Question : पूर्व-आधुनिक समाजों में धार्मिक विश्वासों एवं रीतियों के उद्गम
(2005)
Answer : अनेक मानवशास्त्रियों ने पूर्व आधुनिक समाजों में धार्मिक विश्वासों एवं रीतियों के उद्गम को ज्ञात करने के लिए आदिम समाजों का अध्ययन किया। आदिम समाज छोटे एवं सरल प्रकृति के होते हैं। अतः वे संस्कृति के प्रारम्भिक रूप एवं उद्गम को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। अनेक मानवशास्त्रियों ने सोचा कि आदिम समाजों से ही आधुनिक जटिल समाजों की उत्पत्ति हुई है। अतः आदिम समाजों में ही धर्म की उत्पत्ति का पता लगाने का प्रयत्न किया गया। आदिम जातियों में धर्म की खोज के दौरान कई प्रकार के विश्वास एवं कर्मकाण्डों का ज्ञान हुआ जिन्होंने विभिन्न सिद्धान्तों को जन्म दिया। टायलर ने धर्म का प्रारम्भिक रूप आत्मा में विश्वास को माना है। जिसने आत्मावाद को जन्म दिया। मैरट जीवसत्तावाद या मानावाद में, मैक्समूलर प्राकृतिक शक्तियों के विश्वास में, फ्रेजर जादू-टोनों की असफलता में एवं दुर्खीम स्वयं समाज में तथा प्रकार्यवादी धर्म के प्रकार्यो में ही धर्म की उत्पत्ति ढूंढ़ते हैं।
टायलर ने कहा कि ऊपरी तौर पर तो हमें धर्मों की बहुलता एवं उनमें अन्तर देखने को मिलते हैं पर मूल रूप में वे सभी एक ही विचार पर निर्भर हैं और वह है ‘आत्मा’ या ‘जीव’ में विश्वास। आत्मा को टायलर ने आदिम मनुष्यों से लेकर सभ्य मनुष्यों तक के धर्म का आधार माना। इसलिए उनके सिद्धान्त को आत्मावाद या जीववाद के नाम से पुकारा जाता है। कुछ मानवशास्त्रियों ने आत्मावाद से पूर्व जीवित सत्तावाद का अस्तित्व स्वीकार किया है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु में चाहे वह जड़ हो या चेतन जीवित सत्ता होती है जो कि अलौकिक है। इस सत्ता में विश्वास और उसकी आराधना एवं पूजा से ही धर्म की उत्पत्ति हुई। इस मत को प्रारम्भ में मैक्समूलर एवं प्रीडस ने प्रस्तुत किया। क्रॉकरिंगटन एवं मैरेट ने इसे एक विशेष प्रकार से प्रस्तुत किया जो मानावाद के नाम से जाना जाता है। भारतीय जनजातियों में मजूमदार ने ‘बोंगावाद’ की बात कही है।
मैक्समूलर का प्रकृतिवाद, जीवित सत्तावाद का ही एक रूप है। उन्होंने धर्म की उत्पत्ति को प्राकृतिक शक्तियों एवं घटनाओं की पूजा में ढूंढ़ा। दुर्खीम ने धर्म की उत्पत्ति को समाज से जोड़ा। उन्होंने समाज को ही देवता माना और कहा कि धर्म सामूहिक चेतना का प्रतीक है। दुर्खीम ने लिखा है कि ‘स्वर्ग का साम्राज्य एक महिमामण्डित समाज है।’ दुर्खीम अन्त में धर्म को पारिभाषित करते हुए लिखा है, ‘धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की सम्पूर्ण व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है।’
Question : सामाजिक संचलनों की विचारधारा और रणनीति
(2004)
