Question : उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता।
(2006)
Answer : सामाजिक गतिशीलता से तात्पर्य किसी व्यक्ति या समूह का सामाजिक स्तरण में स्थान परिवर्तन से है। यह स्थान परिवर्तन पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, धन, आदि की प्राप्ति या उसके ह्रास के कारण होता है। सर्वप्रथम सोरोकिन ने दो प्रकार की सामाजिक गतिशीलता की चर्चा की हैः
क्षैतिज गतिशीलता में व्यक्ति के व्यवसाय, स्थान आदि में परिवर्तन होता है, परंतु सामाजिक स्तरण में उसकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है। जबकि उर्ध्वाधर गतिशीलता में व्यक्ति के मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि में बढ़ोत्तरी या कमी होती है। इस प्रकार उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता भी दो प्रकार की होती हैः
सोरोकिन के अनुसार उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता वह है जिसमें कि एक व्यक्ति या समूह का स्थानांतरण एक सामाजिक स्तर से अन्य सामाजिक स्तर को होता है। उदाहरणार्थ, यदि एक व्यक्ति का स्थानांतरण, लाटरी जीत जाने के कारण निम्न आर्थिक वर्ग से उच्च आर्थिक वर्ग में हो जाता है अथवा कोई फैशन उच्च वर्ग से निम्न वर्ग निम्न वर्ग के लोगों में चला जाता है, तो उसे उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता कहेंगे। इस अर्थ में, उच्च सामाजिक स्थिति से निम्न सामाजिक स्थिति को अथवा निम्न सामाजिक स्थिति से उच्च सामाजिक स्थिति को एक व्यक्ति या समूह के स्थानांतरण की ही उर्घ्वाधर सामाजिक गतिशीलता कहते है। इसलिए सोरोकिन ने लिखा है कि स्थानांतरण की दिशा के आधार पर उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता के दो प्रकार हो सकते हैं- उधोगामी एवं अधोगामी अथवा सामाजिक उत्थान एवं सामाजिक पतन। सामाजिक उत्थान एवं सामाजिक पतन की यह प्रक्रिया हमें अनेक क्षेत्रें जैसे-आर्थिक, राजनीतिक तथा व्यवसायिक क्षेत्र में देखने को मिलती है। सोरोकिन ने यह भी लिखा है कि उधोगामी सामाजिक गतिशीलता के दो प्रमुख स्वरूप हैं:
एक सामाजिक समूह का समग्र रूप से अधोगमन या अवनति; यह अवनति दूसरे समूहों की तुलना में अपने समूह की स्थिति को गिरा देने के रूप में हो सकती है अथवा एक सामाजिक इकाई के छिन्न-भिन्न हो जाने के रूप में भी हो सकती है।
सोरोकिन ने लिखा है कि प्रथम प्रकार की अधोगामी सामाजिक गतिशीलता एक जहाज से एक व्यक्ति के पानी में गिर जाने के समान है जब कि दूसरे प्रकार की अधोगामी सामाजिक गतिशीलता में उस सम्पूर्ण जहाज के अपने समस्त यात्रियों सहित डूब जाने अथवा दुर्घटनाग्रस्त होकर टुकड़े-टुकड़े हो जाने के समान है। व्यक्तिगत स्तर पर उधोगामी अथवा अधोगामी सामाजिक गतिशीलता के अनेक उदाहरण हमें दैनिक जीवन में देखने को मिलते है, जैसे- लखपति का भिखारी बनने या साधारण व्यावसायिक पद से उच्च अधिकारी के पद पर चले जाने की बात हम प्रायः सुनते रहते हैं। पर सम्पूर्ण समूह की एक साथ उधोगामी एवं अधोगामी गतिशीलता वास्तव में ऐतिहासिक घटना बन जाती है और उसके बारे में जानकारी सामाजिक इतिहास के अध्ययन से ही हो सकती है। सम्पूर्ण समूह की उधोगामी एवं अधोगामी गतिशीलता का सबसे अच्छा उदाहरण भारतीय जाति प्रथा है। आधुनिक समय में ब्र्राह्ममण जाति की उद्योगामी सामाजिक गतिशीलता का प्रमाण मिलता है। इसलिए आधुनिक समय में ब्राह्मण जाति की सामाजिक स्थिति अब उतनी ऊंची नहीं है, जितनी कि पहले थी। वर्तमान युग में आर्थिक और राजनैतिक शक्ति वाले समूह की महत्ता बढ़ गयी है। आज नये व्यवसायों, नौकरी के अवसरों तथा राजनीतिक समान अधिकारों ने नीची जातियों को उन्नति के अवसर प्रदान किये हैं।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गतिशीलता के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्रजातंत्रत्मक समाजों में अधिक पायी जाती है और इसलिए इस प्रकार के समाजों में उदग्र सामाजिक गतिशीलता अधिक देखने को मिलती है।
Question : सामाजिक संरचना के एक सिद्धांत के रूप में जाति- व्यवस्था।
(2006)
Answer : परम्परागत भारतीय सामाजिक संरचना जाति-व्यवस्था पर आधारित है। जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को एक संस्तरण में विभाजित कर दिया है। जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की एकमात्र विशेषता है। जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसकी सदस्यता जन्मजात होती है। प्रत्येक जाति का एक नाम और एक व्यवसाय होता है। दत्ता, धैर्य आदि ने जाति की निम्नलिखित विशेषताएं बतायीं:
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर ही भारत में जातियों ने एक संस्तरण की व्यवस्था को पैदा किया है और प्रत्येक जाति समाज के एक खण्ड का निर्माण करती है। जाति-व्यवस्था से पूर्व भारत में वर्ग-व्यवस्था प्रचलित थी।
वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र थे और ये चारों वर्णों स्तरीकरण के प्रमुख आधार हैं। लेकिन जब वर्ण के पश्चात् जाति अस्तित्व में आयी तो जाति आधार पर संस्तरण होने लगा।
वर्तमान समय में नगरीकरण, औद्योगीकरण, यातायात एवं संचार के साधनों के विकास, नवीन शिक्षा पद्धति, प्रजातंत्र, नवीन सामाजिक कानून आदि के कारण जाति संस्तरण की स्थिरता टूटी है। अब जातीय आधार पर बने छूआ-छूत व्यवसाय आदि के बंधन टूटे हैं। पिफ़र भी जाति की निम्नलिखित तीन विशेषताएं आज भी यथावत् विद्यमान हैं- आज भी जाति जन्म से ही निर्धारित होती है और यह व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को तय करती है।
आज भी व्यक्ति अपनी जाति नहीं बदल सकता और आज भी व्यक्ति जीवनसाथी का चयन साधारणतः अपनी जाति में ही करता है। कई बार कुछ जातियों ने सामाजिक संस्तरण में सामूहिक रूप से उंचा उठने का प्रयास भी किया है। इस प्रयास को एम. एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण के संज्ञा दी है। वर्तमान समय के अनेक सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयत्नों द्वारा जाति की निर्योग्यता को दूर करने का प्रयत्न किया जा रहा है। निम्न जातियों को आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में अनेक अधिकार एवं सुविधाएं प्रदान की गयी हैं। इसके बावजूद आज भी जाति सामाजिक संस्तरण के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
Question : समाज में ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता किस प्रकार से समस्याजनक होती है? हल सुझाइए।
(2005)
Answer : समाज में ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता के समस्यात्मक पहलु से पूर्व यह आवश्यक है कि दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया जाए।
क्षैतिज सामाजिक गतिशीलताः जब किसी संस्तरित व्यवस्था में संक्रमण के कारण परिस्थिति एवं भूमिका दोनों में परिवर्तन आ जाता है, तब इसे समस्तरी या क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। इस प्रकार की गतिशीलता के कारण सामाजिक वर्ग की प्रस्थिति में कोई बदलाव नहीं आता है। यह व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति में होने वाला एक ऐसा परिवर्तन है जिसके कारण सामाजिक वर्ग स्तर अथवा प्रतिष्ठा संस्तरण की दृष्टि से व्यक्ति की सामान्य स्थिति में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता। उदाहणार्थ, एक अभियन्ता एक कार्य-स्थल से नौकरी छोड़ कर दूसरे कार्य स्थल पर नौकरी करने लगता है और यदि दोनों कार्य स्थलों के सामान्य प्रतिष्ठा स्तर समान होते हैं, तो यह परिवर्तन क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता का परिचायक है।
ऊर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलताः जब प्रस्थिति एवं भूमिका में परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक वर्ग प्रस्थिति में भी बदलाव आ जाता है, तब इसे ऊर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। यह ऊर्ध्वमुखी अथवा अधोमुखी दोनों में से किसी की ओर हो सकती है। दूसरे शब्दों में किसी सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न सामाजिक वर्गों अथवा प्रस्थिति स्तरों के बीच होने वाला ऊर्ध्वगामी या अधोगामी परिवर्तन ऊर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता का परिचायक है। इस प्रकार के गतिशीलता किसी वर्ग प्रस्थिति अथवा प्रतिष्ठा के पाने अथवा खोने का संकेत देती है।
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि दोनों प्रकार की सामाजिक गतिशीलता की प्रकृति एवं प्रवृत्ति बिल्कुल अलग है। अतः दोनों की समस्याजनक पहलु तथा उसके समाधान के लिए अलग-अलग व्याख्या करनी होगी।
क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता की समस्याजनक पहलू एवं उसके समाधानः क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता के फलस्वरूप किसी भी प्रकार के सामाजिक वर्ग में परिवर्तन नहीं आता है। परंतु प्रस्थिति एवं भूमिका में परिवर्तन आ जाता है। इसके समस्याजनक पहलु यह है कि एक व्यक्ति को किसी एक पद के लिए प्रशिक्षित किया जाता है परंतु उसके पद में परिवर्तन के कारण उस व्यक्ति के कार्यकुशलता पर प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप यह संभावना बनती है कि वह व्यक्ति पूर्ण लगन से उस कार्य को नहीं कर पाये जिसे पुनः दिया गया है। इसका प्रभाव मूल रूप में दो प्रकार से पड़ सकता हैः
(1) एक व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता एवं प्रशिक्षित कार्यकुशलता से उस नये कार्य को पूरी लगन के साथ काम नहीं कर पायेगा जिसे उसे नये रूप में दिया गया है। इसके उस व्यक्ति के दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है एवं वह इस संपूर्ण प्रक्रिया से अलग-थलग महसूस कर सकता है।
(2)पद परिवर्तन के फलस्वरूप उस विभाग के जिसमें उस नये व्यक्ति को प्रतिस्थापित किया गया है उसके संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। अतः उस सम्पूर्ण विभाग की कार्यक्षमता पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है।
अतः इसके समस्याजनक पहलुओं को निम्नलिखित रूप से समाधान किया जा सकता हैः
(1) एक पूर्व प्रशिक्षित व्यक्ति का स्थानान्तरण या परिवर्तन उसके प्रशिक्षण की कार्यक्षमता के अनुकूल की जानी चाहिए जिससे कि वो व्यक्ति अपनी कार्यकुशलता का पूर्ण उपयोग कर सके।
(2) सामाजिक गतिशीलता में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान उसकी कार्यक्षमता निर्धारित करती है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि उसको उसी रूप में कार्य प्रतिपादन का अवसर दिया जाये।
ऊर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता के समस्याजनक पहलु और उसके समाधानः ऊर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति का पद, प्रस्थिति एवं भूमिका तीनों पर परिवर्तन आ जाता है। इस कारण से यह सम्भावना है कि वह सामाजिक प्रतिस्थिति प्रस्थिति में उच्च भी स्थान पा सकता है अथवा निम्न भी। अगर किसी व्यक्ति का सामाजिक पद पूर्व स्थिति से उच्च हो जाती है तो उसके लिए सम्मानजनक अवश्य हो जाता है परंतु इसमें एक प्रश्न चिन्ह भी लग सकता है कि अर्जित स्थिति के अनुसार वह अपनी कार्यक्षमता का सही प्रदर्शन कर पायेगा या नहीं। अगर उस व्यक्ति का प्रशिक्षण एवं बौद्धिक क्षमता उस नये कार्य को करने में समर्थ हो, तो समाज के साथ साथ उस व्यक्ति का भी विकास होगा परंतु यदि वह उस नये पद के अनुसार सामंजस्य नहीं कर पाता है तो उस व्यक्ति के साथ-साथ उस कार्य संबंधित पद/विभाग पर भी असर पड़ेगा एवं कार्य-संचालन ठीक ढंग से नहीं हो पायेगा। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि व्यक्ति को नये पद प्रदान करने से पूर्व उसे सही तरीके से प्रशिक्षित किया जाये ताकि वह नये कार्य को सही तरीके से संचालित कर सके।
ऊर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता की दूसरी स्थिति है अधोगामी की अर्थात् सामाजिक स्थान पूर्व से निम्न मिलना। इस स्थिति में व्यक्ति की कार्यक्षमता के साथ-साथ उसके मानसिक संतुलन भी बिगड़ने की आशंका बन सकती है। अधिकतर क्षेत्रों में यह देखा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति कोई गलत या कानून विरोधी कार्य करता है तो उसे इस प्रकार की स्थित सजा के रूप में मिलती है। अतः इस स्थिति का सही समाधान यह है कि व्यक्ति अपनी कार्य को सही तरीके एवं कानून को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए जिससे उसका प्रभाव समाज, परिवार एवं स्वयं व्यक्ति पर नहीं पड़ने चाहिए। साथ-ही-साथ समाज या संस्था को भी कोई अलग तरीका अपनाकर इसका समाधान करने की कोशिश की जानी चाहिए।
