Question : निम्नलिखित क्या है?
(i)निस्सेट
(ii)जी-एम-आर-टी-
(iii)इनमैस
(1999)
Answer : (i) नेशनल इनफॉर्मेशन सिस्टम फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी (National Information System for Science and Technology)
(ii) जाइन्ट मीटरवेव रेडियो टेलिस्कोप (Giant Metrewave Radio Telescope)
(iii) इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसीन एंड एलाइड साइंसेज (Institute of Nuclear Medicine and Allied Sciences)
Question : भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए निम्नतापी इंजिन (क्रायोजेनिक इंजन) के महत्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
(1992)
Answer : क्रायोजेनिक शब्द का अर्थ निम्न तापमान होता है। दूसरे शब्दों में, शून्य से 150 डिग्री सेल्सियस कम तापमान (-150 डिग्री सेल्सियस) को क्रायोजेनिक तापमान कहा जाता है। क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी के तहत उपग्रह प्रक्षेपण में द्रव हाइड्रोजन एवं द्रव ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है, जो रॉकेट को अधिक शक्ति प्रदान करता है। हाइड्रोजन सबसे हल्की गैस है और यह ऑक्सीजन की उपस्थिति में जलती है। तरल रूप में हाइड्रोजन प्राप्त करने के लिए 250 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है, जबकि ऑक्सीजन-183 डिग्री सेल्सियस पर ही तरह बन जाती है। परंतु इसके लिए बड़ी समस्या गैस को तरल रूप में प्राप्त करने के लिए इतना कम तापमान प्राप्त करने की है। साथ ही, एक बार तरल रूप प्राप्त कर लेने के बाद उस तापमान को बनाये रखना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है।
कम भार वाले अनेक उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण के बाद भारत अब अधिक भार वाले उपग्रह को प्रक्षेपित करने की स्थिति में पहुंच गया है। इस उद्देश्य से उपयोग में लाये जाने वाले प्रक्षेपण यान, पी.एस.एल.वी. के तीसरे चरण तक भारत को सफलता मिल चुकी है। इसके चौथे चरण में क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग होता है, जिसमें 1.8 टन एम.एम.एच. एवं N2O4 प्रणोदकों सहित दो इंजन होते हैं, जो 700 किलोग्राम थ्रस्ट प्रदान करते हैं। इस प्रकार, इस अंतरिक्ष यान के चौथे चरण में उपयोग में लायी जाने वाली क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल अधिक भार (1,000 किलोग्राम से अधिक) वाले उपग्रह को अंतरिक्ष में स्थापित करने के लिए आवश्यक है।
Question : द्रुत प्रजनक रिएक्टर क्या है? भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में इसकी भूमिका का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
(1992)
Answer : द्रुत प्रजनक रिएक्टर प्रौद्योगिकी (एफ.बी.टी.आर.) फ्रांस की रैपसोडी रिएक्टर की डिजाइन पर आधारित है। एफ.बी.टी.आर. में थोरियम 239 (Th239) तथा यूरेनियम 233(U233) का उत्पादन किया जाता है। इन रिएक्टरों में उत्पादित पदार्थों (U239) तथा (U233) कीमात्रा व्यय होने वाले पदार्थों (U238 तथा Th232) से अधिक होती है। एफ.बी.टी.आर. की मुख्य विशेषताएं निम्नवत हैं-
एफ.बी.टी.आर. अनुसंधान और विकास कार्य में भारत में तीन अनुसंधान केंद्र हैं-
I.भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र
II.प्रागत प्रौद्योगिकी केंद्र
III.इंदिरा गांधी परमाणु केंद्र: स्थापित 1971 (कलपक्कम) प्रमुख उपलब्धि देश में निर्मित 15 मेगावॉट का द्रुत प्रजनक रिएक्टर, जिसमें देश में ही विकसित मिश्रित कार्बाइड ईंधन का उपयोग होता है। एफ.बी.टी.आर. के बाद का कदम 500 मेगावॉट क्षमता वाले प्रोटोटाइप एफ.बी.टी.आर. को डिजाइन करने व निर्मित करने पर कार्य जारी है। देश के परमाणु बिजली कार्यक्रम का यह एक उच्च प्रयास है तथा देश में सुलभ थोरियम के भंडारों के सदुपयोग का एक उत्तम रास्ता है।
Question : भारत के प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम की प्रमुख विशेषतायें क्या हैं?
(1992)
Answer : सैन्य शक्ति के महत्व के दृष्टिगत भारत में डॉ. अब्दुल कलाम के नेतृत्व में समन्वित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम को अपनाया गया। प्रक्षेपास्त्र तकनीक का अन्तरिक्ष तकनीक से गहरा संबंध है। 1959 में स्थापित, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान का मुख्य कार्य रॉकेट एवं प्रक्षेपास्त्रों का विकास करना ही है। इन्टीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम (आई.जी.डी.पी.) इस दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। 1983 में शुरू हुए इस कार्यक्रम के अंतर्गत भारत विकास के कई स्तरों को पार कर चुका है। इस कार्यक्रम की प्रमुख उपलब्धियां निम्न प्रक्षेपास्त्र हैं-
Question : भारी जल (हैवी वॉटर) क्या है? यह किसके लिए प्रयुक्त होता है?
(1992)
Answer : भारी जल: ड्यूटेरियम (हाइड्रोजन समस्थानिक ऑक्साइड-D20) भारी जल कहलाता है। इसका उपयोग परमाणु ऊर्जा संयंत्र में भेदक के रूप में किया जाता है। इसके प्रयोग से परमाणु ऊर्जा संयंत्र में न्यूट्रॉनों का वेग काफी कम हो जाता है, जिससे इनके यूरेनियम 238 द्वारा अवशोषित होने की संभावना बिल्कुल कम हो जाती है तथा यूरेनियम 235 के विखंडित होने की संभावना बढ़ जाती है। इसके उपयोग के कारणश्रृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction) चलती रहती है।
Question : निम्न संकेताक्षरों का प्रयोग किसके लिए है?
(i)पी.यू.एफ.ए.
(ii)वी.एच.आर.आर.
(iii)एच.डी.टी.वी.
(1992)
Answer : (i) पी.यू.एफ.ए.: पॉली अनसैटुरेटेड फैटी एसिड
(ii) वी.एच.आर.आर.: वेरी हाई रिजोल्यूशन रेडियोमीटर
(iii) एच.डी.टी.वी.: हाई डिजिटल टेलीविजन
Question : ‘मैत्री’ क्या है?
(1992)
Answer : मैत्री: यह अंटार्कटिका में भारत का दूसरा स्थायी शोध केंद्र है। यहां भू-रासायनिक, मौसम विज्ञान एवं पर्यावरण संबंधी अध्ययन किये जाते हैं।
Question : भूसमकालिक कक्षा में उपग्रह स्थापित करने के क्या लाभ हैं?
(1992)
Answer : उपग्रहों को भूसमकालिक कक्षा में स्थापित करने का अर्थ, उसे ऐसी कक्षा (लगभग 36,000 कि.मी.) में स्थापित करना है, जिसमें उपग्रह का आवर्त्त काल पृथ्वी के अपने कक्ष के परितः घूर्णन काल के बराबर हो। ऐसी स्थिति में, उपग्रह हमेशा एक स्थायी स्थिति में बना रहता है। उपग्रह को भूसमकालिक कक्षा में स्थापित करने से दूरसंचार के क्षेत्र में आमूल परिवर्तन संभव होता है। पृथ्वी से प्रेषित सूचनाओं को उपग्रह द्वारा ग्रहण कर उसे सुदूर क्षेत्रों में आसानी से प्रसारित किया जा सकता है। यही कारण है कि आज दूरसंचार अत्यन्त सहज व सुलभ हो गया है।
Question : एम.आर.आई. क्या है? यह किसके लिए प्रयुक्त होता है?
(1992)
Answer : एम.आर.आई.: चुम्बकीय अनुनाद चित्र (एम.आर.आई.) एक विशेष प्रकार की भौतिक तकनीक है, जिसके तहत वस्तु को स्थानीय रूप से परिवर्तित होने वाले चुम्बकीय क्षेत्र में रख कर उस पर रेडियो आवृत्ति विकिरण के स्पंद डाले जाते हैं तथा इससे प्राप्त न्यूक्लीय चुम्बकीय अनुनाद स्पेट्रा को मिलाकर वस्तु के अनुपरिच्छेदीय चित्र प्राप्त किये जाते हैं। इस तकनीक का उपयोग मस्तिष्क के विभिन्न भागों, मेरुदण्डों एवं शरीर के अन्य संवेदनशील अंगों की विकृतियों के संबंध में अध्ययन करके उनके निदान में किया जाता है।
Question : हाल के वर्षों में नाभिकीय अनुसंधान से संबंधित भारत में किए गए कुछ नए कार्यक्रमों को बताइये।
(1992)
Answer : 1948 में देश में परमाणु ऊर्जा से संबंधित सभी गतिविधियों के नीति-निर्धारण हेतु गठित परमाणु ऊर्जा आयोग निरंतर कार्यशील है। देश में तारापुर, राजस्थान, मद्रास, नरौरा व काकरापारा में परमाणु विद्युत गृह स्थापित हैं तथा रावतभाटा, काकरापारा, कैगा व तारापुर में दाबित भारी पानी रिएक्टर निर्माणाधीन हैं। हाल में देश में परमाणु ऊर्जा व फास्ट ब्रीडर प्रौद्योगिकी, लेसर एवं त्वरकों से संबंधित अनुसंधान और विकास कार्य व संगठन निम्नवत हैं-
Question : भारत में जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई मुख्य उपलब्धियों के बारे में एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें।
(1991)
Answer : भारत भौगोलिक दृष्टिकोण से ट्रौपिकल एवं सब-ट्रौपिकल क्षेत्र के मध्य स्थित है। इसके कारण यहां जैव विविधता का क्षेत्र काफी विस्तृत है। विभिन्न पादप व जीव यहां की प्रमुख विशेषतायें हैं। जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास के लिए भारत काफी सक्षम है। जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा रोगों के निर्धारण की अनेक विधियों से संबंधित अनुसंधान कार्य किये जा रहे हैं। कुष्ठ, टायफॉइड, वायरल हिपैटाइटिस, डायरिया, मलेरिया आदि रोगों के निदान हेतु अनुसंधान कार्य काफी प्रगति पर है। इस क्षेत्र में राष्ट्रीय रोग-रोधन संस्थान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, महात्मा गांधी चिकित्सा संस्थान (वर्धा), कैंसर अनुसंधान संस्थान, मद्रास आदि द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय रोग-रोधन कार्यक्रम के तहत जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा टीका उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए अनेक उल्लेखनीय कार्य किये गये हैं। इस उद्देश्य से विभिन्न सार्वजनिक व निजी कंपनियों द्वारा पोलियो, खसरा, रेबीज, काली खांसी, टिटनेस आदि के टीकों के विकास व उत्पादन में काफी प्रगति की गई है। इतना ही नहीं, जनसंख्या नियंत्रण को सरल बनाने के लिए जनन नियंत्रण टीके का विकास करने में भी जैव प्रौद्योगिकी के उपयोग सराहनीय हैं। इस क्षेत्र में कुछ प्रगति भी हुई है। इसके अलावा भ्रूण स्थानांतरण तकनीक, जल कृषि कार्यक्रम, फसल कृषि पीड़क व रोग नियंत्रण के क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी काफी सहायक रही है।
Question : भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम की प्रगति का निरूपण कीजिए। इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धियां क्या हैं?
(1991)
Answer : भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का शुभारंभ 1963 में हुआ था। कार्यक्रम के प्रारंभिक वर्षों में वायुमंडल की ऊपरी सतह के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित किया गया। 1970 में उपग्रहों के स्वदेशी डिजाइन एवं उपग्रह प्रक्षेपण यानों के विकास पर बल दिया गया। इन प्रयासों के फलस्वरूप मार्च 1975 में 360 किलोग्राम भार का पहला उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया। यह उपग्रह 1980 तक चलता रहा। इसके पश्चात 1981 में दूरसंचार के क्षेत्र में काम आने वाला उपग्रह ‘एप्पल’ अन्तरिक्ष कक्षा में स्थापित किया गया। इसके पूर्व 1979 में भारत के दूसरे उपग्रह भास्कर-I का सफल प्रक्षेपण किया गया। भास्कर-I के अनुभव के लाभ के साथ नवम्बर 1981 में भास्कर-II को प्रक्षेपित किया गया। रोहिणीश्रृंखला का रोहिणी उपग्रह-I भारतीय रॉकेट SLV-3 द्वारा जुलाई 80 में प्रक्षेपित किया गया तथा यह 100 दिन के जीवनकाल को पार करके जुलाई 81 में पृथ्वी के वायुमंडल में पुनर्प्रवेशित हुआ। रोहिणी-II मई 1981 में प्रक्षेपित किया गया तथा केवल 9 दिन ही कक्षा में रहा। 1982 में इनसैट-I ‘ए’ एवं 1983 में इनसैट-I ‘बी’ के प्रक्षेपण के पश्चात स्रोसश्रृंखला का प्रथम उपग्रह ए.एस.एल.वी.-3 की सहायता से 24 मार्च, 1987 को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित किया गया। 1988 में इनसैटश्रृंखला के तीसरे उपग्रह का प्रक्षेपण असफल रहा। इनसैट-I ‘बी’ एवं इनसैट-I ‘डी’ के प्रक्षेपण से रेडियो एवं दूरदर्शन प्रसारण तथा मौसम विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति आ गई। स्वदेश में निर्मित दूरसंवेदी उपग्रह आई.आर.एस.-I ‘ए’ एवं आई.आर.एस.-I ‘बी’ के क्रमशः मार्च 1988 एवं अगस्त 1991 में प्रक्षेपण से प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया। इनसैट-Iश्रृंखला के समापन के बाद इनसैट-IIश्रृंखला के इनसैट-II ‘ए’ और इनसैट-II ‘बी’ के क्रमशः 1992 व 1993 में प्रक्षेपण की तैयारियां की जा रही हैं। वर्ष 1993 में ही तीसरी पीढ़ी के भारतीय प्रक्षेपण यान इसरो द्वारा निर्मित पी.एस.एल.वी. का प्रक्षेपण किया जाएगा। साथ ही, चौथी पीढ़ी के प्रक्षेपण यान जी.एस.एल.वी. तथा सन् 2005 के बाद दूरसंचार सेवाओं के लिए ‘सैटकॉम’श्रृंखला पर भी कार्य किया जा रहा है।
Question : ‘जलशक्ति’ क्या है? इसके विभिन्न उपयोग क्या हैं?
(1991)
Answer : ‘जल शक्ति’ एक अति अवशोषक पॉलीमर है, जो किसी माध्यम की जल वहन क्षमता में वृद्धि करता है। वर्तमान में इसका प्रमुख उपयोग कृषि के क्षेत्र में किया जा रहा है। इसका विकास राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, पुर्ण द्वारा किया गया है। ‘जल शक्ति’ के प्रयोग के अन्य क्षेत्र हैं- औषधि व हाइजिन उत्पाद, नाभिकीय उपउत्पाद का बहाव, तेल व पेट्रोलियम, रसायन व माइनिंग आदि। इसका उपयोग जल मिल (Water Mill) में यांत्रिक ऊर्जा की आपूर्ति हेतु भी किया जाता है। इसके अलावा अनाज तैयार करने, तिलहन बीज तथा गन्ने की पेराई आदि में भी जल शक्ति का उपयोग किया जाता है। वर्तमान में ‘जल शक्ति’ का उपयोग समेकित ग्रामीण ऊर्जा कार्यक्रम के तहत लघु जल परियोजना व माइक्रो हाइड्रो परियोजना में प्रमुखता से किया जा रहा है। भारत की अनुकूल स्थलाकृति के कारण जल शक्ति काफी उपयोगी है। इससे विद्युत निर्माण के दौरान उत्पादकता राशि कम लगती है एवं इसमें उपयोग किये गये उपकरण भी काफी साधारण, सस्ते एवं स्थानीय प्रकार के होते हैं। इस प्रकार, विद्युत उत्पादन सस्ता व सहज होता है। जल शक्ति द्वारा प्राप्त विद्युत ऊर्जा से सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा की मांग काफी हद तक पूरी की जा सकती है।
Question : वर्तमान समय में भारतीय मौसम विज्ञान द्वारा प्रस्तुत किये गये पूर्वानुमान, जो लगातार पिछले तीन वर्षों से उचित रूप में सही उत्तर रहे हैं, का आधार क्या है?
(1991)
Answer : अमेरिका में निर्मित भारत का प्रथम सुपर कंप्यूटर ‘क्रे एक्स-एम.पी.-I वाई’ (Cray-X-MP-1Y) मध्यम रेंज मौसम पूर्वानुमान के लिए एक महत्वपूर्ण यंत्र है। नयी दिल्ली के मौसम भवन में रखा हुआ यही सुपर कंप्यूटर भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा लगाये जाने वाले मौसम संबंधी पूर्वानुमान का प्रमुख आधार है। इसकी सहायता से भारतीय मौसम विभाग द्वारा लगातार तीन वर्षों से किये जा रहे मौसम संबंधी पूर्वानुमान सत्य सिद्ध हो रहे हैं। इस कंप्यूटर का कृषि मौसम संबंधी कार्यक्रम, कृषि कार्यों एवं जल संसाधन व्यवस्थापन में काफी योगदान है। सक्षम ग्लोबल मौसम वैज्ञानिक दूरसंचार पद्धति की सहायता से भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा सुपर कंप्यूटर को मौसम पूर्वानुमान की सुची उपलब्ध करायी जाती है। बादलों की परत एवं वायु वेग पर आधारित महत्वपूर्ण आंकड़े इनसैट पद्धति एवं सुदूर संवेदी (आई.आर.एस.-I ‘ए’ एवं आई.आर.एस.-I ‘बी’) द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं। इसके अलावा सुपर कंप्यूटर क्रे.एक्स.एम. पी-1 वाई द्वारा सही मौसम पूर्वानुमान के लिए आवश्यक गणितीय मॉडल तैयार किया जाता है।
Question : द्विआंगी रासायनिक आयुध क्या है?
(1991)
Answer : द्विआंगी रासायनिक आयुध का इस्तेमाल व्यक्ति को नष्ट करने एवं खाद्य पदार्थ व पेयजल को प्रदूषित करने में किया जाता है। क्लोरीन, फॉस्जीन एवं मस्टर्ड गैस द्विआंगी रासायनिक आयुधों के प्रमुख उदाहरण हैं।
Question : ऊत्तक संवर्द्धन क्या है?
(1991)
Answer : ऊत्तक संवर्द्धन एक तकनीक है, जिसके तहत आवश्यकता के अनुरूप आनुवांशिक रूप से विशुद्ध कोशिकायें, ऊत्तक एवं जैविक अंगों को कृत्रिम तरीके से बनाया जाता है। इस तकनीक द्वारा फसल, पौधे व वनों के पादपों का विकास किया जाता है।
Question : यकृत-शोध ‘ई’ क्या है?
(1991)
Answer : यकृत-शोध ‘ई’ विषाणु द्वारा उत्पन्न होने वाली एक बीमारी है। इसमें विषाणु के कारण यकृत संक्रमित हो जाता है। यकृत-शोध ‘ई’ के लिए कृत्रिम थिरैपी एक उचित उपचार है।
Question : समुद्र की सतह से प्राप्त पॉलीमेटैलिक (बहुधात्विक) सल्फाइड क्या है? प्राप्त विवरण के अनुसार निपेक्षों की सबसे बड़ी उपस्थिति कहां है?
(1991)
Answer : पॉलीमेटैलिक सल्फाइड का संचय मध्य महासागरीय रिफ्रट वैली क्षेत्रों में होता है। गैलापागेस रिफ्रट पद्धति के पास संचय होने वाले इस पॉलीमेटैलिक सल्फाइड में 48 प्रतिशत सल्फर पाया जाता है। इसमें पाये जाने वाले अन्य धातु हैं- आयरन-43 प्रतिशत एवं कॉपर-11 प्रतिशत। इसके अलावा जिंक, टिन, मॉलिब्डेनम, सिल्वर आदि भी कम मात्रा में पाये जाते हैं। इन पॉलीमेटैलिक तत्वों का संचय मध्य हिन्द महासागर में सर्वाधिक होता है।
Question : भारत के मुख्य अपतटीय तेल क्षेत्र का नाम तथा उस एजेंसी को बताइये, जो इसका प्रचालन करती है?
(1991)
Answer : बॉम्बे हाई भारत का मुख्य अपतटीय तेल क्षेत्र है, जिसका संचालन तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग (ONGC) द्वारा होता है।
Question : वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसांधान परिषद ने उद्योग के साथ संपर्क स्थापित करने एवं देशज प्रौद्योगिकी प्रविधियों का विकास करने के लिए अनेक प्रयोगशालाओं को स्थापित किया है। विशिष्ट उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए कि पिछले एक दशक में परिषद की उल्लेखनीय उपब्धियां क्या रहीं?
