Question : टालकट पारसंस की सामाजिक व्यवस्था की संकल्पना
(2007)
Answer : सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी परिस्थिति में, जिसका कि कम से कम एक भौतिक या वातावरण सम्बन्धी पहलू हो, अपनी इच्छाओं या आवश्यकताओं की आदर्श पूर्ति की प्रकृति से प्रेरित एक या एक से अधिक वैयक्तिक कर्ताओं की एक-दूसरे के साथ अन्तः क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।
पारसंस ने सामाजिक व्यवस्था की व्याख्या करते हुए लिखा है कि इसका विकास तब होता है, जब एक भौतिक पक्षवादी सामाजिक परिस्थिति तथा समाज द्वारा स्वीकृत सांस्कृतिक प्रतीकों की एक व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के कर्त्ता अपने आदर्शों की प्राप्ति के लिए क्रियाएं करने में संलग्न रहते हैं।
पारसंस ने सामाजिक व्यवस्था के जिन तत्वों का उल्लेख किया है, उन्हें निम्नलिखित पांच भागों में विभाजित किया जाता हैः
पारसंस ने सामाजिक व्यवस्था के प्रमुख पहलुओं को दो भागों में विभाजित किया है। सामाजिक व्यवस्था का प्रथम पहलू है, संरचना और द्वितीय पहलू है सामाजिक कार्य। संक्षेप में, सामाजिक संरचना और सामाजिक कार्य सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण करते हैं। सामाजिक व्यवस्था के निर्धारण में समाज की संस्कृति, समाज के पूज्य और आदर्श व्यक्ति के सामाजिक पद और उनकी भूमिका में तथा उसका सामूहिक जीवन अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।
ये सभी तत्व सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण और संचालन करते हैं। समाज की व्यवस्था सामाजिक संरचना पर आधारित होती है। सामाजिक संरचना में भिन्नता के परिणामस्वरूप सामाजिक व्यवस्था में भी भिन्नता पायी जाती है।
Question : मेरटॉन के प्रकट एवं प्रच्छन्न प्रकार्यों पर विचार
(2007)
Answer : प्रकट प्रकार्य व दृष्टिगोचर परिणाम हैं, जो व्यवस्था में अनुकूलन या सामंजस्य बनाये रखते हैं तथा व्यवस्था में सहयोग देने वालों के द्वारा वह प्रकार्य मान्य तथा अभिष्ट होता है। अप्रकट या प्रच्छन्न प्रकार्य वे हैं, जो न तो मान्य होते हैं और न ही अभीष्ट। प्रच्छन्न प्रकार्यों में प्रेरणा, परिस्थिति एवं परिणाम की जानकारी कर्त्ता को पहले से नहीं होती है। प्रच्छन्न प्रकार्य के परिणाम बहुत दूरगामी होते हैं।
वस्तुतः प्रच्छन्न प्रकार्य कोई न कोई प्रकट प्रकार्य का ही परिणाम होता है। प्रकट और अप्रकट प्रकार्य के अंतर को हम इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं। प्रकट प्रकार्य कर्त्ता द्वारा स्वीकृत परिणाम हैं। दूसरी ओर अप्रकट प्रकार्य के बारे में कर्त्ता को पूर्व ज्ञान नहीं होता है। प्रकट प्रकार्य बाहरी तौर पर स्पष्ट होता है, जबकि अप्रकट प्रकार्य भीतर-ही-भीतर क्रियाशील रहता है। इसी तरह प्रकट प्रकार्य में कर्त्ता को प्रेरणा, परिस्थिति एवं परिणाम की जानकारी होती है। दूसरी तरफ अप्रकट प्रकार्य में प्रेरणा परिस्थिति एवं परिणाम की जानकारी कर्त्ता को पहले से नहीं होती है।
मेरटॉन ने प्रकट प्रकार्य एवं अप्रकट प्रकार्य के बीच अंतर को स्पष्ट करने के लिए न्यू मैक्सिको के होपी इंडियन्स के बीच पाये जाने वाले वर्षा-नृत्य का उदाहरण दिया है। इस उदाहरण से प्रकट एवं अप्रकट प्रकार्य के बीच का अंतर और भी स्पष्ट हो जाता है। होपी लोगों की मान्यता है कि धार्मिक उत्सवों एवं नाच-गान के द्वारा वे लोग वर्षा ला सकते हैं। उनके जीवन में इस वर्षा की उपयोगिता खेतीबाड़ी के कामों से जुड़ी है।
अतः यह प्रकट प्रकार्य है। दूसरी तरफ इस वर्षा नाच के द्वारा उन लोगों के बीच सामाजिक एकता एवं भाईचारे की भावना को बढ़ावा मिलता है। चूंकि वर्षा-नाच का प्रत्यक्ष उद्देश्य सामाजिक एकता या भाईचारे को बढ़ावा देना नहीं है, लेकिन वह अप्रत्यक्ष ढंग से प्रोत्साहित हो जाता है, इसलिए यह उसका अप्रकट प्रकार्य कहा जाता है। यहां मेरटॉन ने कहा है कि समाजशास्त्रियों का मुख्य उद्देश्य विभिन्न प्रकार के कार्यकलापों एवं संस्थानों के अप्रत्यक्ष प्रकार्य को समझना है।
Question : पूंजीवादी उत्पादन रीति और वर्ग संघर्ष के बारे में कार्ल-मार्क्स का विश्लेषण समझाइये। उनके विचारों के प्रति क्या बैद्धिक प्रतिक्रियाएं हुई है?
(2007)
Answer : मार्क्स के अनुसार पूंजीपति वह नहीं है जिसके पास अधिक धन होता है, अधिक पूंजी होती है। पूंजीपति वह है जो उत्पादन के साधन अपने हाथ में रखता है। पूंजीपति अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहता है। मार्क्स के अनुसार पूंजीपति द्वारा लाभ कमाने का पहला तरीका मजदूरों को कम से कम वेतन देना है। वह मजदूरों से अधिक समय तक काम लेता है ऐसा करने से वह उत्पादन तो अधिक कर लेता है, किन्तु इसमें श्रमिकों का किसी प्रकार का हिस्सा नहीं होता है।
मार्क्स ने यन्त्रीकरण को भी लाभ कमाने का साधन माना है। उसके अनुसार यन्त्रीकरण से बेरोजगारी फैलती है। बेरोजगारी फैलने से अनेक व्यक्ति कम मजदूरी में ही काम करने को तैयार रहते हैं। इससे लाभ में वृद्धि होती है। उत्पादन व्यवस्था का आधार यह है कि ऐसी वस्तुएं उत्पन्न की जायें, जिनका मूल्य अधिक हो तथा जिनमें लागत व्यय कम आये। इसे ही लाभ के नाम से जाना जाता है। पूंजीपति वस्तुओं का उत्पादन उपभोग की तुलना में लाभ से प्रेरित होकर करता है। अतः अधिकांश लाभ अपने पास रख लेता है।
वर्ग संघर्षः मार्क्स ने मानव समाज की ऐतिहासिक विवेचना करते हुए लिखा है कि आजकल प्रत्येक समाज शोषक और शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि मार्क्स वर्ग संघर्ष को अनिवार्य मानता है। उसके अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में यह संघर्ष और भी स्पष्ट होकर सामने आता है। मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का कारण सिर्फ दो वर्गों का पैदा हो जाना नहीं हैं, बल्कि संघर्ष का प्रमुख कारण श्रमिक वर्ग में वर्ग चेतना का विकास होना है। जब उनमें इस प्रकार की जागरूकता विकसित हो जाती है कि हमारा शोषण हो रहा है और इस शोषण से बचने के लिए, उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है, तो उनके लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता रह जाता है।
पूंजीवादी व्यवस्था ने शोषक और शोषित के बीच की खाई को गहरा कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में दो वर्ग स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आये हैं। औद्योगिक क्रांति और कारखाना पद्धति के उदय के परिणामस्वरूप सैकड़ों श्रमिक एक स्थान पर इकट्ठे होते हैं और मिलकर साथ-साथ रहते हैं। इसके साथ ही साथ वे सब एक-दूसरे के दुख-दर्द और मुसीबतों में भी सम्मिलित होते हैं। इससे इनमें वर्ग चेतना विकसित होती है और इस वर्ग चेतना के परिणामस्वरूप वर्ग संघर्ष अनिवार्य हो जाता है।
मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष सामाजिक प्रगति का आधार है। यदि समाज में वर्ग संघर्ष नहीं होगा, तो समाज की प्रगति नहीं होगी। मार्क्स ने स्वीकार किया है कि समाज एक परिवर्तनशील व्यवस्था है। सामाजिक परिवर्तन के साथ ही साथ वर्ग बनते हैं और बिगड़ते हैं। सत्ता और शक्ति के केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप यह वर्ग निरन्तर ऐसे काम करता है, जिससे इसकी प्रगति होती है और दूसरे वर्ग की प्रगति के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न होती है। जब समाज के अन्य वर्ग उपेक्षित हो जाते हैं, तो धीरे-धीरे उनमें चेतना विकसित हो जाती है। ये उपेक्षित वर्ग भी प्रबल होने लगते हैं और धीरे-धीरे इनमें भी शक्ति का केन्द्रीकरण होने लगता है। शक्ति के इस केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप यह उपेक्षित वर्ग मौका पाकर शक्तिशाली वर्ग को परास्त कर देता है।
शक्तिशाली वर्ग की पराजय के बाद समाज में नयी व्यवस्था विकसित होती है, इस प्रकार वर्ग संघर्ष समाज को प्रगति की ओर ले जाता है।
Question : मैक्स वेबर के मतानुसार समाजशास्त्र की विषय वस्तु क्या है? सामाजिक विज्ञान के अनुसंधान के लिए उन्होंने किन-किन प्रमुख पद्धतियों का सुझाव दिया है? उनके समाजशास्त्रीय योगदानों की मदद से अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
(2007)
Answer : वेबर के मतानुसार समाजशास्त्र एक विज्ञान है, जो सामाजिक क्रियाओं के व्याख्यात्मक बोध का प्रयास करता है, ताकि इनके घटनाक्रम एवं कार्य-कारण के सम्बन्धों का विश्लेषण किया जा सके। वेबर की इस परिभाषा में समाजशास्त्र की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर संकेत किया गया हैः
इस प्रकार व्याख्यात्मक समाजशास्त्र के अन्तर्गत वेबर ने यह बताने का प्रयास किया है कि समस्त सामाजिक जीवन प्रक्रिया का प्रतिबिम्ब है। सामाजिक जीवन को समझने के लिए इन क्रियाओं की व्याख्या करना अनिवार्य है। व्याख्यात्मक समाजशास्त्र में सामाजिक क्रियाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
वेबर का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों में इस अन्तर को समाप्त करना एवं ऐसी समाजशास्त्रीय प्रणाली का विकास करना था, जिसकी सहायता से समाजशास्त्र को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया जा सके। वेबर ने सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों में पाये जाने वाले इस अन्तर को समाप्त किया और इन दोनों विज्ञानों का समन्वय करके समाजशास्त्र में एक ऐसी नवीन पद्धति को विकसित किया, जिसका उपयोग दोनों विज्ञानों में समान रूप से किया जा सके। वेबर ने उपर्युक्त समस्या का समाधान करने के लिए प्राकृतिक विज्ञानों की तरह सामाजिक जीवन में पाये जाने वाले कार्य-कारण के सम्बन्धों का अध्ययन करने के लिए तुलनात्मक पद्धति को विकसित किया, जिसका उपयोग दोनों विज्ञानों में समान रूप से किया जा सके।
वेबर ने लिखा है कि सामाजिक घटनाओं में कार्य-कारण के सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त करने के लिए सामाजिक घटनाओं को सामान्य लक्षणों के आधार पर कुछ विशिष्ट श्रेणियों में विभाजित कर लेना आवश्यक है। उसने यह भी लिखा है कि सामाजिक घटनाओं का यह विभाजन निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। ऐसा करके हम समाज का अध्ययन करने के लिए कुछ आदर्श घटनाओं के स्वरूपों को प्राप्त करने में सफल होंगे। आदर्श घटनाओं के निर्माण में उपकल्पना की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। ये आदर्श स्वरूप सामाजिक घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या करने में सक्षम होंगे।
वेबर का विचार है कि समाजशास्त्र को विज्ञान बनाने के लिए सामान्य नियमों का होना आवश्यक है। उसके अनुसार इन्हीं सामान्य नियमों के आधार पर कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं। उसका कहना है कि सामाजिक विज्ञानों में सामान्य नियम इसलिए नहीं है कि उसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता इच्छा विद्यमान रहती है। इस समस्या का समाधान करने के लिए मैक्स वेबर ने समाजशास्त्र के सामान्य नियमों के निर्माण का कार्य अपने हाथ में ले लिया और इसी कार्य को ही वेबर का पद्धतिशास्त्र कहा जाता है।
वेबर का मत है कि व्यक्ति के सम्बन्ध, सामाजिक व्यवहार उसकी समस्त सामाजिक क्रियाएं मात्रा एक प्रत्यय हैं। जब व्यक्ति के समस्त सामाजिक व्यवहार और क्रियाएं मात्र एक प्रत्यय हैं तो, उसका मत है कि, उनका निश्चित प्रारूप होना चाहिए। वेबर ने समाज का विश्लेषण करने में तुलनात्मक पद्धति का सहारा लिया था। उसके अनुसार किसी विशिष्ट संस्कृति के अध्ययन द्वारा प्राप्त सामान्यीकरण दूसरी संस्कृतियों का अध्ययन करने के लिए भिन्न-भिन्न सामान्यीकरण लागू किये हैं।
उसके पद्धतिशास्त्र में सम्भावना को भी महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। उसका कहना है कि सामाजिक क्रिया से सम्बन्धित कोई भी तथ्य स्थिर नहीं होता है। इसका कारण यह है कि सामाजिक क्रिया से सम्बन्धित तथ्य एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति से भिन्न होते हैं। इसीलिए एक संस्कृति के तथ्यों को दूसरी संस्कृति में लागू नहीं किया जा सकता है। उसका विचार है कि विशिष्ट कारणों के लागू होने से विशिष्ट प्रकार के परिणामों के निकलने की सम्भावना होती है। वेबर के समस्त समाजशास्त्रीय सिद्धान्त इन्हीं पद्धतिशास्त्रीय तथ्यों पर आधारित हैं।
एम- वेबर का समाजशास्त्र में योगदान
वेबर का सम्बन्ध संसार के उन विद्वानों की पीढ़ी से है जिसने समाजशास्त्र की विशिष्ट बातों को प्रकाश में रखा। यह स्पष्ट है कि वेबर ने जो महान कार्य किया, वह एक विशिष्ट प्रकार के सफल विश्रम के बिना सम्भव नहीं था। जर्मनी की प्रबुद्ध परम्पराओं और विशेषकर इतिहास, मनोविज्ञान, आध्यात्मशास्त्र, तुलनात्मक, साहित्य, भाषा, विज्ञान तथा दर्शनशास्त्र के संचित ज्ञान में 19वीं शताब्दी के उत्तरदायी धर्म विज्ञान को अपने कार्य निर्माण के लिए ठोस आधार प्रदान किया।
अनेक विरोधी तत्वों के तनाव में भी वेबर के जीवन और विचारों का निर्माण किया। उसने लिखा है कि मनुष्य खुली हुई पुस्तक के समान नहीं हैं, तो हमें उनके बहुमुखी अस्तित्व सूची की आशा नहीं करनी चाहिए।
यद्यपि वह व्यक्तिगत रूप से अधार्मिक था- अपने ही शब्दों मं वह ‘धार्मिक रूप से बेसुरा’ था, फिर भी, उसने मानव आचरण और जीवन पर धर्म का प्रभाव ज्ञात करने में अपनी बुद्धि सामर्थ्य का अधिकांश भाग खर्च किया।
वेबर उन अन्तिम राजनीतिक प्राध्यपकों में से एक था, जिन्होंने विज्ञान को अत्यधिक योगदान प्रदान किया। अपने सम्पूर्ण जीवन में वेबर एक राष्ट्रवादी था। वेबर एक प्रख्यात शिक्षक था, परन्तु स्वास्थ्य ने दो दशकों तक शैक्षणिक भाषण देने से उसे अलग रखा। वह विद्वान था, इसलिए शिक्षा जगत से अपने को उपयुक्त और राजनीतिक क्षेत्र में दक्ष मानता था। अपने से सम्बन्धित व्यक्तियों के बीच में वेबर का व्यक्तित्व विवादास्पद था। हीडलबर्ग में उसके बहुत से साथी उसे कठोर व्यक्ति समझते थे। एम- वेबर की कृतियों में यद्यपि वस्तुपरकता की अधिकता है, फिर भी इनमें बहुत से ऐसे परिच्छेद पाये जाते हैं, जिससे वेबर का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
आत्मरूप का ऐतिहासिक पुरूष में यह आत्म-समापन, मानवतावाद, ऐतिहासिकता और स्वच्छन्दता की लम्बी परम्परा में 19वीं शताब्दी का प्रतीक प्रतिनिधित्व करता है। यदि हमें वेबर का सम्पूर्ण जीवन परिचय समझना है, तो हमें उसके तनावों और बार-बार की मानसिक परिस्थितियों को अवश्य समझना चाहिए, हो सकता है कि वेबर की शारीरिक व्याधियां वंश-परम्परागत हों। क्योंकि ये व्याधियां उसकी पारिवारिक परम्परा में विद्यमान थीं।
उसके व्यक्तिगत सम्बन्धी के विषय में हम कह सकते हैं कि वेबर एक शान्त पर्यवेक्षक और योग्य बालक था, जो अपने माता-पिता के बढ़ते हुए बुरे सम्बन्धों से हमेशा अवश्य चिन्तित रहा है। अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों और उनसे उत्पन्न कठिनाइयों से अलग हम वेबर को तात्कालीन राजनीतिक घटनाओं में उलझा हुआ देख सकते हैं।
Question : आदर्श-प्रारूप की विभावना एवं इसकी मर्यादाएं
(2006)
Answer : मैक्स वेबर का मत है कि तर्कसंगत रीति से सामाजिक घटनाओं के कार्य-कारण संबंधों को तब तक स्पष्ट नहीं किया जा सकता है, जब तक उन घटनाओं को पहले समानताओं के आधार पर कुछ सैद्धांतिक श्रेणियों में बांट न लिया जाए। इस दृष्टिकोण से सामाजिक घटनाओं की तार्किक-संरचना में बुनियादी पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। पुनर्निर्माण के इस कार्य में मैक्स वेबर ने अपने आदर्श-प्रारूप के सिद्धांत को विकसित किया।
मैक्स वेबर ने इस बात पर बल दिया है कि समाजशास्त्रियों को अपनी उपकल्पना का निर्माण करने के लिए ‘आदर्श’ अवधारणाओं को चुनना चाहिए। आदर्श-प्रारूप न तो औसत प्रारूप हैं और, न ही आदर्शात्मक, बल्कि वास्तविकता के कुछ विशिष्ट तत्वों के विचारपूर्वक चुनाव तथा सम्मिलन द्वारा निर्मित आदर्शात्मक मान हैं। दूसरे शब्दों में, आदर्श प्रारूप का तात्पर्य है- कुछ वास्तविक तथ्यों के तर्कसंगत आधार पर यथार्थ अवधारणाओं का निर्माण करना।
आदर्श-प्रारूप की धारणा को विकसित करने में मैक्स वेबर ने कोई नवीन वस्तु प्रस्तुत करने का दावा नहीं किया है, उन्होंने केवल अन्य सामाजिक विज्ञानों की अपेक्षा उसे अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ रुप में प्रस्तुत किया, जिससे कि तार्किक आधारों पर मानव क्रियाओं के कारण-सहित संबंधों का अधिक यथार्थ तथा व्यवस्थित ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण सम्भव हो सके।
वेबर इस बात पर अधिक बल देते हैं कि सामाजिक वैज्ञानिकों को केवल उन्हीं अवधारणाओं को अध्ययन कार्य में प्रयोग करना चाहिए, जो कि तर्कसंगत ढंग से नियंत्रित, संदेह रहित तथा प्रयोगसिद्ध हों।
मैक्स वेबर की दृष्टि में आदर्श-प्रारूप की तीन प्रमुख विशेषताएं हैं:
सीमाएं वाल्टर के अनुसार, वेबर का मुख्य उद्देश्य समाजशास्त्र को मूल्य-निरपेक्ष एवं विशिष्ट बनाना था, परंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। आदर्श प्रारूप पद्धति एवं निष्कर्ष पूर्णतया शोधकर्त्ता के ऊपर निर्भर है, जिसकी तटस्थता संभव नहीं।
निष्कर्षतः कहा जाता है कि, अनेक आलोचनाओं के बाद भी आदर्श-प्रारूप पद्धति समाजशास्त्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है। वेबर ने जिस प्रकार आदर्श-प्रारूप पद्धति के माध्यम से नौकरशाही एवं प्रोटेस्टेंट नैतिकता को समझाया वह अन्य समाजशास्त्रियों में दिखाई नहीं देता। यही कारण है कि वेबर की पद्धति एवं विचार समाजशास्त्र के अतिरिक्त भी अन्य कई विज्ञानों में उपयोग किये जाते हैं। इससे समाजशास्त्र को वैधानिकता प्राप्त होती है एवं समाजशास्त्र एक विशिष्ट विज्ञान का दर्जा प्राप्त करने की ओर अग्रसर हुआ है।
Question : मार्क्स के सामाजिक परिर्वतन के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। उसके विचारों के प्रति प्रकार्यवादियों की क्या प्रतिक्रियायें रहीं?
