Question : एकाकी परिवार एवं औद्योगिक समाज।
(2006)
Answer : एकाकी परिवार अथवा मूल परिवार की अवधारणा की ओर सबस पहले हमारा ध्यान मरडॉक ने 1949 में आकर्षित किया था। आकार और संगठन की दृष्टि से मूल परिवार सबसे अहम् होता है। इसका संगठन पति-पत्नी एवं उन पर आश्रित बच्चों के योग से निर्मित होता है। इन परिवारों के अंदर गहरी अंतः क्रिया होती है। इसलिए विचारों, भावों तथा क्रियाओं का आदान-प्रदान उन्हीं के बीच सीमित रहता है।
ऐसे परिवारों में बच्चे वयस्क होते ही अपना पृथक मूल परिवार का निर्माण कर लेते हैं। पश्चिमी देशों में परिवार का यही स्वरूप व्यापक रूप से प्रचलित है। आजकल भारतीय समाजों में, विशेषकर महानगरों एवं नगरों में, इस तरह के परिवार का प्रचलन बढ़ रहा है। एकाकी परिवार की उत्पत्ति में औद्यौगीकरण एवं शहरीकरण का प्रमुख योगदान है। औद्यौगीकरण एवं शहरीकरण दोनों औद्यौगिक समाज की विशेषताएं हैं एवं एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। औद्यौगिक समाज के पारिवारिक संगठन पर तीन मुख्य प्रभाव हुए हैं:
परंतु भारत में किये गये कुछ आनुभाविश्रित अध्ययन इस बात का खंडन करते हैं कि औद्योगिक समाज में एकाकी परिवारों की बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें एम. एस. ए. राव, एम. एस. गोरे तथा मिल्टन सिंगर प्रमुख हैं। इन विद्वानों के अनुसार, औद्योगिक समाज का व्यापारी वर्ग संयुक्तता को अधिक वरीयता देता है तथा बहुत से एकाकी या परिवार अपने परम्परागत नातेदारी बंधनों को भी बहुत विस्तृत रूप से सुरक्षित रखते हैं। परंतु यह निर्विवाद रुप से सत्य है कि औद्योगिक समाज ने परिवार का विघटन किया है, जिससे एकाकी परिवार में बढ़ोत्तरी हुई है।
टालकट पारसंस का औद्योगीकरण एंव परिवार के संबंध में यह विचार उल्लेखनीय है कि औद्यौगीकरण ने मूल परिवार या नाभिकीय परिवार एवं नव स्थानीय परिवार के विकास की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है। वहीं कैम्ब्रीज विश्वविद्यालय के सामाजिक इतिहासकार लासलेट ने अपने ग्रेट ब्रिटेन के अध्ययन में इस बात का खंडन किया है कि औद्योगिक एवं मूल परिवार की वृद्धि के बीच कोई गहरा या सीधा संबंध है। लासलेट के अनुसार, औद्योगिक समाज के पहले भी ब्रिटेन के गांवों में मूल परिवार का विकास होना प्रारंम्भ हो गया था।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि एकाकी परिवार एवं औद्योगिक समाज का सीधा संबंध है, फिर भी भारत जैसे समाजों में, जहां औद्योगीकरण की प्रक्रिया अभी अपनी विकास की अवस्था में है, यह संबंध अधिक स्पष्ट नहीं है।
इस प्रकार के परम्परागत समाजों में फ्रेडरिक लीप्ले का शाखा परिवार (Stem family) अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। शाखा परिवार में एक नाभिकीय परिवार तथा कई सगे-संबंधी होते हैं।Question : सामाजिक नियंत्रण में परिवार की भूमिका।
(2005)