अतः उपरोक्त वर्णित तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि यह कोई गंभीर समस्या नहीं है फिर भी इसका प्रभाव दूरगायी हो सकता है जिसे समाधान के साथ-साथ कार्यक्षमता का भी ध्यान रखना आवश्यक है।
Question : समाज में शक्ति के अभिजात्य और शक्ति संरचना में नव आभिजात्य का उदय
(2005)
Answer : अमेरिका के शासक अभिजनों के संदर्भ में सी.डब्ल्यु.मिल्स ने इस अवधारण का विकास किया और इसी नाम से सन् 1956 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी। मिल्स के विश्लेषण के अनुसार, ये ऐसे अभिजन होते हैं जिनमें व्यापार, सरकार और सेना के अगुवा लोग सम्मिलित होते हैं। ये लोग समान सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण आपस में बंधे होते हैं। यही नहीं, इन तीनों वर्गों में आपस में अदला-बदली भी होती रहती है। मिल्स की इस पुस्तक ने बाद में ढ़ेर सारी प्रतिक्रियाओं और विवादों को जन्म दिया।
समाज में शक्ति कोई नयी बात नहीं है। यह हमेशा से अर्थात् प्राचीन काल से चलता आ रहा है। पहले भी समाज में ये वर्ग आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक रूप से उच्च होते थे। परंतु आधुनिक काल में इसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन हो गया है। वर्तमान समय में किसी भी वर्ग के लोग अपनी बौद्धिक क्षमता या परिश्रम के द्वारा व्यापार, सरकार या सेना में उच्च स्थान दर्ज कर सकते हैं। आज इसे ही नव आभिजात्य के रूप में संज्ञा दी जाती है। अतः इस प्रकार से आज कोई भी व्यक्ति अपनी किसी भी रणनीति को अपनाकर समाज में एक उच्च स्थान पा सकता है एवं तत्वपश्चात् वह राजनैतिक संरचना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत में आज इन नव आभिजात्य वर्ग भी उत्पत्ति को हम अन्य पिछड़े वर्ग एवं अनुसूचति जाति एवं जनजाति के लोगों के बीच चेतना के विकास के फलस्वरूप वह विभिन्न आयाम अपनाकर सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में एक उच्च स्थान पाने में सफल हुआ है।
Question : ‘सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण एक-दूसरे के पूरक होते हैं।’ उपयुक्त उदाहरणों के साथ अपने उत्तर को सुस्पष्ट कीजिए।
(2004)
Answer : टॉलकॉट पारसंस, आर.के. मर्टन, डेविस, स्मेलसर इत्यादि प्रकार्यवादियों ने सामाजिक व्यवस्था को दो स्तरों पर देखने का प्रयास किया है- एक संरचना के स्तर पर और दूसरा प्रकार्य के स्तर पर। इस आधार पर यह कहा जा सकता है समाजीकरण एक गत्यात्मक प्रक्रिया से संबेंधित है जबकि सामाजिक नियंत्रण प्रकार्यात्मक संरचनात्मक आधार से संबंधित है। परंतु इस तथ्य से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण दोनों मिलकर सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को बनाये रखने में सक्षम हैं।
समाजीकरण के निम्नलिखित तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि यह किस प्रकार सामाजिक व्यवस्था के प्रकार्यात्मक एवं संरचनात्मक पहलुओं को नियंत्रित एवं निर्देशित करती है। बूम एवं सेल्जिनिक की व्याख्या इस संबंध में इस प्रकार हैं-
अतः इस प्रकार हम देखते हैं समाजीकरण की प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं परंतु साथ ही यह भी आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न आयामों को नियंत्रित रखने के लिए सामाजिक नियंत्रण जरूरी है। सामाजिक व्यवस्था को नियंत्रित रखने में हम निम्नलिखित प्रकार्यों का वर्णन इस प्रकार करते हैं:
वास्तव में सामाजिक नियंत्रण सामाजिक व्यवस्था को सही रूप से संचालित करने के लिए अत्यंत आवश्यक है। मैकाइवर एवं पेज ने भी स्वीकार किया है कि सामाजिक नियंत्रण से समाज में व्यवस्था और एकता कायम होती है। समाज अनेक छोटे-बड़े समूहों के मिलने से बनता है। सामाजिक एकता और स्थायित्व को सुनिश्चित करने के लिए इन विभिन्न हिस्सों को एक-दूसरे के साथ तथा पूरे समाज के साथ संतुलन बनाये रखना होता है और यह संतुलन सामाजिक नियंत्रण के द्वारा ही स्थापित हो पाता है।
अतः ऊपर वर्णित तथ्य यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने एवं सही रूप से संचालित करने में समाजीकरण की प्रक्रिया एवं सामाजिक नियंत्रण का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। साथ ही, समाजीकरण एवं सामाजिक नियंत्रण परस्पर संबंधित तथ्यों एवं प्रक्रियाओं को प्रकट करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया एक तरफ से तो व्यक्तियों को एक जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाता है तो दूसरी तरफ से यह समाज के मूल्यों एवं मानदंडों को सही रूप से सिखाकर व्यक्तियों को सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। अतः इस बात से यह इनकार नहीं किया जा सकता है कि समाजीकरण एवं सामाजिक नियंत्रण एक-दूसरे से अंतःसंबंधित होकर सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
Question : सामाजिक स्तरण पर द्वंद्व परिप्रेक्ष्य पर संक्षेप में चर्चा कीजिए और इस विचार का परीक्षण कीजिए कि भारत में सामाजिक असमता, दृढ़ सामाजिक स्तरण प्रणाली का फलन है।
(2004)
Answer : कार्ल मार्क्स ने अपने वर्ग संघर्ष की विचारधारा के आधार पर सामाजिक स्तरण को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक साम्यवादी घोषणापत्र में लिखा है। आज तक अस्तित्व में रहे समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है। अर्थात् प्रत्येक काल में वर्ग रहे हैं और उनके बीच निरंतर संघर्ष रहा है। स्वतंत्र लोग व दास, कुलीन व अकुलीन, सामन्त और अर्ध दास, अत्याचारी व पीडि़त, ये सभी वर्ग विभिन्न कालों में रहे हैं। मार्क्स के वर्ग का विचार समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता पर आधारित है। मार्क्स ने इस असमानता का आधार उत्पादन के साधनों की अवधारणा को माना है।
औद्योगिक युग के पूर्व खेती एवं उससे जुड़े उपकरण उत्पादन के मुख्य साधन माने जाते थे। उस काल के समाज में मार्क्स के अनुसार दो वर्ग थे-(1) भू-स्वामी वर्ग अभिजात वर्ग तथा भद्र लोग या दास स्वामी और (2) उत्पादक वर्ग-कृषि दास, दास एवं स्वतंत्र कृषक। सामन्तवादी युग में यही दो वर्ग पाये जाते थे और इन्हीं दोनों के बीच स्वार्थों की टकराहट के कारण संघर्ष होता था। औद्योगिक युग में दो नये वर्गों का विकास हुआ-(1) उद्योगपति या पूंजीपति एवं (2) मजदूर वर्ग। इस विभाजन का भी आधार उत्पादन का साधन ही है। चूंकि वर्ग का विभाजन शोषण पर आधारित होता है, इसीलिए इस अवस्था में भी स्वार्थों की टकराहट के कारण दो वर्गों के बीच अक्सर संघर्ष होता रहा है। मार्क्स ने एक तीसरे वर्ग की भी चर्चा की है जिसे उन्होंने संक्रमणशील वर्ग कहा है। समाज जब एक ऐतिहासिक काल से दूसरे काल में प्रवेश करता है तब पिछले साल का कुछ अवशेष नये काल में पूर्ववत रह जाता है, पर ऐसा लंबे समय के लिए नहीं होता है, जैसे-फ्रांस और स्पेन ने जब समाज सामंती व्यवस्था से औद्योगिक व्यवस्था में प्रवेश किया तब औद्योगिक काल में भी कुछ लोग सामंती व्यवस्था की तरह जागीरदारी प्रथा से जीवन यापन करते रहे। यह स्वाभाविक है क्योंकि समाज एक चरण से दूसरे चरण में जाने पर मौलिक रूप से नहीं बदलता है।
मार्क्स ने लोगों का ध्यान वर्ग विशेष के अंतर्गत पाये जाने वाले वर्ग संघर्ष की ओर भी आकृष्ट किया है। एक ही वर्ग के अंतर्गत दो विरोधी किस्म के स्वार्थ समूह पाये जाते हैं, उदाहरणस्वरूप-उच्च वर्ग के अंतर्गत वित्तीय पूंजीपति, तथा बैंकर्स एवं औद्योगिक उत्पादक के बीच संघर्ष पाये जाते हैं। ठीक उसी प्रकार छोटे और बड़े उद्योग धंधों के लोगों के बीच स्वार्थों की टकराहट होती है। मजदूर वर्ग के अंतर्गत भी स्थायी मजदूरों एवं दैनिक मजदूरों या बेरोजगार लोगों के बीच संघर्ष देखने को मिलता है। वर्ग संघर्ष के इस विचार का विरोध करते हुए डाहरेनडॉफ ने कहा है कि वर्ग संघर्ष कभी भी पूरे समाज के स्तर पर नहीं होता है, बल्कि समाज के अंतर्गत पाये जानेवाले छोटे-छोटे समूहों के बीच होता है। दूसरे शब्दों में तनाव और संघर्ष पूरे समाज की संरचना पर नहीं होती बल्कि संरचना के भीतर पाये जाने वाले कुछ समूह के स्तर पर होता है।
मार्क्स ने केवल आर्थिक कारक को ही सामाजिक स्तरण का आधार माना है जबकि समाज में धर्म, जाति, शिक्षा, व्यवसाय, प्रजाति, पेशा एवं वैयक्तिक गुणों के आधार पर भी स्तरण पाया जाता है, जैसा कि मैक्स वेबर एवं अन्य समाजशास्त्रियों ने भी दलील दी है। मार्क्स की विचारधारा काफी संकुचित है, क्योंकि मात्र वर्ग संघर्ष के आधार पर ही सामाजिक स्तरण को नहीं समझा जा सकता है। मार्क्स के विचारों के आधार पर विश्व में पाये जाने वाले सभी सामाजिक स्तरण के प्रकारों को कदापि नहीं समझा जा सकता है।
मार्क्स ने जिस वर्ग विहीन समाज की कल्पना की है उससे यही स्पष्ट होता है कि वे स्तरण के विरोधी थे। चूंकि स्तरण के पीछे समानता और असमानता का आधार शोषण है इसीलिए उन्होंने स्तरण मुक्त समाज की कल्पना की है। पर अबतकके अनुभवों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि उनका यह विचार काफी काल्पनिक है। स्तरण एक सामाजिक यथार्थ है। अतः स्तरण मुक्त समाज यथार्थ विरोधी है।
भारत की सामाजिक स्तरण मुख्यतः जाति व्यवस्था पर आधारित है जो असमानता के आधार पर स्तरित है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था एक लंबे समय से इस दृढ़ व्यवस्था पर आधारित है। जाति व्यवस्था के फलस्वरूप कोई भी व्यक्ति जन्म के साथ ही उस जाति से बंध जाता है एवं जीवनभर उसी में रहना पड़ता है। अतः यह कहा जाता है कि जाति प्रदत्त प्रस्थिति पर निर्भर करता है जिसके अंतर्गत जातीय या सामाजिक गतिशीलता संभव नहीं है परंतु व्यावसायिक गतिशीलता इन दिनों में देखने को मिली है। वास्तव में जाति के अंतर्गत व्यक्ति अपना वर्ग प्रस्थिति में तो परिवर्तन कर लेता है परंतु सामाजिक (जाति-आधारित) प्रस्थिति में परिवर्तन नहीं कर पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जाति व्यवस्था में एक व्यक्ति का जाति आधारित भेदभाव एवं असमानता ज्यों की त्यों बनी रहती है। परंतु वर्तमान समय में विभिन्न समाजशास्त्रियों के द्वारा यह उद्घाटित किया गया है कि किसी भी व्यवस्था की एक आधार पर व्याख्या करना मुश्किल है। अतः एम.एन. श्रीनिवास ने जातीय गतिशीलता के लिए संस्कृतिकरण की अवधारणा का प्रतिपादन किया है जिसके अंतर्गत कोई भी निम्न जाति या जनजाति उच्च जाति के दिशा में अपनी कर्मकांड विचारधारा एवं जीवन पद्धति को अपनाता है परंतु यहां भी श्रीनिवास ने यह स्पष्ट किया है कि प्रक्रिया के फलस्वरूप सिर्फ प्रस्थिति का परिवर्तन आता है न कि जाति का।
दूसरी ओर, बहुत से प्रमुख समाजशास्त्री योगेंद्र सिंह, के.एल. शर्मा, आन्द्रे बेते एवं दिपांकर गुप्ता ने यह माना है कि जाति एवं वर्ग पूर्णतया एक-दूसरे से मिले हुए हैं। इसलिए वर्तमान समय में सिर्फ जाति आधारित स्तरीकरण पर असमानता को नहीं माना जा सकता है। फिर भी इतना तो सही है कि सामाजिक स्तरण का आधार चाहे जाति हो या वर्ग, दोनों ही असमानता को उत्पन्न करती है। परंतु यह बात मुख्य है कि वर्ग में गतिशीलता की संभावना अधिक होती है, व्यक्ति अपनी मेहनत एवं ज्ञान के आधार पर उच्च प्रस्थिति पा सकता है लेकिन जाति में परिवर्तन के सभी द्वार बंद होते है फिर भी शिक्षा एवं आधुनिकता की वृद्धि के फलस्वरूप अंतःविवाह की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है एवं युवा वर्गों में इसे उखाड़ फेंकने के लिए तत्पर है। लेकिन साथ ही इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा एवं नौकरी के आधार पर दहेज प्रथा को बढ़ावा मिला हैजो निस्संदेह ही जाति व्यवस्था की प्रवृत्ति को बढ़ा रहा है। अतः हम इस आधार में कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था, जो भारतीय सामाजिक स्तरण का एक दृढ़ आधार है, वर्तमान समय में निश्चित रूप से इस दृढ़ता में कमी आयी है परंतु इसे पूर्णतः समाप्त होने में वर्षों लग जायेंगे।
Question : सामाजिक असमानता और सामाजिक स्तरण के बीच संकल्पनात्मक विभेद का परीक्षण कीजिए। सामाजिक स्तरण तंत्र की प्रकृति और रूप किस प्रकार सामाजिक गतिशीलता के प्रारूपों का निर्धारण करते हैं?