(2006)
Answer : मार्क्स के अनुसार, इतिहास के सभी परिवर्तन उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन के फलस्वरूप ही घटित होते हैं। भौगोलिक परिस्थितियां, जनसंख्या की वृद्धि आदि कारकों का प्रभाव मानव जीवन पर अवश्य ही पड़ता है, परंतु ये सब सामाजिक परिवर्तन के निर्णायक कारण नहीं हैं। जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक भौतिक मूल्यों की उत्पादन प्रणाली ही सामाजिक परिवर्तन की निर्णायक शक्ति है।
उत्पादन की प्रणाली उत्पादन के कुछ निश्चित संबंधों को उत्पन्न करती है। ये उत्पादन-संबंध व्यक्ति की स्वेच्छा पर आधारित नहीं होते, वरन् उत्पादक शक्तियों के अनुसार अनिवार्य होते हैं। जब समाज की उत्पादक शक्ति में कोई परिवर्तन होता है तो उसी के साथ-साथ उत्पादन संबंध बदलता है और उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन से सामाजिक परिवर्तन घटित होता है। मार्क्स के अनुसार, समस्त सामाजिक परिवर्तन उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन से घटित होते हैं, इस उत्पादन प्रणाली के दो पक्ष हैं:
उत्पादन प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि वह किसी भी अवस्था में अधिक समय तक स्थिर नहीं रहती, अपितु सदा परिवर्तनशील तथा विकास की दिशा में उन्मुख होती है।
उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने से सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था, विचारों, राजनीतिक मतों और राजनीतिक संस्थाओं में परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाता है क्योंकि उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने से समग्र सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था का भी पुनः निर्माण अनिवार्य होता है।
उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन और विकास तभी होता है, जब उत्पादक शक्तियों में परिवर्तन व विकास होता है। इस प्रकार उत्पादन के उपकरणों में परिवर्तन व विकास पहले होता है, जिसके फलस्वरुप उत्पादक-शक्तियों में भी परिवर्तन व विकास होता है। समाज की उत्पादक-शक्तियों में परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि इन उत्पादक शक्तियों से संबंधित और इन पर आधारित मनुष्यों के उत्पादन सम्बंधों में भी परिवर्तन हो जाता है। साथ ही उत्पादन संबंध उत्पादक शक्ति पर अपना प्रभाव डालते हैं तथा उत्पादन संबंध उत्पादक शक्ति के विकास को धीमा या तीव्र करते हैं।
नवीन उत्पादक शक्तियों तथा उनसे सम्बन्धित उत्पादन के संबंधों का उद्भव पुरानी व्यवस्था से पृथक या पुरानी व्यवस्था के लोप हो जाने के बाद नहीं बल्कि पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत ही होता है। इस प्रकार नवीन व्यवस्था का बीज पुरानी व्यवस्था में ही अन्तर्निहित या छिपा होता है। अतः सामाजिक परिवर्तन एक अनोखी नहीं वरन् एक स्वाभाविक घटना है, यही प्रकृति का नियम है कि सब कुछ अपने आंतरिक स्वभाव द्वारा विकसित व परिवर्तित होगा।
इतना ही नहीं, नवीन उत्पादक शक्तियों का जन्म मनुष्य की विचारपूर्वक या सचेत क्रिया के फलस्वरूप नहीं, बल्कि आप से आप या स्वतः अचेत रूप में तथा मानव इच्छा से स्वतंत्र रहकर होता है। परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन या उत्पादन के पुराने सम्बन्धों का उत्पादन के नवीन सम्बन्धों में बदलना निर्विघनता से, बिना किसी उथल-पुथल के हो जाता है। इसके विपरीत, इस प्रकार का परिवर्तन साधारणतया क्रांति के द्वारा होता है। क्रांति के द्वारा पुरानी व्यवस्था या उत्पादन के संबंधों को उखाड़ फेका जाता है और उसके स्थान पर नवीन व्यवस्था या उत्पादन के संबंधों को प्रतिष्ठित किया जाता है।
कुछ समय तक तो उत्पादक-शक्तियों का विकास तथा उत्पादन-सबंधों में परिवर्तन स्वाभाविक गति से तथा स्वतंत्रतापूर्वक होता रहता है, परंतु यह तभी तक होता है जब तक कि नवीन उत्पादक-शक्तियों का विकास पूर्ण रूप से न हो जाय। इनके परिपक्व होते ही विद्यमान उत्पादन के सम्बन्ध तथा उनके प्रवर्तन अर्थात शासक वर्ग, नवीन वर्ग के लिए ऐसी अलंघनीय बाधा बन जाती है जिसे कि बलपूर्वक क्रांति के द्वारा ही हटाया जा सकता है। इसी को हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि जैसे ही उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन होता है, उसके फलस्वरूप एक नवीन वर्ग का जन्म होता है।
यह नया वर्ग पुराने वर्ग के द्वारा उत्पीडि़त होता है क्योंकि उत्पादन के सभी साधन उसी पुराने वर्ग के अधिकार में होते हैं। इस प्रकार पुराना वर्ग नये वर्ग की प्रगति को रोकता है और नाना प्रकार से उसका शोषण करता है। नवीन वर्ग की यह दयनीय दशा या उसका सामाजिक अस्तित्व उसमें विशिष्ट प्रकार की चेतना को जन्म देता है। इसलिए मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती वरन्, उसका अस्तित्व ही उसकी चेतना का निर्धारण करता है।’’ इस प्रकार नये वर्ग और पुराने वर्ग के बीच तनाव बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे इस संघर्ष का रूप स्पष्ट हो जाता है और नया वर्ग पुराने वर्ग को क्रांति के द्वारा बलपूर्वक उखाड़ फेंककर एक नवीन सामाजिक व्यवस्था को जन्म देता है।
सामाजिक परिवर्तन या प्रगति में विचारों, सिद्धांतों, मतों और संस्थाओं का भी स्थान होता है। ये समाज के भौतिक जीवन पर तो अवश्य ही आश्रित होते हैं, किन्तु इनका सामाजिक शक्तियों को समेटने और संगठित करने में महत्वपूर्ण स्थान है। नये विचार और सिद्धांत नई भौतिक परिस्थितियों में उत्पन्न होते हैं। इनके द्वारा जन साधारण को भौतिक जीवन के त्रुटियों और आंतरिक विरोधों का ज्ञान हो जाता है।
जब ये विचार जनता की निधि बनते हैं तो वे सामाजिक परिवर्तन के लिए अमूल्य हो जाते हैं। इनकी पृष्ठभूमि में ही जनता उन शक्तियों का विध्वंस कर सकती है, जो समाज की प्रगति में बाधक हैं। इस प्रकार यद्यपि मार्क्स ने सामाजिक व्यवस्था और उसमें होने वाले परिवर्तनों का आधार उत्पादन प्रणाली को ही माना है, फिर भी अपने लेखों तथा पत्र-व्यवहारों में उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि उनके सिद्धांत का अर्थ यह नहीं है कि आर्थिक या भौतिक कारकों के अतिरिक्त अन्य सभी कारकों को पूर्णतया गौण या व्यर्थ माना जाये।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर मार्क्स ने यूरोपीय समाज को चार युगों में विभाजित किया तथा प्रत्येक युग में दो विपरीत वर्गों (संचित तथा वंचित वर्ग) की चर्चा की। ये चार वर्ग निम्नलिखित हैं:
मार्क्स के विचारों के बाद बौद्धिक जगत दो ध्रुवों में बंट गया। जिन्हें क्रमशः मार्क्स समर्थक (संघर्षवाद) तथा मार्क्स विरोधी (प्रकार्यवाद) कहते हैं। इस प्रकार मार्क्स के संघर्षवादी विचारों की प्रतिक्रिया में समाजशास्त्र में प्रकार्यवाद आया। प्रमुख प्रकार्यवादी विचारक निम्न प्रकार हैं: टालकट पारसंस, डेविस एम. मूर., जानसन तथा मैकाईवर एवं पेज। टालकट पारसंस के अनुसार, समाज में विभिन्न वर्गो का आधार समाज के मूल्य होते हैं।
संसाधनों का असमान वितरण या स्तरीकरण समाज के लिए उपयोगी हैं। जबकि मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण या संसाधनों का असमान वितरण समाज में संघर्ष उत्पन्न करता है। इसके विपरीत टालकट पारसंस मानते हैं कि जिन व्यक्तियों को समाज अतिरिक्त धन एवं प्रतिष्ठा से विभूषित करता है, ऐसे व्यक्ति अपनी शक्ति का उपयोग दो प्रकार से करता हैः
डेविस एम. मूर. मानते हैं कि स्तरीकरण या संसाधनों का असमान वितरण समाज की प्रकार्यात्मक आवश्यकता है। यह विचार भी मार्क्स के विचार के विपरीत है।
जानसन कहते हैं कि मार्क्स ने विभिन्न वर्गो के बीच सहयोग की उपेक्षा कर सामाजिक संबंध की एक पक्षीय व्याख्या की है। जानसन के अनुसार, समाज मूलतः सहयोग पर आधारित होता है।
इसी प्रकार मैकाईवर एवं पेज कहते हैं कि मार्क्स का सिद्धांत मूलतः सामाजिक परिवर्तन के इर्द-गिर्द घूमता है और इस क्रम में मार्क्स यह भूल जाते हैं कि समाज के स्थायित्व व निरंतरता का कारण क्या है। इस प्रकार प्रकार्यवादी मार्क्स के इस विचार का खंडन करते हैं कि वर्ग-संघर्ष ही सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण है। प्रकार्यवादी कहते हैं कि संसाधनों का असमान वितरण वर्ग-संघर्ष का कारण नहीं, बल्कि समाज के स्थायित्व एवं निरंतरता के लिए आवश्यक है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत समाजशासत्रीय दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिस वस्तुनिष्ठता के साथ मार्क्स ने यूरोपीय समाज के परिवर्तन को स्पष्ट किया, वह पूर्ववर्ती विचारकों में दिखाई नहीं देता। मार्क्स ही संभवतः वह पहले सामाजिक विचारक हैं, जिन्होने वर्ग संघर्ष के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या की। अन्य सिद्धांतों के समान ही मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत की अनेक विद्वानों द्वारा आलोचना की गयी है। परंतु ये आलोचनाएं भी पूर्वाग्रह मुक्त नहीं हैं। चूंकि मार्क्स कोई समाजशास्त्री नहीं है तथा उनका उद्देश्य किसी सिद्धांत का निर्माण नहीं था, वैसे में शास्त्रीयता के दृष्टिकोण से उनका मूल्यांकन उचित नहीं है। प्रकार्यवादियों द्वारा की गयी आलोचनाएं तब और भी महत्वहीन हो जाती हैं जब प्रकार्यवादी स्वयं सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या नहीं कर पाते हैं।
Question : एमिल दुर्खिम के मतानुसार व्यक्ति एवं समाज में संबंध की क्या प्रकृति है? समाज में श्रम विभाजन के उनके विश्लेषण की मदद से इसे समझाइये।
(2006)
Answer : दुर्खीम ने अपनी पुस्तक Social Division of Labour में सामाजिक एकता एवं समाजिक श्रम विभाजन का विश्लेषण किया है। इसी पुस्तक से व्यक्ति एवं समाज के मध्य के संबंधों की प्रकृति का भी पता चलता है। दुर्खीम के अनुसार, सबसे प्राचीन समाजों में श्रम-विभाजन स्त्री-पुरुष के भेद पर आधारित था। इस समाज में यांत्रिक एकता की विद्यमानता थी। यांत्रिक एकता तभी सम्भव होती है, जब व्यक्ति का व्यक्तित्व सामूहिक व्यक्तित्व में विलीन हो जाता है।
प्राचीन या आदिकालीन समाजों में उनका संगठन छोटे आकार का होता था, आवश्यकताएं कम थीं और सभी सदस्यों की आवश्यकताएं प्रायः समान होती थीं, उनके सामाजिक या आर्थिक कार्य, जीवन के ढंग, आचार-विचार, धारणा आदि में भिन्नताएं न के समान थीं। इसमें सदस्यों में मानसिक तथा नैतिक आधार पर अत्यधिक समानता थी। साथ ही, उन पर जनमत, परम्परा, धर्म आदि का दबाव रहता था।
इन सबके फलस्वरूप उस समय व्यक्तिगत समानता के आधार पर एक ठोस एकता होती थी, क्योंकि सामाजिक या वैयक्तिक जीवन के किसी भी पहलू में उल्लेखनीय भिन्नताएं शायद ही मिलती हों। इस समय सब लोग जनमत, परम्परा, धर्म और राजा के दबाव से यंत्रवत् कार्य करते थे। इन जनमत, परम्परा आदि का इतना प्रभाव होता था कि व्यक्ति के रूप में किसी का भी कोई महत्व नहीं था और व्यक्ति का व्यक्तित्व सामूहिक व्यक्तित्व में इतना घुल-मिल जाता था कि, उसके अपने व्यक्तित्व का अस्तित्व तक मिट जाता था। वह समाज के साथ यंत्रवत् सोचता, काम करता और ओदशों का पालन करता था।
इस प्रकार प्राचीन समाजों में या अविकसित समाजों में व्यक्ति एवं समाज के मध्य संबंध सामूहिकता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व सामूहिक व्यक्तित्व में विलीन रहता है, क्योंकि प्राचीन समाजों में श्रम-विभाजन स्त्री-पुरुष के भेद पर आधारित था। पुरुष शिकार करने या फल एकत्र करने जाते थे और स्त्रियां घर का काम-काज और बच्चों का पालन-पोषण करती थी। चूंकि इस युग में आर्थिक कार्य अत्यधिक सीमित था, उत्पादन नाममात्र का था, इसी कारण आर्थिक जीवन में कोई विशेष श्रम-विभाजन की आवश्यकता अनुभव नहीं की गयी।
सब मिलकर सब काम कर लिया करते थे। चूंकि श्रम-विभाजन नहीं था, इस कारण विशेषीकरण का भी कोई प्रश्न न था। सभी लोग सामूहिक इच्छा से बंधे होते थे। समाज में लोग जनमत, परम्परा और धर्म से अत्यधिक प्रभावित थे।
सरल श्रम विभाजन वाले समाजों में दमनकारी कानून का प्रचलन था। किसी भी अपराध को सामूहिक चेतना या इच्छा के विरुद्ध कार्य समझा जाता था। अतः दण्ड उन्हें दिया जाता है जो कि सामूहिक इच्छा का उल्लंघन करते हैं और सामूहिक भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं। दमनकारी कानून का उद्देश्य अपराधी द्वारा की गयी क्षति की पूर्ति नहीं है, यह कानून तो समाज में नैतिक संतुलन बनाये रखने तथा सामूहिक इच्छा को पुनः स्थापित करने के लिए होता है। इस प्रकार के समाज में नैतिक और वैधानिक उत्तरदायित्व सामूहिक होता है और सामाजिक व वैधानिक पद वंश परम्परा के अनुसार मिलता चला जाता है।
परंतु जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ, वैसे-वैसे आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलू विकसित होते गये। जनसंख्या बढ़ने पर सामाजिक आवश्यकताएं बढ़ीं और विभिन्न सामाजिक कार्य, विशेषकर आर्थिक उत्पादन-कार्य बड़े पैमाने में होना जरूरी हो गया अतः श्रम -विभाजन भी जटिल होता गया। इस प्रकार जनसंख्या का बढ़ना श्रम-विभाजन के विकास का एक कारण बन जाता है। श्रम-विभाजन के बढ़ने से प्राचीन समाजों में पायी जाने वाली यांत्रिक एकता का ह्रास होने लगता है। यह एकता दूसरे प्रकार की एकता सावयवी एकता में बदलने लगती है। सावयवी एकता वाले इस समाज में श्रम का विशेषीकरण होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति निरंतर ही एक प्रकार का कार्य करता रहता है।
इस विशेषीकरण के कारण व्यक्तिगत भिन्नता उत्तरोत्तर बढ़ती गयी और उसी के साथ-ही-साथ विभिन्न प्रकार के पेशा समूह बनते चले गये। श्रम-विभाजन एवं विशेषकरण के कारण व्यक्ति का महत्व बढ़ता चला गया। इस प्रकार सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के प्रत्येक पहलू में भिन्नता का साम्राज्य हुआ। इससे प्राचीन समाजों की भांति व्यक्तिगत समानता के आधार पर सामाजिक एकता को बनाएं रखना संभव न हुआ, परंतु इसके स्थान पर दूसरे किसी सूत्र या बंधन की आवश्यकता महसूस की गयी जोकि सामाजिक एकता का बनायें रख सके। यह बंधन की आवश्यकता महसूस की गयी जो कि सामाजिक एकता की बनाये रख सके। यह बंधन श्रम-विभाजन है क्योंकि श्रम-विभाजन में विभाजन होने पर भी एंकता या संगठन या सहयोग की आवश्यकता होती है।
अतः स्पष्ट है कि आधुनिक समाज में श्रम-विभाजन के फलस्वरूप विभाजन और विशेषीकरण होते हुए भी विभिन्न सामाजिक विभागों और व्यक्तियों में अंतः संबंध, अंतः निर्भरता और एकता है। श्रम-विभाजन ने एक ओर तो व्यक्तियों और समूहों को नाना प्रकार से विभाजित किया है। दूसरी ओर, उनकी आवश्यकताओं के आधार पर उसी श्रम-विभाजन ने उनकों एक दूसरे से संबंधित कर दिया है। यही ‘सावयवी एकता’ की स्थिति है।
इस प्रकार की एकता का नाम दुर्खीम ने सावयवी एकता’ इसलिए दिया है कि यह एकता प्राणी के शरीर में पायी जाने वाली एकता से मिलती-जुलती है। शरीर के विभिन्न भागों में श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण है; परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि आंख, पैर, हाथ, पेट आदि का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में ये सभी भाग एक-दूसरे से अत्यधिक घनिष्ठ रुप से संबंधित तथा एक दूसरे पर अत्यधिक निर्भर हैं। साथ ही सम्पूर्ण शरीर का प्रत्येक भाग पर एक आश्चर्यजनक प्रभाव होता है।
आधुनिक युग में सामाजिक श्रम-विभाजन और विशेषीकरण के फलस्वरूप भी प्रत्येक व्यक्ति का विशेष प्रकार का कार्य, व्यक्तित्व तथा अनुभव होता है, परंतु अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य अनेक व्यक्तियों पर, या विस्तृत अर्थ में समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार, आधुनिक समाज में श्रम-विभाजन और विशेषीकरण हुये भी व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समूह में, समूह और समूह में एक पारस्परिक संबंध, पारस्परिक निर्भरता एवं एकता है।
इस सावयवी एकता वाले समाज में व्यक्ति एवं समाज के मध्य का संबंध, प्रकृति में परिवर्तन होने पर सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन आया। इस समाज में दमनकारी कानून के स्थान पर प्रतिकारी कानून का जन्म हुआ। व्यक्तिगत स्वतत्रंता का महत्व बढ़ने पर अपराध को अब समस्त समाज के विरुद्ध कार्य या सामूहिक इच्छा का उल्लंघन न समझकर व्यक्ति के विरुद्ध कार्य समझा जाने लगा। अब कानून का उद्देश्य नुकसान प्राप्त व्यक्ति की हानि को पूरा करना या व्यक्ति को वह सब-कुछ लौटा देना हो गया जो कि अनुचित रूप से उससे छीन लिया गया है।
व्यक्ति और समाज के मध्य संबंध की प्रकृति के बारे में दुर्खीम द्वारा प्रस्तुत यह धारणा कोई नई नहीं है। उनके पहले भी अनेक सामाजिक विचारक इस विषय पर अपना मत प्रकट कर चुके हैं। उन विचारकों में प्लेटो, अरस्तू, फर्ग्यूसन, एडम स्मिथ, सेण्ट साइमन, काम्ट, स्पेंसर, मिल आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। फिर भी दुर्खीम ने अपने सिद्धांत को एक नए रूप में प्रस्तुत किया और इसकी सत्यता को सिद्ध करने के लिए अनेक सामाजिक तथ्यों और आकंड़ों को एकत्रित किया। इससे उनके सिद्धांत को एक सुदृढ़ वैज्ञानिक स्तर प्राप्त हुआ।
इस संबंध में दूसरी बात यह स्मरणीय है कि आधुनिक समाज का विश्लेषण तथा व्यक्ति एवं समाज के मध्य संबंधों की प्रकृति का विश्लेषण दुर्खीम ने इसलिए नहीं किया कि उनका उद्देश्य आधुनिक समाज के व्याधिकीय पक्ष को प्रकट करना है। उनका कहना है कि सावयवी एकता वाले समाज में व्यक्तिवाद का बोलबाला है, परंतु इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि व्यक्तिवाद व्यक्ति को उसकी तात्कालिक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बिना किसी सामाजिक प्रतिबंध के असीमित अधिकार देता है, बल्कि इसके विपरीत व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह गहन विशेषीकरण द्वारा अपने पृथक व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करे कि वह सामाजिक कल्याण कार्यो में अधिकाधिक हाथ बंटा सके।
Question : सामाजिक नृशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित प्रकार्यवाद के प्रति राबर्ट मर्टन की प्रतिक्रियायें क्या हैं? उनके अप्रकट प्रकार्यों की विभावना की मर्यादा दर्शाइये।
(2006)
Answer : राबर्ट मर्टन ने प्रकार्यवाद के संबंध में अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने लिखा है कि समस्याओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने की आधुनिक पद्धति के रूप में प्रकार्यवादी विश्लेषण एक सर्वाधिक आशाजनक, पर साथ ही सम्भवतः सबसे कम विधिबद्ध प्रणाली है। यह प्रकार्यवाद एक साथ अनेक क्षेत्रों में विकसित हो गया है जिसके फलस्वरूप इसका खण्ड विस्तार तो हुआ है, पर गहन-विस्तार नहीं हो पाया है। परंतु जिस रूप में अब तक इसका विस्तार हुआ है, उससे यह आशा की जा सकती है कि भविष्य में यह अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल होगा।
मर्टन ने अपने प्रकार्यवादी विश्लेषण की अवधारणा को मैलिनोस्की, रैडक्लिपफ़ ब्राउन, क्लाइड कलूखोन आदि से ग्रहण किया। मर्टन ने सामाजिक-मानवशाड्डियों की प्रकार्यवाद की अवधारणा की आलोचना की है। मर्टन ने लिखा है कि ये प्रकार्यवादी यह विश्वास करते हैं कि ‘प्रमाणिक सामाजिक कार्यकलाप या सांस्कृतिक इकाईयां सम्पूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के लिए प्राकार्यात्मक होती है। इस प्रकार के सभी सामाजिक और सांस्कृतिक तत्व या इकाइयां समाजशास्त्रीय प्रकार्यो की पूर्ति करते हैं। इसलिए ये सामाजिक और सांस्कृतिक तत्व अपरिहार्य होते हैं।
इस प्रकार सामाजिक मानवशास्त्रियों द्वारा दिये गए प्राकार्यवाद की तीन आधारभूत मान्यताएं हैं:
