Question : भूमिका संघर्ष एवं इसका समाधान।
(2007)
Answer : जब दो या दो से अधिक भूमिकाओं का एक साथ निभाना इतना कठिन हो जाता कि हम किसी भी भूमिका को ठीक से निभाने में समर्थ नहीं रह पाते हैं, तो भूमिका द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कामकाजी महिलाओं के लिए कभी-कभी यह समस्या हो जाती है। वह अपने बच्चों या परिवार के लिए कैसे समुचित समय निकाले। पेशे की भूमिका एवं मां या पत्नी के रूप में उनकी भूमिका के बीच अक्सर संघर्ष होता रहता है। भूमिका द्वंद्व आधुनिक युग की परेशानी है।
इसलिए कि औद्योगिक समाज के अन्तर्गत लोगों को अक्सर एक से अधिक भूमिकाओं का निर्वाहण करना होता है। आधुनिक समाज में तो भूमिका द्वंद्व की समस्या कभी-कभी इतनी जटिल हो जाती है कि लोगों का परिवार भी विघटित हो जाता है। कभी-कभी तो कुछ लोग पागलखाने तक भी पहुंच जाते हैं। मानसिक रोगों के साथ-साथ हृदय रोग का सम्बन्ध भी भूमिका द्वंद्व से जुड़ा हुआ है।
चूंकि एक व्यक्ति की एक से अधिक स्थितियां और भूमिकाएं होती हैं, इसलिए विभिन्न स्थितियों और भूमिकाओं के बीच स्थिति द्वंद्व एवं भूमिका द्वंद्व की समस्याएं उठती हैं। भूमिका संघर्ष हमारे जीवन में हमेशा उठती रहती हैं और हम इन विकट परिस्थितियों से निपटने की कोशिश करते हैं। कुछ उपाय जिनका लोग आये दिन अपनी समस्याओं से निपटने के लिए प्रयोग करते रहते हैं, वे इस प्रकार हैं:
यहां यही स्पष्ट होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही ढंग से विभिन्न परिस्थितियों में व्यवहार करता है। यह आधुनिक समाज की बहुत ही गंभीर समस्या है कि उसे एक साथ कई स्थितियों में रहकर तमाम किस्म की भूमिकाओं से एक साथ जूझना पड़ता है।
Question : एक सामाजिक आंदोलन में कौन-कौन से रचनात्मक तत्व होते हैं? एक सामाजिक आंदोलन का अंत किस तरह आता है। अपने उत्तर की सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
(2007)
Answer : भारत में सामाजिक आन्दोलन केवल विरोध और असहमति प्रकट करने वाले आन्दोलन ही नहीं रहे हैं, बल्कि सुधारात्मक, प्रतिक्रियात्मक के साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक और स्वतंत्रता आन्दोलन भी रहे हैं। ये आन्दोलन जिन्हें ‘परिवर्तन को प्रोत्साहित/विरोध करने के सामूहिक प्रयत्न’ कहा गया है। बौद्धिक विकास, सामाजिक संरचनाओं, वैचारिक वरीयताओं और सत्य के ज्ञान आदि से अस्तित्व में आये। यह सर्वविदित सत्य है कि समाज की विशेषताएं ही आन्दोलनों के प्रारूप तैयार करती है। अतः सामाजिक संरचना के तत्व और समाज के भविष्य की छवि ही सामाजिक आन्दोलन के विश्लेषण को केन्द्र बिन्दु प्रदान करते हैं।
ब्रिटिश काल तक हमारे देश में सामाजिक आन्दोलन धर्मोन्मुख थे, यद्यपि 1930 के बाद राष्ट्रीय आन्दोलनों का भी उदय हुआ जो कि स्पष्ट रूप से साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की शक्तियों के विरुद्ध थे।
लेकिन स्वतंत्रता के बाद जो नयी स्थिति पैदा हुई, जैसे राजनैतिक कुप्रशासन, आर्थिक शोषण, महिलाओं का अपमान व तिरस्कार, सांस्कृतिक प्रभुत्व, उसके आक्रमण के लक्ष्यों में विविधता पैदा की तथा विविध आन्दोलनों में विस्तार किया।
सामाजिक आन्दोलन अक्सर विशेष भागीदारों की पहचान के आधार पर चिन्हित किए जाते हैं, जैसे- जनजातीय आन्दोलन, हरिजन आन्दोलन, महिला आन्दोलन, किसान आन्दोलन, छात्र आन्दोलन, औद्योगिक श्रमिकों का आन्दोलन आदि।
इसी प्रकार जिन समूहों के विरूद्ध वे जा रहे हैं, उनकी सामूहिकता की प्रकृति के आधार पर भी वे चिन्हित किए जाते हैं, जैसे- ब्राह्मण विरोधात्मकता, वामपन्थी विरोधी, दलित विरोधी आदि।
सुधारवादी आन्दोलन मूल्य व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन लाते हैं। वे संरचनात्मक परिवर्तनों को प्रभावित नहीं करते। यहां हम पांच विशिष्ट सामूहिकता के सम्बद्ध आन्दोलनों की चर्चा करेंगे, अर्थात् कृषक आन्दोलन, जनजातीय आन्दोलन, दलित आन्दोलन, पिछड़ी जाति/वर्ग आन्दोलन और महिला आन्दोलन। इन सभी आन्दोलनों में ये पांच तत्व हैं:
इस प्रकार उपरोक्त विशेषताओं वाला कोई आन्दोलन ‘एजीटेशन’ से भिन्न है, क्योंकि विरोध में न तो कोई विचारधारा और न ही कोई संगठन होता है। घनश्याम शाह की मान्यता है कि कुछ विद्वानों द्वारा कुछ ‘सामूहिक कृत्यों’ को ‘एजीटेशन’ कहा गया है, लेकिन दूसरों ने उन्हें ‘आन्दोलन’ ही कहा है, जैसे भाषायी राज्यों के गठन की मांग। शाह स्वयं उन्हें आन्दोलन या समाज के विशेष स्तर के सामाजिक आन्दोलन का ही एक हिस्सा मानता है। इस प्रकार झारखंड की मांग बिहार में, उत्तर प्रदेश में उत्तरांचल की मांग, मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ की मांग उसके अनुसार सामाजिक आन्दोलन कहे जा सकते हैं।
सामाजिक आन्दोलनों के विश्लेषण में सामान्यतया दो उपागम प्रयोग में लाये जाते हैं: मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी। मार्क्सवादी उपागम के अनुसार आन्दोलन में निम्न लक्ष्ण मिलते हैं:
गैर मार्क्सवादी उपागम ने इस उपागम की इस आधार पर आलोचना की है किः
उपरोक्त पांचों आन्दोलनों (कृषक, जनजातीय, दलित, पिछड़ी जाति और महिला) के विश्लेषण में हमारी धारणा मुख्यतः ए.आर. देसाई, रजनी कोठारी और एस. ए. राव के उपागमों पर आधारित है।
देसाई (1986) ने माना है कि कुछ आन्दोलन हमारे संविधान द्वारा लोगों के नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा न करने के कारण होते हैं। रजनी कोठारी (1984-86) की राय है कि समाज के रूपान्तरण में राज्य की असफलता जिसमें विशाल जन समूह का दमन और उपेक्षा आम बात है। लोगों को अपने अधिकारों को विविध संघर्षों के माध्यम से मनवाने को बाध्य होना पड़ता है। ओमन का तर्क है कि वच्चना सिद्धान्तवादी आन्दोलनों को ‘परिवर्तन की लगातार चलने वाली प्रक्रिया’ नहीं मानते। वे वच्चना के स्रोतों को भी नहीं मानते। शाह का मानना है कि वच्चना सिद्धान्तवादी चेतना के महत्व की भी अवेहलना करते हैं तथा भागीदारों के वैचारिक पक्ष की भी उपेक्षा करते हैं।Question : राजनैतिक सहभागिता का अर्थ एवं स्वरूप समझाइये। भारत में लोगों की राजनीतिक सहभागिता में कौन-कौन से कारक बाधक हैं।
(2007)
Answer : राजनैतिक सहभागिता सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए अनिवार्य तत्व है। लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली का तो बुनियादी आधार ही ‘सहभागिता’ है क्योंकि इसका संचालन जनता द्वारा किया जाता है। व्यक्तियों द्वारा राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर भाग लेने को राजनीतिक सहभागिता कहते हैं। सामान्य तौर से, नागरिकों के वह कार्य जो सरकार की निर्णयकारी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, राजनीतिक सहभागिता कहलाती है। मैक्गलोस्की के अनुसार राजनीतिक सहभागिता लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सहमति देने अथवा वापस लेने का एक प्रमुख साधन है, जिसके द्वारा शासकों को शासितों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है।
इनके शब्दों में, राजनीतिक सहभागिता को उन स्वैच्छिक क्रियाओं, जिनको द्वारा समाज के सदस्य शासकों के चयन एवं प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से उन नीतियों के निर्माण के रूप में भाग लेते हैं, के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है। मैथ्यूज तथा प्रोथ्रो ने राजनीतिक सहभागिता को जनता द्वारा प्रत्यक्ष राजनीतिक विचारों को व्यक्त करने से सम्बन्धित सभी प्रकार का व्यवहार बताया है। नोमर्न एच-नीई तथा सिडनी वेब ने राजनीतिक सहभागिता की परिभाषा करते हुए लिखा है कि राजनीतिक सहभागिता आम लोगों की वे विधिसम्मत गतिविधियां हैं, जिनका उद्देश्य राजनीतिक पदाधिकारियों के चयन और उनके द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करना होता है।
व्यापकतर अर्थ में परम्परागत क्रियाओं के अतिरिक्त राजनीतिक निर्णयों के प्रति विरोध व्यक्त करने या समर्थन तथा प्रदर्शनों एवं उपद्रवों जैसी विविध राजनीतिक क्रियाओं को भी राजनीतिक सहभागिता में सम्मिलित किया जाता है।
आधुनिक शासन प्रणालियों में राजनीतिक सहभागिता का विशिष्ट महत्व है। राजनीतिक व्यवस्थाओं का स्थायित्व वैधता पर आधारित होता है और वैधता जन समर्थन पर। इसलिए कहा जाता है कि सहभागिता के परिणामस्वरूप समर्थन शीघ्रता से प्राप्त हो सकता है। आधुनिक युग में नागरिकों में गतिशीलता लाने के लिए हर पद्धति विभिन्न प्रकार की संस्थाओं की रचना करके यह प्रयत्न करती है कि नागरिक अधिक से अधिक पद्धति की गतिविधियों में सहयोगी बनें। आधुनिक युग लोकतान्त्रिक युग कहलाता है, जिसका अर्थ न केवल निर्वाचन के समय मताधिकार का प्रयोग करके सरकार का गठन करता है, बल्कि लोकहित में इस सरकार को नागरिकों की इच्छाओं के अनुसार निर्णय लेने के लिए बाध्य करना भी है।
यही कारण है कि हर राजनीतिक व्यवस्था में संचार साधनों के माध्यम से समय-समय पर महत्वपूर्ण प्रश्नों के सम्बन्ध में निर्णय लेने के पश्चात् या निर्णय लेने के पूर्व सरकार नागरिकों की इच्छा जानने का प्रयत्न करती है, यह तभी सम्भव हो सकता है, जब नागरिक राजनीतिक पद्धति की गतिविधियों में सहयोगी बनें। राजनीतिक सहभागिता की अवधारणा हर समय में हर राजनीतिक व्यवस्था को आंकने व परखने का आनुभविक साधन रहा है। यह ऐसा तथ्य है जो राजनीतिक व्यवस्था की चीर-फाड़ किए बिना ही उसके अन्दर झांकने का अवसर देता है, जिससे उनकी ‘स्वस्थता’ या ‘रूग्णता’ का मोटा अनुमान लग जाता है। सहभागिता राजनीतिक संस्कृति को भी प्रभावित करती है तथा उनको परिवर्तित करने में सहभागिता का विशेष हाथ रहता है। इसलिए विकासशील देशों में सहभागिता पर कुछ अधिक ही बल दिया जाता है।
शिक्षा स्तर और सहभागिता स्तर परस्पर सम्बन्धित हैं तथा उच्च शिक्षा सहभागिता के स्तर को ऊंचा उठा देती है। इसी प्रकार आर्थिक दृष्टि से जो देश सम्पन्न हैं, उनमें सहभागिता का स्तर ऊंचा रहता है। इसी प्रकार रोपर ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि आर्थिक दृष्टि से जो देश जितने अधिक पिछड़े होते हैं, उन देशों में सहभागिता का स्तर निम्न तो रहता ही है। सामाजिक-आर्थिक विकास सहभागिता के स्तर पर निर्भर है तथा जिस समाज में सहभागिता का स्तर निम्न होगा। उस देश में न केवल आधुनिकीकरण की क्रिया कम होगी, बल्कि राजनीतिक स्थायित्व में भी कमी होगी।
राजनीतिक सहभागिता की प्रमुख क्रियाएं: राजनीतिक सहभागिता में विविध प्रकार की क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं। मैक्गलोस्की के अनुसार इसमें मतदान, जानकारी प्राप्त करना, वाद-विवाद एवं धर्मान्तरण सभाओं में उपस्थित रहना, चन्दा देना, प्रतिनिधियों के साथ सम्पर्क रखना, आदि विशिष्ट क्रियाएं तथा दल की औपचारिक सदस्यता ग्रहण करना, चुनाव अभियान में भाग लेना, राजनीतिक भाषण देना या लिखना तथा सार्वजनिक एवं दलीय पदों के लिए चुनाव में भाग लेना, आदि जैसे अधिक सक्रिय रूपों को सम्मिलित किया जाता है। राजनीतिक सहभागिता के विभिन्न रूप इस प्रकार हैं:
