Question : समाज में एक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र।
(2007)
Answer : इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि विज्ञान क्या है? वस्तुतः विज्ञान एक दृष्टिकोण है। किसी समस्या, परिस्थिति या तथ्य को सुव्यवस्थित ढंग से समझने के प्रयास को हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण कह सकते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि विज्ञान अपने आप में एक विषय-वस्तु नहीं है, बल्कि विश्लेषण की एक विधि का नाम है। समाजशास्त्र कितना वैज्ञानिक विषय है, इसे हम जॉनसन द्वारा दिये गये चार बिन्दुओं के आधार पर देख सकते हैं:
यहां यह स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र में वैज्ञानिकता है। समाजशास्त्र की प्रकृति एक विशुद्ध विज्ञान की है, न कि व्यावहारिक विज्ञान की। समाजशास्त्र का उद्देश्य सही ज्ञान हासिल करना है। उस ज्ञान से कितना समाज का कल्याण हो सकता है, यह निर्णय करना समाजशास्त्री का काम नहीं है।
समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है। सामाजिक सम्बन्ध स्वयं में अमूर्त हैं, अतः उसके अध्ययन की विधि भी अमूर्त सिद्धान्त पर आधृत रहती है। दूसरे शब्दों में, प्रतिदिन घटने वाली घटनाओं की जड़ में जो प्रक्रिया कार्य करती है, उसी पर समाजशास्त्र अपना ध्यान केन्द्रित करता है। जिस प्रकार कोई इतिहास घटनाओं के मूर्त स्वरूप का अध्ययन करता है, उस रूप में समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों का विश्लेषण नहीं करता है।
समाजशास्त्र एक बुद्धिसंगत एवं अनुभवाश्रित विज्ञान है। इसका अर्थ यह हुआ कि समाजशास्त्रीय अन्वेषण और विवेचन ठोस तथ्यों पर आधारित होते हैं। समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है, विशिष्ट सामाजिक विज्ञान नहीं। समाजशास्त्र सामाजिक जीवन के सामान्य पक्षों का अध्ययन करता है।
समाजशास्त्र सिद्धान्तों पर आधृत विज्ञान है। हमारे सामाजिक जीवन के तमाम पहलुओं को यह एक सैद्धान्तिक आधार प्रदान करता है। हमारे सामाजिक जीवन के पीछे कौन-सी प्रक्रिया कार्य करती है, कौन से नियम या मूल्य कार्य करते हैं, इन सबका एक सैद्धान्तिक विवेचन समाजशास्त्र करता है। इतना ही नहीं, समाजशास्त्र के अन्तर्गत पुराने सिद्धान्तों को नवीन तथ्यों एवं परिवर्तित परिवेश में जांच कर उनमें हेर-फेर भी किया जा सकता है।
समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति के सम्बन्ध में विवाद अब नहीं के बराबर है। आरंभ से लेकर आज तक तमाम समाजशास्त्रियों ने इसे विज्ञान सिद्ध करने की पूरी कोशिश की। इसमें कोई संदेहनहीं है कि समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है। समाजशास्त्रीय अध्ययनों में जिन पद्धतियों का प्रयोग होता है, उससे यही जाहिर होता है कि समाजशास्त्र की प्रकृति ही नहीं बल्कि दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक है।
Question : सामाजिक तथ्य
(2007)