Answer : किसी भी सामाजिक आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करने में नेतृत्व एवं विचारधारा की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विचारधारा लोगों के समूहों द्वारा माने जाने वाली विश्वासों की एक व्यवस्था है। यह स्थिति को समझने में मदद करती है। इसके अतिरिक्त यह लोगों द्वारा अपनाई गयी क्रियाओं को वैधता प्रदान करती है। इस प्रकार जैसे किसी आंदोलन के मार्गदर्शन हेतु नेतृत्व के साथ रणनीति एक आवश्यक तत्व होता है उसी प्रकार विचारधारा भी आवश्यक होती है, क्योंकि यह लोगों को उनकी क्रियाओं का अर्थ स्पष्ट करती है और क्रियाओं का औचित्य सिद्ध करती है। किसी भी सामाजिक आंदोलन की बिना विचारधारा के शायद ही कल्पना की जा सकती है। एक आंदोलन को दूसरे आंदोलन से भिन्न करने के अतिरिक्त, विचारधारा आंदोलन को लंबे समय तक बनाये रखने में मदद करती है। सामाजिक आंदोलन को यह साधारण दृष्टांतों से भिन्न करती है। जब भी लोग वंचित महसूस करते हैं उन्हें सक्रिय किया जा सकता है। तथापि, आंदोलन को निरंतरता बनाये रखने के लिए उन्हें कुछ औचित्य की आवश्यकता होती है। जब राजवंशियों ने अनुभव किया कि उन्हें निम्न माना जा रहा है तो क्षत्रिय आंदोलन प्रारंभ हुआ।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि विचारधारा सामाजिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह आंदोलन की अभिव्यक्ति करती है, इसे बनाये रखती है तथा इसका समाधान प्रस्तुत करती है। रणनीति एवं विचारधारा दोनों अनिवार्य है क्योंकि एक निश्चित रणनीति के तहत ही नेतृत्व वैचारिक ढांचे के अंतर्गत कार्य करते हैं।
Question : भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका को दृष्टांतिक मॉडलों के तौर पर लेते हुए बहुलवादी समाज में धर्म के प्रकार्यात्मक और साथ ही साथ अप्रकार्यात्मक पक्षों का परीक्षण कीजिए।
(2004)
Answer : निश्चित रूप से भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों ही बहुलवादी समाज हैं जिसमें विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग निवास करते हैं। धर्म संस्कृति का एक अंग है। यह मानव जीवन से संबंधित विभिन्न कार्यों की पूर्ति करता है। यही कारण है कि हमें आदिकाल से लेकर आधुनिक समाज तक सभी समाजों में धर्म देखने को मिलता है। वास्तव में धर्म का वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार का महत्व होता है। परंतु प्रायोगिक तौर पर धर्म में प्रकार्यात्मक और अप्रकार्यात्मक दोनों प्रकार की विशेषता देखने को मिलती है। यह निम्नांकित विवेचन से स्पष्ट होता हैः
संक्षेप में थॉमस ओडिया ने कहा है कि धर्म व्यक्ति का समूह में एकीकरण करता है, अनिश्चितता की स्थिति में उसकी सहायता करता है, निराशा के क्षणों में उसको ढाढ़स बंधाता है, सामाजिक लक्ष्यों के प्रति व्यक्ति को जागरूक बनाता है, आत्मबल में वृद्धि करता है और एक-दूसरे के समीप अपने को प्रोत्साहन देता है।
धर्म एक संस्था होने के कारण इसका विशेष लक्षण स्थायित्व है। धर्म में परिवर्तन तो अवश्य होते हैं, लेकिन इतनी मंद गति से कि वह बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक तथा भौतिक परिस्थितियों के साथ अनुकूलन तथा अनुरूपता स्थापित नहीं रख पाता। स्थायित्व के कारण प्रत्येक संस्था में निहित कुछ स्वार्थ विकसित तथा स्थापित हो जाते हैं। इसे हम अप्रकार्य की दृष्टि से देखते हैं जो निम्नांकित हैं-