अतः इन सामाजिक-मानवशास्त्रियों के अनुसार, सामाजिक इकाईयों का प्रकार्य सामाजिक सरंचना व व्यवस्था के अस्तित्व व निरंतरता के लिए अनिवार्य है। परंतु मर्टन ने इन मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया है। इनका कहना है कि प्रकार्यवादियों का यह दृष्टिकोण गलत है कि समस्त सामाजिक इकाईयां केवल प्रकार्य ही करती हैं और इस रूप में सामाजिक संरचना व व्यवस्था को बनाये रखने की दिशा में अपना योगदान करती हैं।
इसके विपरीत मर्टन के अनुसार, यह भी होता है कि कुछ इकाइयां प्रकार्य के स्थान पर अकार्य करती है, और इस प्रकार सामाजिक सरंचना व सामाजिक व्यवस्था को संगठित करने की दिशा नहीं अपितु विघटित करने की दिशा में योगदान करती हैं। अतः यह कहना गलत है कि सामाजिक इकाईयां सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए प्रकार्य करती है कि उनका प्रकार्य सामाजिक संरचना व व्यवस्था के लिए अनिवार्य है।
मर्टन के अनुसार, सामाजिक स्थिति यह है कि कुछ सामाजिक इकाईयों के कार्य यदि प्रकार्यात्मक होते हैं तो कुछ इकाईयों के कार्य अंशतः अकार्यात्मक, कुछ के नकार्यात्मक और कुछ के पूर्णतया अकार्यात्मक। अतः सभी इकाईयों के कार्य सामाजिक संरचना व व्यवस्था के अस्तित्व व निरंतरता के लिए अनिवार्य नहीं होते।
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण की उपरोक्त कमियों का उल्लेख करते हुए मर्टन ने अपने कुछ आधारों या मान्यताओं को भी प्रस्तुत किया हैं ये मान्यतायें इस प्रकार हैं:
मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण के संदर्भ में चार अवधारणाओं को विकसित किया हैः
प्रकार्य (Functions) वे अवलोकित परिणाम हैं जो कि एक व्यवस्था विशेष के अनुकूलन या सामजस्य को संभव बनाते हैं।
अकार्य (Dysfunction)वे अवलोकित परिणाम हैं जो कि व्यवस्था के अनुकूलन या सामंजस्य को कम करते हैं।
प्रकट प्रकार्य (Manifest Function)वे अवलोकित परिणाम हैं, जो कि व्यवस्था के अनुकूलन या सामंजस्य में अपना योगदान देते हैं और जो कि व्यवस्था में अंशग्रहण करने वालों के द्वारा मान्य तथा इच्छित होते हैं।
अन्तर्हित या अप्रकट प्रकार्य (Latent Function) न तो मान्य होते हैं और न ही इच्छित। दूसरे शब्दों में अन्तर्हित प्रकार्य ऐसी स्थिति तथा परिणामों को उत्पन्न करता है, जिसके विषय में उस प्रकार्य को करने वाले ने न कभी सोचा था और न ही उसकी इच्छा की थी। अप्रकट प्रकार्यों में प्रेरणा, परिस्थिति एवं परिणामकर्त्ता का जाना-पहचाना नहीं होता। अप्रकार्य के तो बड़े दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जिसकी इच्छा या कल्पना तक उस कर्त्ता ने कार्य को करते समय नहीं की थी। अप्रकट प्रकार्य किसी न किसी प्रकट प्रकार्य का ही परिणाम होता है, पर उस परिणाम के संबंध में कर्त्ता की कोई पूर्व धारणा नहीं होती है और न ही उस परिणाम को प्राप्त करने के उद्देश्य से वह कार्य करता है। यह भी जरुरी नहीं है कि अप्रकट प्रकार्य का परिणाम बाहरी तौर पर प्रकट ही हो।
इसलिए मर्टन के अनुसार, अप्रकट प्रकार्य कर्त्ता के लिए न तो मान्य होते हैं और न ही इच्छित। इसको एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है- एक व्यक्ति कोई सिनेमा देखने गया, केवल मनोरंजन के उद्देश्य से। व्यक्ति का यह कार्य प्रकट प्रकार्य है क्योंकि वह प्रकार्य बाहरी तौर पर देखा जा सकता है। मनोरंजन का यह कार्य इच्छित है तथा सिनेमा देखने के कार्य का यह परिणाम व्यक्ति का जाना पहचाना परिणाम है। पर हो सकता है कि उसी सिनेमा के किसी पात्र के जीवन की कोई घटना उस व्यक्ति को इतना ज्यादा प्रभावित करे कि उसके जीवन आदर्श को ही बदलकर रख दे, जिसके संबंध में कभी उसने सोचा भी नहीं था और न ही इस उद्देश्य के साथ वह सिनेमा देखने गया था। सिनेमा देखने के उस कार्य का यही अप्रकट प्रकार्य होगा।
मर्टन ने अप्रकट प्रकार्य की अवधारणा अमेरिका के होपी इंडियन जनजाति के वर्षा नृत्य समारोह का अध्ययन के आधार पर दी। मर्टन ने पाया कि होपी इंडियन प्रतिवर्ष एक निश्चित स्थान पर पूरे हर्षोल्लास के साथ एकत्रित होते हैं तथा कुछ संस्कारों के बाद आसमान में पत्थर फेंकते हैं। उनका विश्वास है कि ऐसा करने से वर्षा होती है।
मर्टन के अनुसार, यह प्रत्यक्ष प्रकार्य कर्त्ता की वह क्रिया है, जिसके कारण एवं परिणाम दोनों से कर्त्ता भिज्ञ होता है। मर्टन ने पाया कि इस क्रिया के पश्चात् वर्षा कभी नहीं होती है। यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। मर्टन ने इसका अध्ययन किया तथा पाया कि इस क्रिया के पश्चात् वर्षा हो या न हो, होपी इंडियनों की सामूहिक चेतना एवं एकता जो समय के साथ कमजोर हो जाती है, वह पुनआर्वेशित हो जाती है। यह वर्षा-नृत्य समारोह का अप्रकट प्रकार्य है। अप्रकट प्रकार्य कर्त्ता की वह क्रिया है जिसके परिणाम से कर्त्ता भिज्ञ नहीं होता।
मर्टन ने अप्रकट या अन्तर्हित प्रकार्य की अवधारणा से प्रकार्यवाद को अधिक व्यवहारिक तथा प्रासंगिक बनाया है। उत्तर भारत में वर्षा केलिए माना जाता है कि कोई वृद्ध व्यक्ति यदि सार्वजनिक भोज दे तो वर्षा हो सकती है। इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि वृद्ध व्यक्ति जो अपनी आयु एवं समय के साथ अनुकूलन न बैठाने के क्रम में पीछे छूट जाते हैं। ऐसी क्रियाओं से समय-समय पर समाज उन्हें मुख्य धारा में शामिल करता है जिससे उनके योगदान एवं महत्व को भुलाया न जा सके।
मर्टन के अप्रकट या अव्यक्त या अन्तर्हित प्रकार्य की अनेक सीमाएं भी हैं। इन्हीं आधार पर अनेक विद्वानों ने मर्टन के अप्रकट प्रकार्य की आलोचना की है। इन विद्वानों का मानना है कि अप्रकट प्रकार्य की व्याख्या वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती। अप्रकट प्रकार्य की व्याख्या में कर्त्ता स्वयं भ्रमित हो सकता है या शोधकर्त्ता को भ्रमित कर सकता है।
शोधकर्त्ता अपनी पृष्ठभूमि एवं पूर्वाग्रहों से परे नहीं रह सकता है, जिस कारण अप्रकट प्रकार्य की व्याख्या में व्यक्तिनिष्ठता आ जायेगी। इसी के साथ, मर्टन के द्वारा बताये गये अव्यक्त या अप्रकट प्रकार्य अस्पष्ट हैं। यह ज्ञात करना अत्यंत कठिन है कि किसी सामाजिक क्रिया का कौन सा अप्रकट प्रकार्य है। जैसे मर्टन के वर्षा नृत्य समारोहों की दूसरी व्याख्या भी संभव है कि कृषि योग्य भूमि निर्माण के लिए यह सामूहिक क्रिया संपन्न की जाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिन तार्किक आधारों पर अप्रकट प्रकार्य की व्याख्या की गयी है। वह सदैव विवादित रहेगा क्योंकि न तो उसका कोई तथ्यात्मक और न ही कोई प्रमाणिक आधार होता है।
परंतु मर्टन ने जिस प्रकार प्रकार्यवाद की त्रुटियों को समाप्त करने का प्रयास किया तथा नये रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया उससे प्रकार्यवाद की आलोचनाओं में कमी आयी। मर्टन के इस दृष्टांत से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक प्रकार्य प्रकट प्रकार्य ही नहीं होता है। साथ ही यह भी सत्य है कि अप्रकट प्रकार्य निश्चित रुप से समाज की स्थिरता एवं निरंतरता को प्रभावित करता हैं।
Question : वर्ग संघर्ष कार्ल मार्क्स की संकल्पना के अनुसार
(2005)
Answer : मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त को समाजशास्त्र में सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। वर्ग संघर्ष द्वारा ही सामाजिक परिवर्तन होता है। वास्तव में समाज में दो वर्गों के बीच अपनी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्तियों के बीच संघर्ष चलते रहता है। इन वर्गों में स्वार्थ भेद के कारण निरन्तर संघर्ष होते रहे हैं। इन संघर्षों को समाप्त करने के लिए मार्क्स ने वर्गहीन समाज की कल्पना की है। उनका कहना है कि वर्ग संघर्ष के द्वारा ही वर्ग विहीन समाज की स्थापना की जा सकती है। मार्क्स ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि ‘सम्पूर्ण समाज अधिकाधिक दो महान विरोधी समूहों में विभाजित हो रहा है, एक-दूसरे का प्रत्यविरोध करते हुए, बुर्जुआ और सर्वहारा दो महान वर्गों में। ‘मार्क्स ने स्पष्ट किया है कि जब पूंजीपति अर्थात बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष होगा तो इस संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की विजय सुनिश्चित होती है। जब पूंजीपति श्रमिकों के शोषण में व्यस्त हो जाते हैं तो श्रमिक वर्ग को विवश होकर क्रांति और संघर्ष का सहारा लेना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त मार्क्स का विचार है कि वर्ग संघर्ष सामाजिक प्रगति का आधार है। यदि समाज में वर्ग संघर्ष नहीं होगा तो समाज की प्रगति नहीं होगी। मार्क्स ने स्वीकार किया है कि समाज एक परिवर्तनशील व्यवस्था है। इस व्यवस्था में वर्गों का अस्तित्व अनिवार्य है। सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ वर्ग बनते और बिगड़ते रहते हैं। मार्क्स का विचार है कि द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त के द्वारा जो वर्ग उत्पन्न हो जाते हैं उनके संघर्ष के कारण उनका विकास होता रहता है।
मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त उद्देश्यहीन नहीं है। मार्क्स ने उस सिद्धान्त का प्रतिपादन महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। उसके ये उद्देश्य निम्न दो भागों में विभाजित किये जाते हैं
(क) वर्गविहीन समाज की स्थापना,
(ख) राजविहीन समाज का निर्णय।
संक्षेप में, मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त का आधार वर्गहीन और राज्यहीन समाज की स्थापना करना है।
Question : मैक्स वेबर के आदर्श प्रकारों और अधिकारी तंत्र में प्राधिकार की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : मैक्स वेबर का आदर्श प्रारूप के सिद्धान्त के प्रतिपादन का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों के बीच पाये जाने वाले अंतर को समाप्त कर एक ऐसी समाजशास्त्रीय प्रणाली का विकास करना था, जिसकी सहायता से समाजशास्त्र को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया जा सके। वेबर ने सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों में पाये जाने वाले इस अंतर को समाप्त किया और इन दोनों विज्ञानों का समन्वय करके समाजशास्त्र में एक ऐसी नवीन पद्धति को विकसित किया जिसका उपयोग दोनों विज्ञानों में समान रूप से किया जा सके।
मैक्स वेबर ने उपर्युक्त समस्या का समाधान करने के लिए प्राकृतिक विज्ञानों की तरह सामाजिक जीवन में पाये जाने वाले कार्य-कारण के संबंधों का अध्ययन करने के लिए तुलनात्मक पद्धति को विकसित किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने अपने आदर्श प्रारूप के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, जिसे मैक्स वेबर का पद्धतिशास्त्र कहकर सम्बोधित किया जाता है। मैक्स वेबर ने बताया है कि प्रकट या अप्रकट रूप से सामान्यीकृत सिद्धान्तों के प्रयोग द्वारा कार्य-कारण के संबंधों को तर्कपूर्ण रीति से दिखाया जा सकता है। साथ ही उसने यह भी लिखा है कि सामाजिक विज्ञानों में भी प्राकृतिक विज्ञानों के नियमों को स्वीकार किया जा सकता है। इसके लिए उसने सामाजिक विज्ञानों की संरचना में पुनर्निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया। इस प्रकार सामाजिक विज्ञानों की तार्किक संरचना के पुनर्निर्माण के लिए मैक्स वेबर ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उसे आदर्श प्रारूप के नाम से जाना जाता है।
आदर्श प्रारूप विशेषताओं का एक पुंज या समूह है, जिसकी रचना अध्ययन किए जाने वाले वर्ग, वस्तु अथवा घटना के नमूनों में बहुधा देखी जाने वाली विशेषताओं द्वारा होती है। इन विशेषताओं का किसी एक घटक में उपस्थित होना आवश्यक नहीं है, किन्तु इन सभी विशेषताओं का सभी घटकों में प्रचुर मात्र में विद्यमान होना आवश्यक है तथा इनमें से कोई भी विशेषता अन्य इंगित विशेषताओं के साथ असंगति प्रकट नहीं करती है। ऐसा माना जाता है कि वर्ग की कोई भी विशुद्ध इकाई सभी विशेषताओं को प्रकट करेगी। अतः आदर्श प्रारूप का प्रयोग घटना के वर्ग की इकाइयों को मालूम करने तथा विशिष्टता की मात्र की माप करने के लिए किया जा सकता है। एक पद्धतिशास्त्रीय उपकरण के रूप में इसका प्रयोग दो या अधिक सामाजिक घटनाओं का तुलनात्मक विश्लेषण के लिए किया जाता है।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों के आधार पर इन आदर्श प्रारूप की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं, जो इस प्रकार हैंः
(1) आदर्श प्रारूप की पहली विशेषता सामाजिक घटनाओं को समान लक्षणों के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित करने से संबंधित है।
(2) इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इन सामाजिक तथ्यों को विशुद्ध रूप से प्रस्तुत किया जाता है।
(3) इसकी तीसरी विशेषता यह है कि आदर्श प्रारूपों को सामाजिक विज्ञानों को लक्ष्य नहीं माना जा सकता है।
वेबर का मानना है कि यह आदर्श प्रारूप प्रत्येक सामाजिक घटना का, प्रत्येक सामाजिक क्रिया का हो सकता है। वेबर ने लिखा है कि हमारे सभी विचार आदर्श प्रारूपों से होते हैं। मार्टिण्डेल ने मैक्स वेबर के आदर्श प्रारूप की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘आदर्श प्रारूप उपकल्पित वास्तविक इकाइयां, व्यक्तित्व, सामाजिक परिस्थितियां, परिवर्तन, क्रान्तियां, संस्थाएं, वर्ग आदि है जिनका निर्माण अनुसंधानकर्त्ता द्वारा स्पष्ट तुलना करने के उद्देश्य से उसके संबंधित निर्माणक तत्वों के आधार पर किया जाता है।
अधिकारी तंत्र में प्राधिकार की भूमिका: समाज को संचालित करने के लिए एक व्यवस्था होती है, जिसे प्रशासकीय मशीन के नाम जाना जाता है। प्रशासन का संचालन कुशलतापूर्वक हो इसका उत्तरदायित्व प्रशासनिक कर्मचारियों की कर्तव्यनिष्ठा, सतर्कता, ईमानदारी तथा कार्य-कुशलता पर आधारित होता है। इतना निश्चित है कि नियमों का निर्माण कार्यपालिकाएं करती हैं, किन्तु इन नियमों की व्याख्या और जनता पर लागू करने का काम अधिकारियों की सहायता से ही किया जाता है। यह सारी व्यवस्था वास्तव में अधिकारी तंत्र के द्वारा संचालित किया जाता है, जिसकी व्याख्या वेबर ने विभिन्न आयामों के तहत किया है।
वेबर ने इसे पारिभाषित करते हुए कहा है कि, ‘यह एक प्रकार का प्रशासकीय संगठन है, जिसमें विशेष योग्यता, निष्पक्षता तथा मनुष्यता का अभाव आदि लक्षण पाये जाते हैं। ‘वेबर के इस परिभाषा सेे निम्नांकित बाते स्पष्ट होती हैं:
(क)यह एक प्रकार की प्रशासन व्यवस्था है,
(ख)इस प्रशासनिक व्यवस्था की निम्नांकित विशेषताएं हैं:
(i)विशेष योग्यता, (ii) निष्पक्षता, और (iii) मनुष्यता का अभाव
मैक्स वेबर ने आगे लिखा है कि ये तत्व लोक प्रशासन में ‘नौकरशाही सत्ता’ अथवा निजी उद्योगों में ‘नौकरशाही प्रबंध व्यवस्था’ का निर्माण करते हैं। उपरोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त वेबर ने कुछ और प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित हैं-
अधिकारी तंत्र वास्तव में बौद्धिक वैधानिक सत्ता के द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होता है। वेबर के अनुसार बुद्धि-संगत या बौद्धिक वैधानिक सत्ता वह है जिसमें व्यक्ति किसी पद के कारण सत्ता का प्रयोग करता है। जैसे मुख्यमंत्री का पद, जज का पद, नगरपालिका अध्यक्ष का पद आदि। समाज में व्यक्तियों को इन्हीं आधार पर अन्य जो पद प्राप्त होते हैं, मैक्स वेबर इन्हें बौद्धिक और वैधानिक सत्ता कहकर सम्बोधित करता है। मैक्स वेबर द्वारा प्रतिपादित इस सत्ता की प्रमुख दो विशेषताएं हैः
(क) इस सत्ता की पहली विशेषता इसका विवेक सम्मत होना है। समाज में उन्हीं व्यक्तियों को यह सत्ता प्रदान की जाती है जो बौद्धिक दृष्टि से आगे रहते हैं।
(ख) इस सत्ता की दूसरी विशेषता कानून सम्मत होना है अर्थात् व्यक्तियों को जो सत्ता प्रदान की जाती है वैधानिक होती है, कानूनी होती है।
बौद्धिक वैधानिक सत्ता की मूल बात यह है कि इसका आधार बौद्धिक रूप से निर्मित नियम अथवा कानून होते हैं। बौद्धिक-वैधानिक सत्ता का पालन किसी पद पर नियुक्ति के कारण नहीं, अपितु उस वैधानिक व्यवस्था द्वारा होता है जो इस पद के साथ जुड़ी हुई है। इस सत्ता के संबंध में यह बात स्पष्ट है कि इसकी एक विशिष्ट सोपान परम्परा पायी जाती है। कुछ व्यक्तियों का पद ऊंचा होता है, कुछ का निम्न और अन्य व्यक्तियों का निम्नतर। इस प्रकार समाज में पायी जाने वाली सम्पूर्ण सत्ता एक विशिष्ट सोपान परम्परा में विभाजित हो जाती है। इससे व्यक्तियों का पद और क्षेत्र निश्चित और संकुचित हो जाते हैं।
अतः इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि अधिकारी तंत्र आधुनिक बौद्धिक वैधानिक सत्ता का सबसे ज्वलंत उदाहरण है। इस अवस्था में प्रत्येक कर्मचारी अपने पद पर आसीन होता है। उसे दूसरे व्यक्ति से कोई विशेष सरोकार नहीं होता है। फाइलों पर नोट लगते रहते हैं और निर्णय होते रहते हैं। यह निर्णय अवैयक्तिक होते हैं। वेबर ने स्वीकार किया है कि इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था में सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किये जाते हैं साथ ही ये व्यवहार व्यक्तिगत लगाव और पक्षपात से परे होते हैं।
Question : जाति के बीच वर्ग और वर्ग के बीच जाति।
(2004)
Answer : जाति एवं वर्ग सामाजिक संस्तरण को प्रमुख आधार के रूप में देखा जाता है। परंतु इस तथ्य से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि दोनों में भिन्नता होने के बावजूद वह एक-दूसरे से पूर्णतया मिला हुआ है। मजूमदार ने जाति को ‘बंद’ एवं वर्ग को ‘खुली’ व्यवस्था के रूप में पारिभाषित किया है। इससे स्पष्ट होता है कि जाति प्रदत्त एवं वर्ग अर्जित प्रस्थिति को मान्यता देती है। परंतु साथ ही, एक जाति में विभिन्न वर्ग एवं एक वर्ग में विभिन्न जातियां हो सकती हैं।
जाति एवं वर्ग के बीच पारस्परिक अंतः संबंधों का वर्णन विभिन्न समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक मानवशास्त्रियों के द्वारा किया गया है। इसमें योगेंद्र सिंह, के.एल. शर्मा एवं आन्द्रेबेते प्रमुख हैं। इन समाजशास्त्रियों का मत है कि जाति एवं वर्ग को अलग-अलग देखना मुश्किल है बल्कि ये दोनों एक-दूसरे के साथ अंतःसंबंधित एवं जुड़े हुए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि जाति एक सामाजिक-सांस्कृतिक आधार को प्रदर्शित करती है जबकि वर्ग एक आर्थिक प्रकृति को प्रकट करता है।
वास्तव में जाति एवं वर्ग का उदगम बिन्दु मैक्स वेबर द्वारा रचित क्लास, स्टेटस एवं पार्टी से माना जाता है। इसी आधार पर आन्द्रे बेते ने कास्ट, क्लास एवं पावर की अवधारणात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है। इसी पुस्तक में बेटे ने जाति एवं वर्ग को एक-दूसरे को पूरक के रूप में समझा परंतु इसने सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक आधारों पर विभेद भी प्रस्तुत किया है। के.एल. शर्मा ने कास्ट एंड क्लास इन इंडिया के अंतर्गत भिन्नता प्रस्तुत करने के साथ-साथ यह भी बताया कि इन दोनों को अलग-अलग रूप में नहीं देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, हम अगर ब्राह्मण जाति का उदाहरण लें तो हम पाते हैं कि इस जाति के अंतर्गत भी आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक आधार पर बहुत से वर्ग पाये जाते हैं एवं ये वर्ग उच्च, मध्यम एवं निम्न हो सकते हैं। यही वर्गीकरण हमें निम्न जातियों अर्थात् क्षुद्रों में भी देखने को मिलता है।
Question : ईमाइल दुर्खीम की धर्म और समाज पर थ्योरी की समालोचनात्मक समीक्षा प्रस्तुत कीजिए। एशिया में समकालीन परिदृश्य को यह थ्योरी किस सीमा तक स्पष्ट करती है?