Answer : सामाजिक नियंत्रण में परिवार की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है। जन्म लेते ही बालक किसी-न-किसी परिवार का सदस्य हो जाता है, जहां समाजीकरण की प्रक्रिया सबसे पहले प्रारम्भ होती है। इसीलिए सामजिक नियंत्रण की प्रक्रिया की भी शुरूआत पहले यहीं होती है। माता-पिता अपने बच्चों को यही सिखलाते हैं कि कौन-सा व्यवहार उचित है और कौन-सा अनुचित है। धार्मिक विश्वासों, परम्पराओं, प्रथाओं, जीवन के मूल्यों एवं प्रतिमानों की जानकारी सर्वप्रथम परिवार में ही होती है जिससे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष ढंग से व्यक्ति का आचरण निर्धारित होता है। परिवार अपने सदस्यों को स्नेह, भावनात्मक समर्थन, फटकार के माध्यम से समाज के नियमों के अनुसार व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करता है। चूंकि व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी-न-किसी परिवार का ही सदस्य बना रहता है। इसीलिए परिवार, सामाजिक नियंत्रण के अभिकरण के रूप में आजीवन कार्य करता है।
प्रत्येक परिवार अपने सदस्यों पर खान-पान के नियमों, व्यवसाय संबंधी नियमों, विवाह संबंधी नियमों, समाज के अन्य समूहों के संबंध के नियमों, पारिवारिक दायित्व के नियमों एवं धार्मिक नियमों के संबंध में विशेष रूप से नजर रखता है। परिवार अपने सदस्यों के सभी प्रकार के व्यवहारों को नियंत्रित करता है एवं विसामान्य व्यवहारों को करने से रोकता है। परिवार सामाजिक नियंत्रण के लिए औपचारिक और दमनकारी उपाय नहीं करता बल्कि अनौपचारिक साधनों, जैसे- निन्दा, आलोचना, असहमति, असम्मानजनक व्यवहार, हास्य व्यंग्य इत्यादि की मदद से अपने सदस्यों के आचरण पर नियंत्रण रखता है। परिवार के सदस्यों के बीच आपसी प्रेम एवं सहानुभूति की भावना भी व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करने में कोई कम प्रमुख भूमिका नहीं निभाती है।
Question : परिवार की परिवर्तनशीलता संरचना में स्त्री-पुरुष की भूमिकाएं।
(2004)
Answer : आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिंग आधारित भूमिकाएं परिवार के परिवर्तन के लिए सबसे उत्तरदायी कारकों में से है। आधुनिकता एवं आधुनिक शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप समाज के हर वर्ग के लोगों के बीच एक नये आधुनिक विचार का उद्भव हुआ है जिससे लिंग आधारित विभेदता अछूता नहीं रहा है। आधुनिक विचार के उद्भव एवं जागृति के कारण वर्षों से दबी हुई नारी वर्ग के बीच एक चेतना सी जागृत हुई है।
स्त्री वर्ग के अंदर इस प्रकार के विचारों के उद्भव होने के फलस्वरूप यह न सिर्फ घर आधारित कार्यकलापों तक सीमित रह गयी है बल्कि घर से बाहर विभिन्न प्रकार के व्यवसाय व राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यकलापों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। यहां पर कहने का तात्पर्य यह है कि इन कार्यकलापों में विशेषीकरण आने के फलस्वरूप परंपरावादी पुरुष-स्त्री के संबंधों में काफी परिवर्तन हुआ है एवं इस परिवर्तन के कारण संयुक्त परिवार की परंपरात्मक प्रणाली का परिवर्तन नाभिकीय परिवार में हो रहा है। नाभिकीय परिवार प्रणाली के बारे में यह कहा जाता है कि यह आधुनिकता की देन है परंतु यह स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह परंपरागत समाजों में भी देखने को मिलता है। फिर भी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आधुनिकता एवं आधुनिक विचारों ने इसकी परिवर्तनशीलता की प्रकृति को काफी बढ़ाया है। अतः हम कह सकते हैं कि लिंग आधारित भूमिकाओं के परिवर्तन के फलस्वरूप संयुक्त परिवार प्रणाली का रूपांतरण केंद्रीय परिवार प्रणाली में हो रहा है। साथ ही, यह भी देखा गया है कि इसमें व्यक्तिवादिता की प्रकृति को बढ़ावा देने में भी काफी मदद मिली है जिससे तलाक एवं पृथक्करण की प्रवृति को भी बढ़ावा मिला है।