उपर्युक्त विवेचना से पता चलता है कि धर्म संबंधित प्रकार्यात्मक और अप्रकार्यात्मक प्रकृति मूलरूप से धार्मिक बहुलवाद को स्पष्ट करता है। साथ ही यह भारत एवं संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे बहुलवादी समाज के विभिन्न आयामों का भी वर्णन प्रस्तुत करता है। दोनों ही देश धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित है परंतु सभी धर्म के लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, भेदभाव नहीं किया जाता है। साथ ही धर्म एकीकरण का भी कार्य करता है।
Question : मानव समाज में संस्कृति के अर्थ एवं सार्थकता पर चर्चा कीजिए व्यक्तित्व के विकास में संस्कृति की भूमिका का समालोचनात्मक रूप से उजागर कीजिए।
(2003)
Answer : संस्कृति शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। संस्कृति का अर्थ होता है विभिन्न संस्कारों के द्वारा सामूहिक जीवन के उद्देश्योंकी प्राप्ति। यह परिमार्जन की एक प्रक्रिया है। संस्कारों को सम्पन्न करके ही एक मानव सामाजिक प्राणी बनता है। समाजशास्त्रीय अर्थ में संस्कृति को समाज की धरोहर या विरासत के रूप में परिभाषित किया गया है। समाज द्वारा निर्मित भौतिक एवं अभौतिक दोनो पक्षों की संस्कृति में सम्मिलित करते हुए रॉबर्ट बीरस्टीड लिखते हैं, ‘संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएं सम्मिलित है। जिन पर हम विचार करते है, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।’
वे पुनः लिखते हैं, ‘इसके अंतर्गत हम जीवन जीने, कार्य करने एवं विचार करने के उन सभी तरीकों को सम्मिलित करतेहैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते हैं और समाज के स्वीकृत अंग बना चुके हैं।’ मजूमदारएवं मदान लोगों के जीने के ढंग को ही संस्कृति मानते हैं। टायलर ने पारिभाषित करते हुए लिखा है। ‘संस्कृति वह समग्र जटिलता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून तथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं एवं आदतों का समावेश है जो मनुष्य समाज का एक सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।’ टायलर की इस परिभाषा में यह स्पष्ट किया गया है कि संस्कृति सामाजिक विरासत है, समाज द्वारा मानव को दिया हुआ उपहार है। टायलर की व्याख्या करते हुए मैलिनोवस्की कहते हैं कि सामाजिक विरासत को हम भौतिक और अभौतिक या मूर्त और अमूर्त भागों में बांट सकते है।
टॉलकाट पारसंस ने अपनी पुस्तक ‘The Social System’ में संस्कृति को एक ऐसे पर्यावरण के रूप में परिभाषित किया है जो मानव क्रियाओं के निर्माण में मौलिक है, इसका तात्पर्य है कि संस्कृति मानव के व्यक्त्वि एवं क्रियाओं का निर्धारण करती है।
निश्चित रूप से संस्कृति समाज के लिए एक दीप की तरह काम करता है जो समाज के लोगों को एक निश्चित व्यवहार करने के लिए दिशा प्रदान करती है। दूसरी तरफ समाज के बिना संस्कृति अर्थहीन है, उसके निर्माण के लिए समाज ही उत्तरदायी है। संस्कृति की सार्थकता का आकलन हम निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत कर सकते हैः
इस प्रकार देखते हैं कि संस्कृति सामाजिक जीवन के पद-पद पर मार्गदर्शन करती है।
व्यक्तित्व की विकास में संस्कृति की भूमिका