(2004)
Answer : ईमाइल दुर्खीम ने धर्म और समाज के बीच संबंधों का उद्घाटन धर्म के समाजशास्त्र या धर्म के सामाजिक सिद्धांत के अंतर्गत किया है। इस संबंध में उसकी पुस्तक धार्मिक जीवन के प्रारंभिक रूप (The Elementary farms of Religious life) अत्यंत महत्पूर्ण है। दुर्खीम ने अपने धर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन आस्ट्रेलिया की जनजाति की धार्मिक संस्था के अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित किया था। उसका विचार है कि समाज में पायी जाने वाली प्रत्येक संस्था सामूहिक जीवन द्वारा स्वीकार किये गये व्यवहारों और प्रतिमानों की प्रतीक है। धर्म एक सामाजिक तथ्य है और इसमें जो धार्मिक विचार और क्रियाएं पाई जाती हैं, वे समूह के मान्यताओं की अभिव्यक्ति करती हैं। धर्म नैतिक रूप से मानव समाज की सामूहिक चेतना का प्रतीक है।
दुर्खीम ने अपने धर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन करने से पहले धर्म की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीनतम सिद्धांतों की आलोचना की है। दुर्खीम के अनुसार धर्म की प्रमुख विशेषता पवित्र और अपवित्र की भावना है जिसके माध्यम से पवित्र और अपवित्र की व्याख्या न होती हो उसे दुर्खीम धर्म नहीं कहता है। धर्म की उत्पत्ति के संबंध में दुर्खीम ने मूलतः दो सिद्धांतों की आलोचना की हैः
(क) जीववाद (Animism): धर्म की उत्पत्ति के संबंध में स्पेंसर और टॉयलर का सिद्धांत जीववाद के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार धर्म की उत्पत्ति स्वप्न, छाया, मृत्यु आदि कारणों से हुई। संक्षेप में मृत आत्मा में विश्वास के परिणामस्वरूप धर्म का जन्म हुआ।
(ख) प्रकृतिवाद (Naturalism): धर्म की उत्पत्ति के संबंध में दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत मैक्समूलर का है। मैक्समूलर के अनुसार बिजली, तूफान, भूकंप, गर्जन, नदी, सूर्य, चन्द्र आदि धर्म की उत्पत्ति के मूल में है। चूंकि ये प्राकृतिक वस्तुएं व्यक्ति के नियंत्रण से परे हैं। अतः व्यक्ति दैवीय शक्ति की कल्पना करने लगा, परिणामस्वरूप धर्म का जन्म हुआ।
दुर्खीम ने उपर्युक्त सिद्धांतों की निम्न आधारों पर आलोचना की हैः
(1) उपर्युक्त सभी सिद्धांत धार्मिक घटनाओं के केवल एक पहलू की व्याख्या करते हैं। धर्म के संपूर्ण पहलुओं की व्याख्या न करने के कारण पूर्वोक्त सभी सिद्धांत महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होते।
(2) उपर्युक्त दोनों सिद्धांत पवित्र और अपवित्र की अवधारणा को ही स्पष्ट नहीं करते है।
(3) उपर्युक्त दोनों सिद्धांत धर्म को वास्तविक सामाजिक घटना न मानकर मायाजाल और अधि-सामाजिक घटना मानते हैं।
दुर्खीम ने वास्तव में धर्म की उत्पत्ति के संबंध में उपर्युक्त सिद्धांत की आलोचना की है और उन्हें अव्यावहारिक माना है। अपने धार्मिक अध्ययन को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए उसने आस्ट्रेलिया की अरून्ता जनजाति की टोटम संबंधी क्रियाओं का अध्ययन एवं विश्लेषण किया था। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि अरून्ता जनजाति में टोटम एक गोत्र का प्रतीक माना जाता है। यह टोटम जानवर, पशु या पेड़-पौधे हो सकते हैं। इस जाति में जितने गोत्र पाये जाते हैं वे सभी अपनी उत्पत्ति टोटम से मानते हैं। चूंकि वे अपनी उत्पत्ति टोटम से मानते हैं इसलिए इस टोटम के प्रति उनके मन में श्रद्धा का होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि टोटम के एक गोत्र के सदस्य टोटम को अपना पूर्वज मानते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि टोटम एक भौतिक पदार्थ है। चूंकि यह गोत्र का प्रतीक है, अतः उसके प्रति सदस्यों का घनिष्ठ संबंध होना स्वाभाविक है। चूंकि टोटम का संबंध पूर्वजों से होता है, अतः उसे किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जाता है। जो व्यक्ति टोटम के इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसे सामाजिक तौर पर दंड दिया जाता है। टोटम का यही आधार टोटमवाद की संरचना को तैयार करता है।
दुर्खीम इस टोटमवाद का संबंध अलौकिक शक्ति में निहित मानता है एवं इसी अलौकिक शक्ति में विश्वास ही धर्म कहा जाता है। सामान्यतः इस अलौकिक शक्ति को ईश्वर के नाम से जाना जाता है। उसने धर्म को सामाजिक घटना माना है। दुर्खीम ने धर्म की परिभाषा इन शब्दों में दी है-
‘एक धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों एवं क्रियाओं की एक संकलित व्यवस्था है। वे हैं एक रखी जानेवाली एवं निषिद्ध वस्तुएं, विश्वास एवं क्रियाएं जो एक नैतिक समुदाय के अंदर संगठित है, एक चर्च कहलाती है, वे सभी जो उसमें भावना रखते हैं। दूसरा तत्व, जिसका इस प्रकार हमारी परिभाषा में स्थान है प्रथम से कम आवश्यक नहीं है, यह दिखाने से धर्म का विचार धर्म से पृथकनीय नहीं है, यह इसे स्पष्ट कर देता है कि धर्म प्रमुख रूप से एक सामूहिक वस्तु होनी चाहिए।’
इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि दुर्खीम धर्म को सामाजिक वस्तु मानता है। इस सामाजिक वस्तु का निर्माण व्यक्ति के विश्वास, क्रियाओं और व्यवहारों के योग से होता है। धर्म के आधार पर समूह के सभी सदस्य कुछ नैतिक आदर्शों द्वारा परस्पर संगठित रहते हैं। इस परिभाषा से एक महत्वपूर्ण तत्व सामने आता है वह है पवित्रता की अवधारणा। इस दृष्टिकोण को समझने के लिए आवश्यक है कि सामाजिक घटनाओं और वस्तुओं को दो भागों, पवित्र-अपवित्र में विभाजित किया जाय। दुर्खीम ने धर्म का आवश्यक लक्षण पवित्र वस्तुओं में निहित माना है। सामाजिक घटनाओं के इन दो उपविभागों को कभी भी परस्पर नहीं मिलने देना चाहिए। दुर्खीम का धर्म व्यक्ति को यह शिक्षा देता है कि, ‘पवित्र वस्तुओं का ही आश्रय लिया जाय। पारसन्स ने दुखीर्म द्वारा प्रतिपादित पवित्र और अपवित्र की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि पवित्र वस्तुओं को इस तथ्य द्वारा पृथक किया जाता है कि लोग उनका उपयोग उपयोगितावादी रूप में नहीं करते, उन्हें उद्देश्य की प्राप्ति का साधन नहीं मानते जिन्हें इन मूल गुणों के कारण अनुकूलित किया जाता है और अन्य अपवित्र वस्तुओं से पृथक किया जाता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि धर्म एक सामाजिक घटना है। पवित्र और अपवित्र सामाजिक आदर्श के प्रतिरूप हैं। धर्म की उत्पत्ति सामूहिक कार्यक्रमों और सम्मेलनों के परिणामस्वरूप होती है। जब व्यक्ति ऐसे सम्मेलनों में भाग लेते हैं तो वे दैनिक चिन्ताओं में मुक्त होकर और नवीनता की अनुभूति करते हैं और यही धर्म की उत्पत्ति का प्रमुख स्रोत है।
यद्यपि दुर्खीम ने धर्म का समाजशास्त्र, धर्म एवं समाज के अन्तः क्रियात्मक पहलुओं का बहुत अच्छी तरह से प्रतिपादन किया है, फिर भी इस सिद्धांत की कई दृष्टिकोणों से आलोचना की जाती है, जो निम्नलिखित है-
जहां तक एशिया की बात है तो यह स्पष्ट है कि दुर्खीम का धर्म सिद्धांत पूर्णतया तो नहीं परंतु अंशतः निश्चित रूप से व्याख्या प्रस्तुत करने में सक्षम है। एशिया मूल रूप से एक homogenous समाज है जिसे विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में समझा जाता है। जापान को छोड़कर एशिया के सभी देश मूल रूप से विकासशील देश है परंतु जापान में भी आपसी अंतःक्रिया में घनिष्ठता पायी जाती है। ये सभी विशेषताएं दुर्खीम द्वारा दी गयी सिद्धांत की सार्थकता को प्रस्तुत करती है। इसे निम्न प्रकार से बिन्दुवत व्याख्या कर सकते हैं-
Question : प्राधिकार और औचित्यपूर्णता।
(2004)
Answer : मैक्स वेबर ने अपने प्रमुख सिद्धांतों के अंतर्गत शक्ति प्राधिकार और औचित्यपूर्णता की अवधारणा का प्रतिपादन किया है। दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों को व्यवस्थित करने तथा उनके संबंध में निर्णय लेने के प्रस्थापित अधिकार को प्राधिकार कहते हैं। यह प्राधिकार के प्रयोग के प्रमुख रूपों में से एक है जिसमें अनेक व्यक्तिगत मानवीय कर्ताओं की क्रियाओं को आदेशात्मक तरीके से निर्देशित किया जाता है ताकि किसी विशिष्ट लक्ष्य अथवा सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके। मैक्स वेबर ने प्राधिकार की विवेचना शक्ति के रूप में की है और उन्होंने प्राधिकार के तीन रूपों की चर्चा की है-पारंपरिक सत्ता, तार्किक-कानूनी सत्ता है और करिश्माई सत्ता।
करिश्माई या चमत्कारी सत्ता का आधार व्यक्ति का चमत्कारी गुण अथवा विलक्षण व्यक्तित्व होता है। जिन व्यक्तियों के पास किसी प्रकार की विलक्षण शक्ति अथवा करामात होती है, वे करिश्माई सत्ता के अधिकारी होते हैं। महात्मा गांधी, मार्क्स, नेल्सन मंडेला इत्यादि इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। कानूनी-तार्किक सत्ता का आधार बौद्धिक रूप से निर्मित नियम अथवा कानून होते हैं। कानूनी तार्किक सत्ता का पालन किसी पद पर नियुक्ति के कारण नहीं, अपितु उस वैधानिक व्यवस्था द्वारा होता है जो उस पद के साथ जुड़ी हुई है। पारंपरिक सत्ता की वैधता का आधार प्राचीन काल से चली आ रही व्यवस्था, परंपरा अथवा स्वीकृत प्रतिमान होते हैं। पारंपरिक सत्ता एक व्यक्ति को परंपरा द्वारा स्वीकृत पद पर आसीन होने के कारण प्राप्त होती है। भारतीय समाज में ब्राह्मणों की सत्ता को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
Question : प्राथमिक और संदर्भ समूह।
(2003)
Answer : प्राथमिक समूह की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग सी.एच. कूले ने अपनी पुस्तक 'Social organisation' में किया है। उनके अनुसार, ‘प्राथमिक समूहों से हमारा तात्पर्य उन समूहों से है, जिनमें सदस्यों के बीच आमने-सामने के धनिष्ठ संबंध एवं पारस्परिक सहयोग की विशेषता होती है। ऐसे समूह अनेक अर्थों में प्राथमिक होते हैं, लेकिन विशेष रूप से इस अर्थ में कि ये व्यक्ति के सामाजिक स्वभाव और विचार के निर्माण में बुनियादी योगदान देते हैं, ‘प्राथमिक समूह का विचार कूले का समाजशास्त्र के क्षेत्र में संभवतः सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। इस अवधारणा को प्रस्तुत करने के पीछे कूले का मुख्य उद्देश्य यह प्रदर्शित करना था कि मानव व्यक्तित्व के विकास में कुछ ऐसे समूह होते हैं जिनकी महत्वपूर्ण या प्राथमिक समूह भूमिका होते है। इसीलिए इन्हें प्राथमिक समूह कहा जा सकता है। कूले की परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि प्राथमिक समूह में शारीरिक नजदीकी, घनिष्ठ संबंध एवं पारस्परिक संबंध का होना आवश्यक है। कूले ने परिवार, पड़ोस एवं क्रीड़ा समूह को प्राथमिक समूह का एक अच्छा उदाहरण माना है। इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि प्राथमिक समूह की सबसे प्रमुख विशेषताओं में 'We feeling' बहुत ही महत्वपूर्ण है। प्राथमिक समूह अपने आप में बहुत ही मजबूती से बंधा हुआ समूह है जिसमें आमने-सामने के संबंधों के अलावा एकता की भावना प्रबल होती है। सदस्यों में एक सामान्य सामाजिक मूल्यों के प्रति कटिबद्धता पायी जाती है।
संदर्भ समूह का सर्वप्रथम प्रयोग हरबर्ट हाइमन ने 1942 में किया था। इसका प्रयोग उन्होंने स्कूल के बच्चों के एक अध्ययन के संदर्भ में किया था। हाइमन के पश्चात् कई मनोवैज्ञानिक, जैसे- मुजफ्रफर शेरिफ, न्यूकॉम एवं कुछ समाजशास्त्रियों, जैसे- आर.के. मर्टन, टर्नर एवं स्टुफर ने संदर्भ समूह के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है। संदर्भ समूह की अवधारणा मुख्यतःइस तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है कि मानव-व्यवहार तथा इसके व्यक्तित्व के विकास में प्रायः कुछ गैर-सदस्यता समूह की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन्हीं गैर-सदस्यता समूहों के लिए, जिनकी मानव के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, हाइमन ने ‘संदर्भ समूह’जैसे शब्द का प्रयोग किया है, इन्हे संदर्भ समूह इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये समूह किसी व्यक्तिके समक्ष ऐसा संदर्भ प्रस्तुत करते हैं जिसके आधार पर वह व्यक्ति न सिर्फ अपना एवं अपनो का भीमूल्यांकन करता है, बल्कि दूसरों की हैसियत का भी मूल्यांकन करता है। उदाहरणस्वरूप, अगर एक निम्न आर्थिक वर्ग का लड़का उच्च आर्थिक वर्ग की जीवन शैली या उसमें प्रचलित नियम एवं विचारों से बहुत प्रभावित होता है और अपना एवं अपनी सदस्यता समूह (निम्न आर्थिक वर्ग) के अन्य सदस्यों का मूल्यांकन उच्च आर्थिक वर्ग में प्रचलित व्यवहार प्रतिमानों के आधार पर करता है, तो वैसी स्थिति में उच्च आर्थिक वर्ग उस निम्न वर्ग के लड़के के लिए ‘संदर्भ समूह’ कहलाता है।
आर.के.मर्टन ने बताया है कि जिस ढंग से कोई समूह संदर्भ समूह हो सकता है, उसी तरह एक व्यक्ति भी किसी के लिए संदर्भ व्यक्ति हो सकता है। न्यूकॉम ने संदर्भ समूह सिद्धांत के क्षेत्र में सकारात्मक एवं नकारात्मक संदर्भ समूह जैसी अवधारणाओं का प्रतिपादन किया है।
Question : सामाजिक तंत्र एवं पैटर्न परिवर्तन।
(2003)
Answer : टालकट पारसंस, आर.के.मर्टन, डेविस, स्मेलसर इत्यादि प्रकार्यवादियों ने सामाजिक व्यवस्था को दो स्तरों पर देखने का प्रयास किया है - एक संरचना के स्तर पर और दूसरा प्रकार्य के स्तर पर। सामान्यतः सामाजिक व्यवस्था से तात्पर्य किसी बहुत बड़े सामाजिक समूह की बात करते है। पारसंस ने समस्त समाज को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखने का प्रयास किया है।
टी. पारसंस एवं एडवर्ड शील्स ने मानदंडों एवं मूल्यों को दो भागों में बांटकर देखने का प्रयास किया है। उन्होंने दो विपरीत प्रकार के समाजों को ध्यान में रखकर ऐसा किया है- परंपरागत या सरल समाज एवं आधुनिक या जटिल समाज। पारसंस का यह विचार दुर्खीम के यांत्रिक या सहज एकता एवं सावयवी एकता के विचार से काफी प्रभावित हैं। इसी से मिलता-जुलता विचार समकालीन जर्मन समाजशास्त्री टॉनीज का भी था, जिन्होंने समाज को दुर्खीम की तरह दो भागों में विभक्त कर देखा। इसे जर्मन भाषा में Gemeinschaft एवं Gelleschaft के नाम से जाना जाता है। बाद में मकाईवर ने भी उसी प्रकार समाज को दो भागों में विभक्त किया- समुदाय एवं समिति।
हम यहां दो प्रकार के मानदंडों की चर्चा कर रहे हैं। प्रथम जिन मानदंडों एवं मूल्यों की चर्चा परिवर्तनीय प्रतिमान (A) के अंतर्गत की गयी है वह रूढि़वादी समाज की विशेषताहै, जिसके लिए टॉनीज एवं मकाईवर ने समुदाय शब्द एवं दुर्खीम ने यांत्रिक एकता जैसे शब्द का प्रयोग किया है। औद्योगिक या आधुनिक समाज के मूल्य एवं मानदंड संबंधीविशेषताओं की चर्चा परिवर्तनीय प्रतिमान (B) के अंतर्गत की गई है जिसे टॉनीज ने समाज, दुर्खीम ने सावयवी एवं मकाईवर ने समिति कहकर पुकारा है। नीचे की सारणी ये सभी तथ्यों को स्पष्ट करता हैः-
पारसंस का वर्गीकरण
परिवर्तनीय प्रतिमान "A" परम्परागत समाज |
परिवर्तनीय प्रतिमान "B" आधुनिक समाज |
---|---|
1.आरोपित (Ascription) | 1.अर्जित (Achievement) |
2.विस्तार (Diffuseness) | 2.विशिष्टता (Specificity) |
3.व्यक्तिवादिता या पक्षपातपूर्णता(Particularism) | 3.सार्वभौमिकता (Universalism) |
4. भावात्मकता (Affectivity) | 4.भावात्मक निष्पक्षता (Affectiveventrality) |
5. समूह केन्द्रित (collective Orientation) | 5.आत्म-केन्द्रित (Self Orientation) |
टॉनिज का वर्गीकरण
1. समुदाय (Gemeinschaft) Communiety)
2.समाज (Gelleschaft Society)
दुर्खीम का वर्गीकरण
1. यांत्रिक एकता (Mechanical Solidarity)
2. सावयवी एकता (Organic Solidarity)
मकाईवर का वर्गीकरण
1.समुदाय (Community)
2.समिति (Association)
Question : स्वयं में वर्ग और स्वयं के लिए वर्ग।
(2003)
Answer : मार्क्स द्वारा प्रतिस्थापित ये दो अवधारणा मुख्यतः वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत की परिस्थितियों को उजागर करने के लिए किया है। मार्क्स ने प्रथम स्थिति में माना है कि व्यक्ति सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही सीमित रहते हैं परंतु जब ये आवश्यकताएं पूरे वर्ग में एक जैसी हो जाती है तो उन लोगों के बीच वर्ग-चेतना का उदय होता है और यही वर्ग चेतना वर्ग-संघर्ष की स्थिति को जन्म देती है। स्वयं में वर्ग के अंतर्गत मार्क्स वर्ग-संघर्ष की स्थिति के पहले के क्रिया-कलापों का वर्णन करता है। इसके अंतर्गत श्रमिक वर्ग में वर्ग चेतना का अभाव पाया जाता है। इसका कारण होता है उच्च वर्ग के द्वारा फैलाये गये 'False consciousness' की अवधारणा। अतः ये श्रमिक लोग इस अवस्था में समाज द्वारा प्रदत्त समस्याओं के प्रति उदारशील होते हैं एवं ग्रहण करते हैं। दूसरी ओर, उच्चवर्ग के लोग श्रमिकों का विभिन्न रूपों में शोषण करते हैं। परंतु यही शोषण जब व्यक्ति के असहनीय हो जाता है तो ये इसके समाधान के लिए क्रियाशील होता है एवं व्यक्तियों से अंतःक्रिया करता है। इस अंतःक्रिया के फलस्वरूप यह पता चलता है। कि यह समस्या किसी एक व्यक्ति की न होकर पूरे श्रमिक वर्ग के लिए है। इस स्थिति में श्रमिक लोगों के बीच वर्ग के चेतना का संचार होता है एवं ये समस्या किसी एक व्यक्ति का न होकर पूरे वर्ग का बन जाता है, इसी को मार्क्स ने स्वयं के लिए वर्ग की अवधारणा दी है। इसी के फलस्वरूप इस वर्ग के लोगों द्वारा संघर्ष किया जाता है और । अपनी मांगों की पूर्ति के लिए क्रियाशील होते हैं। यह स्थिति मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में आता है जब वर्गों के बीच वर्ग-संघर्ष चरम सीमा पर होती है।
Question : असंबंधिता की संकल्पना का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। उपयुक्त उदाहरण देते हुए, असंबंधिता की प्रकृति और सामाजिक विचलनों के प्रकारों के बीच सैद्धांतिक संबंध का जैसा कि आर. के. मर्टन ने प्रतिपादित किया है, सविस्तार विवेचन कीजिए।
(2003)
Answer : एनोमी या नियमहीनता या असंबंधिता को सामाजिक सरंचना द्वारा जनित एवं सामाजिक संरचना में निहित तथ्य माना गया है नियमहीनता की स्थिति में व्यक्ति सामाजिक नियमों की परवाह किये बिना मनमाना आचरण करने लगता है इससे समाज में विचलित व्यवहार उत्पन्न होता है।
एनोमी को परिभाषित करते हुए दुर्खीम लिखते हैं, ‘नियम हीनता वह सामाजिक दशा है जिसमें आदर्श प्रतिमानों का अभाव या आदर्शात्मक संरचना की अव्यवस्था पायी जाती है अर्थात् यह उत्कट अभिलाषा, लालच और असीमित आकांक्षाओं को नियंत्रित करने में सामूहिक नैतिक व्यवस्था की असफलता है।’ दुर्खीम की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि नियमहीनता समाज की वह स्थिति है जिसमें आदर्श प्रतिमानों का अभाव पाया जाता है, यह नैतिक शून्यता की स्थिति है, इस स्थिति ने समाज में कोई भी नियमों का पालन नहीं करता है। यह अव्यवस्था एवं असांमजस्य की स्थिति है। जब व्यक्ति समाज के आदर्श प्रतिमानों का पालन करता है। तब भी उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती है तो वह विद्रोही हो जाता है और समाज के नियमों की अवहेलना कर मनमाने ढंग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयत्न करता है। दुर्खीम के अनुसार यह नियमहीनता कहलाती है।
मर्टन ने नियमहीनता की परिभाषा इन शब्दों में की है- ‘नियमहीनता सांस्कृतिक साक्ष्यों एवं संस्थागत साधनों के बीच सांमजस्य का अभाव है।’ मर्टन का मत है कि प्रत्येक समाज अपने सदस्यों के लिए सांस्कृतिक लक्ष्य तय करता है़_ साथ ही इन्हें प्राप्त करने के संस्थागत साधन भी बताता है। जब सांस्कृतिक लक्ष्यों की संस्थागत साधनों के कारण प्राप्त किया जाता है तो यह स्थिति अनुरूपता की है, किंतु जब इन दोनों में ताल-मेल टूट जाता है अर्थात् लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति ऐसे साधन अपनाता है जो समाज स्वीकृत नहीं है तो यह स्थिति नियमहीनता कहलाती है।
पारसंस के अनुसार, ‘नियमहीनता आदर्शात्मक-व्यवस्था का पूरी तरह से टूट जाना है।’
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि नियमहीनता समाज की वह स्थिति है जिसमें समाज में अराजकता पैदा हो जाती है, समाज व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है, सांस्कृतिक असांमजस्यपैदा हो जाता है, अपराधों एवं आत्महत्या की दर बढ़ जाती है, कानून विहीनता पैदा हो जाती है, मादक द्रव्य सेवन बढ़ जाता है, विचलित व्यवहार एवं प्रति संस्कृति जीवन शैली बढ़ जाती है, नए धार्मिक परीक्षण होने लगते हैं, क्रांति के तूफान आते हैं, समाज विरोधी व्यवहार पनपते हैं तथा समाज में एकीकरण का अभाव पाया जाता है।
नियमहीनता की विशेषताएं
आलोचनात्मक मूल्यांकन
यद्यपि एनोमी की यह अवधारणा निश्चित रूप से आधुनिक जीवन के बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में सही प्रतीत होता, परंतु यह कहना अनुचित होगा आज समाज में कोई सामाजिक क्रम नहीं रह गया है। एनोमी की अवधारणा की आलोचनात्मक मूल्यांकन हम निम्नांकित रूप में कर सकते हैं-