Question : नव वैश्विक अर्थव्यवस्था के भारत में कार्य संगठन और परिवार संरचना पर प्रभाव का विस्तार से परीक्षण कीजिए।
(2004)
Answer : वर्तमान विश्व के देश वैश्वीकरण की दिशा में बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आज आवागमन और संदेशवाहन के साधन इतने अधिक विकसित और तीव्रगामी हो गये हैं कि विभिन्न देश एक-दूसरे के काफी निकट आ गये हैं। आज विश्व के सभी देशों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक पक्षों को एक ही व्यवस्था से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।
वास्तव में नव वैश्विक अर्थव्यवस्था विश्व व्यापार संगठन के लचीले एवं उदारवादी नीति का परिणाम है। इस अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप व्यापार एवं टैरिफ के नियमों में उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता है। इसके तहत आयात एवं निर्यात नीति को लचीला बनाया गया है। विश्व व्यापार संगठन ने विश्व के सभी देशों के बीच विज्ञान एवं प्रौद्योगिकीय प्रसार के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं से जोड़ने का प्रयास किया है। भारत में नव वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रसार का श्रेय 90 के दशक में रहे वित्तमंत्री मनमोहन सिंह को जाता है। उन्होंने ही उदारवादी नीति के तहत भारत में विश्व बाजार को खोलने की अनुमति प्रदान की।
नव वैश्विक अर्थव्यवस्था के भारतीय परिप्रेक्ष्य में पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन के पहले यह समझ लेना अति आवश्यक है कि भारतीय समाज एक विकासशील देश का प्रतिनिधित्व करती है। यहां अमीरी एवं गरीबी के बीच की खाई बहुत अधिक है जिससे नव वैश्विक अर्थव्यवस्था का लाभ कुछ ही वर्गों तक सीमित रह जायेगा। परंतु हाल में हुए एक सर्वे में कहा गया है कि भारत विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर कर आयी है।
नव वैश्विक अर्थव्यवस्था के भारत में कार्य संगठन के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन के लिए कार्य संगठन की आर्थिक पृष्ठभूमि का अवलोकन करना अत्यंत ही आवश्यक है। भारतीय कार्य संगठन मूल रूप से पिछड़ी हुई होती है। परंतु हाल के वर्षों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रसार के फलस्वरूप इसकी तकनीक में सुधार हुआ है फिर भी वैश्विक प्रौद्योगिकी के मामले में पिछड़ी हुई है। साथ ही, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है बहुत सारे कार्य संगठन कई विकसित एवं विकासशील देशों के बनिस्पत अच्छे स्तर पर हैं। जापान, कोरिया एवं अमेरिका जैसे देशों की तकनीकी के सामने फिर भी हमारी तकनीकी पिछड़ी मानी जाती है। अतः नव वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रभाव हमारे देश के कार्य संगठन पर निश्चित रूप से सकारात्मक एवं नकारात्मक पड़ेंगे। सकारात्मक इस रूप में कि इससे विश्व अर्थव्यवस्था के लिए द्वार खुल जायेंगे एवं विभिन्न तथ्यों एवं अवयवों के साथ ज्ञान का आदान-प्रदान होगा। नकारात्मक प्रकृति के रूप में हम कह सकते हैं कि इससे प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी जिससे हो सकता है हमारे देश के कई संगठन बंद भी हो सकते हैं।