Question : एक सामाजिक आंदोलन का ढांचा।
(2006)
Answer : सामाजिक आंदोलन एक सामूहिक प्रयास है, जिसका उद्देश्य समाज एवं संस्कृति में कोई आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन लाना या परिवर्तन का विरोध करना है। किसी भी समाज में सामाजिक आन्दोलन तब प्रारंभ होता है जब वहां के लोग वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हों और उनमें परिवर्तन लाना चाहते हों। कई बार सामाजिक आंदोलन परिवर्तन का विरोध करने के लिए भी किए जाते हैं। सामाजिक आन्दोलन के पीछे कोई विचारधारा अवश्य होती है। किसी भी आन्दोलन का प्रभाव पहले असंगठित रूप में होता है और धीरे-धीरे संगठन या व्यवस्था उत्पन्न होने लगती है। सामाजिक आंदोलन एक सामूहिक व्यवहार है अर्थात् आंदोलन किसी एक व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
सामाजिक आंदोलन की विशेषताएं:
Question : सामाजिक विकास में सामाजिक नीति का महत्व समझाइये। किन परिस्थितियों में एक सामाजिक नीति की कामगिरी की प्रभावकता असपफ़ल होती है।
(2006)
Answer : राष्ट्र निर्माण का कार्य सामाजिक नीति और विकास से जुड़ा है। पिछड़े देशों में जब से योजनाबद्ध परिवर्तन प्रारम्भ हुये, राष्ट्र निर्माण के कार्य को सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। सरकार योजनाओं को हाथ में लेने से पहले उसके पीछे जो नीति होनी चाहिए, उसका निर्धारण करती है। सामाजिक नीति के अनुरूप विकास के लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब हमने पहली पंचवर्षीय योजना बनायी, जब नेहरूजी ने बड़े-बड़े कारखानों और उद्योगों को तैयार किया।
तब सरकारी तौर पर कहा गया कि हमारी योजनाबद्ध विकास की नीति औद्योगीकरण होगी। अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक नीति एवं सामाजिक विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध है एवं दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। सामाजिक नीति समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनायी जाती है। नीति का तात्पर्य ऐसे नियमों से है जिनके द्वारा सरकार के हेतुओं की अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार सामाजिक नीति प्रशासन की एक व्यवस्था है।
सामाजिक नीति के अन्तर्गत वह सब आता है जो राज्य करना चाहता है। राज्य के हेतुओं की अभिव्यक्ति सामाजिक नीति में होती है। सामाजिक नीति बहुआयामी होती है। परंतु यह सोचना भूल होगी कि सामाजिक नीति केवल विकास नीति ही है। उपनिवेशवादी शासन में भी सरकार की राज्य नीति होती थी। इस नीति का मुख्य उद्देश्य लोगों का शोषण करना और अपने हितों की रक्षा करना था। परंतु आज सामाजिक नीति का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण पर केंद्रित है।
राष्ट्र निर्माण के लिए आज विश्व के सभी राष्ट्र सामाजिक और आर्थिक विकास चाहते हैं। विश्व के पिछड़े राष्ट्र सामाजिक परिवर्तन की दिशा को योजनाओं द्वारा पक्का करते हैं। योजनाओं, जिनका निर्माण सामाजिक नीतियों के आधार पर होता है, का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक विकास होता है। योजना और नीतियों की कसौटी सामाजिक विकास होता है और यदि सामाजिक विकास के उद्देश्य प्राप्ति में नीतियां खरी नहीं उतरतीं तो उन्हें बदल दिया जाता है, छोड़ दिया जाता है। अतः सामाजिक परिवर्तन की योजनाओं, उनसे जुड़ी नीतियों का तार्किक और आनुभविक सम्बन्ध, सामाजिक विकास से होता है।
एस. सी. दुबे लोकतांत्रिक समाजों में नीति निर्धारण को एक राष्ट्रीय उत्तरदायित्व बताते हैं। इनके अनुसार, सामाजिक नीति की निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं:
सामाजिक नीति का मूल उद्देश्य राष्ट्र निर्माण होता है। सामाजिक नीतियां परिवर्तन की दिशा को निर्धारित करती हैं। राज्य का यह अधिकार होता है कि वह सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति उपलब्ध संसाधनों तथा समाज की आवश्यकतानुसार करे। यद्यपि, समाजशास्त्रियों में सामाजिक नीतियों के उद्देश्यों पर आम सहमति नहीं है।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार राष्ट्र अपने सीमित संसाधनों के सर्वाधिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए नीतियां बनाते हैं। इन नीतियों का उद्देश्य सामाजिक विकास होता है। जान रीज के अनुसार, यह एक सुखद आश्चर्य है कि साम्यवाद, समाजवाद एवं पूंजीवाद में विचारधारात्मक स्तर पर गहरा मतभेद होने के बावजूद लक्ष्यों के दृष्टिकोण से तीनों का उद्देश्य समान है, वह है-आम-आदमी के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करना। एस. सी. दुबे के अनुसार, सामाजिक विकास का तात्पर्य केवल आर्थिक विकास से न लेकर जनकल्याण से जोड़कर देखना चाहिए। सामाजिक विकास का प्रतिपफ़ल न्यायोचित बंटवारा तथा सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है। इसी के साथ सामाजिक नीतियां भी विकास के संदर्भ में बनती बदलती रहती हैं। भारत ने अपनी द्वितीय पंचवर्षीय योजना में टपकन सिद्धांत को अपनाया, जिसके अनुसार यह विश्वास किया गया कि विकास ऊपर से नीचे की ओर अपने लाभ को पहुंचा देगी परंतु आठवीं तथा नौवीं पंचवर्षीय योजना में नीतिगत परिवर्तन लाये गये तथा यह माना गया कि विकेन्द्रीकरण के माध्यम से ही सामाजिक विकास तथा सामाजिक न्याय दोनों सुनिश्चित हो सकते हैं तथा पंचायती राज को सामाजिक विकास के अभिकरण के रूप में स्वीकार किया गया।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर देखा जाय तो सामाजिक नीति एवं विकास एक आधुनिक अवधारणा प्रतीत होती है। सामाजिक नीति एवं विकास की अवधारणा के द्वारा कल्याणकारी राज्य जनता को लोककल्याण एवं सामाजिक विकास की गारंटी देते हैं एवं समय-समय पर इसका आकलन करते हैं कि सामाजिक विकास अपेक्षित दिशा में हो रहा या नहीं।
जहां पश्चिमी देशों में रंगभेद की समाप्ति, बेरोजगारी का अंत, आदि सामाजिक नीति का महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है, वहीं भारत में यह अस्पृश्यता का अंत, दहेज-निषेध, शिक्षा, बालश्रम का अंत आदि से संबंधित रही है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि प्रत्येक देश में सामाजिक नीति एवं विकास के अलग-अलग मुद्दे होते हैं, जिनका निर्माण राष्ट्र अपनी पृष्ठभूमि, प्राथमिकताओं एवं उपलब्ध संसाधनों के आधार पर सुनिश्चित करते हैं। परंतु सामान्यीकृत आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक नीति का निर्माण निम्न केंद्रीय मुद्दों पर आधारित होता हैः
इस प्रकार कहा जा सकता है, कि सामाजिक विकास में सामाजिक नीति की महत्वपूर्ण भूमिका है। वांछित दिशा में सामाजिक विकास को प्राप्त करने के लिए उचित सामाजिक नीतियां भी आवश्यक हैं। इस प्रक्रिया को नियोजन भी कहा जाता है। इसके मूल में यह विचार होता है कि समाज को प्रगति की दिशा में ले जाना, सामाजिक-पुनर्निर्माण करना, प्राथमिकता के आधार पर लक्ष्यों का निर्धारण करना तथा उपलब्ध संसाधनों द्वारा कार्यक्रम बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयास करना, किया जाता है। यह उचित सामाजिक नीति का ही प्रतिपफ़ल है कि सामाजिक विकास के क्रम में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गरीबी उन्मूलन, मूलभूत स्वास्थ्य, एवं प्राथमिक शिक्षा प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि आदि के प्रयास सपफ़लता प्राप्ति की ओर अग्रसर हैं।
इसी प्रकार भारत में भोजन, वस्त्र, आवास, मृत्युदर पर नियंत्रण, जन्म दर में कमी, महिला शिक्षा, कमजोर वर्गों का कल्याण आदि मुद्दों को सामाजिक नीति में प्रमुखता दी गयी जिससे इनको प्राप्त करने की दिशा में सपफ़ल प्रयास हुये हैं।
पिफ़र भी, भारत जैसे विकासशील समाजों एवं अविकसित देशों में सामाजिक विकास की ये नीतियां पूर्ण रूप से सपफ़ल नहीं हो सकी हैं। सामाजिक नीतियों की असपफ़लता में इन समाजों की पृष्ठभूमि एवं संस्कृतियां जिम्मेदार रही हैं। इसीलिए कार्ल मानहीम कहते हैं कि नियोजित परिवर्तन का लक्ष्य पुनर्निर्माण है, इन लक्ष्यों की प्राप्ति तभी संभव है जब समाज में व्याप्त कमियों को दूर किया जाय जिसके लिए मानवीय लक्ष्यों की पुनर्व्याख्या, मानवीय क्षमताओं का रूपांतरण एवं नैतिक संहिताओ का पुर्ननिर्माण आवश्यक है। इस प्रकार सामाजिक नीतियों की असपफ़लता के अनेक कारणों को दो भागों में बांटकर देखा जा सकता हैः
बाह्य कारणों में प्राकृतिक दुर्घटनाएं, विदेशी मुद्रा की अपर्याप्त उपलब्धता, प्रतिरक्षा का भारी बोझ आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार आंतरिक कारणों में अधिक जनसंख्या, भ्रष्टाचार, परम्पराओं का प्रभुत्व, नौकरशाही, भारी मात्रा में व्यय, उचित तालमेल का अभाव, घाटे की वित्त व्यवस्था आदि हैं। हाल में ही भारत में किये गए एक अध्ययन में कहा गया कि यहां प्रतिवर्ष सैकड़ों अरब रुपये रिश्वत के रूप में दिये जाते हैं, इस प्रकार एक अन्य अध्ययन दर्शाता है कि नीतियों के अंतर्गत निर्गत धन का लगभग दस प्रतिशत ही लाभार्थियों तक पहुंच पाता है। इस कारण सामाजिक नीतियां सफ़ल नहीं हो पाती। नौकरशाही में कर्मकांडीयता की भावना या नियमों को अधिक महत्व देने की प्रवृत्ति भी इसके लिए जिम्मेदार है। इन कारणों के साथ-साथ परंपरा का प्रभुत्व भी नीतियों की असपफ़लता के लिए जिम्मेदार है। इसलिए श्रीनिवास ने कहा है कि भारत स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद भी संविधान से नहीं वेद से शासित होता है।
Question : भारत में राजनीतिक सहभागिता और मतदान व्यवहार के दंगों पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : राजनीतिक सहभागिता और मतदान व्यवहार एक दूसरे से संबंधित हैं, परंतु राजनीतिक सहभागिता का क्षेत्र मतदान व्यवहार से बहुत ज्यादा है। राजनीतिक सहभागिता में विविध प्रकार की क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं। मैक्गलोस्की के अनुसार इसमे मतदान, जानकारी प्राप्त करना, वाद-विवाद एवं धर्मान्तरण सभाओं में उपस्थित रहना, चन्दा देना, प्रतिनिधियों के साथ सम्पर्क रखना आदि विशिष्ट क्रियाएं तथा दल की औपचारिक सदस्यता ग्रहण करना, चुनाव अभियान में भाग लेना, राजनीतिक भाषण देना या लिखना तथा सार्वजनिक एवं दलील पदों के लिए चुनाव में भाग लेना, आदि जैसे अधिक सक्रिय रूपों को सम्मिलित किया जाता है।
बुडवर्ड तथा रोपर ने राजनीतिक सहभागिता की पांच क्रियाएं बताई हैं-