(1989)
Answer : सन 1942 में एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद का गठन किया गया। डॉ. शांति स्वरूप भटनागर इसके संस्थापक महानिदेशक थे। देश में इसके 39 राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र/संस्थान व 100 विस्तार केंद्र तथा फील्ड केंद्र हैं। परिषद के पास 5 हजार प्रौद्योगिकविद तथा 13 हजार वैज्ञानिक व तकनीकी कर्मचारी हैं।
परिषद ने भारत में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान को प्रोत्साहन देने व इनके समन्वयन का सराहनीय कार्य किया है। इसके वैज्ञानिकों ने उपलब्ध प्रौद्योगिकियों का उचित मूल्यांकन कर उपयुक्त प्रौद्योगिकी चुनने व आयातित प्रौद्योगिकी को भारतीय दशाओं के अनुकूल बदलने व अपनाने का सफलतापूर्वक कार्य किया है। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान के क्षेत्र में परिषद की कुछ मुख्य उपलब्धियां निम्नलिखित हैं-
Question : आठवीं योजना में भारत 38,000 मेगावाट विद्युत शक्ति का उत्पादन तथा वितरण करने की योजना बना रहा है। इन उद्देश्यों की पूर्ति किस प्रकार संभव है? इसमें कौन-कौन से प्रतिबंध आ सकते हैं, जिनका सामना करना पड़े?
(1989)
Answer : देश में विद्युत की मांग और पूर्ति के बीच की खाई को भरने के लिए भारत आठवीं योजना में 38,000 मेगावाट अधिक विद्युत शक्ति का उत्पादन व वितरण करने की योजना बना रहा है। देश में प्रथम योजना के शुरू में मात्र 1,700 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होता था, जो कि सातवीं योजना में 49,300 मेगावाट तक पहुंच गया। लेकिन विद्युत पूर्ति की अपेक्षा मांग कई गुना अधिक बढ़ी। आठवीं योजना के लिए निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति निम्न उद्देश्यों से संभव है-
उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के मार्ग में निम्न प्रतिबंध या कठिनाइयां सामने आ सकती हैं-
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही कृषि तथा उद्योग, दोनों ही क्षेत्रों के विकास में विद्युत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस प्रकार देश में बिजली की खपत की मात्रा को देश की विकास दर की सूचक के रूप में भी देखा जा सकता है। विभिन्न कठिनाइयों के चलते भी आठवीं योजना में विद्युत आपूर्ति में पर्याप्त सुधार हो जाने की आशा की जा सकती है।
Question : समेकित निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम के अंतर्गत भारत द्वारा विकसित तीन प्रक्षेपास्त्रों के नाम बताइये। उनकी सामर्थ्य का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
(1989)
Answer : भारत के तीन समेकित निर्देशित प्रक्षेपास्त्र हैं-
Question : ‘एनाबॉलिक स्टेरॉइड’ क्या होते हैं? एक उदाहरण दीजिए। हाल ही में समाचार-पत्रों में इनकी चर्चा क्यों हुई।
(1989)
Answer : ऐसी शक्तिवद्धक औषधियां, जो मांसपेशियों को शक्ति तथा अतिरिक्त प्रोटीन प्रदान करती हैं, एनाबॉलिक स्टेरॉयड कहलाती हैं। उदाहरणार्थ ‘स्टानाजोलॉल’। विभिन्न खेल प्रतिस्पर्द्धाओं में इस प्रकार की उत्तेजक व शक्तिवर्द्धक औषधियों का प्रयोग वर्जित है। 24वें सियोल ओलम्पिक खेलों में प्रतियोगियों की इस प्रकार की कोशिशों पर रोक लगाने के लिए ‘केमिकल डिटेक्टर’ प्रक्रिया को अपनाया गया। प्रतियोगियों के पेशाब के नमूने लेकर उसका रासायनिक विश्लेषण किया गया। इस प्रकार के परीक्षण के बाद ही बेन जॉनसन (कनाडा) जैसा धावक सियोल में अपना ओलम्पिक स्वर्ण पदक गंवा बैठा।
Question : ‘क्वार्ट्ज घडि़यां’ सही समय कैसे बताती हैं?
(1989)
Answer : क्वार्ट्ज घडि़यों में समय का नियंत्रण क्रिस्टल के कंपनों द्वारा किया जाता है तथा जब इस क्रिस्टल को तानित व संपीड़ित किया जाता है, तो वह एक नियत आवृत्ति से कंपन करता है। प्रत्येक कंपन के साथ क्रिस्टल में उत्पन्न विद्युत संकेत घड़ी के माइक्रोचिप अवयव में आता है तथा यह माइक्रोचिप इन संकेतों की गणना करता है। क्वार्ट्ज क्रिस्टल के कंपनों के आधार पर समय पैमाना सुनिश्चित कर इन घडि़यों को सही समय देने वाली बनाया गया है।
Question : ‘कम्प्यूटर वायरस’ क्या होता है? इसके प्रभाव क्या होते हैं? क्या इसका कोई इलाज है?
(1989)
Answer : कंप्यूटर वायरस एक ऐसा लघु प्रोग्राम है, जो वास्तविक रूप से गुणन करके किसी डिस्क में संग्रहित प्रोग्रामों व आंकड़ोंको नुकसान पहुंचाता है। ऐसी डिस्क, जो कि इस वायरस से संक्रमित हो, का प्रयोग करने पर यह वायरस प्रोग्राम कोड में पहुंच कर मेमोरी में चला जाता है और उस पर अपना नियंत्रण कर लेता है। नयी डिस्क का प्रयोग होने पर यह छिपा हुआ वायरस अपनी एक प्रतिलिपि नयी डिस्क पर अंकित कर लेता है।
वायरस के इस हस्तक्षेप को रोकने के लिए अनेक वैक्सीन प्रोग्राम खोजे गये हैं, लेकिन कोई एक वैक्सीन प्रोगाम सभी वाइरस प्रोग्रामों के प्रति उपयोगी हो, यह आवश्यक नहीं है।
Question : ‘स्टेल्द वायुयान’ से क्या आशय है? इस प्रकार के वायुयान में प्रयुक्त दो स्टेल्द प्रौद्योगिक प्रविधियां बताइये।
(1989)
Answer : ऐसा विमान जो दुश्मन के क्षेत्र, उसके राडार व अन्य खोजी यंत्रों की पकड़ में न आ सके और चुपचाप प्रवेश कर जाये, स्टेल्द विमान कहलाता है। इसका डिजाइन इस प्रकार किया जाता है कि इसका परावर्तित प्रतिबिम्ब राडार पर बहुत छोटा दिखायी पड़े। इसकी सभी उर्ध्वाधर सतहों को लगभग हटा ही दिया जाता है और इसके किनारों को थोड़ा मोड़ दिया जाता है। इसके निर्माण में रडार अवशोषक प्लास्टिकों और पेंटों का प्रयोग किया जाता है।
Question : आधुनिक टेक्नोलॉजी ने मौसम का पूर्वानुमान पहले से अच्छी तरह देने में कैसे योग दिया? इस विषय में भारत में किए गए विशेष प्रयासों का उल्लेख कीजिए?
(1989)
Answer : हाल के कुछ वर्षों में मौसम का पूर्वानुमान व मौसम संबंधी जानकारी पूर्व की अपेक्षा काफी अच्छे ढंग से प्राप्त हो रही है। ऐसा अत्याधुनिक व विकसित तकनीक के कारण ही संभव हुआ है। मौसम संबंधी जानकारी देने के लिए आजकल उपग्रहों का उपयोग किया जा रहा है। भारत के इनसैट उपग्रह द्वारा प्रेषित मेघ प्रतिबिम्बीय आंकड़ों से मौसम संबंधी भविष्यवाणी की जाती है। भारत में मौसम विज्ञान के क्षेत्र में सेवाएं प्रदान करने वाला प्रमुख संगठन भारतीय मौसम विज्ञान विभाग है। देश भर में 1,400 से अधिक एजेंसियां मौसम संबंधी जानकारियां एकत्रित करती हैं तथा विश्लेषण के लिए भारतीय मौसम विज्ञान विभाग को देती हैं। यह विभाग मौसम पूर्वानुमान, राडार मौसम विज्ञान, भूकंप विज्ञान, कृषि मौसम विज्ञान आदि क्षेत्रों में अनुसंधान करता है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है, जबकि इसके क्षेत्रीय कार्यालय बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, नागपुर व नई दिल्ली में हैं। विभिन्न राज्यों की राजधानियों में भी मौसम विज्ञान केंद्र हैं। विभिन्न देशों के साथ मौसम विज्ञान संबंधी आंकडत्रें का आदान-प्रदान उच्च गति से दूरसंचार चैनलों द्वारा होता है। 1979 में आरंभ मानसून प्रयोग विश्वव्यापी वायुमंडलीय अनुसंधान नामक एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन का अंग था। इसका आयोजन विश्व मौसम विज्ञान संगठन व अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक संघ परिषद ने किया था। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने इसमें भाग लिया एवं भारत में मुख्य रूप से भारतीय मौसम विभाग इस परियोजना को चला रहा है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आई.एम.डी.), नई दिल्ली द्वारा स्थापित सुपर कंप्यूटर CRAY-X-MP-14 भी बेहतरी की दिशा में उठाया गया एक कदम है।
Question : नयी प्रौद्योगिकी नीति के उद्देश्य क्या हैं? तकनीकी शिक्षा के प्रतिमान बढ़ाने के लिए क्या-क्या कदम उठाये जा रहे हैं?
(1988)
Answer : ‘लोरोसिस’ एक ऐसी बीमारी है, जो जल में ‘लोरीन’ की अधिकता से उत्पन्न होती है। ‘लोराइड’ इनेमलकोरक (एमीलोब्लास्ट) में विरूपता उत्पन्न करता है तथा दांत जमाने वाले तत्वों में कमी लाता है, जिसके फलस्वरूप दांतों पर भद्दे धब्बे पड़ जाते हैं। इससे कैल्शियम की अधिकता के कारण अस्थि का घनत्व बढ़ता है, अस्थि तत्व असामान्य रूप से संचय होता है एवं लिगामेण्ट तथा इसके जोड़ कठोर एवं अचल हो जाते हैं। कंकालीय ‘लोरोसिस’ की अधिकता प्रमुख रूप से निम्न कारणों पर निर्भर है: पोषण प्रस्थिति, आयु, ग्रहण किया गया भोजन व उसके तत्वों की सांद्रता, वैयक्तिक जीवन प्रतिक्रिया, मौसम संबंधी कारक, जठरांत्र का PH मान। भारत में कुपोषण, कैल्शियम की कमी एवं कठिन शारीरिक परिश्रम के कारण ‘लोरोसिस’के मामलों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। उन क्षेत्रों में भी ‘लोरोसिस’की घटनायें देखने को मिली हैं, जहां आई.पी.पी.एम. द्वारा मान्य लोराइड की मात्रा से कम लोराइड उपलब्ध है। चूंकि एक बार इस रोग के विकसित हो जाने के बाद इसका पूर्ण निदान सम्भव नहीं है, इसलिए यह आवश्यक है कि प्राथमिक स्तर पर ही लोराइड के अंतर्ग्रहण व उन्मूलन हेतु कुओं से जलपूर्ति की जानी चाहिए। रासायनिक विधि द्वारा भी जल को इससे बचाया जा सकता है। अन्य कारक जिन पर नियंत्रण आवश्यक हैं, वे हैं- धूम्रपान, मद्यपान, तंबाकू सेवन तथा अन्य पोषक व खनिज तत्व।
Question : ‘लोरोसिस’ क्या है? उसके हानिकारक परिणामों को न्यूनतम बनाने के लिए क्या किया जा सकता है?
(1988)
Answer : भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था में विकास कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी की आवश्यकता है। देश में पूंजी की अपर्याप्तता के दृष्टिगत विभिन्न क्षेत्रों की जटिल आवश्यकताओं के लिए दिशानिर्देशों की आवश्यकता महसूस की गई। अतः जनवरी 1983 में देश के लिए प्रौद्योगिकी नीति की घोषणा की गई। इस प्रौद्योगिकी नीति का उद्देश्य देश में विद्यमान संसाधनों, विशेषकर मानव संसाधनों का इस प्रकार उपयोग किया जाना है कि सभी वर्गों के लोगों का अधिकतम कल्याण हो सके। इस नीति के प्रमुख लक्ष्यों में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दक्षता एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करना, समुचित रोजगार उपलब्ध करवाना, पारम्परिक योग्यताओं को व्यावसायिक रूप से सफल बनाना, न्यूनतम पूंजी से अधिकतम विकास सुनिश्चित करना, उपकरणों तथा प्रौद्योगिकी को आधुनिकतम बनाना, ऊर्जा संरक्षण व पर्यावरण संरक्षण आदि सम्मिलित हैं। प्रौद्योगिकी नीति कार्यान्वयन के उद्देश्य से देश में जून 1983 में प्रौद्योगिकी नीति कार्यान्वयन समिति का गठन किया गया। 1987 के मध्य में इसकी कार्यावधि पूरी होने पर इसके स्थान पर एक नयी स्वायत्त संस्था ‘प्रौद्योगिकी सूचना पूर्वानुमान एवं मूल्यांकन परिषद’ की स्थापना की गई। प्रौद्योगिकी विकास के संबंध में पूर्व सूचना देने, उसका मूल्यांकन एवं सरकार को निष्पक्ष तथा स्वतंत्र राय उपलब्ध कराने वाली यह परिषद विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत कार्य करती है और देश-विदेश में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रही प्रगति पर नजर रखती है।
तकनीकी शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए विश्वविद्यालय स्तर पर विज्ञान एवं तकनीकी शोध कार्यों तथा योजनाओं का आधुनिकीकरण व विस्तार किया जा रहा है। पांच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम तथा इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी में शोध कार्यों की सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं। सत्रह क्षेत्रीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय विभिन्न इंजीनियरिंग और तकनीकी शाखाओं में शैक्षिक सुविधायें प्रदान कर रहे हैं। देश में फैले विभिन्न सामुदायिक पालिटेकनिकों में ऐसे नवीन पाठ्यक्रमों को शामिल कर पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं, जिनसे वैज्ञानिक रीति से ग्रामीण क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल ग्रामीण विकास में हो सके। विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में आधारभूत शोध कार्यों, विशेषकर स्वास्थ्य व कृषि शोध के लिए उचित अनुदान व वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गई है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (I.C.A.R.) जैसे वैज्ञानिक संस्थान भी प्रशिक्षण तथा अनुसंधान सुविधायें उपलब्ध कराते हैं। देश भर में 26 कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा शैक्षिक कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं।
1986 की नयी शिक्षा नीति में तकनीकी और उच्च शिक्षा में गुणात्मक सुधार तथा माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायिक शिक्षा का रूप देने पर काफी बल दिया गया है। साथ ही, देश में वानिकी शिक्षा पर भी काफी जोर दिया जा रहा है तथा कृषि विश्वविद्यालयों में वानिकी में अनुसंधान सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है।
Question : ‘अल नीनो’ क्या है? भारत के लिए इसकी प्रासंगिकता क्या है?
(1988)
Answer : ‘अल नीनो’पूर्वी प्रशान्त महासागर (पेरू से पश्चिम) में गर्म एवं लवणीय धाराओं की आवर्ती उपस्थिति की घटना से संबंधित है। यह भारत की ओर आने वाले मानसून को कमजोर करता है।
Question : ‘कॉम्पैक्ट डिस्क’ क्या है?
(1988)
Answer : कॉम्पैक्ट डिस्क, डिजिटल ऑडियो डिस्क सिस्टम से संबंधित है। यह ध्वनि संकेतों को द्विचर अंकों (Binary Digits) में परिवर्तित करता है, जो एक प्रकाशीय डिस्क पर अंकित होता है।
Question : जीन चिकित्सा (Gene Therapy) का क्या तात्पर्य है? इसके क्या-क्या उपयोग हैं?
(1988)
Answer : जीन चिकित्सा की विधि पुनः जुड़ने वाली तकनीक (जीन में ऐसा गुण पाया जाता है) का विस्तार है, जिसे किसी बीमारी को ठीक करने के काम लाया जाता है। खून की बीमारियों, प्रोटीन संश्लेषण, कचरे से प्रोटीन की प्राप्ति और फरमेन्टेशन में इस विधि का उपयोग होता है।
Question : अधिक आवाज होने के क्या बुरे प्रभाव हैं?
(1988)
Answer : अधिक आवाज एक प्रकार का प्रदूषण है, जिससे श्रवण शक्ति को हमेशा के लिए खोना पड़ सकता है। यह गर्भस्थ शिशुओं को भी प्रभावित करता है। इसके अन्य बुरे प्रभाव हैं- मानसिक तनाव, निद्रा में बेचैनी, स्वर में बदलाव इत्यादि।
Question : जैव प्रौद्योगिकी (बायो-टेक्नोलॉजी) के विकास से सूक्ष्म प्राणियों का विकास हुआ है, जो पहले प्रकृति में अज्ञान थे। इनका क्या उपयोग है?
(1988)
Answer : इन सूक्ष्म जीवों का उपयोग एंटीबायोटिक के उत्पादन (बीमारियों को दूर करने के लिए), औद्योगिक कचरे के शुद्धिकरण, विषैले प्रदूषण को रोकने और भोजन को सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है।
Question : भारत में विज्ञान संग्रहालयों के क्रमिक विकास का परिचय दीजिए। जनसाधारण में वैज्ञानिक बोध तथा भावना और वैज्ञानिक अनुसंधान की भावना पैदा करने में उनकी भूमिका का परीक्षण कीजिए।
(1988)
Answer : सर विलियम जोंस ने 1789 ई. में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। इससे आम लोगों में वैज्ञानिक अनुसंधान की भावना का विकास हुआ। इस सोसाइटी ने 1866 ई. में इण्डियन म्यूजियम की स्थापना कलकत्ता में की। यह सोसाइटी भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, भूगर्भशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान से संबंधित पत्र प्रकाशित करती थी। इससे भारत में विज्ञान के विकास में काफी मदद मिली। 1956 में यूनेस्को की मदद से राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी) की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य विकसित उपकरण तैयार करना और रुचिकर तथा निर्देश देने वाली सामग्री तैयार करना था, जिससे विशेष अध्ययन और लोक जागरूकता को बढ़ावा मिले। इसके बाद विश्वेश्वरैया औद्योगिक और प्रौद्योगिकी संग्रहालय (बंगलौर), नेहरू साइंस सेंटर (बम्बई), बिड़ला औद्योगिक और प्रौद्योगिकी संग्रहालय (कलकत्ता) आदि की स्थापना की गई। राज्य सरकारों ने भी अनेक विज्ञान संग्रहालयों की स्थापना की। ये सभी कलकत्ता स्थित राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद (नेशनल काउंसिल ऑफ साइंस म्यूजियम) के प्रशासन के अधीन आते हैं, जिनकी स्थापना संस्कृति विभाग ने की थी। राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद 1987 से कार्यरत एक स्वायत्त संस्था है, जो विज्ञान की लोकप्रियता बढ़ाने में उपरोक्त संस्थाओं को मदद देती है। यह संस्था देश के विभिन्न भागों में विज्ञान संस्थाओं के निर्माण का कार्य करती है। इसकी मदद से एक दशक के अंदर ही पुरुलिया, धरमपुर, तिरुनालवेली, पटना और बम्बई में विज्ञान संग्रहालयों की स्थापना हुई है। यह संस्था बच्चों, विद्यार्थियों, शिक्षकों, ग्रामीणों, गृहिणियों और बेरोजगारों के लिए विविध प्रकार के शैक्षणिक कार्यक्रम नियमित तौर पर चलाती है।
Question : समन्वित नाशक जीव नियंत्रण प्रबंधन क्या है? देश में इसकी नवीनतम प्रस्थिति के संबंध में विवेचना कीजिए।
(1988)
Answer : समन्वित नाशक जीव नियंत्रण प्रबंधन (Integrated Pest Control Management, IPM) विभिन्न नाशक जीव नियंत्रण प्रविधियों का समन्वित रूप है, जिसका प्रमुख उद्देश्य देश में नाशक जीवों द्वारा उत्पादनों में हुई हानियों को कम किया जाना है। इस नाशक जीव प्रविधियों के तहत पारिस्थितिक उपादानों का अधिकतम प्रयोग किया जाता है। इसके तहत नाशक जीवों का नियंत्रण जैव विधियों द्वारा किया जाता है। एग्रोनॉमिक समायोजन तथा सूक्ष्म जलवायु परिवर्तन द्वारा नाशक जीवों (Pests) पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। रोगरहित उच्च गुणवत्ता के प्रामाणिक बीज का कृषि में उपयोग, रोग नियंत्रण का एक मूलभूत साधन है। फसल हानि को कम करने में नाशक जीव (पेस्ट) प्रतिरोधक प्रजातियों का उपयोग किया जाना नाशक जीव नियंत्रण प्रबंधन का मूलभूत कार्यक्रम है। जीन प्रत्यारोपण, प्रजातीय मोजेइक आदि प्रविधियां (किसी प्रजाति के जीवनकाल को बढ़ाने में सहायक होती है। आई.पी.एम. की कार्यनीति के अंतर्गत पादप पर आधारित पेस्टीसाइड, यथा- नीम केक एवं इनका डेरीवेटिव, नाशक जीवों को अलग करने के लिए ट्रैप फसल एवं पेस्ट नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत अन्य यांत्रिक प्रविधियों एवं प्रकाश ट्रैप का भी उपयोग किया जाता है। आई.पी.एम. की सफलताओं में चावल, गन्ने, कपास, साइट्रस फल एवं अनेक सब्जियों के पैकेजिंग प्रमुख हैं। आई.पी.एम. के तहत देश में पाइरिला, गन्ने का तना छेदक, धान की फसल का तना छेदक आदि पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया गया है। वर्तमान में देश के 22 राज्यों एवं एक केंद्र शासित प्रदेश में 25 केंद्रीय समन्वित पेस्ट प्रबंधन केंद्र कार्यरत हैं।
केंद्रीय समन्वित पेस्ट प्रबंधन केंद्रों के प्रमुख कार्य निम्नवत हैं-
Question : कम्प्यूटरों में अतिसंवाहकों (सुपर कंडक्टरों) का अनुप्रयोग किस रूप में होता है?