(2003)
Answer : सामाजिक स्तरण समाज मे मौजूद असमानता का एक पहलू है। सभी समाजों में सामाजिक व्यवस्थाओं में उत्पन्न असमानताएं मौजूद रहती हैं। प्रत्येक समाज में किसी न किसी रूप में सुविधा, शक्ति और प्रतिष्ठा के आधार पर निर्मित श्रेणियों तथा स्तरों का अस्तित्व पाया जाता है। सुविधा तथा शक्ति के उपयोग के दृष्टिकोण से इन विभिन्न स्तरों का सामाजिक संरचना में स्थानक्रम निर्धारित होता है। जिनके पास अधिक सुविधा और शक्ति होती है, उनका सामाजिक स्तर उच्च माना जाता है। ठीक इसके विपरीत कम सुविधा तथा शक्ति से सम्पन्न लोगों का सामाजिक स्तर निम्न माना जाता है। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि प्रत्येक समाज में किसी न किसी प्रकार का स्तरण अवश्य पाया जाता है। कोई भी समाज समतल धरातल की तरह नहीं होता है। जैसे- भूगर्भ के अंतर्गत बहुत तरह के स्तर पाए जाते हैं, समाज में भी उसी प्रकार बहुत सारे स्तर पाये जाते हैं, जो एक विशेष तरीके से श्रेणीबद्ध होते हैं। स्तरण समाज में पायी जाने वाली असमानताओं का एक समाजशास्त्रीय नाम है। इसलिए गिडेन्स ने कहा कि- “Stratification can be defined as structured inequalities between different groupings of people”. अतः यह स्पष्ट है कि स्तरण के अंतर्गत हम व्यक्तियों के बीच पाई जाने वाली असमानता का अध्ययन करते हैं। दो व्यक्तियों के बीच धर्म, जाति, शिक्षा, पेशा या प्रजाति के आधार पर पायी जाने वाली असमानता को हम स्तरण नहीं कहते हैं। सही मायने में ये विभेदीकरण की अवधारणा है। दूसरी तरफ यदि जाति, धर्म, प्रजाति, शिक्षा, आय एवं पेशों के आधार पर समाज में पायी जाने वाली असमानता या विभिन्नता को सामूहिक स्तर पर देखा जाता है, तो उसे स्तरण कहा जायेगा।
सामाजिक स्तरण तंत्र के रूप एवं प्रकृति का सामाजिक गतिशीलता का मूल्यांकन: बोटोमोर ने मानव इतिहास में प्रचलित सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख चार स्वरूपों- दास प्रथा, जागीर प्रथा, जाति एवं सामाजिक वर्ग का उल्लेख किया है। कुछ विद्वान स्तरण के दो रूप मानते हैं- खुला स्तरीकरण एवं बन्द स्तरीकरण। खुले स्तरणीकरण में आधुनिक वर्ग व्यवस्था वाले समाज आते हैं, जहां व्यक्ति अपने वर्ग परिवर्तन द्वारा एक वर्ग से दूसरे में आ जा सकते हैं। बन्द स्तरीकरण का उदाहरण भारतीय जाति-व्यवस्था है। जाति जन्म से निर्धारित होती है और कोई भी व्यक्ति अपने जीवन काल में जाति परिवर्तन नहीं कर सकता, अतः ऐसे समाज को बन्द स्तरीकरण वाला समाज कहा जाता है। यहां हम संस्तरण के कुछ प्रमुख रूपों का वर्णन कर रहे हैं, जो निम्नांकित हैं:
(1)दास प्रथा: दास प्रथा असमानता के चरण रूप का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें व्यक्तियों के कुछ समूह पूर्ण रूप से अधिकारों से वंचित रहते हैं। अनेक कालों एवं स्थानों पर दास प्रथा का प्रचलन रहा है, किंतु प्राचीन समय में यूनान और रोम में तथा 18वीं एवं 19वीं सदी में दक्षिणी अमेरिका में इसका प्रमुख रूप से प्रचलन रहा है। दास को परिभाषित करते हुए एल.टी. ह्राबहाउस लिखते हैं, ‘एक व्यक्ति जिसे कानून और प्रथा दूसरे की सम्पत्ति मानते हैं। चरम अवस्थाओं में वह पूर्णतया अधिकारों से वंचित रहता है और शुरू व्यक्तिगत संपत्ति की वस्तु है। दूसरी स्थितियों में उसकी कुछ रक्षा की जा सकती है, लेकिन एक बैल अथवा गधे की तरह ही है।’एच. जे. निवोर ने दास प्रथा में दास की सामाजिक दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- प्रत्येक दास का एक स्वामी होता है, जिसके अधीन उसे रहना पड़ता है और यह अधीनता विशेष प्रकार की होती है। स्वामी के दास पर शक्ति प्रयोग करने की निर्बाध स्वतंत्रता होती है। दास स्वामी की सम्पत्ति होता है। दास को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होते। सामाजिक रूप से यह तिरस्कृत होता है। दास को अनिवार्य रूप से श्रम करना पड़ता है।
दास प्रथा औद्योगिक व्यवस्था के समान ही रही है। दास प्रथा के उदय के साथ-साथ कुलीनतंत्र भी प्रकट होता है जो दास के श्रम पर जीता है। आधुनिक युग से समाजवाद, मानव अधिकार एवं जनतंत्र के विचारों के विपरीत होने के कारण यह प्रथा सभी देशों में लगभग समाप्त हो गयी है। इस स्तरण के रूप में सामाजिक गतिशीलता की कोई भी प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती है।
(2)जागीर प्रथा: जागीर प्रथा का प्रचलन मध्ययुगीन यूरोप में रहा है जिसे प्रथा एवं कानून की मान्यता प्राप्त थी। जागीर प्रथा में तीन वर्ग प्रमुख थे- पादरी, सरदार एवं साधारणजन प्रत्येक वर्ग की जीवन शैली एवं संस्कृति भिन्न थी। सामाजिक स्तरण में सर्वोच्च स्थान पादरियों का था क्योंकि उस समय भी चर्च के अधीन था। नियमानुसार तो पादरी सर्वोच्च थे, किंतु उन्हें कोई पद प्राप्त नहीं था इसलिए वे व्ययसायिक रूप से राजवंश के सरदारों से नीचे माने जाते थे। जिन पादरियों को उपाधियां दी गयी थीं, वे सरदारों से कोई संबंध नहीं रखते थे। कई पादरी अविवाहित थे, अतः उनका कोई परिवार नहीं था परिवार जो कि सामाजिक संस्तरण की इकाई माना गया है, के अभाव में पादरियों की सामाजिक स्थिति स्पष्ट नहीं थी। फिर भी उनके माता-पिता के परिवारों के आधार पर उनकी स्थिति का निधार्रण किया जा सकता है। बोटोमोर ने जागीर प्रथा की तीन विशेषताओं का उल्लेख किया है- (1) प्रत्येक जागीर की एक वैधानिक परिभाषा थी, उनके अधिकार, कर्त्तव्य, विशेषाधिकार और दायित्वों के आधार पर समाज में उनकी एक निश्चित प्रस्थिति होती थी। (2) जागीरों में स्पष्ट श्रम-विभाजन पाया जाता था, जैसे- कुलीन सबकी रक्षा करते, पुजारी सबके लिए प्रार्थना करते और जनसाधारण सबके लिए भोजन जुटाते। (3) जागीरें राजनीतिक समूह थी। उनके पास राजनीतिक शक्ति थी। भारत में भी मौर्य काल, गुप्त काल एवं मुगल काल की सामन्ती व्यवस्था में यूरोपित जागीर प्रथा के लक्षण पाये जाते हैं यद्यपि इसका स्वरूप आर्थिक व सैनिक रहा है और यह जाति की विशेषताओं से भी युक्त रही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जागीर प्रथा ने भी समाज में स्तरीकरण पैदा किया है।
(3)जाति प्रथा: बन्द स्तरीकरण: भारतीय जाति व्यवस्था का अनेक विद्वानों ने अध्ययन किया है। जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसकी सदस्यता जन्मजात होती है, प्रत्येक जाति का एक नाम और एक व्यवसाय होता है। एक जाति के लोगों का एक वंशगत पेशा होता है और एक जाति के सदस्य अपनी ही जाति में विवाह करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जाति की जीवन-शैली होती है। एन.के. दत्ता, घुरिये, आदि ने जाति की विशेषताओं का उल्लेख इस प्रकार किया है।
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर ही भारत में जातियों ने संस्तरण की व्यवस्था पैदा की है और प्रत्येक जाति समाज के एक खंड का निर्माण करती है। जाति व्यवस्था से पूर्व भारत में वर्ण व्यवस्था का प्रचलन था। वर्ण प्रमुख रूप से चार थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वर्णों का निर्माण कर्म के आधार पर किया गया था। ब्राह्मण पठन पाठन, पूजा, हवन एवं शिक्षा-दीक्षा का कार्य करते थे, क्षत्रिय शासन एवं युद्ध कार्य करते थे, वैश्व कृषि एवं व्यापार करते थे तथा शूद्र उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा करते थे। वर्तमान समय में नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, यातायात एवं संचार के नवीन साधनों, नवीन शिक्षा, प्रजातंत्र, नवीन सामाजिक विधान, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, समाज सुधार के आंदोलन, आदि के कारण पुरातन जाति व्यवस्था में परिवर्तन आ रहे हैं। अब जातीय आधार पर बने छुआछूत, व्यवसाय एवं खान-पान के नियमों में शिथिलता आयी है। फिर भी जाति की तीन विशषताएं अभी भी बनी हुई है।
(1)आज भी जाति जन्म से ही निर्धारित होती है और यह व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को तय करती है।
(2)आज भी व्यक्ति अपनी जाति नहीं बदल सकती है।
(3)व्यक्ति जीवन साथी का चुनाव साधारणतः अपनी जाति से ही करता है।
जातीय सामाजिक गतिशीलता के क्षेत्र में एम.एन. श्री निवास की अवधारणा ‘संस्कृतिकरण’ महत्वपूर्ण है। उन्होंने जातीय गतिशीलता के लिए प्रस्थितीय गतिशीलता की बात की है परंतु संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता है। इस अवधारणा के अंतर्गत किसी निम्न जाति, जनजाति या समूह उच्च जाति के जीवन-विधि, कर्मकाण्डों को अपनाता है। यह वास्तव में Vertical Socialmobility होती है अर्थात् आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति में उच्च स्थान प्राप्त होती है परंतु जातीय व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता है। भारतीय संविधान के अंतर्गत भी आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति एवं अछूत वर्ग तथा जनजातियों की प्रस्थिति को बढ़ाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। इतना सब होने के बावजूद भी जाति भारतीय समाज में संस्तरण उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
(4)सामाजिक वर्गः खुला स्तरीकरण: वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख स्वरूप है। लगभग सभी समाजों में वर्ग व्यवस्था पायी जाती है। एक सी सामाजिक प्रस्थिति वाले व्यक्तियों के समूह को एक वर्ग कहा जाता है। जन्म के अतिरिक्त किसी भी आधार पर समाज में समूहों का निर्माण वर्ग कहलाता है। वर्गों के आधार आर्थिक ही नहीं वरन् सामाजिक -सांस्कृतिक भी हैं वर्ग को परिभाषित करते हुए ऑगबर्न लिखते है, ‘एक सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का योग है जिनकी एक दिये हुए समाज में अनिवार्य रूप से समान सामाजिक स्थिति होती है।’ मैकाईवर एवं पेज के अनुसार, ‘एक सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर दूसरों से पृथक किया जा सके।’ इस प्रकार समाज सामाजिक प्रस्थितियों को धारणकरने वाले व्यक्ति एक वर्ग का निर्माण करते हैं। वर्ग की विशेषताएं अग्रांकित हैः