परंतु दूसरी ओर मतदान व्यवहार का आशय यह है कि मतदाता अपने मताधिकार के प्रयोग में किन तत्वों से प्रभावित होता है। मतदान व्यवहार में सर्वप्रथम तो यह अध्ययन किया जाता है कि कौन से तत्व व्यक्ति को मताधिकार का प्रयोग करने के लिए प्रेरित और कौन से तत्व उसे इस सम्बन्ध में निरूत्साहित करते हैं। द्वितीय स्तर पर इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किन तत्वों से प्रभावित होकर व्यक्ति एक विशेष उम्मीदवार और एक विशेष राजनीतिक दल के पक्ष मे अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। इस दृष्टि से मतदान व्यवहार का अध्ययन चुनाव के पूर्व किया जाता है और चुनाव के बाद भी।
भारतीय राजनीति के विभिन्न चुनावों का आकलन एवं विश्लेषण करने से हम राजनीतिक सहभागिता एवं मतदान व्यवहार के कई निर्धारक तत्वों को पाते हैं, जो निम्नलिखित हैं:
आन्दोलन की राजनीति आदि कुछ अन्य तत्व भी मतदान व्यवहार को प्रभावित करते हैं। चुनाव प्रचार का प्रभाव राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों से अप्रतिबद्ध मतदाताओं पर ही पड़ता है। मतदाता अपने मताधिकार के प्रयोग में इस बात से भी प्रभावित होता है कि जीता हुआ उम्मीदवार कौन है। वह हारते हुए उम्मीदवार को मत देकर अपने मत को नष्ट नहीं होने देना चाहता।
1971 के पूर्व तक भारत में जो चुनाव हुए, उनके अन्तर्गत कुछ क्षेत्रों में मतदान व्यवहार उम्मीदवार पर आधारित था, लेकिन कुछ क्षेत्रों में मतदान व्यवहार दल पर आधारित था। इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि ग्रामीण मतदाता उम्मीदवार की दृष्टि से अधिक विचार करते हैं, जबकि शहरी मतदाता चुनाव प्रश्नों और दलों पर अधिक ध्यान देते हैं।
Question : भारत में सामाजिक आंदोलनों के फलस्वरूप वैचारिक परिवर्तनों का वर्णन कीजिए जिन्होंने आधुनिक समाज को प्रविष्ट किया।
(2005)
Answer : किसी भी समाज में सामाजिक आन्दोलन तब प्रारम्भ होता है जब वहां के लोग वर्तमान स्थिति से असन्तुष्ट हों और उसमें परिवर्तन लाना चाहते हों। कई बार सामाजिक आंदोलन किसी परिवर्तन का विरोध करने के लिए भी किए जाते हैं। सामाजिक आंदोलनों के पीछे कोई विचारधारा अवश्य होती है। किसी भी आन्दोलन का प्रभाव पहले असंगठित रूप में होता है और धीरे-धीरे उसमें व्यवस्था व संगठन पैदा हो जाता है। सामाजिक आन्दोलन एक सामूहिक व्यवहार होने के कारण कॉम्ट, दुर्खीम, लीबां एवं टार्डे, आदि की इसमें रूचि रही है। सामाजिक आंदोलनों में प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों की रूचि परिवर्तन के एक प्रयास के रूप में ही रही, जबकि वर्तमान समाजशास्त्री सामाजिक आन्दोलन को परिवर्तन उत्पन्न करने या उसे रोकने के प्रयास के रूप में देखते हैं।
सामाजिक आन्दोलन एक सामूहिक प्रयास है जिसका उद्देश्य समाज अथवा संस्कृति में कोई आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन लाना अथवा परिवर्तन का विरोध करना होता है। परंतु प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन के पीछे कोई-न-कोई वैचारिकी या विचारधारा अवश्य होती है। वैचारिकी विश्वासों, मूल्यों, मतों एवं प्रवृत्तियों का एक योग होता है जिसमें मानव के भूतकाल के अनुभव निहित होते हैं और इसका प्रयोग वह वर्तमान की किसी घटना की व्याख्या करने अथवा उसे उचित सिद्ध करने के लिए करता है। उदाहरण के लिए, कम्युनिस्ट आंदोलन के पीछे समानता की विचारधारा निहित है। वैचारिकी ही सामाजिक आंदोलन के लक्ष्य एवं साधन निर्धारित करती है और उसके औचित्य को सिद्ध करती है। वैचारिकी ही आन्दोलन को प्रेरित करती है, लोगों में आशा का संचार करती है।
भारत में सामाजिक आंदोलनों के फलस्वरूप वैचारिक परिवर्तनों का वर्णन आधुनिक समाज के परिप्रेक्ष्य में इस बात से स्पष्ट होता है कि पहले सामाजिक आंदोलन समाज के निम्न वर्गों के बीच उपस्थित समस्याओं के निदान के रूप में किया जाता था। परंतु आधुनिक समय में इस समस्या का निदान विभिन्न सरकारी प्रावधानों के माध्यम से देखने को मिलता है। वैचारिक परिवर्तनों का विश्लेषण हम तीन प्रमुख सिद्धान्तों के द्वारा कर सकते हैं- सापेक्षिक वंचन सिद्धांत, संरचनात्मक सिंचाव सिद्धांत और पुनर्जीवनीकरण सिद्धांत।
सापेक्षिक वंचन सिद्धांतः वंचन उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें लोगों को उस वस्तु का अभाव रहता है जिसकी आवश्यकता होती है। सापेक्षिक वंचन की स्थिति लोगों के इस चिंतन पर आधारित होती है कि अन्य लोगों की तुलना में उनके पास क्या है। उस अर्थ में सापेक्षिक वंचन तब घटित होता है जब व्यक्ति अथवा समूह यह अनुभव करते हैं कि उन्हें उनकी क्षमता के अनुरूप जो प्राप्त होना चाहिए वह प्राप्त नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, न्यायसंगत अपेक्षाओं तथा वास्तविक उपलब्धियों में अंतराल ही सापेक्षिक वंचन हैं। ये अंतर आर्थिक स्थिति, सामाजिक पदस्थिति और राजनीतिक शक्ति के कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए शिक्षित बेरोजगार युवा पर्याप्त शैक्षणिक योग्यता के बावजूद नौकरी शुदा व्यक्तियों की तुलना में अपने को वंचित महसूस कर सकता है। इस प्रकार सापेक्षिक वंचन वर्तमान परिस्थितियों के विरूद्ध असंतोष पैदा करता है और इसके फलस्वरूप एक आंदोलन का उदय होता है। समाजशास्त्रियों ने अधिकांश सामाजिक आंदोलनों का अध्ययन सापेक्षिक वंचन सिद्धांत की परिधि में किया है।
संरचनात्मक खिंचाव का सिद्धांतः नील स्मेलसर द्वारा दिये गये संरचनात्मक खिंचाव के सिद्धान्त का तर्क यह है कि समाज में विरोधामास ही द्वंद्व तथा खिंचाव, चिंता एवं अनिश्चितता उत्पन्न करता है। संरचनात्मक खिंचाव मानदंड, मूल्य तथा सुविधाओं के विभिन्न स्तरों पर होता है। यह खिंचाव आंदोलन जैसे सामूहिक व्यवहार को प्रेरणा देता है। यद्यपि सामाजिक आंदोलनों में समाजशास्त्रीय कारकों का समावेश करने वालों में स्मेलसर प्रथम व्यक्ति थे परंतु उसकी आलोचना इस कारण हुई है कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक प्रेरणा पर जरूरत से अधिक जोर दिया है।
पुनर्जीवनीकरण का सिद्धांतः पुनर्जीवनीकरण का सिद्धान्तप्रारंभ में ए.एफ.सी. वालास द्वारा दिया गया था। वालास का कहना है कि सामाजिक आंदोलन का जन्म सामाजिक सदस्यों द्वारा संगठित तथा चेतनशील प्रयासों के कारण होता है जिससे संस्कृति को अपने लिए अधिक संतोषजनक बनाया जा सके। आंदोलन की उत्पत्ति की यह व्याख्या उपर्युक्त दोनों व्याख्याओं से भिन्न है। सापेक्षिक वंचन तथा खिंचाव का सिद्धांत दोनों नकारात्मक परिस्थितियों पर आधारित हैं। इन दोनों का तर्क है कि आंदोलनों की उत्पत्ति लोगों के वंचन तथा भेद-भाव से संबंधित अनुभवों से होती है। किन्तु पुनर्जीवनीकरण उपागम यह दिखाता है कि व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए सामाजिक आंदोलन एक सकारात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। अतः इस सिद्धांत के अनुसार, न केवल वर्तमान स्थिति के विरूद्ध असंतोष एवं असहमति प्रकट करते हैं बल्कि व्यवस्था के पुनरूत्थान के लिए विकल्प भी प्रदान करते हैं।
आधुनिक भारत में सामाजिक आंदोलनों के फलस्वरूप वैचारिक परिवर्तनों का आकलन हम निम्नांकित प्रमुख आंदोलनों के रूप में कर सकते हैं:
(1) कृषक आंदोलनः कृषक आंदोलनों का मूल वैचारिक आधार वर्गसंघर्ष की अवधारणा रही है, किन्तु यह श्रमिकों के आन्दोलनों से भिन्न होता है। मार्क्स ने तो कृषक वर्ग को एक निष्क्रिय वर्ग माना था। किन्तु लेनिन, माओत्से तुंग ने इन्हें क्रांति का केन्द्र माना। विनोबा भावे एवं जयप्रकाश नारायण के सर्वोदय एवं भूदान आन्दोलनों का केन्द्र भी कृषक समुदाय रहा है।
भारतीय कृषक आंदोलन मुख्यतः दो विचार धाराओं में विभाजित दिखाई पड़ते हैं। एम.एस. राव ने इस मान्यता को उदाहरण देते हुए समझाया कि भूदान, सर्वोदय तथा अन्य अहिंसक आन्दोलन मूलतः गांधीवादी से प्रेरित रहे। इसके विपरीत तेभागा, तेलंगाना, नक्सलवादी तथा अन्य भूमि-हथियाओं आन्दोलन कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित रहे तथा तत्कालीन क्षेत्रीय कम्युनिस्ट राजनैतिक दलों ने भरपूर समर्थन दिया। उसी प्रकार उत्तरी भारत का प्रसिद्ध निजाई बोल आन्दोलन (1946) कांग्रेसी विचारधारा से प्रभावित रहा, जबकि 1970 का भूमि-हथियाओं आन्दोलन कम्युनिस्ट विचारधारा पर आधारित था।
(2) महिला आन्दोलनः महिला आंदोलन मूल रूप में नारीवाद की विचारधारा से जुड़ा हुआ है परंतु भारत में नारीवाद को लेकर काफी विवाद बना हुआ है। नारीवाद राजनीतिक विचारधारा का एक जटिल स्वरूप है जिसका व्यवहार महिला समानता के संघर्ष के लिए महिला आंदोलनों द्वारा होता है। नारीवाद की परिभाषा कई प्रकार से परस्पर संबंधित ढांचों के रूप में भी की जा सकती है जिसका प्रयोग लिंग असमानता की सामाजिक वास्तविकता के निर्माण और पुष्टिकरण के अवलोकन तथा विश्लेषण के लिए किया जाता है। नारीवाद के इस परिप्रेक्ष्य में कुछ सक्रिय कार्यकर्ताओं ने भारतीय वास्तविकता के लिए नारीवाद की पश्चिमी अवधारणा की उपयुक्तता पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है। इसका तर्क है कि भारत में पुरूषों के वर्चस्व का स्वरूप पश्चिमी समाज से भिन्न है। अतएव, पुरूषों के विरूद्ध मांग तथा प्रतिरोध भी अलग है। इस दृष्टि से सक्रिय महिला एवं ‘मानुषी’ की संपादक मधु किश्वर ने अपनी परंपराओं की ओर दृष्टिपात करने की आवश्यकता पर जोर दिया है। इनका विचार है कि सांस्कृतिक परंपराओं के अंतर्गत हमें विध्वंसकारी तत्वों को शक्त्तिदायक तत्वों से अलग करना चाहिए और फिर इन शक्तियों का उपयोग परंपरा को बदलने में शुरू करना चाहिए। ‘हमारी सांस्कृतिक परंपराओं में प्रतिक्रियावादी तथा नारी विरोधी विचारों को समाप्त करने की पर्याप्त क्षमता है, यदि हम इन शक्तियों की पहचान करें और इनका रचनात्मक इस्तेमाल करें।’ अतः भारतीय संदर्भ में नारीवाद केवल सैद्धांतिक बहस का ही सवाल नहीं है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक उपागम भी है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि भारत में महिला आंदोलनों ने ऐतिहासिक भूमिका अदा की है और महिलाओं के मुद्दों को राष्ट्रीय कार्यसूची में ला दिया है।
(3) दलित आंदोलनः विगत दो शताब्दियों में दलित जातियों ने अपनी सामाजिक आर्थिक दशाओं को सुधारने तथा देश के अन्य समूहों के द्वारा उन पर किए जाने वाले अन्यायों और अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाने की दृष्टि से अनेक आंदोलन किए हैं। इन आंदोलनों के आधार धार्मिक तथा लौकिक, दोनों रहे हैं। ये आन्दोलन सुधार कल्याण की भावना से भी प्रेरित रहे हैं औरसामाजिक सम्बन्धों तथा मूल्यों की प्रचलित व्यवस्था को बदलने की आकांक्षा ने भी इन आंदोलनों को जन्म दिया है। वास्तव में दलित आंदोलन सापेक्षिक वंचन के सिद्धांत पर आधारित हैं।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि भारतीय समाज में सामाजिक आंदोलनों का स्थान वैचारिक रूप से महत्वपूर्ण है। बिना विचारधारा के कोई भी सामाजिक आंदोलन संभव नहीं है। प्रत्येक सामाजिक आंदोलन का एक निश्चित विचारधारा होता है।