व्यक्तित्व से संबंधित कुछ प्रमुख गुणों के विकास में संस्कृति के प्रभाव को निम्नांकित रूप से देखा जा सकता है। संस्कृति का यही प्रभाव व्यक्तित्व तथा संस्कृति के धनिष्ठ संबंध को स्पष्ट करता है।
Question : धर्म और विज्ञान।
(2001)
Answer : धर्म एक सामाजिक संस्था है जिसका समस्त तानाबाना अधिदैविक या उत्प्राकृतिक शक्ति अथवा शक्तियों तथा उनका मानव प्राणी के साथ संबंध के विचार के आधार पर बुना हुआ है। उन्नीसवीं सदी के मानवशास्त्रियों विशेषतः टायलर द्वारा दी गई धर्म की व्याख्या तात्विक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। टायलर के अनुसार, धर्म देवी-देवताओं तथा अन्य अधि मानवीय प्राणियों जैसे पूर्वज अथवा आत्माओं के प्रति विश्वास तथा इनसे संबंधित कर्मकाण्ड है। धर्म की इस व्याख्या में अवैयक्तिक प्रकार की अधि प्राकृतिक शक्तियों एवं सत्ताओं को सम्मिलित नहीं किया गया है। सामाजिक संबंधों की अन्य व्याख्यों की भांति समाजशास्त्र में धर्म की व्याख्या भी उसके प्रकार्याओं के आधार पर की गई है जो यह (धर्म) सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने में सम्पन्न करता है। दुर्खीम ने टायलर की धर्म की व्याख्या को अस्वीकारते हुए इसे प्रकार्यात्मक ढंग से परिभाषित किया है। दुर्खीम के अनुसार धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वास तथा कर्मकाण्डों की एक संगठित व्यवस्था है जो उन व्यक्ति को एक एकल सामाजिक-नैतिक समुदाय में बांधता है, जो इसका अनुसरण करते हैं।
मानवीय ज्ञान संबंधी समस्याओं का एक दृष्टिकोण विज्ञान के नाम से जाना जाता है जिसके द्वारा आनुभाविक प्रेक्षण के आधार पर असीमित वर्ग की घटनाओं के संबंध में सामान्य सिद्धांत खोजने का प्रयास किया जाता है। विज्ञान से तात्पर्य ऐसे व्यवस्थित एवं वस्तुनिष्ठ ज्ञान से है जिसका सत्यापन किया जाना संभव है। विज्ञान को जब एक पद्धति के रूप में परिभाषित किया जाता है तब विज्ञान का अर्थ ज्ञान प्राप्ति की व्यवस्थित पद्धति से होता है।
धर्म एवं विज्ञान दोनों ही प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित है परंतु धर्म का संबंध व्यक्तिगत क्रियाओं परंतु विज्ञान का वस्तुनिष्ठ क्रियाओं से संबंधित होता है। सामान्यतः लौकिक ज्ञान प्रत्येक समाज के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि कोई भी प्रगति स्वीकार कर ली जाती है बशर्ते कि उसे स्वीकार करने में कोई विशेष प्रेरणाएं बाधा न पहुंचा रही हो। विज्ञान को गोचर उपलब्धियों से जो भी परिचित होता है वह प्रभावित हो जाता है। यथार्थ-आघृत होने के कारण विज्ञान धर्म को स्वीकार कर विज्ञान नहीं रह सकता, किंतु धर्म विज्ञान को स्थान देकर भी धर्म बना रह सकता है।
Question : धर्म के प्रकार्यात्मक और अप्रकार्यात्मक पक्षों की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
(2000)