(1990)
Answer : 1911 में नीदरलैंड के वैज्ञानिक हाइके कामरलिंघ ओनिस ने अपने एक प्रयोग में विभिनन पदार्थों के विद्युत प्रवाह के विरूद्ध तापमान के प्रतिरोध में होने वाले परिवर्तन का अध्ययन करते समय परम शून्य (4.2 केल्विन) से कुछ अधिक ताप पर प्रतिरोध के शून्य (चालकता अत्यधिक) हो जाने की खोज की। इस आश्चर्यजनक उपलब्धि के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। विश्व के विभिन्न देशों में अतिचालक संबंधी अनुसंधान कार्य निरंतर हो रहे हैं। अतिचालकों के प्रयोग से विभिन्न यंत्रों उपकरणों की क्षमता में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। शक्ति केंद्रोंमें उत्पादित ऊर्जा को विद्युत धारा के रूप में उपभोक्ता के पास पहुंचाने में चालक तारों द्वारा काफी ऊर्जा ऊष्मा के रूप में व्यर्थ हो जाती है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक ऐसे चालकों का पता लगाने के लिए प्रयासरत हैं, जिनमें विद्युत धारा विरूद्ध प्रतिरोध शून्य हो। अतिचालक कुंडली द्वारा उत्पन्न शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र की सहायता से पटरियों पर रेलगाडि़यों को स्पर्श किये बिना अत्यधिक तीव्र गति से चलाने के प्रयोग भी हो रहे हैं। अतिचालक पदार्थों ने कम्प्यूटर के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। कंप्यूटर में उपयोग होने वाले अर्द्धचालकों में इलेक्ट्रॉनों का प्रवाह बहुत धीमी गति से होता था। इन अर्द्धचालकों की तुलना में अतिचालकों में इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह का वेग सौ गुना से भी अधिक है और कंप्यूटर की क्षमता भी सौ गुना से अधिक बढ़ गई है। कंप्यूटर का माइक्रोप्रोसेसर, जो कि उसके सभी कार्यों पर नियंत्रण रखता है, भी अतिचालकों से बनाया जा रहा है। इस क्रांतिकारी खोज ने सस्ते कंप्यूटरों के युग को शुरू किया है।
अभी तक अतिचालकता प्राप्त करने का एक ही साधन है- निम्न ताप। लेकिन निम्न ताप बनाये रखना काफी महंगा पड़ता है। इसके विकल्प के रूप में साधारण ताप पर ही अतिचालकता प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रारंभ में, अतिचालकता केवल 4 अंश केल्विन (हीलियम के द्रवणांक) पर ही प्राप्त होना संभव था, लेकिन निरंतर अनुसंधान के चलते यह ताप 100 अंश केल्विन तक पहुंच गया है। 1973 तक तापमान केवल 23 अंश केल्विन ही बढ़ाया जा सका था, लेकिन आई.बी.एम. की ज्यूरिख प्रयोगशाला के कार्ल एलेक्स म्यूलर ने इसे सिरैमिक पदार्थों पर प्रयोग करके 35 अंश केल्विन तक पहुंचा दिया। जापानी व चीनी वैज्ञानिकों ने मूलर के प्रयोगको दोहरा कर 38 अंश केल्विन तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की। होस्टन विश्वविद्यालय के पॉल सी.चू पहले कैल्शियम तथा बाद में लैन्थेनम के प्रयोगों से तापमान को 52 अंश तक बढ़ाने में सफल रहे। उनके शिष्य मा-कुएन वू ने ट्रिटियम का प्रयोग करके अतिचालकता को पहले 93 अंश तथा बाद में 95 अंश पर पहुंचा दिया। इस प्रकार, विश्व के सभी देश साधारण ताप पर अतिचालक प्राप्त करने के लिए अनुसंधान कार्य में संलग्न हैं। नवीनतम दावों के अनुसार, शून्य प्रतिरोध के लिए अनिवार्य तापमान को 240 अंश केल्विन तक पहुंचा दिया गया है। इस प्रकार, पृथ्वी पर बिना किसी प्रशीतक यंत्र के अतिचालन संभव है। वर्तमान में प्रयोग किये जाने वाले सिरैमिक पदार्थों का दोष उनकी भंगुरता है। अतः इन पदार्थों को उपयोगी आकार (जैसे-तार) देना कठिन है। सीसा मिलाकर इन्हें लचीला व नमनीय बनाने के प्रयास भी किये जा रहे हैं। साथ ही, एक्सकिरणों व न्यूट्रॉन आदि द्वारा भौतिकविद पदार्थों की संरचना का अध्ययन कर रहे हैं, जिससे अतिचालकता का रहस्य सुलझ सके।
Question : क्षेत्रीय विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग पर करीमनगर में किये गये प्रयोगों को संक्षेप में समझाइये।
(1990)
Answer : 1971 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) ने अपने विकासात्मक प्रयोग के अंतर्गत आंध्र प्रदेश के करीमनगर जनपद को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उपयोग से विकसित करने के लिए मॉडल के रूप में चुना। यह एक ऐसी परियोजना है, जिसमें किसी चयनित क्षेत्र का विज्ञान व प्रौद्योगिकी के उपयोग से समयबद्ध सर्वांगीण विकास किया जाता है। करीमनगर परियोजना में सी.एस.आई.आर. के अलावा विभिन्न सरकारी विभागों तथा अनुसंधान व विकास संस्थानों, जैसे केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (FTRI) व नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन, हैदराबाद आदि का सहयोग लिया गया। यह परियोजना सात वर्ष तक चली तथा इसकी सफलता को देखते हुए सरकार ने इसे नियमित रूप से अपना लिया।
लगभग 12,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले करीमनगर जनपद को उसके विकास के लिए मिलने वाली राशि से इस परियोजना को परिचालित किया जा रहा है। परियोजना के अन्तर्गत संसाधनों के समुचित उपयोग के लिए इस क्षेत्र के भू-आकृतिक, भू-जल वैज्ञानिक तथा वन व मृदा संबंधी मानचित्र तैयार किये गये। परियोजना के तहत आधुनिक चावल मिलों के निर्माण, मिलों की दक्षता बढ़ाने व जांच-परख में सहायता की गई, कृषि उत्पादों के सुरक्षित संचयन की विधि का प्रदर्शन, पेस्ट प्रूफिंग मशीनें प्रदान की गयीं, अण्डा पाउडर संभरण संयंत्र की स्थापना व पॉल्ट्री फीड मिक्सिंग संयंत्र की स्थापना आदि कार्य किये गये। परियोजना के अन्तर्गत प्रांतीय अनुसंधान प्रयोगशाला ने स्थानीय स्थिति का परीक्षण करने के बाद सड़क निर्माण, सस्ते आवासों के निर्माण, ग्रामीण पेयजल की व्यवस्था, बायो गैस संयंत्रों के निर्माण, शुष्क फसलों की खेती पर अधिक ध्यान देना व तालाब पोषित चावल वैज्ञानिक प्रशिक्षण, लघु उद्योगों की स्थापना, बीजों की उपलब्धता, खाद उपलब्धता व कृषि विकास आदि जैसे क्षेत्रों को भी शामिल किया। इन सभी का उद्देश्य छोटे-छोटे उपक्षेत्र चुन कर विज्ञान व प्रौद्योगिकी के सहयोग से उनका त्वरित विकास करना है। वास्तव में, इस परियोजना का उद्देश्य सरकार व स्थानीय लोगों के बीच सहयोगपूर्ण संबंध स्थापित करके सस्ती प्रौद्योगिकी द्वारा विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना है।
Question : भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने चेतावनी दी है कि एड्स की भयंकर बीमारी अगले कुछ वर्षों में भारत में भी फैल सकती है। एड्स पर नियंत्रण पाने के लिए क्या-क्या उपाय अनुशंसित हैं?
(1990)
Answer : एड्स अर्थात एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिसिएन्सी सिन्ड्रोम (AIDS) एक वायरस जनित रोग है। भारत में एड्स का रोगी सर्वप्रथम 9 जून, 1989 को मिला था। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के सर्वेक्षण के अनुसार, मार्च 1990 तक भारत में 4,432 एड्स रोगियों का पता चला था, जिसमें 2,167 रोगी एच.आई.वी. वायरस से संक्रमित थे। इसके कारण संक्रमित व्यक्ति की रोगों से प्रतिरोध करने की शक्ति कम हो जाती है। एड्स को नियंत्रित करने के लिए संस्तुत प्रमुख बचाव निम्नलिखित हैं-
Question : ‘बी.वी.ओ.’ (B.V.O.) पर परिचयात्मक टिप्पणी लिखिये। इसके प्रयोग के विरोध में अपने तर्क प्रस्तुत कीजिए।
(1990)
Answer : बी.वी.ओ. एक मिश्रित कर्मक (Emulsifying Agent) है, जिसका पूरा नाम ब्रोमीनेटेड वेजीटेबल ऑयल है। यह मूंगफली व सूरजमुखी के तेल से प्राप्त किया जाता है तथा शीतल पेय पदार्थों में इसे सुगन्ध उत्पन्न करने के प्रयोजनार्थ उपयोग में लाया जाता है। इसके उपयोग से पेय की गुणवत्ता नियंत्रित रहती है। वेजीटेबल ऑयल में ब्रोमीन मिलाने पर ऑयल का घनत्व जल की तुलना में बढ़ जाता है तथा तेल का रासायनिक संघटन बदल जाता है। खोजों से ज्ञात हुआ है कि बी.वी.ओ. स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अतः 1970 के बाद इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बी.वी.ओ. से हल्का नशा उत्पन्न होता है तथा यह शरीर के ऊत्तकों में प्रवेश कर जाता है। यह शारीरिक विकास को अवरूद्ध करता है, जनन प्रक्रिया अवयवों को प्रभावित करता है, गुर्दों को हानि पहुंचाता है, बहरेपन में वृद्धि करता है तथा कैंसर उत्पन्न करने में सहायक होता है। अतः सुरक्षा की दृष्टि से भारत में अप्रैल 1990 में इसे पूर्ण प्रतिबंधित कर दिया गया तथा अब इसके विकल्प के रूप में इस्टर्गम (Estergum) का प्रयोग हो रहा है। भारत सरकार ने ऐसे कई पेय पदार्थों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिनमें बी.वी.ओ. का प्रयोग होता था।
Question : आवृत्ति मूर्च्छना (फ्रीक्वेन्सी मॉड्यूलेशन) क्या है?
(1990)
Answer : वाक् या संगीत में श्रव्य आवृत्तियों (20 से 20,000 चक्र प्रति से. परास) की ध्वनि आवृत्ति मूर्च्छना होती है। इन श्रव्य आवृत्तियों को अधिक दूर तक प्रसारित करने के लिए उच्च आवृत्ति की तरंगें आवश्यक हैं, जो कि वाहक तरंगें कहलाती हैं। इस कार्य हेतु वाहक तरंगों की आवृत्ति/आयाम को, प्रेषित की जाने वाली श्रव्य आवृत्ति में परिवर्तित कर लेते हैं। इस प्रकार, जिस प्रक्रिया से यह कार्य सम्पन्न होता है, वह प्रेषित की जाने वाली तरंग का मूर्च्छना कहलाता है।
Question : नाभिकीय अवपात (Nuclear Fallout) से आप क्या समझते हैं? उसका हानिकारक प्रभाव क्या होता है?
(1990)
Answer : नाभिकीय विस्फोट में मिट्टी या जल के कणों के साथ मिलकर संग्रहित द्रव्य अनगिनत छोटे-बड़े नाभिकीय अवशेष के रूप में वातावरण में दूर-दूर तक फैल जाते हैं। ये नाभिकीय अवशेष वायुमंडल में काफी लम्बे समय तक बने रह सकते हैं। वर्षा या अन्य साधनों द्वारा ये धीरे-धीरे पृथ्वी पर गिरते रहते हैं। इन रेडियोधर्मी अवशेषों के पृथ्वी पर गिरने की प्रक्रिया नाभिकीय अवपात कहलाती है।
नाभिकीय अवपात जहां जीवन की अवधि को कम करता है, वहीं यह प्राणियों की प्रजनन क्षमता तथा सामान्य क्रियाओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। मनुष्य के यकृत, गुर्दे, हड्डियों, थाइरॉयड आदि में ये रेडियोधर्मी पदार्थ एकत्रित होते रहते हैं तथा मोतियाबिन्द व कैंसर जैसे रोगों को जन्म देते हैं।
Question : फोटोनिकी क्या होती है? इसके अनुप्रयोग के कुछ क्षेत्र बताइये।
(1990)
Answer : प्रकाशीय और इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी के आपस में मिलने से बना क्षेत्र फोटोनिकी कहलाता है। इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी से प्रभावित होने वाला फोटोनिकी एक प्रमुख क्षेत्र है। फोटोनिकी के प्रयोग से फोटोनिकी प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वाले क्षेत्रों की क्षमता में काफी वृद्धि होती है। प्रकाशिक इलेक्ट्रॉनिक प्रदर्शन, लेजर, मशीन विजन, प्रकाशीय स्विचिंग, तन्तु प्रकाशिकी, प्रकाशीय आंकड़ों का संचयन, विजन इनफॉर्मेटिक्स, होलोग्राफी व प्रतिबिम्ब निर्माण आदि इसके क्षेत्रन्तर्गत आते हैं। कंप्यूटर, दूरसंचार, संवेदक, रक्षा उपकरण आदि फोटोनिकी का उपयोग करने वाले प्रमुख क्षेत्र हैं।
Question : ‘क्वांटम जंप’ शब्द को समझाइये।
(1990)
Answer : किसी तत्व के परमाणु निश्चित ऊर्जा की मात्रा ही ग्रहण कर सकते हैं तथा अलग-अलग तत्वों के परमाणुओं की ऊर्जा ग्रहण करने की शक्ति अलग-अलग होती है। सामान्य रूप से सभी परमाणु अपनी निम्नतम ऊर्जा स्थिति में रहते हैं, लेकिन किसी कारणवश उन्हें बाहर से ऊर्जा प्राप्ति की स्थिति में ये निम्न ऊर्जा स्तर को त्याग कर उच्च ऊर्जा स्तर में चले जाते हैं। परमाणु की यह उत्तेजित अवस्था बहुत अल्पकाल के लिए ही होती है तथा वह शीघ्र वापस अपने पूर्व स्तर पर लौट आता है। परमाणु उत्तेजना के परिणामस्वरूप हुई उपभोक्त क्रिया ही उसकी क्वांटम जम्प कहलाती है।
Question : राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (एन.सी.एल.) ने पादप प्रजनन (प्लांट जेनेटिक्स) के क्षेत्र में जो विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त की है, उसके महत्व को समझाइये।
(1990)
Answer : राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने ऊत्तक संवर्द्धन तकनीक द्वारा बायोमास उत्पादन पर अनुसंधान करके एक जटिल रसायन का विश्लेषण किया, जिसके प्रयोग से फसलों में तेजी से वृद्धि होती है। ब्रासीनोलाइड नामक यह रसायन अत्यन्त क्रियाशील रसायन है तथा इससे पौधों का विकास शीघ्रता से होता है।
Question : आयोडीन की कमी से कौन-सी बीमारियां पैदा होती हैं? भारत में इस समस्या से निपटने के लिए क्या उपाय किये जा रहे हैं?
(1994)
Answer : राष्ट्रीय घेघा नियंत्रण कार्यक्रम (1955), जिसे अब नेशनल आयोडीन डिफिशिएन्सी डिसॉर्डर कंट्रोल में परिवर्तित कर दिया गया है, राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जा रहा है। 1986 में इस कार्यक्रम को 20 सूत्री कार्यक्रम में शामिल किया गया। तब से केंद्र तथा राज्य सरकारों के अलावा विभिन्न राष्ट्रीय संगठनों द्वारा आयोडीन की कमी की समस्या को दूर करने के लिए गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं। यूनिसेफ भी इसके लिए भारत में कई योजनाएं चला रही है। देश में आयोडीन युक्त नमक को छोड़ कर अन्य नमक की बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया गया है। विभिन्न राज्यों में निर्माता कंपनियों को आयोडीनयुक्त नमक बनाने का लाइसेंस दिया गया है तथा संचार माध्यमों से जनता को इस बारे में बताया जा रहा है आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों की रोकथाम, विश्लेषण एवं पहचान करने के लिए प्रयोगशालाओं का गठन किया गया है। इसे एक राष्ट्रीय मिशन का स्वरूप देकर बेहतर तरीके से क्रियान्वित किया जा रहा है।
मनुष्य के शरीर में आयोडीन की आवश्यकता एक मूलभूत तत्व के रूप में होती है। प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को औसतन 50 मिलीग्राम आयोडीन की आवश्यकता होती है। इससे कम मात्रा में आयोडीन की पूर्ति होने पर व्यक्ति को ग्वायटर (गलगंड) नामक रोग हो जाता है, जिसमें थाइरॉयड नामक ग्रंथि बढ़ जाती है। इसके फलस्वरूप शारीरिक वृद्धि, बहरापन, मानसिक विक्षिप्तता, मंदबुद्धि होना इत्यादि अनेक विषमताएं पैदा होती हैं। थाइरॉयड ग्रंथि को आयोडीन की आवश्यकता होती है।
आयोडीन की कमी से बच्चों का सामान्य रूप से विकास नहीं हो पाता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में 54.3 मिलियन लोग ग्वायटर रोग से और 8.8 मिलियन लोग मानसिक विक्षिप्तता या मंदबुद्धि से पीड़ित हैं। इस रोग से पीड़ित लोगों की संख्या पूर्वोत्तर भारत में सर्वाधिक है।
Question : भारत के नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम के विभिन्न आवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
(1994)
Answer : भारत में परमाणु कार्यक्रम की शुरूआत आजादी के बाद से ही मानी जा सकती है, क्योंकि परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए ‘परमाणु ऊर्जा आयोग’ का गठन 1948 में ही किया गया। वर्ष 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना की गई। वर्ष 1957 में ट्रॉम्बे में ‘परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान’ की स्थापना की गई। परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान के अंतर्गत प्लूटोनियम संयंत्र वर्ष 1964 में चालू किया गया। वर्ष 1967 में परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान ट्रॉम्बे का नया नामकरण ‘भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (B.A.R.C) रखा गया। वर्ष 1969 में तारापुर संयंत्र से व्यावसायिक रूप से उत्पादन शुरू हो गया। वर्ष 1970 में पहली बार प्रदीप्त थोरियम से यूरेनियम-233 का वियोजन संभव हो सका। फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों में प्लूटोनियम के कारगर इस्तेमाल से यूरेनियम का पूर्ण उपयोग संभव हो पाया है। 1972 में प्लूटोनियम ईंधन वाली तीव्र भट्टी राजस्थान में चालू की गई तथा 1983 में परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड की स्थापना हुई। 1991 में नगौरा शक्ति परियोजना की दूसरी इकाई एवं 1992 में काकरापार परमाणु विद्युत की प्रथम इकाई सफल रूप से चालू हो गई।
Question : उच्च ताप वाले अतिचालक क्या हैं? उनके महत्वपूर्ण प्रयोग बतलाइये।
(1994)
Answer : विद्युत उत्पादन के पश्चात उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में ऐसा देखा गया है कि जितनी मात्रा में विद्युत उत्पादित होती है, उसकी उतनी मात्रा दूसरी जगह तक नहीं पहुंच पाती है। इस प्रकार, विद्युत की कुछ मात्रा का ह्रास हो जाता है। यह ह्रास प्रयुक्त तारों के धातुओं में विद्यमान प्रतिरोध, तारों की लंबाई-मोटाई, वातावरण, ऊष्मा इत्यादि के कारण होता है। इस संबंध में वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार, चालकों में उत्पन्न प्रतिरोध चालक को न्यूनतम तापक्रम शून्य डिग्री केल्विन (-273ºC) पर लाने के बाद समाप्त हो जाता है और चालक अतिचालक के रूप में कार्य करने लगता है। लेकिन पृथ्वी पर इस तरह के तापक्रम को समान रूप से बनाये रखना अत्यन्त मुश्किल है। अतः इस सिद्धांत का पता लगने के बावजूद वैज्ञानिक अभी तक ऐसे अतिचालक की खोज कर पाने में विफल ही रहे हैं, जो उच्च ताप पर कार्य करने में भी सक्षम हों। अब तक केवल 4.2 डिग्री केल्विन तापक्रम पर ही अतिचालक बनाये जा सके हैं। इस प्रकार के चालक को इसी तापमान पर द्रवित हीलियम में पूर्णतः बंद करके रखा जाता है। इसके उदाहरण जापान की प्रोटोटाइप ट्रेन, परमाणु संलयन में काम आने वाली चुम्बकीय बोतल इत्यादि हैं। लेकिन इस प्रकार की व्यवस्था में खर्च बहुत अधिक आता है। अतः वैज्ञानिक उच्च ताप पर अतिचालक बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हैं।
भारत में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में उच्च तापवाले अतिचालक के निर्माण के लिए अनुसंधान चल रहा है। केंद्र की अब तक की उपलब्धियों में हीलियम यौगिक द्वारा एक अतिचालक विकसित किया गया है, जो 129 केल्विन ताप पर भी कार्य करता है। भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर के वैज्ञानिकों ने भी एक त्रिविमीय कॉपर ऑक्साइड अतिचालक की खोज की है।
Question : ‘डी.एन.ए. अंगुलिचिह्न’ क्या है? इस क्षेत्र में भारत का कौन-सा शोध संस्थान काम कर रहा है?