Question : सामाजिक संरचना और राजनैतिक सहभगिता।
(2003)
Answer : सामाजिक संरचना एवं राजनैतिक सहभागिता एक-दूसरे से संबंधित है। सामाजिक संरचना के आधार पर ही किसी सामाज या देश या राज्य की राजनैतिक सहभागिता निर्धारित होती है। सामाजिक संरचना वास्तव में एक अंतःक्रियात्मक अवधारण है, जिसके अंतर्गत समाज के विभिन्न पहलू अंतःसंबंधित होते हैं, जबकि राजनैतिक सहभागिता निश्चित पर से प्रकार्यात्मक प्रक्रिया को स्पष्ट करती है।
अतः सामाजिक में संरचना में समाज के विभिन्न प्रक्रियाओं, जैसे-आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक का समायोजन होता है और यही संरचनात्मक पुनः आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिकक्रियाओं को निर्धारित करती है। इस प्रकार से यह स्पष्ट होता है कि राजनैतिक सहभगिता भी इसी संरचनात्मक विशेषता का एक आयाम है।
राजनैतिक सहभगिता के अंतर्गत यह देखा जाता है कि समाज के विभिन्न वर्गों, समुदायों एवं जातियों का किस प्रकार राजनैतिक प्रक्रियाओं में भाग लेते हैं। यह मूल रूप से उस समाज के संरचनात्मक विशेषता एवं चेतना के आधार पर विकसित होता है। उदाहरण के तौर पर हम कहते हैं कि भारत के संरचनात्मक पहलू में जाति, वर्ण एवं धर्म व्यवस्था पायी जाती है एवं ये संस्थाएं संस्तरण, शुद्ध-अशुद्ध इत्यादि की धारणा से जुड़े हुए हैं। ये संरचनात्मक विशेषता यह स्पष्ट करती है कि भारत के निम्न जाति के लोगों का राजनैतिक सहभागिता कम रही है। इसका कारण यह है कि इसकी स्थिति समाज में निम्न एवं अछूतों से रही है। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब संविधान में इन जाति एवं वर्ग के लोगों को आरक्षण प्रदान किया गया है। ये अपनी परिस्थिति को उच्च कर सभी क्षेत्रों में सही रूप से प्रतिनिधित्व कर रही है। दूसरी ओर हम अमेरिका के संरचनात्मक पहलू की बात करे तो वहां भी गोरे अमेरिकन एवं काले निग्रो के बीच भी यही स्थिति है। अतः इस प्रकार से हम देखते हैं कि किसी भी समाज के संरचनात्मक पक्ष ही राजनैतिक सहभागिता को निर्देशित करती है।
Question : सामुदायिक शक्ति।
(2002)
Answer : समाजशास्त्र की भाषा में सामुदायिक शक्ति का अर्थ एक समूह के द्वारा पारस्परिक सहयोग द्वारा एक संगठन के रूप में उभरकर एक उद्देश्य के प्रति समर्पण की भावना से कार्य को एक निश्चित समय में पूरा करना है। वास्तव में, सामुदायिक शक्ति में ‘हम की भावना’ एवं कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करने का सम्बन्ध होता है। इसमें सभी लोग किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकजुट होकर काम करते हैं। ऐसा देखा गया है कि सामुदायिक शक्ति के फलस्वरूप बड़ा से बड़ा काम किया गया है। इससे एक आंदोलन का स्वरूप तैयार किया जा सकता है। सामुदायिक शक्ति में व्यक्तिवादिता की भावना का संचार नहीं हो पाता है। दुर्खीम के शब्दों में सामूहिक प्रतिनिधान कह सकते हैं, जिसमें समूह की सारी शक्ति एक निश्चित बिंदु पर केंद्रित होती है।
सामुदायिक शक्ति का स्वरूप भारत जैसे देशों में भलीभांति देखने को मिलता है। अगर हम किसी गांव की कल्पना करें तो वो भी समुदाय के रूप में देखा जाता है। सामुदायिक शक्ति का संचार आज के युग में जाति, धर्म एवं क्षेत्र के आधार पर आम बात है, परंतु यह महत्वपूर्ण तब ज्यादा हो जाती है जब ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का अस्तित्व सामने आता है। भारत के जनजाति समाजों में भी इस तरह की शक्ति हमेशा देखने को मिलती है। सामुदायिक शक्ति का स्वरूप हम विभिन्न संगठन के रूप में भी देखते हैं। ये संगठन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक सभी प्रकार के हो सकते हैं। अनिवासी भारतीयों को भी हमने भारतीय सामुदायिक शक्ति के रूप में विदेशों में देखा है।
इन सारी वस्तुस्थितियों के बावजूद कभी-कभी सामुदायिक शक्ति का काफी नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ता है। उदाहरण के तौर पर जब गोधरा एवं उसके बाद साम्प्रदायिक दंगे होते हैं तब एक समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय के लोगों का निशाना बनाकर बहुत अमानवीय हरकतें की जाती हैं। अतः साम्प्रदायिक शक्ति वास्तविक रूप में सकारात्मक होनी चाहिए, जो देश निर्माण प्रक्रिया में सहायक हो न कि विखंडन।
Question : बोगर्डस की सामाजिक दूरी मापनी तथा लिकर्ट मापनी के क्या उपयोग हैं? विवेचना कीजिए।
(2002)
Answer : बोगर्डस ने सामाजिक दूरी के माप के लिए कुछ शर्तों के आधार पर सही एवं स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश की। इसके लिए बोगर्डस ने एक सौ व्यक्तियों को दिये गये सात वर्गों की श्रेणी की सामाजिक दूरी का पैमाना निर्धारित किया। बोगर्डस ने सात दिये गये वर्गों की श्रेणी के लिए दूरी के आधार पर संबंधों को मापने का प्रयास किया था। इसके लिए बोगर्डस ने मुख्यतः विवाह की स्वीकार्यता, क्लब में मित्रता की स्वीकारोक्ति, पड़ोसी के द्वारा स्वीकारोक्ति, कार्यालय में साथ-साथ काम करने की स्वीकारोक्ति, किसी भी देश की नागरिकता स्वीकार करना, देश में यात्रा के लिए तैयारी इत्यादि के आधार पर उन्होंने सामाजिक दूरी का माप निर्धारित किया। इसके आधार पर हम निम्नांकित उपयोगी तथ्यों को पाते हैं:
परंतु आज के वर्तमान समय में इस सामाजिक दूरी के स्केल की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती है। अतः इसकी विभिन्न पहलुओं पर आलोचना की जाती हैः
इन सारी आलोचनाओं के बावजूद बोगर्डस के स्केल की सामाजिक विज्ञान के कुछ क्षेत्रों में सहायता ली जाती है।
लिकर्ट का मापन वस्तुतः व्यक्तियों की मनोवृतियों के माप पर आधारित है। इन्होंने विभिन्न मानव समूहों के साम्राज्यवाद अन्तर्राष्ट्रीयवाद एवं निग्रोस की मनोवृतियों का मापन करने के लिए 1932 में एक पैमाना बनाया, जिसे लिकर्ट स्केल कहते हैं। इस विधि में कथन की मूल्य की परीक्षा के लिए अत्यधिक संख्या में फैसलों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अतः यह तकनीक कम मिश्रित एवं कम मेहनत कराने वाली है। लिकर्ट पैमाने का यद्यपि बहुत कम उपयोग होता है, फिर भी इसकी उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसकी उपयोगिता इस प्रकार हैः
उपरोक्त उपयोगिता को देखते हुए कदापि यह एहसास नहीं होना चाहिए कि यह पैमाना बहुत ही प्रामाणिक है। इसमें बहुत सारी खामियां भी देखने को मिलती हैं:
अतः लिकर्ट का पैमाना साधारण प्रकृति का है, परंतु यह व्यक्तियों की मनोवृतियों का सही मूल्यांकन करने में असफल रहा है। फिर भी कभी-कभी इस पैमाने का उपयोग किया जाता है। वास्तव में, बोगर्डस की सामाजिक दूरी का पैमाना एवं लिकर्ट का मनोवृति का पैमाना सही अर्थों में मनोविज्ञान से अधिनियम की समीपता बनाये रखा है न कि समाजशास्त्र से।
Question : नौकरशाही की अनौपचारिक संरचना।
(2001)
Answer : ‘ब्यूरोक्रेसी’ शब्द का प्रयोग प्रशासकीय अधिकारियों द्वारा सम्पादित किये जाने वाले प्रशासन के कार्य-कलापों तथा कार्य पद्धति दोनों को इंगित करने के लिए एक सामूहिक शब्द के रूप में किया जाता है। बहुधा जब कभी इस शब्द का प्रयोग अधिकारी तंत्र की अक्षमता तथा उनके द्वारा शक्ति के दुरुपयोग के अर्थ में किया जाता है, तब इस शब्द का मूल अर्थ भ्रष्ट हो जाता है।
इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग संभवतः अर्थशास्त्री विंसेट द गौरने द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में राज्य द्वारा बढ़ते हुए हस्तक्षेप को इंगित करने के लिए किया गया। किंतु इसे अपने वर्तमान अर्थ एवं संदर्भ में सजाने-संवारने का श्रेय प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर को जाता है, जिन्होंने इस पद को बहुप्रचलित भ्रष्ट स्वरूप से निकाल कर इसमें निहित धारणा को आधुनिक औद्योगिक समाज के किसी भी संगठन के लक्ष्यों की तर्कसंगत ढंग से प्राप्ति के लिए अपरिहार्य बताया। वेबर के शब्दों में ‘यह एक प्रकार का प्रशासकीय संगठन है, जिसमें विशेष योग्यता, निष्पक्षता तथा मनुष्यता का अभाव आदि लक्षण पाये जाते हैं।’ मैक्स वेबर ने आगे लिखा है कि ये तत्व लोक प्रशासन में ‘नौकरशाही सत्ता’ अथवा निजी उद्योगों में ‘नौकरशाही प्रबंध व्यवस्था’ का निर्माण करते हैं। वेबर ने नौकरशाही की निम्नलिखित संरचनाओं का उल्लेख किया हैः
(a)पदसोपान् का सिद्धांत लागू होता है।
(b)अभिलेखों, फाइलों और लिखित दस्तावेजों पर आधारित।
(c)आधुनिक दफ्रतरी प्रबंध के निर्णयों पर आधारित।
(d)कार्यालयीन प्रबंध के लिए सामान्य नियमों अथवा व्यवहारों की व्यवस्था का निर्माण।
(e)कार्यालयीन प्रबंध के नियमों और तकनीकियों में अधिकारी प्रशिक्षण प्राप्त।
लास्की ने नौकरशाही की निम्न रूप से व्याख्या की है- ‘यह एक व्यवस्था है जिसका पूर्णरूपेण नियंत्रण अधिकारियों के हाथों में होता है और वे इतने स्वेच्छाचारी होते हैं कि उन्हें नागरिकों की निन्दा करते समय भी शंका एवं हिचकिचाहट नहीं होती है।’ लास्की ने नौकरशाही की संरचना को इस प्रकार समझाया है।
(a) यह एक प्रकार की व्यवस्था है।
(b) इस व्यवस्था को वह एक नियंत्रण के नाम से भी जानता है।
(c) इस व्यवस्था पर कर्मचारियों का पूर्ण नियंत्रण होता है। और
(d) इन कर्मचारियों में स्वेच्छाचारिता की मात्र अधिक पाई जाती है।
Question : किन सामाजिक परिस्थितियों में किसी सामाजिक आंदोलन का जन्म होता है? एक सामाजिक आंदोलन की जीवन रेखा को उदाहरण सहित समझाइए।
(2001)
Answer : कोई भी सामाजिक आंदोलन बहुत सारे लोगों द्वारा सामान्य समस्या अथवा समस्याओं को सामूहिक रूप से सुलझाने का एक प्रयास होता है। एम.एस. राव ने सामाजिक आंदोलनपर गहन शोध किया और उन्होंने तीन सामाजिक परिस्थितियों का उल्लेख किया जो सामाजिक आंदोलन को जन्म देता है। ये परिस्थितियां है- सापेक्षिक वंचन, संरचनात्मक तनाव एवं पुनर्जीविकरण।
(1) सापेक्षिक वंचन: सर्वप्रथम कारक सापेक्षिक वंचन है। परंतु सामाजिक आंदोलन प्रायः इसलिए प्रारंभ होता है, क्योंकि लोग कुछ बातों के बारे में अप्रसन्न होते हैं उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें पर्याप्त नहीं मिल रहा है। दूसरे शब्दों में, वे यह महसूस करते हैं कि वे किसी चीज से वंचित है। नक्सलवादी आंदोलन में यह एक कारण हो सकता है। किसानों ने यह अनुभव किया की उनका शोषण किया जा रहा है। तथा उन्हें उनके अधिकारों और श्रम के फल से वंचित किया जा रहा है।अतः उन्होंने विरोध करने का निश्चय किया। इसी प्रकार शैक्षणिक संस्थाओं में पिछड़े वर्ग के लिए स्थान आरक्षण के विरोध में गुजरात में हुए आंदोलन इसी प्रकार के सापेक्षिक वंचन का परिणाम थे।