अतः ऊपर वर्णित तथ्य यह स्पष्ट करता है कि वर्ग व्यवस्था पूर्णतया अर्जित होती है एवं अर्जित प्रस्थिति को निरुपित करती है। इसमें व्यक्ति परिश्रम एवं मेधाविता के आधार पर समाज में कोई भी उच्च से उच्च स्थान प्राप्त कर सकता है। अतः इस सामाजिक स्तरण के रूप में अधिकतम सामाजिक गतिशीलता का अवसर प्राप्त होता है। सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन इस रूप में आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण एवं शैक्षिक गतिशीलता के रूप में मिलती है। साथ ही विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के विकास ने भी इस पर काफी बल दिया है। वर्तमान आधुनिक समाज में वर्ग आधारित सामाजिक गतिशीलता सबसे अधिक पायी जाती है।
Question : सामाजिक गतिशीलता और सामाजिक परिवर्तन।
(2002)
Answer : सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन एक-दूसरे के साथ काफी अंतःसम्बंधित हैं। सामाजिक गतिशीलता के फलस्वरूप ही किसी समाज में सामाजिक परिवर्तन आता है। बिना सामाजिक गतिशीलता के सामाजिक परिवर्तन की कल्पना करना भी व्यर्थ है।
सामाजिक गतिशीलता में समाज में किसी समूह, परिवार एवं व्यक्ति के द्वारा जब एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति में परिभ्रमण हो जाता है। यह गतिशीलता मुख्यतः क्षैतिज एवं उर्ध्वाधर (Horizontal & Vertical) होती है।
क्षैतिज गतिशीलता में कोई व्यक्ति अपनी एक स्थिति को छोड़कर दूसरी स्थिति प्राप्त कर लेता है परन्तु प्रस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता है। जैसे-यदि किसी व्यक्ति द्वारा एक बैंक का क्लर्क की नौकरी को छोड़कर किसी दूसरे बैंक का क्लर्क बन जाता है। परंतु उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशिलता में व्यक्तियों के प्रस्थिति में परिवर्तन होता हैं। जैसे-जब एक व्यक्ति को प्रोफेसर से उपकुलपति बना दिया जाता है।
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक गतिशीलता के द्वारा व्यक्तियों की परिस्थिति एवं भूमिकाओं में परिवर्तन आता है। वास्तव में यह परिवर्तन सिर्फ व्यक्तियों तक सीमित नहीं होता है, बल्कि ये सारे समाज को प्रभावित करता है और अन्ततोगत्वा यही सामाजिक परिवर्तन के रूप में परिलक्षित होता है। जब संपन्न लोग सामाजिक संस्तरण में अग्रिम स्थान पर होते हैं तो वे अपने कार्य एवं जिम्मेवारी को भूलकर विभिन्न कार्य करना शुरू कर देते हैं, परन्तु दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोग उच्च स्थान पाने के लिए मेहनत एवं संघर्ष जारी रखते हैं जिसके फलस्वरूप वे एक दिन उच्च स्थान पर पाते हैं। अतः सामाजिक परिवर्तन के लिए सामाजिक संस्तरण, सामाजिक संरचना एवं सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन अति आवश्यक हैं और यह सामाजिक गतिशीलता द्वारा ही संभव है।
Question : सैक्स एवं जेंडर में विभेद कीजिए। जेंडर मुद्दों की उपयुक्त उदाहरणकें सहित विवेचना कीजिए।
(2002)
Answer : वास्तव में सैक्स एवं जेंडर दोनों एक ही विषयवस्तु की ओर इंगित करते हैं जिससे यह विरोधाभास पैदा हो जाता है कि दोनों समान हैं परंतु ऐसा नहीं है। दोनों का उपागम एवं क्षेत्र, सामाजिक धरातल पर काफी भिन्न हैं। मुख्यतः सैक्स को जीवशास्त्रीय माना जाता है एवं जेंडर को सांस्कृतिक माना जाता है। अतः सैक्स की विषय-वस्तु को हम जीव विज्ञान/विज्ञान से संबंधित कर सकते हैं परंतु जेंडर पूर्णरूपेण सांस्कृतिक है, जो संस्कृति के तीन प्रमुख आयामों में से एक है। संस्कृति के तीन आयाम होते हैं-धर्म, जेंडर एवं भाषा।
लिंग की स्थिति प्रकृतिप्रदत्त होती है जबकि जेंडर की स्थिति सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विकसित होती है। यदि कोई व्यक्ति स्त्री या पुरुष है तो उसे जीवनभर एक स्त्री और पुरुष बनकर ही रहना पड़ेगा, परंतु जहां तक संस्कृति की बात है, वह इस संसार के समाज में सामाजिक अंतःक्रिया के फलस्वरूप विकसित होता है। अतः जेंडर का क्रियात्मक संबंध किसी भी समाज में विकसित होता है। जैसे-अभी हाल में ही नारीवाद की चर्चा काफी जोरों पर है। इसका मतलब क्या होता है? वस्तुतः यह नारीवाद एक आंदोलन है जो स्त्री-पुरुष की समानता की बात करता है। परंतु हमारे समाज में इसके प्रति विभिन्न लोगों में भिन्न- भिन्न अभिव्यक्तियां है।
सैक्स संबंध दो व्यक्तियों के बीच होते हैं। ये सैक्स संबंध एक ही प्रकार के लिंग के बीच या फिर भिन्न-भिन्न सैक्स के प्रति हो सकता है। जब सैक्स का संबंध एक ही प्रकार के व्यक्तियों के बीच होता है तो इसे होमोसैक्सयुअल एवं जब विपरित लिंग के बीच होता है तो इसे हैट्रोसैक्सयुअल कहा जाता है। ये सम्बन्ध स्त्री-पुरुष किसी में भी हो सकता है। परंतु जेंडर का संबध पूर्णतः सामाजिक परिवेश में होता है। ये कोई दो लोगों के बीच का संबंध नहीं होता है बल्कि एक समूह या पूरे समाज के बीच होता है। जैसे-अगर हम मेसकुलिन या मेसकुलिनिटी की बात करें तो इसका अर्थ यहां पर पुरुष व्यवहार समझा जाता है, जिसमें वस्तुतः अधिकार की बात होती है। उदाहरण के तौर पर, जुंग ने अपनी पुस्तक ‘Aspects of Masculanity’ में विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच प्यार समस्या के बार में बात की है। इसमें जुंग ने कहा कि ये जो प्यार होता है, इसमें एक लड़की की लड़के पर निर्भरता बढ़ जाती है जिसमें कई प्रकार आर्थिक परिस्थितियां भूमिका निभाती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अगर किसी लड़के के पास काफी धन है तो वह किसी लड़की का उपयोग कर सकता है।
अतः इस प्रकार यहां पर जुंग ने पुरुष पक्ष की ओर से व्याख्या करने की कोशिश की है परंतु स्त्री के पक्षों पर कोई बात नहीं की है। परंतु वर्तमान समय में बहुत सारी नारीवादी लेखिकाएं नारीवाद की प्रकृति पर लिख रही हैं, जो वस्तुतः नारी समस्याओं को उजागर करने की कोशिश है।
जैसा कि ऊपर लिखित विवरण से स्पष्ट होता है कि जेंडर एक सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मुद्दा है जिसकी विस्तृत में व्याख्या करने की आवश्यकता है। जहां तक जेंडर के सामाजिक व सांस्कृतिक आयामों की बात है, उसकी हम व्याख्या कर चुके हैं। अब आर्थिक रूप से भी स्त्री और पुरूष निर्भर होने की कोशिश कर रहे हैं। परंपरावादी समाज में स्त्री को घर से बाहर कार्य करने की अनुमति नहीं थी, परंतु अब स्त्री अपने परिवार के लिए आर्थिक उपार्जन करने के लिए प्रयत्नशील है। यह तभी संभव हुआ जब स्त्री भी शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ी। दूसरी बात जागरूकता एवं नारीवादी आंदोलन भी स्त्री के विकास में काफी सहयोग प्रदान कर रहे हैं एवं इसके फलस्वरूप अब स्त्री किसी पुरुष की अधीनता स्वीकार नहीं कर सकती। इन सारी बातों के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण समाज का विकास होगा, क्योंकि इससे पहले समाज की सिर्फ आधी जनसंख्या ही उत्पादन प्रक्रिया में शामिल रहती थी, परंतु अब ऐसी स्थिति नहीं है।
जहां तक राजनैतिक आयाम का सवाल है तो इसमें भी ‘जेंडर की अवधारणा’ की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में राजनैतिक व्यवस्था के द्वारा सभी प्रकार के संगठनों में स्त्री-पुरूष समानता के लिए आरक्षण के ऊपर काफी बातचीत चल रहीं हैं। जैसे-भारत में 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के तहत महिलाओं का 30 प्रतिशत पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में स्थान सुरक्षित है। दूसरी ओर अभी विधान सभा एवं लोक सभा, राज्य सभा में भी बातें चल रहीं है। साथ ही विभिन्न प्रकार के शैक्षिक संस्थान भी लड़कियों के नामांकन के लिए आरक्षण प्रदान करते हैं। कुछ संस्थानों में इन्हें वंचित भी किया जा सकता है।
अतः आज की परिस्थिति में यह स्वीकार करना अत्यन्त ही आवश्यक है कि स्त्री-पुरुष सभी क्षेत्रों में समान हैं और तभी किसी भी समाज का विकास हो सकता है। यही कारण है कि पश्चिम के देश विकसित हैं क्योंकि वहां जेंडर असमता की बात एवं क्रियान्वयन दोनों नहीं होते, परंतु अविकसित/विकासशील देश परंपरावादी एवं रूढि़यों से जकड़े हैं, शायद इस देश के नागरिक सैक्स एवं जेंडर को आज तक नहीं समझ पाये। परंतु आज भी सैक्स एवं जेंडर की समस्या बनी हुई है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज आज तक इस सच्चाई से भागते रहे कि दोनों की भूमिका विभिन्न दृष्टिकोणों से अलग-अलग है एवं इसमें समानता के आधार पर सहयोग की आवश्यकता है, जिससे एक स्वस्थ परिवार, स्वस्थ समाज एवं स्वस्थ देश की कल्पना सार्थक हो सके।
Question : सामाजिक स्तरीकरण सिद्धान्त से संबंधित मेलविन टयुमिन की समीक्षा कीजिए।
(2002)
Answer : मेलविन टयुनिम मुख्यतः डेविस एवं मूरे की सामाजिक स्तरीकरण सिद्धान्त की आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं। ट्युमिन ने मूरे के प्रकार्यात्मक सिद्धान्त को स्थिति पर आधारित प्रकार्यात्मक महत्व के मापन पर प्रश्न किया है। डेविस एवं मूरे ने अपने सिद्धान्त में यह तथ्य निरूपित किया है कि उच्चतर श्रेणी की पुरस्कृत स्थिति निश्चित रूप से अधिक महत्वपूर्ण है। परंतु, इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बहुत से व्यवसाय निम्न प्रकार के होते हैं पर वे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। अतः टयुमिन ने इस आधार पर यह कहा है कि कुछ श्रमिकों के काम उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं जितने की एक अभियंता का। वास्तव में, बहुत सारे समाजशास्त्रियों ने यह संभावना व्यक्त की है कि किसी भी स्थिति के प्रकार्यात्मक महत्व को मापा नहीं जा सकता है कि कौन अच्छा है और कौन बुरा तथा कौन सा काम उच्च है और निम्न।