Answer : यह एक अत्यंत जटिल विचार है, जिसमें बाह्यता, बाध्यता और अपरिहार्यता के गुण विद्यमान होते हैं। दुर्खाइम के शब्दों में, एक सामाजिक तथ्य व्यवहार (सोचने-समझने, अनुभव करने या क्रिया सम्पादित करने) का एक भाग है, जो प्रेक्षक की दृष्टि में वस्तुपरक है तथा जिसकी प्रकृति बाध्यता मूलक होती है। सामाजिक संबंध तथा इन्हें नियंत्रित करने वाली प्रथाओं, परम्पराओं, कानून, धार्मिक, विश्वास, व्यावसायिक मान्यताओं की व्याख्या दुर्खाइम ने सामाजिक तथ्य के रूप में की है। दुर्खाइम के अनुसार इन सभी घटनाओं की उत्पत्ति मानव के मस्तिष्क में स्वतन्त्र रूप में हुई है। इनका मानव पर भयात्मक एवं बाध्यता मूलक प्रभाव पड़ता है। सामाजिक तथ्य वस्तुओं की भांति प्रेक्षक से बाह्य होते हैं।
दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य की निम्नलिखित विशेषताएं बताई हैं। दुर्खीम द्वारा इन विशेषताओं के बताने का उद्देश्य सामाजिक तथ्य को मनोवैज्ञानिक तथ्य से पृथक् करना है। इन्हीं विशेषताओं के आधार पर सामाजिक तथ्यों को मनोवैज्ञानिक बाह्यता, कहते हैं, इसे बाहरीपन के नाम से भी जाना जाता है।
दुर्खीम का विचार है कि सामाजिक तथ्य न तो मानव मस्तिष्क से उत्पन्न होते हैं और न ही मानव मस्तिष्क द्वारा प्रभावित होते हैं। दुर्खीम इस तर्क यह है कि यदि सामाजिक तथ्य मानव मस्तिष्क से प्रभावित हो जायें, तो वे सामाजिक तथ्य व्यक्ति की सत्ता से सर्वथा बाहर है एवं पृथक् अस्तित्व लिए हुए हैं। सामाजिक तथ्य की पहली विशेषता यह है कि उन्हें मानव मस्तिष्क से होना चाहिए।
समाजशास्त्र के अंतर्गत जब हम सामाजिक तथ्य की बात करते हैं, और अपने मन की धारणाओं से जब उससे दूर रखते हैं, तो इसे ही बाह्यता के नाम से जाना जाता है। सामाजिक तथ्य की दूसरी विशेषता यह है कि यह व्यक्ति से भिन्न नहीं है, बल्कि उस पर एकता का प्रभाव डालकर व्यक्ति को निश्चित दिशा में चलने के लिए बाध्य करता है। यही कारण है कि व्यक्ति को अपनी इच्छा के प्रतिकूल बाध्य होकर भी सामूहिक प्रतिमानों का पालन करना पड़ता है। ये सामूहिक प्रतिमान निम्न चार प्रकार के होते हैं:
इन प्रतिमानों की सहायता से व्यक्ति के व्यवहारों एवं कार्यों को नियंत्रित किया जाता है, साथ ही व्यक्ति को एक निश्चित दिशा में कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है। अनेक अवस्थाओं में ये प्रतिमान व्यक्ति को अपने निर्णयों को बदल देने के लिए भी विवश कर देते हैं। बाध्यता का यह गुण मनोवैज्ञानिक तथ्यों में नहीं पाया जाता है। इसी आधार पर मनोवैज्ञानिक घटना सामाजिक घटना से स्पष्टतः पृथक प्रतीत होती है।
हम जिस परिस्थिति में रहते हैं, उससे बंधे रहते हैं। वह परिस्थिति हमारे व्यवहारों को निर्धारित करती है। यह निर्धारण ही वह बन्धन है, जिसमें व्यक्ति बंधा रहता है। संसार में इन्हीं बन्धनों को कानून के नाम से जाना जाता है, जिनका उल्लंघन करना हमारे लिए असम्भव होता है।
दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य की जो दो विशेषताएं बताईं, वे एक-दूसरे से अन्तः सम्बन्धित हैं तथा एक-दूसरे की पूरक भी हैं, क्योंकि सामाजिक तथ्य बाहरी शक्ति हैं और व्यक्ति से श्रेष्ठ भी हैं। इसीलिए व्यक्ति विवश होकर इनके सामने झुक जाता है। संक्षेप में, व्यक्ति की बाहरी परिस्थितियों और उसके समाज के परम्परागत प्रतिमान दोनों ही मिलकर सामाजिक तथ्यों का निर्माण करते हैं।
Question : धार्मिक जीवन के प्रारंभिक स्वरूप एवं समाज में धर्म की भूमिका के बारे में के विश्लेषण का विवरण दीजिए। आधुनिक औद्योगिक समाजों में वे धर्म के अस्तित्व को कैसे समझाते हैं?