(1994)
Answer : डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट (अंगुलिचिह्न) तकनीक आने के बाद अपराधियों के विरूद्ध जांच में एक नयी क्रांति का सूत्रपात हुआ है तथा वास्तविक अपराधी को पकड़ने के लिए पुलिस इस तकनीक का उपयोग करने लगी है। जीव विज्ञानियों के अनुसार किन्हीं भी दो व्यक्तियों की डी.एन.ए. संरचना एक समान नहीं होती है। इस तकनीक के जरिये अपराधियों के माता-पिता या बच्चों में डी.एन.ए. की संरचना के अध्ययन के बाद सच्चाई का पता लगाया जाता है। मानवीय शरीर में प्रवाहित होने वाले रक्त और वीर्य में काफी मात्रा में डी.एन.ए. पाया जाता है। जिस तरह अंगुलियों से प्राप्त चिह्न में एक विशेष प्रकार की पंक्तिबद्धता होती है, उसी प्रकार की पंक्तिबद्धता डी.एन.ए.श्रृंखला में भी होती है। इसी कारण इस तकनीक का नाम डी.एन.ए. फिंगर प्रिन्ट रखा गया।
भारत में सबसे पहले हैदराबाद स्थित कोशिकीय एवं आणविक प्राणि विज्ञान केंद्र तथा केंद्रीय अपराध विज्ञान प्रयोगशाला में इससे संबंधित अनुसंधान कार्य 1998 में शुरू किये गये। डी.एन.ए. परीक्षण के लिए हैदराबाद में एक विशेष केंद्र स्थापित किया गया है।
Question : ‘एनसाइलाइट्स’ क्या है?
(1994)
Answer : एनसाइलाइट्स एक प्रकार का उत्प्रेरक है, जिसका उपयोग पैराजाइलोन, ओलिफिन और इथाइल बेन्जीन के उत्पादन में होता है। इन उत्पादों का उपयोग पॉलीएस्टर, प्लास्टिक एवं फाइबर बनाने में होता है। एनसाइलाइट्स का उत्पादन राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, पुणे में किया जाता है।
Question : ‘एस्कॉन’ क्या है?
(1994)
Answer : आर्मी एटेटिक स्विच्ड कम्युनिकेशन नेटवर्क को 17 अगस्त 94 को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को समर्पित कर दिया। आई.टी.आई.लि. तथा सेना के कोर ऑफ सिगनल्स के सहयोग से स्थापित यह संचार प्रणाली पूरी तरह से स्वदेशी एवं स्वचालित है।
Question : दाब विद्युत किसे कहते हैं?
(1994)
Answer : जब किसी विद्युत क्रिस्टल पर कोई यांत्रिक दबाव डाला जाता है, तो उसके फलस्वरूप जो दाब उत्पन्न होता है, उसे ही विद्युत दाब कहते हैं।
Question : निम्नलिखित का क्या मतलब है?
(i)सी.डी.ए.सी.
(ii)एस.आर.ओ.एस.एस.
(iii)आई.एन.एस.डी.ओ.सी.
(1994)
Answer : (i) सी.डी.ए.सी.: का पूरा नाम सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड पैरेलल कंप्यूटिंग है। इस केंद्र की स्थापना भारत में सुपर कंप्यूटर विकसित करने के लिए की गई। इसी केंद्र द्वारा 256 स्पंद (नोड्स) का सुपर कंप्यूटर विकसित किया गया है।
(ii) एस.आर.ओ.एस.एस. का पूरा नाम स्ट्रेण्ड रोहिणी सैटेलाइट सीरीज है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा अंतरिक्ष में छोड़े गये रोहिणी श्रृंखला के उपग्रह को ही सा्रैस (एस.आर.ओ.एस.एस.) कहा जाता है।
(iii) भारत सरकार द्वारा स्थापित इण्डियन नेशनल साइन्टिफिक डॉक्यूमेन्टेशन सेंटर वैज्ञानिक सूचनाएं और अनुसंधान रिपोर्ट विभिन्न संस्थाओं को उपलब्ध कराता है।
Question : ‘शूमेकर लेवी-9’ क्या है? हाल में इसकी क्यों चर्चा हुई है।
(1994)
Answer : शूमेकर लेवी-9 एक धूमकेतु है, जिसे सबसे पहले अमेरिकी वैज्ञानिक यजीन शूमेकर एवं डेविड एच- लेवी ने कैलिफोर्निया की पालयार वेधशाला में देखा था। इन दोनों वैज्ञानिकों के नाम पर ही इस धूमकेतु का नाम शूमेकर लेवी-9 रखा गया।
शूमेकर लेवी-9 के 21 टुकड़े 17 जुलाई से 22 जुलाई, 1994 के बीच बृहस्पति ग्रह से टकराये, जिसके कारण यह चर्चा में रहा।
Question : पित्रैक (जीन) क्या है? यह कहां पाया जाता है?
(1994)
Answer : संतान को अपने माता-पिता से जो गुणसूत्र प्राप्त होने हैं, उनमें सबसे अधिक अंश डी.एन.एन. का ही होता है। इस डी.एन.ए. के एक भाग में आनुवांशिक कूट उपलब्ध रहता है, जिसे पित्रैक या जीन कहते हैं। जीन में प्राणियों के समान आकृति उत्पन्न करने, जीवधारियों के शरीर में होने वाली अनेक क्रियाओं को प्रारंभ और नियंत्रित करने आदि की क्षमता होती है। ये प्राणियों की कोशिका के केंद्रक में पाये जाने वाले गुणसूत्रें में उपलब्ध होते हैं।
Question : सुपर कंप्यूटर क्या है? भारत में सुपर कंप्यूटर के विकास का वर्णन कीजिए।
(1993)
Answer : सुपर कंप्यूटर एक विशेष प्रकार का कंप्यूटर है, जो कि सामान्य कंप्यूटरों से लाखों गुना अधिक तेजी से गणनायें कर सकता है। इसे एक स्वतंत्र बहु-भण्डारण प्रणाली भी कहा जा सकता है। इससे पी.सी., वैक्स, सन और वी.एम.ई. पर आधारित अन्य प्रणालियों की अभिकलन क्षमता बढ़ जाती है। कंप्यूटरों के चार शक्तिशाली स्तर होते हैं यथा- माइक्रो, मिनी, मेनफ्रेम एवं सुपर। वस्तुतः मेनफ्रेम एवं सुपर कंप्यूटर के बीच कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं है। सुपर कंप्यूटर आंकड़ों को ग्रहण करने, उन्हें संशोधित करने, विश्लेशित करने व परिणाम प्रस्तुत करने के अलावा आंकड़ों के बीच परस्पर संबंधों को भी स्पष्ट करता है। सुपर कंप्यूटरों का उपयोग मौसम की जानकारी, भूकंप का स्वरूप जानने, मोटर गाडि़यों एवं विमानों का डिजाइन तैयार करने, प्रक्षेपास्त्र एवं परमाणु बम की कार्यक्षमता का निर्धारण करने आदि जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में किया जाता है।
भारत में प्रथम सुपर कंप्यूटर क्रे एक्स.एम. पी-/216 (Cray X-MP/216) मार्च’89 में मौसम विभाग में स्थापित किया गया। यह सुपर कंप्यूटर अमेरिका को काफी बड़ी रकम अदा करके लाया गया था। भारतीय वैज्ञानिकों ने अपने प्रयासों से 1988 में पुणे में सी-डैक संस्थान की स्थापना की तथा तीन वर्ष के अंदर ही व्यावसायिक स्तर का 256 नोड्स वाला ‘परम’ पैरलल सुपर कंप्यूटर तैयार कर लिया। इसके द्वारा मौसम की भविष्यवाणी 3 से 7 दिन पूर्व ही की जा सकती है। आज भारत में कई तरह के सुपर कंप्यूटर बन रहे हैं यथा परम, फ्रलोसॉल्वर, पेस आदि। इन सुपर कंप्यूटरों का मूल्य अमेरिकी सुपर कंप्यूटरों की अपेक्षा काफी कम है। ‘फ्रलोसॉल्वर’ सुपर कंप्यूटर का विकास बंगलौर की नेशनल ऐरोनॉटिकल लेबोरेट्रीज ने किया है, जबकि सामरिक महत्व के सुपर कंप्यूटर ‘पेस’ में 128 माइक्रोप्रोसेसर स्थापित हैं, जो अमेरिकी क्रे एक्स—एम.पी. के समतुल्य गणनायें कर सकते हैं। इसके अलावा बंगलौर के विज्ञान संस्थान द्वारा ‘मल्टी माइक्रो’, मुम्बई आई.आई.टी. द्वारा ‘मैक’व भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर द्वारा भी एक सुपर कंप्यूटर तैयार किया गया है। आज भारत में उच्च संसाधन क्षमता वाली डेस्क टॉप प्रणालियों का उत्पादन देश में ही हो रहा है तथा 50 मेगा हर्ट्ज से अधिक गति वाली व 5 एम.आई.पी.एस. से अधिक संसाधन क्षमता से युक्त मानक सूक्ष्म प्रोसेसर पर आधारित कंप्यूटर प्रणाली प्रस्तुत की गई है। सी-डैक ने ‘पारस’श्रृंखला का समानांतर प्रोग्राम परिवेश प्रस्तुत किया है।
Question : आनुवांशिक संरक्षण क्या है? भारत में आनुवांशिक संरक्षण गतिविधियों की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(1993)
Answer : जीव अभियांत्रिकी की सहायता से प्राकृतिक जैविक विविधता का संरक्षण कर पाना संभव नहीं होता है। इस समस्या के समाधान के लिए ‘जीन बैंक’की स्थापना की जाती है। जीन बैंक में उत्तम नस्ल के पौधों, पशुओं व अन्य दुर्लभ जीवों के आनुवांशिक जींस को संरक्षित रखा जाता है।
वर्तमान विश्व जनसंख्या परिदृश्य में तीव्र गति से होने वाले फैलाव व वृद्धि को देखते हुए मनुष्य द्वारा फसलों की श्रेष्ठतम प्रजातियों के उपयोग को ही प्राथमिकता दी जा रही है। इस प्रकार, मनुष्य द्वारा सिर्फ उन्नत किस्म की प्रजातियों की कृषि की प्रवृत्ति ने दूसरी अन्य अनेक प्रजातियों को लुप्त होने के कगार पर पहुंचा दिया है। अतः ऐसी प्रजातियों के संरक्षण हेतु इनका जीन संरक्षण आवश्यक हो गया था। उन्नत प्रजाति के पौधों एवं पशुओं के जर्मप्लाज्म ‘जीन बैंकों’ में संरक्षित होने की स्थिति में भविष्य में लुप्तप्राय वन या पशु संपदा को पुनर्स्थापित कर पाना संभव हो सकता है। इसके द्वारा बंजर व ऊसर भूमि को कृषि योग्य बनाने तथा कृषि वानिकी कार्यक्रमों में अमूल्य सहयोग मिलेगा। अतः आनुवांशिक संरक्षण के माध्यम से वर्त्तमान में पृथ्वी पर उपलब्ध विभिन्न प्रजातियों की जैव विविधता व उनके आनुवांशिक पदार्थ को समुचित मात्रा में संरक्षित किया जा सकता है।
भारत सरकार ने भी जीन संरक्षण की महती आवश्यकता को समझा है तथा इसकी व्यावहारिक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए इस दिशा में अनेक कदम उठाये हैं। आंध्र प्रदेश के पातनचेरुस्थान पर ‘आई.सी.आर.आई.एस.ए.टी. (ICRISAT) नामक जीन बैंक की स्थापना की गई है। इसमें विभिन्न प्रजातियों के जर्मप्लाज्म संसाधनों का संरक्षण किया जाता है। तिरुवनंतपुरम व नयी दिल्ली में इस उद्देश्य के निहितार्थ राष्ट्रीय पादप जीन संसाधन संस्थान (एन.बी.पी.जी.आर.-NBPGR) स्थापित किया गया है। साथ ही, लखनऊ में भी केंद्रीय औषधीय और सुगंधित पौध संस्थान नामक जीन बैंक स्थापित किया गया है। पिछले दिनों विकासशील देशों के संगठन समूह-15 के कुआलालम्पुर सम्मेलन (1990) में भी भारत को जीन बैंक स्थापित करने का दायित्व दिया गया है। भारत इस जीन बैंक का संयोजक होने के नाते एशियाई क्षेत्रों पर नियंत्रण रखता है। इसके लिए एक संयुक्त ‘निधि ट्रस्ट’ का निर्माण किया गया है, जिसका उद्देश्य सदस्य देशों में संयुक्त अनुसंधान परियोजना, सूचना प्रसारण एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना है। चूंकि उष्ण तथा उपोष्ण क्षेत्र में पड़ने वाले देशों में जैव विविधता पायी जाती है, अतः विश्व के पादप प्रजनक अपेक्षाकृत अधिक विकसित फसल प्रजाति को विकसित करने के लिए इन क्षेत्रों पर काफी हद तक निर्भर करते हैं।
Question : भारतीय रक्षा वैज्ञानिकों की प्रौद्योगिकी विकास में उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
(1993)
Answer : 1980 में गठित रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डी.आर.डी.ओ.) की अनुसंधानात्मक गतिविधियां देश में स्थित उसकी 47 प्रयोगशालाओं व प्रतिष्ठानों द्वारा संचालित होती हैं। डी.आर.डी.ओ. का मुख्य कार्य रॉकेट, प्रक्षेपास्त्र व अन्य सुरक्षा उपकरणों का विकास करना है। 1983 में आरंभ किया गया इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम (आई.जी.एम.डी.पी.) इस दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। 800 करोड़ रुपये की लागत वाले इस कार्यक्रम के तहत ‘पृथ्वी’, ‘अग्नि’, ‘त्रिशुल’ ‘आकाश’ व ‘नाग’ नामक पांच मिसाइलों का सफलतापूर्वक विकास किया गया है। ‘पृथ्वी सतह से सतह तक मार करने वाली अत्याधुनिक मिसाइल है तथा अनेक सफल परीक्षण के बाद अब इसे सेना में शामिल किया जा रहा है। ‘अग्नि’ के विकास से भारत बैलिस्टिक मिसाइल निर्माण की क्षमता रखने वाले 6 देशों की श्रेणी में आ गया है। युद्धक टैंक ‘अर्जुन’ थल सेना में शामिल किया जा चुका है। चालकविहीन लक्ष्य लक्ष्य भेदी विभाग ‘लक्ष्य’ का उत्पादन शुरू हो चुका है तथा कम ऊंचाई पर उड़ने वाले विमानों को चेतावनी देने वाला परिष्कृत राडार ‘इंद्र’ भी सफलतापूर्वक विकसित कर सेना में शामिल कर लिया गया है। इस संगठन की कुछ अन्य उल्लेखनीय सफलतायें हैं: बहुनाल रॉकेट प्रणाली - ‘पिनाका’, भारतीय फल्ड गन एम.के. I एवं II, पुल बिछाने वाला टैंक ‘कार्तिक’, वायु प्रमोचक रॉकेट, पावर्ड मिसाइल टारगेट, पुनः उपयोग में लाया जाने वाला रॉकेट पैड, फील्ड आर्टीलरी राडार, हाई तकनीकी ई. डब्ल्यू. प्रणालियां, क्लस्टर शास्त्र प्रणालियां, सेना की रात में लड़ने की क्षमता बढ़ाने वाला 81 मि.मी. प्रदीपक गोला-बारूद, सुरंग बिछे क्षेत्र को साफ करने वाला विस्फोटक आदि। साथ ही, लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्रट (एल.सी.ए.) गैस टरबाइन इंजर, चालक रहित लक्ष्य भेदी यान (पी.टी.ए.) आदि के विकास पर भी डी.आर.डी.ओ. के रक्षा वैज्ञानिक कार्य कर रहे हैं। पनडुब्बियों व समुद्री जहाजों को नष्ट करने के लिए समुद्री सुरंगों का निर्माण अंतिम चरण में है। डी.आर.डी.ओ. के सहयोगी संस्थान-रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशाला, हैदराबाद ने गाइडेड मिसाइल की विभिन्न उप-पद्धतियों को ढांचा प्रदान करने, विकिसत करने व परीक्षण करने के लिए आवश्यक तकनीक को आधार बनाये रखने का कार्य किया है।
Question : आयुर्विज्ञान में जैव प्रौद्योगिकी किस प्रकार उपयोगी हो रही है, कुछ वर्तमान उदाहरण दीजिए।
(1993)
Answer : वर्तमान वैज्ञानिक युग में मानव ने अपनी क्षमता यहां तक विकसित कर ली है कि वह सजीवों के शरीर की रचना को भी एक सीमा तक इच्छानुसार संशोधित कर सकता है। इसका माध्यम है- विज्ञान की तीव्र गति से विकसित होती जा रही शाखा, जिसे जैव प्रौद्योगिकी (Bio-Technology) कहा जाता है। इसके अंतर्गत सूक्ष्म जीवाणुओं व विषाणुओं का अध्ययन किया जाता है। जैव प्रौद्योगिकी के अंतर्गत वे सभी क्षेत्र आते हैं, जो सजीवों तथा उनसे प्राप्त पदार्थों के कृषि या उद्योग में उपयोग के लिए विकसित किये गये हैं। इन तकनीकों के प्रमुख उदाहरण हैं- जैव उर्वरक, जैवीय गैस, ऊत्तक संवर्द्धन, जीन अभियांत्रिकी, भ्रूण प्रतिरोपण, परखनली शिशु आदि। चिकित्सा के क्षेत्र में इस प्रौद्योगिकी का उपयोग जीन अभियांत्रिकी व कोशिका संवर्द्धन में अधिक होता है। जीन अभियांत्रिकी द्वारा न केवल जीनों के स्वरूप में संशोधन करके जीवों के आकार, आकृति, गुणों आदि को बदला जा सकता है, बल्कि पूर्णतः नवीन प्रकार के जीवों का भी निर्माण किया जा सकता है। कोशिका संलयन विधि के उपयोग से विषाणु, जीवाणु व अन्य सूक्ष्म जीवों से उत्पन्न होने वाली बीमारियों के निदान की राह में काफी सफलता मिल सकती है। ऊतक संवर्द्धन द्वारा रोगाणुओं पर शीघ्र नियंत्रण के प्रयास किये जा रहे हैं। मलेरिया की रोकथाम हेतु परजीवी बैंक की स्थापना की जा रही है, जिससे प्रयोगशालाओं में इनका संवर्द्धन करके अनुसंधान कार्य किया जा सके। विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज के विकास द्वारा मस्तिष्क ट्यूमर के उपचार के प्रयास किये जा रहे हैं। कैंसर व अन्य स्वप्रतिरक्षणहीनता वाली बीमारियों के उपचार हेतु लिपोजोम्स व एन्टीबॉडीज को संवाहक के रूप में प्रयोग करने के प्रयास भी हो रहे हैं। बीटा एच.सी.जी. व ओ.एफ.एच.एस. नामक दो प्रजनन निरोधक टीकों का हाल ही में विकास हुआ है। सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा इंसुलिन भी बनाया गया है, जो कि मधुमेह के उपचार में उपयोगी है। मस्तिष्क ज्वर, पोलियो, खसरा, रेबीज, काली खांसी, टिटेनस, मलेरिया, कैंसर एवं एच.आई.वी. संक्रमण की खोज व उपचार हेतु टीके विकसित किये गये हैं। ब्लड कैंसर में अस्थि मज्जा प्रत्योपण के खतरों को कम करना, ट्यूमर इलाज की पहचान करना, रक्त वर्ग प्रतिजन, ऊत्तक संगतता, प्रजनन, वीर्य प्रतिजन, खून के थक्के जमना व मानव प्रजनन क्षमता में बेहतरी लाना जैव प्रौद्योगिकी के कारण ही संभव हो पाया है। इस प्रौद्योगिकी द्वारा विटामिन-बी-12 का निर्माण किया जा सकता है। विटामिन बी-12 को प्रोपियोनिक जीवाणु के किण्वन के दौरान बनाया जा सकता है।
Question : सी.डी.-रोम (CD-ROM) क्या है? सूचना प्रसार के माध्यम के रूप में इसकी मुख्य श्रेष्ठताओं का वर्णन कीजिए।
(1993)
Answer : सी.डी.-रोम (CD-ROM): इसका पूरा नाम चेंज डाइरेक्ट्री रूट - रीड ओनली मेमोरी (Change Directory Route-Read Only Memory) है। CD-ROM एक ऐसी कंप्यूटर पद्धति है, जिसके द्वारा शिक्षाशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, तकनीशियनों, प्रशासकों, नीति निर्माताओं, उद्यमियों या फिर प्रबंधकों आदि को कंप्यूटर प्रोग्राम पर सूचना, जानकारी या आंकड़े उपलब्ध कराये जाते हैं। ROM (Read only Memory) एक स्थायी स्मृति (मेमोरी) भण्डार होता है, जो विद्युत आपूर्ति समाप्त होने पर भी लोप नहीं होता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी हेतु राष्ट्रीय सूचना प्रणाली (निस्सात-NISSAT or National Informatics System for Science and Technology) योजना के अंतर्गत स्थापित CD-ROM केंद्र का काम सूचनाओं (तथ्यात्मक व संख्यात्मक) को प्राप्त करके उनका मूल्यांकन, विश्लेषण व समन्वयन करना है।
Question : आर.डी.एक्स. (RDX) किससे बना है? हाल में यह क्यों चर्चा का विषय बना रहा है?