टयुमिन ने स्पष्ट किया है कि डेविस एवं मूरे ने पुरस्कार के असमान वितरण पर शक्ति के प्रभाव को अनदेखा कर दिया है। इसलिए यह कहा जा सकता है पुरस्कार के असमान वितरण के पीछे मूल कारण शक्ति का प्रयोग रहा है न कि प्रकार्यात्मक महत्व। उदाहरण के तौर पर, एक खेत में काम करने वाला श्रमिक एवं दूसरा कोलमाइंस में काम करने वाला मजदूर दोनों की परिस्थितियों में अंतर का कारण मुख्यतः शक्ति का मोलभाव का रहा है।
डेविस व मूरे ने यह कहा है कि समाज में बहुत सीमित व्यक्तियों के पास ज्ञान एवं मेधाशक्ति है एवं ऐसे ही व्यक्ति कुछ प्रमुख कार्यों को करने में सक्षम हैं। परंतु टयुनिम यहां पर इस बात को अस्वीकार करता है एवं अपने विचार में वह कहता है कि इस प्रकार के ज्ञान एवं मेधाशक्ति का समाज में कोई प्रमाण नहीं है जो समाज के लिए अपवाद हो। दूसरी बात, टयुमिन ने स्पष्ट किया है कि शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा के सही मेधाशक्ति को मापने का कोई स्पष्ट आधार नहीं है। इन सारी बातों के लिए टयुनिम ने एक रास्ता बताते हुए दिखाया है कि किसी छात्र को उसके स्व विकास के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाये एवं उसे प्रशिक्षण के बाद दस साल के लिए समान आय प्रदान की जाये, परंतु अगर उसके बाद वह अपनी स्थिति नहीं सुधारता है तो यह मजदूरी बंद कर देना चाहिए।
डेविस एवं मूरे के अनुसार, इस असमान पुरस्कार के पीछे मुख्य कारण मेधावी व्यक्ति को प्रकार्यात्मक रूप से सबसे महत्वपूर्ण स्थानों के लिए प्रवृत्त किया जाना है। टयुमिन ने इसे अस्वीकार करते हुए यह वक्तव्य दिया है कि सामाजिक स्तरीकरण मेधावी लोगों की भर्ती के लिए एक रोधक की तरह काम कर सकता है। यह केवल बंद व्यवस्था जैसे-जाति एवं प्रजातिगत स्तरीकरण में दिखाई देता है। अतः एक अछूत को अधिक मेधावी होने के बावजूद भी वह स्थिति नहीं मिल पाती है जो ब्राह्मण को उसके Ascribed प्रस्थिति के कारण मिलती है। हाल ही में ‘संयुक्त राज्य अमेरिका’ में काले लोगों के लिए उच्चतम प्रस्थिति के पदों पर रोक थी।
पुनः टयुमिन ने यह बात स्पष्ट की है कि सामाजिक स्तरीकरण की खुली व्यवस्था में भी मेधावी व्यक्ति की भर्ती पर सीधी तौर रोक लगायी जाती है। इन्होंने शिक्षा के क्षेत्रों का हवाला देकर यह स्पष्ट किया है कि सभी पाश्चात्य औद्योगिक समाजों में वर्ग संरचना के आधार पर मेधाशक्ति से पूर्ण रहते भी निम्न वर्ग में आता है, तो उसे उच्च वर्ग के लोगों के स्कूल में नामांकन नहीं मिलता है। इस प्रकार से वर्ग व्यवस्था भी इस भावना को सह देने में काफी आगे है। इसके अतिरिक्त टयुनिम, डेविस व मूरे के सिद्धान्त को सामाजिक स्तरीकरण के सभी प्रकार के व्याख्या करने में सफल रहा है। पुनः टयुमिन ने स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति पहले से उच्चतम प्रस्थिति के कार्यों में विद्यमान है, उसकी ही भावी पीढ़ी उस प्रस्थिति पर पहुंच पायेंगी। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन इसका बहुत अच्छा उदाहरण है।
अतः इस प्रकार से टयुमिन का सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त कोई विशिष्ट अवधारणा या सिद्धान्त को स्पष्ट नहीं करता, बल्कि डेविस व मुरे की आलोचना करता है। परन्तु जहां तक टयुमिन के विचार का सवाल है, यहां भी कुछ वैमनस्य दिखलाई पड़ता है। अगर आप वर्तमान समय का अध्ययन करें तो निम्न वर्ग/जाति के लोगों को सरकार द्वारा सभी भर्तियों में आरक्षण मिला है, जिसके कारण इन लोगों के परिस्थितियों में बहुत परिवर्तन आया है। दूसरी बात, आज के युग में लगभग सभी जागरूक हो चुके हैं। अतः किसी भी प्रकार की भेदभाव की संभावना कम नजर आती है। परंतु इस तथ्य से भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि जो लोग पहले से ही उच्च परिस्थिति प्राप्त किये हुए हैं उनसे निम्न स्तर के लोगों को प्रतिस्पर्धा करना होगा एवं इसके लिए निम्न वर्ग के लोगों का उच्च वर्ग के लोगों से काफी अधिक मेहनत करनी होगी। इन सारे दृष्टिकोण से यह स्पष्ट होता है कि टयुमिन के द्वारा दिये गये विचार हवा में पत्थर फेंकने जैसी बात नहीं हैं। इसमें काफी सच्चाई एवं वैज्ञानिकता है। अतः टयुमिन की सामाजिक स्तरीकरण की व्याख्या काफी महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है।
Question : आधुनिक समाज में लैंगिक भूमिकाओं का उभरता प्रारूप
(2001)
Answer : आधुनिक समाज में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता की प्रवृत्ति घटती जा रही है। वर्तमान समय में चेतना, शिक्षा का बढ़ता स्तर एवं आधुनिकता का स्तर का प्रभाव लैंगिक भूमिकाओं में काफी परिवर्तन लाया है। परंतु दूसरी ओर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जहां पर सामाजिक संरचना ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित है वहां इसका प्रभाव कम ही देखने को मिलता है। नगरों में आधुनिकता के प्रभाव के फलस्वरूप बहुत ही परिवर्तन देखने को मिलता है।
आधुनिक समाज में सर्वप्रथम तथ्य यह है कि स्त्री-पुरुष के बीच शिक्षा के स्तर में कोई दूरी नहीं रह गयी है। यहां तक कि लड़कियां शिक्षा के हर एक क्षेत्र में लड़कों से काफी आगे निकलते हुए दिखती है। अतः यहां पर कोई सामाजिक दूरी नहीं रह गयी है। दूसरी बात यह है कि आधुनिक समाज में स्त्रियां अधिक से अधिक आत्मनिर्भर देखने को मिलती है। स्त्रियां भी पुरुषों के समान सभी काम काजी क्षेत्रों में व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र है। वर्तमान स्थिति का अगर हम विश्लेषण करें तो पाते हैं कि सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों में कुछ वर्षों में स्त्रियों की संख्या लगातार बढ़ते जा रही है। इसके फलस्वरूप लिंग विभिन्नता एवं असमानता की प्रवृत्ति में काफी कमी आयी है।
परंतु दूसरी ओर इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इस आधुनिकता के फलस्वरूप पारिवारिक संबंधों में ह्रास हुआ है। सर्वप्रथम यह संयुक्त परिवार की प्रणाली को रूपांतरित नाभिकीय परिवार में करता है, तत्पश्चात इस समाज में व्यक्तिवादिता का स्तर इतना अधिक बढ़ जाता है कि नाभिकीय परिवार में भी विखंडन शुरु हो जाता है। वर्तमान अध्ययन से यह पता चलता है कि आधुनिक समाज में तलाक की घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है। साथ ही परिवार के सदस्यों के बीच सहयोग की भावना में ह्रास हुआ है क्योंकि व्यक्तिवादिता एवं व्यावसायिक संबंध इसके लिए जिम्मेदार है। परिवार में बच्चों का इस प्रकार के समाज में सही समाजीकरण नहीं हो पा रहा है। फिर भी आधुनिक समाज में लैंगिक असमानता की प्रवृत्ति में ह्रास देखने को मिला है।
Question : अंतःपीढ़ी गतिशीलता।
(2000)
Answer : अंतःपीढ़ीय संघर्ष मुख्यतः परिवार में बच्चों और माता-पिता के बीच संघर्ष, शिक्षा संस्थाओं में छात्रों और शिक्षकों के बीच संघर्ष, कार्यालयों में पुराने और नये कर्मचारियों के बीच संघर्ष के रूप में देखा जाता है। युवा वर्ग को पुरानी पीढ़ी के साथ संघर्ष और उनके विरुद्ध खड़े होने के प्रेरक तत्वों में प्रमुख हैं- पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव, मनोरंजन के वाणिज्यिक साधनों के लिए मूल्य, बढ़ता खाली समय तथा माता-पिता की अधिक समृद्धि और शक्ति। पश्चिमी संस्कृति ने व्यक्तिवाद और समानता के आधार पर आधारित उनके मूल्यों को बदल दिया है, वाणिज्यिक मनोरंजन ने उन्हें यह अनुभव करा दिया है कि उनके लक्ष्यों की प्राप्ति में हिंसा और धमकी का क्या महत्व हो सकता है। अंशकालिक शिक्षा ने उन्हें इतना खाली समय दिया है कि जिन कार्यों को व्यस्त जीवन में पूरा नहीं कर सकते थे, वे अब कर सकते हैं तथा पैतृक समृद्धि और शक्ति ने उन्हें प्रभाव डालने की शक्ति प्रदान कर दी है। इन सभी बातों में एक भिन्न संस्कृति को जन्म दिया है जिससे अशान्ति और अंतः पीढ़ी संघर्ष पैदा हुए है।
पुरानी पीढ़ी तथा नयी पीढ़ी के बीच संघर्षों के कारणः (1) युवकों में यह भावना कि उनके बड़े अपने प्रभुतापूर्ण अनुपयुक्त व अन्यायपूर्ण व्यवहार को उनके ऊपर थोपना चाहते थे। (2) युवकों में बढ़ता हुआ यह विश्वास कि वे अपने माता-पिता से सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक उन्नतिशील हैं। (3) युवकों की यह भावना कि उनके बड़ों के सख्त मिजाज के कारण उनका व्यक्तिवाद दब जाता है। (4) युवकों की आकांक्षाएं व आवश्यकताएं उस रूप में पूर्ण नहीं होती जैसी वे उम्मीद करते हैं। (5) सामाजिक रीति-रिवाजों और धार्मिक विश्वासों के प्रति दृष्टिकोण में अंतर।
कुछ वैधानिक उपायों ने भी माता-पिता व बच्चों के बीच संबंधों में दरार पैदा की है। माता-पिता अपने बच्चों को अपनी संपत्ति के हिस्से से वंचित नहीं कर सकते। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार बिना वसीयत किये मरने वाले हिंदू पुरुष की संपत्ति का अधिकारांतरण उसके विशिष्ट उत्तराधिकारियों को ही होगा।
Question : आप स्तरित और अस्तरित सामाजिक स्थितियों के बीच किस प्रकार विभेदन करेंगे? मानव समाज में सामाजिक स्तरण के सर्वव्यापी अस्तित्व के लिए आप क्या स्पष्टीकरण प्रस्तुत करेंगे?