(2007)
Answer : इमाइल दुर्खीम का विचार है कि समाज में पायी जाने वाली प्रत्येक संस्था सामूहिक जीवन द्वारा स्वीकार किये गये व्यवहारों और प्रतिमानों का प्रतीक है। धर्म एक सामाजिक तथ्य है और इसमें जो धार्मिक विचार और क्रियाएं पाई जाती हैं, वे समूह की मान्यताओं को अभिव्यक्ति करती हैं। धर्म नैतिक रूप से मानव समाज की सामूहिक चेतना का प्रतीक है।
दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में धर्म के स्वरूप और प्रकृति पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में उसने धर्म की प्रचलित अवधारणाओं की आलोचना की है। उसने स्वीकार किया है कि अलौकिक शक्ति में विश्वास को ही धर्म कहा जाता है। सामान्यतया इस अलौकिक शक्ति को ईश्वर के नाम से जाना जाता है। सामान्यतया इस अलौकिक शक्ति को ईश्वर के नाम से जाना जाता है। उसने धर्म को सामाजिक घटना माना है। इस सामाजिक घटना का निर्माण व्यक्ति के विश्वासों, क्रियाओं और व्यवहारों के योग से होता है। धर्म के आधार पर समूह के सभी सदस्य कुछ नैतिक आदर्शों द्वारा परस्पर संगठित रहते हैं। दुर्खीम का धर्म व्यक्ति को यह शिक्षा देता है कि पवित्र वस्तुओं का ही आश्रय लिया जाय।
दुर्खीम का विचार है कि जब व्यक्ति सामूहिक जीवन व्यतीत करता है, तो वह स्वयं को उमंग और उल्लास से भरा हुआ अनुभव करता है। समूह की अन्तः क्रियाओं में व्यक्ति क्रियाशील सदस्य के रूप में भाग लेता है। सामाजिक कार्यों में वह इतना अधिक व्यस्त हो जाता है कि कभी-कभी निषिद्ध कार्यों को भी कर डालता है। इसका कारण यह है कि समूह की शक्ति के बारे में उसके मन में विश्वास पैदा हो जाता है और यही विश्वास धर्म की उत्पत्ति का कारण बनता है। दुर्खीम ने लिखा है कि- धर्म का स्रोत स्वयं समाज है।
धार्मिक विचार समाज की विशेषताओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पवित्र अथवा ईश्वर समाज का मानवीकरण है और धर्म का सामाजिक कार्य सामाजिक एकता की उत्पत्ति, वृद्धि और स्थिरता में है। दुर्खीम का विचार है कि समाज ही सब कुछ है। एकत्रित समूहों में ही धर्म की उत्पत्ति होती है। समाज मनुष्य के विचार का सार तत्व है। उसने लिखा है कि दैवीय शक्ति में समाज की प्रतिच्छाया और प्रतीकात्मक भावना से अधिक कुछ नहीं दिखता। दुर्खीम ने
धर्म के जो सामाजिक कार्य बताये हैं, उन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता हैः
अन्त में धर्म एक सामाजिक घटना है। पवित्र और अपवित्र सामाजिक आदर्श के प्रतिरूप है। धर्म की उत्पत्ति सामूहिक कार्यक्रमों और सम्मेलनों के परिणामस्वरूप होती है। जब व्यक्ति ऐसे सम्मेलनों में भाग लेते हैं तो वे दैनिक चिन्ताओं से मुक्त होकर और नवीनता की अनुभूति करते हैं और यही धर्म की उत्पत्ति का प्रमुख स्रोत है।
दुर्खीम ने धर्म और समाज के बीच संबंधों का उद्घाटन धर्म के समाजशास्त्र या धर्म के सामाजिक सिद्धान्त के अन्तर्गत किया है। इस संबंध में उसकी पुस्तक धार्मिक जीवन के प्रारंभिक रूप अत्यंत महत्वपूर्ण है। दुर्खीम ने अपने धर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन आस्ट्रेलिया की जनजाति की धार्मिक संस्था के अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित किया था। उसका विचार है कि समाज में पायी जाने वाली प्रत्येक संस्था सामूहिक जीवन द्वारा स्वीकार किये गये व्यवहारों और प्रतिमानों की प्रतीक है। धर्म एक सामाजिक तथ्य है और इसमें जो धार्मिक विचार और क्रियाएं पाई जाती हैं, वे समूह के मान्यताओं की अभिव्यक्ति हैं। धर्म नैतिक रूप से मानव समाज की सामूहिक चेतना का प्रतीक है।