(1993)
Answer : आर.डी.एक्स (RDX): इसका इसका पूरा नाम रिसर्च डेवलपमेंट एक्सप्लोसिव है तथा यह अति विस्फोटक व घातक रासायनिक पदार्थ है। इसका रासायनिक नाम ‘साइक्लो ट्राई मिथिलीन ट्राई नाइट्रेमाइन’ है। इसे साइक्लोनाइट, हेक्साजन या ‘टी-फोर’ नाम से भी जाना जाता है। यह एक उच्च स्तर का प्लास्टिक विस्फोटक है, जो फॉरमल्डिहाइड और अमोनिया के संघनन पदार्थ के नाइट्रेशन द्वारा बनाया जाता है। क्रिस्टल जैसे सफेद रंग का यह कठोर पदार्थ पानी में अघुलनशील है तथा ठोकने या पीटने पर इसमें विस्फोट हो जाता है। इसकी क्षमता टी-एन-टी- के साथ और अधिक घातक हो जाती है। आर.डी.एक्स. की खोज 1899 में जर्मनी के हेन्स हेनिंग ने की थी। जर्मनी में इसे हेक्सोजन और इटली में टी-फोर कहा जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध में इसका काफी प्रयोग हुआ था तथा अमेरिका में इसका सर्वाधिक उत्पादन होता है।
मुंबई में 12 मार्च, 1993 को 13 स्थानों पर और कलकत्ता के बहु बाजार में 16 मार्च, 1993 को हुए भीषण बम विस्फोटों में आर.डी.एक्स. का ही प्रयोग किया गया था। उल्लेखनीय है कि इन बम विस्फोटों में बम्बई व कलकत्ता में क्रमशः 300 व 60 व्यक्ति मारे गये थे तथा सैकड़ों लोग घायल हुए थे। यह आर.डी.एक्स., आई.एस.आई. (पाकिस्तान) के इशारे पर दाऊद इब्राहिम व टाइगर मेमन द्वारा लाया गया था।
Question : ई-लैम्प क्या है? इसके मुख्य लाभ क्या हैं?
(1993)
Answer : ई-लैम्प: 20 हजार घंटे से भी अधिक समय तक जलने पर भी फ्रयूज न होने वाला एक विद्युत बल्ब है। इसमें 75 प्रतिशत से भी कम विद्युत व्यय होती है ततथा यह सामान्य बल्बों के सर्किट में भी लगाया जा सकता है।
Question : डी-पी-टी- वैक्सीन क्या है? इसका प्रयोग किसलिए किया जाता है?
(1993)
Answer : डी.पी.टी. वैक्सीन: गलघोंटू (डिप्थीरिया), काली खांसी (परट्यूसिस) व टिटनेस इन तीन रोगों की रोकथाम के लिए लगाया जाने वाला एक टीका है। यह छह सप्ताह से अधिक आयु वाले शिशुओं को लगाया जाता है।
Question : कृत्रिम (Synthetic) बीज क्या है?
(1993)
Answer : कृत्रिम बीज: एक ऐसा दैहिक भ्रूण, जो संरचना व गुणों में वास्तविक बीज के ही सदृश्य हो तथा एक सुरक्षित आवरण से लिपटा हुआ हो।
Question : जेट धारा रेखाएं क्या हैं?
(1993)
Answer : जेट धारा रेखाएं: ऐसी परिध्रुवीय पवन धाराएं, जो क्षोभमण्डल की ऊपरी सतहों में पश्चिम से पूर्व की ओर तेज गति से बहती हैं। ये धाराएं पछुआ हवा की पेटी के ऊपर के भाग में जमीन से 6 हजार से 9 हजार मीटर की ऊंचाई पर दोनों गोलाद्धों में पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं। वर्षा, हिम वर्षा, तूफान, चक्रवात, तडि़त, टॉरनेडो, झंझावात आदि पर इनका सीधा प्रभाव पड़ता है।
Question : निम्नलिखित संकेताक्षरों का प्रयोग किसके लिए है?
(i) अनुराग (ANURAG)
(ii) एच.वी.डी.सी.
(iii) जी.एम.आर.टी.
(1993)
Answer : (i) अनुराग (ANURAG): एडवॉस्ड नुमेरिकल रिसर्च एंड एनालिसिस ग्रुप
(ii) एच.वी.डी.सी. (HVDC): हाई वोल्टेज डायरेक्ट करेंट
(iii) जी.एम.आर.टी. (GMRT): जॉयन्ट मीटरवेव रेडियो टेलीस्कोप
Question : दूरस्थ संवेदन क्या है? भारत में दूरस्थ संवेदन की स्थिति का वर्णन कीजिए।
(1993)
Answer : दूरस्थ संवेदन या सुदूर संवेदन ऐसी नवीनतम वैज्ञानिक प्रणाली है, जिसके द्वारा पृथ्वी की ध्रुवीय कक्षा में स्थापित उपग्रह पर लगे कैमरों की सहायता से पृथ्वी की सतह व सतह के नीचे के चित्र प्राप्त किए जाते हैं। इस प्रकार से प्राप्त चित्रों का विश्लेषण निम्न क्षेत्रों में उपयोगी होता है - सूखा व बाढ़ की पूर्व चेतावनी व क्षति का मूल्यांकन, भू-उपयोग व भू-आवरण के बारे में विभिन्न जानकारियां, मौसम के अनुसार खेती की योजना बनाने, फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल व उत्पादन का आकलन करने, बंजर भूमि प्रबंधन व विकास कार्य, जल संसाधनों का प्रबंधन व विकास कार्य, बर्फ के गलने व बहने की भविष्यवाणी कार्य, भूमिगत जल की खोज करने, खनिजों की खोज करने, मत्स्य पालन का विकास करने व वन संसाधनों के सर्वक्षण संबंधी कार्यों में।
भारत ने अपने दूर संवेदी उपग्रह आई.आर.एस. - 1ए तथा आई.आर.एस. - 1बी को क्रमशः मार्च ‘88 व अगस्त 91’ में अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक स्थापित किया। इन उपग्रहों से प्राप्त चित्रों व आंकड़ों का विश्लेषण करने व उन्हें विभिनन उपयोगकर्त्ता संस्थाओं को उपलब्ध कराने के लिए देश में अनेक केंद्र स्थापित किए गए हैं। देश में अनेक संस्थाओं द्वारा दूरस्थ संवेदन के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है। अभी तक देश में लगभग 5,500 वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों को प्रशिक्षित किया जा चुका है तथा प्रत्येक वर्ष लगभग 800 व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद द्वारा सीनियर सेकेण्डरी स्तर पर सुदूर संवेदन पाठ्यक्रम को आरंभ करने का भी प्रस्ताव है। आठवीं योजना के दौरान ही आई.आर.एस.-1सी तथा आई.आर.एस.-1डी को अंतरिक्ष में स्थापित किए जाने की योजना है।
Question : ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट क्या है? उसके महत्व की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(1999)
Answer : ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ (Human Genome Project) वस्तुतः मानवीय जीनों (Genes) के परिरक्षण तथा विकास से संबंधित एक बहुआयामी परियोजना है। इसके तहत मानव के जीनों में वैज्ञानिक प्रतिविधियों की मदद से लगातार सुधार लाने तथा उसे और भी अधिक स्वस्थ बनाये रखने की कोशिश की जाती है। ‘जीन’ वह आनुवंशिक पदार्थ होता है, जिसके द्वारा माता-पिता से गुणों का संरचण उनकी संतानों में होता है। भारत ‘मानव जेनेटिक्स’ के अध्ययन के लिए एक अदभुत प्रयोगशाला माना जाता है, क्योंकि इस तरह की जेनेटिक विविधता विश्व में और कहीं नहीं मिल पाती है। भारत में 4,800 से ऊपर जातियां तथा जनजातियां मौजूद हैं, जिसके चलते इनके जीनों में काफी विविधता पायी जाती है। यह विविधता ही जेनेटिक अनुसंधान की कच्ची सामग्री होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किसी जीन के अनुपयुक्त होने अथवा अवांछित पाये जाने पर उसे इस परियोजना के तहत अधिक गुणकारी तथा उपयुक्त बनाने में मदद मिलती है। इस परियोजना से मानवीय रोगों (खासकर, आनुवंशिक रोगों) के निदान तथा स्वस्थ एवं अधिक उपयुक्त जीनों को उत्पन्न करने में मदद मिल सकती है।
Question : कार्बन डेटिंग क्या है? पुरातत्व विज्ञान में इसके अनुप्रयोग की व्याख्या कीजिए।
(1999)
Answer : मृत पेड़ पौधों एवं प्राचीन वस्तुओं की आयु, उनमें उपस्थित कार्बन आइसोटोप (6C14) के क्षय होने की दर निकालकर, ज्ञात करने की विधि को ‘कार्बन आयु अंकन’ (Carbon Dating) कहते हैं। अंतरिक्ष से आने वाली कॉस्मिक किरणों में उपस्थित न्यूट्रॉन (on1) तथा वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन परमाणु (7N14) के टकराने पर कार्बन का आइसोओप (6C14) बनता है।
7N14 On1 !® 6C14 +1 H1
(6C14) रेडियो सक्रिय होता है, जो वायुमंडल की ऑक्सीजन को अवशोषित करके Co2 में मिलता रहता है। वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड (Co2) में साधारण कार्बन (6C12) तथा रेडियो सक्रिय कार्बन (6C14) का अनुपात 1012:1 होता है। सभी पेड़-पौध वायुमंडल में Co2 ग्रहण करते हैं, अतः जीवित पेड़-पौधों में भी 6C12 तथा 6C14 का अनुपात 1012:1 ही होता है। जब पेड़-पौधे की मृत्यु हो जाती है, तो उनमें उपस्थित 6C12की मात्रा तो वही बनी रहती है, परंतु 6C14का स्वतः विघटन प्रारंभ हो जाता है।
6C14 7N14 + b + E
इस प्रकार 6c14, 0.155 Mev ऊर्जा का b कण उत्सजित करके पुनः 7N14 में बदल जाता है। कार्बन आइसोटोप (6C14) की अर्द्ध-आयु (Half-life period) 5,730 वर्ष होती है। समय के साथ इसकी विघटन दर घटती जाती है। इस प्रकार, यदि हम मृत पेड़-पौधों अथवा जानवरों में उपस्थित 6C14 की सक्रियता माप लें, तो उसकी आयु की गणना की जा सकती है। पुरातत्व विज्ञान में इस रूप में इसका व्यापक प्रयोग होता है।
Question : बायोसेन्सर क्या हैं? उनके उपयोग की व्याख्या कीजिए।
(1999)
Answer : बायोसेंसर (Biosensor) एक ऐसा चिकित्सा उपकरण होता है, जिसके माध्यम से कुछ संक्रामक रोगों, यथा-टायफॉयड, मलेरिया, डेंगू, टी.बी. आदि का तत्काल ही पता लगाया जा सकता है। इस उपकरण का विकास भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), नयी दिल्ली की डॉ. स्नेहा आनंद ने किया था। इसका चिकित्सकीय परीक्षण राष्ट्रीय संक्रामक रोग संस्थान ने किया था। यह उपकरण उपयोग में इतना सरल है कि इसे किसी ग्रामीण चिकित्सा केंद्र में भी रखा जा सकता है।
Question : फास्ट ब्रीडर रिएक्टर क्या है? भारतीय सन्दर्भ में उसकी उपयुक्तता पर टीका कीजिये।
(1999)
Answer : फास्ट ब्रीडर रिएक्टर (एफ.बी.आर.) भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के द्वितीय चरण का द्योतक है। इस रिएक्टर के लिए उपयुक्त ईंधन यूरेनियम-प्लूटोनियम ऑक्साइड के मिश्रण से तेयार किया जाता है। इसमेंश्रृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction) को तेज न्यूट्रॉन द्वारा जारी रखा जाता है, जिसके कारण ताप रिएक्टर (Thermal Reactor) की अपेक्षा इसमें अधिक संख्या में न्यूट्रॉन का उत्सर्जन होता है। इसमें शीतलक (Coolant) के रूप में सोडियम का उपयोग किया जाता है तथा रेडियो सक्रिय पदार्थों का बहुत कम उत्सर्जन हो पाता है।
कलपक्कम (तमिलनाडु) स्थित इंदिरा गांधी अनुसंधान केंद्र में इसका सफलतापूर्वक संचालन प्रारंभ हो चुका है। यद्यपि परीक्षण के तौर पर ऐसा रिएक्टर लगाया जा चुका है, परंतु व्यावसायिक स्तर पर इससे बिजली पैदा नहीं की जा सकी है। दरअसल, इन रिएक्टरों के लिए यूरेनियम जैसे प्राथमिक ईंधनों की जरूरत नहीं होती है, बल्कि यूरेनियम से चलने वाले ताप रिएक्टरों में प्रयुक्त ईंधन से उत्पन्न प्लूटोनियम की आवश्यकता होती है। यह नाभिकीय शस्त्रों में भी प्रयुक्त होता है। अतः बड़ी मात्रा में इसका उत्पादन एवं संग्रहण काफी जटिल है।
वर्तमान में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में परमाणु विखंडन प्रक्रिया (Nuclear Fission Reaction) का उपयोग किया जाता है। भारत के पास पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक यूरेनियम उपलब्ध है, परंतु इसे संवर्द्धित करने के साधन नहीं हैं। मुक्त किये गये शेष ईंधन में पर्याप्त मात्रा में विखंडन पदार्थ मौजूद रहता है, जिससे इसकी प्राप्ति लाभप्रद होती है। ब्रीडर रिएक्टर उपयोग किये जाने वाले ईंधन से अधिक विखंड्य पदार्थ देता है। परमाणु विखंडन से भी उपयोगी ऊर्जा की प्राप्ति संभव है, परंतु इसके लिए काफी उच्च तापक्रम की जरूरत होती है तथा इससे प्राप्त ऊर्जा को नियंत्रित करना भी मुश्किल होता है।
इस प्रकार, यद्यपि वर्तमान परिस्थितियों में भारत ने फास्ट ब्रीडर रिएक्टर की स्थापवना कर ली है, परंतु कई तरह की समस्याओं यथा- वैज्ञानिक तकनीक के अभाव, अंतरराष्ट्रीय दबाव आदि के चलते इसे अपनी इस योजना को बढ़ाने में दिक्कतें पेश आ रही हैं।
Question : ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टेम (जी.पी.एस.) क्या है?
(1999)
Answer : ‘ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम’ (जी.पी.एस.) नामक उपकरण वस्तुतः एक सरल अभिग्राही (Receiver) होता है, जो उपग्रहों से संकेत प्राप्त कर किसी यान अथवा स्थल की सही स्थिति दर्शाता है।
Question : भारत का अत्याधुनिक व्यापारिक उपग्रह इनसेट-2 ई कहां से प्रस्थापित किया गया था?
(1999)
Answer : भारत का अत्याधुनिक व्यापारिक उपग्रह इनसेट-2 ई दक्षिण अमेरिका में स्थित फ्रेंच गुयाना के कौरू अंतरिक्ष केंद्र से छोड़ा गया था।
Question : एक मोडेम क्या है? वह किसमें प्रयुक्त होता है?
(1999)
Answer : मोडेम (MODEM) वस्तुतः Modulator/Demodulator का संक्षिप्त रूप है। यह एक ऐसी प्रविधि है, जो डिजिटल आंकड़ों को प्रसारित करती है तथा जिसे मानक आवाज अथवा टेलीफोन के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। इसका प्रयोग रेडियो प्रसारण तथा कंप्यूटर को किसी अन्य प्रविधि (Device) से जोड़ने में किया जाता है।
Question : कंप्यूटर वायरस क्या है? वह किस प्रकार एक प्रणाली को अनुदूषित करता है?
(1999)
Answer : ‘कंप्यूटर वायरस’ वस्तुतः एक सक्रिय एवं संक्रमित कंप्यूटर प्रोग्राम सॉफ्रटवेयर होता है, जो दूसरे कंप्यूटर प्रोग्राम में घुस कर उसे नष्ट कर देता है। जिस प्रोग्राम में यह वायरस रहता है, उस कंप्यूटर के चालू होने पर वायरस कंप्यूटर की ‘मेमोरी’ एवं ‘डिस्क’ में स्थित आंकड़ों को संक्रमित कर नष्ट कर देता है।
Question : निम्नलिखित कहां स्थित हैं?
(i)सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी
(ii)इंदिरा गांधी सेंटर फॉर एटॉमिक रिसर्च
(iii)विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर
(1999)
Answer : (i) हैदराबाद (आंध्र प्रदेश)
(ii) कलपक्कम (तमिलनाडु)
(iii) त्रिवेंद्रम (केरल)
Question : सरकार द्वारा अनुमोदित नयी टेलीकॉम नीति के प्रमुख प्रावधान क्या है? इस संबंध में दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय क्या रहा है?