दूसरी ओर हम नव वैश्विक अर्थव्यवस्था का आकलन विश्व स्तर पर स्थापित की गयी विभिन्न बैंकों एवं आर्थिक संगठन के रूप में कर सकते हैं। आज भारत में भी कई बैंकिंग संगठन, उदाहरणस्वरूप आई.सी.आई.सी.आई., एच.डी.एफ.सी, एच.एस.बी.सी., ए.बी.एन, चार्टड स्टेंडर्ड इत्यादि विश्व स्तर पर अपनी सेवा को उपलब्ध करा रहे हैं एवं यह सुविधा के दृष्टिकोण से अधिक अच्छा माना जाता है। जबकि भारतीय बैंकिंग सेवा उतनी सेवा उपलब्ध कराने में असफल रही है जितना कि ग्लोबल स्तर की कंपनी सेवा प्रदान कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि भारतीय कंपनियों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।
नव वैश्विक अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप भारतीय परिवार के ऊपर संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक दोनों रूप में परिवर्तन देखने को मिलता है। इसी अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है कि आज संयुक्त परिवार प्रणाली का विघटन हो रहा है एवं लोग नाभिकीय परिवार की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप परिवार के सभी लोग चाहे वो स्त्री हो या पुरुष सभी उपार्जन करना चाहते हैं, जैसे कभी घर में रहने वाली स्त्रियां भी बाहर जाकर काम करने लगी है जिससे घर आर्थिक रूप से मजबूत तो हुआ है परंतु उसके अंदर व्यक्तिवादिता की प्रकृति को बल मिला है। इन सारी प्रक्रियाओं का मूल तत्व यह है कि स्त्री एवं पुरुष के बीच ‘अहम’ की प्रवृति का विकास होना। साथ ही इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि हर एक परिवर्तन से प्रगति के साथ-साथ कुछ विघटन अवश्य होता है, जिसे स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है।
दूसरी बात इससे संबंधित यह है कि न सिर्फ परिवार की संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक विशेषताओं में परिवर्तन हुआ है बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक रूप में भी परिवर्तन आया है। आज इस अर्थव्यवस्था की होड़ ने स्त्री पुरुषों के बीच की दूरी को बढ़ाया तो है ही साथ ही इन वर्गों में तलाक एवं पृथक्करण की बारंबारता भी बढ़ी है। दूसरी ओर इससे बच्चे का समाजीकरण सही ढंग से नहीं हो पाता है और भारतीय मूल्य एवं मानदंडों का ह्रास हो रहा है तथा पश्चिम की सभ्यता को अपनाया जा रहा है। हम इस को अस्वीकार नहीं करते कि पश्चिमी सभ्यता का सकारात्मक प्रभाव नहीं है परंतु इससे कहीं अधिक हमें नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। अतः नव वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रभाव भारतीय परिवार प्रणाली पर निश्चित रूप से पड़ा है परंतु यह सभी जगहों में देखने को नहीं मिलता है। जैसा कि हम जानतेहै भारत की अधिकांश आबादी गांवों में निवास करती है। अतः इन क्षेत्रों में इस अर्थव्यवस्था का प्रभाव बहुत ही आंशिक पड़ा है या फिर कुछ क्षेत्रों में तो नगण्य है।
ऊपर वर्णित तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि नव वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रभाव वर्तमान में भारतीय समाज के सभी तबकों में शायद ही पड़ा है परंतु हम इसकी आंशिकता से इंकार नहीं कर सकते है। इसका अधिकतर प्रभाव बड़े-बड़े शहरों में अधिक देखने को मिलता है। इसका प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम ही पड़ा है या फिर इसे नगण्य भी कहा जा सकता है। परंतु आने वाले समय में यह भी कहा जा सकता है कि इस अर्थव्यवस्था का प्रभाव सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के प्रत्येक पहलू पर अवश्यक पड़ेगा।