अपने धार्मिक अध्ययन एवं विश्लेषण किया था। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि अरून्ता जनजाति में टोटम एक गोत्र का प्रतीक माना जाता है। यह टोटम जानवर, पशु या पेड़ पौधे हो सकते हैं। इस जाति में जितने गोत्र पाये जाते हैं, वे सभी अपनी उत्पत्ति टोटम से मानते हैं। चूंकि वे अपनी उत्पत्ति टोटम से मानते हैं, इसलिए इस टोटम के प्रति उनके मन में श्रद्धा का होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि टोटम के एक गोत्र के सदस्य टोटम को अपना पूर्वज मानते हैं। चूंकि यह गोत्र का प्रतीक है, अतः उसके प्रति सदस्यों का घनिष्ठ संबंध होना स्वाभाविक है। चूंकि टोटम का संबंध पूर्वजों से होता है, अतः उसे किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जाता है। जो व्यक्ति टोटम के इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसे सामाजिक तौर पर दंड दिया जाता है। टोटम का यही आधार टोटमवाद की संरचना को तैयार करता है।
दुर्खीम इस टोटमवाद का संबंध अलौकिक शक्ति में निहित मानता है एवं इसी अलौकिक शक्ति में विश्वास ही धर्म कहा जाता है। सामान्यतः इस अलौकिक शक्ति को ईश्वर के नाम से जाना जाता है। उसने धर्म को सामाजिक घटना माना है। दुर्खीम ने धर्म की परिभाषा इन शब्दों में दी है।
इन धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों एवं क्रियाओं की एक संकलित व्यवस्था है, वे हैं एक रखी जाने वाली एवं निषिद्ध वस्तुएं, विश्वास एवं क्रियाएं जो एक नैतिक समुदाय के अंदर संगठित है, एक चर्च कहलाती है, वे सभी जो उसमें भावना रखते हैं। दूसरा तत्व, जिसका इस प्रकार हमारी परिभाषा में स्थान है, प्रथम से कम आवश्यक नहीं है। यह दिखाने से धर्म का विचार धर्म से पृथकनीय नहीं है, यह इसे स्पष्ट कर देता है कि धर्म प्रमुख रूप से एक सामूहिक वस्तु होनी चाहिए।
Question : धर्म और विज्ञान।
(2006)
Answer : धर्म, मानव का संबंध आलौकिक शक्तियों के साथ जोड़ता है। धर्म न केवल मानव की आंतरिक जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को भी प्रभावित करता है। धर्म आदिम एवं आधुनिक दोनों समाजों में पाया जाता है। धर्म को पारिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि धर्म किसी न किसी अति मानवीय, अलौकिक या समाजोपरि शक्ति पर विश्वास है। जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति एवं पवित्रता की धारणा है।
इसके विपरीत विज्ञान का अर्थ एक विशेष विषय सामग्री से है। वास्तव में विज्ञान अपने आप में कोई विषय सामग्री न होकर, किसी विषय सामग्री की अध्ययन पद्धति है। जिसके द्वारा विषय सामग्री के बारे में व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
धर्म और विज्ञान में अंतरः
Question : विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र।
(2002)
Answer : समाजशास्त्र की परिभाषा समाज के विज्ञान के रूप में हमेशा से दी जाती रही है। जहां तक समाज और विज्ञान का सवाल है तो इसका तात्पर्य यह है कि समाज का अध्ययन व्यवस्थित वैज्ञानिक, विधियों के द्वारा किया जाये। आगस्त कॉम्ट एवं इमाईल दुर्खीम ने समाजशास्त्र की प्रकृति को विज्ञान के रूप में समझने की कोशिश की है। इन्होंने समाजशास्त्र का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से करने की बात की है, जो प्राकृतिक विज्ञानों की विधि द्वारा संभव है। कॉम्ट ने समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए पूर्णतया प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति को उपयोग में लाने पर बल दिया है। इनके अनुसार, सामाजिक व्यवस्थाओं एवं प्रक्रियाओं को समझने के लिए हमें अवलोकन, वर्गीकरण एवं प्रायोगिक माध्यमों का सहारा लेना होगा।