(1999)
Answer : सरकार द्वारा राष्ट्रीय दूरसंचार नीति (1999) के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं- (i) न्यूनतम मूल्य पर विश्वस्तरीय सेवा ग्राहकों को उपलब्ध कराना; (ii) सेवा देने वाली तथा नीति बनाने वाली अलग-अलग संस्थाओं का विकास करना; (iii) दूरसंचार प्राधिकरण को मजबूत किया जाना; (iv) संचारसंवाओं के लिए एक अलग कंपनी का निर्माण करना; (v) निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देना; (vi) सन् 2002 तक ‘मांग पर फोन’ (Telephone on demand) उपलब्ध कराना; (vii) देश में टेलीफोन उपलब्धता को सन् 2005 तक 8 प्रति हजार जनसंख्या तथा सन् 2010 तक 15 प्रति हजार तक लाने का लक्ष्य; (viii) सन् 2000 तक सभी गांवों को अगले वर्ष तक दूरसंचार सेवाओं के दायरे में लाने का लक्ष्य; तथा (ix) एस.टी.डी. को 1 मार्च, 2000 तक तथा आई.एस.डी. को 1 मार्च, 2004 तक निजी क्षेत्र के लिए खोलने का निर्णय लेना।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) तथा केंद्र सरकार के बीच उपजे विवादों को देखते हुए इस पूरे मामले की समीक्षा करने तथा दोनों को अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करने का आदेश दिया। बाद में न्यायालय ने अपना फैसला देते हुए स्थायी टेलीफोन से सेल्युलर फोन करने के मामले में ‘कॉलिंग पार्टी पे’ (सी.पी.पी.) व्यवस्था, जिसमें कॉल करने वाले को पैसा देना पड़ता है, पर रोक लगाने के आदेश जारी कर दिये।
Question : सुदूर संवेदन क्या है? विशेषकर भारत के संदर्भ में उसके क्या उपयोग हैं?
(1998)
Answer : सुदूर संवेदन एक ऐसी तकनीक है, जिसमें हवाई जहाज या उपग्रहों के उपयोग द्वारा हम पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन के विषय में बहुमूल्य जानकारियां हासिल कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में ऊपर से पृथ्वी के चित्र खींचे जाते हैं। चित्र खींचने की तकनीक में अवरक्त तथा फॉल्स कलर फोटोग्राफी का सहारा लिया जाता है। आज के अत्याधुनिक कृत्रिम उपग्रहों में एक विशेष प्रकार का कैमरा लगा होता है, जो भिन्न-भिन्न रंगों में पृथ्वी के सतह का लगातार फोटो खींचता रहता है। इन चित्रें को इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली द्वारा एक बहुरंगी चित्र और रेखाचित्र में परिवर्तित किया जाता है। इसके द्वारा रोगग्रस्त या कीट प्रभावित फसल क्षेत्रों, वन क्षेत्रों, मत्स्य क्षेत्रों, भूमिगत जल क्षेत्रों, मौसम संबंधी जानकारी तथा खनिज भण्डारों का पता लगाया जाता है।
भारत प्राकृतिक संसाधनों के मामले में धनी है, परंतु इन संसाधनों की जानकारी के अभाव में या उनके दुरुपयोग व अवैज्ञानिक इस्तेमाल द्वारा वह इनका समुचित उपयोग नहीं कर पा रहा है। भारत में सुदूर संवेदन तकनीक द्वारा नये खनिजों के भण्डारों का पता लगाया जा रहा है। इस तकनीक द्वारा तेल व गैस के नये भण्डारों, पता लगाया गया है। भारत में काफी फसल कीट या अन्य रोगों के प्रभाव से नष्ट हो जाती हैं। इन चित्रें द्वारा इन क्षेत्रों की पहचान कर उचित कीट प्रबंधन को अन्जाम दिया जा रहा है। भारत में वनों का घटताहुआ क्षेत्रफल पर्यावरण असंतुलन का द्योतक है। ऐसी स्थिति में, वन संरक्षण हेतु प्रभावित क्षेत्रों को पहचान कर उनमें संवर्द्धनात्मक तथा निरोधक उपायों को अन्जाम दिया जा रहा है। भारत अपने समुद्री संसाधन का समुचित दोहन नहीं कर पाया है। सुदूर संवेदन तकनीक द्वारा मत्स्य क्षेत्रों की पहचान कर उनको विकसित करने की वृहत योजना सरकार ने शुरू की है। मत्स्य उत्पादन तथा इसके निर्यात से हम बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकते हैं। इस तकनीक द्वारा अन्य समुद्री संसाधन यथा खनिज, खाद्य व ऊर्जा संसाधनों को भी विकसित करने में सहायता मिल रही है। इस तकनीक द्वारा हम अपने भूमिगत जल स्रोतों का पता लगा कर उनके उपयोग व संरक्षण हेतु कारगर कदम उठा सकेंगे। भारत में जल की कमी या आधिक्य के कारण क्रमशः सूखा व बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदायें आती रहती हैं। ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों की पहचान कर इनमें उचित प्रबंधन व राहत कार्य को अन्जाम दिया जा सकता है। सुदूर संवेदन तकनीक द्वारा मौसम, खासकर मानसून की भविष्यवाणी से जहां हमारे कृषकों को लाभ पहुंचेगा, वहीं प्राकृतिक आपदाओं के बारे में, अग्रिम सूचना से प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षात्मक उपायों को अन्जाम दिया जा सकेगा। इस तकनीक द्वारा शिक्षा के प्रसार में भी सहायता पहुंचेगी। सारांश में यह कहा जा सकताहै कि भारत जैसे संसाधन संपन्न देश में इस तकनीक की उपयोगिता असीमित है। इस तकनीक से प्राप्त जानकारियों द्वारा हमारे सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरण संबंधी संसाधनों का उचित दोहन व संरक्षण संभव हो सकेगा।
Question : आनुवंशिक इन्जीनियरी क्या है? आजकल इसका महत्व क्यों बढ़ता जा रहा है?
(1998)
Answer : आनुवंशिक इंजीनियरिंग एक ऐसी तकनीक है, जिसके द्वारा एक जीव की कोशिका में डी.एन.ए. को प्रतिस्थापित कर उसमें ऐसे गुणों का विकास किया जाता है, जो प्राकृतिक रूप से उसमें विद्यमान नहीं थे। इस तकनीक को ‘जीन मैनिपुलेशन’ भी कहा जाता है। इस विधि के प्रथम चरण में न्यूक्लिक अम्ल के अणु से डी.एन.ए. का अंश एक टेस्ट ट्यूब में तैयार किया जाता है। इस तरह निर्मित डी.एन.ए. को एक विषाणु में इस प्रकार प्रतिरोपित किया जाता है कि वह एक अणुवाहक के रूप में कार्य कर उस जीव में प्रवेश कर जाता है। यहां सबसे महत्वपूर्ण पहलू प्रतिरोपित डी.एन.ए. अणु की स्वीकृति तथा उसकी गुणात्मक क्षमता का होना है।
आनुवंशिक इंजीनियरिंग द्वारा किसी जीवाणु या प्राणी में प्रोटीन के जीन प्रत्यारोपित कर उस खास प्रोटीन का उत्पादन किया जा सकता है। आनुवंशिक इंजीनियरिंग तकनीक द्वारा एक जीवाणु से ‘इन्सुलिन’ तथा काया वृद्धि हारमोन का उत्पादन किया जा रहा है। आनुवंशिक तकनीक से पैदा की गई भेड़ ‘ट्रेसी’ से एक महत्वपूर्ण प्रोटीन-एल्फा-1 एन्टीट्रिप्सिन उसके दूध से प्राप्त किया जा रहा है। इस तकनीक से किसी प्राणी का विकास व उसकी प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।
आजकल आनुवंशिक इंजीनियरिंग की एक विकसित प्रणाली ‘क्लोनिंग’ चर्चा में है। क्लोन एक ऐसा जीव है, जो एक अकेले जनक से गैर-लैंगिक तरीके से व्युत्पन्न होता है तथा वह भौतिक व आनुवंशिक रूप से अपने जनक के समरूप होता है। वैज्ञानिकों ने विभिन्न जन्तुओं के क्लोन्स तैयार कर लिये हैं, जिससे भविष्य में नस्ल सुधार के साथ-साथ विलुप्त होती प्रजाति के जीवों को भी बचाया जा सकेगा। मानव के क्लोन्स बनाने पर विश्वभर में विरोध हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, अमेरिका व यूरोपीय संघ ने इसे मानवीय तथा नैतिक दृष्टि से खतरनाक बताया है। परंतु, अगर इसका सही उपयोग हुआ तो हम मानव अंगों व ऊत्तकों का विकास कर चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण व क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं। सम्प्रति इससे प्रोटीन के अलावा औषधीय महत्व के द्रव्य प्राप्त किये जा रहे हैं।
Question : भारत में सुपर कंप्यूटर के विकास का वर्णन कीजिये।
(1998)
Answer : करीब 10 साल पहले भारत के पास एक भी सुपर कंप्यूटर नहीं था। भारत में पहला सुपर कंप्यूटर अमेरिका द्वारा विकसित क्रे एक्स.एम.पी.-14 था। लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के मद्देनजर भारतीय वैज्ञानिकों ने परम-10,000 जैसे अद्वितीय सुपर कंप्यूटर विकसित करके सभी देशों को चौंका दिया।
भारत में सबसे पहले बंगलौर की नेशनल एयरोनॉटिकल लेबोरेटरीज (नेल) ने ‘फ्रलोसाल्वर’ नामक पहला समानांतर सुपर ‘कंप्यूटर विकसित किया। यह एक सेकेंड में 3 लाख गणनायें करने में सक्षम था। इसके बाद हैदराबाद के अनुराग संस्थान ने ‘पेस’ नामक सुपर कंप्यूटर विकसित किया, जिसमें 128 माइक्रोप्रोसेसर लगे हुए थे तथा इसकी क्षमता करीब 100 मेगाफ्रलापथी। इसी समय बंगलौर की सी-डॉट संस्थान ने चिप्स 16 तथा भारतीय विज्ञान संस्थान ने ‘मल्टी माइक्रो’ नामक सुपर कंप्यूटर का निर्माण किया। मुंबई की भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान ने इसके पश्चात ‘मैक’ तथा भामा परमाणु अनुसंधान केंद्र ने ‘अनुपम’ नामक सुपर कंप्यूटर का निर्माण किया। पूर्ण स्थित सी-डैक नामक संस्थान ने परम का विकास 8000, 8600, 9000 तथा 10,000 की चारश्रृंखलाओं में किया। परम 10,000 प्रति सेकेंड एक खरब गणितीय गणना करने में सक्षम है। इस कंप्यूटर का उपयोग मौसम, अंतरिक्ष, तेल की खोज, न्यूक्लियर विस्फोट, रक्षा तथा इंजीनियरिंग उद्योग आदि क्षेत्रों में किया जायेगा। इस प्रकार, एशिया के सबसे बड़े सुपर कंप्यूटर का निर्माण कर हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी योग्यता का परिचय दिया है। अब हमारे वैज्ञानिक टेरा फ्रलाप क्षमता के अत्याधुनिक सुपर कंप्यूटर बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं।
Question : भारत को पिनाक के विकास से कैसे लाभ हो रहा है?
(1998)
Answer : रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन द्वारा स्वदेशी तकनीक पर विकसित बहुनाली रॉकेट प्रक्षेपक ‘पिनाक’ के सफल परीक्षण से हमारे रक्षा प्रणाली को एक बेशकीमती हथियार मिल गया है। इस बहुनाली रॉकेट की मारक क्षमता अद्वितीय है तथा एक ही समय में यह कई रॉकेटों को एक साथ 40 कि.मी. दूर तक प्रक्षेपित कर सकता है। निश्चित तौर पर यह भारत के प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को बढ़ावा देगा। भारत इस समय मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र, यथा- आकाश व नाग का सफल परीक्षण कर चुका है। आकाश की मारक क्षमता 25 किलोमीटर है। इस मिसाइल में फेज शिफ्रटर तकनीक का प्रयोग होता है, जिससे एक बार में चार मिसाइलें दागी जा सकती हैं। नाग एक टैंक नाशक प्रक्षेपास्त्र है, जिसकी मारक क्षमता चार किलोमीटर है। यह प्रक्षेपक प्रणाली हमारे मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को एक सशक्त आधार प्रदान करती है।
इस प्रक्षेपक को सीमा के निकट स्थापित किया जा सकता है, ताकि शत्रु की सीमा के निकट कम सेना का इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसकी बहुनाली प्रणाली से इसकी मारक क्षमता बढ़ जाती है। हाल के दिनों में भारत का पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध नहीं रहे हैं। परमाणु विस्फोट तथा सीमा विवाद के कारण स्थिति किसी भी समय विस्फोटक हो सकती है। ऐसी स्थिति में, अमेरिका द्वारा लगाये गये सैन्य प्रतिबंध हमारे रक्षा प्रौद्योगिकी को प्रभावित कर सकते हैं। परंतु स्वदेशी तकनीक से बने इस बहुनाली प्रक्षेपक ने सिद्ध कर दिया है कि हमारे वैज्ञानिकों ने आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है और वे एक विकसित प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को अंजाम देने की दिशा में प्रयत्नशील हैं।
Question : प्रकाश तंतु क्या है? उनके क्या फायदे हैं?
(1998)
Answer : प्रकाश तंतु सिलिकॉन का एक बेलनाकार तार होता है, जिसका इस्तेमाल प्रकाश संकेत प्रेषित करने के लिए किया जाता है। प्रकाश तंतु में पूर्ण आन्तरिक परावर्तन का सुंदर उपयोग होता है। जब प्रकाश की किरणें तंतु के एक सिरे पर आपतित होती हैं, तो यह दूसरे सिरे तक पहुंचने से पहले बार-बार पूर्ण आन्तरिक परावर्तन की प्रक्रिया से गुजरती हैं। विद्युत संकेत को प्रेक्षित करने से पहले इन्हें प्रकाश की किरणों में परिवर्तित किया जाता है। यह परिवर्तन लेजर डायोड के माध्यम से किया जाता है। तंतु के अंतिम छोर में इन प्रकाश किरणों को पुनः विद्युत संकेत में परिवर्तित कर दिया जाता है। यह कार्य फोटो डायोड के माध्यम से होता है।
इसका प्रयोग चिकित्सा, दूरसंचार, प्रकाशीय संकेत के संचरन, विद्युत संकेतों को भेजने व प्राप्त करने में किया जा रहा है। अन्य माध्यमों की तुलना में इसके निम्नलिखित फायदे हैं- 1. इसकी वाहक क्षमता अन्य माध्यमों से कई गुणा ज्यादा है, 2. यह काफी हल्का होता है, 3. दो तारों के जोड़ से उत्पन्न अंतर वार्तालाप की समस्या इसमें नहीं होती, 4. ये ध्वनि संकेतों से प्रभावित नहीं होते, 5 ये अत्यधिक टिकाऊ होते हैं तथा कठोर प्राकृतिक परिस्थितियों को भी आसानी से झेल सकते हैं।
Question : एन्जाइम क्या हैं? इसके क्या महत्व हैं?
(1998)
Answer : एन्जाइम मुख्य रूप से प्रोटीन होते हैं तथा वे सभी जैविक क्रिया के लिए आवश्यक हैं। एन्जाइम शरीर में सम्पादित विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम करते हैं। ग्लूकोज आइसोमरेज नामक एंजाइम ग्लूकोज को फ्रक्टोज में परिवर्तित कर देता है। कुछ एन्जाइम जैसे एन्टरोकाइनेज, इरेप्सिन, लाइपेज, माल्टोज, लैक्टोज आदि पाचन क्रिया में सहायक होते हैं। ये जटिल पदार्थों को सरल तत्वों में बदल देते हैं।
इसके अलावा, एन्जाइम का प्रयोग पशुओं के मांस को नरम करने में, बैंकिंग उद्योग में, चमड़ा और ऊनी वस्त्र उद्योग में भी होता है। कपड़ा उद्योग में कपड़ों को अधिक अवशोषक बनाने में और स्टार्च को हटाने में एलम-एमाइलेज का प्रयोग किया जा रहा है। सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में प्रोटीएज और लाइपेज एन्जाइम का प्रयोग किया जा रहा है। औषधि के क्षेत्र में लेक्टामेज के साथ पेनसिलिन लेने से पेनसिलिन की प्रभाविता बढ़ जाती है। खाद्य पदार्थों में भीइनके प्रयोग से पदार्थों को कम विषैला बनाया जा रहा है। हीमोग्लोबिन को विरंजित कर ग्लोबिन (प्रोटीन) प्राप्त किया जा रहा है। इस प्रकार, एन्जाइम का प्रयोग हमारे शरीर तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसका प्रयोग उद्योग और चिकित्सा के क्षेत्रों में भी हो रहा है।
Question : ट्रांसजेनिक जीव महत्वपूर्ण क्यों हैं?
(1998)
Answer : ट्रांसजेनिक जीव एक ऐसा पौधा या जन्तु हो सकता है, जिसकी कोशिका में उसके अपने जीन के अलावा विदेशी जीन प्रत्यारोपित किया गया हो। ट्रांसजेनिक गाय, भेड़ व बकरे के माध्यम से मानव प्रोटीन युक्त दूध उत्पादित किया जा रहा है। ट्रांसजेनिक जीव से टमाटर, तम्बाकू तथा गेहूं में कीट व बीमारी तथा कोहरा प्रतिरोधक क्षमता विकसित की गई है।
Question : एन्ट्रिक्स निगम का महत्व बताइये।
(1998)
Answer : एन्ट्रिक्स निगम द्वारा सुदूर संवेदक उपग्रहों के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों व जानकारियों को व्यावसायिक तौर पर विदेशों में बेचा जाता है। इसने इस संदर्भ में इओसैट नामक अमेरिकी कंपनी से समझौता किया है। यह निगम उपग्रहों का देखरेख भी करती है।
Question : वेबसाइट क्यों लोकप्रिय होता जा रहा है?
(1998)
Answer : वेबसाइट द्वारा अब हम कंप्यूटर के माध्यम से विभिन्न जानकारियां प्रदान व ग्रहण कर सकते हैं। इन्टरनेट के विशाल नेटवर्क से सूचना संप्रेषण व ग्रहण करने की क्षमता में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता बढ़ी है।
Question : निम्नलिखित का पूरा अर्थ क्या है?
(1) C-DAC
(2) ICMR
(3) TRAI
(1998)
Answer : (1) C-DAC: सेन्टर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग।
(2) ICMR: इण्डियन काउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च।
(3) TRAI: टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इण्डिया।
Question : इन्टरफेरोन के कार्यकलाप बताइये।
(1998)
Answer : इन्टरफेरोन एक एन्टी-वाइरल प्रोटीन है और यह शरीर में एन्टीबॉडी पैदा कर शरीर के प्रतिरोधक क्षमता को प्रबल बनाता है।
Question : ई-मेल और फैक्स में क्या अंतर है?
(1998)
Answer : इलेक्ट्रॉनिक मेल द्वारा हम निजी कंप्यूटर के माध्यम से डिजिटल सूचना द्रुत गति से एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेज सकते हैं। जबकि फैक्स द्वारा हम लिखित पत्रों या आकृति को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा सकते हैं, पर ई-मेल की अपेक्षा इसमें खर्च ज्यादा होती है।
Question : फास्ट ब्रीडर रिएक्टर क्या है? भारतीय सन्दर्भ में उसकी उपयुक्तता पर टीका कीजिए।
(1998)
Answer : फास्ट ब्रीडर रिएक्टर (एफ.बी.आर.) भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के द्वितीय चरण का द्योतक है। इस रिएक्टर के लिए उपयुक्त ईंधन यूरेनियम-प्लूटोनियम ऑक्साइड के मिश्रण से तैयार किया जाता है। इसमेंश्रृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction) को तेज न्यूट्रॉन द्वारा जारी रखा जाता है, जिसके कारण ताप रिएक्टर (Thermal Reactor) की अपेक्षा इसमें अधिक संख्या में न्यूट्रॉन का उत्सर्जन हाता है। इसमें शीतलक (Coolant) के रूप में सोडियम का उपयोग किया जाता है तथा रेडियो सक्रिय पदार्थों का बहुत कम उत्सर्जन हो पाता है।
कलपक्कम (तमिलनाडु) स्थित इंदिरा गांधी अनुसंधान केंद्र में इसका सफलतापूर्वक संचालन प्रारंभ हो चुका है। यद्यपि परीक्षण के तौर पर ऐसा रिएक्टर लगाया जा चुका है, परंतु व्यावसायिक स्तर पर इससे बिजली पैदा नहीं की जा सकी है। दरअसल, इन रिएक्टरों के लिए यूरेनियम जैसे प्राथमिक ईंधनों की जरूरत नहीं होती है, बल्कि यूरेनियम से चलने वाले ताप रिएक्टरों में प्रयुक्त ईंधन से उत्पन्न प्लूटोनियम की आवश्यकता होती है। यह नाभिकीय शस्त्रें में भी प्रयुक्त होता है। अतः बड़ी मात्रा में इसका उत्पादन एवं संग्रहण काफी जटिल है।
वर्तमान में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में परमाणु विखंडन प्रक्रिया (Nuclear Fission Reaction) का उपयोग किया जाता है। भारत के पास पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक यूरेनियम उपलब्ध है, परंतु इसे संवर्द्धित करने के साधन नहीं हैं। मुक्त किये गये शेष ईंधन में पर्याप्त मात्रा में विखंडन पदार्थ मौजूद रहता है, जिससे इसकी प्राप्ति लाभप्रद होती है। ब्रीडर रिएक्टर उपयोग किये जाने वाले ईंधन से अधिक विखंड्य पदार्थ देता है। परमाणु विखंडन से भी उपयोगी ऊर्जा की प्राप्ति संभव है, परंतु इसके लिए काफी उच्च तापक्रम की जरूरत होती है तथा इससे प्राप्त ऊर्जा को नियंत्रित करना भी मुश्किल होता है।
इस प्रकार, यद्यपि वर्तमान परिस्थितियों में भारत ने फास्ट ब्रीडर रिएक्टर की स्थापना कर ली है, परंतु कई तरह की समस्याओं, यथा- वैज्ञानिक तकनीक के अभाव, अंतरराष्ट्रीय दबाव आदि के चलते इसे अपनी इस योजना को बढ़ाने में दिक्कतें पेश आ रही हैं।
Question : भारत के लिए अग्नि परियोजना (प्रोजेक्ट) क्यों महत्वपूर्ण है?