वास्तव में वंचन सापेक्षिक होता है न कि अपने आप में सम्पूर्ण होता है। आरक्षण के विरुद्ध अथवा पक्ष में आंदोलन का तात्पर्य यह नहीं है कि संबंधित जातियां यह अनुभव करती हैं कि वे दिशा सुविधा से पूर्णतया वंचित है। वे वस्तुतः यह अनुभव करती है कि उन्हें उनकी योग्यता की तुलना में कम मिल रहा है। सामाजिक आंदोलन सापेक्षिक वंचन की अपेक्षाओं के कारण भी उत्पन्न हो सकते हैं और यह आवश्यक नहीं है कि वे चरण अथवा सम्पूर्ण स्थितियों का कारण उत्पन्न हों।
(2) संरचनात्मक तनावः तथापि, सभी सामाजिक आंदोलन सापेक्षिक वंचन के कारण उत्पन्न नहीं होते, वे संरचनात्मक तनाव के कारण भी उत्पन्न हो सकते हैं। जब प्रचलित मूल्य व्यवस्था और प्रतिमानों की व्यवस्था लोगों की आकांक्षायें पूरी नहीं करती तो समाज मे तनाव उत्पन्न होता है। ऐसे समय में पुरानी मूल्य व्यवस्था को प्रतिस्थापित करने के लिए एक नई मूल्य व्यवस्था खोजी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप तनाव एवं संघर्ष होता है। प्रायः ऐसी स्थितियों में लोग सामाजिक प्रतिमानों का उल्लंघन करते हैं। उदाहरण के तौर पर जहां अंतर्जातीय विवाहों की अनुमति नहीं है। वहां फिर भी इन प्रतिमानों का उल्लंघन कर ऐसे कुछ विवाह होते हुए देखे जा सकते हैं। तथापि यह सामाजिक आंदोलन तक ही होते हैं, जब कि वैयक्तिक क्रियायें सामूहिक क्रियाओं द्वारा प्रतिस्थापित की जाती है। इसे और स्पष्ट करने के लिए हम महिलाओं के आंदोलन का उदाहरण ले सकते हैं। भारत जैसे पारम्परिक समाज में महिलाओं को गौण भूमिकाएं प्रदान की जाती हैं। महिलाओं से पुरुष के अधीन रहने की अपेक्षा की जाती है, परंतु हाल के वर्षों में महिलाएं घर के बाहर की भूमिकाएं भी अदा करने लगी हैं। ये महिलाएं जो मुख्यतः आजीविका कमाना, शिक्षा प्राप्त करनी आदि पुरुषों का क्षेत्र हैं, में प्रवेश करना शुरू कर दिया है। परंतु इन सभी तथ्यों ने महिलाओं के प्रचलित मूल्यों को चुनौती देने के लिए बाध्य किया। जिसका परिणाम महिला आंदोलन के रूप में सामने आया, जिसे महिला आंदोलन भी कहा जाता है, जो महिलाएं समाज में पूर्वा ग्रहों तथा बुराइयों के प्रति चैतन्य हो गई हैं, वे सामूहिक रूप से मूल्य व्यवस्था को पुनः परिभाषित करने का प्रयास कर रही हैं। ऐसी आवश्यकता इसलिए उठ खड़ी हुई क्योंकि पारम्परिक मूल्य व्यवस्था, उन महिलाओं के लिए तनाव उत्पन्न कर रही है, जो आत्मनिर्भर रूप से सोचना और निर्णय लेना चाहती है। अपने आप में यह आंदोलन पुरुषों के विरुद्ध नहीं है, यह सिर्फ एक ऐसी जोरदार अभिव्यक्ति हैं, जो यह कहती है कि प्रचलित मूल्य व्यवस्था के स्थान पर एक ऐसी मूल्य व्यवस्था होनी चाहिए, जिसका आधार सभी मानव मात्र की समानता हो।
(3) पुनर्जीविकरण: प्रायः यह देखने में आता है कि सापेक्षिक वंचन और संरचनात्मक तनाव परस्पर संबंधित होते हैं, यह परस्पर मिलकर सामाजिक आंदोलन का आधार बनाते हैं। महिला आंदोलन के मामले में सापेक्षिक वंचन, संरचनात्मक तनाव का कारण है, इसी प्रकार से सामाजिक सुधार आंदोलन की जांच करने से पता चलता है कि ये दोनों कारण उनमें विद्यमान हैं। यद्यपि सामाजिक आंदोलन व्यवस्था के विरुद्ध असंतोष और विरोध की अभिव्यक्ति करते हैं। वे सकारात्मक विकल्प भी प्रस्तुत कर सकते हैं। वस्तुतः यह भी हो सकता है कि प्रचलित संरचनात्मक तनाव से गुजरने वाली वर्तमान व्यवस्था को पुनर्जीविकृत करने के लिए ये आंदोलन प्रारंभ किये जाते हैं। अतः पुनर्जीविकरण, सामाजिक आंदोलन के उदय से जुड़ा, तीसरा कारक है।
पुनर्जीविकरण की तीव्र इच्छा देश भक्ति और राष्ट्रीय गौरव को प्रोत्साहित करने वाला आंदोलन छोड़ सकती है। दलित लोगों को सहायता देने व संगठित करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करने वाला युवा आंदोलन अथवा साक्षरता आंदोलन, इसके अन्य उदाहरण हैं। ये आंदोलन किसी समस्या को सामूहिक रूप से सुलझाने के लिए प्रारंभ किये जाते हैं। ये जिस बात को गलत समझते हैं, उसी के विरोध मात्र में नहीं होते, अपितु इसके लिए एक विकल्प भी प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं।
उपरोक्त विवेचित तीन कारक अपने आप में इस अर्थ में सम्पूर्ण नहीं हैं, जहां एक उपस्थित है, अन्य दो वहां विद्यमान नहीं हो सकते। वास्तव में, ये आपस में अंतःसंबंधित होते हैं। वस्तुतः अधिकांश सामाजिक आंदोलन में ये तीनों कारक पाये जाते हैं। इसके साथ-साथ यह भी देखा जाता है कि किसी भी आंदोलन में प्रायः कोई एक कारक अन्य दो करकों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है। किसी अन्य सामाजिक आंदोलन के उद्भव की जांच करते समय हमें इस अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण कारक का जानना आवश्यक है। यह कारण किसी भी आंदोलन की रूपरेखा को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण होता है।
Question : ‘सामाजिक नीति’ की व्याख्या कीजिए। विकासशील समाजों के आधुनिकीकरण में सामाजिक नीति के कार्यनिष्पादन का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : सामाजिक नीति सरकार के उस दृष्टिकोण को दर्शाती है जिसे वह किसी विशेष परिस्थिति के प्रति रखती है तथा उसका किस प्रकार मुकाबला करती है। भारत में शिक्षा, महिला, पर्यावरण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति नगरीकरण तथा मादक द्रव्य व्यसन से संबंधित सामाजिक नीति है। सामाजिक आंदोलन सामाजिक समस्याओं और सामाजिक नीति का आपस में प्रगाढ़ संबंध होता है।
सामाजिक आंदोलन सरकार पर यह दबाव रखते हैं कि वह सामाजिक समस्याओं के नियंत्रण के लिए सुधारवादी कार्यक्रमों को तैयार करें। यह भी सही है कि सिर्फ सामाजिक नीति को स्वीकारने और उसकी घोषणा करने से सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं होता है। उदाहरण के तौर पर, शारदा एक्ट (1929) बाल-विवाह को रोकने के लिए बनाया गया था लेकिन वह बाल-विवाह को पूरी तरह रोकने में सफल नहीं रहा। अस्पृश्यता के विरुद्ध सामाजिक विधानों को पांचवें दशक के मध्य में पारित किया गया था लेकिन वह आज तक हमारे समाज से अस्पृश्यता संबंधी व्यवहार का पूर्ण रूप से उन्मूलन नहीं कर सका। संवैधानिक प्रावधानों के होते हुए भी विद्यालय जाने योग्य सभी बालक नहीं जा पाते है। अतः समय की मांग के आधार पर यह आवश्यक है कि राज्य सामाजिक नीतियों को तभी सफल बना सकती है जब उसे जन समर्थन प्राप्त हो।
यह सही है कि सम्पूर्ण विश्व में राज्य, विचारधाराओं पर ध्यान न देकर, कल्याणकारी नीतियां स्वीकार कर रहे है जैसे कि बाल-कल्याण, युवा-कल्याण, महिला-कल्याण, वृद्ध-कल्याण, वर्गों का कल्याण, रोजगार संबंधी नीतियां, सुरक्षा स्वास्थ्य कार्यक्रम, शिक्षा, पारिस्थितिकी तथा ग्रामीण नगरीय विकास। इन नीतियों में बहुत-सी सामाजिक समस्याओं के जोखिमों को रोकने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सामाजिक समस्याओं से संबंधित नीतियां, विचारधारा पर आधारित होती है। पूंजीवादी दृष्टिकोण यह होगा कि खुला बाजार और मुक्त अर्थव्यवस्था समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगी। व्यक्ति अपने कल्याण की देखभाल कर सकते हैं। समाजवादी यह अनुभव करते हैं कि राज्य के हस्तक्षेप द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसलिए एक सरकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर नीतियों को प्रभावित करती है। सभी सामाजिक समस्याओं से संबंधित कोई एक व्यापक नीति नहीं हो सकती है। प्रत्येक समस्या को अलग-अलग सुलझाना होगा। अक्सर विशेष समस्याओं से संबंधित कानून पारित किये जाते हैं। उदाहरणार्थ मादक द्रव्य-व्यवसन, दहेज, मद्य-निषेध, बाल-मजदूर आदि।
किसी भी विकासशील देशों में बहुत से आधारभूत समस्याएं पायी जाती हैं। उदाहरण के लिए गरीबी, अशिक्षा, भूखमरी, बेरोजगारी, मकान, पानी, बिजली, रोड इत्यादि। इसके अतिरिक्त प्रति व्यक्ति आय, जनसंख्या में असामान्य वृद्धि, बाल श्रम, अत्याधिक मृत्यु दर एवं जन्म दर, उच्च मातृत्व मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, बीमारी, पोषण की समस्या इत्यादि। तीसरी तरह की समस्या है, सामाजिक असमानता जो कि जाति, वर्ग, धर्म एवं अन्य पर आधारित भारत जैसे विकासशील देशों में जाति असमानता का उच्चतम स्तर विद्यमान है। यहां पर निम्न जाति के लोगों को हेय दृष्टि के साथ देखा जाता है। अतः यह प्रथा संस्तरण एवं शुद्ध-अशुद्ध की अवधारणा पर आधारित है। सवाल उठता है कि इन तीनों समस्याओं का हल किस प्रकार सामाजिक नीति बनाकर किया जा सकता है एवं समाज के आधुनिकीकरण में मदद कर सकता है जिसका वर्णन हम निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं:
(i) सामाजिक नीति के द्वारा हम विभिन्न कल्याण कार्यक्रम, संवैधानिक उपाय के द्वारा समस्याओं का समाधान करने की कोशिश करते हैं। ऊपर वर्णित प्रथम प्रकार की समस्याओं का निराकरण मूलतः हम विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों के द्वारा करते हैं। अतः अगर इन समस्याओं का समाधान हम आधुनिक उपायों के अंतर्गत करते हैं तो ये शायद अधिक उपयोगी है। यहां पर कहने का मतलब है कि स्वयंसेवी संस्थाओं एवं विभिन्न सहयोगी एवं निःस्वार्थ संगठनों के माध्यम से हम इन समस्याओं को प्रभावशाली रूप में दूर कर सकते हैं। जहां तक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की बात है तो शिक्षा के कार्यक्रमों के द्वारा इन समस्याओं से ग्रहित लोगों के बीच चेतना का संचार कर सकते हैं जो कुछ अंशतः रूप से आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में योगदान कर सकता है परंतु मुश्किल है।
(ii) दूसरी प्रकार के समस्याओं के लिए हमें बहुत ही प्रायोगिक ढंग से नीतियों का प्रतिपादन करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, जनसंख्या नीति 2000, जिसके अंतर्गत इन सारी समस्याओं की बात कही गयी है परंतु इससे भी अधिक आवश्यक है लोगों के बीच नीति के प्रति जागरूकता की प्रवृति का विकास करना। जहां तक इस स्थिति में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की बात है तो यह विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के आधार पर इस समस्याओं की समाप्ति के लिए उपाय किये जा सकते है। विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के द्वारा जनसंख्या एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्या को दूर किया जा सकता है। इस स्थिति में आधुनिकीकरण की देन विज्ञान एवं प्रोद्योगिकीय नीति निश्चित रूप से कार्य कर सकती है। अतः इस रूप में सामाजिक नीति आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में भूमिका निभा सकती है।