Question : परिवार और वंश की संकल्पनाओं का विवेचन कीजिए। संपत्ति के वंशानुक्रय और वंशागति के नियमों के बीच संबंध पर चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : विभिन्न समाजों में परिवार के स्वरूप एवं कार्यों की भिन्नता के कारण इसे कई रूप में परिभाषित किया गया है। इसकी रचना या तो जैवकीय आधार पर बने मां-बालक युग्म द्वारा या सामाजिक आधार पर निर्मित माता-पिता संतान के त्रयी बंधनों द्वारा होती है। एक जैवकीय इकाई के रूप में एक परिवार एक समूह है जिसमें स्त्री व पुरुष को यौन संबंधों की स्थापना व संतान पैदा करने के लिए समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है। सामाजिक इकाई के रूप में परिवार स्त्री-पुरुष का एक समूह है जो विवाह या रक्त या गोद के संबंधों के आधार पर निर्मित होता है। बर्गेस एवं लॉक की एक परिभाषा यहां दृष्टव्य है जो अनेक आलोचनाओं के बाद भी पारिवारिक समूह के स्वरूप को परिलक्षित करने में सक्षम प्रतीत होती है- ‘परिवार व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो विवाह, रक्त अथवा दत्तक बंधनों से बंधा होता है। इसके द्वारा एक अकेले घर की रचना होती है, इसके सदस्य पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन की सामाजिक भूमिका में एक-दूसरे से अंतर्क्रिया तथा अंतर्संप्रेषण करते हुए एक सामान्य संस्कृति की रचना करते हैं। यह परिभाषा विवाह के आधार पर बने आधुनिक वैयक्तिक लघु परिवारों पर ही अधिक चरितार्थ होती है तथा भारत के संयुक्त परिवार इसके घेरे में नहीं आ पाते जिसमें पति-पत्नी और उनकी संतानों के अतिरिक्त रक्त संबंधियों की दो या दो से अधिक पीढ़ी साथ-साथ निवास करती है। अतः विस्तृत अर्थों में परिवार एक ऐसा समूह है जिसमें दत्तक व्यक्तियों सहित कुछ वैवाहिक एवं रक्त संबंधी सम्मिलित होते हैं तथा जिसे सामाजिक इकाई के रूप में मान्यता प्राप्त होती है।
एक ऐसे रक्तमूलक एक पक्षीय वंश समूह को वंश या वंशक्रम या कुल कहते हैं जिसमें सदस्य किसी ज्ञात पूर्वज या पूर्वजा से अपने पीढ़ीगत संबंधों की खोज करते हैं। यह पूर्वज या पूर्वजा मिथकीय या धर्म-शास्त्रीय व्यक्ति न होकर पांच या छः पीढ़ी पहले रहा कोई वास्तविक व्यक्ति होता है। कुल की सदस्यता पूर्णतः रक्त संबंधों पर आधारित होती है। अतः एक वंशक्रम के नातेदार वे हैं जो वंशक्रम की सीधी वंशपरंपरा में आते हैं। वंशक्रम में आने वाले नातेदारों के विपरीत समानांतर नातेदार वे हैं जो एक ही वंशक्रम के तो हैं परंतु वंशपरंपरा की सीधी पंक्ति में नहीं आते हैं। वंशानुक्रम के आधार पर परिवार के दो रूपों का वर्णन मिलता हैः
(i)मातृसत्तात्मक परिवार: जब परिवार का सर्वोच्च या मुख्य अधिकार माता या स्त्री में केंद्रित होता है तब उस परिवार को मातृसत्तात्मक परिवार कहते हैं। ऐसे परिवार में नियंत्रण एवं निर्देश का अधिकार मुख्य रूप से माता या स्त्री में निहित होता है। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि पुरुषों को आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों से पूर्णरूपेण वंचित किया जाता है। परिवार में जो कार्य पुरुषोयुक्त होता है, उन्हें पूरा करने का दायित्व पुरुषों पर ही होता है।