परंतु दूसरी ओर दुर्खीम ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को सामाजिक तथ्यों के रूप में देखा है जो मुख्यतः अवलोकन, वर्गीकरण एवं व्याख्या द्वारा संभव है। अतः यह वस्तुनिष्ठता पर बल देता है जिसे प्रत्यक्षवादी स्कूल ऑफ थॉट कहा जाता है, परंतु दूसरी और मेक्सवेबर, शुट्ज एवं गारफिंकल ने समाजशास्त्र की वस्तुनिष्ठता को अस्वीकार करते हुए व्यक्तिनिष्ठता को स्वीकारा है।
फिर भी, समाजशास्त्र, सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का वर्णन वैज्ञानिकता के आधार पर करते आ रहा है। इस दृष्टि से समाजशास्त्र के लिए वैज्ञानिकता को स्वीकार नहीं करना
शायद समाजशास्त्र के प्रति भेदभाव की बात होगी। समाजशास्त्र के द्वारा ही हम समाज के विभिन्न अवयवों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जो किसी भी नीति को बनाने में उपयोगी हो सकता हैं। अतः हमें समाजशास्त्र की विषय-वस्तु एवं अध्ययन की पद्धति को ध्यान में रखकर समाजशास्त्र को विज्ञान की भांति स्वीकार करना ही पड़ेगा।
Question : सिद्धांत और तथ्य
(2002)
Answer : किसी भी सामाजिक विज्ञान के लिए दोनों के परस्पर संबंधों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। सिद्धान्त किसी भी विज्ञान/सामाजिक विज्ञान का एक सामान्यीकृत कथन होता है, जो लगभग सभी परिस्थितियों पर लागू किया जा सकता है। दूसरी ओर, तथ्य शाब्दिक रूप से समाज में पाये जाने वाले किसी भी परिस्थिति का सही अवलोकन एवं प्राप्त आंकड़े का सही मूल्यांकन होता है।
परंतु यहां पर सिद्धान्त एवं तथ्य का मतलब समाजशास्त्र में दो प्रकार के सिद्धान्तों से लिया जाता है। ये सिद्धान्त वस्तुतः समाजशास्त्रीय सिद्धान्त एवं सामाजिक सिद्धान्त होते हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का मतलब समाजशास्त्रियों द्वारा की गयी किसी व्याख्या एवं आनुभाविक आधार पर दिये गये तथ्यों का एक सामान्यीकरण है, जबकि सामाजिक सिद्धान्त एक सामाजिक सुधारक या सामाजिक विज्ञान से संबंधित कोई भी व्यक्ति या सामाजिक व्यक्ति, समाज की विभिन्न परिस्थितियों के बारे में एक सामान्यीकरण प्रस्तुत करते हैं। दूसरी ओर जहां तक तथ्य की बात है तो सामाजिक तथ्य मुख्यतः आंकड़ों के आधार पर परिस्थितियों का अवलोकन, वर्गीकरण एवं व्याख्या करते हैं।
अतः सामाजिक/समाजशास्त्रीय सिद्धान्त और सामाजिक तथ्य एक-दूसरे से संबंधित हैं जिसे अलग नहीं किया जा सकता है। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तोंकी निर्माण प्रक्रिया तथ्यों से ही होती है एवं खंडन भी तथ्य के माध्यम से होता है। साथ ही, तथ्य के द्वारा ही हम किसी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का जांच करते हैं एवं अस्वीकार करते हैं एवं पुनः कुछ सुधार कर एक नये सिद्धान्त की स्थापना की जाती है। जैसे-दुर्खीम ने अपने धर्म के समाजशास्त्र के लिए ऑस्ट्रेलिया की असंख्य जनजातियों का अध्ययन कर धर्म का सिद्धान्त दिया एवं सिद्ध किया था कि ‘धर्म वह है जो पवित्र वस्तुओं से संबंधित है।’ परंतु दूसरी ओर, मार्क्स ने धर्म को व्यक्तियों के लिए अफीम माना है। अतः सारी बातें परिस्थिति विशेष पर निर्भर करती हैं।