(iii) तीसरी प्रकार की समस्या के समाधान के लिए भारत में अनेक संवैधानिक प्रावधान है। इतना ही नहीं निम्न जाति एवं जनजाति के लोगों को विभिन्न प्रकार के रोजगार एवं राजनैतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण प्राप्त है। अतः इस रूप में सामाजिक नीति का योगदान निश्चित रूप से अधिक प्रभाशाली एवं उपयोगी है। ये सारे प्रावधान एवं उपाय मुख्य रूप से आधुनिकीकरण का ही योगदान माना जा सकता है। क्योंकि अंग्रेजी शासन के समय से ही इन चीजों- छुआछूत, ऊंच-नीच का भेदभाव इत्यादि के प्रति जागरूकता उत्पन्न होना शुरू हो गया था। इस प्रक्रिया में शिक्षा एवं राजनैतिक चेतना का अत्याधिक योगदान रहा है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि सामाजिक नीति एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया एक-दूसरे से संबंधित है।
(iv) आज के भूमंडलीकरण एवं निजीकरण के समय में निश्चित रूप से सामाजिक नीति का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है। इन प्रक्रियाओं ने हमारी गतिशीलता एवं अंतःनिर्भरता को बढ़ाया है। अतः 1990 के बाद से ही आर्थिक सुधार की प्रक्रिया चल पड़ी है। जिसमें सामाजिक नीति का महत्वपूर्ण योगदान है। ये सुधार वास्तव में न सिर्फ आर्थिक क्षेत्रों तक ही सीमित है बल्कि इसका संबंध सामाजिक क्षेत्रों से अधिक है। निश्चित रूप से ये प्रक्रियाएं ऐसी सामाजिक नीतियों को बनाने को प्रोत्साहित करती हैं जो आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाये एवं देश में सामाजिक विकास हो।
अतः ऊपर वर्णित तथ्य यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक नीति न सिर्फ सामाजिक समस्या से जुड़ी हुई है बल्कि यह सामाजिक आंदोलन विचारधारा एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से भी संबंधित है।
Question : प्रजातंत्र में दबाव समूह की भूमिका।
(2000)
Answer : किसी एक विशिष्ट वर्ग (सरकार, जनसमूह या हित समूह) के समूह के हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु आपस में मिलकर व्यक्तियों, मालिकों या अन्य संगठनों के समूहों को दबाव गुट कहा जाता है। दबाव गुट, हित समूह, समर्थन समूह, अन्य प्रकार के सामाजिक समूहों और क्लबों से इस बात में भिन्न होते हैं कि इन समूहों का व्यक्त प्रयोजन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जनमत जुटाना और निर्णय लेने वाली संस्थाओं को अपनी मांगों के प्रति समर्थन और स्वीकृति के लिए बाध्य किया जाना होता है। इनकी मांगें विद्यमान दशाओं को ही जारी रखना या उनमें परिवर्तन या संशोधन करना हो सकता है। दबाव-समूहों के राजनीतिक दलों से विशेष संबंध होते हैं। ये दबाव-समूह उस राजनैतिक दल, जिनसे वे जुड़े होते हैं, उन पर अपने हितों की पूर्ति के लिए दबाव डालते हैं। ब्रिटेन में श्रमिक संगठन लेबर पार्टी पर और भारत में विश्व हिंदू परिषद् भारतीय जनता पार्टी पर इस प्रकार दबाव बनाये हुए हैं।
अतः उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि प्रजातंत्र में दबाव समूह की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्रभावकारी है। वर्तमान समय में जैसा कि हम जानते हैं कि गठबंधन का युग है जिसके फलस्वरूप दबाव समूह की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि राजनीतिक दलों की संख्या अधिक होती है। अधिक राजनीतिक दलों के कारण यह स्पष्ट है कि दबाव समूहों की संख्या भी उतनी ही अधिक होगी। अतः इस स्थिति में समाज केप्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व होने की संभावना अत्यधिक होती है। इस प्रकार से इसका लाभ समाज के हर एक तबकों के बीच पहुंच पायेगा एवं समस्याओं का अवलोकन अधिक से अधिक हो पायेगा।
Question : क्या विचारधारा किसी सामाजिक आंदोलन का एक अत्यावश्यक अवयव होती है? कुछ समकालीन सामाजिक आंदोलन से उपयुक्त उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए, अपने उत्तर को स्पष्ट कीजिए।
(2000)
Answer : किसी भी सामाजिक आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करने में नेतृत्व एवं विचारधारा की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विचारधारा लोगों के समूहों द्वारा माने जाने वालों विश्वासों की एक व्यवस्था है। यह स्थिति को समझने में मदद करती है। इसके अतिरिक्त यह लोगों के द्वारा अपनाई गई क्रियाओं को वैधता प्रदान करती है। इस प्रकार जैसे किसी आंदोलन के मार्ग दर्शन हेतु नेतृत्व आवश्यक होता है। उसी प्रकार विचारधारा भी आवश्यक होती है, क्योंकि यह लोगों को उनकी क्रियाओं का अर्थ स्पष्ट करती है और क्रियाओं का औचित्य सिद्ध करती है। कोई भी किसी सामाजिक आंदोलन की बिना विचारधारा के शायद ही कल्पना कर सकता है।
उदाहरण के तौर पर हम देखें तो विचारधारा की भूमिका का पता चलता है। जब महिलाएं समाज में यौन असमानता की समस्या का अनुभव करती हैं तो वे समाज में विद्यमान इन समस्याओं से जूझने के लिए एक सामाजिक आंदोलन संगठित करती है। यह सामूहिक प्रक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती है। कुछ लोग हिंसात्मक साधनों के प्रयोग को भ्रष्ट शक्ति मान सकते हैं, जबकि कुछ अन्य इसे आवश्यक साधन मानते हैं। समस्या तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए साधनों को पहचानने में अनेक प्रकार की विभिन्नताएं सामाजिक आंदोलनों में मिलती हैं, जिन्हें विचारधारा निर्धारित करती हैं। अतःविचारधारा सामाजिक समूहों तथा व्यक्तियों के उद्देश्यों, साधनों तथा व्यावहारिक गतिविधियों के स्वरूपों को निर्देशित करती हैं। यह विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक तथा नैतिक आदर्शों के लिए औचित्य प्रदान करती है।
प्रायः यह हमें देखने को मिलता है कि समान उद्देश्यों वाले अनेक सामाजिक आंदोलन इन उद्देश्यों के प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न साधन अपनाते हैं। नक्सलवादी आंदोलन एवं भूदान आंदोलन दोनों का समान उद्देश्य था कि ग्रामीण निर्धनों की समस्याओं से निपटने में सहायता की जाये। भूदान आंदोलन ने एक शांतिपूर्ण, अहिंसक पद्धति को अपनाया। इसने धनी भूमिपतियों से अपनी अतिरिक्त भूमि का ग्रामीण निर्धनों को दान करने की अपील द्वारा निर्धनों को भूमि का वितरण करना चाहा। दूसरी ओर, नक्सलवादी आंदोलन ने अधिक बलपूर्वक साधन अपनाएं। इसकी मान्यता थी कि भूमि पति निर्धनों के शत्रुहैं। अतः निर्धनों की सहायता का एक मात्र तरीका, उनके शत्रुओं को समाप्त करना था। दोनों आंदोलनों ने अपनी क्रियाओं को उचित ठहराया। अतः इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि किस प्रकार समान उद्देश्यों के होते हुए भी विचारधारा, एक सामाजिक आंदोलन को अन्य सामाजिक आंदोलन से भिन्न करती है।
इसके अतिरिक्त अगर हम सामाजिक आंदोलन में विचारधारा की भूमिका का आकलन करें तो यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न प्रकार के पर्यावरण से संबंधित आंदोलन में भी मुख्य भूमिका रही है। पर्यावरण संरक्षण के आंदोलनों ने अनेक मार्ग अपनाये हैं। इन विभिन्न आंदोलनों के उद्देश्य समान हैं-प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण। तथापि, पर्यावरण किस प्रकार संरक्षित किया जाना चाहिए इसके बारे में मतभेद है। सुंदरलाल बहुगुणा एक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसको अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हो चुकी है। इस आंदोलन को ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है, तथा यह उत्तर प्रदेश के गढ़वाल क्षेत्र में पेड़ों की कटाई रोकने में प्रभावी सिद्ध हुआ है। दूसरी ओर उसी क्षेत्र में वनों के संरक्षण के समान उद्देश्य वाला एक अन्य आंदोलन चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में चल रहा है। इस आंदोलन के साधन ‘चिपको आंदोलन’ से कुछ भिन्न है। भट्ट के आंदोलन की यह मान्यता है कि इस क्षेत्र में लोगों को रोजगार देने के लिए लघु उद्योगों को अनुमति मिलनी चाहिए। यह आंदोलन इस बात पर महत्व देता है कि वन आवश्यक हैं परंतु यदि लोगों को वन से जुड़े व्यवसाय उपलब्ध नहीं हुए तो लोग आजीविका कमाने के लिए पेड़ों को काटने के लिए बाध्य हो जायेंगे। यह आंदोलन औद्योगीकरण को आधुनिकीकरण के एक रूप की तरह समझता है लेकिन वे यह चाहते हैं कि औद्योगीकरण में नियमितता होनी चाहिए। इस मुद्दे पर चिपको आंदोलन का भिन्न मत है। भट्ट के आंदोलन की मान्यता है कि औद्योगीकरण, प्रगति का एक स्वरूप है, जबकि इस बारे में बहुगुणा वाले आंदोलन के भिन्न विचार हैं। दोनों आंदोलन विचारधारा के आधार पर अपनी-अपनी पद्धति को उचित ठहराते हैं।
एक आंदोलन को दूसरे आंदोलन से भिन्न करने के अतिरिक्त, विचारधारा आंदोलन को लंबे समय तक बनाये रखने में मदद करती है। सामाजिक आंदोलन को यह साधारण दृष्टांतों से भिन्न करती है। जब भी लोग वंचित महसूस करते हैं, उन्हें सक्रिय किया जा सकता है। तथापि, आंदोलन को निरंतर चलाने के लिए अपनी क्रियाओं के लिए उन्हें कुछ औचित्य की आवश्यकता होती है। जब राजवंशियों ने अनुभव किया कि उन्हें निम्न माना जा रहा है तो क्षत्रिय आंदोलन का प्रारंभ हुआ। परंतु आंदोलन को बनाये रखने के लिए उन्हें इस मान्यता की आवश्यकता थी कि वे वास्तव में मूलरूप से उच्च जाति के थे।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि विचारधारा सामाजिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह आंदोलन की अभिव्यक्ति करती है, इसे बनाये रखती है तथा इसका समाधान प्रस्तुत करती है। नेतृत्व एवं विचारधारा दोनों अनिवार्य है, क्योंकि नेतागण वैचारिक ढांचे के अंतर्गत कार्य करते हैं।
Question : सामाजिक नियंत्रण जोर-जबरदस्ती के मुकाबले दृढ़ विश्वास का मामला अधिक है। टिप्पणी कीजिए। सामाजिक नियंत्रण में विचारधारा की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
(1999)
Answer : ‘सामाजिक नियंत्रण’ का संबंध मौटे तौर पर समाज में व्यवस्था और स्थिरता बनाए रखने से है। सीमित तौर पर इसका इस्तेमाल नियमों, अदालतों, पुलिस जैसे व्यवस्था बनाए रखने के विशेष प्रकार के साधनों को निर्दिष्ट करने में किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल सामाजिक संस्थानों और उसके अंतःसंबंधों को श्रेणीबद्ध करने में भी किया जाता है क्योंकि इससे सामाजिक स्थिरता में सहायता मिलती है, उदाहरण् के लिए कानूनी, धार्मिक, राजनीतिक संस्थान आदि। सामाजिक नियंत्रण समाजशास्त्रीय विवेचन के अत्यंत बुनियादी विषयों में से एक है और यह स्थिरता तथा परिवर्तन की प्रकृति एवं कारणों के बारे में सभी तर्कों में मौजूद रहता है।