Answer : धर्म संस्कृति का एक अंग है। यह मानव जीवन से संबंधित विभिन्न कार्यों की पूर्ति करता है। यही कारण है कि हमें आदिकाल से लेकर आधुनिक समाज तक सभी समाजों में धर्म देखने को मिलते हैं। धर्म के माध्यम से ही मानव अपने जीवन के लिए कुछ संतोष बटोरने का प्रयत्न करता है। धर्महमें अपनी उन समस्याओं का भी समाधान बता देता है जिन्हें कि विज्ञान भी नहीं सुलझा पाया है। इस प्रकार वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से धार्मिक संस्थाओं का अत्यधिक महत्व है। निम्नांकित विवेचन से यह स्पष्ट होता हैः
संक्षेप में, थॉमस ओडिया ने कहा है कि ‘धर्म व्यक्ति का समूह में एकीकरण करता है, अनिश्चितता की स्थिति में उसकी सहायता करता है, निराशा के क्षणों में उसको ढाढ़स बंधाता है, सामाजिक लक्ष्यों के प्रति व्यक्ति को जागरूक बनाता है, आत्मबल में वृद्धि करता है और एक-दूसरे के समीप अपने को प्रोत्साहन देता है।’
धर्म एक संस्था होने के कारण इसका विशेष लक्षण स्थायित्व है। धर्म में परिवर्तन तो अवश्य होते हैं, लेकिन इतनी मंद गति से कि वह बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक तथा भौतिक परिस्थितियों के साथ अनुकूलन तथा अनुरूपता स्थापित नहीं रख पाता। स्थायित्व के कारण प्रत्येक संस्था में निहित कुछ स्वार्थ विकसित तथा स्थापित हो जाते हैं। इसे हम अप्रकार्य की दृष्टि से देखते हैं, जो निम्नांकित हैः
उपर्युक्त विवेचन से पता चलता है कि शायद विज्ञान की प्रगति व समय के झंझावतों से धर्म रूपी महान अट्टालिका एक दिन धराशायी हो जायेगी और धर्म का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, परंतु हमें इससे भी इन्कार नहीं करना चाहिए कि मानव केवल यंत्र चालित मशीन है जो केवल तर्कों के आधार पर ही संचालित होता है, परंतु इसके विपरीत मानव भय, प्रेम, घृणा, उत्साह, दुःख आदि कोमल भावनाओं का एक पुलिन्दा भी है। अतः धर्म का हम दैनिक जीवन में प्रयोग से इन्कार नहीं कर सकते हैं।
Question : धर्म की सामाजिक आवश्यकता को सविस्तार प्रतिपादित कीजिए। धर्म और विज्ञान के बीच संबंध पर चर्चा कीजिए।
(1999)
Answer : धर्म की सामाजिक आवश्यकता के इस तथ्य से पता चलता है कि धर्म स्वयं धार्मिक समूह के लिए तथा समाज के लिए, प्रतिमान अनुरक्षण, तनाव-तिरोहन तथा एकीकरण में योगदान करता है।
समाज का एकीकरण कई तथ्यों पर निर्भर करता है- समान या समान से मूल्य आदेशात्मक और निषेधात्मक सामान्यकों का व्यापक स्वीकरण_ इन संस्थापितों सामान्यकों की पारस्परिक सहयोजित सरकार में बल प्रयोग के साधनों का एकछत्र अधिकार हो, अथवा यह समाज के मान्य अधिकारियों के पास शक्ति का भावी केंद्रीकरण हो। धर्म कभी भी एक मात्र एकीकारी शक्ति नहीं होता, किंतु यह एकीकरण में योगदान देता है। सामान्य मूल्यों और सामान्यकों को परिपक्व बनने, प्रतिकायित करने और उन्हें पुष्ट करते रहने के क्षेत्र में यह प्रायः महत्वपूर्ण कार्य करता रहता है। उदारणार्थ, जुडाइज्म और ईसाई धर्म के ‘टेन कमान्डमेंट्स’ धार्मिक कर्त्तव्य है जिनमें से कुछ नैतिक मूल्य होते हैं। यह धर्म न सिर्फ पूजा करना ही बताता है बल्कि यह भी कहता है कि चोरी नहीं करनी चाहिए। यह एक सामाजिक प्रतिमान को परिभाषित करता है अथवा संसार के बहुधा धर्म संस्थात्मक प्रतिमानों को अधिक स्पष्ट रूप से अनुमोदित करता है। ग्रामीण जापान में प्रचलित धर्म के विषय में निम्नलिखित वक्तव्य के एकीकारी प्रकार्यों कोे भली-भांति स्पष्ट करता है।
