाजिक मानवशास्त्र।
(2000)
Answer : समाजशास्त्र एवं सामाजिक मानवशास्त्र एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित है जिसके फलस्वरूप दोनों के बीच एक निश्चित विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं है। इवान्स प्रिचार्ड की मान्यता है कि सामाजिक मानवशास्त्र की समाजशास्त्रीय अध्ययनों की एक शाखा माना जा सकता है, वह शाखा जो प्रमुखतः अपने को आदिम समाजों के अध्ययन में लगाती है। परंतु समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग साधारणतया सभ्य समाजों की विशिष्ट समस्याओं के अध्ययन से लगाया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्र में समाजों का उनकी संपूर्णता में अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्री आदिम लोगों की अर्थव्यवस्था का उनके परिवार और नातेदारी संगठनों का उनकी प्रौद्योगिकी तथा कलाओं का सामाजिक व्यवस्थाओं के भागों के रूप में अध्ययन करता है। दूसरी ओर समाजशास्त्री पृथक-पृथक समस्याओं का जैसे विवाह विच्छेद, वेश्यावृत्ति, अपराध तथा श्रमिक असंतोष आदि का अध्ययन करता है। परंतु समाजशास्त्र के सैद्धांतिक ज्ञान का उपयोग आदिम सामाजिक जीवन को अधिक उत्तमता के साथ समझने में किया जाता है। अनेक अंग्रेज मानवशास्त्रियों ने दुर्खीम की समाजशास्त्रीय उपकल्पनाओं का प्रयोग सामाजिक मानवशास्त्रीय अध्ययनों में किया है।
यद्यपि इन दोनों विज्ञानों में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है, परंतु दोनों एक नहीं है, दोनों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर है। प्रथम, इनमें विषय क्षेत्र की दृष्टि से अंतर पाया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्र प्रमुखतः आदिम समाजों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र सभ्य समाजों का। द्वितीय, इन दोनों में पद्धति संबंधी भी अंतर पाया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्र में सहभागिक अवलोकन पद्धति का प्रयोग किया जाता है जबकि समाजशास्त्र में निदर्शन पद्धति, अनुसूची, प्रश्नावली के साथ-साथ प्रलेखों तथा सांख्यिकीय पद्धति का प्रयोग किया जाता है। तृतीय, समाजशास्त्र का एक ओर सामाजिक दर्शन के साथ, तो दूसरी ओर नियोजन के साथ घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। इवान्स प्रिचार्ड ने लिखा है कि समाजशास्त्र न केवल इस बात का पता लगाने की कोशिश करता है कि संस्थाएं कैसे कार्य करती हैं बल्कि यह भी बतलाता है कि उन्हें कैसे कार्य करना चाहिए, कैसे परिवर्तित होना चाहिए, जबकि सामाजिक मानवशास्त्र इस प्रकार के विचारों से अपने को दूर ही रखता है।
Question : औद्योगिक क्रांति के उप-उत्पाद के रूप में समाजशास्त्र
(1999)
Answer : औद्योगिक क्रांति की शुरुआत इंग्लैंड में 1760 ई. को हुई एवं इस क्रांति ने सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर लोगों को काफी प्रभावित किया। साथ ही बहुत सी वस्तुओं जैसे Spinning Jenny, Water frame, Mule इत्यादि का हुआ जिसने यूरोपियन समाज की यथास्थिति को ही बदल दिया। सामाजिक व्यवस्था पूंजीवादी समाज में परिणत हो चुकी थी। इन परिणामों के फलस्वरूप बहुत से प्रारंभिक समाजशास्त्रियों ने इसे सामाजिक विघटन के रूप से देखा। उदाहरण के तौर पर मार्क्स ने इस पूंजीवादी व्यवस्था को समाज के लोगों (श्रमिक वर्ग) में अलगाववाद की बात कही जो समाज के क्रम को अव्यवस्थित करती है। इन समाजशास्त्रियों के पास मुख्यतः चार मुद्दे थेः
(i) श्रमिक की परिस्थितिः समाजशास्त्री इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि श्रमिकों की गरीबी प्राकृतिक न होकर सामाजिक है। अतः 19वीं सदी में श्रमिक वर्ग के moral एवं analytical एक विषय के रूप में निकलकर सामने आया।
(ii) संपत्ति का रूपांतरणः औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप भूमि व्यवस्था का रूपांतरण पूंजी एवं फैक्टरी व्यवस्था ने ले लिया, जिसके कारण समाज की आधारभूत प्रकृति में परिवर्तन आया। समाजशास्त्रियों के लिए सम्पत्ति का प्रश्न एवं सामाजिक संस्तरण पर इसका प्रभाव का विषय बन गया जिसमें मार्क्स,, वेबर, टोकविले एवं टैने प्रमुख है।
(iii) औद्यौगीकृत शहर या नगरीयताः नगरीकरण औद्योगिक क्रांति के लिए एक आवश्यक तथ्य है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप जनसंख्या बढ़ने लगी एवं नये आधुनिक शहर एवं नगरों का निर्माण होने लगा। प्रारंभिक समाजशास्त्री के लिए ये सभी पहलू एक विषय के रूप में उभर कर आया।
(iv) प्रौद्योगिकी एवं फैक्टरी व्यवस्थाः 19वीं सदी में प्रौद्योगिकी एवं फैक्टरी व्यवस्था पर विषय के रूप में अत्यधिक रचनाएं हुई। परंपरावादी एवं रेडिकल चिन्तकों द्वारा यह कहा गया कि ये दोनों व्यवस्था मानव जीवन के पहलुओं को समय-समय पर प्रभावित करती है।
ये सभी ऐसी प्रक्रियाएं एवं विषय थे जिन्होंने समाज के अध्ययन के लिए एक नये विषय के रूप में प्रतिस्थापित करने में अभूतपूर्व योगदान किया है।