नियमहीनता से संबंधित आर.के. मर्टन का विचार
नियमहीनता के संबंध में अपने विचार मर्टन ने अपने एक प्रसिद्ध लेख Social Structure and Anomie में व्यक्त किये हैं। दुर्खीम की नियमहीनता की अवधारणा को मर्टन ने और अधिक विस्तृत किया। मर्टन ने सांस्कृतिक संरचना के टूट जाने को अर्थात् उस स्थिति को जिसमें सांस्कृतिक लक्ष्यों और उन्हें प्राप्त करने के संस्थागत साधनों में सांमजस्य टूट जाए और संघर्ष उत्पन्न हो जाए तो उसे नियमहीनता की स्थिति कहा है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का व्यवहार विसंगतिपूर्ण हो जाता है।
मर्टन ने दो प्रकार की नियमहीनता का उल्लेख किया हैः
(i)साधारण नियमहीनता: इसमें समाज में अनिश्चिता की स्थिति पायी जाती है जिसमें मूल्यों का संघर्ष तो पाया जाता है, किंतु समाज की आदर्शात्मक व्यवस्था तथा मूल्य व्यवस्था पूरी तरह से छिन्न-भिन्न नहीं होती है।
(ii)तीव्र नियमहीनता: इस स्थिति में समाज की आदर्शात्मक एवं मूल्य व्यवस्था टूटने के कगार पर होती है, व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति नियमों की अवहेलना करके मनमाने ढंग से करने का प्रयत्न करते हैं।
मर्टन ने सांस्कृतिक लक्ष्य और संस्थागत नियमों के संदर्भ में व्यक्तिगत अनुकूलन को इस प्रकार व्यक्त किया है-
अनुकूलन का प्रकार | सांस्कृतिक लक्ष्य | संस्थागत नियम |
---|---|---|
1.अनुरूपता | + | + |
2.नवाचार | + | - |
3.कर्मकाण्डीयता | - | + |
4.प्रत्यावर्तन | - | - |
5.विद्रोह | + | + |
अनुकूलन के उपर्युक्त पांच प्रकारों में केवल प्रथम में ही लक्ष्यों एवं संस्थागत नियमों में सामंजस्य पाया जाता है, शेष चारों में नहीं। उपर्युक्त तालिका में + का संकेत स्वीकार करने, - का संकेत अस्वीकार करने तथा + का संकेत पुराने को अस्वीकार कर नवीन को स्थापित करने के संदर्भ में किया गया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मर्टन ने एनोमी के लिए सामाजिक संरचना को ही उत्तरदायी ठहरा कर इस ओर सोचने का नया मार्ग प्रशस्त किया है।
Question : दुर्खीम द्वारा ग्रहण किए गए सामाजिक तथ्यों की प्रकृति का परीक्षण कीजिए।
(2002)
Answer : दुर्खीम के प्रमुख अवधारणात्मक सिद्धान्तों में सामाजिक तथ्य का स्थान सर्वोपरि है। दुर्खीम ने समाजशास्त्र की अध्ययन सामग्री/विषय-वस्तु को ‘सामाजिक तथ्य’ के रूप में स्वीकार किया है। इसने सामाजिक अध्ययन में समाज के विभिन्न पहलुओं को विशेष महत्व दिया है जिसमें व्यक्तिगत भावनाओं को पूर्णतः अस्वीकार किया किया गया है। इससे दुर्खीम का प्रमुख तथ्य 'Senigeris' की व्याख्या से पता चलता है। दुर्खीम के अनुसार सामाजिक तथ्य, वास्तव में समाजशास्त्र की विषय वस्तु है। परंतु सामाजिक तथ्य समाजशास्त्र में पद्धतिशास्त्र की भांति प्रयोग होता है। उसने समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए ‘सामाजिक तथ्य’ को सामूहिकता के रूप में देखा है जो सारे समाज का प्रतिनिधित्व करता है। दुर्खीम के अनुसार ‘सामाजिक तथ्य, काम करने एवं सोचने की एक पद्धति है जो सामाजिक चेतना से संबंधित है।’ यह अवधारणा वस्तुतः दुर्खीम की पुस्तक ‘द रूल्स ऑफ सोशियोलॉजिकल मैथड’ में उभर कर सामने आयी है। सामाजिक तथ्य के माध्यम से दुर्खीम समाज का वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन करना चाहते थे। अतः इन्होंने व्यक्तिनिष्ठता को अस्वीकार करते हुए ‘प्रत्यक्षवादी’ अवधारणा को स्वीकारा है। दुर्खीम के अनुसार, सामाजिक तथ्य की तीन विशेषताएं होती हैं- बाध्यता, वाह्यता एवं सामान्यता।
1. बाध्यताः दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य की इस विशेषता के अंतर्गत यह बताने की कोशिश की है कि समाज में उपस्थित सभी नियमों के तहत व्यक्ति समाज के नियमों का पालन करने को बाध्य है। व्यक्ति का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है।
2. वाह्यता: इसके अंतर्गत व्यक्ति को वाह्य रूप से किसी समस्या का अध्ययन करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, सामाजिक तथ्य व्यक्ति की सत्ता से सर्वथा बाहर है एवं पृथक अस्तित्व है।
3. सामान्यता: सामान्यता के अंतर्गत ऐसी बातें आती हैं कि व्यक्ति का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है। यह समाज की सामान्य प्रकृति के अनुसार नियंत्रित होता है। अतः सामाजिक तथ्य को हमेशा सामान्यता को प्रोत्साहित करना चाहिए, जो समाज के सभी पहलुओं एवं वर्गों के लिए मान्य हो।
दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों का क्रियान्वयन के लिए तीन पद्धतियों का सहारा लिया है जो इस प्रकार हैं- (1) अवलोकन का नियम, (2) वर्गीकरण एवं तुलना का नियम, (3) व्याख्या का नियम।
1. अवलोकन का नियम: इस नियम के अंतर्गत दुर्खीम ने समाज का अध्ययन करने के लिए समाज को एक वस्तु के रूप में माना है, जो पूर्वापेक्षाओं से स्वतंत्र है।
2. वर्गीकरण एवं तुलना के नियम: इस नियम के अंतर्गत सामाजिक तथ्यों का वर्गीकरण दो भागों में किया गया है- सामान्य तथ्य एवं व्याधकीय तथ्य। सामान्य तथ्य के अंतर्गत वे सारे क्रियाकलाप आते हैं जो्र समाज के लिए स्वीकार योग्य हो, परंतु व्याधकीय तथ्य के अंतर्गत वे तथ्य आते हैं जो समाज के लिए स्वीकार योग्य नहीं हैं। दुर्खीम कहता है कि कोई भी समाज अपराध से पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो सकता है, परंतु जब यदि अपराध की बारंबारता बढ़ जाती है तो यह व्याधकीय हो जाता है, अतः दुर्खीम ने दोनों के बारे में स्पष्ट व्याख्या करते हुई इसकी तुलनात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत की है।
3.व्याख्या के नियम: सामाजिक तथ्य को दुर्खीम ने इसकी व्याख्या के आधार पर भी समझाने की कोशिश की है। इनके अनुसार, सामाजिक तथ्य की व्याख्या दो आधारों पर की जा सकती है- कारण सहित एवं प्रकार्य सहित। समाज में उपस्थित किसी भी घटना एवं समस्या को कारण के प्रकाश में समझा जा सकता है। दूसरी ओर, समाज की समस्याओं को उसके अंदर घटित घटनाओं के आधार पर समझा जा सकता है, जिसे दुर्खीम ने प्रकार्य सहित व्याख्या कहा है।
उपरोक्त सारे वर्णनों से यह एक बात उभरकर आती है कि दुर्खीम की पद्धति ‘सामाजिक तथ्य’ के रूप में स्वीकार योग्य है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इसने सामाजिक तथ्य को समाज में उपस्थित सभी प्रमुख समस्याओं पर लागू करने की कोशिश की है। इसके लिए दुर्खीम ने ‘आत्महत्या’ की अवधारणा को भी स्पष्ट किया है। दुर्खीम के अनुसार, आत्महत्या एक सामाजिक तथ्य है जिसका परीक्षण उन्हें तीन प्रकार की आत्महत्या की व्याख्या आधार पर पुष्टि करने की कोशिश की है। दुर्खीम ने आत्महत्या का कारण सामाजिक माना न कि मनोवैज्ञानिक। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि ‘आत्महत्या’ की प्रवृति किसी सामाजिक घटना के कारण होती है और इसी कारण से व्यक्तियों की मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है एवं अंततोगत्वा उसे आत्महत्या करनी पड़ती है।
उपरोक्त सारी बातों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, परंतु बहुत से समाजशास्त्रियों ने इसकी आलोचना की है। दूसरी पंरपरा की शुरुआत मेक्सवेबर ने की है जिसे ‘Interpreter School of Thought’ कहते हैं। वेबर ने सामाजिक घटनाओं की अध्ययन पद्धति की वस्तुनिष्ठता पर प्रश्न उठाया है। उनके अनुसार समाज में उपस्थित व्यक्तियों की अवहेलना नहीं की जा सकती है क्योंकि इन्ही से समाज निर्मित होता है। अतः समाज का अध्ययन पूर्णतया मूल्यरहित होकर अध्ययन करना काफी मुश्किल है पंरतु इसका अध्ययन निरपेक्ष होकर किया जा सकता है। तत्पश्चात ‘फेनोमेनोलॉजी’ के सुविख्यात समाजशास्त्री शुट्ज एवं ‘इथनोमेथोडॉलॉजी’ के संपादक गारफिंकल महोदय ने भी इसकी आलोचना की है। इन लोगों ने वस्तुतः कर्त्ता की क्रिया को किसी भी परिस्थिति के लिए महत्वपूर्ण माना है। इसके अतिरिक्त अंतः क्रियावादी समाजशास्त्रियों ने इसको इसलिए अस्वीकार किया है कि सामाजिक तथ्य सामाजिक अन्तः क्रिया पर कोई बल नहीं देता है।
इन आलोचनाओं के बावजूद भी दुर्खीम का यह पद्धति शास्त्र समाजशास्त्रियों के बीच मान्य है। आज के इस वर्तमान आधुनिक युग में भी दुर्खीम के सामाजिक तथ्य की पद्धति को स्वीकार किया जाता है। इसी सामाजिक तथ्य के आधार पर सामाजिक अनुसंधान की तकनीक पर प्रकाश डाला गया है, जिसके द्वारा फील्ड कार्य और सर्वे जैसे सामाजिक अनुसंधान पर प्रमुख रूप से लागू होता है। इसके अलावा डाटा का वर्गीकरण एवं अवलोकन में भी काफी सहयोग प्राप्त होता है। अतः दुर्खीम की यह अवधारणा समाजशास्त्र के क्षेत्र में पद्धति, सिद्धान्त एवं उपागम के रूप में काफी महत्वपूर्ण है साथ ही समाज वैज्ञानिकों के लिए एक औजार हैं।
Question : वेबर की प्रोटेस्टेंट आचार-संहिता और पूंजीवादी भावना के सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2002)
Answer : मैक्स वेबर प्रकृति से व्यक्तिनिष्ठ अध्ययन पर जोर देते हैं परंतु इन्होंने अपनी रचनाओं एवं कार्यों में तार्किकता का काफी परिचय दिया है। मैक्स वेबर का यह सिद्धान्त उसकी प्रमुख रचना ‘The Protestant Ethic and the spirit of capitalism’वर्णित है। इस सिद्धान्त के आधार पर मैक्स वेबर ने धार्मिक जीवन और आर्थिक घटनाओं के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की है। उसके अनुसार धार्मिक परिस्थितियां एवं आर्थिक परिस्थितियां अन्तःसम्बन्धित हैं। तुलनात्मक दृष्टि से समाज को परिवर्तित करने वाले कारकों के रूप में धार्मिक कारकों का महत्व सबसे अधिक है। उसने मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इतिहास की आर्थिक व्याख्या को स्पष्ट रूप से नकारा है। उसके अनुसार ऐतिहासिक परिस्थितियों को प्रभावित करने में आर्थिक कारकों की अपेक्षा धार्मिक कारक महत्वूपर्ण होते हैं।
धर्म के समाजशास्त्र के अध्ययन का मैक्स वेबर का मुख्य उद्देश्य धर्म और आर्थिक पहलुओं के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक संबंधों का ज्ञान प्राप्त करना था। वेबर ने मनुष्य की आर्थिक नीतिशास्त्र को महत्वपूर्ण माना है। मैक्स वेबर ने संसार के मुख्य छः धर्मों का अध्ययन कर इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। ये धर्म हैं- कन्फ्रयूशियसवाद, हिंदूवाद, बुद्धवाद, ईसाई धर्म, मुस्लिम धर्म एवं यहूदी धर्म। परंतु इन्होंने इस सिद्धांत के प्रतिपादन की व्याख्या के लिए मुख्यतः कैथोलिक एवं प्रोटेंटेंट के ऊपर ज्यादा जोर डाला है। वेबर ने आर्थिक परिवर्तन के लिए धर्म को प्रमुख तत्व के रूप में स्वीकार किया हैं।
वेबर के अनुसार, कैथोलिक धर्म काफी परंपरायुक्त धर्म होने के नाते यह भाग्य एवं भगवान की अवधारणा पर जोर देता है और इस धर्म के लोग सब कर्मवाद फल के रूप में स्वीकार करते हैं। दूसरे शब्दों में, इस धर्म के लोग यह सोचते हैं कि अभी जो भी वर्तमान में घटित हो रहा है यह सब पूर्वजन्म का फल है। अतः हम लोगों को भगवान के प्रति कार्यशील रहना चाहिए। दूसरी ओर, प्रोटेस्टेंट धर्म की कुछ ऐसी विशेषताएं थीं जिसके कारण पूंजीवादी व्यवस्था को बल मिला, परंतु कैथोलिक के कारण ऐसा नहीं हुआ। वेबर ने इसके लिए प्रोस्टेंट धर्म की कुछ आचार संहिताओं पर ध्यान केन्द्रित किया है जो पूंजीवादी व्यवस्था लाने में काफी भूमिका निभाती है। ये इस प्रकार हैं:
(i) कार्य ही मूल्य हैः प्रोटेस्टेन्ट धर्म का पहला आधार यह है कि व्यक्ति को परिश्रम करना चाहिए। प्रोटेस्टेन्ट धर्म के पहले यूरोप में रोमन कैथोलिक धर्म था। कैथोलिक धर्म में परिश्रम को पाप समझा जाता है। इसका परिणाम यह हुआ कि इस धर्म के व्यक्ति आलसी और भाग्यवादी हो जाते हैं। इसके विपरीत प्रोटेस्टेन्ट धर्म में परिश्रम को पुण्य समझा जाता है। प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुसार व्यक्ति को ईश्वरीय राज्य की स्थापना के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए।
(ii) व्यवसाय का विचार: प्रोटेस्टेन्ट की जो दूसरी महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि इसने व्यक्तियों के मस्तिष्क में व्यवसाय की अवधारणा को विकसित किया। इसने भाग्य की अपेक्षा कर्म को अत्यधिक महत्व प्रदान किया। समाज में इस प्रकार के विश्वास का प्रचलन हुआ कि जिस व्यक्ति को व्यापार में सफलता प्राप्त होगी, उसे अपने आप स्वर्ग प्राप्त हो जायेगा। इसके विपरीत, जो व्यक्ति व्यावसायिक दृष्टिकोण से असफल होंगे, उन्हें नरक की प्राप्ति होगी।
(iii) ब्याज वसूल करने में धर्म की आज्ञाः कैथोलिक धर्म में व्याज लेना पाप समझा जाता था। इस्लाम धर्म को मानने वाले व्यक्ति आज भी व्याज को पाप की दृष्टि से देखता है, किन्तु प्रोटेस्टेंट धर्म में व्याज लेने की स्वतंत्रता प्रदान की गई। व्याज लेने से पूंजी जमा होती है और इसके परिणामस्वरूप पूंजीवाद का विकास होता है। इन सारी विशेषताओं के अतिरिक्त वेबर ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म की कुछ और विशेषताओं को बताया, जो निम्नलिखित हैं:
(i)समय ही धन है।
(ii)धन कमाना धन बचाने के बराबर है।
(iii)ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है।
मैक्स वेबर ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म की विशेषताओं के अतिरिक्त आधुनिक पूंजीवाद की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है। ये निम्नलिखित हैं-
अतः उपरोक्त विवरण से पता चलता है कि पूंजीवाद की उत्पत्ति धार्मिक परिस्थितियों के कारण होती है। इसका प्रमाण वेबर ने भारतीय हिन्दू धर्म के बारे में उदाहरण देकर कहा कि हिन्दू धर्म भारतवर्ष में पूंजीवाद के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि हिन्दू धन की अपेक्षा मोक्ष को अधिक महत्व प्रदान करते हैं। परंतु इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि वेबर का सिद्धान्त आलोचनाओं से परे है। वेबर के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या निम्नांकित बिन्दुओं में की जा सकती है।
(i)वेबर ने माना कि पूंजीवाद की उत्पत्ति एवं विकास का कारण धार्मिक है, परंतु इन्होंने और कारकों को अनदेखा कर दिया है। जहां तक पूंजीवाद की बात है इसमें आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक कारकों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
(ii)दूसरी बात वेबर ने आधुनिक पूंजीवाद की है परंतु अन्य प्रकार के पूंजीवाद की आयामों को स्पष्ट नहीं किया है एवं साथ ही औद्योगिक व्यवस्था की प्रमुखता को नकारा है।
(iii)वेबर ने अपनी सभी अवधारणाओं एवं सिद्धान्तों में तार्किकता को काफी बढ़ा चढ़ाकर की चर्चा की है। परंतु धर्म के समाजशास्त्र के लिए वह तार्किकता के आधार पर व्याख्या करने में असफल रहे हैं।
(iv)वेबर ने ‘ईमानदारी एक सर्वोत्तम नीति’ कहकर प्रोटेस्टेन्ट की व्याख्या की है, परंतुइसे स्पष्ट करने में असफल रहे हैं।
(v)वेबर के अनुसार, पूंजीवाद, तार्किकता पर आधारित है परंतु वहीं मार्क्स ने इसकी अतार्किक आधार पर व्याख्या की है।
अतः उपरोक्त तथ्यों एवं आलोचनाओं से स्पष्ट होता है कि इस तकनीकी युग में वेबर के धर्म के समाजशास्त्र को पूरी तरह सफल नहीं माना जा सकता है। पीटर एवं बर्गर ने भी ‘धर्म के समाजशास्त्र’ की व्याख्या फेनोमेनोलॉजिकल एवं इथनोमेथोडॉलेजिकल दृष्टिकोण से करने की कोशिश की है। अतः धर्म का समाजशास्त्र एक बहुत ही वृहत्त विषय है, जिसे एक आधार पर व्याख्या करना बहुत ही मुश्किल होगा। जैसे - दुर्खीम ने धर्म की व्याख्या विश्वास एवं मूल्य के सापेक्ष में की है। इसके बावजूद, वेबर का धर्म समाजशास्त्र काफी महत्वपूर्ण है, जिसका स्थान सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में काफी है।
Question : पवित्र तथा अपवित्र।
(2002)
Answer : पवित्र एवं अपवित्र की अवधारणा दुर्खीम के धर्म का समाजशास्त्र का एक मुख्य हिस्सा है। दुर्खीम ने आस्ट्रेलिया की अरूंटा जनजाति का अध्ययन कर ‘द एलिमेंटरी फार्म्स ऑफ रिलिजियस लाइफ’ पुस्तक लिखी। जिसमें दुर्खीम ने यह दिखाने की कोशिश की धर्म वह है, जो पवित्र वस्तुओं से संबेधित हो। पवित्रता को उसने एक सामूहिक क्रिया माना, जो सभी समाज के व्यक्तियों द्वारा मान्य है, परंतु अपवित्र एक व्यक्तिगत क्रिया है जिसे समाज की मान्यता प्राप्त नहीं है।
पवित्र के अंतर्गत हम विश्वास एवं कर्मकांड को मानते आये हैं। जैसे-मन्दिर में चप्पल-जूता उतारकर प्रवेश करना, ये वास्तव में अपवित्रता के परिचायक हैं। इसका कारण यह है कि अपवित्र दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में आनेवाली घटना होता है। परंतु पवित्रता की अवधारणा विभिन्न समाजों एवं विभिन्न धर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। दुर्खीम के अनुसार, जनजाति समाजों में टोटम को धर्म का प्रारंभिक स्वरूप माना जाता है, क्योंकि ये सामूहिकता के परिचायक हैं एवं इस टोटम के प्रति समाज के लोगों में एक श्रद्धा का भाव होता है। ये अपने टोटम, वास्तव में, किसी वस्तु, वृक्ष, पक्षी या जानवर का एक प्रतीकहोता है। विभिन्न जनजाति समाजों में भिन्न-भिन्न प्रकार के टोटम होते हैं। ये टोटम प्रत्येक वंश के भी अलग-अलग होते हैं, जो अपने कुल देवता मानते हैं।
अतः दुर्खीम की अवधारणा का मूल्यांकन हम आज भी आधुनिक समाज में करते हैं, सिर्फ इसका स्वरूप एवं क्रियाकलाप बदल गया है। अगर हम विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो हमारा राष्ट्रीय ध्वज निश्चित रूप से पवित्रता का द्योतक है, जिससे भारत के सभी लोगों में श्रद्धा का संचार होता है। भारत के जनजाति समाजों में भी टोटम का स्वरूप आज भी देखने को मिलता है, जिसे वे लोग धर्म से काफी नजदीक मानते हैं।
Question : व्यक्तित्व के विकास के लिए समाजीकरण की प्रक्रिया किस प्रकार उपयोगी है? उपयुक्त उदाहरणें सहित समझाइए।
(2002)
Answer : समाजीकरण की प्रक्रिया किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में उतना ही उपयोगी है, जितना कि एक स्कूल अध्यापक की भूमिका छात्रों की शिक्षा के क्षेत्र में होती है। यह इस तथ्य से पता चलता है कि बच्चा एक जैविकीय अवयव के रूप में पैदा होता है एवं किस प्रकार विभिन्न प्रकार की एजेंसियों के द्वारा प्रशिक्षित होकर एक जिम्मेदार व्यक्ति बनता है। अतः समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति/बच्चा समाज के मूल्यों और प्रतिमानों को आत्मसात करता है और उसमें रहना सीखता है। समाज वैज्ञानिकों ने बालक की सीखने और आत्मसात करने की क्षमता और मानव प्रकृति के लचीलेपन का उल्लेख किया है। अतः समाजीकरण के अंतर्गत एक बच्चे की जन्मजात मनोवृतियों का निर्धारण आदर्शों, मूल्यों, प्रवृतियों, विश्वासों और व्यवहार पद्धतियों के शिक्षण द्वारा होता है।
जहां तक व्यक्तित्व के विकास की बात है, तो इसमें विभिन्न समाजीकरण अभिकरणों या संस्थाओं का योगदान रहता है। इनमें प्रमुख हैं-परिवार, स्कूल, समवयस्क साथी, पड़ोसी, व्यावसायिक साथी और सामाजिक वर्ग। सामाजिक ढांचे में परिवार की स्थिति का निर्धारण समाज, वर्ग, जाति, धर्म, ग्रामीण नगरीय आधार पर होता है। अतः परिवार का स्वरूप जैसा होगा, समाजीकरण की प्रक्रिया भी वैसी होगा एवं उसी आधार पर व्यक्ति का व्यक्तित्व का विकास हो पायेगा। व्यक्तित्व विकास के इन सारे अभिकरणों के अलावे संगीत, रस्म-रिवाज, भाषा, कला और साहित्य का भी योगदान प्रमुख रूप से रहता है।
व्यक्तित्व के विकास में मुख्य तौर पर परिवार की भूमिका अग्रगण्य मानी जाती है। उदाहरणतः यदि कोई बच्चा धार्मिक परिवार में जन्म लेता है तो उसका व्यक्तित्व भी उसी प्रकार विकसित होगा, परंतु एक आधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण परिवार में बच्चों का व्यक्तित्व काफी भिन्न होगा। इसके अतिरिक्त बच्चा परिवार में ही अपने माता-पिता एवं अन्य से व्यवहार, मूल्य एवं प्रतिमानों की शिक्षा पाता है। अतः कहा गया है कि परिवार ही व्यक्ति की प्रथम पाठशाला होता है। परंतु अगर एक विखंडित समाज होगा तो निश्चित रूप से उसका व्यवहार एवं व्यक्तित्व काफी रूखड़ा एवं संकोचशील प्रवृति का होगा, वहीं अगर एक संगठित एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में जन्म लेता है तो व्यक्ति निश्चित रूप से संस्कारयुक्त होगा।