धार्मिक क्रियाओं और विश्वास के संकुल से ही यह मूलतः निर्मित होता है जिन्हें दो बड़े भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः (i) कृषि तथा अन्य देवताओं से संबंधित निश्चित अवसरों पर मनाये जाने वाले त्यौहार जिनमें सारा-पड़ोस भाग लेता है_ (ii) पूर्वज-पूजा, जो रक्त-संबंध पर आधारित होती है। धार्मिक जीवन के ये दो पक्ष निम्नलिखित प्रकार्य सम्पादित करते है_ (i) समाज के लिए जिन चीजों का सामाजिक मूल्य होता है। उन्हें धार्मिक मान्यता प्रदान करना, जैसे चावल, रेशम, वायु, जल, मानव-जीवन (ii) समूहों के सामाजिक संबंधों को मजबूत करना, विशेष रूप से स्थानिक समूह तथा संबंधी समूह के (i) व्यक्ति को समूह पर उसकी निर्भरता का उसके प्रति कर्त्तव्यों पर बल देकर आभास करवाना, तथा समूह के सदस्य के रूप में सुरक्षा की भावना प्रदान करना और इस प्रकार समूह के सदस्य के रूप में उसके अधिकारों पर बल देना है।
कुछ अंशों तक धर्म के अधार्मिक प्रकार्यात्मक समतुल्य भी होते हैं जो समाज को एकीकृत करने में योग देते हैं। राष्ट्रीयता की भावना और अन्य विचारधाराएं एकीकारी होती है या हो सकती है। वस्तुतः कुछ लेखक राष्ट्रवाद को ही धर्म मानते हैं, जिनके कि अपने ‘अर्द्ध-देवता’, ‘मिथक’ तथा ‘संस्कार’ होते हैं। कुछ राष्ट्रवादी धर्म होते हैं, जैसे- जापान का शिन्टो, किंतु सभी राष्ट्रवाद शास्त्रीय अर्थ में धार्मिक नहीं होते। राष्ट्रीय ध्वज केवल आलंकारिक अर्थ में ही ‘पावन’ होता है, वह किसी अति-प्राकृतिक शक्ति का प्रतीक नहीं होता है।
धर्म एक सामाजिक संगठन के रूप में सामाजिक नियंत्रण का कार्य करती है। धर्म अपने समूह के सदस्यों के लिए न केवल नैतिक अपेक्षाओं को परिभाषित करता है वरन् वह उन्हें आरोपित भी करता है। जहां तक धार्मिक समूह के भीतर समर्थित नैतिक सामान्यक साथ ही साथ समाज सामान्यक भी होते हैं। धार्मिक समूह के भीतर का सामाजिक नियंत्रण पूरे समाज के लिए भी प्रकार्यात्मक महत्व का होता है। इमाइल दुर्खीम ने धर्म को सामाजिक नियंत्रण का एक सशक्त माध्यम माना है। दुर्खीम के अनुसार, टोटमवाद की प्रवत्ति आरंभिक समाज में व्यक्तियों के बीच सामाजिक एकता स्थापित करती है एवं साथ ही दमनकारी कानून के द्वारा सामाजिक नियंत्रण करती है।
धर्म समाज के लिए इसलिए भी आवश्यक है कि यह आर्थिक क्रिया को भी प्रभावित करता है। मैक्स वेबर ने धार्मिक सिद्धांत को आर्थिक व्यवहार का एक प्रमुख कारण माना हैं। वेबर ने अपने प्रसिद्ध अध्ययन ‘द प्रोटेस्टेंट एथिक एंड स्प्रिट ऑफ कैपिटिल्लिम’ के अंतर्गत यह माना है कि प्रोटेस्टेंट धर्म के फलस्वरूप यूरोप में पूंजीवाद का उदय हुआ है जो तार्किकता पर आधारित है।
इसके अतिरिक्त धर्म समाज में व्यक्तियों के लिए समाजीकरण का भी कार्य करता है। धर्म के माध्यम से व्यक्तियों को नैतिक मूल्यों का अध्ययन जाता है जो समाज में एकीकरण का कार्य करता है। यह संसार के हर एक धर्म एकीकरण की प्रक्रिया पर बल देता है न कि विखंडन पर।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि धर्म समाज के प्रत्येक पहलुओं एवं आयामों को प्रभावित एवं निर्धारित करता है जो समाज में आवश्यक है।