(ii)पितृसत्तात्मक परिवार: इसे Paternal family, Patripostestal family एवं Patnifocal family के नाम से भी जाना जाता है। जब परिवार का सर्वोच्च अधिकार पिता का पुरुष में केंद्रित होता है तब ऐसे परिवार को पितृसत्तात्मक परिवार कहा जाता है। दुनिया के अधिकांश समाजों में पितृसत्तात्मक परिवार ही सबसे ज्यादा प्रचलित है।
भारतीय समाज में संपत्ति के वंशनुक्रम एवं वंशागति के बीच नियम पाये जाते हैं। एफ-नी- बेली एवं टी.एन. मदन आदि समाजशास्त्रियों ने ‘संयुक्त परिवार’ शब्द के प्रयोग को नातेदारों के उस समूह तक सीमित रखा है जिनका संपत्ति पर स्वामित्व बनता हो। इसे सहदायादी परिवार कहते हैं। एम.एस. गोरे ने संयुक्त परिवार को ऐसा समूह कहा है जिसकी रचना वयस्क पुरुष ‘सहदायादी’ और उनके आश्रित व्यक्तियों के द्वारा हों। सहदायादी वर्ग में महिला सदस्यों को शामिल नहीं किया जाता है। उन्हें केवल आश्रित सदस्य के रूप में आवास और भरण-पोषण का अधिकार है। सन् 1937 में महिलाओं को भी वहीं अधिकार देने का प्रयास हुआ यानी हिंदू विधवा का पति की मृत्यु पर उसकी संपत्ति का वही अधिकार हुआ जो उसके पुत्र को है। इस अधिनियम के अनुसार पत्नी जीवन-भर पति की केवल अचल संपत्ति की आय की हकदार मानी गई है।
सन् 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम पारित होने तक पितृवंशीय हिंदुओं में विरासत की दो पद्धतियां थीं। पहली पद्धति (जिसे मिताक्षरा पद्धति कहा जाता है और जिसे ज्यादातर क्षेत्रोंमें मान्यता प्राप्त है) में पुत्र के पैदा होते ही पिता के पूर्वजों की संपत्ति पर जन्मजात अधिकार होता है। पिता इस संपत्ति के किसी भी हिस्से को किसी भी पुत्र के हितों के विरुद्ध किसी को नहीं दे सकता। दूसरी पद्धति के अंतर्गत (जिसे दायभाग पद्धति कहा जाता है और जिसे बंगाल और असम में मान्यता है) पिता पूर्वजों की संपत्ति के अपने भाग का पूर्ण रूप से स्वामी है और उसे अपनी इच्छा से अपनी संपत्ति को किसी को भी देने का अधिकार होता है।
पितृवंशीय हिंदुओं में कुछ चल संपत्ति विवाह के अवसर पर कन्या को ‘स्त्रीधन’ के रूप में देने का रिवाज है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के पास हो जाने के बाद विरासत की समान पद्धति लागू हुई है। यदि किसी हिंदू पुरुष ने मरने से पूर्व अपनी संपत्ति के लिए वसीयत न की हो तो उस संपत्ति में उसके पुत्र, पुत्री, विधवा और माता-पिता को बराबर-बराबर हिस्सा मिलता है। विरासत और उत्तराधिकार के मामले में पुरुष और स्त्री उत्तराधिकारियों को बराबर का दर्जा दिया जाता है। इस अधिनियम की एक और खास बात यह है कि अगर किसी हिंदू महिला के पास कोई ऐसी संपत्ति हो जिस पर उसका पूर्ण स्वामित्व हो तो उसे यह अधिकार है कि वह उसे जिसे चाहे दे। इस अधिनियम में स्त्रियों को अपने पिता और पति की संपत्ति को उत्तराधिकार में पाने का भी हक है। फिर भी स्त्रियों को जो लाभ दिया गया है वह पुरुषों को मिलने वाले लाभ की अपेक्षा सीमित है क्योंकि पुरुषों को पूर्वजों की सहदायादी संपत्ति पर जन्मजात अधिकार है। लड़कियां सहदायादी परिवार का भाग नहीं है इसलिए उस पर लड़की का जन्मजात अधिकार नहीं होता है।
Question : निकटाभिगमन निषेध।