(1999)
Answer : सामाजिक स्थिति से हमारा अभिप्राय हमेशा एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के समूह के सामाजिक पद से है। दूसरी तरफ स्तरण से हमारा तात्पर्य समस्त समाज के स्तर पर विभिन्न प्रकार की स्थितियों का श्रेणीबद्ध विभाजन या व्यवस्था से है। स्तरण पूरे समाज को उसकी समग्रता में देखने का प्रयास करता है। स्थिति एवं संस्तरण के निर्धारकों के बीच स्पष्ट फर्क है। वह यह है कि स्तरण के कारक समस्त समाज के विभाजन के कारक है तो स्थिति के निर्धारक समाज में व्यक्तियों की स्थिति के विभाजन के कारक हैं। कभी-कभी भ्रम इसीलिए होता है कि जाति और वर्ग व्यवस्था के तत्व स्तरण और स्थिति दोनों को समान रूप से प्रभावित करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी कारक हैं जिनके द्वारा मात्र व्यक्तियोंकी हैसीयत का निर्धारण होता है, स्तरण का नहीं। जैसे- आयु, लिंग या व्यक्तिगत गुण सामाजिक स्थिति के निर्धारक हैं, स्तरण के नहीं। सोरोकिन के निम्नलिखित विचार से दोनों के बीच फर्क और अधिक स्पष्ट हो जाता है। स्तरण समाज का एक विषय स्तरीय अक्ष पर विभेदीकरण है, तो हैसियत व्यक्तियों का विषय स्तरीय एवं समस्तरीय दोनों अक्षों पर विभेदीकरण हैं।
उपरवर्णित तथ्यों से यह स्पष्ट है कि आयु, लिंग एवं व्यक्तिगत गुण सामाजिक स्थिति के निर्धारक है। स्तरीय स्थिति शब्द की व्याख्या में हम यह कह सकते हैं कि यह आयु, लिंग एवं व्यक्तिगत गुण के आधार पर श्रेणीबद्ध विभाजन हैं परंतु अस्तरीय स्थिति के अंतर्गत हम आयु, लिंग एवं व्यक्तिगत गुण के आधार पर विभाजन नहीं कर पाते हैं। अतः इससे स्पष्ट होता है कि स्तरीय स्थिति के अंतर्गत विषयस्तरीय अक्ष पर विभेदीकरण होता है जबकि अस्तरीय स्थिति को हम समस्तरीय विभेदीकरण के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, एक ही महाविद्यालय में प्राचार्य, शिक्षक, क्लर्क एवं पियुन के बीच स्तरीय स्थिति पायी जायेगी जबकि विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य की स्थिति समस्तरीय होगी जो अस्तरीय स्थिति का द्योतक है।
इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक स्तरण प्रत्येक समाज में पाया जाता है चाहे वो प्राचीन समाज हो या आधुनिक। इसमें सिर्फ स्तरण की प्रकृति एवं अंश में अंतर होता है। इस तथ्य की व्याख्या वास्तव में प्रकार्यवादी विचारधारा के प्रवर्त्तकों द्वारा की गई है। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्त्तक किंग्सले डेविस एवं विलबर्ट मूर हैं। इस सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि सामाजिक स्तरण समाज की जरूरतों की उपज है, न कि व्यक्तियों की जरूरतों की। सामाजिक स्तरण की यह विचारधारा तीन मान्यताओं पर आधारित है- (i) विश्व में ऐसा कोई भी समाज नहीं है जहां स्तरण नहीं हैं। विभिन्न मानवशास्त्रियों के अध्ययनों से यह स्पष्ट पता चलता है कि प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी तरह का स्तरण अवश्य पाया जाता है।(ii) प्रत्येक समाज में लगभग समान प्रकार के विभिन्न स्तरों के बीच प्रतिष्ठा का बंटवारा है। जैसे-जैसे सामाजिक स्थिति या श्रेणी में गिरावट होती है, वैसे-वैसे प्रतिष्ठा में भी गिरावट होती है। किसी भी समाज में प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से प्रतिष्ठित नहीं होता है। जो लोग समाज के सबसे ऊंचें पदों पर आसीन हैं, उन्हें समाज में सबसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। कोई भी व्यक्ति इसे आसानी से समझ सकता है कि भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा राज्यपाल को समान प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हैं। (iii) इस सिद्धांत की तीसरी मान्यता है कि विभिन्न समाजों के बीच सामाजिक स्तरण के स्वरूप में भिन्नताएं हैं। उदाहरणस्वरूप सरल समाजों में स्तरण का आधार आमतौर पर उम्र एवं लिंग हुआ करता है, जबकि जटिल समाजों के अंतर्गत स्तरण का आधार भी काफी जटिल होता है, जैसे- शिक्षा, वैयक्तिक गुण, राजनीतिक हैसियत, सम्पत्ति इत्यादि। यहां डेविस एवं मूर के सिद्धांत में स्तरण के बारे में दो बाते विशेष रूप से ध्यान देने की है, पहली तो यह है कि स्तरण एक विश्वव्यापी सामाजिक यथार्थ है और दूसरी यह है कि स्तरण के आधार पर सभी समाजों के लिए समान नहीं है। अपने सिद्धांत के समर्थन में डेविस एवं मूर ने निम्नलिखित विचार पेश किये हैं, जो काफी तर्क संगत लगता है।
डेविस एवं मूर ने यह तर्क दिया है कि किसी भी समाज में सभी व्यक्ति समान स्तर के नहीं हो सकते है। समानता की भी अपनी एक सीमा होती है। समान स्तर के लोगों से समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। सामाजिक असमानता समाज के लिए नितान्त आवश्यक है। इसीलिए कि प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न कार्यों के निष्पादन के लिए समान रूप से पुरस्कृत नहीं किया जा सकता है। हरेक कार्य के लिए अलग-अलग पुरस्कार और प्रोत्साहन होता है। जिस कार्य की समाज में सबसे अधिक आवश्यकता होती है उस कार्य के लिए समाज ज्यादा पुरस्कार देता है, जैसे- इंजीनियर और मजदूर को बराबर मजदूरी नहीं दी जा सकती है उसी तरह टैक्सी चालक और हवाई जहाज के पायलट को बराबर वेतन नहीं दिया जा सकता है। हर किसी को यदि समाज में सभी कार्यों के लिए समान मजदूरी या इनाम मिले तो कोई भी व्यक्ति कठिन या जोखिम भरे कार्य को नहीं करना चाहेगा। सभी लोग आसान काम करके ही जीवन-यापन पसंद करेंगे।
स्तरण के इस सिद्धांत का संक्षेप में इस प्रकार वर्णन किया जा सकता हैः
डेविस एवं मूर का यह दृष्टिकोण कि समाज के लिए कुछ पद अधिक महत्वपूर्ण हैं तो कुछ कम, यह एक विवादपूर्ण तर्क है। यह तय करना काफी कठिन काम है कि कौन-सा काम सबसे अधिक और कौन-सा सबसे कम महत्वपूर्ण है। किसी काम की महत्ता के पीछे व्यक्तिनिष्ठता का भाव छिपा हुआ है। यह तय करना बहुत ही कठिन काम है कि कूड़ा उठानेवालों का काम स्कूल शिक्षक की तुलना में कम महत्व का है। प्रकार्यवादी सिद्धांत के इस दोष को सर्वप्रथम मेलविन एम. टयुमिन ने उजागर किया है।
Question : सामाजिक गतिशीलता की प्रकृति और अभिलक्षणों पर चर्चा कीजिए। क्या सामाजिक गतिशीलता की प्रकृति और दर को आर्थिक विकास का एक सूचक माना जा सकता है? टिप्पणी कीजिए।
(1999)
Answer : किसी समाज की सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था में, सामान्यत व्यक्तियों और कभी-कभी किसी सम्पूर्ण समूह की भिन्न पद-प्रस्थियों के बीच होने वाले संक्रमण/परिवर्तन को सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। साधारण अर्थों में आय के बढ़ने या घटने के कारण किसी व्यक्ति का एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश की स्थिति सामाजिक गतिशीलता को इंगित करती है। सामाजिक गतिशीलता सामाजिक आकाश में पद-प्रस्थिति के परिवर्तन का संकेत देती है।
सामाजिक गतिशीलता को कुछ विद्वानों ने सामाजिक स्थिति में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर स्पष्ट किया है। सोरोकिन के अनुसार, ‘सामाजिक गतिशीलता का अर्थ का सामाजिक स्थिति से दूसरी स्थिति में किसी व्यक्ति सामाजिक तथ्य अथवा सामाजिक मूल्य का संक्रमण होना है अथवा किसी भी उस वस्तु का संक्रमण होना है जो मनुष्य के प्रयत्नों द्वारा निर्मित अथवा संशोधित हो।’ इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि सामाजिक गतिशीलता का अर्थ व्यक्ति अथवा किन्हीं भी सामाजिक तथ्यों कीे स्थिति में परिवर्तन होना है। यह स्थिति चाहे पहले से अच्छी हो जाये अथवा बुरी, उच्च हो जाये अथवा निम्न, लेकिन दोनों स्थितियों में यह सामाजिक गतिशीलता का उदाहरण है। उदाहरण के लिए यदि कुछ समय बाद व्यक्ति के वैवाहिक अथवा पारिवारिक जीवन, सन्तानों की संख्या, शैक्षणिक उपलब्धियों की स्थिति, वर्गीय स्थिति, आय के स्तर, स्वास्थ्य की दशाओं, धार्मिक गठबंधनों अथवा स्वामित्व के क्षेत्र में स्थिति संबंधी परिवर्तन हो जायें, तब पारिवारिक रूप से ऐसे व्यक्ति को हम एक ‘गतिशील प्राणी’ कहेंगे। एक ही समाज में जब बड़ी संख्या में व्यक्ति अपनी स्थिति में परिवर्तन की स्थिति महसूस करते हैं, तब इस दिशा को हम सामाजिक गतिशीलता की स्थिति कहते हैं।
सोरोकिन ने सामाजिक गतिशीलता को दो भागों में विभाजित किया है- (1) क्षैतिज या समरैखीक सामाजिक-गतिशीलता, (2) उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता। यहां पर हम दोनों प्रकार की गतिशीलता के लक्षण एवं प्रकृति का उल्लेख करेंगे।
(1) क्षैतिज या समरैखीक सामाजिक गतिशीलता रू क्षैतिज या समरैखिक सामाजिक गतिशीलता में एक व्यक्ति उसी स्तर के एक समूह से दूसरे समूह में गमन करता है। फिचर के अनुसार, ‘क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एक ही सामाजिक स्तर के एक ही प्रकार के सामाजिक समूह या स्थिति से दूसरे में आगे या पीछे गमन करना है।’
सोरोकिन के अनुसार, ‘क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु का एक ही स्तर में स्थित एक समूह से दूसरे समूह में स्थानांतरण है।’ उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता में एक व्यक्ति समान सामाजिक स्तर के समूहों या पदों का गमन करता है। क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता में गमन करने वाले व्यक्ति या सामाजिक समूह की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होता हैं
सोरोकिन ने क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता के अनेक उदाहरण प्रजाति, लैंगिक एवं आयु-समूह, क्षेत्रीय समूह, परिवार, नातेदारी, धर्म, व्यवसाय, राजनीतिक दल आदि से दिये हैं।
(2) उदग्र या रैखिक (लंबवत) सामाजिक गतिशीलताः जब किसी व्यक्ति या समूह द्वारा एक सामाजिक स्तर से दूसरे सामाजिक स्तर में गमन होता है तो उसे उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। इसे परिभाषित करते हुए गोल्ड एवं कॉब-लिखते हैं, ‘यदि किसी प्रस्थिति एवं भूमिका में ऐसा परिवर्तन जिसमें सामाजिक वर्ग पद में भी परिवर्तन सम्मिलित हो तो उसे उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता कहते हैं, जिसके उपवर्ग में ऊपर एवं नीचे की ओर गतिशीलता सम्मिलित है।’ फिचर के अनुसार, ‘उदग्र गतिशीलता का लोगों को एक सामाजिक प्रस्थिति से दूसरी एवं एक सामाजिक वर्ग से दूसरे में गमन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति या समूह एक सामाजिक स्तर से दूसरे सामाजिक स्तर में चले जाते हैं। यह सामाजिक स्तर पहले वाले से ऊंचा या नीचा हो सकता है। उदाहरण के लिए, गरीब व्यक्ति का धनवान बन जाना, श्रमिक का कारखाना-मालिक बन जाना, ठेला-गाड़ी पर आलू बेचने वाले का कपड़े का थोक विक्रेता बन जाना उदग्र सामाजिक गतिशीलता है। सोरोकिन ने गतिशीलता की दिशा के आधार पर उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता को भी दो उपभागों में बांटा है- (i) उर्ध्वगामी (Upward or ascending), (ii) अद्योगामी (Downward or Descending) तथा सामाजिक पतन भी कहते हैं।
उर्ध्वगामी सामूहिक सामाजिक गतिशीलता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हम भारतीय जाति-व्यवस्था में देख सकते हैं। कई बार मध्यम वर्ग की जातियां जाति व्यवस्था में ऊंचा उठने का प्रयास करती हैं। श्री निवास ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया द्वारा जातियों की उर्ध्वगामी गतिशीलता को व्यक्त किया है।
आजादी के बाद निम्न और अछूत जातियों को संविधान द्वारा अनेक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं शैक्षाणिक सुविधाएं प्रदान की गई हैं। पंचायत से लेकर संसद तक चुनावों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित किए गए हैं। आर्थिक दृष्टि से भी निम्न जातियों ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाया है। इस प्रकार भारत में निम्न जातियों में उर्ध्वगामी गतिशीलता देखने को मिलती है। दूसरी और ब्राह्मण और कई उच्च जातियों के व्यक्ति निम्न जातियों के उच्च अधिकारियों के अधीन चपरासी या क्लर्क, आदि पदों पर कार्य कर रहे हैं जो कि उच्च जातियों की अद्योगामी गतिशीलता का सूचक है।