सामाजिक नियंत्रण से संबंधित उपर्युक्त उक्ति ‘सामाजिक नियंत्रण जोर-जबरदस्ती के मुकाबले दृढ़ विश्वास का मामला अधिक है।’इस कथन की सार्थकता पर विचार करने के लिए हमें सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न तरीकों पर प्रकाश डालना होगा। सामाजिक नियंत्रण के तरीकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (क) अनौपचारिक (ख) औपचारिक। अनौपचारिक तरीके अनियमित और अलिखित होते हैं। इनमें नियम, कार्यक्रम और संगठन का अभाव होता है। अनौपचारिक तरीकों मे कभी-कभी प्रशंसा, निन्दा, नुक्ता-चीनी, निर्वासन का भाव निहित होता है। औपचारिक तरीकों को संहिताबद्ध किया जा सकता है, उनकी सूची बनाई जा सकती है और उन्हें संगठित या नियमित किया जा सकता है, जैसे- पदोन्नति, पदावनति उपहास, मुद्रा भुगतान, जनसम्पर्क आदि के मामले में होता है।
(1) अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रणः इसे प्राथमिक सामाजिक नियंत्रण भी कहा जाता है क्योंकि यह उन समूहों में अत्यंत प्रभावकारी होता है जिन्हें समाजशास्त्री प्राथमिक समूह कहते हैं। प्राथमिक समूह अपेक्षाकृत अधिक समरूप, लघु, ठोस, और अंतरंग होते हैं। इनके सदस्य व्यक्तिगत निष्ठा की भावना के जरिए एक-दूसरे और समूह से जुड़े होते हैं। परिवार, खेल समूह, पड़ोसी, ग्रामीण समुदाय और सहज आदिम समाज इस तरह के ठोस सामाजिक समूहों के कुछ उदाहरण है। इस तरह के समाजों में प्रत्येक व्यक्ति लगातार सामाजिक नियंत्रण की अत्यंत सूक्ष्म और शक्तिशाली क्रियाविधि से घिरा होता है। परिवार में वह अपने अभिभावकों और परिवार के सदस्यों के नियंत्रण में रहता है। परिवार, पड़ोसियों या सगोत्रीय समूहों और सभी समूचे समाज के चौकस नियंत्रण में रहते हैं इसलिए कोई भी व्यक्ति या समूह सामाजिक नियंत्रण की गिरफ्रत से बच नहीं सकता।
हम कह सकते हैं कि इस तरह की सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक नियंत्रण व्यक्तियों और समूहों के चारों और सजे समकेंद्रीय घेरों के रूप में मौजूद होता है। इस प्रकार के नियंत्रण की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह अनौपचारिक, स्वतः स्फूर्त, और अनियोजित होता है। आमतौर पर समूह निर्धारित रास्ते से हट रहे समाज के सदस्यों की निन्दा, नुक्ताचीनी, तिरस्कार, आलोचना, बहिष्कार करता है और कभी-कभी बल प्रयोग और जोर-जबर्दस्ती के जरिए अपनी असहमति व्यक्त करता है। चूंकि समूह ठोस होता है, बंधन मजबूत होते हैं। सदस्य एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं और व्यक्ति के सम्मुख किसी दूसरे समूह की सदस्यता का कोई विकल्प नहीं होता। अतः वह अपने समूह की अस्वीकृति की उपेक्षा नहीं कर सकता और अपने समूह की अपेक्षाओं के अनुरूप अपने को ढाल लेता है।
नियंत्रण के ये तरीके न केवल प्राथमिक समूहों और संबंधों के बहुतायत वाले आदिम समाजों में कारगार होते हैं, बल्कि हम लोगों जैसे आधुनिक जटिल समाजों में, खासतौर से द्वितीयक समूहों के भीतर अत्यंत कारगर होते हैं, जहां संगठन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इस तरह के अनौपचारिक नियंत्रण का इस्तेमाल किया जाता है।
(2) औपचारिक सामाजिक नियंत्रणः इसे द्वितीयक सामाजिक नियंत्रण भी कहते हैं क्योंकि यह आमतौर पर बड़े द्वितीयक सामाजिक समूहों मे पाया जाता है। हम लोगों जैसे आधुनिक जटिल समाज इस तरह के सामाजिक समूहों के अच्छे उदाहरण हैं। इस तरह के समाजों में ऐसे अनेक समूह होते हैं जिनमें निजी संबंधों को कोई महत्व नहीं दिया जाता और जिनकी शुरुआत कुछ खास उद्देश्यों को लेकर की गई होती है। राजनीतिक दल, मजदूर संघ, कारखाना, कार्यालय, छात्र संघ आदि इस तरह के समूहों के कुछ उदाहरण हैं। इस तरह के द्वितीयक समूहों के सदस्यों में संबंध ज्यादा औपचारिक और कम अन्तरंग होते हैं। इनके संबंध काफी हद तक कानूनों, नियमों, व्यवस्थाओं और मानवीकृत प्रक्रियाओं द्वारा संचालित होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि निन्दा, आलोचना या नुक्ताचीनी जैसे अनौपचारिक समूहों का विकास इस तरह के औपचारिक संगठनों में ही होता है। किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज में अध्यापकों और छात्रों के बीच कुछ खास तरह के गुट बने होते हैं और इन गुटों में अनौपचारिक नियंत्रण ज्यादा कारगार होते हैं। प्रश्न यह है कि औपचारिक संगठनों में विकसित होने वाले इस प्रकार के अनौपचारिक समूह, औपचारिक द्वितीयक नियंत्रणों को या तो रोकते हैं या उन्हें सुगम बनाते हैं और इस प्रकार संगठन के कामकाज को प्रभावित करते हैं।
आमतौर पर द्वितीयक समूहों में अनौपचारिक नियंत्रण स्थान ग्रहण करते हैं? इस तरह के नियंत्रण में रचनात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रतिबंध लागू किये जाते हैं। रचनात्मक प्रतिबंध में पुरस्कार, सम्मान और नकारात्मक प्रतिबंध में दंड, बहिष्कार आदि का उपयोग किया जाता है। बड़े समाज में इस तरह के नियंत्रण के उदाहरण हैः कानून, पुलिस, अदालत, जेल तथा कानून का परिपालन कराने वाली अन्य एजेंसियां इन अत्यंत रूपों के अलावा औपचारिक नियंत्रण के तरीकों में, सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था के लिए जनसंचार के माध्यमों द्वारा सुनियोजित प्रोपेगेंडा यानि प्रचार भी शामिल होता है। बड़े द्वितीयक समूहों में गुमनामी, गतिशीलता में वृद्धि और मानकों तथा मूल्यों में विरोधाभास के कारण अनौपचारिक नियंत्रण ढीले पड़ जाते हैं। अन्तरंगता कम होती जाती है और सदस्यों में एक-दूसरे के प्रति व्यक्तिगत या भावनात्मक संबंध नहीं होते। वे लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान तक या एक समूह से दूसरे समूह में आते-जाते रहते हैं। इस प्रकार वे आसानी से किसी खास समूह के नियंत्रण से बच सकते हैं। यही नहीं, एक जटिल समाज में विभिन्न समूहों के आदर्शों और मूल्यों में टकराव बराबर बना रहता है। एक समूह किसी ऐसे आचरण को स्वीकार कर सकता है, जिसे किसी अन्य समूह ने अस्वीकार कर दिया हो। ऐसी परिस्थिति में अन्ततः सामाजिक नियंत्रण को औपचारिक संस्थाओं का सहारा लेना पड़ता है।
वास्तव में, विचारधारा सामाजिक समूहों तथा व्यक्तियों के उद्देश्यों, साधनों तथा व्यावहारिक गतिविधियों के स्वरूपों को निर्देशित करती है। यह विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक तथा नैतिक आदर्शों के लिए औचित्य प्रदान करती है। परिभाषा निश्चित रूप से यह स्पष्ट करती है कि विचारधारा सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों तरीकों में भूमिका प्रदान करती है। उदाहरण के तौर पर हम कह सकते हैं कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की एक निश्चित विचारधारा होती है जिसके द्वारा वह अपने सदस्यों को नियंत्रित एवं संचालित करती है। सामाजिक आंदोलन के अंतर्गत भी एक निश्चित विचारधारा काम करती है। विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठन भी इसी प्रकार विचारधारा के आधार पर अपने क्रिया-कलापों को संचालित एवं नियंत्रित करता है। निश्चित रूप से विचारधारा एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्तियों के बीच शिष्टाचार की प्रवृति का विकास करता है। अगर हम परिवार, विद्यालय एवं धर्म की बात करें तो ये भी एक निश्चित नियम एवं शिष्टाचार के तहत संचालित होती है जिसे विचारधारा के रूप में देखा जा सकता है।
Question : लोकतांत्रिक राजनीतिक तंत्र का पारंपरिक सामाजिक संरचना पर प्रभाव
(1999)
Answer : लोकतांत्रिक राजनीतिक तंत्र में शासन जनता द्वारा सभी वयस्क मताधिकारियों की स्वतंत्र तथा समान सहभागिता पर आधारित होता है। जन-प्रतिनिधियों का चुनाव बहुसंख्यक जनता के मतों द्वारा होता है। लोकतांत्रिक चुनाव पद्धति की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-
लोकतंत्र मे लिंग, आयु, जाति, प्रजाति, धर्म, सम्पदा, व्यवसाय, प्रतिभा, कुल, पद, प्रस्थिति जैसी व्यक्तिगत विशेषताओं को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। किंतु इस प्रकार का नितान्त विशुद्ध-प्रजातंत्र शायद ही कहीं विद्यमान रहा हो और संभवतः बहुत कम समय के लिए कभी कहीं स्थापित होकर समाप्त हो गया हो। अतः विशुद्ध प्रजातंत्र एक असंभवता है। फिर भी, लोकतांत्रिक राजनीतिक तंत्र का प्रभाव परंपरात्मक सामाजिक सरंचना पर पड़ा है। इस तंत्र के फलस्वरूप पारंपरिक समाज के विभिन्न संरचनात्मक परिवर्तन हुए हैं। उदाहरणार्थ, जाति प्रथा पहले सामाजिक स्तर पर देखा जाता था परंतु आज इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कारण जाति एक राजनीतिक चेतना बन गयी है। जाति के आधार पर बहुत सारे राजनीतिक दलों का निर्माण हो रहा है, जिसका उद्देश्य इन वर्ग के लोगों को सभी क्षेत्रों में समुचित प्रतिनिधित्व दिलाना होता है। बहुजन समाज पार्टी इसका एक सर्वोत्तम उदाहरण है।
प्रजातांत्रिक प्रक्रिया के फलस्वरूप ग्रामीण जनता के बीच भी जागरूकता पैदा हुई। ये लोग प्रत्येक दिन रेडियों एवं टेलीविजन पर समाचार सुनते एवं देखते हैं, जिससे लोगों में राजनीतिक चेतना का संचार हुआ है। लोकतंत्र के परिणामस्वरूप आज भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, इसलिए समाज के सभी धर्म के लोगों की हर एक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व की डिमांड की जाती है। राजनीतिक दल भी धर्म एवं जाति के आधार पर सीटों का बंटवारा करते हैं। अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक तंत्र के फलस्वरूप पारंपारिक सामाजिक संरचना में परिवर्तन हुए हैं।
Question : सामाजिक आंदोलन और क्रांति के बीच समान बातों को उजागर कीजिए। क्या आप इस विचार से सहमत होंगे कि प्रत्येक क्रांति से पहले सामाजिक आंदोलन हुआ करता है। कारण प्रस्तुत कीजिए।
(1999)
Answer : सामाजिक आंदोलन और क्रांति दोनों ही सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। सामाजिक आंदोलन व्यक्तियों का ऐसा सामूहिक प्रयास है जिसका एक सामान्य उद्देश्य होता है और उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थागत सामाजिक नियमों का सहारा न लेकर लोग अपने ढंग से व्यवस्थित होकर किसी परम्परागत व्यवस्था को बदलने का प्रयास करते हैं। जबकि क्रांति सामाजिक आंदोलन से भी ज्यादा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम हैं।
गिडेन्स ने सामाजिक आंदोलन को निम्नांकित शब्दो में परिभाषित किया है- “A Social movement may be defined as collective attempt to further common enterest, of secure a common goal through collective action outside the sphere of established institutions.” इन्होंने ही क्रांति को इन शब्दों में परिभाषित किया है- “We can define a revolution as the seizure at state power through violent means by the leaders of a mass movement, where that power is subsequently used to enitiali major processes of social reforms.”