(2001)
Answer : सभी समाजों में ऐसे कुछ नियम हैं जो व्यक्तियों की विशिष्ट श्रेणियों के बीच विवाह औरलैंगिक संबंधों की स्वीकृति नहीं देते। सामान्यतः व्यक्तियों की ये श्रेणियां रक्त संबंधों की निकटता पर आधारित है, जैसे पिता-पुत्री, माता-पुत्र, अथवा सहोदर भाई-बहन आदि। इस प्रकार के निकटतम संबंधियों के बीच वर्णित किये गये लैंगिक संबंधों को ही निकटाभिगमन निषेध कहा जाता है। निकटाभिगमन निषेध का दायरा हमेशा रक्त संबंधों द्वारा ही निर्धारित हो, ऐसी बात नहीं है। ऐसे भी कुछ समाज है जहां लैंगिक संबंध ऐसे कुछ व्यक्तियों के बीच भी स्थापित नहीं किये जा सकते जो रक्त संबंधों द्वारा जुड़े नहीं होते।
कतिपय समाजों (प्राचीन मिश्र का राजघराना और पेरू प्रदेश के इन्का निवासियों में) को छोड़कर इस प्रकार के यौन संबंधोंको सर्वत्र घृणास्पद माना गया है। इन निषेधों के पीछे क्या कारण रहे हैं, इसकी व्याख्या जैविकीय, मनोवैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय ढंग से विभिन्न विद्वान जैसे टायलर, वेस्टरमार्क, फ्रायड, दुर्खीम, ब्रेन्डा, सेलिग्मन, ब्रिफ्रफाल्ट, लेवी स्ट्रास आदि द्वारा कई रूपों में की गई है।
टॉयलर का मत है कि परिवार का प्रारंभिक स्वरूप मातृसत्तात्मक था और ऐसे परिवारों में दामाद बाहर का व्यक्ति होने से एक अपरिचित व्यक्ति था। अतः जब वह अपनी पत्नी के साथ रहने को आता था तो उसे सास के साथ प्रतिबंधित व्यवहारों का पालन करना पड़ता है। पितृसत्तात्मक परिवारों में ससुर-वधु निकटाभिगमन निषेध का प्रचलन है।
Question : आधुनिक समाजों में परिवार की परिवर्तनशील संरचना के लिए जिम्मेदार कारकों पर चर्चा कीजिए।
(2000)
Answer : आधुनिक समाज में अनेक ऐसी नवीन प्रवृत्तियां उत्पन्न हुई हैं जिनके आधार पर परिवार के संरचनात्मक तथा प्रकार्यात्मक परिवर्तनों को देखा जा सकता है। कपाडि़या का विचार है कि नवीन न्याय व्यवस्था, शिक्षा का प्रसार तथा परिवर्तित मनोवृत्तियां परिवार के संरचनात्मक परिवर्तन के लिए उत्तरदायित्व है। दूसरी ओर बोटोमाेर ने अपने अध्ययन के आधार पर यह बताया कि ‘ग्रामीण संयुक्त परिवार में होने वाले परिवर्तनों का प्रमुख कारण यह है कि संयुक्त परिवार आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल सिद्ध हो चुके हैं। वास्तव में आधुनिक समय में परिवार के परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कारण निम्नलिखित हैं:
(1) नगरीकरणः नगरीकरण वह सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसने आज के परिवार के स्वरूप को विघटित किया है। गांव से संयुक्त परिवार के सदस्य जब रोजगार के लिए नगरों में अस्थायी रूप से जाकर बसते हैं तो वे नगरों के भौतिक आकर्षण से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि साधारणतया पुनः गांवों में लौटना पसंद नहीं करते। नगरों के संपर्क में आने पर व्यक्ति में व्यक्तिवादिता की मनोवृत्ति विकसित कर जाती है जिसके फलस्वरूप वे गांव के संयुक्त परिवार के लोगों को सहायता देना बंद कर देता है। मुख्य तौर पर यह कहा जा सकता है कि नगरीकरण ने एक ऐसी मनोवृत्ति विकसित की है जिसके प्रभाव से परिवारात्मक अथवा परिवारवाद जैसी भावना का निरंतर ह्रास होता जा रहा है। नई पीढ़ी के लोग नगरीय शिक्षा और नगरीयता के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के जीवन विधि विकसित कर लेते हैं एवं अंततोगत्वा यह संयुक्त परिवार को विघटित कर एकाकी परिवार के रूप परिवर्तित करने में सफल हो जाती है।