धर्म एवं विज्ञान के बीच संबंध
धर्म एवं विज्ञान दोनों ही प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित है परंतु धर्म में प्राकृतिक घटनाओं के साथ सीधा संबंध होता है जबकि विज्ञान प्राकृतिक घटनाओं का वैज्ञानिकता के आधार पर अध्ययन करता है एवं सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। दूसरी ओर, धर्म एक सामाजिक तथ्य होने के साथ-साथ व्यक्तिगत क्रिया भी है परंतु विज्ञान का वस्तुनिष्ठ क्रियाओं से संबंध रखता है। सामान्यतः लौकिक ज्ञान प्रत्येक समाज के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि कोई भी प्रगति स्वीकार कर ली जाती है बशर्ते कि उसे स्वीकार करने में कोई विशेष प्रेरणाएं बाधा न पहुंचा रही हो। विज्ञान की गोचर उपलब्धियों से जो भी परिचित होता है वह प्रभावित हो जाता है। यथार्थ-आघृत होने के कारण विज्ञान धर्म को स्वीकार कर विज्ञान नहीं रह सकता किंतु धर्म विज्ञान को स्थान देकर भी धर्म बना रह सकता है।Question : धार्मिक बहुलवाद।
(1998)
Answer : धार्मिक बहुलवाद एक विचारधारा है, जिसमें अनेक धर्मों के लोग साथ-साथ सहिष्णुता के साथ रहते हैं एवं सहयोग की भावना होती है। इसमें हर एक व्यक्ति को अपनी इच्छा के मुताबिम धर्म को मानने की स्वतंत्रता होती है। अतः धर्म निरपेक्षता की अवधारणा से काफी मिलता-जुलता प्रतीत होता है। भारतीय समाज इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। भारत में हमेशा ही विविध प्रकार के धार्मिक विश्वासों को माना जाता रहा है। वास्तव में भारतीय समाज जैसा अनेक धर्मों वाला शायद ही कोई अन्य समाज मौजूद है। भारत में विविध प्रकार के धार्मिक विश्वासों का प्रचलन साथ-साथ रहा है और इनमें से कुछ तो एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। भारत आपसी सहिष्णुता के साथ धर्मों की अनेकता का शानदार उदाहरण प्रस्तुत करता है।
नेहरू जी की प्रेरणा से और उनके मार्ग-निर्देशन में राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को एक ‘धर्म निरपेक्ष’ राज्य घोषित करने का निर्णय लिया अर्थात् एक ऐसा राज्य, जिसमें सभी धर्मों और नागरिकों के साथ उनके धार्मिक विश्वास चाहे तो हों, निष्पक्ष भाव से तथा एक जैसा व्यवहार किया जाए। भारत ने धर्मनिरपेक्षता का मार्ग अपनाने और अनेक धर्मों वाला ऐसा समाज बने रहने का निर्णय किया, जिसमें सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता, एकल नागरिकता और कानून की दृष्टि में समानता प्रदान करने की गारंटी दी गई। धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का निर्णय लिया जाना एक अन्य दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज अपने पूरे इतिहास में धर्म के प्रति दृढ़ विश्वास रखता रहा है और उसके लिए प्रतिबद्ध रहा है। वास्तव में, यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारतीय संस्कृति और समाज का निर्माण करने में धर्म का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। फिर भी भारतीय में धार्मिक बहुलवाद के अंतर्गत एक-दूसरे धर्म के प्रति आदर का भाव बना रहा।