(1997)
Answer : समकालीन अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य को देखते हुए ‘प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी’के क्षेत्र में भी समुचित प्रगति कर आत्मनिर्भरता प्राप्त करना देश के लिए आवश्यक है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारत ने 1983 में समन्वित निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम आरंभ किया। इसी कार्यक्रम के तहत भारत में विविध क्षमता एवं लक्ष्यों के पांच प्रक्षेपास्त्रों का परीक्षण अथवा विकास किया जा रहा है, जिसमें ‘अग्नि परियोजना’भी एक है।
किसी भी स्वनोदित प्रक्षेप्य को मिसाइल कहते हैं। यह एक ऐसा यंत्र है जिसे रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाता है। 1300 करोड़ रुपये से अधिक की ‘भारतीय एकीकृत प्रक्षेपास्त्र विकास योजना’ में देश के रक्षा अनुसंधान तथा विकास संगठन की 21 प्रयोगशालाएं, देश के सभी प्रौद्योगिकी संस्थान तथा 15 विश्वविद्यालयों में प्रक्षेपास्त्र विकास संबंधी कार्य हो रहे हैं। ‘अग्नि’ सतह से सतह तक मार करने वाली एक मध्यम दूरी की मिसाइल है। इसकी मारक क्षमता 1500-2500 किलोमीटर तक है। इसके विकास में ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का महत्वपूर्ण योगदान है। यह 1000 किलोग्राम के वारहेड को ढोने की क्षमता रखता है। इसका प्रथम परीक्षण 22 मई, 1989 को उड़ीसा के चांदीपुर प्रक्षेपण स्थल से किया गया था।
दूसरी मिसाइलों की तरह यह भी द्विचरणीय मिसाइल है। इसके प्रथम चरण में ठोस नोदक तथा द्वितीय चरण में द्रव नोदक प्रयोग किये गये हैं। इसके प्रथम चरण का रॉकेट मोटर संयुक्त पदार्थ से तथा द्वितीय चरण का मोटर हल्के एल्युमिनियम मिश्रधातु से बना है। विश्व की यह प्रथम मिसाइल है, जिसमें ठोस तथा द्रव नोदक एक साथ प्रयोग किये गये हैं। यह 18.4 मीटर लंबा तथा 1.3 मीटर चौड़ा है। इस मिसाइल में आंतरिक नौ-गमन निर्देशन प्रणाली प्रयुक्त की गई है। यह अमेरिकी मिसाइल पर्शिंग-2 तथा एस.एस.-22 के समान है।
वस्तुतः ‘अग्नि परियोजना’ की प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में समयानुकूल प्रगति भारत के लिए न केवल आत्मरक्षा व सामरिक महत्व की दृष्टि से आवश्यक है, बल्कि अंतरिक्ष एवं अन्य क्षेत्रों में भी द्रुत गति से विकास करने तथा अपने आपको एक प्रबल राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करने के लिए भी अपरिहार्य है। भारत सदा से शांति का प्रबल पक्षधर रहा है, किंतु तेजी से बदल रहे विश्व राजनीतिक समीकरण, पड़ोसी देशों की गतिविधियां व प्रौद्योगीकृत आत्मनिर्भरता संबंधी आवश्यकताओं को देखते हुए भारत का ‘अग्नि परियोजना’ को बढ़ावा देना एक सार्थक प्रयास है। इस परियोजना से भारत को कई अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने में आसानी होगी तथा दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन में भारत की प्रभावी भूमिका सार्थक हो सकेगी।
Question : भारत के परमाणु कार्यक्रम ने किस तरह देश की आर्थिक एवं रक्षा आवश्यकताओं में योगदान दिया है?
(1997)
Answer : परमाणु कार्यक्रम के क्षेत्र में आज भारत को विश्व के अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है। देश के परमाणु विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों के सतत् प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत आज न सिर्फ परमाणु प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर है, अपितु परमाणु ईंधन चक्र की प्रत्येक गतिवधि को संचालित करने में भी सक्षम है। 1948 में पारित परमाणु ऊर्जा अधिनियम के तहत भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य हैं- विद्युत उत्पादन जैसे शांतिपूर्ण प्रयोजन के लिए परमाणु ऊर्जा का विकास तथा कृषि, उद्योग, चिकित्सा एवं अन्य क्षेत्रों में नाभिकीय प्रयोगों का विकास करना।
ऊर्जा के नये स्रोतों में नाभिकीय ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसमें अपार सृजनात्मक क्षमता अंतर्निहित होती हैं। नाभिकीय ऊर्जा न केवल विद्युत उत्पादन में ही सहायक होती हैं, वरन् इसका उपयोग विकिरण चिकित्सा, कृषि उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण, औषधि निर्माण आदि में भी किया जा सकता है। नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग शांतिपूर्ण व विकासात्मक कार्यों के अलावा नाभिकीय हथियार संबंधी विध्वंसात्मक कार्यों में भी किया जा सकता है। परमाणु विद्युत उत्पादन के कार्यान्वयन की दृष्टि से 1987 में ‘भारतीय परमाणु विद्युत निगम लिमिटेड’ की स्थापना की गई तथा उसे देश के समस्त परमाणु विद्युत संयंत्रों के प्रारूप, निर्माण कार्य, संचालन और उत्पादन संबंधी उत्तरदायित्व सौंपा गया। संप्रति, भारत में तारापुर, नरौरा, कलपक्कम, रावतभाटा तथा कैगा के संयंत्रों से लगभग 3000 मेगावॉट की परमाणु बिजली उत्पादित की जा रही है।
1957 में स्थापित भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) में अप्सरा, साइरस, पूर्णिमा एवं ध्रुव नामक रिएक्टर कार्यरत हैं। इस केंद्र में भौतिकी, रसायनशास्त्र, अभियांत्रिकी, धातु विज्ञान, ईंधन पुनः प्रयोग, ईंधन उत्पादन, रेडियो समस्थानिक, कचरा प्रबंध, शल्यकर्म, लेसर, जीवविज्ञान, कृषिविज्ञान, खाद्य प्रौद्योगिकी, विकिरण आयुर्विज्ञान जैसे क्षेत्रों से संबंधित कार्य किये जाते हैं। 1971 में स्थापित इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र (कलपक्कम) में रिएक्टर डिजाइन, अभियांत्रिकी तथा संघटक विकास, फास्ट रिएक्टर का पुनः संसाधन, रेडियो रसायनिकी आदि से संबंधित अनुसंधान किये जाते हैं। 1984 में इंदौर में स्थापित उन्नत प्रौद्योगिकी केंद्र मूलभूत अनुसंधान, उद्योग तथा चिकित्सा क्षेत्र के लिए उपयोगी लेजर एवं लेजर पर आधारित उपकरणों का विकास तथा इससे संबंधित सुविधाएं जुटाने का प्रयास कर रहा है।
कलकत्ता में स्थित परिवर्ती ऊर्जा साइक्लोट्रॉन केंद्र नाभिकीय और संबद्ध विज्ञानों में मौलिक और व्यावहारिक अनुसंधान की सुविधा प्रदान करता है तथा औषधीय एवं उपचार संबंधी उद्देश्यों के लिए साइक्लोट्रॉन पर आधारित रेडियो समस्थानिकों के उत्पादन सहित कई अन्य क्षेत्रों में भी संलग्न है। विखंडन के दौरान निकलने वाले समस्थानिकों का विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है। आयोडीन-131, कोबाल्ट-57 जैसे समस्थानिकों का उपयोग कैंसर उपचार, आनुवंशिकी अभियांत्रिकी, एंजाइम तकनीकी और खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में किया जाता है।
भारत की परमाणु नीति सुरक्षात्मक रही है। नाभिकीय हथियारों के निर्माण से भारत अब तक बचता रहा है, जबकि ऐसा करने में भारत पूर्ण सक्षम है। आवश्यकता पड़ने पर भारत जब चाहे तब परमाणु बम जैसे विनाशक तत्वों को विकसित कर सकता है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत के परमाणु कार्यक्रम ने देश की आर्थिक एवं रक्षा आवश्यकताओं में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
Question : क्रायोजेनिक इंजन क्या है? अपने देश के लिए इसके महत्व को समझाइये।
(1997)
Answer : क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित होता है। इस प्रौद्योगिकी में पदार्थ तथा उसकी अभिक्रिया स्थिति का अति निम्न तापक्रम पर अध्ययन किया जाता है। क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग जी.एस.एल.वी. में किया जाता है। इसमें प्रेरक ईंधनके रूप में प्रायः द्रव ऑक्सीजन एवं द्रव हाइड्रोजन का प्रयोग किया जाता है। चूंकि यह इंजन प्रणोदक को द्रव अवस्था में बनाये रखने के लिए इसे निम्न तापक्रम पर संचित रखता है, इसलिए इसे क्रायोजेनिक कहा जाता है। रॉकेट इंजन में क्रायोजेनिक प्रणोदक के उपयोग का मुख्य लाभ यह है कि यह पारंपरिक ठोस एवं द्रव प्रणोदक की अपेक्षा उच्च क्षमता प्रदान करता है, जिसे विशिष्ट प्रभाव के रूप में निर्देशित किया जाता है। यह क्रायोजेनिक इंजन प्रणोदक के प्रति इकाई भार में उच्च शक्ति प्रदान करता है। इसमें प्रयुक्त द्रव ईंधन उपग्रह प्रमोचक की अंतिम अवस्था में काफी महत्वपूर्ण होता है, जहां अधिक भार एवं अंतरिक्ष इसकी राह में प्रमुख रुकावट उत्पन्न करते हैं। इस इंजन की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि यह वातावरण को प्रदूषित नहीं करती और अधिक कार्यक्रम भी होती है।
भारत में चल रहे अंतरिक्ष कार्यक्रम की अगली योजना भू-तुल्यकालिक उपग्रह प्रमोचक वाहन (जी.एस.एल.वी.) बनाने की है, ताकि ऐसे उपग्रहों को प्रक्षेपित करने में सहायता मिल सके। वर्तमान में ऐसे उपग्रहों के निर्माण में आयी लागत से करीब तीन गुना अधिक की धनराशि उसके प्रक्षेपण पर खर्च होती है। चूंकि भारत में यह इंजन अभी तक नहीं बनाया जा सका है, अतः इसके लिए हमें अन्य प्रक्षेपण एजेंसियों की मदद लेनी पड़ती है। देश में इस इंजन के विकास हो जाने से देश को न सिर्फ अंतरिक्ष कार्यक्रम में आत्मनिर्भरता मिल सकेगी, बल्कि विदेशों में हमें प्रक्षेपण बाजार भी मिल सकेगा। इससे देश को पर्याप्त विदेशी मुद्रा की आय भी होगी।
Question : ‘मैड काऊ’ रोग क्या है?
(1997)
Answer : ‘मैड काऊ’ रोग अर्थात ‘गायों का पागलपन’ नामक बीमारी ब्रिटेन तथा कई अन्य देशों में मनुष्यों के लिए एक नयी चुनौती बन कर उभरा है। गायों में पागलपन का यह रोग ‘बोवाइन स्पोंजीफॉर्म इनसिफेलोपेथी’ या संक्षेप में बी.एस.ई. कहलाता है। ब्रिटेन की गायों में इस रोग का पता सबसे पहले 1986 में लगा। इस रोग से पीड़ित गायों के मुंह से काफी झाग निकलने लगता है और वे लड़खड़ाने लगती हैं। शरीर के विभिन्न अंगों पर उनका नियंत्रण नहीं रह जाता है। इन लक्षणों वाली गायों के मस्तिष्क की जांच करने पर वैज्ञानिकों ने देखा कि वह पनीर की तरह स्पंजी और बदबदा हो चुका था। उसमें बीच-बीच में छेद भी हो चुके थे। इसलिए गायों के इस नये रोग का नाम उन्होंने बोवाइन स्पोंजीफॉर्म इनसिफेलोपैथी रख दिया।
इस रोग का और अधिक अध्ययन करने पर यह पता चला कि इसके लक्षण मनुष्यों में होने वाले ‘क्रेयुट्जफेल्ट जेकब डिजीज’ अर्थात सी.जे.डी. से मिलते-जुलते हैं। इसलिए मार्च 1996 में वैज्ञानिकों ने घोषणा की कि गायों के पागलपन और मनुष्यों के विशेष पागलपन में सीधा संबंध हो सकता है। इस घोषणा से पूरे यूरोप में दहशत फैल गयी और यूरोपीय समुदाय ने ब्रिटेन से गोमांस और इससे बने विभिन्न प्रकार के उत्पादों तथा व्यजनों के निर्यात पर पाबंदी लगा दी। शाकाहारी गायों को एक नये प्रकार के प्रोटीन बहुल पौष्टिक आहार का सेवन कराने से ही मैड काऊ रोग होता है, क्योंकि उस चारे में अपशिष्ट मांस उत्पादों का मिश्रण होता था और वह गायों के चारे के लिए उपयुक्त नहीं था।
Question : ‘फुलेरेन्स’ क्या है? ये क्यों महत्वपूर्ण हैं?
(1997)
Answer : कार्बन के कई अपरूप पाये जाते हैं, जिनमें हीरा एवं ग्रैफाइट प्रमुख हैं। हाल ही में इसके कई अन्य अपरूपों की भी खोज की गई है और उन्हें एक परिवार में रखा गया। इसी अपरूपी परिवार के पहले सदस्य को ‘फुलेरेन्स’ कहा जाता है। इसकी संरचना ग्रैफाइट एवं हीरों से नितांत भिन्न होती है।
इसकी खोज सैसेक्स विश्वविद्यालय (बब्रिटेन) के हेरॉल्ड क्रोटो तथा राइस विश्वविद्यालय (अमेरिका) के रिचर्ड स्मेली ने 1985 में की थी। फलेरेन्स की संरचना गोल पिंजरे की आकृति की होती है और इसकी संरचना की जानकारी सर्वप्रथम ‘बकमिंस्टर फुलर’ ने दी थी। इसलिए इसका नाम फुलेरेन्स रखा गया। इसके सर्वाधिक स्थायी अणु में 60 कार्बन परमाणु का संयोग होता है।
फुलेरेन्स का कई क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है। इसके गोल एवं अधिक कठोर होने के कारण इसका प्रयोग स्नेहक के रूप में किया जाता है। आणविकबॉल-बियरिंग के रूप में भी फुलेरेन्स की छोटी गोलियों का प्रयोग किया जाता है। कुछ अन्य धातुओं के साथ मिलाने पर धातु अतिचालक बन जाता है और इससे विद्युत संप्रेषण में विद्युत क्षय नहीं होती है। फुलेरेन्स अपने साथ अधिक मात्रा में हाइड्रोजन को संचित रख सकती है। इस गुण के कारण इसका प्रयोग उत्प्रेरक के तौर पर भी किया जाता है। इसके इसी गुण के कारण इसका प्रयोग बैटरियों के इलेक्ट्रोड निर्माण में भी किया जाता है।
Question : पोलियो क्या है? इसके कुछ लक्षण लिखिये और बताइये कि इसे कैसे रोका जा सकता है?
(1997)
Answer : चिकित्सा विज्ञान में पोलियो मायलिटिस के नाम से जाना जाने वाला यह एक अत्यंत ही भयंकर रोग है। पोलियो का रोग एक बार हो जाने पर यह व्यक्ति को उम्र भर के लिए विकलांग बना देता है। यह रोग एक विषाणु द्वारा फैलता है। यह विषाणु रोगी के शरीर से बीमारी के 6 से 8 हफ्रते बाद तक भी मल के जरिये बाहर निकलता रहता है। साफ-सफाई न रखने या गंदगी और मक्खियों के कारण यह विषाणु मल से पुनः भोजन में चला जाता है और यह बीमारी फलती है।
यह विषाणु मनुष्य की आंत में ही पलता-बढ़ता है और अनुकूल स्थितियों में तंत्रिका तंत्र में सीधे या रक्त के जरिये प्रवेश कर जाता है। तंत्रिका तंत्र में विषाणुओं के पहुंचने से शरीर के विभिन्न अंगों को लकवा मार जाता है। शरीर में वायरस के प्रवेश के 7-21 दिन के भीतर या बाद में रोग के प्रथम लक्षण दिखायी पड़ते हैं। चूंकि अधिक उम्र के बच्चे और युवक इस वायरस के प्रति रोगरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं, इसलिए 3 वर्ष से कम उम्र के बच्चे ही पोलियो के महत्वपूर्ण संक्रामक होते हैं।
इस रोग से पूर्णतः बचाव संभव है। पहले चरण में यह आवश्यक है कि मानव में पोलियो के विरूद्ध लड़ने वाले एंटीबॉडीज की तादाद उचित मात्रा में हो। इसके लिए पोलियो की टीका लगाया जाता है। पहली खुराक बच्चे के जन्म पर ही जाती है। इसके बाद शिशु के प्रथम वर्ष में 3 और खुराकें डेढ़, ढाई और साढ़े तीन माह की उम्र पर दी जाती हैं। डेढ़ और चार साल की उम्र में दो और खुराकें दे देने से शरीर में पोलियो विषाणु के प्रति उचित मात्रा में एंटीबॉडीज बन जाता है और रोग से बचाव हो जाता है। इसके लिए देश में आजकल ‘पल्स पोलियो अभियान’ चलाया जा रहा है।
Question : मनुष्य के कान के लिए सुरक्षित ध्वनि स्तर क्या है? विद्युत घण्टी के रव का प्रबलता स्तर बताइये।
(1997)
Answer : विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदंडों के अनुसार, मनुष्य के कान के लिए सुरक्षित ध्वनि स्तर 45 डेसीबल तक निर्धारित की गई है। विद्युत घंटी के रव का प्रबलता स्तर 80 से 90 डेसीबल तक होता है।
Question : धूमकेतु (कॉमेट) और उल्का (मीटियोर) में क्या अंतर है?
(1997)
Answer : धूमकेतु या पुच्छल तारे पूंछ वाले तारे हैं, जो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। जबकि उल्काएं दूसरे पिंडों के टूटने वाले टुकड़े हैं, जो वायुमंडल में आकर घर्षण के कारण चमक उठते हैं।
Question : ‘ई-मेल’ क्या है?
(1997)
Answer : ई-मेल सूचना संप्रेषण की एक ऐसी तकनीक है, जिसमें किसी भी दो पर्सनल कंप्यूटरों के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सकता है। इसके लिए आम टेलीफोन लाइनों का ही प्रयोग किया जाता है। लेकिन यह एस.टी.डी या फैक्स की तरह महंगी नहीं है।
Question : निम्नलिखित का क्या मतलब है?
1. TIFR 2. DRDO 3. NEERI
(1997)
Answer : 1. टाटा इंस्सटीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, 2. डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन, 3. नेशनल इन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट।
Question : ऊत्तक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) क्या है?
(1997)
Answer : ऊतक संवर्द्धन तक ऐसी तकनीक है, जिसमें पौधों की कोशिकाओं, ऊतकों या अंगों को पृथक करके उनका नियंत्रित ताप व दाब पर विशेष पात्रों में संवर्द्धन किया जाता है। इस विधि का उपयोग क्लोन की उत्पत्ति, भ्रूण संवर्द्धन और नयी प्रजातियों के विकास के लिए किया जाता है।
Question : ‘क्वासर्स’ क्या हैं?
(1997)
Answer : अंतरिक्ष में बहुत ही दूर के वस्तु ‘क्वासर्स’ कहलाते हैं, जिन्हें टेलीस्कोप से देखना भी संभव नहीं है। केवल इनसे आती हुई रेडियो तरंगें ही प्राप्त हो सकी हैं। आकाश में बहुत से क्वासर्स हैं। आधुनिक टेलिस्कोप से ब्रह्मांड के कगार पर स्थित इन क्वार्स का अध्ययन किया जा रहा है।
Question : ‘माइक्रोवेव ओवन’ क्या है? यह किस प्रकार खाना पकाता है?