व्यक्तित्व के विकास की दूसरी एजेंसी स्कूल एवं समवयस्क साथी होती हैं। स्कूल का व्यक्तित्व का विकास में योगदान विभिन्न स्तरों पर पड़ता है। यह स्पष्ट है कि जैसी स्कूल की प्रकृति होगी उसकी प्रकार एक व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करेगा। उदाहरण के तौर पर, एक बच्चे के शिक्षा आधुनिक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में होती है और दूसरे की एक गांव के स्कूल में होती है। दोनों के व्यक्तित्व में क्या अन्तर होगा? निश्चित तौर पर अंग्रेजी माध्यम स्कूल के छात्र काफी मिलनसार एवं बाहरी दुनिया से सामंजस्य स्थापित करने वाला होगा, जबकि गांव के स्कूल के छात्र निश्चित तौर काफी संकोचशील एवं अपने में सीमित रहने का स्वभाव का होगा। इस उदाहरण से बच्चे की मेधावी प्रकृति से कोई लेना देना नहीं है। दूसरी ओर, समवयस्क साथी जो किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में काफी सहायक होते हैं।
इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में उसके पड़ोसी, व्यावसायिक वर्ग एवं सामाजिक वर्ग सहायक होते हैं। ये सभी वर्ग वास्तव में किसी व्यक्ति के व्यवहार, आचरण, मूल्य एवं प्रतिमानों पर नियंत्रण रखकर उसको सही कार्य करने की प्रेरणा को संचार करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति कोई भी कार्य करने से पहले यह सोचता है कि उसका सामाजिक परिस्थिति एवं मूल्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
व्यक्ति के विकास से संबंधित तथ्यों पर कुछ समाजशास्त्रियों ने कुछ सैद्धान्तिक तर्क प्रस्तुत किये हैं जिनकी चर्चा यहां आवश्यक है। इसमें सी.एच. कुले एवं जी.एच. मीड प्रमुख हैं। सी.एच. कुले ने व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए मुख्यतः दो प्रमुख चरणों की चर्चा की है इसमें Play Stage, oa Game Stage प्रमुख हैं। कुले के अनुसार, Play Stage, oa Game Stage में व्यक्ति के व्यक्तित्व की प्रक्रिया काफी तीव्र एवं सामाजिक धरातल पर स्पष्ट रूप से देखने में आती है। Play Stage में वास्तव में व्यक्ति काफी अंतर्मुखी होता है। परंतु Game Stage में बच्चे को समाज के साथ सामाजिक अंतःक्रिया करनी पड़ती है। दूसरी ओर, जी.एच. मीड ने बालक का व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में ‘मैं’ और ‘मुझे’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। ये सारी बातें ‘स्व’ की उत्पत्ति के ओत-प्रोत घूमती रहती हैं। मीड के अनुसार, ‘मैं’ असमाजीकृत शिशु को इंगित करता है जो स्वतः स्फूर्त जरूरतों और इच्छाओं का एक पुंज होता है। इस प्रकार, ‘मैं’ व्यक्ति के जैविकीय पक्ष को अभिव्यक्त करता है। इसके विपरीत ‘मुझे’ सामाजिक स्वचेतन व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी उत्पत्ति के द्वारा स्वयं को देखने की जानकारी से होती है, अर्थात् दूसरे व्यक्ति उसे किन निगाहों से देखते हैं_ उसी रूप में यह स्वयं को देखने लगता है। मीक ने ‘मुझे’ की अवधारणा का प्रयोग ‘सामाजिक स्व’ के लिए किया है।
अतः इस प्रकार से सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों रूपों से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व का विकास स्वयं में नहीं, अपितु सम्पूर्ण सामाजिक प्रक्रिया एवं अंतःक्रिया के फलस्वरूप ही हो सकता है। फिर भी यह तथ्य सही है कि समाजीकरण की प्रक्रिया किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में चलती रहती है। इसका सर्वप्रमुख कारण यह है कि यह सम्पूर्ण विश्व एवं समाज हमेशा परिस्थितियों के आधार पर परिवर्तित होते रहते हैं जिससे व्यक्ति को इस परिवर्तित अवस्थाओं के साथ भी सीखते रहना पड़ता है।
Question : शक्ति की समाज स्वीकृति के स्रोत।
(2001)
Answer : मैक्स वेबर के अनुसार शक्ति के समाज स्वीकृति के मुख्यतः तीन स्रोत हैं। ये हैं पारंपरिक, चमत्कारिक और विधिपूर्ण तर्कसंगत। पारंपरिक प्राधिकार की स्वीकृति रिवाज और प्रथा के आधार पर मिलती है। यह प्राधिकार आरंभ से ही था और अभी तक किसी ने इसे चुनौती नहीं दी है। बच्चों के ऊपर माता-पिता का प्राधिकार और प्रजा के ऊपर राजा का प्राधिकार ऐसे ही दावों पर टिका रहा है।
चमत्कारिक प्राधिकार कुछ नेताओं की अपने अनुयायियों को आकर्षित करने वाली चमत्कारित एक असाधारण शक्ति से लिया गया है। इस अनुयायियों के अनुसार उनके नेताओं के पास ऐसी शक्ति होती है जिसके द्वारा वह उन्हें विकट स्थिति से उभार लेता है और वे जो चाहते हैं वह उन्हें देने की स्थिति में होता है वे उसे अपना रक्षक मानते हैं। किसी भी नेता को समर्पित यह असाधारण शक्ति या जिसका वह दावा करता है वास्तविक या काल्पतिक हो सकती है लेकिन उसके अनुयायियों के लिए यह वास्तविक होती है। उसके अनुयायी कोई प्रश्न किये उसके प्राधिकार को मानते हैं। महात्मा गांधी और नेपोलियन ऐसे ही शक्ति वाले राजनीतिक नेता थे।
विधिपूर्ण-तर्कसंगत प्राधिकार कानून पर आधारित होता है। जो व्यक्ति इस प्राधिकार का इस्तेमाल करता है उसकी नियुक्ति संबंधित पद पर नियमों के अनुसार की जाती है और उससे उसे उस पद से संबंधित सभी प्रकार की शक्तियां मिल जाती हैं। किसी भी देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जो सुस्थापित संवैधानिक तरीकों से सत्ता प्राप्त करता है, उस देश का वैद्य शासक होता है और वहां की प्रजा उसे वैद्यशासन मानती है। चूंकि नियम विनियम औचित्य पर आधारित होते हैं, इसलिए वे तर्कसंगत होते हैं। वास्तव में कानून तर्कसंगत का प्रतिरूप माना गया है।
आधुनिक राजनीतिक प्रणालियां विधिपूर्ण तर्कसंगत प्राधिकार के आधार पर कार्य करती है। इस प्रणाली के अंतर्गत सभी अंग स्पष्ट रूप से स्थापित नियमों के आधार पर कार्य करते हैं और पदाधिकारियों को उन सभी कार्यों का निष्पादन करना होता है जो उन्हें सौंपे जाते हैं। इस कार्रवाई से प्रभावित लोगों को कानूनी तौर पर उनकी आज्ञा माननी होती है। यदि किसी को कोई शिकायत होती है कि अमूक अधिकारी ने निरंकुश तौर पर या अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य किया है तो उसके लिए कानूनी और संवैधानिक उपाय है, अर्थात् वह किसी न्यायालय में जा सकता है। लेकिन यदि न्यायालय यह निर्णय दे कि संबंधित अधिकारी सही है तो उसे वह निर्णय मानना पड़ता है।
Question : कार्ल मार्क्स की वर्ग-वैमनस्यता की धारणा को समझाइए। उनके विचारों के प्रति प्रकार्यवादियों की क्या प्रतिक्रियाएं रही हैं
(2001)
Answer : मार्क्स ने मानव समाज की ऐतिहासिक विवेचना करते हुए लिखा है कि ‘आजकल प्रत्येक समाज शोषक और शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है। ‘इससे स्पष्ट होता है कि मार्क्स वर्ग संघर्ष को अनिवार्य मानता है। उनके अनुसार वर्ग वैमनस्यता की स्थिति की शुरुआत सामंतवादी युग में हुई, परंतु यह संघर्ष पूंजीवादी व्यवस्था और भी स्पष्ट होकर सामने आया। मार्क्स के शब्दों में ‘अभी तक के सभी स्थापित समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है। दोनों का स्वतंत्र व्यक्तियों से, साधारण जनता का कुलीनों से, कृषि श्रमिकों का भूमिपतियों से, वेतनभोगियों का श्रेणीपतियों से, एक शब्द में पीड़ितों का पीडि़कों से विरोध तथा अनवरत संघर्ष चलता रहा है। कभी यह प्रकट रूप में तथा कभी अप्रकट रूप में चला है।
इससे स्पष्ट होता है कि इतिहास में पाये जाने वाले विभिन्न वर्ग अपने स्वार्थों की पूर्ति और हितों के संरक्षण के लिए दूसरे वर्गों से संघर्ष करते आये हैं। संघर्षों का यह स्वरूप किसी भी प्रकार का हो सकता है। मार्क्स इसी संघर्ष को वर्ग संघर्ष के नाम से जानता है। मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का कारण सिर्फ दो वर्गों का पैदा हो जाना नहीं है, बल्कि संघर्ष का प्रमुख कारण श्रमिक वर्ग चेतना का विकास होना है। जब उनमें इस प्रकार की जागरूकता विकसित हो जाती है कि हमारा शोषण हो रहा है और इस शोषण से बचने के लिए, उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है तो उनके लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता रह जाता है।
पूंजीवादी व्यवस्था ने शोषक और शोषित के बीच की खाई को गहरा कर दिया है इसके परिणामस्वरूप समाज में दो वर्ग स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आये हैं।
औद्योगिक क्रांति और कारखाना पद्धति के उदय के परिणामस्वरूप सैकड़ों हजारों श्रमिक एक स्थान पर इकट्ठे होते हैं और मिलकर साथ-साथ रहते हैं। इसके साथ ही साथ वे सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द और मुसीबतों में भी सम्मिलित होते हैं। इससे उनमें वर्ग चेतना विकसित होती है और इस वर्ग चेतना का परिणामस्वरूप वर्ग संघर्ष अनिवार्य हो जाता है।
मार्क्स एवं एंजिल्स ने सिद्ध किया है कि वर्ग-संघर्ष वैर-भावपूर्ण संरचनाओं में सामाजिक विकास की प्रेरक शक्ति है। सामाजिक विकास की एक निश्चित अवधि में वर्ग संघर्ष अनिवार्यतः समाज को सामाजिक क्रांति की ओर ले जाता है। वर्ग संघर्ष की परम अभिव्यक्ति स्वयं क्रांति है, जब क्रांतिकारी वर्ग सत्ता को अपने हाथों में ले लेता है तब उसका प्रयास सामाजिक संबंधों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए होता है। क्रांतिकारी वर्ग के लिए संघर्ष ही एक मात्र वह साधन है जिसकी सहायता से सामाजिक विकास के तात्कलिक कार्य पूरे किये जाते है।
वर्ग निर्माण और वर्ग संघर्ष की शक्तियां इतनी तीव्र होती है कि वे इस सिद्धांत को सशक्त बनाती हैं कि किसी भी समाज में विभिन्न प्रकार के समूह किस तरह एक संरचना को पैदा करते हैं। कई विचारकों ने मार्क्स के वर्ग और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत की आलोचना की है। औद्योगिक समाज में वर्ग संघर्ष का होना आवश्यक है। इन वर्गों का आधार समाज की बुनियादी अर्थव्यवस्था है और यही कार्ल मार्क्स के संघर्ष का सिद्धांत का अहम पहलू है।
राल्फ डेहरेन्डॉर्फ, लेविस कोजर और रेन्डाल कोलिन्स ऐसे सिद्धांतवेत्ता है जिन्होंने कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के प्रतिक्रियावादी विचार को अपनाया है। परंतु ये विचारक भी संघर्ष सिद्धांत को एक वैज्ञानिक समाजशास्त्र के विकास में केंद्रीय पहलू मानते हैं। डेहरेंडॉर्फ ने अपने विचारों का प्रतिपादन ‘क्लास एंड क्लास’ कंफिलट इन इंडस्ट्रीयल सोसाइटी’ नामक पुस्तक में किया है। इस संबंध में उनका कहना है कि समाज में कुछ ऐसी संस्थाएं हैं जो व्यवस्थित रूप से ऐसे समूह को पैदा करती है जिनके हित या स्वार्थ संघर्ष की अवस्था को बढ़ाते हैं अपने निजी या जातीय हितों वाले ये समूह बराबर इस बात के लिए संघर्ष करते हैं कि वह समूह को उसकी यथास्थिति बनाये रखने में बराबर योगदान करती रहे। यह सही है कि डेहरेन्डॉर्फ ने अपने संघर्ष सिद्धांत को यूरोप और अमेरिका के औद्योगिक समाजों के संदर्भ में प्रस्तुत किया है। मार्क्स के लेखन के समय यूरोप में पूंजीवाद अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था। इस तरह मार्क्स और डेहरेन्डॉर्फ दोनों ही पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, पर दोनों के लिए पूंजीवादी व्यवस्था भिन्न हैं वास्तव में, डेहरेन्डॉर्फ का द्वंद्वात्मक सिद्धांत शक्ति पर आधारित है। इसी कारण वे सामाजिक यथार्थता का विश्लेषण शक्ति के संदर्भ में करते हैं। उनका तर्क है कि प्रत्येक समाज की एक अन्तनिर्हित प्रवृत्ति संघर्ष की होती है। वे समूह जिनके पास शक्ति है अपने हितों की पूर्ति करते हैं और वे समूह जिनके पास शक्ति नहीं वे भी अपने हितों की पूर्ति के लिए दौड़-भाग करते हैं। इस भाग-दौड़ या संघर्ष में जिनके पास अधिकतम शक्ति है वे अपनी यथास्थिति बनाये रखने में सफल होते हैं। लेकिन देर-सबेर ऐसा अवसर भी आता है। जब न्यूनतम शक्ति वाला समूह शक्तिशाली समूह को उसके खंदक में गिरा देता है और सामाजिक परिवर्तन के रथ के पहिए, डेहरेन्डॉर्फ के अनुसार आगे बढ़ते रहते हैं। संघर्ष की कोख में ही सामाजिक परिवर्तन के बीच रहते हैं। इसी कारण डेहरेन्डॉर्फ मानते हैं कि मानव इतिहास में संघर्ष एक बहुत बड़ी सृजनात्मक शक्ति है।
कोजर के संघर्ष सिद्धांत को ‘प्रकार्यवादी संघर्ष’ के नाम से पुकारा जाता है। कोजर का मानना है कि समाज में संघर्ष अनिवार्य है। लेकिन यह संघर्ष व्यवस्था में एकीकरण व अनुकूलन लाने के लिए उपयोगी है। इससे व्यवस्था में स्थायित्व आता है, निरन्तरता आती है और सदस्यों का विचलन अन्य सदस्यों के लिए सुदृढ़ता का कारण बनता है। मार्क्स के विचार के विपरीत कोजर का मानना है कि यह संघर्ष ही है जो किसी भी सामाजिक व्यवस्था को उसकी पहचान देता है और इससे आगे प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन संघर्ष जनित होता है। कोजर ने संघर्ष संबंधी विचारों का प्रतिपादन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फंक्शन ऑफ सोशल कन्फ्रिलक्ट’ के अंतर्गत किया है।
कोलिन्स ने अपने संघर्ष सिद्धांत के अंतर्गत यह बताते हैं कि किस प्रकार संघर्ष का उपागम सामाजिक एकीकरण की प्राप्ति में सहायक है। कोलिन्स के सिद्धांत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि संघर्ष करने के लिए आधार व्यक्ति या समूह को स्रोत मानते हैं। कोलिन्स के संघर्ष सिद्धांत का वर्णन हमें इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कन्फ्रिलक्ट सोशियालॉजी: टुवर्ड एन एक्सप्लनेटरी साइंस’ में मिलता है।
Question : इमाइल दुर्खीम के प्रदानों में समाजशास्त्रीय विश्लेषण का केंद्र बिंदु क्या है? उनके प्रदानों में से किसी एक की मदद से अपना उत्तर दीजिए।
(2001)
Answer : इमाइल दुर्खीम के प्रदानों में समाजशास्त्रीय विश्लेषण का केंद्र बिंदु सामाजिक यर्थाथता एवं सामूहिकता रहा है। उन्होंने समाजशास्त्रीय विश्लेषण की व्याख्या प्रत्यक्षवादी पद्धति के आधार पर किया है। इमाइल दुर्खीम के प्रमुख सिद्धांतों में सामाजिक तथ्य की झलक मिलती है। इमाइल दुर्खीम के प्रदानों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:
इमाइल दुर्खीम ने सभी समाज शास्त्रीय सिद्धांतों की व्याख्या के लिए सामूहिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा का प्रयोग किया है जिसे हम केंद्रीय भूमिका भी कह सकते हैं। सामूहिक प्रतिनिधित्व दुर्खीम के अनुसार एक सामाजिक तथ्य है। दुर्खीम ने सामूहिक प्रतिनिधित्व के लिए सामूहिक चेतना की अवधारणा का प्रतिपादन किया है। दुर्खीम का विचार है कि व्यक्ति के सामाजिक जीवन में सामाजिक अंतःक्रियाओं की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। इन अंतःक्रियाओं के परिणामस्वरूप सामूहिक चेतना का विकास होता है। यह सामूहिक चेतना अंतःव्यक्तिगत क्रियाओं के कारण व्यक्तिगत चेतना कि समन्यव और संगठन के कारण विकसित होती है। सामूहिक चेतना का आधार समाज का समूह होता है। सामूहिक चेतना के परिणामस्वरूप सामूहिक प्रतिनिधानों का जन्म होता है। वे कालान्तर में प्रतीकों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। वे सामाजिक आदर्श और मूल्य के होते है तथा व्यक्ति इन आदर्शों और मूल्यों के अनुसार अपने को ढालता है। दुर्खीम का मानना है कि सामूहिक प्रतिनिधित्व करने वाले विचार यथार्थ होते हैं, उनकी बा“य सत्ता होती है, वे प्रतीक लोगों के व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं। दुर्खीम के अनुसार व्यक्ति के विचारों का निर्धारण आंतरिक परिस्थितियों द्वारा न होकर बा“य परिस्थितियों द्वारा होता है। दुर्खीम कहता है कि ये विचार समाज में है। उनके अनुसार वास्तविक सत्ता व्यक्ति की न होकर समाज की होती है।
दुर्खीम के सामूहिकता, सामूहिक प्रतिनिधित्व एवं प्रकार्यवाद के विचारों का आकलन हम दुर्खीम के प्रसिद्ध सिद्धांत श्रम विभाजन के सिद्धांत में कर सकते हैं। यह सिद्धांत दुर्खीम की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘समाज में श्रम-विभाजन’ में दिया है। इस कृति के माध्यम से दुर्खीम ने दो प्रभुत्व अवधारणाओं-सामाजिक एकता और श्रम विभाजन को अपना आधार बनाया है। दुर्खीम द्वारा प्रस्तुत सामाजिक एकता और श्रम विभाजन के सिद्धांत दोनों अंतःसंबंधित है। इसका कारण है कि श्रम विभाजन आदिकालीन और सभा समाजों से संबंधित है दुर्खीम ने श्रम-विभाजन के सिद्धांत के लिए सामाजिक एकता की बात की है। इसके लिए दुर्खीम ने सामाजिक एकता के दो प्रकार का वर्णन किया हैः
(1) यांत्रिक एकता: दुर्खीम का कहना है कि आदिम समाजों में यंत्रवत् एकता पायी जाती थी। इस एकता के अंतर्गत समूहवाद की प्रबल भावना पायी जाती है। समूह के हाथ में इतनी शक्ति पायी जाती है कि कोई भी व्यक्ति समूह के विपरीत आचरण या व्यवहार नहीं कर सकता है, अगर कोई ऐसा करता है तो उसे दमनकारी कानून के तहत दंडित किया जाता है। ये कानून वे होते हैं जो सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के साथ दमनात्मक व्यवहार किया जाता है। दुर्खीम के अनुसार दमनकारी कानून आदिम समाजों में पाये जाते थे। इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य समाज में नैतिक मूल्यों की रक्षा करना और सामूहिक उद्देश्य का सम्मान करना होता था। इन समाजों में वैधानिक पद वंश परम्परा द्वारा प्राप्त होते थे और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांरित होते रहते थे।
(2) सावयवी एकता: दुर्खीम ने आधुनिक समाजों में पायी जाने वाली एकता को सावयवी एकता के नाम से व्याख्या की है। इस एकता के अंतर्गत हम श्रम विभाजन के क्रियाकलापों का वर्णन करते हैं। इसका कारण यह है कि सभ्य समाज में व्यक्तियों के कार्य निश्चित होते हैं और उसका व्यक्तित्व समाज से पृथक् अस्तित्व रखता है। सावयवी एकता के परिणामस्वरूप समाज में एकता के स्थान पर विविधता का विकास हुआ। दुर्खीम के अनुसार सावयवी एकता वाले समाजों में प्रतिकारी कानून पाये जाते हैं। यह कानून एक निश्चित प्रक्रिया के द्वारा संचालित की जाती है। जिसके फलस्वरूप इन समाजों में वैयक्तिक स्वतंत्रता का महत्व बढ़ जाता है।
दुर्खीम ने श्रम विभाजन के सिद्धांत को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया हैः
(1) आदिमकाल में श्रम विभाजन: दुर्खीम का विचार है कि आदिकाल में मानव समाज शिकारी अवस्था में था। पुरुष जंगलों में जाकर फल-फूल इकट्ठा करते थे तथा पशुओं का शिकार करते थे। इसके विपरीत स्त्रियां गृह-कार्य और अन्य कार्यों की देख-रेख करती थीं। अर्थात् श्रम विभाजन मूलतः लिंग-भेद पर आधारित था। इस काल में यांत्रिक एकता की प्रवृत्ति पायी जाती थी जो दमनकारी कानून के द्वारा संचालित होता था। इस प्रकार के समाजों में व्यक्तियों के विचार कार्य-प्रणाली और व्यवहारों में एकरूपता पायी जाती थी। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि इस काल में श्रम-विभाजन का अभाव था या बहुत कम पाया जाता था।
(2) सभ्य समाज में श्रम-विभाजनः जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप समाज में श्रम विभाजन और विशेषीकरण का महत्व बढ़ने लगा। एक निश्चित कार्यों के बारे में विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्तियों के महत्व में वृद्धि होने लगी साथ ही व्यक्ति के कार्यों में भी मूल्य का भी समावेश हुआ जिससे विभिन्न व्यवसाय और व्यवसाय समूहों का जन्म हुआ। विकास की परम्परा में जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे विभिन्न समूहों में विभक्त हो गया। इन समूहों के हितों और स्वार्थों में वृद्धि होती गई। विभिन्न स्वार्थों और हितों के परिणामस्वरूप समाज में विभिन्न उद्योगों का जन्म हुआ जिससे व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा का विकास हुआ। इससे यांत्रिक एकता एवं एकरूपता समाप्त हो गई तथा सावयवी एकता एवं विविधता का विकास हुआ। इस प्रकार के समाजों में प्रतिकारी कानून पाया जाता है।
(3)आधुनिक समाज में असामान्य प्रकार का श्रम-विभाजनः दुर्खीम ने आधुनिक समाजों में श्रम-विभाजन का एक असामान्य रूप का वर्णन किया है। जिसके अंतर्गत व्यक्तिनियमहीनता (Anomie) की स्थिति में पहुंच जाता है। यह वस्तुतः श्रम-विभाजन का extreme रूप है जिससे सामाजिक एकता का महत्व नहीं रह जाता है। यह वास्तव में व्यक्तिवादी प्रकृति का प्रतिफल है।
मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि दुर्खीम का श्रम-विभाजन का सिद्धांत आदिमकाल से लेकर आधुनिक समाजों के बीच के उद्विकासीय प्रक्रिया को सही रूप देने की कोशिश की है। दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप औद्योगिक संघर्षों का जन्म हुआ है। जैसे-जैसे समाज में श्रम-विभाजन का विकास होता है समाज की यांत्रिक एकता समाप्त हो जाती है और उसके स्थान पर स्थान पर सावयवी एकता का विकास होता जाता है। दुर्खीम ने श्रम-विभाजन और सामाजिक विघटन में अंतर को स्पष्ट किया है। उसके अनुसार विघटन जब व्याधिकीय होते हैं तो समाज में श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप एकता सुरक्षित नहीं रह जाती है।
Question : एक आदर्श प्रारूप का अर्थ और लक्षण दर्शाइए। मैक्स वेबर के मतानुसार सामाजिक विज्ञान के अनुसंधान में ‘आदर्श प्रारूप’ का क्या उपयोग और महत्ता है?