(2) आधुनिक शिक्षाः वर्तमान समय में शिक्षा का प्रसार तेजी से हो रहा है। आज सभी लोग चाहते हैं कि अपने बच्चों का समुचित विकास के लिए उन्हें शिक्षा देना आवश्यक है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक न केवल शारीरिक श्रम को हेय की दृष्टि से देखने लगते हैं बल्कि भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति भी उनकी रुचि निरंतर बढ़ने लगती है। शिक्षा के फलस्वरूप अनेक ऐसे नवीन व्यवहार प्रतिमानों का विकास हुआ जो परंपरागत परिवारों की संरचना एवं मान्यताओं के विरुद्ध हैं। आज युवा पीढ़ी द्वारा अपने माता-पिता, परिवार के सदस्यों तथा अशिक्षित पड़ोसियों के प्रति उपेक्षा की मनोवृत्ति अपनाना शिक्षा की वर्तमान पद्धति का ही परिणाम है। यह सच है कि शिक्षा के विकास से नयी पीढ़ी को अनेक रुढि़यों एवं अंधविश्वासों से मुक्ति भी मिली है लेकिन उनके व्यवहारों में वह समरूपता नहीं रही जो संयुक्त परिवारों की स्थिरता के लिए आवश्यक है।
(3) नवीन अधिनियम: भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् अनेक ऐसे सामाजिक अधिनियम पारित हुए जो संयुक्त परिवार की परंपरागत मान्यताओं के विरुद्ध थे। हिंदू विवाह अधिनियम के फलस्वरूप विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित होने तथा दाम्पत्य संबंधों में पति के एकाधिकार के समाप्त हो जाने के कारण संयुक्त परिवारों की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के फलस्वरूप न केवल ग्रामीण परिवार में सम्पत्ति का विभाजन बढ़ने लगा बल्कि आर्थिक आधार पर स्त्रियों का शोषण करना भी संभव नहीं रह गया। दहेज निरोधक अधिनियम ने भी संयुक्त परिवार में कर्ता के एकाधिकार को एक बड़ी चुनौती दे दी। डा. देसाई ने संयुक्त परिवार में नवीन अधिनियमों के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए लिखा है ‘जाति तथा पंचायतों के वे अधिकार समाप्त हो गयेजिनके द्वारा वे परंपरागत कानूनों का संरक्षण करने तथा न्याय देने का कार्य करती थीं। प्रथागत कानूनों का स्थान राज्य के नवीन कानूनों ने ग्रहण कर लिया तथा प्रशासनिक एवं न्यायिक कार्यों के लिए नवीन संस्थाएं स्थापित हो गयी।’ यह सभी परिस्थितियां ग्रामीण संयुक्त परिवारों की स्थिरता को बनाये रखने में एक बड़ी बाधा सिद्ध होने लगीं।
(4) परिवहन तथा संचार के विकासः कुछ समय पूर्व तक परंपरागत समाज एक-दूसरे से इतने अंतःसंबंधित थे कि संयुक्त परिवार को छोड़कर यदि व्यक्ति किसी दूसरे स्थान पर जाकर कार्य करना भी चाहता था तब ऐसा करना उसके लिए कठिन था। परंतु परिवहन एवं संचार के विकास के फलस्वरूप व्यक्ति में गतिशीलता आयी एवं वह विभिन्न संस्कृतियों के संपर्क में आया। इस प्रकार के संपर्क के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आया एवं अंततः संयुक्त परिवार का रूपांतर एकाकी परिवार में होने लगा।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि वर्त्तमान समय में परिवार वर्ग स्वरूप तेजी से परिवर्तन हो रहा है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवार विघटन के दौर में है एवं एकाकी परिवार के निर्माण की प्रक्रिया तेजी से विकसित हो रही है।