(1996)
Answer : विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम में माइक्रोवेव का क्षेत्र अवरक्त तरंगों एवं लघु तरंगों के मध्य होता है। माइक्रोवेव की आवृत्ति 100 गीगा हर्ट्ज तक होती है। आजकल घरेलू कामकाजी महिलाओं के लिए माइक्रोवेव ओवन बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहा है।
माइक्रोवेव ओवन एक ऐसा उपकरण है, जिसमें भोजन विशेष विद्युत चुंबकीय प्रभाव द्वारा पकाया जाता है। इसमें भोजन परम्परागत उपयोग में आने वाले ओवन की तुलना में अत्यंत कम समय में पक जाता है। माइक्रोवेव ऊर्जा की विशेषता यह होती है कि इसे सभी प्रकार के भोजन द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। ओवन से माइक्रोवेव ऊर्जा इसमें लगे मैग्नेट्रोन द्वारा प्राप्त किया जाता है। इस ऊर्जा की आवृत्ति लगभग 2.5 गीगा हर्ट्ज होती है, जो लगभग एक किलोवाट शक्ति के बराबर होती है। यह ऊर्जा ओवन में बने एक गड्ढेनुमा स्थान पर केंद्रित होती है। यह भाग ऊर्जा तरंग की आवृत्ति के अनुकूल घूमता रहता है, जिससे इसमें रखे भोजन को एकसमान ऊर्जा प्राप्त होती है। ओवन में भोजन को पकाने के लिए समय को नियंत्रित करने की सुविधा होती है। यही नहीं, यदि किसी वजह से ओवन का दरवाजा खुला रह जाये, तो स्वतः ओवन में विद्युत का प्रवाह रुक जाता है।
Question : ‘वर्चुअल रिएलिटी’ क्या होती है? यह किस प्रकार के कार्य में प्रयुक्त होती है?
(1996)
Answer : वर्चुअल रिएलिटी कंप्यूटर तकनीक से सम्बद्ध शब्दावली है। वह ऐसा समुच्चय है, जो कंप्यूटर जगत की काल्पनिक विचारों को भी वास्तविक रूप से पेश करने में सक्षम होती है। साइकेट्री एवं कंप्यूटर तकनीक में व्यक्तियों के समक्ष नितांत काल्पनिक आधार पर ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाती है, जिनमें प्रयोगकर्त्ता को ऐसा आभास होता है, मानो वह वास्तविक जगत में ही कार्यरत है। किसी भी वस्तु के कंप्यूटर से बनाये गये चित्र और आरेख में वास्तविक रूप से होने का आभास दिलाते हैं। वर्चुअल रिएलिटी सम्बद्ध प्रौद्योगिकी व्यक्ति के देखने और सुनने के तंतुओं के साथ मिलकर उसे वास्तविकता की अनुभूति के निकट ले जाती है।
इसका सबसे अधिक प्रयोग वीडियो खेलों में होता है। इसके साथ-साथ इसका प्रयोग वास्तुकला, अभियांत्रिकी, विमान चालकों तथा धावकों, वाहन चालकों को प्रशिक्षित करने, मानसिक रोगियों का उपचार करने आदि में भी किया जाता है। वर्चुअल रिएलिटी सीखने तथा अनुभव प्राप्त करने के लिए अत्यधिक उपयोगी है और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए एक वरदान है। अति विशिष्ट तकनीकी क्षेत्रों, जहां प्रशिक्षण प्रदान करते समय महंगे-महंगे उपकरणों के क्षतिग्रस्त होने की आशंका रहती है, वहां भी वर्चुअल रिएलिटी का प्रयोग किया जाता है।
Question : ‘ट्रांसजेनिक जीव’ किसे कहते हैं? ये किस प्रकार के कार्य में प्रयुक्त किये जाते हैं?
(1996)
Answer : ट्रांसजेनिक जीव कृत्रिम रूप से बनाये गये जीव हैं। इसके जीनोटाइप को मैनीपुलेटिव तकनीक से दूसरे जीनोटाइप में परिवर्तित कर दिया जाता है। इसके लिए ऐसे जीवों के अंडे में डी.एन.ए. को सूक्ष्म विधि से प्रवेश कराकर ‘प्लाज्मिड’ का प्रयोग करके अथवा वाइरस आधारित डी.एन.ए. वेक्टर द्वारा जीनोटाइप परिवर्तन किया जाता है। इसमें प्रायः अलग-अलग प्रजातियों के डी.एन.ए. को प्रवेश कराया जाता है। बाहरी डी.एन.ए. मूल जीनोटाइप से मिल जाता है।
ऐसे जीव आनुवांशिकी विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त महत्व रखते हैं। इसकी सहायता से पशुओं की नयी प्रजातियों तथा अच्छे नस्लों को विकसित किया जाता है।
Question : अल्ट्रासोनोग्राफी किसे कहते हैं?
(1996)
Answer : शरीर के किसी आंतरिक भाग या उत्तक के चित्र को प्राप्त करने के लिए 20,000 से 10 अरब आवृत्ति प्रति सेकेण्ड की आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों को रिकॉर्ड कर लिया जाता है। इस विधि को ही अल्ट्रासोनोग्राफी कहते हैं।
Question : निम्नलिखित का पूरा अर्थ क्या है?
(i)C-DOT
(ii)CGCRI
(iii)INMAS
(1996)
Answer : (i) C-DOT- सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमेटिक्स।
(ii) CGCRI सेंट्रल ग्लास एंड सिरामिक रिसर्च इंस्टीट्यूट।
(iii) INMAS- इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एलाइड साइंसेज।
Question : HIV क्या है? इससे क्या होता है?
(1996)
Answer : एच.आई.वी. एक वायरस है, जिसके प्रभाव से मानव एड्स का शिकार हो सकता है।
Question : चंद्रग्रहण केवल पूर्ण चंद्रमा की स्थिति में ही क्यों होता है?
(1996)
Answer : चंद्रग्रहण केवल पूर्ण चंद्रमा की स्थिति में ही होता है, क्योंकि इसी दिन चंद्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी आती है।
Question : निम्नलिखित कहां स्थित हैं (शहर और राज्य दोनों के नाम लिखिये)?
(i)केंद्रीय औषधि शोध संस्थान
(ii)अंतरिक्ष एप्लीकेशन केंद्र
(iii)इंदिरा गांधी आणविक शोध केंद्र
(1996)
Answer : (i) केंद्रीय औषधि शोध संस्थान - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)।
(ii) अंतरिक्ष एप्लीकेशन केंद्र - अहमदाबाद (गुजरात)।
(iii) इंदिरा गांधी आणविक शोध केंद्र - कलपक्कम (तमिलनाडु)।
Question : भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास में अंतरिक्ष कार्यक्रम किस प्रकार सहायता करता है? समझाकर लिखिये।
(1996)
Answer : झिलमिलाते तारों और प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों ने मनुष्य को अपनी पृथ्वी से हटकर अंतरिक्ष की ओर आकर्षित किया। वर्तमान वैज्ञानिक परिदृश्य में भारत उपग्रहों के निर्माण से लेकर अंतरिक्ष यान के सफल प्रक्षेपण तक में नित्य नयी ऊंचाइयां छू रहा है। भारत में 1972 में अंतरिक्ष आयोग तथा अंतरिक्ष विभाग के गठन से अंतरिक्ष कार्यक्रमों की औपचारिक शुरूआत की गई। इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य संचार, मौसम और संसाधनों के सर्वेक्षण तथा प्रबंधन के क्षेत्र में अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर आधारित सेवाएं उपलब्ध कराना तथा इसके लिए उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों तथा सम्बद्ध आधारभूत प्रणालियों को विकसित करना शामिल है।
पिछले दो दशकों में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम ने सामाजिक आर्थिक विकास के क्षेत्र में अच्छी तरह से समन्वित तथा स्वावलम्बी कार्यक्रमों के माध्यम से उल्लेखनीय प्रगति की है। अंतरिक्ष संचार ने देश में न केवल संचार क्षमता बढ़ायी है, बल्कि आपदा की पहले से चेतावनी देने, खोज एवं राहत कार्यों तथा सुदूर क्षेत्रों में दूरस्थ शिक्षा प्रदान करने में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। इसी तरह अंतरिक्ष दूर संवेदन से कृषि, मिट्टी, वानिकी, भूमि, जल संसाधनों, पर्यावरण, समुद्री विकास तथा सूखा और बाढ़ आपदा प्रबंध के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती हैं। योजना आयोग के सुझाव पर पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ विकास जारी रखने के लिए चलाये जा रहे समन्वित कार्यक्रम में उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का स्थानीय विशिष्टताओं की जानकारी हासिल करने में इस्तेमाल हो रहा है। उपग्रह के माध्यम से आपसी बातचीत के जरिये प्रभावशाली शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए कम लागत वाले विशेष उपकरण विकसित किये गये हैं। हरित क्रांति लाने तथा भारतीय संस्कृति में वैज्ञानिक विचारों और दृष्टिकोण को समाहित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता को मिटाना बहुत जरूरी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए ग्रामसैट उपग्रहों की नयी अवधारणा उभरी है, जो ग्रामीण क्षेत्रों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करेगी। इस तरह भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम राष्ट्रीय विकास के हर पहलू को छूता है।
Question : पी.एस.एल.वी. (PSLV) क्या है? भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में इसके महत्व का वर्णन कीजिए।
(1995)
Answer : पी.एस.एल.वी. (पोलर सैटेलाइट लॉचिंग वैहिकल) एक ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचक रॉकेट है। यह कृत्रिम उपग्रहों को पृथ्वी की ध्रुवीय कक्षा में स्थापित करने में सहायता करता है। अंतरिक्ष आधारित सेवाएं प्रदान करने के मामले में राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से भारत के अन्तरिक्ष कार्यक्रम में पी.एस.एल.वी. का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। इस दिशा में भारत ने उस समय एक मील का स्तंभ कायम कर लिया, जब 15 अक्टूबर, 1994 को प्रमोचित, 283 टन भारी, 44 मीटर लम्बे ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचक यान (पी.एस.एल.वी.) ने 804 किलोग्राम भार के भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह आई.आर.एस.पी.-2 को वांछित ध्रुवीय सूर्य तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित कर दिया। इसका तीसरा प्रक्षेपण 21 मार्च, 1996 को श्रीहरिकोटा से किया गया। पी.एस.एल.वी. डी-3 की सहायता से 930 किलोग्राम वजन वाला आई.आर.एस.पी.-3 उपग्रह पृथ्वी सतह से 817 कि.मी. ऊपर ध्रुवीय सूर्य तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित कर दिया गया। पहले इसी कार्य के लिए भारत को विदेशी प्रमोचित यानों का सहारा लेना पड़ता था। अब भारत उन 6 देशों के समूह में शामिल हो गया है, जिन्होंने बहु-विषयक प्रौद्योगिकीय रूप में ऐसी जटिल उपलब्धि हासिल कर ली है। पी.एस.एल.वी. डी-3 ने स्वदेशी रूप से निर्मित सुदूर संवेदन उपग्रहों को देश में ही प्रमोचित करने में भारत की क्षमता को अद्वितीय रूप से प्रदर्शित किया है। इस मिशन उड़ान के दौरान ऐसी अनेक प्रणालियों की भी जांच कर ली गई है, जिन्हें भू-तुल्यकालिक उपग्रह प्रमोचक यान (जी.एस.एल.वी.) में इस्तेमाल किया जायेगा। इसके साथ ही देश इनसैट श्रेणी के संचार उपग्रहों के प्रमोचन की क्षमता प्राप्त करने के निकट पहुंच गया है।
इन उपलब्धियों से भारत को सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि विदेशी प्रक्षेपण यानों को किराये पर लेने के लिए दी जाने वाली विदेशी मुद्रा की बचत होगी तथा व्यावसायिक तौर पर अन्य देशों के उपग्रहों को ध्रुवीय कक्षा में स्थापित करने की सुविधा प्रदान करके इससे विदेशी विनिमय भी अर्जित किया जा सकेगा। आवश्यकता पड़ने पर पी.एस.एल.वी. यान का प्रयोग युद्ध के दौरान मिसाइलों को छोड़ने के लिए भी किया जा सकता है। इस तरह यह कहना समीचीन होगा कि पी.एस.एल.वी. प्रक्षेपण यान का सफल प्रक्षेपण कर भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक लम्बी छलांग लगायी है।
Question : ‘करनाल प्रौद्योगिकी’ से आप क्या समझते हैं? इसका प्रयोग किसके लिए होता है?
(1995)
Answer : भूमि की लवणीयता और क्षारीयता के कारण भूमि की उत्पादक क्षमता में भारी कमी आती है। सदियों से हो रही उपेक्षा और कुप्रबन्धन के कारण भूमि लवणीय एवं क्षारीय हो जाती है। सेन्ट्रल सॉइल सैलिनिटी रिसर्च इंस्टीट्यूट (CSSRI), करनाल के आकलन के अनुसार भारत में लगभग 70 लाख हेक्टेयर लवण प्रभावित भूमि बिखरी हुई है। क्षारीय मृदा में बड़ी मात्रा में सोडियम काबोर्नेट और बाइकार्बोनेट उपस्थित होते हैं। परिणामस्वरूप, भूमि की सतह पर सोडियम संग्रहित हो जाता है और मृदा का pH मान बढ़ जाता है और जोते जाने पर ढेले बन जाते हैं। इससे खड़ी फसलों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसी मिट्टी मुख्यतः हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार में पायी जाती है। लवणीय मृदा में विलेय लवणों, जैसे- सोडियम, कैल्सियम एवं मैग्नेशियम के क्लोराइडों व सल्फेटों की अधिकता होती है। ऐसी मृदा गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पायी जाती है।
CSSRI करनाल के वैज्ञानिकों ने क्षारीय भूमि के सुधार हेतु एक प्रभावी, कम खर्चीली और सुगम तकनीक का विकास किया है, जिसे ‘करनाल प्रौद्योगिकी’ कहा गया है। इस तकनीक की महत्वपूर्ण विशेषता निम्नलिखित है-
करनाल प्रौद्योगिकी से लवणीय या क्षारीय भूमि में भी 3 से लेकर 4.5 टन प्रति हेक्टेयर तक गेहूं उगया जा सकता है। क्षारीय भूमि में सुधार की योजना केंद्र सरकार द्वारा सातवीं पंचवर्षीय योजना में क्रियान्वित की गई थी और अब आठवीं पंचवर्षीय योजना में भी हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में यह जारी है।
Question : ‘उल्बवेघन’ (एमीनियोसिंटेसिस) क्या है? यह तकनीक विवादास्पद क्यों बन गई है?
(1995)
Answer : गर्भस्थ गर्भस्थ शुशुओं में जन्मजात रोगों (डाउन्स सिण्ड्रोम आदि) तथा विकासात्मक एबना-मेर्लिटीज (स्पाइना बाइफीड़ा) का पता लगाने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली विधि को उल्बवेधन कहते हैं। इस विधि में गर्भवती महिला के 14वें या 15वें सप्ताह के गर्भकाल में महिला के गर्भाशय में पेट के रास्ते लम्बी सुई डाल कर भ्रूण के चारों ओर मौजूद उल्बान्मक तरल पदार्थ (Amniotic Fluid) को निकाल लिया जाता है। इस तरह पदार्थ में मौजूद भ्रूण कोशिकाओं का प्रयोगशाला के कल्चर करके उपर्युक्त रोगों एवं लक्षणों का पता लगाया जाता है। इस परीक्षण की आवश्यकता उस समय सबसे आवश्यक मानी जाती है, जब किसी दम्पत्ति के परिवार में आनुवांशिक रोग होने की जानकारी हो अथवा गर्भवती महिला की आयु 35 वर्ष से अधिक हो।
‘उल्बवेधन’तकनीक विवादास्पद बन गई है, क्योंकि इसके द्वारा सेक्स क्रोमोसोम्स का परीक्षण करके गर्भस्थ भ्रूण के लिंग का पता लगाया जा सकता है। शहरी क्षेत्रों में इस प्रकार के अनेक केंद्र स्थापित हो गये हैं, जो उल्बवेधन तकनीक का प्रयोग करके गर्भस्थ भ्रूण की पहचान करते हैं और ऐसा पाया गया है कि गर्भ में लड़की होने की जानकारी मिलने पर लोग अक्सर गर्भपात करा लेते हैं। अतः कई राज्य सरकारों ने इस समस्या की तरह ध्यान देते हुए बालिका भ्रूण हत्याओं को अपने यहां अवैध घोषित कर दिया है।
Question : एलिसा (ELISA) क्या है? यह किसके लिए प्रयुक्त होता है?
(1995)
Answer : एलिसा (ELISA) अर्थात Enzyme Linked एक एच.आई.वी.-1 एन्टीबॉडी है और इसका प्रयोग एड्स (Acquired Immune Deficiency Syndrome) से प्रभावित रोगियों में एच.आई.वी. संक्रमण की जांच के लिए किया जाता है।
Question : VSAT क्या है? वे किसके लिए प्रयुक्त होते हैं?
(1995)
Answer : VSAT ‘वेरी स्मॉल एपर्चर टर्मिनल्स’ (Very Small Aperture Terminals) का संक्षिप्त रूप है। इसमें उपग्रह नेटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रयोक्ताओं को कंप्यूटरों के माध्यम से जोड़ दिया जाता है। वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय स्टॉक एक्सचेंज 25 से अधिक शहरों में फैले अपने सदस्यों को VSAT के माध्यम से शेयर व्यापार की सुविधा उपलब्ध करा रहा है। निकनेट (NICNET) भारत का पहला VSAT नेटवर्क है।
Question : गतिप्रेरक (पेसमेकर) क्या है? वह किस प्रकार काम करता है?
(1995)
Answer : पेसमेकर वह यंत्र है, जो सामान्य स्वस्थ व्यक्ति के हृदय की अनियमित धड़कन को नियमित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। बैटरी चालित पेसमेकर को अनियमित हृदय धड़कन वाले व्यक्ति की त्वचा के नीचे आरोपित कर दिया जाता है। यह एक इलेक्ट्रॉनिक युक्ति है, जो हृदय की मांसपेशियों को झटका देकर उसकी गति को नियमित करती है।
Question : निम्नलिखित किनके लिए प्रयुक्त होते हैं-
(i)IREDA
(ii)APPLE
(iii)INMAS
(1995)
Answer : (i): IREDA- Indian Renewable Energy Development Agency (इण्डियन रिन्यूएबिल एनर्जी डेवलपमेंट एजेन्सी): बार-बार प्रयुक्त किये जा सकने वाले ऊर्जा स्रोतों- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैविक ऊर्जा आदि के विकास एवं प्रोन्नयन हेतु कार्य करने वाली सरकार द्वारा स्थापित एक संस्था।
(ii) APPLE- Ariane Passenger Pay Load Experiment (एरियन पैसेंजर पेलोड एक्सपेरीमेंट)- भारत का पहला प्रयोगात्मक संचार उपग्रह, जो यूरोपियन एरियन प्रक्षेपण वाहन से अन्तरिक्ष में स्थापित किया गया था।
(iii) INMAS- इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एण्ड एलाइड साइंसेस (Institute of Nuclear Medicine and Allied Sciences)।
Question : ‘न्यूक्लियर मेडिसिन क्या होती है? उसके विभिन्न उपयोग बताइये।
(1995)
Answer : 1931 में ई.ओ. लॉरेंस द्वारा साइक्लोट्रॉन का आविष्कार किया गया। 1934 में इन्होंने रेडियोधर्मी आयोडीन-131 का निर्माण किया। 1939 में हैमिल्टन ने पहली बार मानव शरीर में रेडियोधर्मी समस्थानिक के इकट्ठे होने की मात्रा ज्ञात की। 1948 में ब्रेन ट्यूमर का पता लगाने के लिए जॉन मूर ने रेडियोधर्मी आयोडीन युक्त डाइआयडो फ्रलोरेसीन नामक रासायनिक पदार्थ का उपयोग किया, परंतु उन्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिली। अतः उन्होंने ररेडियो आयोडीन युक्त एल्युमिन का उपयोग किया, जो शरीर के भीतर विभिन्न स्थानों पर रेडियोधर्मी समस्थानिकों के एकत्र होने से उत्पन्न रोगों को ज्ञात करने एवं निदान के लिए आवश्यक हैं।
रोगों के निदान में परंपरागत विधियों के असफल हो जाने पर आंतरिक रोगों की अवस्था का पता लगा कर उपचार किया जाता है। प्लीहा, यकृत एवं वृक्क के लिए आयोडीन-131 एवं क्रोमियम-51 का उपयोग किया जाता है। विटामिन बी-12 के अध्ययनों में Co-57, Co-58 एवं Co-60 के समस्थानिकों का उपयोग होता है। ट्यूमरों की जांच में गैलियम तथा मरकरी के समस्थानिकों का उपयोग होता है।