वास्तव में, सामाजिक आंदोलन परम्परागत व्यवस्था के विरोध में एक स्थापित जनसमूह है, जबकि क्रांति भी इसी तरह की स्थापित जनसमूह है। क्रांति में पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नयी व्यवस्था स्थापित की जाती है।
सामाजिक आंदोलन एवं क्रांति दोनों ही जन आंदोलन है एवं दोनों एक निश्चित विचारधारा के तहत अपनी कार्यवाही करते हैं परंतु दोनों की क्रियाविधि में स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है।
यह तथ्य कि प्रत्येक क्रांति से पहले सामाजिक आंदोलन होता है, को स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल होता है फिर भी दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। इस बात पर सहमति हो सकती है कि जब एक निश्चित ढंग से अर्थात् सामाजिक आंदोलन के तौर पर परंपरागत समाज को बदलने में असमर्थता प्रतीत होती है। तो यह उग्र रूप धारण कर लेती है जिससे यह क्रांति में रूंपातरित हो जाती है। परंतु यह वास्तव में समय एवं समाज की परिस्थिति एवं स्थान पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ, 1775-1783 की अमेरिकी क्रांति एवं 1789 की फ्रांसिसी क्रांति के पहले कोई सामाजिक आंदोलन हमें देखने को नहीं मिलता है। दूसरी बात यह भी है कि सामाजिक आंदोलन के अंतर्गत हम विभिन्न प्रकार के आंदोलनों की बात करते हैं, जिसमें रूपान्तकारी आंदोलन, सुधारात्मक आंदोलन, मुक्ति आंदोलन, वैकल्पिक आंदोलन इत्यादि। इन आंदोलनों का मुख्य कार्य समाज में उपस्थित विभिन्न बुराइयों को दूर किया जाए जबकि क्रांति हमेशा से राजनीतिक आधारित प्रक्रिया रही है। क्रांति स्वतंत्रता सामाजिक समानता और प्रजातंत्र की बात करती है। दूसरी ओर, अगर हम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बात करें तो यह बात सामने आती है कि अस्तित्व अलग-अलग रहा है चाहे उसका उद्देश्य एक ही क्यों न हो। अतः यह कहना उचित नहीं लगता कि प्रत्येक क्रांति से पहले सामाजिक आंदोलन होता है। साथ ही इस विचार को अधिक स्पष्ट करने के लिए हमें यह विचार करना पड़ेगा कि किसी सामाजिक आंदोलन को क्रांति कहा जाय या नहीं एवं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस क्रांति के अंतर्गत निम्नलिखित शर्तें मौजूद है या नहीं।
गिडेन्स के अनुसार सामाजिक आंदोलन को क्रांति कहे जाने के लिए तीन शर्तों का पूरा होना आवश्यक है, वे हैं-
(i) क्रांति कई घटनाओं की एक कड़ी नहीं है, बल्कि यह एक बड़े पैमाने पर विशाल जन-आंदोलन है। पर यदि कोई आंदोलन चुनाव के माध्यम से सत्ता के हस्तांतरण में सफल होता है तो उसे क्रांति नहीं कहा जायेगा। उसी तरह यदि कोई उच्च सेना अधिकारी शासन की बागडोर जबर्दस्ती एकाएक छीन या हथिया लेता है तो उसे भी क्रांति की संज्ञा नहीं दी जा सकती है।
(ii)क्रांति का मुख्य उद्देश्य वृहत् सामाजिक सुधार या परिवर्तन है। नेताओं में इतनी क्षमता होनी चाहिए कि जिन उद्देश्यों के लिए क्रांति की गई है, उसे बहुत हद तक वे अमलीजामा पहनाने में सफल हों। इस बात की पुष्टि स्कॉकपॉल एवं जॉन डन ने भी की है।
(iii)क्रांति एक राजनीतिक परिवर्तन है, जिसका मुख्य आधार हिंसा होती है। समाज में इसकी तभी आवश्यकता पड़ती है, जब समाज में वर्तमान नेता कुछ सही सोचने एवं मानने के लिए तैयार नहीं होतें हैं।
यदि किसी सामाजिक आंदोलन में ये तीन बातें नहीं है तो उसे हम मात्र सामाजिक आंदोलन कहेंगे, क्रांति नहीं। क्रांति की अवधारणा में एक बात और छिपी है कि इसके द्वारा सिर्फ नयी सामाजिक संरचना की स्थापना ही नहीं होती है बल्कि विकास की नयी संभावनाएं बनती है। अर्थात क्रांति में प्रगति या सामाजिक विकास की अवधारणा भी सन्निहित है। क्रांति मात्र सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं है। यह एक शर्त आवश्यक है, पर किसी निश्चित उद्देश्य के आभाव में इस प्रक्रिया को सही मायने में क्रांति नहीं कहा जा सकता है।
कुछ विचारकों का कहना है कि क्रांति का स्वरूप अहिंसक भी हो सकता है। मानव के इतिहास में कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिसे क्रांति की संज्ञा दी जाती है पर उस क्रांति में कोई हिंसा की बात नहीं थी। इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति एक अहिंसक क्रांति का उदाहरण है।
Question : शक्ति की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए। शक्ति और प्राधिकार के बीच विभेदन कीजिए।
(1998)
Answer : मानव पर प्रभुत्व करने, उन्हें भयभीत करने और नियंत्रित करने, आज्ञा-पालन करने, उनकी स्वतंत्रताओं में हस्तक्षेप करने तथा उनके व्यवहार को एक विशिष्ट दिशा में मोड़ने के लिए बाध्य करने की योग्यता अथवा सत्ता को शक्ति कहते हैं। संक्षेप में यह व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित, व्यवस्थित, नियंत्रित अथवा निर्देशित करने की क्षमता को इंगित करती है। शक्ति व्यक्तिगत करिश्मा या पंरपरा या तार्किक स्वीकृति की निष्पति हो सकती है या संपदा अथवा सैनिक शक्ति के एकाधिकार का परिणाम हो सकती है। दूसरे व्यक्तियोंके व्यवहारों को व्यवस्थित (नियंत्रित) करने तथा उनके संबंध में निर्णय लेने के प्रस्थापित अधिकार को सत्ता कहते हैं। यह शक्ति के प्रयोग के प्रमुख रूपों में से एक है जिसमें अनेक व्यक्तिगत मानवीय कर्त्ताओं की क्रियाओं को आदेशात्मक तरीके से निर्देशित किया जाता हैं ताकि किसी विशिष्ट लक्ष्य अथवा सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके।
प्रत्येक संगठित समूह में सत्ता के तत्व मूल रूप से मौजूद रहते हैं। संगठित समूह के तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं: (1) साधारण व्यक्ति, (2) वे व्यक्ति जिनके पास उत्तरदायित्व होता है और इसके साथ ही उनके पास सत्ता भी होती है जिनके माध्यम से वे अपने दायित्व का निर्वाह करते हैं, (3) प्रधान प्रशासक। सत्ता की दृष्टि से समूह की रचना इसी प्रकार की होती है। जिसमें ये तीनों तत्व पाए जाते हैं।
मैक्स वेबर को अनुसार समाज में सत्ता विशेष रूप से आर्थिक आधारों पर आधारित होती है, यद्यपि आर्थिक कारक सत्ता के निर्धारण में एकमात्र कारण नहीं कहा जा सकता है। सत्ता उन्हीं के हाथों में रहती है जिनके पास सम्पत्ति एवं उत्पादन के साधन होते हैं। इसलिए ही पूंजीपति वर्ग उत्पादन के साधनों एवं मजदूरों की सेवाओं पर अधिकार पाने का प्रयत्न करते हैं और मजदूर भी अपने श्रम के बदले अधिकाधिक अधिकार पाने का प्रयास करते हैं। सत्ता के द्वारा ही पूंजीपति मजदूर की स्वतंत्रता को खरीदता है और उसे श्रमिक पर एक विशेष प्रकार का अधिकार प्राप्त होता है। यद्यपि वर्तमान में इस प्रकार की सत्ता क्षींण होती जा रही है। फिर भी आर्थिक जगत में सत्ता के निर्धारण में निजी संपत्ति और उत्पादन के साधनों का प्रमुख हाथ है।
मैक्स वेबर ने सत्ता के स्वरूपों को निम्नलिखित भागों मे विभाजित किया हैः
(1) बौद्धिक वैज्ञानिक सत्ता: वेबर के अनुसार बुद्धि संगत या बौद्धिक वैज्ञानिक सत्ता वह है जिसमें व्यक्ति किसी पद के कारण सत्ता का प्रयोग करता है। जैसे- मुख्यमंत्री का पद, जज का पद, नगरपालिका अध्यक्ष का पद आदि। समाज में व्यक्तियों को इन्हीं आधार पर अन्य जो पद प्राप्त होते हैं। मैक्स वेबर इन्हें बौद्धिक और वैधानिक सत्ता कहकर संबोधित करता है। मैक्स वेबर द्वारा प्रतिपादित इस सत्ता की प्रमुख दो विशेषताएं हैः
(क)इस सत्ता की पहली विशेषता इसका विवेक सम्मत होना है। समाज में उन्हीं व्यक्तियों को यह सत्ता प्रदान की जाती है जो बौद्धिक दृष्टि से आगे रहते हैं।
(ख)इस सत्ता की दूसरी विशेषता कानून-सम्मत होना है अर्थात् व्यक्तियों को जो सत्ता प्रदान की जाती है वह वैधानिक होती है और कानूनी भी होती है।
वास्तव में, बौद्धिक वैज्ञानिक सत्ता में एक विशिष्ट सोपान परंपरा पायी जाती है। कुछ व्यक्तियों का पद ऊंचा होता है, कुछ का निम्न और अन्य व्यक्तियों का निम्नतर। इस प्रकार समाज में पायी जाने वाली संपूर्ण सत्ता एक विशिष्ट सोपान परंपरा में विभाजित हो जाती है। इससे व्यक्तियों का पद और क्षेत्र निश्चित तथा संकुचित हो जाते हैं।
नौकरशाही बौद्धिक वैज्ञानिक सत्ता का आधुनिक समाज में सबसे अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। वेबर ने यह स्वीकार किया है कि इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था में सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किये जाते हैं। साथ ही ये व्यवहार व्यक्तिगत लगाव और पक्षपात से परे होते हैं।
(2) परंपरागत सत्ता: मैक्स वेबर के अनुसार सत्ता का दूसरा रूप परंपरात्मक होता है। यह सत्ता न तो बौद्धिक होती है और न ही वैधानिक। यह पद व्यक्ति को इसलिए प्राप्त होता है कि परंपराएं यह स्वीकार करती है कि पंचों, सरपंचों, ग्राम प्रधान, परंपरात्मक शासकों, धर्म देवताओं को समाज में सत्ता प्राप्त होती हैं, वह परंपरात्मक सत्ता कहलाती है। इसी प्रकार पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की सत्ता का निर्धारण उनके कार्यों और कानून के द्वारा निर्धारित न होकर परंपरात्मक होता है। इसी प्रकार माता-पिता की आज्ञा का पालन करना, बच्चे परंपरात्मक रीति से सीखते हैं वैधानिक रीति से नहीं।
इस प्रकार की सत्ता को, जो महत्व प्रदान किया जाता है, वह पद के कारण न होकर परंपराओं के कारण होता है। उदाहरण के लिए, भारतीय वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रियों को जो अधिकार प्रदान किये गये थे उनका आधुनिक स्वरूप मात्र परंपरात्मक रह गया है। हम अपने सामाजिक जीवन में अनेक मूल्यों और आदर्शों को स्वीकार करते हैं। यह स्वीकृत बौद्धिक या वैधानिक आधार पर न होकर परंपरात्मक आधार पर होती है। समाज में पायी जाने वाली अनेक प्रथाओं का पालन हम सिर्फ परंपरा के कारण करते हैं।
जिस प्रकार वैधानिक सत्ता की कोई सीमा नहीं है ठीक उसी प्रकार परंपरागत सत्ता को भी सीमा से नहीं बांधा जा सकता है। इसका कारण यह है कि परंपराएं मानव समाज की विरासत होती हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं।
(3) चमत्कारी या करिश्माई सत्ता: करिश्माई सत्ता का आधार व्यक्ति का चमत्कारी गुण अथवा विलक्षण व्यक्तित्व होता है। जिन व्यक्तियों के पास किसी प्रकार की विलक्षण शक्ति अथवा करामात होती है, वे करिश्माई सत्ता के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार के सत्ताधारी व्यक्ति की आज्ञा का पालन श्रद्धा-भक्ति के साथ किया जाता है। महात्मा गांधी की सत्ता का आधार यही करिश्माई शक्ति थी। पीर, पैगम्बर, अवतार, धार्मिक नेता या योद्धा आदि की सत्ता इसी श्रेणी में आती है।
अतः समाज में सत्ता का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सत्ता ही वह महत्वपूर्ण तत्व है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने उद्देश्यों की प्राप्ति करता है। आधुनिक समाजों की व्याख्या करते हुए हम कह सकते हैं कि वही व्यक्ति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल होता है जिसके हाथ में सत्ता या शक्ति होती है।
Question : किन संरचनात्मक दशाओं के अधीन आंदोलन उभरा करते हैं? सामाजिक आंदोलन के अधीन के किसी एक सिद्धांत का हवाला देते हुए इस पर चर्चा कीजिए।
(1998)
Answer : सामाजिक आंदोलन वैसे ही जन्म नहीं लेते। वे वहीं जन्म लेते हैं जहां सामाजिक परिस्थितियां इनके अनूकूल होती है। ये परिस्थितियां ही आंदोलन को प्रेरित करती हैं एवं आंदोलन के लिए लोगों की इच्छा जागृत करती है। हॉर्टन एवं हण्ट ने सामाजिक आंदोलन के लिए संरचनात्मक दशाओं एवं परिस्थितियों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-
उपर्युक्त सभी संरचनात्मक दशाएं सामाजिक आंदोलन में सहायक है, किंतु मात्र सहायक दशाओं से ही आंदोलन नहीं होते जब तक कि समाज में व्यापक पैमाने पर असंतोष व्याप्त न हो।
कोई भी आंदोलन निर्मित नहीं होता है वरन् उसका शनैः शनैः कई स्तरों में विकास होता है। अतः आंदोलन के इस प्रकार के विकास के विभिन्न स्तरों की व्याख्या को उद्विकासीय सिद्धांत की संज्ञा दे सकते हैं। हॉर्टन एवं हण्ट ने सभी सामाजिक आंदोलनों के उद्विकास स्तर के निम्नांकित स्तरों की चर्चा भी है।
जे.एस. हाइम्स ने सामाजिक आंदोलन के विकास के चार चरण माने हैं-