(2001)
Answer : मैक्स वेबर ने सामाजिक घटनाओं को समझने की दृष्टि से 1904 में सर्वप्रथम आदर्श-प्रारूप की अवधारणा का प्रयोग किया। वेबर के पद्धतिशास्त्र में आदर्श-प्रारूप की अवधारणा का विशेष महत्व है। इसने सामाजिक वास्तविकता को समझने के लिए तथा उसके बारे में सामान्य नियमों को जानने के लिए इस अवधारणा का प्रयोग किया। वेबर आदर्श-प्रारूप को अन्वेषणकर्ता के अध्ययन का एक यंत्र मानते हैं, जिसका प्रयोग वह घटनाओं की समानताओं और असमानताओं को ज्ञात करने के लिए कर सकता है। तुलनात्मक अध्ययनों के लिए यह एक मौलिक विधि है।
आदर्श प्रारूप का निर्माण समाजशास्त्री कुछ वास्तविक तथ्यों के आधार पर तर्क संगत-रूप से करता है। इसका निर्माण अध्ययन के लिए उपकल्पना की रचना हेतु किया जाता है। ‘आदर्श’शब्द का कोई अर्थ श्रेष्ठता के संदर्भ में नहीं है। आदर्श-प्रारूप न तो ‘औसत-प्रारूप’है और न ही आदर्शात्मक। इसका अर्थ है कि वास्तविक सामाजिक-जीवन में जो तथ्य पाये जाते हैं, उनमें से विचारपूर्वक कुछ तत्वों का चयन किया जाये और उन्हें अध्ययन के लिए एक पैमाना मापक माना जाय। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि आदर्श-प्रारूप वास्तविकता के कुछ विशिष्ट तत्वों के विचार-पूर्वक चुनाव एवं सम्मिलन द्वारा निर्मित आदर्शात्मक मान है। आदर्श-प्रारूप का अर्थ कुछ वास्तविक तथ्यों के तर्क-संगत आधार पर यथार्थ अवधारणाओं का प्रतिपादन करना हैं।
आदर्श-प्रारूप के निर्माण हेतु आवश्यक है कि कुछ वास्तविक घटनाओं अथवा व्यक्तियों का तर्क-संगत तरीके से इस प्रकार चुनाव कर लिया जाय कि वे इस प्रकार की समस्त घटनाओं या व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व कर सकें। ऐसे-चुनाव में जिस ‘टाइप’ या प्रकार का निर्माण होता है, उसे ही आदर्श-प्रारूप कहते हैं। आदर्श-प्रारूप का आदर्श इस रूप में माना गया है कि यह एक ऐसी विशेष श्रेणी (टाइप) है जो इस प्रकार की सभी घटनाओं या व्यवहारों अथवा क्रिया की वास्तविकता को प्रकट करती है। इस प्रकार की श्रेणी या टाइप के निर्माण से वैज्ञानिक को अध्ययन कार्य में काफी सहायता मिलती है। इससे अध्ययन में यथार्थता एवं सुस्पष्टता आती है और इसी दृष्टि से यह टाइप या श्रेणी वैज्ञानिक के लिए आदर्श है अन्य किसी अर्थ में नहीं। स्पष्ट है कि आदर्श-प्रारूप के निर्माण से अध्ययनकर्ता को अनेक सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं उसके अध्ययन में यथार्थता, सुतथ्यता एवं क्रमबद्धता आ जाती है। इसके आधार पर तथ्यों व घटनाओं का विश्लेषण सरल व संभव हो जाता है। यह घटनाओं की एकता व समानता को समझने में योग देती है। आदर्श प्रारूप आत्मगत या चेतनात्मक होता है क्योंकि इसमें अध्ययनकर्ता उन्हीं विशेषताओं या तत्वों को सम्मिलित करता है जो उसकी दृष्टि में महत्वपूर्ण हैं। ये आदर्श-प्रारूप परिवर्तनशील भी होते हैं। सामाजिक घटनाओं के बदलने के साथ-साथ आदर्श-प्रारूप भी बदलते रहते हैं ये आदर्श-प्रारूप परिवर्तनशील भी होते हैं। सामाजिक घटनाओं के बदलने के साथ-साथ आदर्श प्रारूप भी बदलते रहते हैं। मैक्स वेबर कहते हैं कि हमें केवल उन्हीं आदर्श-प्रारूपों को अपने अध्ययन में प्रयोग करना चाहिए जो नियंत्रित, शंकारहित एवं प्रयोगसिद्ध हो। वेबर सामाजिक अध्ययनों को पूर्णतः वस्तुनिष्ठ नहीं मानते क्योंकि एक तो आदर्श-प्रारूप की विशेषताओं के चुनाव में पक्षपात की संभावना होती है। दूसरे, आदर्श-प्रारूप समय के साथ-साथ परिवर्तित भी होते हैं। वेबर ने आदर्श-प्रारूप की तीन विशेषताओं का उल्लेख किया हैः
(1) आदर्श-प्रारूप का निर्माण कर्ता द्वारा क्रिया के एक विशेष उद्देश्य या अर्थ के लिए किया जाता है जो कि वैज्ञानिक या वस्तुनिष्ठ नहीं होता। उसमें व्यक्तिगत अर्थ सम्मिलित होता है।
(2) आदर्श-प्रारूप ‘सब कुछ’ का वर्णन या विश्लेषण नहीं करता वरन् किसी सामाजिक व्यवहार या घटना के महत्वपूर्ण पक्षों की व्याख्या या निर्वचन करता है।
(3) इसका प्रयोग ऐतिहासिक समस्याओं के अध्ययन एवं विश्लेषण के लिए किया जाना चाहिए। कोई भी आदर्श-प्रारूप अंतिम नहीं है, घटनाओं के परिवर्तन के साथ-साथ आदर्श-प्रारूप भी बदलते रहते हैं।
वेबर की आदर्श-प्रारूप की अवधारणा कोई नयी बात नहीं है वरन् यह वास्तविकताओं को समझने का एक प्रयास-मात्र है। उन्होंने इसे अन्य विज्ञानों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है जिससे कि मानव व्यवहार की तार्किक तथा कार्य-कारण के संदर्भ में व्याख्या की जा सके। आदर्श-प्रारूप ऐतिहासिक घटना को उसके सांस्कृतिक महत्व को ध्यान में रखते हुए समझने हेतु एक उपयोगी साधन है।
आदर्श-प्रारूप का उपयोग एवं महत्ता
आलोचनात्मक परीक्षण
Question : अलगाव।
(2000)
Answer : अलगाव व्यक्ति की एक ऐसी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक स्थिति अथवा दशा का परिचायक अवधारणा है जिसमें व्यक्ति का उसके सामाजिक अस्तित्व के मुख्य पक्षों से विरसन हो जाता है, अर्थात वह उनसे कट जाता है। इस अवधारणा का प्रयोग प्रजातिक पूर्वाग्रह, मानसिक बीमारी, वर्ग-चेतना, औद्योगिक तनाव, राजनैतिक उदासीनता, अतिवादिता, उग्रवादिता तथा आतंकवाद आदि अनेक समस्याओं की व्याख्या में किया गया है।
इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग हीगल की कृतियों में देखने को मिलता है। किंतु कार्ल मार्क्स ने सर्वप्रथम इसे समाजशास्त्रीय सिद्धांत की एक प्रमुख अवधारणा के रूप में प्रस्थापित किया। यह अवधारणा मार्क्स के विचारों और लेखनों में केंद्रीय रही है। हीगल के आदर्शवादी विचारों में संशोधन करते हुए मार्क्स ने इस अवधारणा का प्रयोग आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रकाश डालने के लिए किया है। मार्क्स के अनुसार, मानव की यह प्रकृति है कि वह अपने बाह्य संसार को दूसरों के सहयोग से बदलकर अपना स्वयं का निर्माता बना है, किंतु यह प्रकृति अब मानव के विपरीत हो गयी। अब यह प्रकृति उनकी न रहकर किसी अन्य व्यक्ति अथवा वस्तु की बन गयी है।
पूंजीवादी व्यवस्था में कामकाज की सामाजिक दशाओं ने कामगार को अपने कार्य से इस तरह विलग कर दिया है कि उसे ऐसे अवसर प्रदान नहीं करती ताकि उसका अस्तित्व रचनात्मक तथा अर्थपूर्ण बन सके। इन दशाओं में कामगार को न अपने कार्य से संतुष्टि मिल पाती है और न ही उसे अपने श्रम का पूरा मुआवजा मिलता है। यह स्थिति ही कामगार के अलगाव की दशा की परिचायक है। अलगाव आत्म-विमुखता की एक ऐसी भावना है जिसकी उत्पत्ति अपने कार्य की भूमिका की अर्थहीनता तथा स्वयं की शक्तिहीनता की धारणा से होती है। इसकी शुरुआत कामगार और उसके कार्य के बीच टूटे संबंधों से होती है। कामगार अपने कार्य से विमुख हो जाता है। कामगार जो वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, उनका निर्णय की व्यवस्था में अर्थात क्या बनाना और कैसे बनाना है, कोई भूमिका नहीं होती। भूमिका- विशेषीकरण तथा सत्ता एवं पुरस्कार का असमान वितरण औद्योगिक उत्पादन की एक ऐसी विशेषताएं हैं जो कामगार को उसकी प्रकृति प्रदत्त रचनात्मक प्रवृत्ति का पूरा-पूरा उपयोग करने में बाधा उत्पन्न करती है।
मार्क्स ने इस अवधारणा का प्रयोग संरचनात्मक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों स्थितियों के चित्रण के लिए किया है, किंतु आजकल इसका प्रयोग अधिकांशतः सामाजिक मनोवैज्ञानिक दशाओं की अभिव्यक्ति के लिए ही अधिक किया जाता है।
Question : भूमिका संघर्ष।
(2000)
Answer : दो या दो से अधिक ऐसी भूमिकाओं के बीच असंगतता अथवा विरोधाभास की स्थिति, जिनके संबंध में एक व्यक्ति से किसी विचाराधीन स्थिति में संपादन किये जाने की आशा की जाती है, भूमिका संघर्ष कहलाती है। इसमें एक भूमिका के संपादन द्वारा दूसरी भूमिका में व्यवधानअथवा विरोध की स्थिति उत्पन्न होती है। यह भूमिका संघर्ष तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति विभिन्न प्रस्थितियों के धारण के कारण अपने जीवन में विरोधी अथवा असंगत भूमिका प्रत्याशाओं का सामना करते हैं। वास्तव में एक व्यक्ति की बहुभूमिकाओं के कारण भूमिका संघर्ष पैदा होता है।
उदाहरण के लिए, मिलिट्री के एक फील्ड कमांडर को जब सैनिक दलों की किसी जोखिम भरी सैनिक कार्यवाही के लिए भेजने का आदेश देना होता है। तब यह दो प्रकार के दायित्वों- अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों के पालन का दायित्व तथा सैनिक दलों की रक्षा के दायित्व के बीच स्वयं को फंसा हुआ पाता है। इसी तरह एक शिक्षित महिला को मां तथा एक कामकाजी महिला (अध्यापिका) के रूप में दो विरोधाभासी दायित्वों के संघर्ष का सामना करना पड़ता है। अध्यापिका के रूप में शिक्षण कार्य के प्रति पूर्ण निष्ठा, तो दूसरी ओर मां के रूप में संतानों की सेवा सुश्रुष एवं पालन-पोषण की उससे आशा की जाती है।
उपरोक्त दोनों उदाहरण दो प्रकार के भूमिका संघर्ष को प्रकट करते हैं। प्रथम उदाहरण एक ही प्रस्थिति अर्थात मिलिट्री कमांडर के साथ जुड़ी दो भूमिकाएं एक मातहत अधिकारी और एक कमांडर के भूमिका संघर्ष को प्रस्तुत करती है। भूमिका संघर्ष के इस रूप को ‘भूमिका तनाव’ कहा जाता है। इसके विपरीत दूसरे उदाहरण में भूमिका संघर्ष एक व्यक्ति द्वारा दो भिन्न प्रस्थितियों से जुड़े हुए भिन्न दायित्वों के बीच होता है जिसे प्रस्थिति तनाव कहा जाता है। महिला का उदाहरण यह स्पष्ट करती है कि संघर्ष की तीसरी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब किसी एक ही भूमिका के साथ जुड़ी हुई प्रत्याशाओं के बारे में व्यक्तियों में विवाद या असहमति हो। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब किसी पद के साथ जुड़े दायित्व अस्पष्ट हों, अत्यधिक कठिन हों या अस्वीकार्य योग्य हों। अतः किसी एक पद प्रस्थिति अथवा अधिक पद प्रस्थितियों के साथ जुड़ी हुई भूमिकाओं से संबंधित प्रत्याशाओं के बीच होने वाले द्वंद्व असहमति अथवा परस्पर विरोध को भूमिका संघर्ष कहते हैं।
Question : इमाइल दुर्खीम ने तर्क दिया था कि समाज में श्रम विभाजन का प्रकार्य सामाजिक सुदृढ़ता को बढ़ावा देने का है। इस कथन को सविस्तार प्रतिपादित कीजिए और उनके द्वारा चर्चित सुदृढ़ता के दो रूपों के बीच विभेदन का विश्लेषण कीजिए।
(2000)
Answer : इमाइल दुर्खीम का समाज में श्रम विभाजन के सिद्धांत का मूल तत्व सामाजिक एकता की अवधारणा की व्याख्या करना है। वास्तव में श्रम विभाजन सामाजिक एकता की प्रवृति को बढ़ावा देती है। अतः दुर्खीम द्वारा प्रस्तुत सामाजिक एकता और श्रम विभाजन के सिद्धांत दोनों अंतःसंबंधित हैं। इसका कारण यह है कि श्रम विभाजन आदिकालीन और सभ्य समाजों से संबंधित हैं। इस सिद्धांत का प्रतिपादन उसने अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘De la division detawail social the Division of Labour in society’ नामक पुस्तक में की है। इसी सिद्धांत में उसने सामाजिक उद्विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। दुर्खीम ने स्वीकार किया है कि आदिकाल से आज तक समाज का जो उद्विकास हुआ है उसमें श्रम विभाजन और विशेषीकरण की वृद्धि हुई है।
श्रम विभाजन का मुख्य कार्य और महत्व का उल्लेख करते हुए दुर्खीम ने लिखा है कि आदिकालीन समाजों में जहां पारंपरिक श्रम विभाजन है वहां व्यक्तियों में समरूपता अधिक पायी जाती है। इसके विपरीत, सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह समरूपता समाप्त होती जाती है और विविधता का विकास होता जाता है।
दुर्खीम ने आदिकालीन समाजों और सभ्य समाजों का विश्लेषण करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि सामाजिक एकता मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैः
यांत्रिक एकताः दुर्खीम का कहना है कि आदिम समाजों में यंत्रवत एकता पायी जाती थी। इसका कारण यह है कि आदिकालीन समाजों के सभी व्यक्ति एकता के सूत्र में बंधे रहते थे। समूहवाद की भावना इतनी प्रबल थी कि व्यक्ति के सामाजिक जीवन में कोई महत्व नहीं था, सामूहिक प्रतिनिधित्व की भावना समाज में पायी जाती थी। व्यक्ति की एकता की दुर्खीम ने मशीन या यंत्र से तुलना की है। सभी सामाजिक व्यक्तियों का जीवन यंत्र के समान था। जिस प्रकार के यंत्र निरंतर अपनी दिशा में चलता रहता है और क्या, क्यों, कैसे का प्रश्न नहीं करता है ठीक उसी प्रकार व्यक्ति भी यंत्र की भांति कानूनों की महता को स्वीकार करता है। समूह के हाथ में इतनी शक्ति थी कि यदि कोई व्यक्ति समूह के विपरीत आचरण या व्यवहार करता था तो उसकी सामाजिक निंदा की जाती थी। व्यक्ति को कठोर दंड दिये जाते थे। यही कारण है कि तात्कालिक जीवन में विविधता का अभाव था।
सावयवी एकताः दुर्खीम के आधुनिक समाजों में पायी जाने वाली एकता को सावयवी एकता के नाम से स्वीकार किया है। उसका कहना है कि आदिकालीन समाज से जब सभ्य समाज का विकास हुआ तो समाज में श्रम विभाजन हो गया। इस श्रम विभाजन के परिणामस्वरूप सामाजिक प्राणियों में पायी जानेवाली यंत्रवत् एकता समाप्त हो गयी। इसका कारण यह है कि सभ्य समाज में व्यक्तियों के कार्य निश्चित होते हैं और उसका व्यक्तित्व समाज से पृथक अस्तित्व रखता है। जिस प्रकार से शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों के कार्य निश्चित है ठीक उसी प्रकार समाज में व्यक्तियों के कार्य में व्यक्तियों का कार्य भी निश्चित होते गये। इसके परिणामस्वरूप समाज में जो यांत्रिक एकता पायी जाती थी वह समाप्त हो गई। सभ्य समाजों में कानून व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना होता है। सावयवी एकता का परिणामस्वरूप समाज में एकता के स्थान पर विविधता का विकास हुआ।
किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आधुनिक समाजों में एकता नहीं पायी जाती है। एकता के अभाव में हम समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं। दुर्खीम ने स्वीकार किया है कि यद्यपि एकता आधुनिक समाजों में भी पायी जाती है किंतु इसके स्वरूप में परिवर्तन हो गया है। प्रमुख प्रश्न यह है कि आधुनिक समाज में पाये जाने वाली एकता का स्वरूप क्या है? दुर्खीम ने इस प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि श्रम विभाजन के परिणामस्वरूप संपूर्ण समाज व्यक्तियों में विभाजित हो गया है। ये स्वतंत्र व्यक्ति यह अनुभव करते हैं कि उनकी सत्ता तभी स्थायी रह सकती है जबकि वे एक-दूसरे की सहायता व सहयोग करें। श्रम विभाजन ने व्यक्तियों को एक-दूसरे से अलग कर दिया हैं इस श्रम विभाजित समाज में व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव करता है। इस अकेलेपन को दूर करने के लिए भी उसे समाज की आवश्यकता का अनुभव होता है। यही कारण है कि प्रारंभिक समाजों में पायी जाने वाली यांत्रिक एकता सावयवी एकता में परिवर्तित हो गई है।
दुर्खीम ने समाज में पाये जाने वाली सामाजिक एकता आधारित वैधानिक व्यवस्था का भी वर्णन किया है। उसके अनुसार वैधानिक व्यवस्था ही वह शक्ति है जिसके माध्यम से सामाजिक एकता की स्थापना की जाती है। इस दृष्टि से उसने कानून को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया हैः
(i) दमनकारी कानूनः दमनकारी कानून वे होते हैं जो सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के साथ दमनात्मक व्यवहार करते हैं। दुर्खीम के अनुसार दमनकारी कानून आदिम समाजों में पाये जाते थे। आदिम समाजों में समाज की इच्छा के विरुद्ध किये जाने वाले व्यवहार को अपराध समझा जाता था। दूसरे शब्दों में, ये दमनकारी कानून दृष्कृति के रूप में पाये जाते थे। इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य समाज में नैतिक मूल्यों की रक्षा करना और सामूहिक उद्देश्य का सम्मान करना होता था। इन समाजों में वैधानिक पद वंश परंपरा द्वारा प्राप्त होते थे और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहते थे। वास्तव में इस प्रकार का कानून यांत्रिक एकता आधारित समाज में देखने को मिलता है।
(ii)प्रतिकारी कानूनः दुर्खीम के अनुसार प्रतिकारी कानून आधुनिक कानून का ही एक प्रकार है। विभेदीकृत समाजों में ऐसे कानूनों का अत्यधिक महत्व होता है। इसका कारण यह है कि विभेदीकृत समाज व्यक्ति की नैतिकता को सर्वोच्च महत्ता प्रदान करते हैं। इन समाजों में वैयक्तिक स्वतंत्रता का महत्व बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में समाज विरोधी कार्यों को सामूहिक इच्छा का उल्लंघन न मानकर व्यक्ति के विरुद्ध किया गया कार्य माना जाता है। इस सबका परिणाम यह होता है कि दमनकारी कानूनों का महत्व कम होता जाता है और उसके स्थान पर प्रतिकारी कानूनों को समाज में स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार का कानून मुख्यतः सावयवी एकता आधारित समाज में देखने को मिलता है।