सामाजिक गतिशीलता समाज में व्यक्तियों को अपनी योग्यता एवं परिश्रम के आधार पर आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करती है जो अंततोगत्वा आर्थिक विकास को आधार प्रदान करती है। इस तथ्य को हम निम्नांकित बिंदुओं के अंतर्गत देख सकते हैं-
होजेज का मत है कि किसी भी समाज में सामाजिक गतिशीलता की मात्र एवं दर समाज में विद्यमान अवसर संरचना पर निर्भर करती है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया समाज के व्यक्तियों में एक अवसर प्रदान करती है जिससे समाज का सामाजिक एवं आर्थिक विकास होता है। गतिशीलता के फलस्वरूप व्यक्ति को धन अर्जन में सहायता प्राप्त होती है जो अर्जित प्रस्थिति का द्योतक है। इसलिए आधुनिक समाज में हम यह पाते हैं कि आर्थिक विकास की गति बहुत अधिक है। परंपरागत समाज में यह बात नहीं पायी जाती है क्योंकि ये समाज प्रदत्त प्रस्थिति पर आधारित होते हैं। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि सामाजिक गतिशीलता न सिर्फ सामाजिक क्षेत्रों में ही देखने को मिलती है बल्कि यह व्यावसायिक गतिशीलता का भी द्योतक है।
Question : वर्ग के रूप में जाति।
(1998)
Answer : पश्चिमी विद्वानों और विशेषकर ब्रिटिश प्रशासकों और नृजाति-विशेषज्ञों के अनुसार जाति और वर्ग एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। उनकी मान्यता है कि जाति और वर्ग भिन्न प्रकार के सामाजिक स्तरीकरण हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति श्रेणीकृत इकाइयां होती हैं और जाति में समूह श्रेणीकृत होते हैं।
परंतु दूसरी ओर भारतीय समाजशास्त्री यह मानते हैं कि जाति एवं वर्ग एक-दूसरे से संबंधित हैं। जाति और वर्ग दोनों वास्तविक और आनुभाविक हैं। दोनों में अंतःक्रियात्मक और सोपानुगत है और एक-दूसरे में प्रविष्ट हैं। चूंकि जाति में वर्ग सम्मिलित है और वर्ग में जाति सम्मिलित है, इसलिए न तो केवल ‘जाति दृष्टिकोण’ और न ‘वर्ग दृष्टिकोण’ ही भारत की सम्पूर्ण सामाजिक वास्तविकता को समझने में सक्षम है।
कैथलीन गॅफ ने सामाजिक संरचना के रूप में उत्पादन बहुलक के विश्लेषण में जाति और वर्ग के अंतःसंबंधों पर प्रकाश डाला है जिसमें जाति, राजस्व, परिवार और विवाह के अंतःसंबंध उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन संबंधों के साथ पाए जाते हैं। गॅफ की मान्यता है कि वर्ग संबंधों को भारत में जाति और बंधुता के अध्ययन में अनुक्षेत्र मान्यता के रूप में स्वीकार करते हैं। कई विद्वानों ने वर्ण और जजमानी प्रथा को वर्ग संबंधों और उत्पादन के तरीकों के रूप में समझाया है।
जाति और वर्ग बहुत हद तक एक ही संरचनात्मक आवश्यकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जाति और धर्म अभिबंध के बारे में योगेन्द्र सिंह की टिप्पणी का उल्लेख करना उचित होगा। ‘यह स्थिति परिवर्तन के ‘समपाशर्वीय’ प्रारूप के जैसी है, जिसमें जाति और बंधुता से जुड़े हुए परम्परागत मनोभवों में अनुकूली रूपान्तरण होता है, परंतु वर्गों या सामूहिक समूहों में पूर्ण रूप से ‘विवर्तित’ हुए बिना ऐसा होता है। वर्ग जातियों के ढांचे में कार्य करते हैं।’ जाति संघर्ष को हम वर्ग संघर्ष भी कहेंगे क्योंकि सामाजिक स्थिति की दृष्टि से उच्च और निम्न जातियां उच्च और निम्न वर्गों के सामान्तर हैं। जातियां वर्गों की तरह कार्य करती है क्योंकि वे हितबद्ध गुटों की तरह कार्य करती है।
Question : सामाजिक स्तरीकरण के कार्यपरक सिद्धांत का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
(1998)
Answer : सामाजिक स्तरीकरण के कार्यपरक सिद्धांत के प्रमुख प्रवर्त्तक किंग्सले डेविस एवं विलबर्ट मूर हैं। इस सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि सामाजिक स्तरण समाज की जरूरतों की उपज है, न की व्यक्तियों की जरूरतों की। साथ ही यह सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक संगठन के लिए उपयोगी होती है। इस सिद्धांत से संबंधित प्रमुख विचारों को निम्नांकित क्रम में समझा जा सकता हैः
डेविस एवं मूर का यह दृष्टिकोण कि समाज के लिए कुछ पद अधिक महत्वपूर्ण हैं तो कुछ कम, यह एक विवादपूर्ण तर्क है। यह तय करना काफी कठिन काम है कि कौन-सा काम सबसे अधिक और कौन-सा सबसे कम महत्वपूर्ण हैं किसी काम की महत्ताकी पीछे व्यक्तिनिष्ठता का भाव छिपा हुआ है। यह तय करना बहुत ही कठिन काम है कि कूड़ा उठाने वालों का काम स्कूल शिक्षक के तुलना में कम महत्त्व का है, अतः उसे शिक्षक की तुलना में कम मजदूरी मिलनी चाहिए। उसी तरह से यह तय करना बहुत कठिन है कि एक रसोइए का काम सिपाही की तुलना में कम महत्वपूर्ण है। प्रकार्यवादी सिद्धांत में इस दोष की ओर सबसे पहले हमारा ध्यान मेलविन एम. टयुमिन ने आकृष्ट किया था। उन्होंने यह भी कहा है कि समाज में किसी व्यक्ति की योग्यता और कुशलता को मापने के लिए केवल वस्तुनिष्ठ आधार नहीं हैं। डेविस एवं मूर का यह विचार भी सही नहीं लगता है कि स्तरण से समाज में व्यवस्था या एकता कायम होती है। सत्य तो यह है कि स्तरण के कारण स्वार्थों की टकराहट होती है, जिसके कारण समाज में वर्ग संघर्ष या जातीय संघर्ष चलता रहता है। दलित पिछड़ा वर्ग आंदोलन एवं कृषक आंदोलन भारतीय संदर्भ में अच्छा उदाहरण पेश करता है।
बेनडिक्स एवं लिप्सेट ने स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धांत की विस्तृत चर्चा की है। आलोचकों का कहना है कि स्तरीकरण का यह सिद्धांत वृत्ताकार तर्क पर आधारित है, जैसे- उच्च वेतन समाज के लिए प्रकार्यात्मक या आवश्यक है क्योंकि कुछ लोगों को उच्च वेतन प्राप्त है। प्रकार्यवादियों ने संघर्ष एवं शक्ति से जुड़े तथ्यों को अपने सिद्धांत में कोई महत्व नहीं दिया है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि जोर-जबरदस्ती के आधार पर भी समाज में कुछ लोगों को नीचे रखा जाता है, जैसे-गोरी दुनिया में काले लोगों को और भारत में पिछड़ों तथा दलितों को स्तरण में निम्न स्थान प्राप्त है। इन तथ्यों को इस सिद्धांत में नजर अंदाज किया गया है।
प्रकार्यवादियों ने स्तरीकरण के अर्जित आधारों को कुछ ज्यादा ही उजागर किया है। इस तर्क को आज कोई भी व्यक्ति पूरी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उच्च पदों पर आसीन सभी व्यक्ति अपनी योग्यता के बल पर ही है। बहुत लोग समाज में उच्च श्रेणी वंश परंपरा या विभिन्न प्रकार के संकीर्ण प्रभावों के माध्यम से भी प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा राजतंत्र पर आधारित व्यवस्था एवं भारत जैसे विकासशील देशों में अक्सर देखने को मिलता है।
प्रकार्यवादी सिद्धांत सामाजिक स्थिरता का समर्थक है। दूसरे शब्दों में इसे परिवर्तन विरोधी भी कहा जा सकता है। यह समाज के वर्तमान व्यवस्था की सैद्धांतिक रूप से पुष्टि करता है। भारतीय संदर्भ में तो यह सिद्धांत बिल्कुल अनुपयोगी एवं अनुचित है। इस तरह की विचारधारा से जातिगत समाज को समर्थन मिलता है।
Question : ‘समाजीकरण वह प्रक्रम है जिसके द्वारा हममें से प्रत्येक उस संस्कृति का अर्जन करता है जिसको हम अगली पीढ़ी को संचारित कर देते हैं।’ इस कथन को सविस्तार प्रतिपादित कीजिए और इसकी विभिन्न अवस्थाओं पर चर्चा कीजिए।
(1998)
Answer : समाजीकरण एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम समाज के सक्रिय सदस्य बनते हैं। इस प्रक्रिया में समाज के मानदंडों और मूल्यों के आन्तरीकरण के साथ-साथ अपनी सामाजिक भूमिकाओं को सम्पादन करना सीखना दोनों बातें सम्मिलित होती है। इसी प्रक्रिया के द्वारा ‘स्व’ का विकास होता है, अतः कुछ समाजशास्त्रियों ने इसे ‘स्व’ के विकास की प्रक्रिया भी कहा है। इस प्रक्रिया में परिवार, समुदाय और विद्यालय की विशेष भूमिका होती है। यह अविरल रूप से जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इसमें सम्प्रेषण, संस्कृतिकरण तथा सीखने की सभी उन प्रक्रियाओं का समावेश होता है जिनके द्वारा एक मानवीय सावयव सामाजिक प्रकृति को ग्रहण कर सामाजिक जीवन में भाग लेने योग्य बनता है।
उपरोक्त कथन को सविस्तार व्याख्या करने के लिए हम निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार कर सकते हैंः
(i) सीखने की प्रक्रियाः व्यक्ति जो समाज के सदस्य के रूप में समाज के बारे में जो कुछ सीखता है, उसी प्रक्रिया को मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र के क्षेत्र में समाजीकरण कहा जाता है, पर प्रत्येक प्रकार के सीखने की प्रक्रिया को समाजीकरण नहीं कहा जा सकता है। परीक्षा पास करने के लिए कड़ी मेहनत करना, अपने से बड़ों का सम्मान करना, राज्य के नियम कानूनों का पालन करना, दूसरों के साथ सहयोग करना इत्यादि चीजों के बारे में सीखना समाजीकरण है, लेकिन पॉकेटमारी करने का हुनर हासिल करना या गाली या उपशब्द सीखना आदि समाजीकरण नहीं है।
(ii) आजीवन प्रक्रियाः समाजीकरण की प्रक्रिया शैशवकाल से प्रारंभ होकर वृद्धावस्था तक चलती है। यह एक अनवरत प्रक्रिया है। मनुष्य समाज के बारे में कुछ-न-कुछ हमेशा ही सीखता रहता है, पर यह प्रक्रिया समान रूप से हमेशा नहीं चलती है। वृद्धावस्था की तुलना में बाल्यकाल में लोग कुछ ज्यादा ही सीखते हैं। स्वीडीस मनोवैज्ञानिक पियाजे का कहना है कि बच्चे कुछ अधिक जल्दी और प्रभावशाली ढंग से सीखने की क्षमता रखते हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि बच्चों में नकल-करने की क्षमता बहुत जबरदस्त होती है। बच्चे प्रारंभ में दूसरों पर निर्भर रहते हैं और इस निर्भरता की स्थिति से आजाद होने के लिए वह किसी चीज को जल्द सीखने का प्रयास करते हैं।
(iii) यह संस्कृति को एक आत्मसात करने की प्रक्रिया हैः समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत हम अपनी संस्कृति के बारे में सीखते हैं या हम कह सकते हैं कि संस्कृति को सीखने की प्रक्रिया का नाम ही समाजीकरण है। चूंकि संस्कृति का स्वस्व अमूर्त होता है इसलिए इसे सीख कर ही हासिल किया जाता है। हम यह भी कह सकते हैं कि समाजीकरण के द्वारा जो सीखा जाता है वही संस्कृति है। यह भी उल्लेखनीय है कि मात्र अपनी संस्कृति का ज्ञान रखना ही समाजीकरण नहीं है, बल्कि उसके अनुरूप आचरण करना भी जरूरी है। इसीलिए तो कहा जाता है कि समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति के आत्मन का विकास होता है।
(iv) समाजीकरण एक गत्यात्मक प्रक्रिया हैः किस परिस्थिति में किस व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका ज्ञान हमें समाजीकरण के द्वारा ही होता है। मनुष्य का व्यवहार सिर्फ जैविक स्तर पर नहीं समझा जाना चाहिए। मनुष्यों के व्यवहारों का सामाजिक पहलू जैविक पहलू से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मनुष्यों का व्यवहार जो एक-दूसरे के संदर्भ में होता है वह एक सामाजिक प्राणी के रूप में होता है। समाजीकरण व्यक्ति के प्रकार्यात्मक क्षमता को बढ़ाता है। यह समाजीकरण ही है जिसके द्वारा कोई शिशु एक जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी में परिवर्तित होता है। संक्षेप में, हम यह कहना चाहते हैं कि समाजीकरण व्यक्तियों को विभिन्न परिस्थितियों में स्वीकृत आचरण का ज्ञान देता है जिससे हम समाज की तमाम गतिविधियों में समाज के अन्य सदस्यों की अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करते हैं।
समाजीकरण के स्तर
एच.एम. जॉनसन ने समाजीकरण के चार स्तरों की चर्चा की है- (1) मौखिक स्तर (Oral stage), (2) गुदा स्तर (Aual stage), (3) मातृरति स्तर (Oedipal stage), (4) किशोरावस्था (Adolescence).
प्रथम तीन स्तरों में समाजीकरण का मुख्य अभिकरण परिवार होता है। बच्चे अपने जीवन की अधिकांश चीजों के बारे में अपने माता-पिता से ही सीखते हैं। चौथे स्तर में द्वितीयक सामाजिक समूहों की महत्ता बढ़ जाती है। व्यक्ति परिवार से बाहर के लोगों से कुछ ज्यादा ही सीखता है।
(i) मौखिक स्तर: जब कोई शिशु जन्म लेता है तो वह उसी क्षण से बहुत प्रकार की परेशानियों एवं असुविधाओं का सामना करने लगता है। वह अपनी संवेदनाओं को रो-चिल्ला कर मुंह के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। भाषा के अभाव में रोने, चेहरे के हाव-भाव एवं हाथ-पैर चलाने के अलावा अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने का उसके पास कोई दूसरा माध्यम ही नहीं होता है। इस अवस्था में शिशु-परिवार में मात्र अपनी मां से ही संबंध स्थापित कर पाता है। बच्चा अपने आप को मां से अलग नहीं कर पाता है। मां की गोद में उसे कुछ ऐसी अनुभूति होती है जिससे उसे काफी-अच्छा लगता है। फ्रायड ने इस स्थिति को प्राथमिक परिचय कहा है। यह अवस्था जन्म से लेकर कोई एक डेढ़ वर्ष की होती है।
(ii) गुदा-स्तर: द्वितीय स्तर का काल थोड़ा इस अर्थ मे लम्बा होता है कि यह लगभग एक से तीन साल तक चलता है, पर इस अवधि की लम्बाई समाज पर भी निर्भर करती है। इस अवस्था में मां अपने बच्चों को स्तन्य त्याग एवं शौच प्रशिक्षण देने का प्रयास करती है ताकि वह थोड़ा आत्मनिर्भर हो सके। इस अवस्था में बालक को बातचीत करने तथा चलने-फिरने को भी सिखाया जाता है। बच्चा परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है। बच्चा क्रोध, स्नेह, विरोध एवं प्रेम के भाव से परिचित होता है। इस स्तर में प्राथमिक परिचय की स्थिति समाप्त हो जाती है। वह मां एवं अपनी भूमिका को स्वतंत्र रूप से देखने में काफी समर्थ हो जाता है। बच्चा यह समझने लगता है कि मां का संबंध सिर्फ उसी से नहीं बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों से भी है। बच्चे सिर्फ प्यार पाने की ही नहीं बल्कि प्यार देने की भी कोशिश करते हैं।
(iii) मातृरति स्तर: इस चरण का विस्तार सामान्यतः चौथे वर्ष से प्रारंभ होकर बारह या तेरह वर्ष की आयु तक चलता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस चरण को ऑडीपल संकट का काल कहा है। इस संबंध में यह जान लेना उपयुक्त होगा कि ऑडीपल ग्रीक साहित्य का एक ऐसा किरदार था जिसने अनजाने में अपनी मां से विवाह किया था और एलेक्ट्रा (Electra) एक ऐसी नायिका थी जिसने अनजाने में अपने पिता के साथ सहवास किया था। इन्हीं दो किरदारों को लेकर मनोवैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट किया कि मानव जीवन का यह एक ऐसा काल है जब पुत्र अपनी मां की ओर आकर्षितहोता है और उसे अपने पिता के प्रति मन में द्वेष होता है। ठीक इसके विपरीत पुत्री को अपने पिता से प्रेम होता है और माता के लिए उसके मन में वैर भाव-उत्पन्न होता है। पहली वाली स्थिति को मातृरति (Oedipus complex) और दूसरी वाली स्थिति को पितृरति या एलेक्ट्रा मनोग्रंथी (Electra Complex) कहा जाता है।
इस स्तर में यौन भावना इतनी विकसित हो जाती है कि वह अपनी मां पर अपने प्यार का एकाधिकार स्थापित करना चाहता है। वह चाहता है कि उसके पिता उसकी मां को प्यार न करे। लड़कियां भी अपने पिता पर एकाधिकार चाहती हैं और उसे मां से काफी ईर्ष्या होती है। पर इस अवस्था में यौन-भेद का बहुत स्पष्ट ज्ञान नहीं होता, लेकिन उसके प्रति सहज आकर्षण होता है।
(iv) किशोरावस्था: किशोरावस्था मानव जीवन का एक संक्रांति काल है। इस स्तर के बच्चे अपने माता-पिता के नियंत्रण से मुक्त होना चाहते हैं। इस काल में विभिन्न किस्म की बुरी आदतें लगने का भी भय रहता है। इस अवस्था में लड़के-लड़कियों में शारीरिक परिर्वतन स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगता है। यौन संबंधी ज्ञान इतना हो जाता है कि उसके कारण उनके जीवन में विभिन्न प्रकार के तनाव देखने को मिलते हैं। वे अपनी जीवजन्य अभिप्रेरणा के अनुरूप व्यवहार करने एवं मनोभावों को पूर्ण करने की पूरी कोशिश करते हैं। उन्हें अपने परिवार में कम और दोस्तों के बीच कुछ ज्यादा ही दिल लगता है। इस अवस्था में बच्चे के आत्म (Self) का पूरा विकास हो जाता है।
बीयरस्टेट ने सही लिखा है कि “Personalities do not come readymade”. किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में समाजीकरण की सबसे प्रभुत्व भूमिका होती है।
Question : उर्ध्वाधर और क्षैतिज गतिशीलता।
(1998)
Answer : सोरोकिन ने सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख प्रकारों का उल्लेख किया है- (1) क्षैतिज या समरैखिक सामाजिक गतिशीलता, (2) उदग्र या उर्ध्वाधर या रैखिक सामाजिक गतिशीलता।
क्षैतिज या समरैखिक गतिशीलता में एक व्यक्ति उसी स्तर के एक समूह से दूसरे समूह में गमन करता है। इसे परिभाषित करते हुए गोल्ड एवं कॉब लिखते हैं, ‘बिना सामाजिक वर्ग पद में परिवर्तन किए प्रस्थिति एवं भूमिकाओं के विशेष रूप से व्यावसायिक क्षेत्र में परिवर्तन को क्षैतिज गतिशीलता कहते हैं।’ सोरोकिन के अनुसार, ‘क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु का एक ही स्तर में स्थित एक समूह से दूसरे समूह में स्थानांतरण है।’
वास्तव में क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता में एक व्यक्ति समान सामाजिक स्तर के समूहों या पदों में गमन करता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति द्वारा एक गांव छोड़कर दूसरे गांव में चले जाना, श्रमिक द्वारा एक फैक्टरी छोड़कर दूसरे फैक्टरी में काम करना, एक प्रोफेसर का एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में एवं एक इंजीनियर का एक मिल से दूसरे मिल में उसी वेतन और पद पर काम करना क्षैतिज गतिशीलता है। क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता में गमन करने वाले व्यक्ति या सामाजिक समूह की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होता है। सोरोकिन ने क्षैतिज गतिशीलता के अनेक उदाहरण प्रजाति, लैंगिक एवं आयु समूह, क्षेत्रीय समूह, परिवार नातेदारी, धर्म, व्यवसाय, राजनीतिक दल, आदि से दिए हैं।
उदग्र या उर्ध्वाधर सामाजिक गतिशीलता: जब किसी व्यक्ति या समूह द्वारा एक सामाजिक स्तर से दूसरे सामाजिक स्तर में गमन होता है तो उसे उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। इसे परिभाषित करते हुए गोल्ड एवं कॉब लिखते हैं, ‘यदि किसी प्रस्थिति एवं भूमिका में ऐसा परिवर्तन जिसमें सामाजिक वर्ग पद में भी परिवर्तन सम्मिलित हो तो उसे उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता कहते हैं, जिसके उपवर्ग में ऊपर एवं नीचे की ओर गतिशीलता सम्मिलित हैं।’ सोरोकिन भी एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु के एक स्तर से दूसरे में स्थानांतरण को उदग्र सामाजिक गतिशीलता कहते हैं।
अतः उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति या समूह एक सामाजिक स्तर से दूसरे सामाजिक स्तर में चले जाते हैं। यह सामाजिक स्तर पहले वाले से ऊंचा या नीचा हो सकता है। उदाहरण के लिए, गरीब व्यक्ति का धनवान बन जाना, श्रमिक का कारखाना-मालिक बन जाना, ठेला-गाड़ी पर आलू बेचने वाले का कपड़े का थोक विक्रेता बन जाना उदग्र सामाजिक गतिशीलता है। सोरोकिन ने गतिशीलता की दिशा के आधार पर उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता को भी उपभागों में बांटा हैः (1) उर्ध्वगामी एवं (2) अधोगामी। इसे वह क्रमशः सामाजिक उत्थान एवं सामाजिक पतन भी कहते हैं। श्री निवास ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया द्वारा जातियों की उर्ध्वगामी गतिशीलता को व्यक्त किया है।