Question : सामाजिक संरचना प्रतिमानहीनता और विसामान्य व्यवहार की ओर आयास को कैसे पैदा कर देती है? अध्ययन के इस क्षेत्र में राबर्ट के. मर्टन के अंशदान का हवाला देते हुए, इसका परीक्षण कीजिए।
(2000)
Answer : विसामान्य व्यवहार को कुछ समाजशास्त्रियों ने मानदंडहीनता का सिद्धांत के आधार पर समझने का प्रयास किया है। समाजशास्त्र में मानदंडहीनता का सिद्धांत फ्रांसीसी समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम ने आत्महत्या के सिद्धांत के संदर्भ में दिया था। उनका कहना है कि विकास के कारण आधुनिक समाज में कुछ परंपरागत नियम-कानून टूट जाते हैं और उसकी जगह पर कोई वैकल्पिक नियम-कानून विकसित नहीं हो पाता है, तो वैसी स्थिति में मानदंडहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। लोगों को कभी-कभी यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि कौन-सा आचरण सही या गलत है। ऐसी परिस्थिति में विसामान्य व्यवहार होना कोई बहुत ही अस्वाभाविक घटना नहीं है। परंतु इस विचार को विस्तृत करने का श्रेय आर.के. मर्टन को जाता है जिन्होंने विसामान्यता का सिद्धांत का प्रतिपादन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Social theory and social structure’ में दिया।
मर्टन ने बताया कि औद्योगिक रूप से विकसित समाजों में भौतिक उपलब्धि जीवन का प्रमुख लक्ष्य माना जाता है। चूंकि उसे प्राप्त करने के लिए बहुत कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है, अतः सामाजिक जीवन में काफी प्रतियोगिता बढ़ जाती है, पर इस कोशिश में कुछ ही लोग सफल होते हैं। जो लोग थोड़ा सफल होते हैं या पूरी तरह असफल रह जाते हैं वे किसी न किसी गलत रास्ते को अपनाकर जीवन में सफल होने का प्रयास करते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति और समाज के बीच एक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। समाज के प्रचलित नियम-कानूनों, प्रतिमानों एवं मूल्यों के भंग होने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मर्टन के अनुसार इस स्थिति में लोगों के व्यवहार में पांच किस्म की प्रतिक्रियाएं देखी जाती हैं:
पहली प्रतिक्रिया अनुरूपता की है। समाज के अधिकांश लोग प्रचलित नियम-कानूनों एवं जीवन के मूल्यों के अनुसार जीना पसंद करते हैं। असफलताओं से सभी लोग समान रूप से विचलित नहीं होते हैं। दूसरी प्रतिक्रिया खोजी प्रवृत्ति की है। समाज में कुछ लोग वैसे भी होते हैं जो समाज के सामान्य नियम-कानूनों एवं मूल्यों को स्वीकार करते हुए कुछ नया काम करते हैं, जैसे-धन संपत्ति कमाने के लिए घूस लेना या चोरी बेईमानी करना इत्यादि। ऐसे लोगों को मर्टन ने नवप्रवर्तक की संज्ञा दी है। तीसरी प्रतिक्रिया को उन्होंने कर्मकांडवाद कहा है। समाज में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो परंपरागत सामाजिक मूल्यों के प्रभाव में रहकर समाज में कुछ करना चाहते हैं लेकिन कभी-कभी वे इन मूल्यों को भी भूल जाते हैं, जिनके लिए नियम बनाए गये हैं। जैसे-दफ्रतरों के अंतर्गत बहुत सारे अधिकारी नियमों का इतनी कठोरता से पालन करते हैं कि ऐसा लगता है नियम का पालन करना ही उनका मुख्य उद्देश्य है। नियम जिस उद्देश्य से बनाया गया है वह गौण हो जाता है। नियमों के अनुरूप व्यवहार करना और उद्देश्यों को नजरअंदाज करना ही विधिवाद कहा जाता है। अपने व्यवहार में ज्यादा कानूनची होना भी एक प्रकार की विसामान्यता ही है। चौथी प्रतिक्रिया पलायनवादियों की है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो समाज के प्रचलित मूल्यों को त्याग देते हैं। वे किसी प्रकार की प्रतियोगिता में विश्वास नहीं करते हैं और समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग होकर जीवन निर्वाह करना बेहतर समझते हैं। जैसे-पाश्चात्य देशों में हिप्पी या नशाखोर इत्यादि।
अंतिम प्रतिक्रियाको उन्होंने विद्रोही कहा है। समाज में वैसे भी कुछ लोग होते हैं जो समाज के किसी मानदंड प्रतिमान या मूल्य में कतई विश्वास नहीं करते हैं। वे समाज से विद्रोह कर जीना पसंद करते हैं, जैसे-उग्रवादी एवं क्रांतिकारी राजनीतिक दल के सदस्य।
मर्टन के इस नियमहीनता का सिद्धांत बहुत से प्रश्नों को उत्तर देने में सक्षम नहीं है। प्रथमतः एक ही परिस्थिति में कुछ लोग आदर्श आचरण, तो कुछ लोग अपराधी आचरण क्यों करते हैं? गलत आचरण करने वालों में भी कुछ लोग पलायनवादी, तो कुछ लोग विद्रोही क्यों होते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर मर्टन के सिद्धांत से नहीं मिल पाता है। यह उनके सिद्धांत की महत्वपूर्ण कमियों में से है। फिर भी मर्टन का यह सिद्धांत काफी तर्क संगत लगता है।
Question : आपेक्षिक साधन वंचितता।
(2000)
Answer : शाब्दिक रूप में, वंचना से तात्पर्य किसी वस्तु के न होने या ले लिये जाने या अभाव की स्थिति से है। एक व्यक्ति को किन वस्तुओं काअभाव होता है, इस संबंध में भिन्नता होती है।
इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग सेम्युअल स्टाऊफर ने अमेरिकी सिपाहियों के अपने अध्ययन में किया है। बाद में आर.के. मर्टन ने इसमें संशोधन कर इसे संदर्भ समूह के साथ जोड़ दिया। सापेक्षिक वंचन या हीनता एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी परिस्थितियों को दूसरे व्यक्तियों (संदर्भ समूह) की तुलना में हीन एवं कमजोर अनुभव करता है। एक लखपति द्वारा अपने करोड़पति साथियों के समक्ष अपने आपको हीन समझने का अहसास इसी स्थिति का परिचायक है। इस प्रकार का वंचन सापेक्षिक होता है क्योंकि इसकी माप किसी निरपेक्ष या स्थाई मानदंड के आधार पर संभव नहीं हैं।
इस अवधारणा का प्रयोग 1950 और 1960 के दशकों में समाजशास्त्रियों द्वारा कई भिन्न उद्देश्यों के लिए काफी किया गया। इसका प्रयोग गरीबी की सापेक्षिक परिभाषाओं की रचना करने से लेकर सामाजिक न्याय के मानक स्थापित करने में किया गया। डब्ल्यु.जी. रनसिमेन ने इसका प्रयोग अपने महत्वपूर्ण अध्ययन रिलेटिव डिप्राइवेशन एंड सोश्यल जस्टिस’ में किया। इस अध्ययन ने संस्थागत असमानताओं और उनके प्रति जन-चेतना पर लोगों के ध्यान को आकर्षित किया। आजकल इस अवधारणा के द्वारा जीवन-प्रत्याशा में पाये गये अंतर्राष्ट्रीय अंतर की व्याख्या कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि उच्च स्तरीय असमानता सापेक्षिक वंचन के माध्यम से निम्न जीवन-प्रत्याशा को जन्म देती है।
Question : विचलन के स्रोत के रूप में भूमिका द्वन्द्व।
(1999)
Answer : सामान्यतः विचलन को अनुरूपता के विपरीत माना जाता है। सभी मानव समाजों में व्यवहार के कुछ निश्चित प्रतिमान एवं सामाजिक मानदंड पाये जाते हैं। इन सामाजिक प्रतिमानों एवं मानदंडों के विपरीत आचरण करने को ही सामान्यतः विचलन माना जाता है।
विचलन के स्रोत के रूप में भूमिका द्वन्द्व को हम मर्टन, ब्रेडिमियर एवं स्टीफेन्सन के द्वारा दिये गये चार अवस्थाओं का उल्लेख कर रहे हैं, जो निम्नलिखित हैं:
स्पष्ट है कि विचलन के ये चारों स्रोत भूमिका द्वन्द्व के अलावा अनेक सामाजिक समस्याओं को जन्म देते हैं।
Question : सामाजिक संरचना और प्रतिमानहीनता।
(1999)
Answer : सामाजिक संरचना और प्रतिमानहीनता की अवधारणा वस्तुतः मर्टन के प्रतिमानहीनता के सिद्धांत से संबंधित है। आर.के. मर्टन ने इसका प्रयोग सामाजिक सांस्कृतिक संरचनाओं से उत्पन्न विचलन व्यवहार को समझाने में किया। मर्टन के अनुसार मानक शून्यता की स्थिति में सामाजिक संरचना टूट जाती है और एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे समाज के स्वीकृत लक्ष्यों तथा उन्हें प्राप्त करने वाले साधनों के बीच आपसी तालमेल समाप्त हो जाता है, अर्थात् ऐसी स्थिति में साधन लक्ष्यों के अनुरूप नहीं रहते हैं। मर्टन ने प्रतिमानहीनता को स्पष्ट करने के लिए चार अवस्थाओं का वर्णन किया हैः
Question : सामाजिक तंत्र की प्रकार्यात्मक समस्याएं।
(1999)
Answer : प्रत्येक समाज के अंतर्गत उसके सदस्यों की अपनी कुछ जरूरतें होती हैं। व्यक्ति इन जरूरतों को पूरा करने के लिए भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाते हैं जिससे कभी-कभी समस्याएं भी पैदा हो जाती है, पारसंस ने इसे प्रकार्यात्मक समस्याएं कहा है। इसकी निम्नांकित प्रकार से संक्षेप में चर्चा की जा सकती है-
(i)प्रतिरुप अनुरक्षण एवं तनाव प्रबंध (Pattern Maintenance and Tension Management): प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था की यही कोशिश रहती है कि उसका प्रारूप हमेश उसी रूप में बना रहे। इस प्रारूप को बनाये रखने के लिए समाज में विभिन्न प्रकार की क्रियाविधियों का उपयोग होता है। जब किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के सामने कोई संकट उत्पन्न होता है, तो व्यवस्था उससे निबटने में सहयोग देती है, जैसे- जब कोई युवक अपने जीवन में नौकरी पाने में सफल नहीं होता है तो परिवार उसकी मदद के लिए तैयार रहता है। समाज में इस प्रकार बहुत सारी क्रियाविधियां होती हैं जिनके सहारे व्यवस्था को उसी रूप में बने रहने में सहायता मिलती है और समाज यथासम्भव अपने सदस्यों को तनाव से मुक्ति प्रदान करता है।
(ii)अनुकूलन (Adaptation): चूंकि हरेक व्यवस्था या सामाजिक संरचना के अंतर्गत विभिन्न तत्वों का अपना अलग-अलग प्रकार्य होता है, उन प्रकार्यों के सम्पादन में विभिन्न किस्म की समस्याएं भी उठती है। व्यवस्था उन समस्याओं से निबटने के लिए अपने ढंग से चेष्टा करती है। इस व्यवस्था का अर्थ परिस्थिति से एक प्रकार का अनुकूलन है। इसलिए कि समाज के अंतर्गत विभिन्न लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करना श्रम-विभाजन के माध्यम से आसान हो जाता है। समाज में भूमिकाओं का जो विभाजन होता है उसका भी उद्देश्य अनुकूलन ही है।
(iii)लक्ष्य-प्राप्ति: (Goal Attainment) प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है। उद्देश्य के अभाव में व्यवस्था के बने रहने की संभावना बहुत कम है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाज विभिन्न प्रकार के नियमों का निर्माण करता है। उदाहरणार्थ, भारतीय हिंदू परिवार व्यवस्था में सम्पत्ति का प्रमुख अधिकार परिवार के सबसे बड़े लड़के का होता है जिसे समाजशास्त्र में ‘ज्येष्ठाधिकार पद्धति’ कहते हैं।
(iv)एकताः (Integration) प्रत्येक व्यवस्था के अंतर्गत यह कोशिश होती है कि सामाजिक सरंचना के विभिन्न तत्वों के बीच सहयोग और एकता की स्थिति हो। समाज के अंतर्गत सामाजिक नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य सामाजिक एकता को बनाये रखना होता है। समाज के अंतर्गत स्तरण या शक्ति के सोपानक्रम का मुख्य उद्देश्य व्यवस्था में एकता बनाये रखना होता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि सामाजिक संरचना जितनी अधिक दुरुस्त होगी, संरचना का प्रकार्य भी उतना ही दुरुस्त होगा। संरचना प्रकार्य को और प्रकार्य संरचना को प्रभावित करता है। दोनों के बीच समन्वय से ही किसी व्यवस्था को लाभ होता है।
Question : प्रतिरूप चर।
(1998)
Answer : सामाजिक संबंधों के द्विभाजन की एक विशिष्ट योजना ‘परिवर्ती प्रतिमान’ के नाम से जानी जाती हैं इस योजना के प्रस्थापक विद्वान टालकट पारसंस रहे हैं। मूलतः यह योजना कर्त्ताओं द्वारा सम्पन्न की जाने वाली अंतर्क्रियाओं के विभिन्न रूपों का अमूर्त प्रदर्शन है। इस योजना के अनुसार कर्त्ता के समक्ष क्रिया अथवा व्यवहार के कुछ वैकल्पिक जोड़े उपलब्ध होते हैं। किसी सामाजिक स्थिति में व्यवहार करने के पूर्व कर्त्ता इन जोड़ो में से किसी एक को अपने व्यवहार के लिए चुनता है। परिवर्ती प्रतिमान की योजना का प्रयोग सामाजिक व्यवस्थाओं अथवा अंतर्क्रिया के प्रतिरूपों, विशेषतः पारम्परिक एवं आधुनिक समाजों की तुलना या भिन्नता प्रकट करने के लिए किया जाता है।
टालकट पारसंस ने पांच प्रकार के प्रतिरूप चरों का प्रयोग किया है, जो निम्नलिखित हैं-
इस विवरण को देखने से पता चलता है कि पारसंस की सामाजिक व्यवस्था एक द्विध्रुवीय विश्लेषण है। उसने बताया कि प्रतिरूप चरों के आधार पर किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को स्पष्टता से समझ सकते हैं। इसके माध्यम से समाज में हम व्यक्ति की भूमिकाओं, मानदंडों, मूल्यों, विभिन्न प्रकार के आदर्शों एवं सामाजिक क्रियाओं को सरलता अथवा गहराई पूर्ण ढंग से समझ सकते हैं।
Question : ‘मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती है, बल्कि इसके विपरीत उनका सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना का निर्धारण किया करता है।’ इस कथन के प्रकाश में उत्पादन विधि के संबंध में कार्ल मार्क्स की धारणा का परीक्षण कीजिए।
(1998)
Answer : कार्ल मार्क्स का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति की कुछ न कुछ भौतिक आवश्यकताएं होती हैं। इन भौतिक आवश्यकताओंकी पूर्ति उस व्यक्ति के लिए आवश्यक है। यदि व्यक्ति अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करेगा तो वह अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकेगा। इसलिए वह इन भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन करता है। मार्क्स का विचार है कि भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए भौतिक शक्तियों का विकास अनिवार्य है। जब अनेक व्यक्ति उत्पादन कार्यों में हिस्सा लेते हैं तो इन व्यक्तियों के बीच संबंधों का स्थापित हो जाना अनिवार्य है। उत्पादन में संलग्न व्यक्तियों के बीच जो स्थापित होते हैं वे इन व्यक्तियों की इच्छाओं पर आधारित न होकर उत्पादन विधियों के विशिष्ट प्रकारों पर आधारित होते हैं। उत्पादन संबंधों का यह समुच्चय ही समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता हैं आर्थिक संरचना के आधार पर ही समाज की राजनीतिक और वैधानिक संरचना बनती है। वैधानिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना के परिणामस्वरूप व्यक्तियों में एक विशिष्ट प्रकार की सामाजिक चेतना का निर्माण होता है। मार्क्स का विचार है कि व्यक्तियों में पाये जाने वाली चेतना उसके अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती है, बल्कि भौतिक अस्तित्व व्यक्तियों की चेतना को निर्धारित करता है। जैसे-जैसे उत्पादन प्रणाली विकसित होती जाती है उत्पादन शक्तियों और उत्पादन संबंधों में संघर्ष होने लगते हैं जिसका अंतिम परिणाम क्रांति के रूप में होता है, इससे समाज की संरचना बदल जाती है।
सामाजिक परिवर्तन क्यों होता है? इसके भौतिक कारण क्या है? व कौन-सी शक्तियां हैं जो समाज की संरचना को परिवर्तित कर देती है? मार्क्स ने इन प्रश्नों के उत्तर में लिखा है कि आर्थिक संरचना ही सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण है। यद्यपि सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक कारण भी सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं किंतु ये गौण होते हैं? मार्क्स ने इतिहास की व्याख्या करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि आदिम साम्यवादी युग से लेकर आधुनिक पूंजीवादी युग तक जो परिवर्तन हुए हैं उनके मूल में समाज की आर्थिक संरचना महत्वपूर्ण रही है। पूंजीवाद के बाद भी समाज में जो नया युग आयेगा उस युग तक समाज को परिवर्तित करने में आर्थिक संरचना की भूमिका ही निश्चित होगी। उसने लिखा है कि ‘प्रत्येक युग में अर्थव्यवस्था के आधार पर जो भिन्न-भिन्न वर्ग पाये जाते रहे हैं और पाये जाते हैं तथा पाये जायेंगे, वे अर्थव्यवस्था पर आधारित होंगे। इसलिए इन दोनों वर्गों में स्वार्थ निरोध होने के कारण संघर्ष अनिवार्यतः होगा और यह संघर्ष समाज को परिवर्तित कर देगा।’ मार्क्स के अनुसार समाज की संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था आर्थिक संरचना का परिणाम होती है। प्रत्येक समाज एक विशिष्ट उत्पादन प्रणाली से संबंधित होता है। मार्क्स ने लिखा है कि समाज आर्थिक व्यवस्था का परिणाम होता है। उसके अनुसार मनुष्य के सभी व्यवहार आर्थिक व्यवहारों से संचालित और निर्देशित होते हैं। संक्षेप में, आर्थिक संबंध समाज की व्यवस्था के स्वरूप का निर्धारण करते हैं।